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बाल मन्द अरु मूढ़ का, उपमित जीवन देख । मुनि 'सुशील' जीवन मिटे, मनहुँ धूल की रेख । । २ । । क्रूर कार्यरत मूढ़ जन, करता दुख उत्पन्न। सुख अर्थी बनकर अरे, दुक्ख प्राप्त हो खिन्न । । ३ । । पुनि-पुनि कारण मोह से, जन्म-मरण संसार । बार-बार भव-चक्र में, तू तजि मोह विकार । । ४ । ।
• संशय विवेक •
मूलसूत्रम्
श्री आचारांगसूत्रम्
संसयं परियाणओ संसारे परिण्णाए भवइ ।
पद्यमय भावानुवाद
जो संशय को जानता, वह जाने संसार । जो संशय नहिं जानता, नहिं जाने जगसार । । • दोहरी मूर्खता •
मूलसूत्रम् -
जे छेए से सागारियं ण सेवए, कट्ट एवमवियाणओ बिइया मंदस्स बालया, लद्धा हुरत्था, पडिलेहाए आगमित्ता आणविज्जा अणासेवणयाए ।
पद्यमय भावानुवाद
मुनि 'सुशील' हैं निपुण वह, सत्य अर्थ स्वीकार । करे न सेवन भोग जो, लेता मैं बलिहार । । १ । । मैथुन सेवन कर अरे, रखता है जो गुप्त । दुहरी करता मूर्खता, कभी न हो विश्वस्त । । २ । । प्राप्त भोग फल का अरे ! सोचो तुम परिणाम | निश्चय दुखप्रद जानकर, तज तू त्रयविध काम । । ३ । ।