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पाँचवाँ अध्ययन : लोकसार
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.अविद्या भवचक्र. मूलसूत्रम्सययं मूढे धम्मं णाभिजाणइ, अट्टा पया माणव ? कम्मकोविया जे अणुवरया अविज्जाए पलिमुक्खमाहु आवट्टमेव अणुपरियटृति। त्ति बेमि। पद्यमय भावानुवाद- .
रे मानव तू मूढ़ अस, सुने न धर्मक मर्म। कभी नहीं तू जानता, नहीं तुझे कुछ शर्म।।१।। सब प्राणी रस विषय से, पीड़ित बारम्बार। बहुत कुशल हैं कर्म में, बढ़ा रहे संसार।।२।। आस्रव से दूरी नहीं, अरु है चित्त मलीन। भ्रान्त ज्ञान से मोक्ष हो, बतलाते मतिहीन।।३।। भंवररूप भवसिन्धु में, पुनि-पुनि चक्कर खाय। सूरि 'सुशील' चतुर्थ गति, कहो अन्त कब आय।।४।।
८ दूसरा उद्देशक -
• सनातन मार्ग. मूलसूत्रम्
__एस मग्गे आरिएहिं पवेइए उठ्ठिए णो पमायए। पद्यमय भावानुवाद
अहो ! सनातन मोक्ष पथ, आर्य पुरुष बतलाय। मुनि ‘सुशील' पुरुषार्थ से, निश्चय शिवसुख पाय।।१।। अप्रमत्त नर ही करे, निज-पर का कल्याण। प्रमाद न कबहू कीजिए, फरमाते भगवान।।२।।