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श्री आचारांगसूत्रम्
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मोक्षमार्ग में कष्ट जो, सहन करो मुनि वीर। मांस रक्त इस देह से, कर ले अल्प सुधीर।।४।। शुद्ध संयम में रमे, मुनि जीवन-पर्यन्त । मानव-भव की सफलता, पा लेता मतिवन्त।।५।। ब्रह्मचर्य सुख-दुर्ग में, करते श्रमण निवास। कर्मों को कमजोर कर, पा लेते शिव-वास।।६।।
• मोह तिमिर. मूलसूत्रम्
तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो णत्थि, त्ति बेमि।। पद्यमय भावानुवाद
मोहरूप अँधियार में, पड़े हुए जो लोग। मुक्तिमार्ग को नहिं लखे, रसिक बना सुख भोग।।१।। आज्ञा जो तीर्थेश की, लाभवन्त कब होय। भटक रहा भव सिन्धु में, कूल न पावे कोय।।२।।
• बोधि तत्त्व. मूलसूत्रम्
जस्सणत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कुओ सिया ? पद्यमय भावानुवाद
जिसका आदि न अन्त है, मध्य कहाँ से होय। बोधि भाव धारण करो, कहते ज्ञानी तोय।।१।। अपने-अपने कर्म जो, देते फल संसार। संचय अशुभ न कीजिए, जो चाहो सुख सार।।२।। ज्ञानवान सम्यक् अहो, नहीं उपाधिक होय । मुनि ‘सुशील' महिमा मही, कहते जिनवर तोय।।३।।