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चौथा अध्ययन : सम्यक्त्व
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पीड़ा पाये क्रोध से, उभय लोक में बन्धु । यही जान तज क्रोध तू, तिर जाये भव सिन्धु ।।३।। वर्तमान में क्रोध से, पाये दुख संसार। भावी जीवन में मिले, इससे कष्ट अपार ।।४।। यही जानकर त्याग दे, क्रोध पाप का मूल। लोक क्रोध से जल रहा, ज्यों पावक से तूल।।५।। पीड़ा के प्रतिकार हित, क्रोधी इत-उत भाग। जहाँ-तहाँ अपमान हो, करते लोग मजाक।।६।। पाये क्रोध निमित्त तू, जान नरक का हेतु । त्याग क्रोध को पाय नर, भव सागर का सेतु।।७।। नहीं जलाये आत्मा, क्रोधरूप जो आग। आगम के मर्मज्ञ जो, रखते शान्त दिमाग।।८।।
चौथा उद्देशक
• नव दीक्षित प्रबोध. मूलसूत्रम्आवीलए पवीलए णिप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसम, तम्हा अविमणे वीरे, सारए समिए सहिए सया जए, दुरणुचरो, मग्गो वीराणं अणियट्ट गामीणं, विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए, जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभेचेरंसि। पद्यमय भावानुवाद
नवदीक्षित मुनि के लिए, देते जिन उपदेश। पूर्व योग संयोग सब, करे कष्ट अवशेष।।१।। उपशम रस को प्राप्त कर, पीड़ित करे शरीर। विषयों और कषाय से, दूर रहे मुनि वीर।।२।।
संयम पालन भावना, पाँच समिति से युक्त। ........... उद्यम ज्ञानअराधना, क्रिया कुशल उपयुक्त।।३।।