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श्री आचारांगसूत्रम्
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• कर्मधुनन. मूलसूत्रम्इह आणाकंखी पंडिए। अणिहे एग मप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं। जहा जुण्णाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ, एवं अत्तसमाहिए अणिहे। विगिंच कोहं अविकंपमाणे। पद्यमय भावानुवाद
जिनशासन आज्ञा चले, पंडित वही कहाय। निज स्वरूप देखे सतत, कंपित करे कषाय।।१।। चेतन तन से भिन्न है, इसी सत्य को जान। तप से धुनो शरीर को, तब होगी पहचान।।२।। साधक अपनी देह को, जीर्ण करो दिन-रात। जीर्ण-शीर्ण करते रहो, समभावों के साथ ।।३।। जैसे पावक काष्ठ को, कर देती है नष्ट। आत्मसमाधि से जुड़ा, पा लेता फल इष्ट।।४।। राग-द्वेष से रहित जो, अविचल करता ध्यान। कर्मकाष्ठ को भस्मकर, बनता ईश महान ।।५।।
• क्रोध दशा. मूलसूत्रम्इमं णिरुद्धाउयं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाइं च फासे , लोयं च पास विफंदमाणं जे निव्वुडा पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया, तम्हा अइविज्जो णो पडिसंजलिज्जासि। पद्यमय भावानुवाद
क्षण भंगुर नर देह है, जिसको है यह बोध । रहे अकम्पित वह सदा, अरु छोड़ेगा क्रोध ।।१।। क्रोधी मानव आयु का, करता सत्वर नाश। यही जानकर त्याग दे, फरमाते अविनाश।।२।।