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चौथा अध्ययन : सम्यक्त्व
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मुनि 'सुशील' तुमको कभी, दुक्ख कभी प्रिय होय। चाह बनी क्यों सुक्ख की, आज बताओ मोय।।५।। परम अहिंसा धर्म को, कर लेता स्वीकार । तब उससे कहिए यही, अप्रिय दुख संसार।।६।। प्राणी भूत जीव सत्व, उनका एक उसूल। महादुक्ख कारण सतत, जीव-दया प्रतिकूल ।।७।।
तीसरा उद्देशक )
• तप-प्रबोध. मूलसूत्रम्
एवमाहु सम्मत दंसिणो। पद्यमय भावानुवाद
तीर्थंकर भगवन्त ने, फरमाया त्रय काल । समता में ही धर्म है, तज मन मिथ्या चाल।।१।। शक्ति पराक्रम को कभी, साधक रखे न गुप्त। तप में रख ले बीरता, बनकर तू निर्लिप्त ।।२।।
• राग-विराग. मूलसूत्रम्
नरा मुयचा धम्मविउत्ति अंजू।। पद्यमय भावानुवाद
जैसे मुर्दा देह पर, करते नव शृंगार। अरे राग उसको कहाँ, यह अनुभव उर धार।।१।। अनासक्त जो देह से, वही जानता धर्म। जो जानेगा धर्म को, वही सरल यह मर्म ।।२।। हिंसा दुख का मूल है, होते दुख उत्पन्न। इसीलिए कर लीजिए, हिंसा अघ को छिन्न।।३।।