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श्री आचारांगसूत्रम्
कर्म अघाती चार जो, जन्म-ग्रहण का द्वार । अरे धीर कर दूर तू, मूल कर्म जो चार । । २ । । आत्मदर्शी होय तू, कर्मबन्ध तू काट। मुनि 'सुशील' साधन सुलभ, अहो ! मोक्ष सम्राट् । । ३ ।। घाति - अघातिक कर्म •
मूलसूत्रम् -
एस मरणा पमुच्चइ से हु दिट्ठभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्त जीवी वसंते समिए सहिए सया जए कालकंखी परिव्वए, बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं ।
पद्यमय भावानुवाद
मुनि 'सुशील' नित देखता, सातों गुण संसार । श्रेष्ठ मोक्ष पद प्राप्त हो, संयम नित अतिचार । । १ । । राग-द्वेष से रहित हो, रहे निपट एकान्त । शान्त समिति हो ज्ञानयुत, साधक मन उपशान्त । । २ । । कभी न हो यमराज से, उत्सुक अरु भयभीत । संयमचारी शुद्ध मुनि, लेते भवरण जीत । । ३।।
सातों गुण धारण करे, वही श्रमण है शूर । पहला गुण है मोक्ष पद, राग-द्वेष से दूर । । ४ । । करे कषायों का शमन, तीजा गुण पहचान । युक्त समितियाँ पाँच हैं, चौथा ले यह जान । । ५ । । संयम-साधन यत्न कर, पंचम गुण यह मान । समाधिमरण गुण है छठा, सप्तम दर्शन - ज्ञान । । ६ ।।