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कर्म वृक्ष का अग्र और मूल 'अग्र' और 'मूल' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। जैसे-वेदनीयादि चार अघाति कर्म अग्र है। मोहनीय आदि चार घाति कर्म मूल हैं।
मोहनीय सब कर्मों का मूल है, शेष सात कर्म अग्र हैं।
साधक कर्मों के अग्र अर्थात् परिणाम और मूल अर्थात् जड़ (मुख्य कारण) दोनों पर विवेक-बुद्धि से चिन्तन करता है। किसी भी दुष्कर्मजनित कष्ट के केवल अग्र = परिणाम पर विचार करने से वह मिटता नहीं, उसके मूल पर ध्यान देना जरूरी है। कर्मजनित दुःखों का मूल मोहनीय कर्म है, शेष सब उसके पत्र-पुष्प हैं। असंयत की चंचल चित्त वृत्ति
जो मनुष्य धन व भोगोपभोग की वस्तुओं से अपनी इच्छा को तृप्त करना चाहता है, वह ऐसा बाल प्रयास करता है जैसे कोई व्यक्ति झरने की जलधारा से चलनी को भरना चाहता है।