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तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय
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पद्यमय भावानुवाद
अरे! यहाँ नरलोक में, सब जीवों के साथ। हिंसा से बन्धन बढ़े, तजिए पातिक भ्रात ।।१।। हिंसादिक आरम्भ से, जीवन होइ व्यतीत । बंधन तोड़ो राग के, तभी होइ भव जीत ।।२।। जो भी मोहित काम में, होता बारम्बार । संचय करता कर्म का, निष्फल नर अवतार ।।३।। कर्मों से भारी बना, जाता भव सर डूब । पुनि-पुनि गर्भावास में, दुक्ख पायेगा खूब ।।४।।
• बाल संग निषेध. मूलसूत्रम्अवि से हासमासज्ज, हंता णंदीति मण्णइ। अलं बालस्स संगेणं, वेरं वड्डइ अप्पणो।।३।। पद्यमय भावानुवाद
मानव-कामासक्त जो, रचता हास-प्रसंग। जीवों का वध कर रहा, क्रीड़ा भाव उमंग ।।१।। अरे अज्ञानी जीव तू, व्यर्थ ही बैर बढ़ाय। संग करे नहिं बाल का, ज्ञानी जन समझाय।।२।।
• पापभीरू. मूलसूत्रम्तम्हा तिविज्जो परमंति णच्चा, आयंकदंसी ण करेइ पावं।
अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे, पलिच्छिदिया णं णिक्कम्मदंसी।। पद्यमय भावानुवाद
डरता है जो नरक से, पापकर्म भय भीरु । वही जानता मोक्ष गति, अतिशय युत नर धीरु।।१।।