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तीसरा अध्ययन : शीतोष्णीय
छन्द कुंडलिया
अप्रमत्त मुनि ही सदा, काम-भोग से दूर । उपरत रहता पाप से, आत्मगुप्त मुनि शूर । । आत्मगुप्त मुनि शूर, जानता क्षेत्र शस्त्र को । वह साधक क्षेत्रज्ञ, बिसारे राग-द्वेष को ।। विषयों से हो विमुख, हो आत्मरमण में व्यस्त । वीर-धीर वह श्रमण, आत्मवान ही अप्रमत्त । । ८ । । .
दोहा
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शब्दादिक सुख के लिए, करते घात अनेक । जानें पीड़ा को वही, जिनका संयम नेक । । ९ । ।
संयम शुभ आचार में, परिचित परिषह कष्ट । वही सावद्यकार्य के, ज्ञाता फल जु अनिष्ट । । १० । । अहो ! कर्म से रहित जो, जन्म-मरण हो क्षार । फिर नहिं आना लोक यह, बन्द होय दुख द्वार । । ११ । । होतीं प्राप्त उपाधियाँ, कारण कर्म कहाय । क्षय हित साधन कीजिए, अहो ! मनुज भव पाय । । १२ ।। कर्म मूलोदय •
मूलसूत्रम् -
कम्ममूलं च जं छणं, पंडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिण्णाय मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसण्णं से मेहावी परक्कमिज्जासि ।
पद्यमय भावानुवाद
कर्ममूल कारण यही, हिंसा अरु छल-छन्द ।
सर्वदेशना ग्रहण कर पाये निज आनन्द । । १ । ।
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