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श्री आचारांगसूत्रम्
• भाव निद्रा निषेध. मूलसूत्रम्पासिय आउरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए, मंता एयं मइमं पास आरंभजं दुक्खमिणत्ति पच्चा, माई पमाई पुण एइ गब्भं, उवेहमाणो सहरूवेसु अंजू माराभिसंकी मरणा पमुच्चइ, अप्पमत्तो कामेहं, उवरओ पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते जे खेयण्णे, जे पज्जवजायसत्थस्स खेयण्णे, से असत्थस्स खेयण्णे, जे असत्थस्स खेयण्णे से पज्जवजायसत्थस्स खेयण्णे, अकम्मस्स ववहारो ण विज्जइ, कम्मुणा उवाही जायइ, कम्म च पडिलेहाए। पद्यमय भावानुवाद
आतुर-व्याकुल जीव की, दशा देख धर ध्यान। .. अप्रमत्त हो विचरण करो, जन्म-मरण पहचान।।१।। भाव नींद में मस्त जो, उनकी दशा निहार । बुद्धिमान तू देख ले, मत डूबे मँझधार।।२।। भाव शयन का ख्याल जो, करता सत्वर छीन। भाव नींद फल जान तू, रे! रे! पुरुष प्रवीन।।३।। होता दुख आरम्भ से, देखा विविध प्रकार। इसीलिए आरम्भ का, कर लेना परिहार ।।४।। मायावी मानव सभी, और प्रमादी लोग। पुनि-पुनि जननी जठर में, पाते हैं संयोग।।५।। पंचेन्द्रिय के विषय में, नहीं राग नहिं द्वेष । वह मानव संसार में, सच्चा सरल विशेष।।६।। आशंकित जो मृत्यु से, मृत्यु मुक्त बन जाय। यह प्रयत्न कर लीजिए, आलम्बन सुखदाय।।७।।