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दूसरा अध्ययन : लोक विजय
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कारण सातों नरक का, तिर्यंच भव तैयार । दुख से पीड़ित मूढ़ नर, क्यों न धर्म से प्यार।।८।। सुना वचन अनमोल यह, महा मोह तिय मूल। अहो! वीर उद्घोष है, नहिं प्रमाद में फूल ।।९।। अन्तर्दर्शी कुशल वह, एक बात ले जान। आत्मवान् बनकर रहे, पाये लक्ष्य महान्।।१०।। आत्म-तत्त्व चैतन्य को, नित्य समझ अविवाद। नश्वर तेरी देह है, करना नहीं प्रमाद ।।११।। अधिक भोग भी प्राप्त हो, इच्छा हो कब पूर्ण। जगत् भोग नश्वर सभी, क्यों करता भव चूर्ण।।१२।।
.वीर श्रमण. मूलसूत्रम्एवं पास मूणी ! महब्भयं, णाइवाएज्ज कंचणं, एस वीरे पसंसिए, जेण णिविज्जइ आयाणाए, ण मे देइ ण कुप्पिज्जा, थोवं लद्धं ण खिंसए, पडिसेहिओ परिणमिज्जा, एयं मोणं समणुवासिज्जासि त्ति बेमि। पद्यमय भावानुवाद
मुनियों को उपदेश दें, अहो! जिनागमकार। विषसम भयकारक महा, भोग-रूप संसार ।।१।। वही विवेकी नर सदा, समदर्शी अरु धीर। तजे विषय रस लालसा, वही पुरुष है वीर ।।२।। जो त्यागी संसार-सुख, वही जीव है धन्य। देव-लोक गुणगान हो, नर-भव सम नहिं अन्य।।३।। परिषह सहता धीर मन, वही संयमी सन्त। महाव्रती संसार में, करें दुखों का अन्त ।।४।।