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दूसरा अध्ययन : लोक विजय
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पद्यमय भावानुवाद
किसी एक. षट्काय के, करे प्राण को नष्ट। सर्व काय हिंसा करे, ज्ञानी वचन स्पष्ट।।१।। सुख सांसारिक कामना, करता सावदयोग। स्वयं कमाये कर्म से, पावे दुख संयोग।।२।। कारण स्वंय प्रमाद का, पृथक् पृथक् हो रूप। करता वह भव-वृद्धि को, पाये दुख भव कूप।।३।। जिससे द्वय विधि कष्ट हो, करे नहीं वह कार्य। बस इतना संक्षेप में, कहते ज्ञानी आर्य ।।४।। परिग्रह के हेतु से, होता दुक्ख महान। यह जाने वह साधु है, यही परिज्ञा ज्ञान।।५।।
• संयम विवेक. मूलसूत्रम्जे ममाइयमई जहाइ से चयइ ममाइयं। से हु दिट्ठपहे मुणी जस्स णस्थि ममाइयं। तं परिणाइ मेहावी विइत्ता लोगं वंता लोगसण्णं से मइमं परिक्कमिज्जासि। णारइ सहइ वीरे, वीरे ण सहइ रतिं। जम्हा अविमणे वीरे, तम्हा वीरे ण रज्जइ। पद्यमय भावानुवाद
अहो! वही साधक कुशल, ममत्व मति परिहार। मोक्षमार्ग द्रष्टा वही, जाने शिवपुर द्वार।।१।। जाने लोकस्वरूप को, मेधावी इन्सान। त्यागे संज्ञा लोक की, पाले संयम ज्ञान।।२।। करे न संयम में अरति, वीर पुरुष आचार। करे न रति सुख-भोग में, वही निष्ठ अणगार ।।३।। वीर पुरुष रागी नहीं, नहीं विषय से मोह। क्या तृण भी खंडित करे, खड़ी लाट जो लोह।।४।।