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दूसरा अध्ययन : लोक विजय
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समभाव - देशना •
मूलसूत्रम् -
जं दुक्खं पवेइयं इह माणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति, इति कम्मं परिण्णाय सव्वसो जे अणण्णदंसी से अणण्णारामे, जे अणणारामे से अणण्णदंसी, जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ, जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुण्णस्स कत्थइ ।
पद्यमय भावानुवाद
श्री जिनवर वर्णन किया, दुक्खालय संसार । कुशल पुरुष यह जानकर, त्यागे जगत् असार । । १ । । कारण है जो कर्म का, साधक पहले जान । तीन करण त्रय योग से, करतें प्रत्याख्यान ।। २ ।। मोह - वित्त-परिवार सब, कहें लोक-संयोग । होइ प्रशंसित वह श्रमण, रत जो लोक-वियोग । । ३ । ।
क्या कारण हैं दुक्ख के, जाने मुनि सो दक्ष । मार्ग बताये मुक्ति का, रहे सदा निष्पक्ष ।।४।। निर्धन और धनाढ्य में, जो मुनि है समद्रष्ट । धर्मपथी दोनों उसे, रहें इष्ट । । ५ । । पुण्यवान बलवान को, जो वहीं देशना तुच्छ को, फरमाते दीन हीन नर तुच्छ को, जो देते उपदेश । वही देशना भूप को, फरमाते श्रमणेश ।।७।। • देशना - विवेक •
एक-से देते उपदेश ।
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श्रमणेश । । ६ । ।
मूलसूत्रम् -
अविय हणे अणाइय माणे, एत्थंपि जाण सेयंति णत्थि, केऽयं पुरिसे कंच गए। एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडिमोयए, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु, से सव्वओ सव्वपरिण्णाचारी, ण लिप्पड़ छणपएणं वीरे, से