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श्री आचारांगसूत्रम्
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• समत्वदर्शी. मूलसूत्रम्
सद्दे फासे अहियासमाणे, णिव्विद णंदि इह जीवियस्स। मुणी मोणं समायाय, धुणे कम्मसरीरगं।। पंतं लूहं सेवंति, वीरा सम्मत्तदंसिणो।
एस ओहंतरे मुणी तिण्णे, मुत्ते विरए वियाहिए।। पद्यमय भावानुवाद
शब्द-रूप में रत रहे, रहे विषय में डूब । संयम-सुख है एक रस, मुनि 'सुशील' मत ऊब।।१।। भव-भव भटका है अरे, क्यों नहिं समझे मूढ़। समता रस का पान कर, यही ज्ञान है गूढ़।।२।। वीर श्रमण नीरस अशन, सेवन हित स्वीकार। मुक्त विरत माना गया, तिर जाए भव धार ।।३।।
• मुनि-अमुनि बोध. मूलसूत्रम्दुव्वसु मुणी अणाणाए, तुच्छए गिलाए वत्तए, एस वीरे पसंसिए, अच्चेइ लोय संजोगं, एस णाए पवुच्चइ। .. पद्यमय भावानुवाद
आगम आज्ञा-भंगरत, मुनिवर जो स्वच्छन्द । मोक्षगमन के योग्य नहिं, ज्ञान-ध्यान में मन्द।।१।। श्रावक पृच्छा जब करे, तो उत्तर नहिं पाय। आत्म-ग्लानि हो श्रमण मन, पुनि-पुनि वह पछताय।।२।। वही प्रशंसा योग्य मुनि, कर्म विदारण वीर। सांसारिक संयोग तज, लँघ जाता भव तीर।।३।। न्याय मार्ग उपर्युक्त यह, फरमाते भगवन्त। सूरि 'सुशील' सुभावना, करे कर्म का अन्त ।।४।।