________________
श्री आचारांगसूत्रम्
मेहावी अणुग्घायणस्स खेयण्णे, जे य बंधपमुक्खमण्णेसी कुसले पुण
बद्धेो मुक्के
* ६४ *
पद्यमय भावानुवाद
धर्मकथा व्याख्यान में, पर दर्शन प्रतिकार । अपमानित राजा करे, मुनि पर करे प्रहार । । १ । । वक्ता पहले समझ तू, श्रोतादिक नर कौन । अविधियुक्त मत बोल तू, उससे अच्छा मौन । । २ । । किस दर्शक की मान्यता, दर्शक की पहचान । फिर देता उपदेश वह, वक्ता जो धीमान । । ३ । ।
द्रव्य क्षेत्र अरु काल का, करना भाव विचार । फिर देना उपदेश मुनि, जन-जन का उपकार ।।४।।
अधो ऊर्ध्व तिरछी दिशा, जीव कर्म से बन्ध । वह समर्थ जो कर्म के, अरे ! मिटाये फन्द । । ५ । । वह साधक सब काल में, मंडित सर्व प्रकार । सब संवर चारित्र से, भूषित बारम्बार । । ६ । । रखता हिंसा से अरति, कुशल कर्म हित नाश । वह मेधावी वीर है, करता सफल प्रयास । ।७।।
अन्वेषण करता रहे, काटन कर्म उपाय । घाति कर्म का क्षय करे, वही मुक्त बन जाय । । ८ । ।
कुशल पुरुष कृत्य •
मूलसूत्रम्
से जंच आरभे ज च णारभे, अणारद्धं च ण आरभे, छणं छणं परिण्णाय लोगसण्णं च सव्वसो ।
पद्यमय भावानुवाद
कुशल पुरुष जो कर रहे, वही कार्य स्वीकार । कुशल पुरुष जो नहिं करे, वही कार्य इनकार । । १ । ।