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दूसरा अध्ययन : लोक विजय
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बाहर-भीतर एक-सी, भीतर-बाहर एक। है अशुचिमय देह नर, कह 'सुशील' पद टेक।।८।। सतत मूत्र मल बह रहा, लख तन के नौ द्वार। पंडित देह स्वरूप को, समझें भली प्रकार ।।९।। नर-तन साधन-देह है, नहीं भोग-हित देह। मुनि 'सुशील' साधन करो, मिलता शिवपुर गेह।।१०।। जानो देह-अशुद्धि को, जान भोग-परिणाम। वमन किया क्यों चाहता, मन पर लगा लगाम।।११।।
• बुद्धिमान परीक्षा. मूलसूत्रम्से मइमं परिण्णाय मा य हु लालं पच्चासी, मा तेसु तिरिच्छमप्पाणमावायए। कासंकसे खलु अयं पुरिसे, बहुमाई कडेण मूढे, पुणो तं करेइ लोहं वेरं वड्ढ़ेइ अप्पणो। जमिणं परिकाहिज्जइ इमस्स चेव पडिवूहणयाए। अमरायइ महासड्ढी अट्टमेयं तुं पेहाए अपरिण्णाए कंदइ। पद्यमय भावानुवाद
बुद्धिमान साधक वही, विषय-भोग दुख ज्ञात। किंचित् इच्छा नहिं करो, स्वप्न काल में भ्रात।।१।। विषय-भोग सुख त्यागकर, पुनरपि क्यों ललचाय। जैसे मुख की लार को, अरे कौन खा जाय।।२।। साधक अपनी आत्मा, सम्यक् दर्शन ज्ञान । नहीं विमुख चारित्र से, इतना रखना ध्यान।।३।। सम्यक् दर्शन-ज्ञान से, अगर हुआ प्रतिकूल। निश्चय ही तू पायेगा, जन्म-मरण के शूल।।४।। जिससे माया बहुत ही, करता मानव मूढ़। केवल संकट भोगता, अर्थ न जाने गूढ़।।५।।