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श्री आचारांगसूत्रम्
अगर गृही मुनि को न दे, कभी अशन का दान। फिर भी करना क्रोध नहिं, धर्मवीर मतिमान।।५।। या फिर श्रावक हाथ से, मिलता अल्पाहार। तो भी निन्दा मत करो, समभावी अनगार।।६।। करता गृही निषेध जब, फिर मत जाना द्वार। लौट चलो निज वास पर, समता ले अनगार।।७।। वीरव्रती मुनिराज तू, सम्यक् भाव विचार। व्रताचरण करना सुखद, हो जाए भव पार ।।८।।
गार।।७।।
पाँचवाँ उद्देशक
• परिग्रह निषेध. मूलसूत्रम्जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं लोगस्स कम्मसमारम्भा कज्जंति, तं जहा-अप्पणे से पुत्ताणं धूयाणं सुण्हाणं णाइणं धाईणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आएसाए पुढो पहेणाए सामासाए पायरासाए, संणिहिसंणिचओ कज्जइ, इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए। पद्यमय भावानुवाद
जिन्हें लोक की है नहीं, किंचित् भी पहचान। कष्ट-नाश उद्यम करें, इन्द्रिय-सुख अरमान।।१।। सुत-वनिता परिवारहित, करें शस्त्र उपयोग। सेवक दासी ज्ञातिजन, हिंसा का लें योग।।२।। सुबह-शाम के अशन-हित, करते कर्म अनेक। समारम्भ कर कर्म का, रहते शून्य विवेक।।३।। संचय नाना वस्तु का, करते लोग अनेक। अपरिग्रह सिद्धान्त पर, कर ले जरा विवेक।।४।।