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श्री आचारांगसूत्रम्
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कामभोग की लालसा, रखने वाले लोग। निश्चय होता शोक तब, जब होता प्राप्त वियोग।।३।। मर्यादा से भ्रष्ट हो, पद-पद खेद अमाप। सिर पर कर धर हो दुखी, करता पश्चात्ताप।।४।।
• दीर्घदष्टि बोध. मूलसूत्रम्आयतचक्खू लोगविपस्सी लोगस्स अहोभागं जाणइ, उड्ढं भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ। गडिए लोए अणुपरियट्टमाणे। संधि विइत्ता इह मच्चिएहिं। एस वीरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए। जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो। अंतो अंतो पूइ देहंतराणि पासइ पुढो वि सवंताई पंडिए पडिलेहाए। पद्यमय भावानुवाद
आयतलोचन देखता, ऊर्ध्व-अधो-तिर्यक । 'दर्शी है वह लोक का, संयम-रत निश्शंक।।१।। विषयभोग संसार में, जो नर हों आसक्त। परिभ्रमण करते रहें, फरमायें भगवन्त ।।२।। मनुज-जन्म में प्राप्त हो, ज्ञानादिक फल सार। त्यागो विषयकषाय को, काम-भोग निस्सार ।।३।। महितल में मानव अहो! वही धीर अरू वीर। श्रमण प्रशंसा योग्य वह, हरे काम रस पीर ।।४।। द्रव्य-भाव द्वय कर्म से, स्वयं मुक्त मतिमान। मुक्त कराये अन्य को, पर तारक गुणवान ।।५।। बाह्य बन्धन भग्न रत, अन्तर बन्धन भंग। करता सच्चा वीर वह, लेता भव जल लंघ।।६।। जैसे परिजन मोह को, पलभर में कर दूर । वैसे राग कषाय को, करता चकनाचूर ।।७।।