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दूसरा अध्ययन : लोक विजय
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राग-द्वेष आसक्त हो, पीड़ा प्रबल कषाय। अज्ञानी आसक्त नित, विषय भोग ललचाय।।२।। विषय भोग दुख रूप है, मिलते कष्ट हमेश। दुखी जीव दुखचक्र में, पाये नित्य कलेश।।३।।
चौथा उद्देशक
•कर्मवाद सिद्धान्त. मूलसूत्रम्तओ से एगया रोग समुप्पाया समुप्पज्जंति, जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते एव णं एगया णियया पुट्विं परिवयंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवइज्जा, णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिंणालं ताणाए वा सरणाए वा, जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं, भोगामेव अणुसोयति इहमेगेसिं माणवाणं। पद्यमय भावानुवाद
अरे अज्ञानी मूढ़ नर, करता क्यों अन्याय। विषयों का सेवन करे, आधि-व्याधि प्रकटाय।।१।। रहता जिनके साथ में, वे सब प्यारे लोग। करते जब अवहेलना, अरु निन्दा बेरोक ।।२।। ज्ञानी जन कहते सभी, सदा एक ही बात। तेरे प्यारे लोग जो, नहीं निभायें साथ।।३।। समर्थ कब संसार में, दें कि शरण अरु त्राण। खुद ही सुख-दुख भोगना, बस इतना ले जान।।४।। कर्मवाद सिद्धान्त का, अनुपम निर्मल ज्ञान। क्यों घबराये कष्ट से, स्वयं किया यह जान।।५।। कितने प्राणी रोग में, बन जाते लाचार । - कष्ट भोग का अन्त है, ये ही सत्य विचार ।।६।।