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श्री आचारांगसूत्रम्
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जैनागम प्रतिलेखना, सम्यक् होती नाय । लेखन में अति दोष है, पूर्व सूरि फरमाय।।२४५ । । पुस्तक भार उपाधि से, संयम जाते हार। आज्ञा कब जिनराज की, परिग्रह भय संसार।।२४६ । । पुस्तक से स्वाध्याय में, रहता नित्य प्रमाद। इसीलिए लेखन नहीं, करना व्यर्थ विवाद।।२४७ ।। श्री बृहत्कल्प भाष्य में, फरमाते गणवृन्द। साधक पुस्तक खोलता, अथवा करता बन्द ।।२४८ । । जितनी-जितनी बार में, अक्षर-लेखन होय। चतुर्लघु का प्रायश्चित्त, संशय करे न कोय।।२४९ । । अरे पुरातन समय में, बातें बहुत विरोध। .. तऊ अनुग्रह संत का, लिखते आगम शोध।।२५० ।।
स्वाध्याय निषेध का बोध सूरि 'सुशील' सिद्धान्त जिन, धारे शुद्ध श्रद्धान। वचनामृत उर पान कर, भक्ति रसिक बहुमान।।२५१ ।। सम्यक् ज्ञानी जीव हो, सुमति युक्त स्वाध्याय। प्रज्ञापना के प्रथम पद, आगम में समझाय।।२५२ ।। असज्झाय चौंतीस तज, प्रतिदिन भव्य विचार। नव्य ज्ञान अभिवृद्धि हो, आगम का उद्गार ।।२५३ ।।
स्वाध्याय-निषेध-विचार नभ में तारा-पतन हो, चपला चमक अकाल। आगम की सज्झाय तू, एक प्रहर तक टाल।।२५४।। किसी दिशा में दाह हो, धक्-धक् दहके आग। दाह शान्त के काल तक, स्वाध्याय रस त्याग।।२५५ ।।