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जब तक इन्द्रिय क्षीण नहिं, तब तक बाजी हाथ । प्रवृत्ति हो सद्धर्म में, बस इतनी सी
• पण्डित हितोपदेश •
मूलसूत्रम् -
पद्यमय भावानुवाद
श्री आचारांगसूत्रम्
खणं जाणाहि पंडिए ।
बात । । ३ । ।
रे! पण्डित क्षणमात्र भी, होइ न तुझे प्रमाद |
उत्तम अवसर प्राप्त यह, बस इतना रख याद ।। १ ।।
पद्यमय भावानुवाद
भव्य मनुज का लक्ष्य यह, कहते आगमकार । जब तक है नीरोग तन, कर ले आत्मोद्धार । । २ । ।
• धर्माचरण पुरुषार्थ बोध •
मूलसूत्रम् -
जाव सोय - परिण्णाणा अपरिहीणा, णेत्तपरिण्णाणा अपरिहीणा, घाणपरिण्णाणा अपरिहीणा, जीह परिण्णाणा अपरिहीणा, फरिसपरिण्णाणा अपरिहीणा, इच्चेएहिं विरूवरूवेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आयट्टं सम्मं समणु वासिज्जासि । । त्ति बेमि ।।
जब तक पाँचों इन्द्रियाँ, नहिं हो पातीं क्षीण । तब तक धर्माराधना, कर ले तू तल्लीन । । १ । । नहीं भरोसा देह का, कब हो जाए नष्ट । अतः करो धर्माचरण, ज्ञानी भाव स्पष्ट । । २ । । अवसर जब चुक जायेगा, होगा पश्चात्ताप । सूरि 'सुशील' शिक्षा सुखद, चिन्तन कर लो आप । । ३ । ।