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श्री आचारांगसूत्रम्
जीवन यौवन जा रहा, ज्यों सरिता का वेग । तत्परता से प्राप्त कर, अहो ! धर्म-संवेग । । ३ । ।
मूढात्मा चिन्तन
मूलसूत्रम् -
जीविए इह जे पत्ता । से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्दवित्ता उत्तासइत्ता । अकडं करिस्सामित्ति मण्णमाणे । जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वाणं एगया, णियगा तं, पुव्विं पोसेंति, सो वा ते णियगे पच्छा पोसिज्जा ।
पद्यमय भावानुवाद
है प्रमाद में रात-दिन, अज्ञानी इन्सान । विस्मृत करता धर्म को, कैसे हो कल्याण । । १ । । प्राणी वध की लालसा, करता है दिन-रात । छेदन - भेदन- हनन से, बाल जीव कहलात । । २ । । ग्रन्थी - भेदन कर रहा, और इन्द्रियाँ छेद । विषशस्त्रादि प्रयोग कर, पहुँचाये परखेद । । ३ ।। मूढ़ जीव चिन्तन करे, करना नूतन काम । नहीं किसी ने जो किया, वह करना अविराम । । ४ । ।
पिता पुत्र पोषण करे, करे पिता का पुत्र । मिथ्या है अपनत्व यह, तो भी शरण न मित्र । । ५ । ।
• वित्त - बुभुक्षु जीवात्मा
मूलसूत्रम्
उवाइयसेसेण वा संन्निहि - संणिचओ कज्जइ, इहमेगेसिं असंजयाणं भोयणाए । तओ से एगया रोग समुप्पाया समुप्पज्जति । जेहिं वा सद्धिं संवसइ ते वाणं एगया नियगा पुव्विं परिहरति, सो वा ते नियगे पच्छा परिहरेज्जा ।