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श्री आचारांगसूत्रम्
शव पंचेन्द्रिय का पड़ा, पाठक भवन निवास। स्वाध्याय नहीं कीजिए, कर आगम विश्वास।।२६७।। भाद्राषाढ़ासोज कह, कार्तिक अरु मधुमास । राका तिथि अरु प्रतिपदा, मान्य नहीं तिथि खास।।२६८।। स्वाध्याय नहीं कीजिए, सन्धि समय जो चार । सूरि ‘सुशील' सूत्र वचन, सदा सत्य हितकार।।२६९ । ।
जिनवाणी की वर्तमान स्थिति वर्तमान कलिकाल में, आगम रूप हजार। उथल-पुथल के अर्थ से, हो संशय विस्तार ।।२७० ।। जिन-प्रतिमा वर्णन अहा! देते शीघ्र निकाल। मनमानी वे कर रहे, मानव नहीं विडाल ।।२७१ ।। चैत्य अर्थ को भग्न कर, लिखते ज्ञान प्रधान। यह प्रत्यक्ष में मूढ़ता, मिथ्यात्वी मतिमान।।२७२ ।। मूल सूत्र को बदलकर, लिखते पाठ नवीन । करे उत्सूत्र प्ररूपणा, ये मानव मति हीन।।२७३ । । सूत्र परिचय न्यून अब, कथारसिक नादान। इधर-उधर की बात पर, देते मुनि व्याख्यान ।।२७४।। शब्द-शुद्धि चिन्तन नहीं, गृहीत अपना पक्ष । जिससे मनुज मिथ्यात्वी, केवल महि यश लक्ष ।।२७५ । । अभयदेव श्रीमद श्रमण, नवांग टीकाकार। चैत्य अर्थ जिनमूर्ति ही, फरमाया उद्गार ।।२७६ । । टीका भाष्य व चूर्णि का, क्यों करते इनकार । अरे कहो इसके बिना, प्राप्त न अर्थ विचार।।२७७ ।। चैत्य विरोधी लोग जो, करते अति अन्याय। दुरित वृद्धि कर स्वयं ही, लेते जनम बढ़ाय।।२७८ ।।