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श्री आचारांगसूत्रम्
पूर्व समय आगम अधिक, सम्प्रति पैंतालीस । अमृत कुपिका तुल्य है, फरमाते जगदीश । । १५५ । ।
श्री गणधर श्रुत केवली, प्रत्येकबुद्ध भगवान । अभिन्न दश पूर्वधरी, रचित सूत्र पहचान । । १५६ । । युक्ति- युक्त हैं जिनवचन, सत्य सनातन ग्रन्थ । मुनि 'सुशील' हैं सुगम पथ, ऐसा अन्य न पंथ । । १५७ ।। सत् शास्त्र जीवन प्रभा, जैनागम उपकार । मुनि 'सुशील' हैं शान्ति का, यह अक्षय आगार । । १५८ । । अंधों को हैं नेत्र सम, आगम सूत्र महान । मिथ्यावादी अन्ध हैं, भटकें सकल जहान । । १५९ ।।
आगम गुण गायन सतत, भव्य करे भव अन्त । आजीवन श्रद्धा यही, सत्य भाव निर्ग्रन्थ । । १६० ।। अगणित गुण गरिमा अहो ! जैनागम मार्तण्ड । मिथ्यादृष्टि उलूक ज्यों, रहें तिमिर पाखण्ड । । १६१ । । निर्युक्ति टीका भाष्य अरु, चूर्णि आगम बोध । भव भीरु श्री सूरीश्वर की रचना अति शोध । । १६२ । । शाश्वत आगम भाव से, सब जिनवाणी एक । केवल भिन्न हो शब्द से, होते पात्र अनेक । । १६३ । ।
आगम अध्ययन बोध
आज्ञा बिन आगम पठन, गरल तालपुट जान । मुनि 'सुशील' सम्बोधि यह समझे जो गुणवान ।। १६४।। मूल पाठ श्रावक हिते, नहिं वांचन अधिकार । फिर भी पर उपकारवश, लिखता सार विचार । । १६५ ।। गुरुकुल में जाकर रहो, चाहो आगमज्ञान । गुप्त रूप जो धारणा, सहज प्राप्त श्रीमान् । । १६६ । ।