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श्री आचारांगसूत्रम्
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ज्योतिर्मय उपदेश देवों को होता सदा, मात्र अवधि का ज्ञान । जिनवर शोभित नयन युग, दर्शन केवलज्ञान ।।१७७।। निष्कारण करुणा करें, तीर्थंकर भगवन्त । ज्योतिर्मय उपदेश ज्यों, पावस घन बरसंत।।१७८ । । पूर्वश्रुत अति गहन था, सुलभ नहीं हो ज्ञान। अंगसृष्टि सबके लिए, परहित दृष्टि महान् ।।१७९ ।। जिनवाणी मातेश्वरी, भव्य जीव सुत लाल। करुणाकर रक्षण करो, इतनी अर्ज सँभाल।।१८० ।। अहो! विनय से कर लिया, आगम का बहुमान। कमलाकर तल जानिए, मोक्ष निकट मतिमान।।१८१ । । धन्य-धन्य आगम अहो! भव मण्डल आधार। जिनवाणी जन रसिक जो, अहो! सफल अवतार।।१८२।। आगम निधि प्रकटित अहो! समवसरण में दान। आठ प्रहर हितदेशना, सुरनर हर्ष प्रधान ।।१८३।। तत्व खजाना सूत्र है, नव-नव रत्न अनेक। सुगुरु जौहरी शरण से, करना प्राप्त विवेक।।१८४।। जिनवाणी न्यग्रोध सम, भाष्य शाख विस्तार । आज्ञा छायाश्रय रहो, अहो! अहो! अणगार ।।१८५ ।। अहो! अन्तर्मुहूर्त में, जैनागम निर्माण । श्री गणधर गुम्फित करे, आर्य धरा एहसान।।१८६।। चरम चक्षु सब जगत् में, धारण करें अनेक। सूत्र नयन निर्ग्रन्थ के, जिससे पूर्ण विवेक।।१८७।। चलते वाद-विवाद सब, जब तक सूत्र न ज्ञान। तब तक तात विडम्बना, रहती खींचातान।।१८८।।