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श्री आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध का पद्यमय भावानुवाद
भूमिका
छन्द दोहा
अनन्तानन्तभाव र्युत, जिनवाणी नमनीय । अघनाशक भवतारिणी, सुखद शान्त रमणीय । । १ । । जैनागम जय-जय अहो, आत्मशुद्धि सोपान । जय श्रुत जय बहुश्रुत प्रभो ! अवनीतल भास्वान । । २ । । तिहूँ काल है एक रस, मनहु सुधा - भण्डार । संतों को है प्राणप्रिय, जिनआगम सुखसार । । ३ । । पढ़ो - सुनो - समझो करो, मिटते हैं त्रय ताप । - कट जायेंगे पाप सब, यदि समझेंगे आप । । ४ । । जिनवाणी उर में रखो, करो न सोच-विचार | मुनि 'सुशील' भवसिंधु से हो जाओगे पार । ।५।।
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जिनवाणी भागीरथी
महावीर शिव- शीश से, प्रगटी आगम-गंग । भूप भगीरथ सम लखी, गणधर वचन - तरंग । । ६ । । या कि हिमालय वीर - प्रभु, वाणी गंगा-नीर । जिसने भी यह जल पिया, खोईं तीनों पीर । । ७ ।। ब्रह्म-सलिल इसको कहें, आगम-वेद-पुराण । 'सुशील' मुनि के मन बसी, बनकर जीवन प्राण । । ८ । । त्रय पथ गामिनि यह नदी, यह जानें सब कोय तीन लोक के तीन दुख, हरता वाणी-तोय । । ९ । । जय गंगे हर-हर करें, मज्जन करती बार । 'सुशील' मुनि जय-जय करे, बसी हृदय श्रुत धार । । १० ।।
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