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॥ अहम् ॥
१ आनंदा
उपासकदशंग सानुवाद
ध्ययन
श्रीमद्भगवद्आर्यसुधर्मस्वामिप्रणीत उपासकदशाङ्ग सूत्र
मूळ तथा श्रीमद् अभयदेवसूरि विरचित टीकाना अनुवाद सहित
॥१॥
१. तेणं कालेणं तेणं समएणं चम्पा नाम नयरी होत्था । वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णओ॥ १-२ ते काळे अने ते समये चंपा नामे नगरी हती. ते ऋद्धिवाळी अने उपद्रव रहित हती-इत्यादि वर्णन जाणी लेवु. ते नगरीना
श्रीमदभयदेवसूरिकृत-टीकानो अनुवाद श्रीवर्धमान स्वामीने प्रणाम करीने उपासकदशा विगेरे सूत्रोनी प्रायः बीजा अन्थोमा जोयेली कंइक व्याख्या करूं छु. १ तेमा उपासकदशा ए सातमु अंग छे. तेनो शब्दार्थ आ प्रमाणे के-उपासक-श्रमणोपासक संबन्धी अनुष्ठान- प्रतिपादन करनार
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उपासकदशांग सानुवाद
१आनंदाध्ययन
॥२॥
२. तेणं कालेणं तेणं समएणं अजसुहम्मे समोसरिए, जाव जम्बू पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइ णं भन्ते! समणेणं भगवया महावीरेण जाव सम्पत्तेणं छहस्स अङ्गस्स नायाधम्मकहाणं अयमढे पण्णत्ते, सत्तमस्स णं भन्ते ! अंगस्स उवासगदसाणं समणेणं जाव सम्पत्तेणं के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता। तंजहा-आणन्दे १, कामदेवे य २, गाहावइ ईशान खूणामां पूर्णभद्र नामे चैत्य हतुं. ते एक मोटा वनखंड वडे चोतरफ वींटायेलुं हतुं-इत्यादि वर्णन जाणवू. ते काळे अने ते समये आर्य सुधर्मा स्वामी समोसर्या. ते सुधर्मा स्वामीना ज्येष्ठ अंतेवासी आर्य जंबू स्वामीए उपासना करता आ प्रमाणे पूछथु-हे भगवन् ! जो यावत् उत्तमार्थ-निर्वाणने प्राप्त थयेला श्रमण' भगवान् महावीरे ज्ञाताधर्मकथा नामे छटा अंगनो आ अर्थ कह्यो छे, तो उपासकदशा नामे सातमा अंगनो निर्वाणने प्राप्त थयेला श्रमण भगवान महावीरे शो अर्थ कह्यो छे ? हे जंबू ! यावत् उत्तमार्थने | दशा-दस अध्ययनरूप ते उपासकदशा कहेवाय छे. आ ग्रन्धर्नु नाम बहुवचनान्त छे. आ ग्रन्थना संबन्ध, अभिधेय-विषय अने प्रयो जन सूचना नामना अन्वर्थ-व्युत्पत्तिना सामर्थ्यथी प्रतिपादन करेला छे. ते आ प्रमाणे-उपासकोतुं अनुष्ठान अहीं अभिधेय छे, तेनुं ज्ञान थर्बु ते श्रोताओर्नु अनन्तर-तुरतर्नु प्रयोजन के अने श्रावकोना अनुष्ठाननो बोध करवो ते शास्त्रकारोनुं अनन्तर प्रयोजन छे. शास्त्रमा संबन्ध बे प्रकारनो कह्यो छ-उपायोपेय-कार्यकारणभाव अने गुरुपर्वक्रमलक्षण. तेमां कार्यकारणभाव संबन्ध शास्त्रना नामनी व्युत्पत्तिना सामर्थ्यथी कह्यो छे. जेम के आ शास्त्र कारण छे अने तेथी श्रावकोना अनुष्ठाननु शान थर्बु ते कार्य छे. गुरुपर्वलक्षण संबन्ध साक्षात् बतावता सूत्रकार कहे छे
२ तेणं कालेणं तेणं समपण' इत्यादि सूत्र शाताधर्म कथाना प्रथम अध्ययनना विवरणने अनुसारे जाणवू, परन्तु 'आनन्द' इत्यादि
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥३॥
चुलणीपिया ३, सुरादेवे ४, चुल्लसयए ५, गाइावइकुण्डकोलिए ६, सद्दालपुत्ते ७, महासयए ८, नन्दिणीपिया ९, सालिहीपिया १० ॥ पढमं अज्झयणं ।
३. जइ णं भन्ते ! समणेण जाव सम्पत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भन्ते ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते १ ॥
एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था । वण्णओ । तस्स णं वाणियगामस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए दृइपलासए नामं चेइए होत्था । तत्थ णं वाणियगामे नयरे जिप्राप्त थयेला श्रमण भगवान् महावीरे उपासकदशा नामे सातमा अंगना दश अध्ययनो कलां छे. ते आ प्रमाणे - आनंद १, कामदेव १२, गृहपति चुलनीपिता २, सुरादेव ४, चुल्लशतक ५, गृहपति कुंडकोलिक ६, सद्दालपुत्र ७, महाशतक ८, नंदिनीपिता ९ अने सालिहीपिता १०.
१ आनंदाध्ययन
३ हे भगवन् ! जो निर्वाणने प्राप्त थयेला श्रमण भगवंत महावीरे उपासकदशा नामे सातमा अंगना दश अध्ययन कहेलां छे तो हे भगवन् ! मोक्षने प्राप्त थयेला श्रमण भगवंत महावीरे प्रथम अध्ययननो शो अर्थ को छे ?
श्रावकना नाम छे. तेमां आनन्द नामे श्रावकनी हकीकत संबन्धी अध्ययन आनंद अध्ययन कहेवाय छे. 'गाहावर' गृहपति-अमुक ऋद्धिवाको गृहस्थ छे अने कुंडकोलिक ए 'गृहपति कुंडकोलिक' ए आखा नामनो अंतनो भाग छे.
१ आनंदा
ध्ययन
॥ ३ ॥
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥४॥
यसत्तू राया। वण्णओ। तत्थ णं वाणियगामे आणन्दे नाम गाहावई परिवसइ। अड्डे जाव अपरिभूए। तस्स णं आणन्दस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ बुड्डिपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तारि वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था। से णं आणन्दे गाहावई बहणं राईसर० जाव सत्थवाहाणं बहसु कज्जेसु य कारणेसु य मन्तेसु य कुडुम्बेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, सयस्सवि य णं कुडुम्बस्स | मेढी पमाणं आहारे आलम्बणं चक्खू, मेढिभूए जाव सव्वकजवड्डावए यावि होत्था। तस्स णं आणन्दस्स गा___ हे जंबू ! ए प्रमाणे ते काळे अने ते समये वाणिज्यग्राम नामे नगर हतुं. अहीं तेनुं वर्णन जाणवू, ते वाणिज्यग्राम नामे नगरनी बहार ईशान खूणामां तिपलाश नामे चैत्य हतुं. ते वाणिज्य ग्राममां जितशत्रु नामे राजा हतो. अहीं तेनुं वर्णन जाणवू. ते वाणिज्य ग्राममा आनन्द नामे गृहपति रहे छे. ते आढ्य-धनवान् अने वीजा कोइथी पराभव नहि पामे तेवो समर्थ छे. ते आनंद गृहपतिने चार हिरण्यकोटि निधानमां, चार हिरण्यकोटी वृद्धि-व्याजमां अने चार हिरण्यकोटी धन धान्यादिना विस्तारना कार्यमां रोकायेली छे. | वळी तेने दस हजार गायोनुं एक व्रज एवा चार व्रजो छे. ते आनंद गृहपति घणा राजा, धनिक वगेरे यावत् सार्थवाहोना घणा कार्यमां, कारणमां, मत्रो-विचारोमां तथा कुटुम्बोमां गुह्यो, रहस्यो, निश्चयो अने व्यवहारोमां पूछवा योग्य, सलाह लेवा योग्य हतो. __३ 'पवित्थरपउत्ताओ' प्रविस्तर-धन, धान्य, द्विपद-दास दासी विगेरे, चतुष्पद-गायो विगेरे संपत्तिनो विस्तार. व्रज-गोकुळ, 'दशगोसाहनिकेण' दशहजार गायनुं एक गोकुळ जाणवू.
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हावइस्स सिवनन्दा नाम भारिया होत्था, अहीण जाव सुरूवा आणन्दस्स गाहावइस्स इहा आणन्देणं गाहाउपासक
१ आनंदादशांगवणा सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्टे सद्द० जाव पञ्चविहे माणुस्सए कामभोए पच्चणुभवमाणी विहरइ । तस्स ध्ययन सानुवाद णं वाणियगामस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं कोल्लाए नामं सन्निवेसे होत्था, रिद्धस्थिमिय० जाव
पासादीए। तत्थ णं कोल्लाए सन्निवेसे आणन्दस्स गाहावइस्स बहुए मित्तनाइनियगसयणसम्बन्धिपरिजणे परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए। परिसा निग्गया, कूणिए राया जहा तहा जियसत्तू निग्गच्छइ, जाव पज्जुवासइ । तए णं से आणन्दे गाहावई इमीसे कहाए लद्धटे समाणे 'एवं खलु समणे जाव विहरइ, तं महाफलं जाव गच्छामि णं जाव पज्जुवासामि' एवं सम्पेहेइ, पोताना कुटुम्बनो पण मुख्य, प्रमाणभूत, आधार, अवलंबन, चक्षुरूप, प्रधानभूत यावत् बधा कार्योने वधारनार हतो. ते आनन्द गृहपतिने शिवनन्दा नामे भार्या हती. ते परिपूर्ण अंगवाळी, यावत् सुंदररूपवाळी आनन्द गृहपतिने प्रिय अने आनन्द गृहपतिनी साथे 2
अनुरक्त अने अविरक्त थयेली इष्ट शद्धादि मनुष्य संबन्धी काम अने भोगोनो अनुभव करती विहरे छे. ते वाणिज्य ग्रामनी बहार (O ईशान खूणामां कोल्लाक नामे संनिवेश हतो. ते समृद्धिवाळो निरुपद्रव यावत् मनने प्रसन्न करनार हतो. ते कोल्लाक संनिवेशमा आनन्द गृहपतिना घणा मित्र, ज्ञाति, निज-स्वकीय स्वजन, संबन्धी अने परिवार वसे छे. ते धनिक अने समर्थ छे.
ते काळे अने ते समये श्रमण भगवान् महावीर यावत् समोसर्या. परिषद् वांदीने पाछी गइ. कोणिक राजानी पेठे जितशत्रु राजा | वंदन करवाने नीकळे छे. नीकळीने यावत् पर्युपासना करे छे. त्यार बाद आनन्द गृहपति महाबीर खामी आव्यानी आ वात जाणीने
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
सम्पेहित्ता पहाए सुद्धप्पावेसाइं जाव अप्पमहग्घाभरणालतियसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्वमित्ता सकोरण्टमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते पायविहारचारेणं वाणियगाम नयरं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणामेव दृइपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वन्दइ नमसइ जाव पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे आणन्दस्स गाहावइस्स तीसे य महइमहालियाए परिसाए जाव धम्मकहा, परिसा पडिगया, राया य गओ।
४. तए णं से आणन्दे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ० जाव 'आप्रमाणे श्रमण भगवान महावीर विहरे छे, तो अरिहंत भगवंतोनुं नामश्रवण पण महा फळवाळु छे,तो वंदन नमस्कार वगेरेनुं करवू महा फळवाळु होय तेमांशुं कहेवू ? माटे हुं जाउं अने यावत् तेमनी पयुपासना करूं एवो विचार करे छे, विचार करी शुद्ध अने बहार जवा लायक वस्त्रो धारण करी अल्प अने महामूल्य अलंकारो बडे अलंकृत शरीरवाळो थइ पोताना घरथी बहार नीकळे छे. नीकळीने धारण कराता कोरंट पुष्पनी माळा युक्त छत्र वडे मनुष्य रूपी वागुग (जाळ थी वीटायेलो पगे चालीने वाणिज्य ग्राम नगरना मध्य भागमां थइने नीकळे छे अने ज्यां दृतिपलाश चेत्य छे अने ज्यां श्रमण भगवान महावीर छ त्यां आवे छ. आवीने त्रण बार जमणी बाजुथी प्रदक्षिणा करे छे. प्रदक्षिणा करी वंदन, नमस्कार यावत् ययुपासना करे छे. त्यार बाद श्रमण भगवान् महावीरे आनन्द गृहपतिने तथा अत्यन्त मोटी परिपदने धमोपदेश कयों. परिपद गइ अने गजा गयो.
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उपासकदशांग सानुवाद
॥७॥
एवं वयासी-'सदहामि णं भन्ते! निग्गन्धं पावयणं, पत्तियामि णं भन्ते ! निग्गन्धं पावयणं, रोएमि णं भन्ते:10 निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भन्ते !, अवितहमेयं भन्ते !, इच्छियमेयं भन्ते !, पडिच्छियमेयं भन्ते !, इच्छियप-TRI
१ आनंदा
ध्ययन डिच्छियमेयं भन्ते!, से जहेयं तुम्भे वयह'त्ति क्टु जहा णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे राईसरतलवरमाडम्बि. यकोडम्बियसेडिसेणावइसत्यवाहप्पभिईओ मुण्डा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइया नो खलु अहं तहा संचाएमि मुण्डे जाव पब्वइत्तए, अहं णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पञ्चाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं| गिहिधम्म पडिवजिस्सामि । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबन्धं करेह ॥ ..
४ त्यार बाद आनन्द गृहपति श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्म सांभळी, अवधारी प्रसन्न अने संतुष्ट थइ आ प्रमाणे बोल्यो-हे | भगवन् ! निर्ग्रन्थना प्रवचन-उपदेशनी श्रद्धा करुं छु, हे भगवन् ! हुं निर्ग्रन्थना प्रवचननी प्रतीति करुं छु, हे भगवन् ! हुं निर्ग्रन्थना प्रवचननी रुचि करूं छु. हे भगवन् ! जे तमे कहो छो ते एमज छे, हे भगवन् ! तेमज छे, हे भगवन् ! अवितथ-सत्य छे, हे भगवन् ए मने इष्ट छे, ए मने प्रतीच्छित-स्वीकृत छे अने इच्छित अने प्रतीच्छित छ. एम कहीने जेम देवानुप्रिय एवा आपनी पासे घणा राजा, युवराजो, राजस्थानीय पुरुषो, माडंबिको, कोटुम्बिको, श्रेष्ठी, सेनापति अने सार्थवाह प्रमुख मुंड थइने गृहवासथी नीकळी अनगारिताप्रव्रज्या ग्रहण करी छे तेम हुं मुंड थइ प्रव्रज्या ग्रहण करवाने समर्थ नथी, हुँ देवानुप्रिय एवा आपनी पासे पांच अणुव्रत अने सात शिक्षा व्रत रूप बार प्रकारना गृहस्थ धर्मने स्वीकारीश. (भगवंते कडं के) हे देवानुप्रिय ! जेम सुख उपजे तेम करो, इच्छा प्रमाणे करो, प्रतिबन्ध न करो.
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥ ८ ॥
५. तए णं से आणन्दे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए तप्पढमयाए थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइ, 'जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा' १ | तयाणन्तरं च णं थूलगं मुसावायं पच्चक्खाइ, 'जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा' २ | तयाणन्तरं चणं थूलगं अदिण्णादाणं पञ्चकखाइ, 'जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेभि न कारवैमि मणसा वयसा कायसा'३ । | तयाणन्तरं च णं सदारसन्तोसिए परिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ एक्काए सिवनन्दाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं
५ त्यार बाद आनन्द गृहपति श्रमण भगवंत मरहावीरनी पासे प्रथमथी स्थूल प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान करे छे-'हुँ जीवन पर्यन्त | द्विविध अने त्रिविधे एटले मन, वचन अने काया वडे स्थूल प्राणातिपात-हिंसा नहि करूं अने नहि करावं.' त्यार पछी स्थूल मृषावादनुं प्रत्याख्यान करे छे-'हुं यावजीव द्विविध त्रिविधे मन, वचन अने काया बडे स्थूल मृषावादनुं आचरण नहि करूं अने नहि करा. त्यार पछी स्थूल अदत्तादाननुं प्रत्याख्यान करे छे- 'जीवन पर्यन्त द्विविध-त्रिविधे मन, वचन अने काया वडे नहि करूं अने नहि करावं.
५ ते आनन्द श्रावक भगवंत महावीर पासे 'तप्पढमयाए' ते अणुव्रतोमां 'प्रथमतया'- प्रारंभमां 'स्थूलकं' स्थूल- त्रस संबंधी प्राणातिपातनुं प्रत्याख्यान करे छे. 'जावज्जीवाए' यावती जीवा ज्यां सुधी जीवन-प्राणधारण छे, अथवा यावान् जीवः प्राणधारणं यस्यां प्रतिज्ञायां - ज्यां सुधी प्राण धारण करूं त्यां सुधी 'द्विविधं' कर अने कारवकुं ए वे भेदे 'त्रिविधेन' मन, वचन अने काया वडे, ( अहीं 'कायसा' प रूप 'स' नो आगम थवाथी थयुं छे. ) 'न करोमि नहि करूं अने नहि करावं इत्यादि वडे एज हकीकतने स्पष्ट करेली छे, त्यार पछी स्थूल मृषावादनुं प्रत्याख्यान करे छे. तीव्र संक्लेशना परिणामथी तीव्र संक्लेशने उत्पन्न करनार स्थूल मृषावाद छे. 'आ चोर छे' पवा व्यवहारनुं कारण स्थूल अदत्तादान छे. पोतानी स्त्री वडे संतोष ते स्वदारसंतोष. अहीं स्वार्थमां
१ आनंदा
ध्ययन
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१ आनंदा
उपासकदशांग सानुवाद
ध्ययन
॥९॥
|॥९॥
पच्चक्खामि मणसा वयसा कायसा४। तयाणन्तरं च णं इच्छाविहिपरिमाणं करेमाणे हिरण्णसुवण्णविहिपरिमाणं करेइनन्नत्थ चउहिं हिरण्णकोडीहिं निहाणपउत्ताहिं, चउहिं बुड्डिपउत्ताहिं, चउहिं पवित्थरपउत्ताहिं, अवसेसं सव्वं हिरण्णसुवण्णविहिं पञ्चक्खामि' ३। तयाणन्तरं च णं चउप्पयविहिंपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ चउहिं वएहिं दसगोसाहस्सिएणं वएणं, अवसेसं सव्वं चउप्पयविहिं पच्चक्वामि'३ । तयाणन्तरं च णं खेत्तवत्थुविहिपरिमाणं त्यार पछी खदारसंतोषने विशे परिमाण करे छे, 'एक शिवनन्दा भार्या सिवाय बाकीनी स्त्री साथे मैथुनविधिनुं मन वचन अने काया वडे प्रत्याख्यान करूं छु. त्यार बाद इच्छानुं परिमाण करतो हिरण्य अने सुवर्णर्नु परिमाण करे छे. 'चार हिरण्यकोटी निधानमां, चार हिरण्यकोटी वृद्धि-व्याजमां अने चार हिरण्यकोटी धनधान्यादिना विस्तारमा रोकेली छे, ते सिवाय बाकीना हिरण्यसुवर्णविधिनो त्याग करुं छु.' ते पछी चतुष्पदविधिनुं परिमाण करे छे. 'दस हजार गायनुं एक ब्रज तेवा चार व्रज सिवाय बाकीना चतुष्पदोनुं प्रत्याख्यान करुं छ'. त्यार बाद क्षेत्र रूप वस्तुनुं परिमाण करे छे. जेनाथी सो निवर्तन खेडी शकाय एबुं एक हळ, एवा पांचसो हळ वडे खेडी 'इक' प्रत्यय थयो होवाथी 'स्वदारसंतोषिक' रूप थाय छे. अथवा 'इ' प्रत्यय करवाधी 'स्वदारसंतोषि' रूप जाणवू. पटले पोतानी स्त्रीमात्रथी संतोष पामवो. घणी स्त्रीओथी उत्पन्न थता संतोषने संक्षेप करवो. केवी रीते करे छे ? ते बतावे छे. 'नन्नत्थ' पोतानी एक शिवनंदा भार्याने छोडी अन्यत्र-बीजी स्त्रीने विशे मैथुन सेवीश नहि. एज बाबतने स्पट करे छे. 'श्रवसेसं ते सिवाय बीजा मैथुन विधि-मैथुनना प्रकार अथवा मैथुनना कारणनो त्याग करुं छु. वृद्ध आचार्यनी व्याख्या आ प्रमाणे छे. 'नन्नत्थ' अन्यत्र बीजे, पटले शिवनंदाने छोडीने बीजे मैथुनविधिनो त्याग करुं छु. बन्ने व्याख्यामां भावार्थ तो एकज छे. इच्छाविधिना परिमाणमां 'हिरण्यं' रू', रूपाना', सुवर्ण प्रसिद्ध छे, तेनुं परिमाण करे छे. 'नन्नत्थ' निधानमा राखेली चार कोटि हिरण्य वगेरेथी बीजा हिरण्यादिनी
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥१०॥
करेइ, 'नन्नत्थ पञ्चहिं हलसएहिं नियत्तणसइएणं हलेणं, अवसेसं सव्वं खेत्तवत्थुविहिं पञ्चक्खामि' ३ | तयाणन्तरं चणं सगडविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ पञ्चहिं सगडसएहिं दिसायत्तिएहिं पञ्चहिं सगडसएहिं संवाहणिएहि, | अवसेसं सव्वं सगडविहिं पञ्चक्खामि' ३ | तयाणन्तरं च णं वाहणविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ चउहिं वाहणेहिं दिसायत्तिएहिं चउहिं वाहणेहिं संवाहणिएहिं, अवसेसं सव्वं वाहणविहिं पञ्चक्खामि' ३, ५ । तयाणन्तरं च शकाय एटली क्षेत्रनी भूमि सिवाय बाकीना क्षेत्रवस्तुनुं प्रत्याख्यान करूं छं. त्यार पछी शकट-गाडानुं परिमाण करे छे, बहार देशान्तरमां गमन करवा योग्य पांचसो गाडां, अने सांवाहनिक- मालनुं वहन करनारा पांचसो गाडां उपरांत बघा शकटोनुं प्रत्या| ख्यान करूं छं. त्यार बाद वहाणनुं प्रत्याख्यान करे छे. देशान्तरमां मोकलवा योग्य चार वहाणो अने अहींना सांवाहनिक-माल लाववा लइ जवा योग्य चार वहाणो सिवाय बाकीना वहाणोनुं प्रत्याख्यान करूं कुं. त्यार बाद उपभोग - परिभोग विधिनुं प्रत्याख्यान
इच्छा नहि करूं, 'अवशेषं तेथी अधिक हिरण्यादिनो त्याग करुं छु. एम बधे स्थळे जाणवु, त्यार बाद चतुष्पद विधिना परिमाणमां दसहजार गायोनुं एक गोकुळ एवा चार गोकुळ सिवाय बीजा चतुष्पदोनो त्याग करे छे. क्षेत्रवस्तु विधिना परिमाणमा 'खेत्तवत्थु ' क्षेत्ररूप वस्तु ते क्षेत्रवस्तु, बीजा ग्रन्थोमां क्षेत्र अने वास्तु-घर एवी व्याख्या करेली छे. तेमां 'नियत्तणसइरणं' निवर्तन-देश विशेषमां प्रसिद्ध एक जातनुं भूमिनुं परिमाण छे, 'निवर्तनशतं कर्षणीयं यस्य अस्ति निवर्तनशतिकं' सो निवर्तन जमीन खेडवा योग्य जेने छे एवं एक हळ, एवा पांचसो हळ वडे खेडवा योग्य भूमि सिवाय वाकीनी भूमिनुं प्रत्याख्यान करे छे. २ शकटविधिना परिमाणमा 'दिसायात्तरहिं' दिग्यात्रा - देशान्तरगमन प्रयोजन जेनुं छे ते दिग्यात्रिक-देशान्तरमां गमन करवा योग्य पांचसो शकट, ते सिवायना बीजा शकटोनो तथा 'संवाहणिपहि' संवाहन-वहेतुं, क्षेत्रादिथी घास, काष्ठ अने धान्यादिनुं घर वगेरे स्थळे लावतुं ते प्रयोजन
१ आनंदा
ध्ययन
॥१०॥
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
EX
॥११॥
॥१
णं उवभोगपरिभोगविहिं पचक्खाएमाणे उल्लणियाविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ एगाए गन्धकासाईए, अवसेसं सव्वं उल्लणियाविहिं पच्चक्खामि'३। तयाणन्तरं च णं दन्तवणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगेणं अल्ललठ्ठीमहएणं, अवसेसं दन्तवणविहिं पञ्चक्खामि'३॥ तयाणन्तरंच णं फलविहिपरिमाणं करेइ,'नन्नत्थ एगेणं खीरामलएणं, | अवसेसं फलविहिं पञ्चक्खामि' ३। तयाणन्तरं च णं अब्भङ्गणविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ सयपागसहस्सपागेहिं करतो अंगलूपण-अंगुछार्नु परिमाण करे छे. एक गंधकाषायी-सुगंधी राता अंगुछा सिवाय बाकीना बधा अंगुछानो त्याग करु छु. त्यार पछी दन्तपवन-दातणनी विधिनुं प्रत्याख्यान करे छे. एक लीला यष्टिमधु-जेठीमधना दातण सिवाय बाकीना दातणनो त्याग करु छ. त्यार बाद फळविधिनुं परिमाण करे छे. एक क्षीरामलक-मधुर आमळाना फळ सिवाय बाकीना फळोनो त्याग करूं छु. त्यार पछी अभ्यंगविधिनुं परिमाण करे छे. शतपाक अने सहस्रपाक तैल सिवाय बाकीना अभ्यंग विधिनो त्याग करुं छं. त्यार बाद जेओर्नु ले ते सांवाहनिक एटले लाववा लइ जवाना कार्यमा रोकायेला पांचसो शकटो सिवाय बीजा शकटोनो त्याग करे छे. वाहन-वहाणनी विधिना परिमाणमा दिग्यात्रिक-देशान्तरमा मोकलवा योग्य चार वाहन-यानपात्र-वहाण अने संवाहन-लाववा जवाना कार्यमां रोकायेला चार वहाणो सिवाय बीजा वहाणोनो त्याग करे छे. 'उवभोगपरिभोग' त्ति. उपभुज्यते-वारंवार भोगवाय-उपयोग करी शकाय ते उपभोग-घर, वस्त्र, स्त्री वगेरे, परिभुज्यते-एकवार भोगवी शकाय ते परिभोग-आहार, पुष्प, विलेपन वगेरे. अथवा तेथी विपरीत व्याख्या करवी. एकवार भोगवी शकाय ते उपभोग अने वारंवार भोगवी शकाय ते परिभोग समजवो. ते उपभोग परिभोगना विधिनुं प्रत्याख्यान करतो 'उल्लणिय' ति उल्लणिया-अंगुछार्नु, स्नानना जळ वडे भीजायेला शरीरना जळने लुंछवाना वस्त्रनुं परिमाण करे छे. एक 'गंधकासाईप' कषाय-लाल रंग वडे रंगायेली शाटिका-वस्त्र काषायी कहेवाय छे 'गन्धप्रधाना काषायी'
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥१२॥
॥१२॥
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तेल्लेहिं, अवसेसं अब्भङ्गणविहिं पच्चक्खामि' ३ । तयाणन्तरं च णं उव्वदृणाविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ एगेणं सुरहिणा गन्धट्टएणं, अवसेसं उव्वदृणाविहिंपच्चक्खामि'३। तयाणन्तरं च णं मजणविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ अट्टहिं उहिएहिं उदगस्स घडएहिं, अवसेसं मजणविहिं पच्चक्खामि'३ । तयाणन्तां च णं वत्थविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ एगेणं खोमजुयलेणं, अवसेसं वत्थविहिं पच्चक्खामि'३। तयाणन्तरं च णं विलेवणविहिपरिमाणं | उद्वर्तनाविधिनुं परिमाण करे छे. एक सुगंधी गन्धचूर्ण सिवाय बाकीना उद्वर्तनाविधिनो त्याग करूं छु. त्यार पछी मजन-स्नाननी | विधिनुं परिमाण करे छ, आठ औष्ट्रिक घडा पाणी सिवाय वधारे पाणी वडे स्नान करवानो त्याग करुं छु. त्यार बाद वस्त्रनी विधिनुं | परिमाण करे छे. एक क्षौमयुगल (बे सुतराउ वस्त्रो) सिवाय बाकीना वस्त्रोनो त्याग करुं छ. त्यार पछी विलेपनविधिनु परिमाण करे छ, अगर, कुंकुम केसर अने चंदनादि सिवाय बाकीना विलेपननो त्याग करूं छु. त्यार पछी पुष्पविधिनुं परिमाण करे छे. एक शुद्ध जेमां सुगंध प्रधान छे एबुं रातुं वस्त्र ते गन्धकाषायी कहेवाय छे. ते सिवाय बीजा उल्लुणिया-अंगुछानो त्याग करे छे. 'दंतवणत्ति दन्ताः पूयन्ते अनेन-दांत स्वच्छ कराय जे वडे ते देन्तपवन-दांतना मेलने दूर करनार काष्ठ-दातण, तेना परिमाणमां 'अल्ललट्ठीम| हुपण आर्द्र-लीला 'यष्टिमधु' जेठीमधना दातण सिवाय बीजा दातणनो त्याग करे छे. फळ विधिना परिमाणमां 'खीरामलपणं जेमा ठळीयो बंधायो नथी पवा अथवा क्षीर-दूधनी पेठे मधुर रसवाळा आमलक-आमळा सिवाय बीजा फळनो त्याग करे छे. 'सयपागसहस्सपागेहिं' सो औषधीद्रब्यना सो क्वाथ बडे जे पकावाय ते अथवा सो कार्षापणना मूल्यवडे जे पकावाय ते शतपाक, ए प्रमाणे सहस्रपाक तैल पण जाणवं. ते सिवाय बीजा तैलना अभ्यंग विधिनु प्रत्याख्यान करे छे. उद्वर्तनविधिना परिमाणमा 'गंधट्ट
१ उंटना जेवी लांबी डोकवाळा घडाने औष्ट्रिक घडा कहेवाता होय तेम संभवे छे.
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥१३॥
॥१३॥
करेइ, 'नन्नत्थ अगुरुकुंकुमचन्दणमादिएहिं, अवसेसं विलेवणविहिं पच्चक्खामि'३। तयाणन्तरं च णं पुप्फविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ एगेणं सुद्धपउमेणं मालइकुसुमदामेणं वा, अवसेसं पुप्फविहिं पचक्खामि ३ । तयाणन्तरं च णं आभरणविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ मट्ठकपणेजएहिं नाममुद्दाए य, अवसेसं आभरणविहिं पञ्चक्वामि' ३।तयाणन्तरं च णं धूवणविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ अगरुतुरुक्कधूवमादिएहिं, अवसेसं धूवणविहिं पञ्चक्खामि'३ । तयाणन्तरं च णं भोयणविहिपरिमाणं करेमाणे पेजविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ एगाए कट्टपेज्जाए, अवपद्म अने मालतीना पुष्पोनी माळा सिवाय बाकीना पुष्पविधिनो त्याग करूं छु. त्यार पछी आभरण विधिनुं परिमाण करे छे. मृष्टकोमळ काणेयक-कानना आमरण अने नामवाळी मुद्रिका सिवाय बाकीना अलंकारोनो त्याग करु छु. त्यार पछी धूपविधिनु परिमाण करे छे. अगर अने तुरुष्क-शिलारसना धूप वगेरे सिवाय बाकीना धूपविधिनो त्याग करुं छं. तेना पछी भोजनविधिनुं परिमाण करतो एणं' गंध-उपल, कुष्ठ विगेरे सुगंधी द्रव्योना अट्टक-चूर्ण अथवा घउना लोटना सुगंधी चूर्ण सिवाय बीजा उद्वर्तननुं प्रत्याख्यान करे छे. उट्टिपहिं उदगस्स घडपहिं' उष्ट्रिका-मोटुं माटीनुं पाणी भरवानुं वासण, तेने भरवामा प्रयोजन जेनुं छे एथा, उचित प्रमाणवाळा अत्यन्त नाना नहि तेम मोटा नहि एवा पाणीना आठ घडा सिवाय वधारे पाणीथी स्नानविधिनो त्याग करे छे. अहीं बधे 'अन्नत्थ' अन्यत्र-शब्दनो प्रयोग होवा छतां पंचमीना अर्थमां तृतीया विभक्ति जाणवी. वस्त्रनी विधिना परिमाणमा 'खोमजुयलेणं' 'क्षौमयुगल
१ क्षौमयुगलनो टीकाकार कार्यासिक-सुतराउ वस्त्रयुगल एवो अर्थ करे' छे, परन्तु हेमचंद्राचार्य अभिधानचिंतामणिमा "क्षौमं दुकूलं दुगूलं स्यात् कासि तु | बादरम्" । का० ३ लो० ३३३. तेनी स्वोपज्ञ टीकामां शुमा-अतसी, तस्या विकारः क्षौमम् , क्षौमने दुकूल कहे छे. अने ते अळसीनुं बने छे" तेम जणावे छे.
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥१४॥
| सेसं पेज्जविहिं पञ्चक्खामि ३ | तयाणन्तरं च णं भक्खविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ एगेहिं घयपुण्णेहिं खण्डखजएहिं वा, अवसेसं भक्खविहिं पञ्चक्खामि' ३ । तयाणन्तरं च णं ओदणविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ कलमसालिओदणेणं, अवसेसं ओदणविहिं पञ्चक्खामि ३ | तयाणन्तरं च णं सुवविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ कलायसूपेय विधिनुं (पीवा योग्य वस्तुनुं ) परिमाण करे छे. एक काष्ठपेया (मगना ग्रुप के तंडूलना ग्रूप) सिवाय बाकीना पेयविधिनो त्याग करूं छं. त्यार पछी भक्ष्यविधि (पकवान ) नुं परिमाण करे छे. एक घृतपूर्ण (घेवर) अने खंडखाद्य - खांडना खाजा सिवाय बीजा भक्ष्यनो त्याग करुं छं. तेना पछी ओदनविधिनुं परिमाण करे छे. एक कलमशालिना ओदन सिवाय बाकीना ओदनविधिनो त्याग करूं कुं. त्यार पछी सूपविधि - दाळनुं परिमाण करे छे. कलाय - वटाणानो सूप, मगनो सूप अने अडदना सूप सिवाय बाकीना बधा कपासना बनेला बे वस्त्रो सिवाय बीजा वस्त्रोनो त्याग करे छे, विलेपन विधिना परिमाणमां 'अगरु ति अगुरु-सुगंधी द्रव्य विशेष छे, अगर, कुंकुम-केसर अने 'चंदनादि सिवाय बीजा द्रव्यना विलेपननो त्याग करे छे. पुष्पविधिना परिमाणमां 'सुद्धपरमेणं' बीजा पुष्पो विनानुं पुंडरीक - कमळ अथवा शुद्ध पद्म-केवळ कमळ, अने 'मालहकुसुमदाम'त्ति मालती-जाइना पुष्पनी माळा सिवाय बीजा पुष्पविधिनो त्याग करे छे. आभरण विधिना परिमाणमां 'मकण्णेज्जपहिं' मृष्टकाणैयकाम्याम् - मृष्ट- चित्र विनाना सुकोमल एवा कार्णेयककाना आभरण अने नाममुद्दाए' नामवाळी मुद्रा-वींटी सिवाय वीजा आभरणनो त्याग करे छे. धूपना विधिना परिमाणमा अगर, 'तुरुक्क धूवत्ति तुरुष्क- ' शिलारसादिना धूप सिवायना बाकीना धूपविधिनो त्याग करे 'पेज्जविहि'त्ति पीवा लायक आहारनो प्रकार,
२. अहीं आदि शब्द होवाथी ते सिवायना बीजा द्रव्योनो ख्याल आवतो नथी, तो पण तेथी बीजा परिगणित अने परिमित द्रव्यो हो, परन्तु सूत्रकारे विस्तारना भयथी बीजा परिमित द्रव्योनो उल्लेख नहि करतां आदि शब्द मूक्यो छे.
१ आनंदा
ध्ययन
॥१४॥
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१ आनंदा
उपासकदशांग सानुवाद
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ध्ययन
॥१५॥
॥१५॥
वेण वा मुग्गमाससूवेण वा, अवसेसं सूवविहिंपचक्खामि'३ । तयाणन्तरं च णं घयविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ सारइएणं गोघयमण्डेणं, अवसेसं घयविहिं पञ्चक्वामि' ३। तयाणन्तरं च णं सागविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ चुच्चूसाएण वा सुत्थियसाएण वा मण्डुक्कियसाएण वा, अवसेसं सागविहिं पञ्चक्खामि' ३। तयाणन्तरं च णं माहुरयविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ एगेणं पालङ्गामाहुरएणं, अवसेसं माहुरयविहिं पच्चक्खामि'३ । तयाणन्तरं च णं जेमणविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ सेहंबदालियंबेहिं, अवसेसं जेमणविहिं पञ्चक्खामि' ३ । तयाणन्तरंच सूपविधि-दाळनो त्याग करूं . त्यार बाद घृतविधिनु परिमाण करे छे. एक शरद ऋतुना गायना घृतमंड-सारभूत घी सिवाय बाकीना घृतविधिनो त्याग करुं छं. त्यार पछी शाकविधिनुं परिमाण करे छे. 'एक चुच्चू शाक, स्वस्तिक अने मंडूकिका शाक सिवाय बाकीना शाकनो त्याग करूं छु.' त्यार बाद माधुरक-मधुर रसना पीणानी विधिनुं परिमाण करे छे. पालंकना मधुर रसना पीणा तेना परिमाणमां 'कट्ठपेय'त्ति काष्टपेया-मग वगेरेनो यूष अथवा घी वडे तळेला तंदुलनी पेया जाणवी. भक्ष्यविधिना परिमाणमां | 'भक्ख'त्ति भक्ष्य शब्द कठण अने विशद आहार योग्य द्रव्यमां रूढ छे, परन्तु अहीं पकवान मात्र विवक्षित छे. 'घयपुण्ण'त्ति घृतपूर-1 घेबर प्रसिद्ध छे. 'खण्डखजत्ति जेनी उपर खांड चडावी होय पवा खाद्य-अशोकवति-मरकी अथवा खाजा जाणवा. ओदननी विधिना परिमाणमा 'ओदण'त्ति कूर-चोखा, कलमना चोखा, जे पूर्वदेशमां प्रसिद्ध छे. सूपमा सूप-कूर-दाळy बीजुं भोजन प्रसिद्ध छे, 164) 'कलायसुवेत्ति कलाय-चणानी आकृतिवाळू धान्यविशेष एटले वटाणा, तेनो सूप, मुद्ग-मग, माष-अडद प्रसिद्ध छे. घृतविधिना परिमाणमा 'सारइपण गोघयमंडेणं' शारदिक-शरद् ऋतुमा थयेलुं गोघृतमंड-श्रेष्ठ गायनुं घी जाणवू. शाकनी विधिना परिमाणमा अहीं वत्थुलादि शाक जाणवा, चुचू शाक, सौवस्तिक अने मंडूकिका शाक लोकप्रसिद्ध जाणवा. 'माहुरय 'त्ति माधुरक-खाटु नहि एवं
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥१६॥
॥१६॥
णं पाणियविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ एगेणं अन्तलिक्खोदएणं, अवसेसं पाणियविहिं पञ्चक्खामि'। तयाणन्तरं च णं मुहवासविहिपरिमाणं करेइ, 'नन्नत्थ पञ्चसोगन्धिएणं तम्बोलेणं, अवसेसं मुहवासविहिं पञ्चक्खामि' ३, ६ । तयाणन्तरं च णं चउब्विहं अणट्ठादण्डं पञ्चक्खाइ, तंजहा-अवज्झाणायरियं पमायायरियं हिंसप्पयाणं पावकम्मोवएसे ३, ७। सिवाय बाकीना बधा मधुररसना पीगानो त्याग करुं छु.' त्यार पछी जमगनी विधिनुं परिमाण करे छे. 'सेधाम्ल अने दालिकाम्ल सिवाय बाकीना जमणविधिनो त्याग करूं छु.' त्यार बाद पाणीनी विधिनुं परिमाण करे छे, 'एक अंतरीक्षोदक-वरसादना पाणी सिवाय चाकीना बधा पाणीनो त्याग करुं हुं.' त्यार पछी मुखवासनी विधिनु परिमाण करे छे, पंचसौगन्धिक (पांच सुगन्धी पदार्थ सहित) ताम्बूल सिवाय बाकीना बधा मुखवास विधिनो त्याग करुं हुं. त्यार पछी चार प्रकारना अनर्थदंडनो त्याग करे छे. ते मधुर रसवाल शालनक (?) पी' जाणवू. तेमा 'पालकत्ति पालंक-वल्लीना फळ विशेष रूप जाणवू. ते पालंकाना पीणा सिवाय वीजा पीणानो त्याग करे छे. 'जेमण'त्ति जेमन-वडा, पूरण बगेरे जमण कहेवाय छे, तेमा 'सेवदालियंबेहि सेधाम्ल-पक्यथया पछी खटाईनो
संस्कार करवामां आवे छे ते, दालिकाम्ल-मग वगेरेनी दाळना बनेलां खाटां बडां वगेरे जाणवां. पाणीनी विधिना परिमाणमा 'अंतलि | खोदयं ति अंतरीक्षोदक-जे पाणी आकाशमांथी पडतुं ग्रहण कराय ते जाणवू, ते सिवाय अन्य पाणीनो त्याग करे छे. त्यारबाद | मुखवास विधिना परिमाणमां 'पंचसोगंधिपणं' पलची, लवींग, कपूर, ककोल अने जायफळ ए पांच सुगंधी द्रव्य बडे संस्कारवाळा तांबूल सिवाय वीजा मुखवासनो त्याग करे छे.
त्यार पछी चार प्रकारना 'अणट्ठादंडति अनर्थ-धर्म, अर्थ अने काम सिवाय हिंसारूप के कर्मबंधनरूप दंड थाय ते अनर्थदंड, तेनुं
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
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६. इह खलु 'आणन्दा'ई समणे भगवं महावीरे आणन्दं समणोवासगं एवं वयासी-"एवं खलु आणन्दा ! समणोवासएणं अभिगयजीवाजीवेणं जाव अणइक्कमणिज्जेणं सम्मत्तस्स पञ्च अइयारा पेयाला जाणियव्वा न समायरियव्वा, तंजहा, संका,कला,विइगिच्छा, परपासण्डपसंसा, परपासण्डसंथवे । तयाणन्तरं च णं थूलगस्स | पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा पेयाला जाणियब्वा न समायरियव्वा, तंजहा-बन्धे, वहे,
आ प्रमाणे-१ अपध्यानाचरित-दुर्ध्यान करवू, २ प्रमादाचरित-प्रमाद सेववो, ३ हिंसप्तदान-हिंसा करनार शस्त्रादि आपवां, ४ पापकर्मनो उपदेश करवो.
६. अहीं 'हे आनन्द'! एम संबोधीने श्रमण भगवान् महावीरे आनन्द श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कधं-हे आनन्द ! जेणे जीवाजीव तत्वने जाणेला छे एवा अने यावत् निर्ग्रन्थ प्रवचनथी अनतिक्रमणीय-देवादि वडे पण अचलायमान एवा श्रमणोपासके सम्यक्त्वना पेयालाप्रत्याण्यान करे छे. १ 'अवज्झाणायरिय' अपध्यान-आर्त अने रौद्ररूप दुर्ध्यान, ते वडे आचरित-सेवेल अनर्थदंड ते अपध्यानाचरित. प्रमाणे २ प्रमादाचरित पण जाणवो. परन्तु विकथारूप अथवा तेल वगेरेना पात्रने नहि ढांकवारूप प्रमाद जाणवो. ३ हिंस्र-हिंसाना साधनभूत शस्त्रादि बीजाने आपवां ते हिंस्रप्रदान. ४ 'खेतर खेडो' वगेरे रूप पापोपदेश समजबो.
६ 'आणंदाइ' त्ति । हे आनन्द ! ए प्रमाणे संबोधी श्रमण भगवान् महावीरे आनन्दने आ प्रमाणे का, एज बाबत कहे छे'पवं खलु आणन्दा' इत्यादि. हे आनन्द ! जीवाजीवादि तत्त्वना जाणनार अने अनतिक्रमणीय-देवादियो अचलायमान श्रावके सम्यक्त्वना पांच अतिचारो-मिथ्यात्वना मोहनीयना उदयविशेषथी आत्माना अशुभ परिणामो, जे सम्यक्त्वने 'अतिचारयन्ति' दृषित करे छे, ते गुणवान् पुरुषोनी अनुपबृंहणा-प्रशंसा न करवी वगेरे अनेक प्रकारना छे, तेओमा 'पेयाला'-सारभूत, प्रधान, स्थूलपणे
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
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छविच्छेए, अइभारे, भत्तपाणवोच्छेए १। तयाणन्तरं च णं थूलगस्स मुसावायवेरमणस्स पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियब्बा, तंजहा-सहसाब्भक्खाणे, रहसाब्भक्खाणे, सदारमन्तभेए, मोसोवएसे, कूडलेहकरणे | २। तयाणन्तरं च णं थूलगस्स अदिण्णादाणवेरमणस्स पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा, तंजहाप्रधान, स्थूल अतिचारो जागवा, पण आचरवा नहि. ते आ प्रमाणे १ शंका, २ कांक्षा-अन्य दर्शननी इच्छा, ३ विचिकित्सा-धर्मना फळनो संदेह, ४ पर पापंड प्रशंमा-अन्य दर्शनीनी प्रशंसा, अने ५ परदर्शनीनो परिचय. त्यारबाद श्रमणोपासके स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रतना पांच स्थूल अतिचारो जाणवा, परन्तु तेनुं आचरण न करवू. ते आ प्रमाणे १ बन्ध, २ वध-ताडन, ३ छविच्छेद-अवयवोनो छेद करयो, ४ अतिशय भार भरवो, अने ५ भक्तपानव्यवच्छेद-पाणी अने खोराक बंध करवो. त्यार पछी स्थूल मृपावाद विरमण व्रतना पांच अतिचारो जाणवा, पण तेनुं आचरण न करवू. ते आ प्रमाणे-१ सहसा अभ्याख्यान-विचार कर्या सिवाय खोटा दोषनो आरोप करवो, २ रहसा अभ्याजेनो व्यवहार थाय छे तेवा पांच अतिचारो छे. तेमां १ शंका-जैन प्रवचनमा शंका करवी, संदेहशील रहे. २ कांक्षा-अन्य अन्य दर्शनने ग्रहण करवानो इच्छा करवी, ३ विचिकित्सा-धर्मना फळनो संदेह राखवो, अथवा विद्वज्जुगुप्सा-साधुओनी जात्यादिनी निंदा करवी, ४ परपाखंडस्तव-अन्य दर्शनीनी प्रशंसा करवी अने ५ पर पाखंडसंस्तव-अन्य दर्शनीनो परिचय करवो. स्थूल प्राणातिपात विरमणना पांच अतिचारो-१ बन्ध-मनुष्य पशु वगेरेने दोरडा वगेरेथी बांधवा, २ वध-लाकडी वगेरेथी मार, ३ छविच्छेद-शरीरना अवयवोनो छेद करवो, ४ अतिभारारोपण-तेवा प्रकारनी शक्तिरहित पशु वगेरे उपर घणो भार भरवो. ५ भक्तपानब्युच्छेद-खोराक पाणी वगेरे न आपq. अहीं पूज्य पुरुषोए आ प्रमाणे विभाग-विवेक बताव्यो छ-"बन्धवहं छविछेदं अइभारं भत्तपाणवोच्छेयं । कोहादिदसियमणो गोमणुयाईण नो कुज्जा ॥" बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिशय भार भरवो, अने खोराक अने पाणी न आपवा-ए
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
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तेणाहडे, तक्करप्पओगे, विरुद्धरजाइक्कमे, कूलतुलकूडमाणे, तप्पडिरूवगववहारे ३ । तयाणन्तरं च णं सदारसन्तोसिए पञ्च अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तंजहा-इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अणङ्गकीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिव्वाभिलासे ४ । तयाणन्तरं च णं इच्छापरिमाणस्स समणोख्यान-एकान्त निमित्ते असद् दोपनो आरोप करवो. ३ स्वदारमत्रभेद-पोतानी स्त्रीनी रहस्य-गुप्त वात प्रगट करवी. ४ मृषोपदेशअसत्य बोलवानो उपदेश करवो. अने ५ कूटलेखकरण-जुठा खतपत्र करवा. त्यार पछी स्थूल अदत्तादान-विरमण व्रतना पांच अतिचारो जाणवा, पण तेनुं आचरण न करवू. ते आ प्रमाणे-१ स्तेनाहृत-चोरे आणेली वस्तु खरीद करवी. २ तस्कर प्रयोग-चोरने चोरी करवा माटे प्रेरणा करवी, ३ विरुद्ध राज्यमा गमन करवू, ४ कूटतुलाकूटमान-खोटा तोला अने माप राखवा. ५ तत्पतिरूपकव्यवहार-मूळना वस्तुना जेवी वस्तुनो व्यवहार-प्रक्षेप करवो. त्यार बाद स्वदारसंतोष व्रतने विशे पांच अतिचारो जाणवा, पण क्रोधादि वडे दृषित मनवाळो गो-पशु अने मनुष्य वगेरेने न करे, तथा “न मारयामीति कृतव्रतम्य विनैव मृत्यु क इहातिचारः। निगद्यते यः कुपितः करोति व्रतेऽनपेक्षः तदसौ ती स्यात् ॥१॥ कायेन भग्नं न ततो व्रती स्यात् कोपाड्याहीनतया तु भग्नम् । तद्देशभंगादतिचार इष्टः सर्वत्र योग्यः क्रम एष धीमन् ॥" हुँ 'मारीश नहि-प्राणघात नहि करूं' आ प्रमाणे व्रत लेनारने तेना मृत्यु सिवाय शो दोष लागे छे? परन्तु जे गुस्से थईने बंध वधादि करे छे तेथी ते व्रतधारी व्रतथी निरपेक्ष थाय छे. तेणे कायाथी व्रतनो भंग कयों नथी माटे ते प्रतधारी कहेवाय छे, परन्तु कोप-गुस्सो करवाथी दया रहितपणे व्रतनो भंग कर्यों छे माटे अंशतः भंग थवाथी अतिचार लागे छे. हे बुद्धिमान् आक्रम बधां व्रतोमा योजयो.
स्थूलमृषावाद चिरमणना पांच अतिचार-१सहसाअभ्याख्यान-सहसा-बगर विचार्ये अभ्याख्यान-खोटो दोष चडाययो, खोटं आल
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उपासकदशांग सानुवाद
॥२०॥
वासरणं पञ्च अइयारा जाणियच्वा न समायरियन्वा तंजहा- खेत्तवत्थुपमाणाइक्कमे, हिरण्णसुवण्णपमामाइक्कमे दुपयचउप्पयपमाणाइक्कमे धणधन्नपमाणाइक्कमे, कुवियपमाणाइक्कमे ५ । तयाणन्तरं चणं दिसिवयस्स पञ्च अइयारा जाणियच्चा न समायरिया, संजहा- उड्ढदिसिपमाणाइक्कने, अहोदिसिपमाणाआचरवा नहि. ते आ प्रमाणे- १ इत्वरपरिगृहितागमन-थोडा काळ सुधी ग्रहण करेली स्त्री साथै गमन -मैथुन कर. २ अपरिगृहीता गमन - कोइए नहि ग्रहण करेली वेश्या वगेरे साथ मैथुन कर. ३ अनंगक्रीडा - कामोत्तेजक आलिंगनादि क्रीडा करवी. ४ परविवाहकरणपोताना अने पोतानी संतति सिवाय बीजाना विवाह करवा. ५ कामभोगतीवाभिलाप- कामभोगने विशे तीव्र इच्छा करवी. त्यार पछी श्रमणोपास के इच्छापरिमाणना पांच अतिचारो जागवा, पण आचरखा नहि. ते आप्रमाणे- १ क्षेत्रवस्तुप्रमाणातिक्रम क्षेत्र अने वास्तुघरना प्रमाणनुं उल्लंघन कर. २ हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम- हिरण्य-रूपा अने सुवर्ण-सोनाना प्रमाणनुं उल्लंघन कर, ३ द्विपदसूक. जेमके चोरी नहि करनारने 'तुं चोर छे' पस कहे वगेरे. ए वगर विचार्य क होवाथी पण तीव्र संक्लेशथी नहि क होवाथी अतिचार छे, २ रहसाअभ्याख्यान - रहस्- एकान्त, ते निमित्ते खोटं आळ सूक. तात्पर्य ए छे के एकान्ते मळी विचार करनाराने कहे के 'पओ राजविरुद्ध विचार करे छे' वगैरे. आ अनाभोग- अज्ञानपणे कहा होवाथी अतिचार है, अने तेमां एकान्तमात्र निमित्त होवाथी पूर्वना अतिचारथी तेनो भेद है. अथवा संभावित हकीकत कहेवाथी आ अतिचार हे पण व्रत भंग नथी. ३दारमन्त्रभेद - पोतानी स्त्री संबन्धी मन्त्र - विश्वासपूर्वक कहेली गुप्त बातचोतनो भेद प्रकाश करदो ते. साची यात कहेवा छतां पण स्त्री कहेल नहि प्रगट करवा लायक वातने प्रगट करवाथी लज्जादि वडे मरणादि अनर्थपरंपरानो संभव होवाथी वास्तविक ते ते असत्य छे अने तेथी र अतिचार रूप है ४ 'पोपदेशः 'वीजाओने बगर विवायें अनाभोगादिवडे के कपटपूर्वक असत्य उपदेश
१ आनंदा
ध्ययन
॥२०॥
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥२१॥
इक्कमे, तिरियदिसिपमाणाइक्कमे, खेत्तवुड्डी, सइ अन्तरद्धा ६ ।
चतुष्पदप्रमाणातिक्रम-द्विपद-दास दासी वगेरे, तथा चतुष्पद - गाय प्रमुख पशुओना प्रमाणनुं उल्लंघन करकुं, ४ धनधान्यप्रमाणातिक्रम-धन अने धान्यना प्रमाणनुं उल्लंघन करवुं. ५ कुप्यप्रमाणातिक्रम - कुप्य घरना वासण वगेरे उपकरणोना प्रमाणनुं उल्लंघन करवुं. त्यार बाद दिशावतना पांच अतिचारो जाणवा; पण तेनुं आचरण न करवुं, ते आ प्रमाणे- १ ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम-ऊर्ध्व दिशाना प्रमाणनुं उल्लंघन कर, २ अधोदिशाप्रमाणातिक्रम - अधोदिशाना प्रमाणनुं उल्लंघन कर, ३ तिर्यदिशाप्रमाणातिक्रमतिरछी - चारे तरफनी दिशाना प्रमाणनुं उल्लंघन करवुं. ४ क्षेत्रवृद्धि क्षेत्रनी दिशामां एक तरफ वृद्धि करवी. ५ स्मृत्यन्तर्धा - तनुं स्मरण न होवुं.
करवो. जेमके अमे आ के ते असत्य कहीने बीजाना उपर विजय मेळव्यो हतो. ए प्रमाणे वात कहेबाथी बीजाने असत्य बोलवानो बोध करवो. प अतिचार छे, कारण के तेनी साक्षात् असत्यमां प्रवृत्ति थती नथी. ५ कूटलेखकरण-असत्-खोटा लेख- दस्तावेज करवा. प्रमादादि वडे के दुर्विवेकपणाथी 'में मृषावादनो त्याग कर्यो छे परन्तु खोटा लेखनो त्याग कर्यो नथी' एवो विचार करनारने अतिचार रूप छे. सूत्रनी बीजी वाचनामां "कन्नालीयं, गवालियं, भूमालियं, नासावहारे, कूडसक्खे संधिकरणे' एवा प्रकारनो पाठ छे. आवश्यकादिमां तो तेने स्थूल मृपावादना भेदो कथा छे, तेथी तेनो आ अर्थ संभवे छे. ते प्रमाद, सहसाकार - विचार कर्या सिवाय अने अनाभोगादि बडे कहेवामां आवे तो अतिचार रूप हे अने बुद्धिपूर्वक कहेवामां आवे तो तेथी व्रतनो भंग थाय छे. ए अतिचारोनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे-१ कन्यालीक-कन्या कुमारिका, नहि परणेली स्त्री, ते माटे असत्य बोलवु ते कन्यालीक. ते वडे लोकमां अतिशय निंदा थाय छे. अहीं कन्यालीक वडे सर्व मनुष्य जाति संबन्धी असत्य जाणवुं. २ गवालीक - गाय संबन्धी असत्य बोलतुं,
१ आनंदा
ध्ययन
.
॥२१॥
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उपासकदशांग सानुवाद
र आनदार ध्ययन
॥२२॥
॥२२॥
ते पण चतुष्पद-पशुजातिनं उपलक्षण-सूचक है. भम्यलीक-भूमि संबन्धी असत्य, ते अपद-पगरहित सर्व सचेतन के अचेतन वस्त | संबन्धी असत्यनु उपलक्षण छे. एटले सर्व गमन रहित सचेतन के जड वस्तु संबन्धी असत्य बोलवु. ४ न्यासापहार-न्यास-थापण, बीजाप थापण तरीके मूकेलुं द्रव्य, तेनो अपहार-अपलाप करवो. ५ कूटसाक्ष्य-कूट-असत्यनो संवाद करवा वडे जुठी साक्षी आपवी. क्या आपबी? 'संधिकरणे' परस्पर बेनो विवाद थयो होय त्यारे संधि-सुलेह करवामां खोटी साक्षी आपवी. अहीं न्यासापहार अने कूटसाक्ष्य प बन्न अतिचारोनो प्रथमना त्रण अतिचारमा समावेश थतो होवा छतां तेना प्राधान्यनी विवक्षा बडे अपलाप अने साक्षी आपवानी क्रियाने जुदी ग्रहण करी छे. स्थूल अदत्तादानविरमण व्रतना पांच अतिचार-१ तेणाहडेत्ति स्तेनाहृत-चोरे आणेली वस्तु, ते ) सोंधी छे एम जाणी लोभथी चोरेली वस्तुने खरीद करनार के लेनार त्रीजा व्रतनो अतिचार करे छे-त्रीजा व्रतने दृषित करे छे. माटे ते अतिचारनु कारण होवाथी 'स्तेनाहत' प अतिचार छे. कारण के ए साक्षात् चोरी करतो नथी, माटे ते अतिचार रूप छे.२ तक्करपओगे'त्ति तस्करप्रयोग-चोरने चोरी करवा माटे प्रेरणा करवी. 'तमे चोरी करो' ए प्रमाणे अनुज्ञा करवी. ते अनाभोगादि बडे अतिचार रूप छे. ३ 'विरुद्धरज्जाइक्कमे विरुद्धराज्यातिकम-परस्पर विरुद्ध राजाओना राज्यमां अतिक्रम-जवं. कारण ते राजाओए जवानी परवानगी आपी नथी, अने चोरी करवानी बुद्धि पण नथी. पटले अनाभोगादि वडे अतिचार छे. ४ 'कूडतुलकूडमाणे' कूटतूलाकृटमान-तुला-* तोलां काटलां प्रसिद्ध छ,-मान माप, कुडव बगेरे. ते न्यूनाधिक राखवा. न्यून तोल अने माप बडे आपतो अने अधिक तोल अने माप वडे ग्रहण करतो त्रीजा व्रतनो अतिचार सेवे छे. अथवा 'हुं चोर नथी, कारण के खातर पाडवू वगेरे कयु नथी' माटे व्रतसापेक्ष होवाथी ते अतिचार छ. ५ 'तप्पडिरूवगववहारे'-तत्प्रतिरूपकव्यवहार-ते मूळ वस्तुना प्रतिरूपक-सरखी वस्तुनो व्यवहार-मूळ वस्तुमा प्रक्षेप करबो. पटले वीही-डांगरमां पराळ अने घी वगेरेमां चरबी वगेरे मेळवां, अथवा तेना प्रतिरूपक-चरबी वगेरेने घृतादि रूपे व्यवहार करयो. ए अतिचार रूप हे ते पूर्वनी पेठे जाणवं. 'सदारसंतोसीए' स्वदारसंतोष व्रतना पांच अतिचार छे-१
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥२३॥
॥२३॥
XXXCCCCCCCCKER.
'इत्तरियपरिग्गहियागमणे' 'इत्थरकालपरिगृहीतागमन-अहीं काळ शब्दनो लोप थयो छे. थोडा काळ सुधी ग्रहण करेली एटले
१ भाई आपवा बडे थोडा काळ माटे वेश्याने पोतानी स्त्री करीने गमन करनार पुरुषने पोतानी कल्पना बडे पोतानी स्त्री मानेली होवाथी व्रत सापेक्ष होवाने लीधे व्रतनो भंग थतो नथी अने अल्प काळ सुधी ग्रहण करेली होबाथी अने वास्तविक रीते पोतानी स्त्री नहि होवाथी व्रतनो भंग थाय छे माटे भंगाभंगरूप अतिचार छे. २ अपरिगृहीता-वेश्या, जेनो पति विदेशमा गयो छे एवी स्वच्छंदी खी अने धणी विनानी कुलांगना, तेनी साथे गमन करनार पुरुषने अनाभोगादि तथा अतिकमादि वंडे अतिचार लागे छे. आ बन्ने अतिचारो स्वदारसंतोषीने होय छे, पण परस्त्री त्यागीने होता नथी. कारण के थोडा काळ माटे भाई आपी ग्रहण करेली वेश्या होवाथी, अने ते सिवायनी बीजी कुलांगना वगेरे अनाथ होवाथी परस्त्री नथी. बाकीना अतिचारो स्वदारसंतोषी अने परस्त्रीत्यागी बन्नेने लागे छे, आ हरिभद्राचायनो मत छे अने ते आगमानुसारी छे. बीजा आचार्यों आ संबन्धे कहे छे के-इत्वरपरिगृहीतागमन ए स्वदार संतोषीने अतिचाररूप छे, अने अपरिगृहीतागमन ए परखीत्यागीने अतिचाररूप छे. कारण के ज्यारे वेश्याने कोइए भाई आपीने पोतानी रखात करेली होय अने तेनी साथे मैथुन गमन करे त्यारे परस्त्री गमनना दोषनी संभव होवाथी व्रतनो भंग थाय छे अने कोइ अपेक्षाए परस्त्री नहि होवाथी भंग थतो नथी माटे भगाभंगरूप अतिचार छे. अन्य आचार्य आ अतिचारनी पीजी रीते विचार करे छे-स्वदारसंतोषी में मैथुन मात्रनो त्याग कयों छे' एम समजी पोतानी कल्पनाथी वैश्या दकने विशे मैथुननो त्याग करे छे, पण आलिंगनादिनो त्याग करतो नथी, अने परस्त्रोत्यागी परस्त्रीने विशे मैथुननो त्याग करे छे पण आलिंगनादिनो त्याग करतो नथी माटे कथंचित् व्रतसापेक्ष होवाथी बने अतिचाररूप छे. ए प्रमाणे स्वदारसंतोषीने पांच अतिचार अने परस्त्रीत्यागीने त्रण अतिचार छे. बीजा आचार्यों अन्य प्रकारे अतिचारोनो विचार करे छे-परस्त्रीत्यागीने पांच अतिचार अने स्वदार संतोषीने त्रण अतिचार होय छे, कारण के कोइए भाई बगेरे आपीने राखेली वेश्यानी साथे मैथुन सेवनार परस्त्रीत्यागीने व्रतनो भंग थाय छे, कारण के ते थोडा काळ सुधी परस्त्री छ, परन्तु लोकमां परस्त्री तरीके प्रसिद्ध नथी माटे भंग थतो नथी तेथी भंग अने अभंगरूप अतिचार छे. अपरिगृहीता-अनाथ कुलांगना साथे मथुनसेवी परस्त्रीत्यागीने ते पण अतिचार छे, कारण के ते बीजा धणीना अभावे परस्त्री नथी, माटे भंग थतो नथी अने लोकमां परस्त्री तरीके प्रसिद्ध छे माटे व्रतनो भंग थाय छे माटे भंग अने अभंगरूप अतिचार छे. स्वदारसंतोषीने तो पूर्वोक्त वे अतिचार व्रतभंग रूप छे, बाकीना त्रण अतिचार स्वदारसंतोषी अने परस्त्रीत्यागी बन्नेने होय छे. स्त्रीने स्वपुरुषसंतोष अने परपुरुषत्यागमा भेद नथी,
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१ आनंदा
उपासकदशांग सानुवाद
ध्ययन
॥२४॥
॥२४॥
भाडं आपवा बडे दिवस, मास वगेरे थोडा काळ पर्यंत राखेली वेश्यानी साथे गमन-मैथुन सेवq. ते अतिक्रमादि वडे अतिचार छे. २ 'अप्परिग्गहियागमणे' अपरिगृहीतागमन-अन्यनो पासेथी जेणे मूल्य ग्रहण कयें छे एवी अपरिगृहीता-वेश्या, अथवा के धणी विनानी कुलांगना स्रो, तेनी साथे मैथुन सेवq, आ पण अतिक्रमादि वडे अतिचार छे. ३ 'अणंगकीडा'-अनंगक्रीडा-अंग-शरीरना अवयव, मैथुन कार्यनी अपेक्षाए योनि अथवा पुरुषचिह, तेथी भिन्न अनंग-स्तन, काख, साथळ, मुख वगेरे, तेने विशे क्रीडा करवी. पोतानी स्त्री सिवाय बीजी स्त्रीने विशे मैथुननो त्याग करी अनुरागथी आलिंगनादि करनारने व्रतनी मलीनता थाय छे माटे ते अतिचाररूप छे. ४'परविवाहकरणे' पोताना तथा पोतानी संतति सिवाय बीजाना विवाह करवा. अहीं आ तात्पर्य छ-'स्वदारसंतोषीने वीजाना विवाह करवा वडे मैथुनमा प्रेरणा करवी अयोग्य छे, कारण के ते विशिष्टविरतिवाळो छे, एम नहि जाणनारने परोपकार करवानी तत्परता वडे आ अतिचार छे. ५ 'कामभोगतिब्वाभिलासे' कामभोगतीव्राभिलाष-शब्द अने रूप काम छे अने गन्ध, रस अने स्पर्श भोग छे, तेमां तीवाभिलाप-उत्कट इच्छा. तात्पर्य आ छे-स्वदारसंतोपी विशिष्ट विरतिवाळो छे अने तेने तेटलुंज मैथुनसेवन करवू कारण के स्वपुरुष सिवाय बीजा परपुरुष छे, परविवाहकरणादि त्रण अतिचारो स्त्रीने स्वदारसंतोषीनी पेठे पोताना पुरुष संबन्धे होय छे, स्वीने प्रथम अतिचार ज्यारे पोतानो पति वाराना दिवसे सपत्नीए परिगृहीत-ग्रहण करेलो छे त्यारे पोतानी सपत्नीना वारानो भंग करी पतिनी साथे उपभोग करनारी स्त्रीने होय छे. बीजो अतिचार परपुरुष पासे जती स्त्रीने अतिक्रमादि बडे होय छे. जुओ योगशास्त्र प्रकाश, ३ मो. ९४ टीका.
२ अतिक्रम-जेनु प्रत्याख्यान कयु छे तेने करवानो संकल्प करवो, व्यतिक्रम-ते करवाने पगडं भरवू, अतिचार-त वस्तुने ग्रहण करवी, अने ४ अनाचारतेनुं आचरण कर. टाणांग सूत्रनी टीकामां आधाकर्मादिने आश्रयी अतिक्रमादि बताव्या छ
"आहाकम्मामंतणपडिसुणमाणे अइकमो होइ । पयमेयादि वरकम गहिए तहण्यरो गिलिए"। ज्यारे आधाकर्मनुं आमन्त्रण कबुल राखे त्यारे अतिक्रम, पगडं भरे इत्यादिमां व्यतिक्रम, आधाकर्मने ग्रहण करे त्यारे अतिचार अने खाय त्यारे अनाचार थाय छे. जुओ स्थानांग पा. १५९
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उपासकदशांग सानुवाद
॥२५॥
उचित छे के जेटला वडे वेदना उदयथी थयेली इच्छा शान्त थाय, परन्तु जे वाजिकरणादि वडे अथवा कामशास्त्रमा बतावेला प्रयोगो वडे अधिक इच्छा उत्पन्न करीने सुरत सुखने इच्छे छे ते परमार्थथी मैथुनविरमण व्रतने मलिन करे छे, कयो बुद्धिमान १ आनंदा| मनुष्य पामा-खरजना व्याधिने उत्पन्न करीने अग्निना आश्रयजन्य सुखने इच्छे ? माटे कामभोगतीवाभिलाष अतिचाररूप छे.
ध्ययन - इच्छापरिमाण व्रतना पांच अतिचारो-१ 'खेत्तवत्थुपमाणाइक्कमे क्षेत्रवस्तुप्रमाणातिक्रम-प्रत्याख्यान समये ग्रहण करेला क्षेत्र अने वास्तु-घरना प्रमाणर्नु उल्लंघन करवू. ते अनाभोगादि वडे तथा अतिक्रमादि बडे अतिचाररूप छे. अथवा एक क्षेत्रादिनु परिमाण करनारे तेथी बोजा क्षेत्रनी वाड प्रमुख सीमा दूर करीने तेने पूर्वना क्षेत्रमा जोडी देवू ते क्षेत्रप्रमाणातिक्रम अतिचार छे, कारण के तेने | ॥२५॥ व्रतनी अपेक्षा छे. २ 'हिरण्णसुवण्णपमाणाइको-हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम-हिरण्य-रूपुं अने सुवर्णना प्रमाणनुं उल्लंघन कर. अथवा राजा वगेरे पासेथी मळेल हिरण्यादिने अभिग्रह पूरो थाय त्यां सुधी अन्यने आपनार अने अभिग्रह पूरो थया पछी ग्रहण | | करीश' एवा अध्यवसायवाळाने आ अतिचार छे. ३ 'धणधन्नपमाणाइक्कमे' धनधान्यप्रमाणातिक्रम-धन-गणिम-जेनी गणना थई शकेल तेवू जायफळ सोपारी वगेरे, धरिम-तोळी शकाय तेवु केसर, गोळ वगेरे, मेय-माप करवा योग्य घी, दूध वगेरे अने परीक्ष्यपरीक्षा करवा योग्य रत्न वगेरेना भेदथी चार प्रकारनुं छे. धान्य-डांगर, जव, घउं वगेरे सत्तर प्रकारनुं छे. तेना परिमाण | उल्लंघन करखं. आ अनाभोगादिथी अतिचार छे. अथवा बीजानी पासेथो प्राप्त थयेल धनादि अभिग्रह पूर्ण थाय त्यां सुधी बीजाना मोबांधी राखनारने आ अतिचार छे. ३ 'दुपयचउप्पयपमाणाइक्कमे द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रम-दास दासी वगेरे द्विपद अने IKX गाय वगेरे चतुष्पदना प्रणाणर्नु उल्लंघन करवू. आ अतिचार ते प्रमाणेज जाणवो. अथवा गाय, घोडी वगेरे चतुष्पद स्त्रीने विशे अभिग्रहकाळनी मर्यादा पूरी थाय पटले जेम प्रमाणथी अधिक वत्सादि चतुष्पदनो उत्पत्ति थाय ते प्रमाणे सांढ वगेरेने नांखी गर्भ ग्रहण करावनारने अतिचार रूप छे. कारण के जन्मेला वत्स वगेरेनी अपेक्षाए प्रमाणनी मर्यादानो भंग थतो नथी अने गर्भनी अंदर रहेलानी अपेक्षाए प्रमाणर्नु उल्लंघन थाय छे. ५ 'कुवियपमाणाइक्कमे कुप्यप्रमाणातिकम-कुप्य-स्थाल, कचोळां वगेरे घरनी सामग्री,
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१ आनंदाध्ययन
उपासकदशांग सानुवाद ॥२६॥
॥२६॥
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अथवा रूपा अने सोना सिवाय कांसं, लोई, तांबु, सीसुं, जसत, माटीना वासण वगेरे जाणवू. तेना प्रमाणर्नु अनाभोगादिवडे उल्लंघन करवू ते अतिचार रूप छे. आ अतिचार पण अनाभोगादि बडे जाणवो. अथवा 'पांच स्थालनो परिग्रह राखवो' इत्यादि अभिग्रहवाळा कोईने पण तेथी वधारे स्थाळ वगेरे प्राप्त थयुं होय त्यारे प्रत्येकमां बे इत्यादि मेळवीने पूर्वनी संख्या कायम राखवा वडे आ अतिचार रूप छे. ए संबन्धे का छे के "खेत्ताइ-हिरण्णाइ-धणाइ-दुपयाइकुप्पमाणकमे । जोयण-पयाण-बंधण-कारण-भावेहि नो कुजा" ॥ क्षेत्र अने गृह वगेरेमां पासेना क्षेत्र अने घर वगेरेने जोडी देवाथी, हिरण्यादिने 'अभिग्रह पूर्ण थया पछी ग्रहण करीश' एम कहीने बीजाने प्रदान-आपवाथी, धनादिने बन्धन बांधी मूकवाथी, व्रत भंग थवाना भयथी 'अमुक काळ पछी ग्रहण करीश' एम कही तेना घेर स्थापन करवाथी, द्विपद-चतुष्पदादिने कारण-गर्भग्रहण कराववाथी, दासी, गाय बगेरेने अमुक काळनी अंदर प्रसव थाय तो अधिक संख्या थवाथी व्रतनो भंग थाय माटे केटला काळ पछी गर्भ ग्रहण कराववाथी, तथा कुप्य-राचरचीलाने व्रत भंगना भयथी भावथी-बे बेने मेळवी एक करवाथी, अथवा अभिग्रहनी मर्यादानो काळ पूरो थया पछी हुं लईश माटे बीजाने न आपीश ए प्रकारे राखी मूकाववाना भाव-अभिप्रायथी तेना प्रमाणनो अतिक्रम थवामां अतिचार लागे छे.
दिशावत अने शिक्षा व्रत पूर्वे कह्यां नथी तो पण ते त्यां कहेला जाणवां, कारण के अन्यथा अहीं अतिचार कहेवानो अवकाश नथी. जो एम न होय तो पूर्वे का छे के 'दुवालसविहं सावगधम्म पडिवजिस्सामि' बार प्रकार श्रावकधर्मने ग्रहण करीश. अथवा तो आगळ कहेशे के 'दुवालसविहं सावगधम्म पडिवजई' बार प्रकारना श्रावकधर्मने ग्रहण करे छे ते केम घटे? अथवा सामायिकादि शिक्षाव्रतो थोडा काळना हावाथी अने अमुक काळे करवाना होवाथी ते समये तेमणे ग्रहण कर्या नहोता अने दिवत पण ग्रहण कयु नहोतुं, कारण के तेनी विरतिनो अभाव छे. परन्तु उचित अवसरे ग्रहण करशे माटे भगवंतनो व्रतना अतिचारोने त्याग करवानो उपदेश युक्त छे. पूर्वे जे कमु छे के हुं बार प्रकारनो गृहस्थधर्म स्वीकारीश, अने जे आगळ कहेशे के 'बार प्रकारना श्रावकधर्मनो स्वीकार करे छे' | ते योग्य समये करवानो स्वीकार करवाथी ते कथन अयुक्त नथी एम समजबु. तेमां दिशाव्रतना पांच अतिचार आ प्रमाणे छ
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदा
ध्ययन 7
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॥२७॥
तयाणन्तरं च णं उवभोगपरिभोगे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-भोयणओ य कम्मओ य । तत्थ णं भोयणओ य समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तंजहा-सचित्ताहारे, सचित्तपडिबद्धाहारे, __ त्यार पछी उपभोग-परिभोग व्रत बे प्रकारचें कहेलुं छे. ते आ प्रमाणे-भोजनने आश्रयी अने कर्मने आश्रयी. तेमां भोजनने आश्रयी श्रमणोपासके पांच अतिचारो जाणवा, पण आचरवा नहि. ते आ प्रमाणे-१ सचित्ताहार-सचेतन वनस्पति वगेरेनो 'उडढदिसिपमाणाइकमे' ऊर्य दिशाना प्रमाणर्नु उल्लंघन करवं. क्वचित् 'उड्ढदिसाइकमे' एवो पाठ के. ए प्रमाणे २ अधोदिशा अने ३ तिर्यग दिशाना प्रमाणर्नु उल्लंघन करवू. ए ऊर्वदिशादिनो अतिक्रम-उलंघन अनाभोगादि अने अतिक्रमादिवडे अतिचार रूपे जाणवू. ४ 'खेत्तवुढि'त्ति. क्षेत्रवृद्धि-पक दिशामा सो योजन प्रमाण क्षेत्रनो अभिग्रह छे अने बीजी दिशामां दस योजन छे, तेथी जे दिशामा दस योजन छे ते दिशामा जवान प्रयोजन होय त्यारे पोतानी बुद्धिथी सो योजनांधी दस योजन लइने बीजा दस योजन तेमां नांखे छे, एटले पक दिशामां वधारे छे. तेने व्रतनी अपेक्षा होवाथी आ अतिचार छे. ५ 'सइअन्तरद्धा' स्मृत्यन्त -स्मृतिनो अन्तर्द्धा-नाश, दिशाना परिमाणनी स्मृति-याददास्त न होवी. 'में सो योजननी मर्यादानुं के पचास योजननी मर्यादानुं व्रत ग्रहण कयु छे' एवं स्मरण न होय त्यारे सो योजननी मर्यादा होय तोपण पचास योजननी आगळ जनारने अतिचार जाणवो. (जो अनाभोगथी क्षेत्रपरिमाणर्नु उल्लंघन कर्यु होय तो पार्छ फरवु, जाण्या पछी न जवू, बीजाने न मोकलवो. आज्ञा सिवाय कोइ गयो होय तो तेणे जे वस्तु मेळवी होय अथवा विस्मरण थवाथी स्वयं गयो होय अने जे वस्तु मळी होय तेनो त्याग करवो.)
उपभोग-परिभोग व्रत के प्रकारनु छे-'भोयणओ य कम्मओ य' भोजनने आश्रयी, पटले बाह्य अने अभ्यन्तर भोग्य वस्तुनी अपेक्षाए अने 'कर्मतः' क्रियाने-बाह्य अने अभ्यन्तर भोग्य वस्तुनी प्राप्तिनुं कारण जीवनवृत्ति-आजीविकाने आश्रयी. तेमा भोजनने आश्रयी पांच अतिचारो आ प्रमाणे छे–१ 'सचित्ताहारे' चित्त-चेतना सहित होय ते सचित्त-पृथिवीकाय, अप्काय अने वनस्पतिकाय जीवना
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उपासकदशांग सानुवाद
॥२८॥
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अप्पउलिओसहिभक्खणया, दुप्पउलिओसहिभक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया । कम्मओ णं समणोवा-14 १ आनंदासएणं पण्णरस कम्मादाणाई जाणियब्वाई, न समायरियव्वाई, तंजहा-इङ्गालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, I ध्ययन आहार करवो, २ सचित्तपतिबद्धाहार-सचित्त वस्तुनी साथे लागेली अचित्त वस्तुनो आहार करवो, ३ अपक्वौषधिभक्षण-अपक्य-अग्निथी| नहि पाकेली औषधि-वनस्पतिनुं भक्षण करवू, ४ दुष्पक्वौषधिभक्षण-अर्ध पाकेली वनस्पतिर्नु भक्षण करवू, ५ तुच्छौषधिभक्षण- ॥२८॥ सचेतन शरीरनो आहार करवो. जेणे सचित्ताहारनो त्याग कर्यो छे अथवा तेनुं परिमाण कयु छ तेने अनाभोगादि बडे त्याग | करेला सचेतन आहारतुं भक्षण करतां अथवा परिमाणने आश्रयी अतिक्रमादिमां वर्ततां आ अतिचार रूप छे. २ 'सचित्तपडिबद्धाहारे' सचित्त वृक्षादिने विशे प्रतिबद्ध-लागेला अचित्त गुंदा वगेरेनो आहार करवो. अथवा सचित्त ठळीयानी साथे लागेला जे पक्व खजूर वगेरेने ठळीया सहित 'खजूर वगेरेनो अचित्त कटाह-गर खाइश अने बीजानो त्याग करीश' प भावनाथी मुखमा नांखवो. ते व्रतसापेक्ष होवाथी तेने ए अतिचार छे. ३अप्पउलिओसहिमक्खणया' अपक्व-अग्नि बडे जेनो संस्कार कयों नथी एवी 'ओषधी-डांगर वगेरे वनस्पतिनुं भक्षण कर. आ पण अतिचारु अनाभोगादि वडे छे. (प्र०)-सचित्ताहारमा आ अतिचारनो समावेश थाय छे तो जुदो अतिचार शा माटे कह्यो ? (उ०)-पूर्वोक्त पृथिव्यादि सामान्य सचित्तनी अपेक्षाए ओषधी हमेशा खावा योग्य होवाथी तेनुं प्राधान्य बताववा माटे छे. कारण के लोकव्यवहारमा सामान्यनुं ग्रहण करवामां आव्युं होय तो पण प्राधान्य बताववा माटे विशेषनुं जुहूं ग्रहण करवामां आवे छे. ४ 'दुप्पउलिओसहिभक्खणया' दुष्पक्व-अर्ध पक्व थयेला चोखा घउं वगेरे ओषधीनुं भक्षण करवं. कारण के तेमां सचित्त अवयवनो संभव होवाथी तेने पक्वनी बुद्धि वडे भक्षण करनारने अतिचार लागे छे. ५ 'तुच्छोसहिभक्खणया
१ 'ओषध्यः फलपाकान्ताः' जे वनस्पतिनो फळना पाकवाथी नाश थाय छे ते शालि, थव घउं वगेरे ओषधी जाणवी.
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१ आनंदाध्ययन
उपासकदशांग सानुवाद ॥२९॥
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भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दन्तवाणिज्जे, लक्खवाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, जन्तअसार एवी मगफळी वगेरे वनस्पतिनुं भक्षण करवू. कर्मने आश्रयी श्रावके पंदर कर्मादानो जाणवां, पण आचरवां नहि. ते आ प्रमाणे-१ अंगारकर्म-अंगार-कोलसा इंटो वगेरे करीने तेनो वेपार करवो, २ वनकर्म-वनस्पति कापीने तेनो वेपार करवो, ३ शकटकर्मतुच्छ-असार पची ओषधी-कोमळ मगनी शींग वगेरेनुं भक्षण कर. कारण के तेने खावामां घणी विराधना थाय छे अने तेनाथी स्वल्प | प्ति थाय छे. माटे अचित्तभोजी विवेकी श्रावके अचित्त करीने पण खावा योग्य नथी. तेम करीने पण खावामां अतिचार लागे छे. कारण के ते व्रतसापेक्ष छे. आ पांच अतिचारो पण वीजा अतिचारोनुं उपलक्षण छे, कारण के मद्य, मांस, मध अने रात्रिभोजन बगेरेना व्रतवाळाने अनाभोग अने अतिक्रमादि वडे अनेक अतिचारो लागे छे. 'कम्मओ ण' इत्यादि. कर्मने आश्रयो 'हुँ खर कर्मादिनो त्याग करूं ' पवा प्रकारचं उपभोग व्रत छे. खर-कठोर-प्राणीना हिंसा करनार कर्म-भोगोपभोगनु साधन द्रब्य उपार्जन करवानो व्यापार ते खरकर्म कहेवाय छे. तेमां श्रमणोपासके पंदर कर्मादानोनो त्याग करवो. १ 'इंगालकम्मे त्ति अङ्गारकर्म-कोलसा करवा पूर्वक तेनो
२ योगशास्त्रमा अपक्यौधिमक्षण अने तुच्छौषधी भक्षणने बदले सन्मित्र अने अभिषव ए वे अतिचारो कह्या छे. सन्मित्र-सचित्त बडे मिश्र आहार, जेमके आदु, दाडम वगेरे वडे मिश्र पूरण बगेरे, आ पण अनाभोग अने अतिक्रमादि बडे अतिचार छे. अभिषव-अनेक व्यना संधान-आथा बडे थयेल मद्य वगेरे, आ एण साबध आहारना त्यागीने अनाभोग अने अतिक्रमादि बडे अतिचाररूप छे. कोइ आचार्य अपक्ष ओषधिनाआहारने अतिचाररूपे कहे छे, अपक्च-अग्नि बगेरे बडे जेनो संस्कार थयो नथी ते, आनो पण प्रथम सचित्ताहार रूप अतिचारमा समावेश थाय छे. केटला एक तुच्छौषधिभक्षणने पण अतिचार कहे छे. तुच्छौषधीमग वगैरेनी कोमळ शीगो वगेरे, जो ते सचित्त छे तो तेनो सचित्त आहारमा समावेश थाय छे, जो अमिमां पकाक्वा वगेरे बडे अचित्त छे तो शो दोष छे ? जुओ योगशास्त्र प्रकाश ३ श्लोक ९८.
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उपासकदशांग
१ आनंदा
ध्ययन
सानुबाद
॥३०॥
॥३०॥
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पीलणकम्मे, निलंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलावसोसणया, असईजणपोसणया ७। तयाणन्तरं च णं अणट्ठादण्डवेरमणस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा । तंजहागाडां करवा, वेचवा अने चलाववा. ४ भाटककर्म-गाडा वगेरे वाहनो भाडे फेरववा, ५ स्फोट कर्म-भूमि खोदवा वगेरे द्वारा आजीविका करवी. ६ दन्तवाणिज्य-हाथीदांत वगेरेनो व्यापार करवो, ७ लाक्षावाणिज्य-लाख वगेरेनो वेपार करवो, ८ रसवाणिज्यमदिरा वगेरेनो वेपार करवो. ९ केशवाणिज्य-दास, गाय, ऊंट हाथी वगेरे केशवाळा-प्राणीओनो वेपार करवो. १० विषवाणिज्यविष-झेर अने शस्त्रादिनो वेपार करवो. ११ यत्रपीलनकर्म-तल शेरडी वगेरे पीलवा. १२ निलांछनकर्म-प्राणीओना कान वगेरे अव-| यवो छेदवा. १३ दवाग्निदान-वन वगेरेने अग्निथी सळगाववा, १४ सरोवर, द्रह, तळाव वगेरेनुं शोषण करवू.१५ असतीपोषण-कुलटा वेपार करवो. ए प्रमाणे बीजु पण अग्निना समारंभ पूर्वक इंटो अने माटीना वासण वगेरे पकाववा रूप आजीविका करवी ते अङ्गारकर्म जाणवू. कारण के पोर्नु समान स्वरूप छे. अङ्गारकर्मर्नु जेणे प्रत्याख्यान कर्यु छे ते अनाभोगादि वडे तेमा प्रवर्ततो होवाथी तेने आ अतिचार छे. ए प्रमाणे बधे विचार करवो. परन्तु २ वनकर्म-वनस्पतिने छेदवा पूर्वक तेने वेचवा वडे आजीविका करवी. ३ शकट कर्म-गाडाने घडवा, वेचवा अने चलाववारूप जाणवू. ४ भाटककर्म-गाडा वगेरे वडे बीजाना पात्र वगेरेर्नु भाडाथी लइ जवु. ५ स्फोटकर्म-कोदाळी हळ वगेरेथी भूमिने खेडवा द्वारा आजीविका करवी. ६ दन्तवाणिज्य-हाथीदांत, शङ्ख, पूतिकेश ( ) वगेरेने ते कर्म करनारा पासेथी खरीद करीने तेने वेचवा द्वारा आजीविका करवी. ७ लाक्षावाणिज्य ए जेमा जोवोत्पत्ति थाय एवा बोजा द्रव्यर्नु सूचक छे. पटले जीवोत्पत्तिना हेतुभूत लाख बगेरेनो वेपार करवो. ८ रसवाणिज्य-मदिरा वगेरेनो वेपार करो. ९ विषवाणिज्य ए जीवहिंसाना कारणभूत शस्त्र वगेरेना वेपारनुं उपलक्षण-सूचक छे तेथी जीवहिंसा जेनु कार्य छे एवा विष अने शस्त्रादिनो
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥३१॥
॥३१॥
कन्दप्पे, कुक्कुइए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोगपरिभोगाइरित्ते ८ तयाणन्तरं च णं सामाइयस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियब्वा न समायरियव्वा । तंजहा-मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्प-| दासी वगेरे तथा हिंसक प्राणीओनुं पोषण कर. त्यार बाद श्रमणोपासके अनर्थदंड विरमण व्रतना पांच अतिचारो जाणवा पण आचरवा नहि ते आ प्रमाणे-१ कंदर्प-कामोत्तेजक वचनो, २ कौत्कुच्य-परिहास उत्पन्न करनार भांडचेष्टा, ३ मौखर्य-वाचालपणुं, असंबद्ध बोलवु, ४ संयुक्ताधिकरण-अधिकरण-हिंसाना साधनो जोडी तैयार राखवां, ५ उपभोगपरिभोगातिरिक्त-उपभोग अने परिभोगनी वस्तुओ अधिक राखवी. त्यार बाद श्रमणोपासके सामायिक व्रतना पांच अतिचारो जाणवा पण तेर्नु आचरण न करवं. ते आ प्रमाणे-१ मनोदुष्प्रणिधान-मनमां दुष्ट चिन्तन करवू. २ वचन दुष्प्रणिधान-दुष्ट वचननी प्रवृत्ति, ३ कायदुष्प्रणिधान-कायानी दुष्ट वेपार करवो. १० केशवाणिज्य-केशवाळा दास, गाय, ऊंट, हाथी वगेरेनो बेपार करवो. ११ यन्त्रपीडनकर्म-यन्त्र वडे तल, शेरडी बगेरेने पीलवारूप कर्म करवु. १२ निलांछन कर्म-प्राणीओना अवयवोनो छेद करवो. १३ दवाग्निदान-खेतर वगेरेने साफ करवा माटे दवाग्नि आपवो, १४ सरोहदतडागपरिशोषणता-सरोवर, हृद-द्रह अने तळाव वगेरेने सूकवी नांखवा. तेमां सरोवर-स्वाभाविक बनेलु होय ते, हृद-नदी बगेरेनो नीचाण प्रदेश, पाणीनो धरोः तडाग-तळाव, खोदवा बडे थयेलु उपरना भागमा विस्तारवाळ पाणीनुं स्थान, एओने घडं वगेरे वाववा माटे सूकवी नांखवा. १५ असतीपोषणता-कुलटा दासी वगेरेने ते द्वारा आजीविका चलाववा माटे पोपवा. तथा बीजं पण घातकी प्राणीनुं पोषण कर ते असतीपोषण जाणवू.
अनर्थदण्डविरमण व्रतना पांच अतिचार-१ कन्दर्प-काम, तेनुं कारणभूत विशिष्ट वचनप्रयोग पण कन्दर्प कहेवाय छे. रागनी अधिकताथी हास्यमिश्रित मोहने उद्दीपन करनार मश्करी करवी. आ प्रमादाचरित रूप अनर्थदंडविरमगवतनो अतिवार सहसाका
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥३२॥
णिहाणे, सामाइयस्स सइअकरणया, सामाइयस्स अणवद्वियस्स करणया ९ । तयाणन्तरं च णं देसावगासियस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तंजहा - आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सहाप्रवृत्ति. ४ सामायिक करवानुं स्मरण न थवुं अने ५ अनवस्थित-अनियत सामायिकनुं करवुं. त्यार बाद श्रमणोपासके देशावकाशिक व्रतना पांच अतिचारो जाणवा पण आचरवा नहि. ते आ प्रमाणे- १ आनयन प्रयोग - मर्यादित भूमिनी बहारथी कोइनी पासे मंगावबुं. २ प्रेष्यप्रयोग - पोताना प्रेष्य-नोकर वगेरेने मर्यादित क्षेत्रथी बहार मोकलवा. ३ शब्दानुपात - बीजाने जणाववा माटे खांसी
रादि वडे छे. २ 'कुक्कुइए' कौत्कुच्य अनेक प्रकारनी मुख, नेत्र वगेरेना विकारपूर्वक हास्य उत्पन्न करनारी भांड वगेरेनी जेम चेष्टा करवी. उपर कह्या प्रमाणेज आ अतिचार छे. ४ 'मोहरिए' मौखर्य धृष्टता, वाचालपणुं, धृष्टतापूर्वक असत्य भने संबन्ध विनानुं बोलवु आ प्रमादवतनो अथवा पापकर्मोपदेश व्रतनो अनाभोगादि वडे अतिचार छे. ४ संजुत्ताहिगरणे' संयुक्त कार्य करवामां समर्थ, अधिकरण- खांडणी, मुशल-सांबेलुं वगेरे राखवां, ते अतिचारनुं कारण होवाथी हिंस्रप्रदान व्रतनो आ अतिचार छे. जो के आ साक्षात् हिंसाना साधन शटक वगेरेने आपतो नथी, तो पण ते संयुक्त तैयार होवाथी बोजा ते वडे माग्या सिवाय पण काम करे छे, जो ते साधनो संयुक्त तैयार जोडेला न होय तो स्वयमेव तेओ कार्य करतां अटकी जाय छे. ५ 'उपभोगपरिभोगाइरिते' उपभोगपरिभोगातिरिक्त-उपभोग - परिभोगना उपयोगमां आवती जे वस्तुओं छे, ते स्नान प्रसंगे गरम पाणी, उद्वर्तन-सुगंधी चूर्ण, आमळा वगेरे अने भोजनना प्रसंगे अशन, पान वगेरे, तेमां अतिरिक्त-अधिकता, पटले पोताना तथा पोताना संबन्धीनुं काय थतां जे बाकी रहे ते उपभोगपरिभोगातिरिक्त कहेवाय छे. ते उपचारथी अतिचार छे. पोताना उपभोग करतां अधिक वस्तु वडे बाजा ओना स्नान भोजनादि द्वारा अनर्थदण्ड थाय छे. आ प्रमादवतनोज अतिचार छे. एम गुणव्रतना अतिचारो कह्या.
१ आनंदा
ध्ययन
॥३२॥
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥३३॥
णुवाए, रूवाणुवाए, बहिया पोग्गलपक्खेवे १० । तयाणन्तरं च णं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पञ्च अइवगेरे शब्द संभळाचवो. ४ रूपानुपात - बीजाने जणावचा पोताना शरीरनुं रूप देखाडवुं, बीजानी दृष्टिए पडवुं अने ५ बहिः पुद्गलप्रक्षेप| अन्यने जणाववा बहारना भागमां ढेफुं, कांकरो वगेरे पुद्गलनो प्रक्षेप करवो. त्यार पछी श्रमणोपासके पोषधोपवासना पांच अति
हवे शिक्षाव्रतना अतिचारो अतिचारो कहे छे-जेनों वारंवार अभ्यास करवो ते शिक्षाव्रत. सामाइयस्सत्ति सम-रागद्वेषरहित, जे सर्व प्राणीओने आत्मवत् जुए छे, तेने आय निरुपम सुखना कारणभूत अने चिन्तामणि अने कल्प वृक्ष करता पण श्रेष्ठ पवा प्रतिक्षण अपूर्व अपूर्व ज्ञान, दर्शन अने चारित्र पर्यायनो लाभ थवो ते समाय, ते जेनुं प्रयोजन छे ते सामायिक सावद्य योगना त्यागरूप अने निरवद्य योगना सेवनरूप जागवुं ते सामायिकना पांच अतिचार छे-१ 'मणदुप्पणिहाणे' 'मनः दुष्पणिधान-मननो दुष्ट प्रणिधान
१ क्रोध, लोभ,द्रोह, अभिमान इर्ष्या वगेरे तथा घरना कार्यनो विचार ते मनोदुष्प्रणिधान, २ वर्णसंस्कारनो अभाव - सूत्रना स्पष्ट उच्चारंनो अभाव, अर्थनो बोध नहि होवो अने चपलता ते वचनदुष्प्रणिधान अने ३ शरीरना हस्त पादादि अवयवोनी अनिश्चलता ते कायदुष्प्रणिधान. ए संबन्धे कछु छे के "नहि जोयेल अने नहि प्रमाजेल स्थंडिल भूमिने विशे स्थाननो आश्रय करतो हिंसा नहि होवा छतां पण प्रमादवडे सामायिक रहित जाणवो. जेणे सामायिक कर्यु छे ते पूर्वे बुद्धिथी | विचारीने सदा निरवद्य वचन बोले, अन्यथा सामायिक न थाय. जे श्रावक सामायिक करीने आर्तध्यानने वश थयेलो घर संबन्धी कार्यनी चिन्ता करे तेनुं सामायिक निरर्थक छे. ४ सामायिकनो अनादर प्रतिनियत समये सामायिक न कर, अथवा जेम तेम सामायिक कर प्रबल प्रमादादि दोषथी कर्या पछी तुरत पारबुं. ५ सामायिकनुं स्मरण न थयुं के 'मारे सामायिक करवानुं छे के करवानुं नथी, अथवा में सामायिक कयूँ छे के क्यूँ नथी. ज्यारे प्रबल प्रमादथी स्मरण न थाय त्यारे अतिचार लागे छे. कारण के मोक्षसाधक अनुष्ठाननुं मूळ स्मरण छे.
( प्र ० ) – मनदुष्प्रणिधानादिने विशे सामायिकनुं निरर्थकपणुं जणान्युं तेथी वास्तविक रीते तेनो अभाव को अने अतिचार तो मलिनता रूप छे तो सामायिकना अभावमा अतिचार केम होय ? माटे ते सामामायिकता भङ्ग रूप छे पण अतिचार नथी. ( उ० ) अनाभोगथी अतिचार होय छे.
१ आनंदाध्ययन
॥३३॥
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उपासकदशांग सानुवाद
१आनंदाध्ययन
॥३४॥
॥३४॥
याराजाणियब्वा, न समायरियव्वा। तंजहा-अप्पडिलेहियदुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियचार जाणवा, पण आचरवा नहि. ते आ प्रमाणे-१ अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारक-शय्या-वसति अने कंबलादि संथारानु प्रतिलेखन-निरीक्षण न करवू अथवा सारी रीते प्रतिलेखन न करवू, २ अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितशय्यासंतारक-वसति अने संस्ताव्यापार, प्रवृत्ति. जेणे सामायिक कर्यु छे तेणे घरना कार्य संबन्धी सारा खोटानो विचार करवो, २ 'वयदुप्पणिहाणे' वचःदुष्प्रणिधान-जेणे सामायिक कर्यु छ तेणे निष्ठुर अने सावद्य वचन बोलवु. ३ 'कायदुप्पणिहाणे' कायदुष्प्रणिधान-काय-शरीरनी दुष्ट प्रवृत्ति, जेणे सामायिक कर्यु छे तेणे नहि जोयेली अने नहि प्रमाली भूमि वगेरेने विशे शरीरना हाथ पग वगेरे चपलपणे मूकवा. ४ 'सामाइयस्स सइ अकरणया' सामायिकनी स्मृति-'मारे आ समये सामायिक करवानुं छे' एवं स्मरण प्रबळ प्रमाद वडे न करवू. | ५ 'अणवट्टियरस करणया' अल्प काळचं अथवा अनियत सामायिकनुं करवं. थोडो काळ सामायिक कर्या पछी तेनो त्याग करवो अथवा | जेमतेम सामायिक करवू ए भावार्थ छे. प्रथमना पण अतिचारो अनाभोगादि चढे अतिचार रूप छे अने पछीना बे अतिचारो प्रमादनी अधिकताथी अतिचार रूप छे. ___ 'देसावगासियस्स'त्ति । देश-दिशावतमा ग्रहण करेल दिशाना परिमाणनो एक देश, तेने विशे अवकाश-गमनादि चेष्टानुं स्थान ते देशावकाश, ते बडे निवृत्त-थयेलं ते 'देशावकाशिक व्रत-पूर्वे ग्रहण करेल दिशावतना संक्षेप करवा रूप अने उपलक्षणथी सर्व
१. दिशावत विशेष एज देशावकाशिक व्रत छे. विशेषता आ छे के दिशावत यावज्जीब, बरस के चार मासना परिमाणवाळु होय छे भने देशावकाशिक व्रत दिवस पहोर के मुहूर्तादिना परिमाणवाळु होय छे. तेना पांच अतिचारो छे-प्रेष्य प्रयोग-प्रेष्य-आदेश करवा योग्य पुत्रादिने प्रयोग-विवक्षित क्षेत्रनी बहार काम माटे मोकलवा. पोते स्वयं जाय तो व्रतनो भंग थाय माटे प्रत सापेक्ष होवाथी अतिचार छे. देशायकाशिक प्रत गमनागमनादिनी प्रवृत्ति बडे प्राणीनी हिंसा न थाय ए हेतुथी ग्रहण कराय छे, परन्तु स्वयं करे के बीजा पासे करावे तेमां फळनी दृष्टिथी विशेषता नथी, उलटुं स्वयं जाय तो इर्यासमितिनी विशुबिधी गुण थाय,
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥३५॥
सिज्जासंधारे, अप्पडिलेहियदुष्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमी, अप्पमज्जियदुष्पमज्जियउच्चार पासवण भूमी, रकनी प्रमार्जना न करवी अथवा बरोबर प्रमार्जना न करवी. ३ अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षित उच्चारप्रस्रवणभूमि - उच्चार स्थंडिलनी जग्या अने प्रस्रवणभूमि- पेशाब करवानी जग्यानुं प्रतिलेखन-निरीक्षण न करवुं अथवा बरोबर निरीक्षण न करवुं, ४ अप्रमार्जित - व्रतोना संक्षेप रूप जाणधुं तेना पांच अतिचार छे-१ 'आणवणप्पओगे' आनयनप्रयोग अमुक मर्यादावाळा भूमिना भागमां जवा आववानो अभिग्रह कर्यो होय त्यारे तेथी आगळना भागमां पोते न जह शके माटे बीजाने संदेश आपवा इत्यादि वडे प्रेरणा करे के 'तारे आ लाववु' ते आनयनप्रयोग. २ 'पेसवणप्पओगे' बळात्कार वडे प्रेरणा करवा योग्य ते प्रेष्य- नोकर वगेरे, तेने प्रयोग बहार मोकलवो, अभिग्रह करेला गगनादि योग्य भूमिभागनुं उल्लंघन थवाना भयथी 'तारे अवश्य त्यां जड़ने मारी गाय वगेरेने लाववी अथवा आ काम तारे करवुं ते प्रेष्यप्रयोग. ३ 'सद्दाणुवाप' शब्दानुपात - पोताना घरनी वाड के वंडी वगेरेथी मर्यादित भूमिना भागनो अभिग्रह कर्यो होय अने तेथी बहारनुं कोइ कार्य पडे त्यारे पोते नहि जइ शकतो होवाथी वाड के वंडीनी पासे रहेलाने बुद्धिपूर्वक खांसी परन्तु बीजो अनिपुण होवाथी ईर्यासमितिना अभावमा दोष थाय छे माटे अतिचार छे. २ आनयन प्रयोग-आनयन विवक्षित क्षेत्रनी बहार रहेल सचेतनादि द्रव्यने विवक्षित क्षेत्रमां बीजा द्वारा मंगाव, स्वयं जाय तो व्रतभंग थाय अने बीजा पासे मंगावे तो व्रतभंग नहि थाय ए बुद्धिथी ज्यारे प्रेष्य द्वारा सचेतनादि द्रव्यने मंगावे छे त्यारे आ अतिचार थाय छे. ३ पुद्गलप्रक्षेप-पुद्गलो बादर परिणामने प्राप्त थथेला परमाणुनो समुदाय ढेकुं, इंट, लाकडे, सळी वगेरे, तेने प्रक्षेप-फेंक, विशिष्ट देशनो अभिग्रह होवाथी कार्यनो अर्थी आगळ जइ न शके माटे ज्यारे बीजाने जणाववा ढेफुं वगेरे फेंके अने तेथी ते तेनी पासे आवे तेथी पोते जीवहिंसा करतो नथी पण बीजाने प्रेरे छे माटे अतिचार छे. ४ शब्दानुपात - पोताना घरनी वाढ के कील्ला वडे मर्यादित भूमीप्रदेशना अभिग्रहवाको काम पडे त्यारे पोते जइ शकतो न होवाथी वंडी के किल्ला वगेरेनी पासे ऊभो रही खांसी वगेरेनो शब्द करे छे अने जेने बोलाववानो छे तेने संभळावे छे, ते सांभळीने ते तेनी पासे आवे छे, माटे शब्दानुपात अतिचार छे. ५ रूपानुपात - कार्यनो अर्थी शब्दनो उच्चार कर्या सिवाय पोताना शरीर संबन्धी रूप जेने बोलाववानो छे तेनी दृष्टिए पाडे छे अने तेने
१ आनंदा
ध्ययन
॥३५॥
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उपासकदशांग सानुवाद
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१ आनंदा ध्ययन
॥३६॥
॥३६॥
पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया ११ । तयाणन्तरं च णं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा दुष्प्रमार्जितउच्चारप्रस्रवणभूमि-स्थंडिलभूमि अने पेशाब करवानी भृमिनी प्रमार्जना न करवी अथवा बरोबर प्रमार्जना न करवी. ५ पोषधोपवासर्नु बरोबर पालन न करवू. त्यार पछी श्रमणोपासके यथासंविभाग-अतिथिसंविभाग व्रतना पांच अतिचारो जाणवा, पण वगेरेना शब्द वडे जणावनारने शब्दानुपात नामे अतिचार लागे छे. शब्दनुं अनुपातन-तेवा प्रकार- उच्चारण कर के जेथी ते शब्द | बीजाना कानमा प्रवेश करे. ४ 'रूवाणुवाए' रूपानुपात-अभिग्रह करेला भूमिप्रदेशनी बहार कोई काम पडे त्यारे शब्दनुं उच्चारण कर्या सिवाय ज बीजाने पोतानी पासे लाववा माटे पोताना शरीरनुं रूप बतावq ते रूपानुपात. ५ 'बहिया पुग्गलपक्खेवे' बहिः पुद्गलप्रक्षेप-अभिग्रह करेल भूमिप्रदेशनी बहार प्रयोजन पडे त्यारे बीजाने जणाववा माटे तेना उपर पुद्गल-ढेफु वगेरे फेंकबु. अहीं प्रथमना बे अतिचार अनाभोगादि बडे होय छे अने पछीना त्रण अतिचार व्रतसापेक्ष होवाथी होय छे.
'पोसहोववासस्स'त्ति. पोषध शब्द अष्टमी वगेरे पर्वने विशे रूढ छे, तेथी अष्टम्यादि पर्वने विशे उपवास करवो ते पोषधोपवास | जोवाथी ते तेनी पासे आवे छे. तात्पर्य आ छे के मर्यादित क्षेत्रनी बहार रहेला कोइ मनुष्यने व्रतभंग थवाना भयथी नहि बोलावतो पोताना शब्द संभळावाना
के रूप देखाडवाना बहानाथी तेने बोलावे छे माटे व्रतसापेक्ष होवाथी शब्दानुपात अने रूपानुपात ए बन्ने अतिचार छे. अहीं प्रथमना बे अतिचार मन्द बुद्धि होवाथी के सहसाकारादि बडे अने छल्ला त्रण अतिचार माया कपट बडे थाय छे. अहीं दिशाव्रतना संक्षेप करवानी पेठे बीजा व्रतोनो संक्षेप करयो ते देशावकाशिक व्रत छे एम पृद्ध आचायों कहे छे. (प्र०)-अतिचारो दिशाबतना कहेवामां आव्या छे, परन्तु बीजा प्रतना संक्षेप करवाना अतिचारो कह्या नथी, तो बीजा व्रतोनो संक्षेप करवो ते देशावकाशिक व्रत केम कहेवाय ? (उ०)-बीजा प्राणातिपातादि विरमण व्रतना संक्षेप करवामां वध बन्धादि अतिचारो होय अने दिशाबतने संक्षेप करवामां क्षेत्रनो संक्षेप करेलो होवाथी प्रेष्यप्रयोगादि अतिचारो होय, माटे अहीं भिन्न भिन्न अतिचारोनो संभव होवाथी दिशावतनो संक्षेप करबो एज साक्षात् देशावकाशिक व्रत का छे. जुओ योग० प्र० ३ लो. ११७
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥३७॥
॥३७॥
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जाणियव्वा न समायरियव्वा। तंजहा-सचित्तनिक्खेवणया, सचित्तपिहणया, कालाइक्कमे, परववदेसे, मच्छआचरवा नहि. ते आ प्रमाणे-१ सचित्तनिक्षेप-साधुने आपवा योग्य आहारादिनु सचित्त-सचेतन वनस्पति वगेरे उपर मूक. २ सचित्तपिधान-सचित्त वस्तु वडे पिधान-ढांक. ३ कालातिक्रम-साधुने योग्य भिक्षाना समयर्नु उल्लंघन करवू. ४ परव्यपदेश-'आ कहेवाय छे. ते आहारादि विषयना भेदथी चार प्रकारनो छे. ते व्रतना पांच अतिचार छे-१ 'अप्पडिलहिय' इत्यादि. अप्रतिलेखितजीवरक्षा माटे चक्षु वडे नहि जोयेल, दुष्पतिलेखित-मननी अस्थिर वृत्ति होवाथी सारी रीते नहि जोयेल शय्या-वसति अने संस्तारकडाभ, कांबल पाट वगेरे रूप संथारो ते अप्रतिलेखितदुष्पतिलेखितशय्यासंस्तारक. तेनो उपभोग करवो ते अतिचारनुं कारण | होवाथी आ अतिचार कह्यो छे. प प्रमाणे अप्रमार्जित-दुष्पमार्जितशय्यासंस्तारक-नहि प्रमाजेल अथवा सारी रीते नहि प्रमार्जेल |
शय्यासंस्तारक अतिचार जाणवो. परन्तुं अहीं प्रमार्जन वस्त्रना छेडा वगेरेथी जाणवू. ए प्रमाणे अप्रतिलेखित-दुष्पतिलेखित उच्चारप्रस्रवणभूमि-स्थंडिल अने पेसाब करवानी भूमि न जोवी अथवा बरोबर न जावी. अहीं उच्चार-विष्टा अने प्रस्रवण-पेसाब जाणवो. स्थंडिल भूमि अने पेसाब करवानी जग्यानु प्रमार्जन न कर अथवा बरोबर प्रमार्जन न करवू. पचारे अतिचारो प्रमाद वडे जाणवा. 10) ५ 'पोसहोववासस्स सम्ममणुपालणया' पोषधोपवासर्नु बरोबर पालन न कर. जेणे पोषधोपवास करेलो छे तेणे अस्थिर चित्त बडे आहार, शरीरसत्कार, अब्रह्मचर्य अने व्यापारनी इच्छा करवाथी पोषधन यथार्थपणे पालन न करवं. आ भावथी व्रतनो बाध | थवाथी अतिचार छे. ____ 'अहासंविभागस्स' यथा सिद्ध-स्वार्थने माटे करेला अशन पान वगेरेने 'सं' संगतपणे-पश्चात्कर्म वगेरे दोषनो त्याग करीने विभाग-साधुने दान आपq ते यथासंविभाग कहेवाय छे. तेना पांच अतिचारो छे-१ 'सच्चित्तनिक्खेवणया' इत्यादि. सचित्त डांगर वगेरे उपर नहि देवानी बुद्धिथी कपट वडे अन्न वगेरेने मूकबुं ते सच्चित्तनिक्षेपण. २ प प्रमाणे अन्नादिने सचित्त फळ
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥३८॥
रिया १२ । तयाणन्तरं च णं अपच्छिममारणन्तियसंलेहणानूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणियव्वा, न वस्तु बीजानी छे' एम साधु समक्ष कहेवुं. ५ मत्सरिता - मात्सर्यपूर्वक दान आपकुं. त्यार बाद अपश्चिम - सौथी छेल्ली मारणान्तिक संलेखनानी आराधनाना पांच अतिचारो जाणवा पण आचरवा नहि. ते आ प्रमाणे- १ इहलोकाशंसाप्रयोग-इहलोक -आ मनुष्य लोकमां वगेरे बडे पिधान - ढांक ते सचित्तपिधान, ३ कालातिक्रम-साधुना भोजनना समयनुं अतिक्रम उल्लंघन करयुं. अहीं आ तात्पर्य छेसमय न होय अथवा अधिक समय जाणीने साधुओ नहि ग्रहण करे अने जाणशे के 'आ दाता छे' पवा विचारथी दान आपवा तैयार थयुं ते अतिचार छे. ४ परव्यपदेश- 'आ बीजानुं छे, माटे साधुओने न आपी शकाय साधुओ जाणे के जो आनुं अन्न बगेरे होय तो केम अमने न आपे एम साधुओने विश्वास पाडवा साधुसमक्ष कहेवु. अथवा 'आ दानथो मारी माता वगेरेने पुण्य थाओ एम कहेवु. ५ मत्सरिता बीजाप आ आप्युं छे, तो हुं शुं पथो हीन अथवा कृपण छु ? माटे हुं पण आपीश' प प्रमाणे दान आपनारनो विचार ते मात्सर्य आ अतिचारो छे, पण व्रतभङ्ग नथी.. कारण के ते आपवा माटे तैयार छे, पण दानना परिणाम दूषित छे. व्रतभङ्गनुं स्वरूप तो आ प्रमाणे कहां छे-"दाणन्तरायदोसा न देह दिज्जंतयं च वारेइ । दिण्णे वा परितप्प इति किवणत्ता भवे भङ्गो ॥" दानान्तरायना दोपथी न आपे अने आपनारने दाननो निषेध करे, कोइए आप्युं होय तो परिताप पामे एम कृपणपणाथी व्रतनो भङ्ग थाय छे. आवश्यकटीकामां तो व्रतभङ्ग अने अतिचारनी विशेषता अमे जाणी नथी, परन्तु अहीं व्रतभङ्गथी तेने जुदा करतां अमे अतिचारोनी व्याख्या करी छे. कारण के संप्रदायथो नवपदादिने विशे ते प्रमाणे जणाय छे.
१ आनंदा
ध्ययन
॥३८॥
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥३९॥
॥३९॥
समायरियब्वा । तंजहा-इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, 'हुँ राजा थाउं' वगेरे इच्छा करवी, २ परलोकाशंसाप्रयोग 'हुं देव थाउं' एवा प्रकारे परलोकनी इच्छा करवी. ३ जीविताशंसाहोबाथी जे अहीं अतिचार कह्या छे ते ब्रतना सर्वथा भंगरूप छे एम शंका न करवो. जे अहीं दरेक व्रतना पांच पांच अतिचार कह्या छे ते बीजा अतिचारोना सूचक छे, परन्तु तेटलाज छे एव॒ अवधारण-निश्चित नथी. ए संबन्धे पूज्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कहे छे-"पंच पंचाइयारा उ सुत्तमि जे पदसिया । ते नावहारणहाए किंतु ते उवलक्षणं" ॥ सूत्रमा जे पांच पांच अतिचार बताब्या छे ते तेटलाज छे पवो नियम नथी, परन्तु बीजा अतिचारोनुं उपलक्षण छे. अहीं आ भावार्थ छे-जे व्रतने विशे अनाभोगादि वडे, अतिक्रमादि त्रण पद वडे के पोतानी बुद्धिकल्पनाथी व्रतना विषयनो त्याग करतां प्रवृत्ति थाय ते अतिचार अने तेथी | विपरीतपणामां भंग जाणवो. प प्रमाणे संकीर्ण-एकमेक थयेला-उभयार्थक अतिचार पदनो अर्थ समजवो.
(प्र०)-सर्वविरतिमा अतिचार संभवे छे अने देशविरतिमां तो व्रतनो भंग ज थाय छे. प संबन्धे का छे के-" सब्वेवि य अइयारा संजलणाणं तु उदयओ टुति । मूलछेज्ज पुण होइ बारसण्डं कसायाणं" ॥ बधा अतिचारो संज्वलन कषायना उदयथी होय छे, अने बार कषायना उदयथी तो व्रतनो मूळथी छेद-भंग थाय छे.
(उ०)-आ गाथा सर्व विरतिने विशेज अतिवार अने भंग जणाववा माटे छे, परन्तु देशविरतिनो भंग बताववा माटे नथी. कारण के तेनी वृत्तिमा तेवा प्रकारनी व्याख्या करी छे. संचलनना उदयविशेषथी सर्वविरतिविशेषना अतिचारो होय छे, पण मूळथी छेद-भंग थतो नथी. प्रत्याख्यानावरणादिना उदयमा पाछळना क्रमथी सवें विरति वगेरेनो मूळथी छेद थाय छे' पवी व्याख्या करवामां आवे तो पण देशविरति वगेरेमा अतिवारनो अभाव सिद्ध थतो नथी. कारण के जेम संयत-साधुने चोथा संज्वलनना उदयथी यथाण्यात चारित्रनो नाश थाय छे अने अन्य चारित्र अने सम्यक्त्व सातिचार अने उदयविशेग्थी निरतिचार होय छे. बीजा कषायना
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उपासकदशांग सानुवाद
॥४०॥
कामभोगासंसप्पओगे १३।
१ आनंदाप्रयोग-'हुँ घणा काळ सुधी जीवं तो सारुं एवी इच्छा करवी. ४ मरणाशंसाप्रयोग हुं शीघ्र मरण पामुं तो ठीक' ए प्रमाणे
10 ध्ययन मरणनी इच्छा करवी. ५ कामभोगाशंसाप्रयोग-कामभोगनी इच्छा करवी. उदयमा देशविरतिनो नाश थाय छे, पण सम्यक्त्व सातिचार के निरतिचार बन्ने प्रकारर्नु होय छे. प्रथम अनन्तानुबन्धीना उदयमा
॥४०॥ सम्यक्त्वनो नाश थाय छे. ए प्रमाणे ज छे, जो एम न होय तो देशतः भंगरूप सम्यक्त्वना अतिचारो होय त्यारे प्रायश्चितरूपे तपज | कहेलुं छे अने सर्व भंगरूप होय तो मूळ प्रायश्चित कहेलुं छे ते केम घटे ? (प्र०)-अनन्तानुबन्धी वगेरे बार कषायो सर्वघाती छे अने संज्वलन कषाय देशघाती छे, तेथी सर्वघातीना उदये मूळथी छेद थाय अने देशघाती संज्वलनना उदयमां अतिचारो होय छे, माटे वार कषायना उदयमां सर्वथा भंग थवो जोइप ? (उ०)-सत्य छे, परन्तु जे बार कषायोर्नु सर्वघातीपणुं छे ते सर्वविरतिनी अपेक्षाए ज शतकचूर्णिकारे का छे, परन्तु सम्यक्त्वादिनी अपेक्षाए नथी. ते प्रमाणे तेमनुं वाक्य छ-'भगवप्पणीयं पंचमहन्वय| मइयं अवारससीलंगसहस्सकलियं चारित्तं घाएन्ति त्ति सव्वघाइणो"त्ति-भगवंते कहेल पांच महाव्रतमय अने अढार हजार शीलांग वडे युक्त चारित्रनो घात करे छे माटे सर्वघाती कहेवाय छे. वळी 'जारिसओ' इत्यादि गाथाना सामर्थ्यथी अतिचार अने भंग देशविरति अने सम्यक्त्वना जाणवा.
'अपच्छिम' इत्यादि. जेनाथी पश्चिम-पछी बीजुं नथी ते अपश्चिम-सौथी छेल्ली, मरण-प्राणनो त्याग करवो, ते रूप अन्त ते मरणान्त, ते समये थयेली ते मारणान्तिकी, संलिख्यते अनया-जे वडे शरीर अने कषायादि कुश कराय ते संलेखना-तपविशेष, तेनी
१ श्रावक आवश्यक योग-संयम व्यापार- पालन करवाने अशक्त होय त्यारे अथवा मृत्युसमय प्राप्त थयो होय त्यारे संलेखना करे छे. जे बड़े शरीर अने कषायादि कृश कराय ते संलेखना. तेमां शरीरसंलेखना-अनुकमे भोजननो त्याग करवो अने कषायसंलेखना-क्रोधादि कषायनो त्याग करवो, तेमां शरीरसंलेखना
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१ आनंदा
उपासकदशांग सानुवाद
ध्ययन
॥४१॥
1॥४१॥
जोषणा-सेवना, तेनुं आराधन, पटले सौथी छेल्ली मरणान्तसमये शरीर अने कषायादिने कृश करनार तपविशेषनी आराधना करवी अर्थात् मरण समये आहारपाणी लीधा सिवाय अखंडितपणे काळधर्मने प्राप्त थर्बु ते अपश्चिम-मारणान्तिक-संलेखना-जोषणाराधना. तेना पांच अतिचार छे-इहलोगेत्यादि. १ इहलोग-मनुष्यलोक, तेने विशे आशंसा-अभिलाष, तेनो प्रयोग-प्रवृत्ति, व्यापार ते इहलोकाशंसाप्रयोग. 'हुं शेठ थाउं, अथवा बीजा जन्ममा प्रधान थाउं' एवी इच्छा करवी. २५ प्रमाणे परलोकाशंसाप्रयोग-'हुं देव थाउं' इत्यादि इच्छा करवी. ३ जीविताशंसाप्रयोग-जीवित-प्राण धारण करवा, तेनो आशंसा-इच्छानो प्रयोग-व्यापार. 'जो हुँ घणा काळ सुधी जीवू तो सारुं', आ संलेखना करनार वस्त्र, माला, पुस्तकनुं वांचq वगेरे सत्कार थतो जोइने घणा परिवारने जोवाथी के लोकनी प्रशंसा सांभळवाथी एम विचारे के 'जीवित ज श्रेष्ठ छ,' कारण के में अनशन कर्यु छे तो पण मारा उद्देशथी आवा प्रकारनो अभ्युदय करवानुं कारण आ छे-जो शरीरने आहारना त्याग वडे कृश न कयु होय एकदम खिन्न थयेली धातुओ वडे प्राणीओने मरणसमये आर्तध्यान थाय छे. तेनी आ सामाचारी छे-श्रावक सर्व श्रावकधर्मना उद्यापनने माटे होयनी शुं तेम अन्ते संयमने अंगीकार करे, तेने साधुधर्मना अवशेष रूप संलेखना छे. ए संबन्धे कांछे के "संलेखना अंते अवश्य होती नथी, कारण के कोइ प्रव्रज्या ग्रहण करे, तेथी जे संयमने अंगीकार करे त संयम ग्रहण कर्या पछी मरणसमये संलेखना करीने मरण पामे, जे संयमने अंगी-1 कार न करे ते आनन्द श्रावकनी पेठे संलेखना करे. तेमां तीर्थंकरोना जन्म, दीक्षा, ज्ञान अने निर्वाणना स्थाने, तेना अभावमां घरे, उपाश्रये, अरण्यमां, शत्रुजयादि तीर्थमां, त्यां पण भूमि जोईने प्रमाजीने जन्तुरहित स्थानमां चारे प्रकारना आहारनो त्याग करी पंच परमेष्ठिना नमस्कारना ध्यानमा तत्पर अतिचारना त्यागवडे ज्ञानादिनी आराधना करीने अरिहंतादि चार शरण अंगीकार करे. तथा आहारनो त्याग करवामां पांच प्रकारना अतिचारनो त्याग करे-१ मा लोकमां धन, पूजा, कीर्ति, वगेरेनी इच्छा करवी, २ परलोकमां स्वर्गादिनी इच्छा करवी, पूजा सत्कार वगेरे जोवाथी, घणा परिवारने अवलोकन करवाथी अने सर्वलोकनी श्लाघा सांभळवाथी एम माने के जीवितज श्रेष्ठ छे एम जीवितनी इच्छा करवी. ४ कोई पूजा वगेरे न करे तो जल्दी मरूं तो ठीक एम मरणनी इच्छा करवी तथा ५ निदान-आवा दुष्कर तपथी बीजा जन्ममा चक्रवतीं थाउं इत्यादि इच्छा करवी. ए अतिचारोनो त्याग करी समाधिरूपी अमृतथी सींचायेलो, परिषह अने उपसर्गना भयथी रहित जिनने विशे भक्तिवाळो आनन्द श्रावकनी पेठे मरणने प्राप्त थाय. जुओ योग, प्रका. ३ लो० १४९.
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदा ध्ययन
॥४२॥
॥४२॥
EEKEEXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX
७. तए णं से आणन्दे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पञ्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावयधम्म पडिवजइ, पडिवजित्ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वदित्ता नमंसित्ता एवं | वयासी-'नो खलु मे भन्ते ! कप्पइ अजप्पभिई अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहन्तचेइयाणि वा वन्दित्तए वा नमंसित्तए वा, पुटिव अणालत्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा,*
७. त्यार बाद ते आनन्द गृहपति श्रमण भगवंत महावीरनी पासे पांच अणुव्रत अने सात शिक्षा व्रत रूप बार प्रकारना श्रावक | धर्मनो स्वीकार करे छे. स्वीकारीने श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करे छे, वंदन अने नमस्कार करी तेणे ए प्रमाणे कडं-'हे भगवन् ! आजथी आरंभी मारे अन्यतीथिकोने, अन्य तीथिकोना देवने, अन्यतीथिकोए ग्रहण करेला अरिहंतना चैत्योने | वंदन अने नमस्कार करवो तथा पूर्व तेओ न बोल्या होय तो तेनी साथे आलाप-एक वार बोलवु अने संलाप-वातचीत करवी तथा तेओने अशन, पान, खादिम अने स्वादिम (भक्तिपूर्वक)आपवू, वारंवार आपq ते राजाभियोग-राजानी अधीनता, गणाप्रवर्ते छे. ४ मरणाशंसाप्रयोग-आवा प्रकारनो सत्कार न थतो होय तो आवो विचार करे के 'जो हुं जल्दी मरूं तो सारं' ए प्रमाणे | मरणनी इच्छा करवी. ५ कामभोगाशंसाप्रयोग-'जो मने मनुष्य संबन्धी के देव संबन्धी कामभोगो प्राप्त थाय तो सारूं' ए प्रमाणे कामभोगनी इच्छा करवी.
७. त्यार पड़ी आनन्द श्रावके भगवंत महावीरनी पासे पांच अणुव्रत अने सात शिक्षाव्रत रूप बार इतनो स्वीकार करी, भगवंत महावीरने वंदन करी आ प्रमाणे कां-'नो खलु' इत्यादि हे भगवन् ! 'अद्यप्रभृति' आजथी-सम्यक्त्वना अंगीकार कर्याना दिवसथी मांडी निरतिचार सम्यक्त्वनुं पालन करवा माटे तेनी यतनाने आश्रयी 'अन्नउत्थिप वा' जैनयूथथी अन्य यूथ-संघ, तीर्थ, ते जेओने
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उपासकदशांग सानुवाद
|१ आनंदाध्ययन
॥४३॥
॥४३॥
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तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकन्तारेणं । कप्पइ मे समणे निग्गन्थे फासुएणं एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकम्बलपायपुंछणेणं पीढफलयसिज्जासंथारएणं ओसहभेसज्जेण य पडि-| भियोग-समुदायनी परतन्त्रता, बलाभियोग-बलवाननी अधीनता, देवताभियोग-देवतानी परतत्रता, गुरुनिग्रह-मातापिता वगेरेनी पराधीनता अने वृत्तिकांतार-आजीविकानो अभाव ए छ आगार सिवाय बीजे योग्य नथी, मारे श्रमण निर्ग्रन्थोने प्रासुक-अचित्त अने एषणीय (निदोष) अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछनक-(पग साफ करवानुं वस्त्र), पीठआसन, फलक-पाटीउं, शय्या-वसति, संस्तारक तथा औषध अने भैषज्य वडे सत्कार करवो योग्य छ' एम कहीने आवा प्रकाछे ते अन्ययूथिक-चरकादि कुतीथिकोने, 'अन्ययूथिकदैवतानि' हरि, हर वगेरे अन्यतोथिंक देवोने, 'अन्ययूथिकपरिगृहीतानि अर्हच्चैत्यानि वा' अन्यतीथिकोए ग्रहण करेला अरिहंतना चैत्य-प्रतिमाओने, जेम के भौत-शैवोए ग्रहण करेला वीरभद्र अने महाकाळतीर्थ | वगेरेने 'वंदितुम् अभिवादन-प्रणाम करवाने 'नमस्यितुम्' प्रणामपूर्वक प्रशस्त ध्वनि वडे गुणोत्कीर्तन करवाने 'न कल्पते' योग्य नथी, कारण के तेना भक्तोने मिथ्यात्व स्थिर करवा वगेरे दोषनो प्रसंग प्राप्त थाय. तथा पूर्वम्' पहेला 'अनालप्तेन' अन्यतीथिकोप न बोलावेला होय तो ते अन्यतीथिकोने 'आलपितुम्' एक बार बोलाववाने, 'संलपितुम्' वारंवार बोलाववाने योग्य नथी. कारण के तेओ आसनादि क्रियाओमा नियुक्त करेला-आसनादि बडे संमान करायेला तपेला लोढाना गोळा समान छे, अने ते निमित्ते कर्मनो बन्ध थाय छे. तथा आलाप-वातचीत वगेरेथी तेना के तेना परिवारना परिचयथी मिथ्यात्वनी प्राप्ति थाय छे. परन्तु प्रथम तेओए बोलावेला होय तो लोकापवादना भयथी संभ्रम सिवाय 'तमे केवा छो' इत्यादि कहेवू. तथा ते अन्यतीथिकोने अशनादि 'दातुं'
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CE
उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदा. ध्ययन
॥४४॥
॥४४॥
लाभेमाणस्स विहरित्तए'त्तिकटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठाई आदियइ, आदिइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वन्दइ, वंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव वाणियगामे नयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिवनन्दं भारियं एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिए ! मए समणस्स रनो अभिग्रह-नियम ग्रहण करे छे, ग्रहण करीने ते संबन्धे प्रश्नो पूछे छ, प्रश्नो पूछी तेनो अर्थ ग्रहण करे छे, अर्थ ग्रहण करी श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार वंदन करे छे, वंदन करी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने तिपलाश चैत्यथी नीकळे छे. नीकळीने ज्यां वाणिज्यग्राम नगर छे अने ज्यां पोतार्नु घर छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने तेणे शिवनंदा भार्याने आ प्रमाणे कडं-“हे देवानुप्रिये ! खरेखर में श्रमण भगवंत महावीरनी पासे ए प्रमाणे धर्म सांभळ्यो अने ते धर्म मने इष्ट छे, पुनः पुनः इष्ट छे अने तेनी आपवाने 'अनुप्रदातुम्' वारंवार आपवाने योग्य, नथी. आ धर्मबुद्धिथी आपवानो निषेध छे, पण करुणाबुद्धिथी नथी, करुणा वडे तो आपे पण खरो. शुं सर्वथा योग्य नथी? प शंकाना समाधानमा कहे छे-'नन्नत्थ रायामिओगेणं' राजाभियोगाद् अन्यत्रराजानो अभियोग-पराधीनता ते सिवाय बोजे योग्य नथी. अहीं तृतीया विभक्ति पंचमीना अर्थमां छे. गण-समुदाय, तेनो अभियोग -परवशता, बलाभियोग-राजा अने गण-समुदाय सिवाय बलवाननो पराधीनता, देवाभियोग-देवनी पराधीनता, गुरुनिग्रह-मातापिता
नी पराधीनता, अथवा गुरु-चैत्य अने साधुओनो निग्रह-शत्रुओए करेलो उपद्रव ते गुरुनिग्रह, ते प्राप्त थाय त्यारे अन्यतीथिकोने Mi आपवा छतां पण सम्यक्त्वने दृषित करतो नथी. 'वित्तिकंतारेण वृत्ति-आजीविका, तेनो कांतार-अरण्यना जेवं क्षेत्र अने काळ होय
ते दृत्तिकान्तार-निर्वाहनो अभाव, तेथी बीजे दान अने प्रणामादिनो निषेध छे. श्रमण निर्ग्रन्थोने निर्दोष आहार पाणी, वस्त्र, प्रतिग्रह
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥४५॥
॥४५॥
भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मे निसन्ते, सेऽवि य धम्मे मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तं गच्छ णं तुम * देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वन्दाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पश्चाणुब्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि ॥
८. तए णं सा सिवनन्दा भारिया आणन्देणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हहतुट्ठा कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-'खिप्पामेव लघुकरण जाव पज्जुवासंइ । तए णं समणे भगवं महावीरे सिव| नन्दाए तीसे य महइ० जाव धम्मं कहेइ । तए णं सा सिवनन्दा समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्म मने रुचि थइ छे, ते माटे हे देवानुप्रिये ! तुं जा अने श्रमण भगवंत महावीरने वंदन कर, यावत् तेमनी पर्युपासना कर अने श्रमण भगवंत महावीरनी पासे पांच अणुव्रत अने सात शिक्षाबत रूप बार प्रकारना गृहस्थ धर्मनो स्वीकार कर."
८.त्यार बाद ते शिवनन्दा भार्या ते आनन्द श्रावके एम कडं एटले हर्षित अने प्रसन्न थइ कौटुम्बिक पुरुषोने बोलावे छे, बोलावीने तेणे ए प्रमाणे कडं-हे देवानुप्रियो ! जलदी लघुकरण-शीघ्र गमन करवामां निपुण इत्यादि वर्णनयुक्त बे बळदसहित श्रेष्ठ वाहनने हाजर करो, त्यार बाद ते श्रेष्ठ वाहनमां बेसीने जाय छे अने यावत् पर्युपासना करे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीर शिव पात्र, कंबल, पादनोंछनक-पग साफ करवानुं वस्त्र, पीठ-पाट वगेरे, फलक-ओठींगण आपवा वगेरेनुं पाटीठ, औषध-दवा अने | भैषज्य-पथ्य वडे सत्कार करवा योग्य छे. त्यार बाद प्रश्नो पूछे अने तेना उत्तर रूप अर्थाने ग्रहण करे छे.
८'लहुकरण' अहीं यावत् शब्दनुं ग्रहण होवाथी 'लहुकरणजुत्तजोइय'-लघु-शीघ्र गमन क्रियामां दक्ष-निपुण अने यौगिक
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आनंदा
उपासकदशांग सानुवाद
ध्ययन
॥४६॥
॥४६॥
सोचा निसम्म हट्ट जाव गिहिधम्म पडिवजइ, पडिवजित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ, दुरूहित्ता जामेव | | दिसि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया ॥
९. 'भन्ते'त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'पहू णं भन्ते ! आणन्दे समणोवासए देवाणुप्पियाणं अन्तिए मुण्डे जाव पव्वइत्तए ? नो तिणढे समढे, गोयमा ! आणन्दे णं समणोवासए बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणिहिइ, पाउणित्ता जाव सोहम्मे कप्पे अरुणे, | विमाणे देवत्ताए उववजिहिइ । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं नन्दाने अने ते मोटी पर्षदाने धर्मोपदेश करे छे. त्यार पछी ते शिवनन्दा श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्मने सांभळी विचारी प्रसन्न थइ अने यावत् गृहस्थ धर्मनो स्वीकार करे छे. गृहस्थ धर्मनो स्वीकार करीने ते धार्मिक श्रेष्ठ वाहन उपर चढे छे, चढीने जे दिशाथी आवी हती ते दिशा तरफ पाछी जाय छे.
९. 'हे भगवन् ! एम कही भगवान् गौतम श्रमग भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करे छे, वंदन अने नमस्कार करीने तेमणे आ प्रमाणे पूछथु-हे भगवन् ! आनन्द श्रावक देवानुप्रिय एवा आपनी पासे मुंड थइने प्रव्रज्या ग्रहण करवा समर्थ छे ? हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ-युक्त नथी. आनन्द श्रावक घणा वरस सुधी श्रावकना पर्याय-अवस्थानु पालन करशे, पालन करीने सौधर्म देवलोकने विशे | अरुण नामे विमानमा देवपणे उत्पन्न थशे. त्यां केटला एक देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे. त्यां आनन्द श्रावकनी पण समान योगवाळा एवा बे बळद वडे युक्त इत्यादि वाहननुं वर्णन सातमा अध्ययनथी जाणी लेवु.
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उपासकदशांग सानुवाद
|१ आनंदा
ध्ययन
॥४७॥
॥४७॥
आणन्दस्सऽवि समणोवासगस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जाव विहरइ । तए णं से आणन्दे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे | विहरइ । तए णं सा सिवनन्दा भारिया समणोवासिया जाया जाव पडिलामेमाणी विहरइ॥
१०. तए णं तस्स आणन्दस्स समणोवासगस्स उच्चावएहिं सीलब्बयगुणवेरमणपचक्स्वाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणस्स चोइस संवच्छराइं वइकन्ताइं, पण्णरसमस संवच्छरस्स अन्तरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ पुब्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए चिन्तिए पत्थिए मणोगए सङ्कप्पे समुप्पज्जित्था-'एवं खलु अहं वाणियगामे नयरे बहणं राईसर० जाव सयस्सवि य णं कुडुम्बस्स जाव चार पल्योपमनी स्थिति कही छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोई दिवसे बहारना देशोमा विहार करे छे. ते पछी जीव अजीव तत्व जेणे जाणेला छे एवो आनन्द श्रावक यावत् श्रमण निर्ग्रन्थनो अशनादि बडे सत्कार करतो विहरे छे. ते शिवनन्दा भार्या श्राविका थइ अने श्रमण निग्रन्थनो सत्कार करती विहरे छे.
१०. त्यार पछी आनन्द श्रावकना अनेक प्रकारना शीलव्रत, गुणव्रत, विरमगवत, प्रत्याख्यान अने पोषधोपवास वडे आत्माने भावित करतां चौद वर्ष व्यतीत थयां अने पंदरमा वर्षना मध्य भागमा वर्तता अन्य कोई दिवसे मध्यरात्रिना समये धर्म जागरिका
१०. 'महावीरस्स अन्तियं' अन्ते भवा-अन्ते थयेली ते आन्तिकी-भगवंत महावीरनी पासे स्वीकारेली 'धम्मपण्णत्ति' धर्मप्रज्ञा| पनाने 'उपसंपद्य'-अनुष्ठान द्वारा स्वीकारीने वर्ती शकतो नथी. 'जहा पूरणों' जेम भगवती सूत्रमा कहेल बाल तपस्वी पूरण छे, तेणे
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥४८॥
आधारे, तं एएणं विक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवस|म्पजित्ताणं विहरित्तए, तं सेयं खलु ममं कल्लं० जाव जलन्ते विउलं असणं० जहा पूरणो जाव जेट्टपुत्तं कुडुम्बे | ठवेत्ता तं मित्त० जाव जेट्ठपुत्तं च आपुच्छित्ता कोल्लाए सन्निवेसे नायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवसम्पज्जित्ता णं विहरित्तए' एवं सम्पेहेर, संपेहित्ता कलं विउलं० तहेव जिमियभुत्तत्तरागए तं मित्त० जाव विउलेणं पुष्फ० ५ सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारिता संमाकरतां तेने आ आवा प्रकारनो अध्यवसाय, विचार, अभिलाष अने मनोगत संकल्प थयो- 'ए प्रमाणे खरेखर हुं वाणिज्य ग्राम नगरमां घणा राजा, धनाढ्य वगेरेने बहुमान्य यावत् मारा पोताना कुटुंबनो आधारभूत हूं, तेथी ए विक्षेप वडे हुं श्रमण भगवंत महावीरनी पासे स्वीकारेली धर्मप्रज्ञप्तिने करवाने समर्थ नथी, ते माटे मारे काले सूर्योदय थाय त्यारे विपुल अशन पान खादिम अने स्वादिम आहार तैयार करावी यावत् कुटुंबने आमची इत्यादि पूरण संबन्धे कयुं छे तेम यावत् ज्येष्ठ पुत्रने कुटुम्बमां स्थापन करीने, ते मित्र वगेरेनी | यावत् ज्येष्ठ पुत्रनी रजा मागीने कोल्लाक संनिवेशमां ज्ञातकुलने विशे पोषधशालानुं प्रतिलेखन करी श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने रहेवुं श्रेय छे" एवो विचार करे छे, विचार करीने विपुल अशनादि तैयार करावी मित्र वगेरेने आमंत्री, जमीने
जेम पोताना स्थाने पुत्रादिनुं स्थापन कर्तुं तेम आ आनंद श्रावके पण कर्थे तेणे विपुल अशन, पान, खादिम अने स्वादिम आहार तैयार करावीने मित्र, ज्ञाति अने पोताना संबन्धी परिवारने आमन्त्रीने ते मित्र ज्ञाति विगेरेने विपुल अशनादि तथा वस्त्र, गन्ध, माला | अने अलंकार वडे सत्कार करी सन्मान करीने ते मित्र विगेरेनी समक्ष ज्येष्ठ पुत्रने कुटुंबमां स्थापन करीने एम कां- 'आजथी
१ आनंदा
ध्ययन
॥४८॥
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उपासकदशांग सानुवाद
॥४९॥
णित्ता तस्सेव मित्त जाव पुरओ जेट्टपुत्तं सद्दावेद, सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु पुत्ता! अहं वाणियगामे |
१ आनंदाबहुणं राईसर० जहा चिन्तियं जाव विहरित्तए, तं सेयं खलु मम इदाणिं तुम सयस्स कुटुम्बस्स आलम्वणं ४ |
ध्ययन ठवेत्ता जाव विहरित्तए' । तए णं जेट्टपुत्ते आणन्दस्स समणोवासयस्स तहत्ति एयमढे विणएणं पडिसुणेइ । तए (2) णं से आणन्दे समणोवासए तस्सेव मित्त जाव पुरओ जेट्टपुत्तं कुडुम्बे ठवेइ, ठवेत्ता एवं वयासी-'मा णं देवा-|
॥४९॥ | गुप्पिया ! तुम्भे अजप्पभिई केइ मम बहूसु कज्जेसु जाव आपुच्छउ वा पडिपुच्छउ वा, ममं अट्ठाए असणं वा भोजन करीने आवेला ते मित्र ज्ञाति वगेरेने यावत् विपुल अशनादि वडे तथा पुष्प वगेरे वडे सत्कार अने सन्मान करे छे सत्कार अने सन्मान करीने यावत् ते मित्र वगेरेनी पासे ज्येष्ठ पुत्रने बोलावे छे. बोलावीने तेणे ए प्रमाणे कडं-हे पुत्र ! ए प्रमाणे खरेखर हूं वाणिज्य ग्राममां घणा राजा, धनिक वगेरेने बहुमान्य छु वगेरे जेम चिंतव्युं हतुं तेम कहीने यावत् धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करी विहरयाने समर्थ नथी, तो अत्यारे मारे मारा पोताना कुटुम्बना आलंबनभूत तने स्थापन करी यावत् धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करी विहर्बु श्रेयरूप छे." त्यार बाद ज्येष्ठ पुत्र आनन्द श्रावकनी ए बाबतने 'तहति कहीने विनय वडे कबुल करे छे. त्यार बाद आनन्द श्रावक ते मित्र वगेरेनी समक्ष जेष्ठ पुत्रने कुटुम्बमा स्थापन करे छे, स्थापन करीने तेणे ए प्रमाणे कड्यु-हे देवानुप्रिय ! तमे कोई आजथी आमांडी तमे कोइ कोइपण काममा मने पूछशो नहि, तेम मारा माटे अशनादि 'उपस्करोतु' रांधशो नहि. 'उपकरोतु' रांधेलं होय तेने बीजा द्रव्यो वडे संस्कारित करशो मा. ते पछी मित्र, शाति वगेरेनी तथा ज्येष्ठ पुत्रनी रजा मागीने कोल्लाक नामे संनिवेश-परामा 'नायकुलंसि' स्वजनना घरे ज्यां पोषधशाला छे त्यां आवे छे. त्यां आवी पोषधशालाने प्रमार्जी स्थंडिलभूमि अने पेशाब करवानी
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥५०॥
॥५०॥
४ उवक्खडेउ वा उबकरेउ वा । तए णं से आणन्दे समणोवासए जेट्टपुत्तं मित्तनाई आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता वाणियगामं नयरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव नायकुले जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमजइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारयं संथरइ, दम्भसंथारयं दुरूहइ, दुरूहित्ता पोसहसालाए पोसहिए दम्भसंथारोवगए समणस्स भगवओ. महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवसम्पज्जित्ता णं विहरइ ।। |रंभीने बहु कार्योमा मने पूछशो नही, वारंवार पूछशो नहि. अने मारा माटे अशन, पान, खादिम स्वादिम, तैयार करशो नहि, तेनो | संस्कार करशो नहि". त्यार बाद आनन्द श्रावक ज्येष्ठ पुत्र अने मित्र ज्ञाति वगेरेनी रजा ले छे, रजा लइने पोताना घरथी नीकळे छे. नीकळीने वाणिज्य गामना मध्य भागमां थइने ज्यां कोल्लाक नामे संनिवेश छे, ज्या ज्ञात कुल छे अने ज्यां पोषधशाला छे, त्यां आवे छे, आवीने पोषधशाला प्रमार्जे छे, प्रमार्जीने उच्चार-दिशाए जवानी अने प्रस्रवणभूमि-पेसाब करवानी जग्याने जुए छे, जोइने डाभनो संथारो पाथरे छे, पाथरीने तेना उपर बेसे छे, बेसीने पोषधशालामा पोषध ग्रहण करी डाभना संथाराने प्राप्त थइ श्रमण भगवंत महावीरनी पासे ग्रहण करेली धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करी विहरे छे. ' भूमिने जोइने डाभनो संथारो पाथरी ते उपर बेसी पोषधवत ग्रहण करी अभना संथारा उपर बेठेल आनंद श्रावक भगवंत महावीरनी पासे स्वीकारेल धर्मप्रज्ञापनाने अनुष्ठान द्वारा अंगीकार करीने विहरे छे.
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११. तए णं से आणन्दे समणोवासए उवासगपडिमाओ उवसम्पज्जित्ता णं विहरइ । पढम उवासगपडिम उपासक
१ आनंदादशांग ११. त्यार पछी ते आनन्द श्रावक श्रावकनी प्रतिमाओ स्वीकार करीने बिहरे छे. तेमा प्रथम उपासक प्रतिमा-व्रत विशेषने सूत्र |
ध्ययन सानुवाद ११. तेमां प्रथम अगियार श्रावकनी प्रतिमाओमाथी प्रथम श्रावकने उचित अभिग्रह विशेषरूप प्रथम प्रतिमानो स्वीकार करीने
विहरे छे. ते प्रथम प्रतिमानुं आ स्वरूप छे-शंका वगेरे शल्य रहित सम्यग्दर्शन युक्त अने बाकीना गुण रहित जे प्राणी छे ते प्रथम | ॥५१॥
॥५१॥ सम्यग्दर्शन प्रतिमा. निरतिचारपणे सम्यग्दर्शन- पालन करवू ते प्रथम प्रतिमा जाणवी, छतां अहीं गुण अने गुणीनो अभेद होवाथी सम्यग्दर्शन युक्त प्राणीने प्रथम सम्यग्दर्शन प्रतिमा कही छे. जो के सम्यग्दर्शननी प्रतिपत्ति (अंगीकार) तेने पूर्व पण हती, तो पण
शंकादि दोष अने राजाभियोगादि अपवाद सिवाय तथाविध सम्यग्दर्शनाचारना विशेष पालन करवाना स्वीकार घडे प्रतिमानो संभव CO छे. पम न होय तो आनंद श्रावके प्रथम प्रतिमाने एक मास पालन करवा वडे, बीजी प्रतिमाने बे मास पालन करवा वडि, ए प्रमाणे |
यावत् अगियारमी प्रतिमाने अगियार मास पालन करवा वडे साडा पांच वरस पूर्ण कर्या' ए अर्थात् कहेशे ते केम संगत थाय ? आ अर्थ दशाथुतस्कन्धादिने विशे नथी, कारण के त्यां श्रद्धामात्ररूप प्रथम प्रतिमानुं प्रतिपादन करेलुं छे. ते प्रथम प्रतिमाने 'अहासुतं'
यथासूत्र-सूत्र प्रमाणे 'यथाकल्पं' प्रतिमाना आचारने उल्लंघन कर्या सिवाय, 'यथामार्ग क्षायोपशमिक भावरूप मार्गनो अतिकम कर्या मासिवाय, 'अहातच्च यथा तत्व-दर्शन प्रतिमाना अन्वर्थने अनुसरी, 'फासेई सम्यक प्रकारे काया बडे स्पर्श करे छे, कारण के प्रतिपत्ति
समये तेने विधि बढे अंगिकार करी छे. 'पालेइ' निरन्तर उपयोगनी जागृति बडे रक्षण करे छे. 'सोहेई' शोभयति-गुरुपूजापूर्वक पारणा करवा बडे शोभावे छे. अथवा शोधयति-निरतिचार पणे शुद्ध करे छे. 'तीरेद' पूर्ण करे छे, काळनी मर्यादा पूर्ण थवा छतां तेना परिणामनो त्याग करतो नथी. 'कीर्तयति' वखाणे छे, कारण के तेनी समाप्तिमां आदि, मध्य अने अंतमां आ आ करवा योग्य हतुं ते में कयु छे एम स्तुति करे छे. आराधयति-ए बधा प्रकारो बडे निर्दोषपणे समाप्त करे छे. पछी 'दोच्च' Ipal.
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उपासकदशांग सानुवाद
आनंदाध्ययन
॥५२॥
अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं अहातचं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ कित्तेइ आराहेइ । तए णं से आणन्दे समणोवासए दोचं उवासगपडिमं, एवं तच्चं चउत्थं पञ्चमं छटुं सत्तमं अट्ठमं नवमं दसम एक्कारसमं |जाव आराहेइ ॥
प्रमाणे, कल्प प्रमाणे, मार्ग प्रमाणे यथातथ्य-यथार्थपणे सम्यक् काया वडे स्पर्श करे छे, पाळे छे, शोभावे छे, संपूर्ण करे छे, | कीर्तन करे छे अने तेनुं आराधन करे छे. त्यार बाद आनन्द श्रावक बीजी श्रावकनी प्रतिमाने, एम, त्रीजी, चोथी, पांचमी, | छट्ठी, सातमी, आठमी, नवमी, दसमी अने अगियारमी प्रतिमानुं यावत् आराधन करे छे. वीजी व्रतप्रतिमाने स्वीकारे छे. तेनुं आ स्वरूप छे-दर्शनप्रतिमायुक्त अणुव्रताने निरतिचारपणे पालन करतो अनुकंपादिगुणयुक्त जीव बीजी व्रतप्रतिमा कहेवाय छे. 'तच्चं' त्रीजी सामायिक प्रतिमाने स्वीकारे छे. तेनुं स्वरूप आ छे-श्रेष्ठ सम्यग्दर्शन अने व्रतयुक्त जे बन्ने संध्याए उत्कृष्ट त्रण मास सुधी सामायिक करे ते सामायिक प्रतिमा छे. 'चउत्थं चोथी पोषधप्रतिमानो स्वीकार करे छे. तेनुं आ स्वरूप छे-पूर्वे कहेली प्रतिमा युक्त जे आठम अने चौदश वगेरे पर्वदिवसे चार मास सुधी संपूर्ण पोषध पाले ते चोथी प्रतिमा जाणवी. 'पञ्चमं पांचमी कायोत्सर्ग प्रतिमानो स्वीकार करे छे. तेनुं स्वरूप आवा प्रकारनुं छे-सम्यग्दर्शन, अणुव्रत अने गुणव्रत, शिक्षाव्रतवाळो, स्थिर, ज्ञानी आठम अने चतुर्दशीने विशे (पौषधना दिने) एक रात्री कायोत्सर्गमां स्थिर रहे. प्रतिमा सिवायना दिवसोमां स्नानरहित अने विकटभोजी-रात्रीभोजन त्यागी कच्छने मोकळो मुकी दीवसे-ब्रह्मचर्य पाळनार अने रात्रिए जेणे परिमाण करेलुं छे एवो होय. कायोत्सर्ग प्रतिमाने विशे रहेलो त्रण लोकमां पूजवा योग्य अने जेणे कषायोने जित्या छे पवा जिनोनुं ध्यान करे, अथवा पोताना दोषथी विरुद्ध एवं बीजु कोइ ध्यान यावत् पांच मास सुधी करे, 'छ?' छट्टी अब्रह्मचर्यना त्याग
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॥५२॥
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उपासकदशांग सानुवाद
आनंदाध्ययन
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१२. तए णं से आणन्दे समणोवासए इमेणं एयारवेणं उरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहियेणं तवोकम्मेणं
वाकम्मण १२. त्यार बाद ते आनन्द श्रावक आवा प्रकारना आ उदार, विपुल, प्रयत्नरूप अने स्वीकारेला तप कर्म वडे शुष्क यावत् कृश अने रूप प्रतिमानो स्वीकार करे छे. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे-पूर्वे कहेली प्रतिमाना गुणयुक्त अने विशेषतः जेणे मोहनीय कर्मने जित्यं छे एवो एकान्तथी मैथुननो त्याग करे अने रात्रिने विशे स्थिर चित्तवाळो होय, ते शृंगारनी कथाथी विरक्त थयेलो स्त्रीओनी साथे एकान्ते न रहे तथा स्त्रीओना अति प्रसंगनो अने उत्कृष्ट विभूषानो त्याग करे. ए प्रमाणे छ मास सुधी ए कल्प समजवो. अथवा बीजी रीते पण आ लोकममं यावजीव अब्रह्मचर्यनो त्याग करे. 'सत्तम' सातमी सचित्ताहारना त्याग रूप प्रतिमानो स्वीकार करे छे. ते आ प्रमाणे-समग्र अशनादि सचित्ताहारनो विधिपूर्वक त्याग करे अने बाकीना प्रतिमाओना पद-स्थान वडे यावत् सात मास सुधी युक्त होय. 'अट्ठमं' आठमी स्वयं आरंभना त्याग करवा रूप आठमी प्रतिमानो स्वीकार करे छे. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे छ-आठ मास सुधी स्वयं सावध आरंभनो त्याग करे, पण वृत्तिनिमित्ते-आजीविका निमित्त प्रेष्य-नोकर वगेरे द्वारा आरंभ करावे अने पूर्वोक्त प्रतिमाना गुणयुक्त होय ते आठमी प्रतिमा जाणवी. 'नवमं' नवमी भृतकप्रेष्यारंभ-भृत्य के नोकरद्वारा आरंभना त्याग रूप प्रतिमानो स्वीकार करे छे. ते आ प्रमाणे छे-प्रेष्य-नोकर वगेरे द्वारा मोटा सावद्य आरंभने करावतो नथी. अने पूर्वे कहेली प्रतिमाना गुणयुक्त नव मास सुधी विधि वडे रहे छे. 'दसम' दसमी उद्दिष्टभोजनना त्याग रूप प्रतिमाने स्वीकारे छे. तेनुं स्वरूप आ प्रमाणे छे-पोताने उद्देशीने करेला भोजननो पण त्याग करे छे, तो बीजा आरंभ माटे तो शुं कहेवू ? ते अस्त्रा वडे मुंड थाय छे, अथवा कोई शिखाने धारण करे छे. द्रव्य संबन्धे पूछयु होय तो जाणतो होवा छतां पण 'हुं जाणुं छु अथवा जाणतो नथी' एम न कहे, अने पूर्वे कहेला गुणयुक्त होय. ए प्रतिमा काळना प्रमाण वडे दस मासनी छे. 'एक्कारसमं' अगियारमी श्रमणभूत प्रतिमाने स्वीकारे छे. तेनुं स्वरूप आ छे-"अस्त्रा वडे मुंड थाय अथवा केशोनो लोच करे. तथा रजोहरण अने अवग्रह ग्रहण करीने श्रमणनी पेठे काया
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
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सुक्के जाव किसे धमणिसन्तए जाए । तए णं तस्स आणन्दस्स समणोवासगस्स अन्नया कयाइ पुब्वरत्ता. जाव धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए ५-'एवं खलु अहं इमेणं जाव धमणिसन्तए जाए, तं अत्थिता मे उहाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे सद्धाधिइसंवेगे, तं जाव ता मे अत्थि उहाणे सद्धाधिइसंवेगे जाव | य मे धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरइ ताव ता मे सेयं कल्लं जाव जलन्ते
अपच्छिममारणन्तियसंलेहणाझूसणाझूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स कालं अणवकमाणस्स विहरित्तए' एवं सम्पेहेइ, संपेहित्ता कल्लं पाउ० जाव अपच्छिममारणन्तिय जाव कालं अणवकङ्खमाणे विहरइ। तए णं तस्स | धमनी-नाडीओ बडे व्याप्त थयो एटले तेना शरीरनी नाडीओ देखावा लागी. त्यार पछी ते आनन्द श्रावकने अन्य कोइ दिवसे मध्य | रात्रीए धर्म जागरिका करतां आवो संकल्प थयो-'ए प्रमाणे हुं आ प्रकारना तप बडे धमनीथी व्याप्त शरीरवाळो थयो र्छ अने हजी मारामां उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम तथा श्रद्धा, धैर्य अने संवेग छे, ज्यां सुधी मारामां उत्थान यावत् श्रद्धा, धैर्य अने संवेग छे अने ज्यां सुधी मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर जिन सुहस्ती विचरे छे त्यां सुधी मारे आवती काले सूर्योदय थये अपश्चिम-सौथी छेल्ली मारणान्तिक संलेखनानी आराधना युक्त थइने, भात पाणी- प्रत्याख्यान करी, अने वडे धर्मने स्पर्श करतो एक दिवसथी मांडी उत्कृष्ट अगियार मास सुधी विचरे. ए प्रमाणे बधे प्रायः बहुधा जाणवू.
१२. 'उरालेग' उदार पवा तप बडे इत्यादि वर्णन मेषकुमारना तपना वर्णननी पेठे जाणवू. यावत् 'अनवकांक्षन्'-मरणनी दरकार नहि करतो विहरे छे.
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥५५॥
आणन्दस्स समणोवासगस्स अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं| तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहिनाणे समुप्पन्ने। पुरथिमेणं लवणसमुद्दे पश्चजोयणसंइयं खेत्तं जाणइ | पासइ, एवं दक्षिणेणं पचत्थिमेण य, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवन्तं वासधरपब्वयं जाणइ पासइ, उड्डे जाव सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइवाससहस्सट्टिइयं जाणइ पासइ॥
१३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा निग्गया, जाव पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटे अन्तेवासी इन्दभूई णामं अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुकाळनी दरकार नहि करतां रहेQ श्रेय रूप छे' एम विचार करे छे. विचार करीने आवती काले प्रातःकाळे यावत् अपश्चिम मारणान्तिक संलेखनानी आराधना युक्त थइ यावत् काळनी नहि दरकार करतो विहरे छे. त्यार बाद ते आनन्द श्रावकने अन्य कोई दिवसे शुभ अध्यवसाय वडे, शुभ परिणाम वडे, विशुद्ध लेश्याओ वडे तेना आवरणभूत कर्मनाक्षायोपशमथी अवधिज्ञान उत्पन्न थयु. ते पूर्व दिशामां लवण समुद्रने विशे पांचसो योजन प्रमाण क्षेत्रने जाणे छे, ए प्रमाणे दक्षिण दिशाए अने पश्चिम दिशाए जाणवू, उत्तर दिशाए चुल्ल हिमवंत वर्षधर पर्वत सुधी जाणे छे अने देखे छे. ऊर्ध्व-उपर सौधर्म देवलोक सुधी जाणे छे अने देखे छे, अधो-नीचे आ रत्नप्रभाना पृथिवीना चोराशी हजार वर्षनी स्थितिवाळा रोख्य नरकावास सुधी जाणे छे अने देखे छे.
१३. ते काळे अने ते समये श्रमण भगवान महावीर समोसर्या. पर्षदा वांदवाने नीकळी अने वांदीने पाछी गई. ते काळे अने |
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥५६॥
॥५६॥
|स्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसहनारायसङ्घयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे घोरतवे महातवे उराले घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबम्भचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असम्भन्ते मुहपत्तिं पडिलेहेइ,२त्ता भायणवत्थाई पडिलेहेइ,२त्ता भायणवत्थाई पमन्जइ,२त्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेवसमणे भगवं महावीरेतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामि णं भन्ते ! तुन्भेहिं अन्भणुण्णाए छट्ठक्खमणपारणगंसि वाणियगामे ते समये श्रमण भगवंत महावीरना ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय, सात हाथ ऊंचा, समचतुरस्र संस्थानवाळा, वज्रऋषभनाराच संघयणयुक्त सुवर्णना कसोटी उपरना कष जेवा, पद्मनासमान गौरवर्णवाळा, उग्र तपवाळा, तेजस्वी तपवाळा, तपस्वी, घोर तप वाळा, महातपस्वी, उदार, घोर गुणवाळा, घोर तपस्वी घोर ब्रह्मचारी, जेणे शरीरना ममत्वनो त्याग कर्यो छे एवा, संक्षिप्त अने विपुल तेजोलेश्यावाळा इन्द्रभूति नामे अनगार निरन्तर छट्ठ छट्ठना तप करवा वडे, संयम अने तप वडे आत्माने भावित करता विहरे छे. त्यार पछी भगवान् गौतम छट्ठ क्षपणना | पारणाने दिवसे प्रथम पौरुषीने विशे स्वाध्याय करे छे, बीजी पौरुषीए ध्यान करे छे, त्रीजी पौरुषीए त्वरा अने चपलता सिवाय संभ्रम | रहित मुहपत्तिनुं प्रतिलेखन करे छे, प्रतिलेखन करी पात्र अने वस्त्रोनुं प्रतिलेखन करे छे. प्रतिलेखन करी पात्र अने वस्त्रोने प्रमार्जे छे, प्रमार्जी पात्रो ग्रहण करे छे. ग्रहण करी ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवान् महावीरने वंदन
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥५७||
॥५॥
नयरे उच्चनीयमज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबन्धं करेह । तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेण अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियाओ दुइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसम्भन्ते जुगन्तरपरिलोयणाए दिट्ठीए पुरओ ईरियं सोहेमाणे जेणेव वाणियगामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाणियगामे नयरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ । तए णं से भगवं गोयमे | वाणियगामे नयरे जहा पण्णत्तीए तहा जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापज्जत्तं भत्तपाणं सम्मं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहित्ता वाणियगामाओपडिणिग्गच्छइ, पडिणिग्गच्छित्ता कोल्लायरस सन्निवेसस्स अदूरसामन्तेणं वईवयअने नमस्कार करे छे. वंदन अने नमस्कार करीने तेणे ए प्रमाणे कयु-'हे भगवन् ! आपनी अनुज्ञा वडे छट्ठना उपवासना पारणे वाणिज्य ग्राम नगरने विशे घर समुदायना उच्च, नीच अने मध्यम कुलोमा मिक्षाचर्याए जवाने इच्छं छु.' (भगवंते कह्यु-) हे दे| वार्नु प्रिय ! सुख थाय तेम करो, प्रतिबंध न करो. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीरे अनुज्ञा आपी एटले भगवान् गौतम श्रमण
भगवंत महावीरनी पासेथी दूतिपलाश चैत्यथी नीकळे छे. नीकळीने त्वरा, चपलता अने संभ्रम सिवाय युगप्रमाण भूमिने जोनारी | दृष्टि वडे ईर्या-मार्गने शोधता ज्यां वाणिज्य ग्राम नगर छे. त्यां आवे छे आवीने वाणिज्य ग्राम नामे नगरमां घर समुदायना उच्च, नीच अने मध्यम कुळोमां भिक्षाचर्या माटे भमे छे. त्यार पछी ते भगवान् गौतम वाणिज्यग्राम नगरमा जेम भगवतीसूत्रमा कह्यु छ तेम भिक्षाचर्याए भमता यथा योग्य भात पाणीने सम्या प्रकारे ग्रहण करे छे. ग्रहण करीने वाणिज्य ग्रामथी नीकळे छे, नीकळीने!
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥५८॥
॥५८॥
|माणे बहुजणसई निसामेइ । बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ ४-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणस्स भगवओ | महावीरस्स अन्तेवासी आणन्दे नाम समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम० जाव अणवकङ्घमाणे विहरई। तए णं तस्स गोयमस्स बहुजणस्स अन्तिए एवमटुं सोचा निसम्म अयमयारूवे अज्झथिए ४-'तं गच्छामि णं आणन्दं समणोवासयं पासामि' एवं सम्पेहेइ, संपेहित्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव आणन्दे समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ । तए णं से आणन्दे समणोवासए भगवं गोयमं एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट जाव हियए, भयवं गोयमं वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'एवं खलु भन्ते ! अहं इमेणं उरालेणं जाव धमणिसन्तए जाए, न संचाएमि देवाणुप्पियस्स अन्तियं पाउभवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं कोल्लाक संनिवेशनी पासे थईने जता घणा माणसोनो शब्द सांभळे छे. घगा माणसो परस्पर ए प्रमाणे कहे छ-हे देवानुप्रियो ! श्रमण भगवंत महावीरना अन्तेवासी आनन्द नामे श्रावक पोषधशालामां अपश्चिम मारणान्तिक संलेखनानुं आराधन करता काळनी दरकार नहि करता विहरे छे. त्यार बाद ते भगवंत गौतमने घणा जणनी पासेथी ए अर्थ सांभळी, विचारी आवा प्रकारनो आ संकल्प थयो-'ते माटे हुं जाऊं अने आनन्द श्रावकने जोर्ड' एम विचार करे छे. विचारीने ज्यां कोल्लाक संनिवेश छे, ज्यां पोषधशाला छे अने ज्यां आनन्द श्रमगोपासक छे त्यां आवे छे. त्यार बाद ते आनन्द श्रावक भगवान् गौतमने आवता जुए छे, जोईने ते हृष्ट-प्रसन्न अने संतुष्ट हृदय वाळो थई भगवान् गौतमने वंदन नमस्कार करे छे. वांदी अने नमीने तेणे आप्रमाणे कड्यु-'ए प्रमाणे हे भगवन् ! हुं आ उदार तप वडे यावत् धमनी-नाडीओ वडे व्याप्त शरीरवाळो थयो छु, तेथी देवानुप्रिय एवा आपनी पासे आवीने
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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥५९॥
॥५९॥
| पाए अभिवन्दित्तए, तुम्भे भन्ते ! इच्छाकारेणं अणभिओएणं इओ चेव एह, जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वन्दामि नमसामि'। तए णं से भगवं गोयमे जेणेव आणन्दे समणोवासए तेणेव उवागच्छद॥
१४. तए णं से आणन्दे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'अत्थि णं भन्ते ! गिहिणो गिहमज्झावसन्तस्स ओहिनाणे समुप्पज्जइ ? हन्ता अत्थि। जइ णं भन्ते ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, एवं खलु भन्ते ! ममवि गिहिणो गिहमज्झावसन्तस्स ओहिनाणे समुप्पन्ने-पुरत्थिमेणं लवणसमुद्दे पञ्च जोयणसयाइं जाव लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि । तए णं से त्रण वार मस्तक वडे आपना पगे वंदन करवाने समर्थ नथी, तो हे भगवन् ! तमेज इच्छा वडे अनभियोग-स्वतन्त्रपणे अहीं आवो, यावत् देवानुप्रिय एवा आपना पगे मस्तक वडे त्रणवार वन्दन नमस्कार करूं'. त्यार बाद भगवान् गौतम ज्यां आनन्द श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे.
१४. त्यार बाद ते आनन्द श्रावक भगवान् गौतमने त्रण वार मस्तक बडे पगे वंदन नमस्कार करे छे, वंदन नमस्कार करीने तेणे आ प्रमाणे कह्यु-'हे भगवन् ! गृहस्थने गृहवासमा रहेता अवधि ज्ञान थाय छे ? हा, थाय. हे भगवन् ! गृहस्थने यावत् अबधिज्ञान थाय छे तो हे भगवन् ! गृहवासमा रहेता गृहस्थ एवा मने पण अवधिज्ञान थयु छे. पूर्व दिशामां लवण समुद्रने विशे पांचसो योजन सुधी यावत् नीचे रोरुयनामे नरकावासने जाणुं छु अने देखु छु, त्यार बाद भगवान् गौतमे आनन्द श्रमणोपासकने ए प्रमाणे
१४. 'गिहमज्झावसन्तस्स' गृहमध्यावसतः-धरमा रहेता.
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥६०॥
भगवं गोयमे आणन्दं समणोवासयं एवं वयासी- 'अस्थि णं आणन्दा ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, नो चेव णं एमहालए, तं णं तु आणन्दा ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव तवोकम्मं पडिवजाहि । तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एवं वयासी- 'अत्थि णं भन्ते ! जिणवयणे सन्ताणं तचाणं तहियाणं सन्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिवज्जइ १ नो इणट्ठे समट्ठे । जइ णं भन्ते ! जिणवयणे सन्ताणं जाव भावाणं नो आलोइज्जइ जाव तवोकम्मं नो पडिवज्जिज्जइ तं णं भन्ते ! तुग्भे चैव एयस्स ठाणस्स आलोएह, जाव पडिवज्जह' । तए णं से भगवं गोयमे आणन्देणं समणोवासएणं एवं वृत्ते समाणे संकिए कंखिए विइगिच्छासमा कां - 'हे आनन्द ! गृहस्थने यावत् अवधिज्ञान उत्पन्न थाय छे, परन्तु एटलुं मोडं होतुं नथी, तो हे आनन्द ! तुं ए स्थानकनी-विपयनी आलोचना कर, यावत् (प्रायश्चित्त रूपे) तपकर्मनो स्वीकार कर. त्यार पछी ते आनन्द श्रमणोपासके भगवान् गौतमने ए प्रमाणे कां - ' हे भगवन् ! जिनप्रवचनमां सत् - विद्यमान, तथ्य, तथा भूत-ते प्रमाणे रहेला अने सद्भूत भावोनी आलोचना कराय छे, यावत् प्रायश्चित्त रूपे तपनो स्वीकार कराय छे ? हे आनन्द ! ए अर्थ युक्त नथी. 'हे भगवन्! जो जिनवचनमां सद् रूप भावो संबन्धे आलोचना न कराय अने यावत् तप रूप प्रायश्चित्त न कराय तो हे भगवन् ! तमेज ए स्थानकनी आलोचना करो, यावत् तपरूप प्रायश्चित्त करो'. त्यार बाद आनन्द श्रावके ए प्रमाणे कां एटले शंकित - शंकावाळा कांक्षित जिज्ञासा वाळा अने विचिकित्सा - संशयने प्राप्त थयेला भगवान् गौतम आनन्द श्रावकनी पासेथी निकले छे, नीकळीने ज्यां दूतिपलाश चैत्य छे अने
'संताणं' इत्यादि एकार्थक शब्दों छे.
१ आनंदा
ध्ययन
॥६०॥
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१ आनंदा
उपासकदशांग सानुवाद
ध्ययन
॥६
॥
॥६
॥
आणन्दस्स अन्तियाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव दुइपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ, पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएइ, आलोएत्ता भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदसित्ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भन्ते ! अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए तं चेव सव्वं कहेइ जाव तए णं अहं संकिए ३ आणन्दस्स समणोवासगस्स अन्तियाओ पडिणिक्खमामि, पडिनिक्खमित्ता जेणेव इह तेणेव हव्वमागए, तं णं भन्ते ! किं आणन्देणं समणोवासएंणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं जाव पडिवज्जेयव्वं उदाहु मए ? 'गोयमा' इसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-गोयमा! तुमचेवणं तस्स |ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे. त्या आधीने श्रमण भगवान् महावीरनी थोडे दूर रही गमनागमन पडिक्कमे छे. पडिक्कमी एषणा अने अने अनेषणानी आलोचना करे छे, आलोचना करीने भक्तपान-आहारपाणीने देखाडे छे. देखाडीने श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करीने तेणे ए प्रमाणे कडं-'हे भगवन् ! ए प्रमाणे आपनी अनुज्ञा मेळवी हुँ (वाणिज्यग्राम नामे ग्रामने विशे गोचरी माटे गयो हतो) इत्यादि पूर्वोक्त बधुं कहे छे. यावत् त्यार बाद शंकित, कांक्षित अने संशयने प्राप्त थयेलो हुँ आनन्द श्रमणोपासकनी पासेथी नीकळीने ज्यां आ स्थान छे त्यां शीघ्र आव्यो छु, तो हे भगवन् ! आनन्द श्रमणोपासके ते स्थाननी आलोचना करवी जोइए, यावत् प्राश्चित कर जोइए अथवा मारेकरवू जोइए ? 'गौतम!
१४. 'गोयमा इत्ति हे गौतम ! ए प्रमाणे आमन्त्रीने.
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उपासकदशांग सानुवाद
आनंदाध्ययन
॥६२॥
॥६२॥
ठाणस्स आलोएहि, जाव पडिवजाहि, आणन्दं च समणोवासयं एयम8 खामेहि। तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स 'तहत्ति एयम8 विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ,जाव पडिवजह, आणन्दं च समणोवासयं एयमढें खामेइ । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जणवयविहारं विहरह॥
१५. तए णं से आणन्दे समणोवासए बहहिं सीलव्वएहिं जाव अप्पाणं भावेत्ता वीसं वासाई समणोवासगपरियागं पाउणित्ता एक्कारस य उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं | झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे एम कही श्रमण भगवंत महावीरे भगवान् गौतमने ए प्रमाणे कह्यु-हे गौतम ! तुं ज ते स्थाननी आलोचना कर, यावत् तप कर्मनो स्वीकार कर, अने आनन्द श्रमणोपासकने ए अर्थ संबन्धे खमाव'. त्यार बाद ते भगवान् गौतम श्रमण भगवान् महावीरने 'तहत्ति कही ए अर्थने विनय वडे कबूल करे छे. कबूल करीने ते स्थाननी आलोचना करे छे, यावत् प्रायश्चितनो स्वीकार करे छे, अने आनन्द श्रमणोपासकने ए बाबत खमावे छे. त्यार बाद श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोइ दिवसे बहारना देशोमां विहरे छे.
१५. त्यार पछी ते आनन्द श्रमणोपासक घणां शीलवतो वडे यावत् आत्माने भावित करतां वीश वरस सुधी श्रमणोपासकनो पर्याय पाळीने अने अगियार श्रावकनी प्रतिमाने सम्यक् काया वडे स्पर्शाने मासिक संलेखना वडे आत्माने शुष्क करी साठ भक्त अनशन बडे व्यतीत करी आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्त थइ काळ समये काळ करीने सौधर्म देवलोकमां सौधर्मा
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१ आनंदाध्ययन
उपासकदशांग सानुवाद
॥६३॥
॥६३॥
सोहम्मवडिंसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरच्छिमेणं अरुणे विमाणे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणन्दस्सवि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। आणन्दे णं भन्ते ! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ३ अणन्तरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ कहिं उव| वज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । निक्खेवो ॥ . वतंसक महाविमाननी उत्तर-पूर्व दिशाए अरुण विमानने विशे देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां केटलाएक देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति | कही छे. त्यां आनन्द देवनी पण चार पल्योपमनी स्थिति छे.
हे भगवन् ! आनन्द देव ते देवलोकथी आयुषना क्षय वडे, भवना क्षय वडे अने स्थितिना क्षय वडे च्यवी क्यां जशे ? क्यां उत्पन्न थशे? हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्रने विशे सिद्धिपदने पामशे. अहीं निक्षेप-उपसंहार कहेवो.
उपासकदशांगमां प्रथम आनन्दाध्यन समाप्त. १५. 'निक्लेवओ' निगमन-उपसंहार वाक्य छे. जेम के हे जम्बू! 'श्रमण भगवन्त महावीरे उपासकदशाना प्रथम अध्ययननो आ अर्थ कह्यो छे' तेम हुं कहुं हुं.
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥६४॥
बीयं अज्झयणं ।
१. जइ णं भन्ते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, दोचस्स णं भन्ते ! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं | तेणं समएणं चम्पा नामं नयरी होत्था । पुण्णभद्दे चेइए । जियसत्तू राया । कामदेवे गाहावई । भद्दा भारिया । छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ वुडिपत्ताओ, छ पवित्थरपउत्ताओ। छ वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं । समोसरणं । जहा आणन्दो तहा निग्गओ, तहेव सावयधम्मं पडिवजह, सा चैव वत्तत्र्वया जाव जेट्ठपुत्तं
२ कामदेवाध्ययन
१ हे भगवन् ! यावत् निर्वाणने प्राप्त थयेलो श्रमण भगवन्त महावीरे जो सातमा उपासक दशांगना प्रथम अध्ययननो आ (पूर्वोक्त) अर्थ को छे, तो हे भगवन् ! बीजा अध्ययननो शो अर्थ कह्यो छे ? हे जंबू ! ए प्रमाणे ते काळे अने ते समये चंपा नामे नगरी हती. पूर्णभद्र चैत्य हतुं जितशत्रु राजा हतो. कामदेव गृहपति हतो. तेने भद्रा नामे भार्या हती. छ हिरण्यकोटी निधानमां मूकेली, छ व्याजमां अने छ धनधान्यादिना विस्तारमां रोकेली हती. तेने दस हजार गायोनुं एक व्रज एवां छ बजो हतां. भगवान् समोसर्या, आनन्दनी जेम (कामदेव) वंदन करवा निकळ्यो. अने ते प्रमाणे श्रावक धर्मनो स्वीकार करे छे. इत्यादि तेज
२ कामदेवाध्ययन
॥६४॥
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
॥६५॥
॥६५॥
मित्तनाई आपुच्छित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जहा आणन्दो जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवसंपजित्ता णं विहरइ।
२ तए णं तस्स कामदेवस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे मायी मिच्छद्दिट्टी अन्तियं | पाउन्भूए । तए णं से देवे एगं महं पिसायरूवं विउव्वइ । तस्स णं देवस्स पिसायरूवस्स इमे एयारूवे वण्णावासे वक्तव्यता कहेवी, यावत् ज्येष्ठ पुत्र अने मित्र ज्ञाति वगेरेने पूछी ज्यां पोषधशाला छे त्यां आवे छेः त्यां आवीने आनन्दनी पेठे धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने विहरे छे.
२ त्यार पछी ते कामदेव श्रमणोपासकनी पासे मध्य रात्रिना समये एक मायी मिथ्यादृष्टि देव प्रगट थयो अने ते देव एक मोटु पिशाचर्नु रूप विकुर्वे छे. ते पिशाच रूप देवनो वर्णनव्यास-वर्णननो विस्तार आ प्रमाणे छे-तेनुं माथु गोकिलंज-टोपलाना
१-२ हवे बीजा अध्ययनने विशे कंडक लखीए छीए-ते कामदेव श्रमणोपासकनी पासे 'पुब्बरत्तावरत्तकालसमयंसि' पूर्वरात्र|राधिनो पर्व भाग, अने अपररात्र-रात्रिनो पछीनो भाग, ते रूप कालना समयने विशे ण्टले मध्यरात्रिए एक मायी मिथ्यादृष्टि देव
आब्यो अने ते एक मोटुं पिशाचर्नु रूप बिकुर्वे छे, तेनो 'इमेयारूवे' आ आवा प्रकारनो 'वण्णावासे'-वर्णकन्यासः-वर्णननो विस्तार छे. 'से तेनुं 'सीसं' शीर्ष-मस्तक 'गोकिलजत्ति गायोने चारो करवा माटे वांसजें बनावेलु पात्र, जेने डालुं कहेवामां आवे छे, ते उधुं मूकडे होय तेना आकार जेवो आकार छे. बीजा पुस्तकमां बीजं विशेषण छे-'विगयकप्पयनिभं विकृत-बेडोळ अलंजरपाणी भरवानुं माटीमोटुं पात्र वगेरे, तेना कल्पक-खंड अर्थात्-कर्पर-ठीबना जेवु छे, क्वचित् 'वियडकोप्परनिर्भ' विकट
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उपासकदशांग सानुवाद
॥६६॥
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पण्णत्ते-सीसं से गोकिलञ्जसंठाणसंठियं, सालिभसेल्लसरिसा से केसा कविलतेएणं दिप्पमाणा, महल्लउहि
२ कामदेयाकभल्लसंठाणसंठियं निडालं, मुगुंसपुंछ व तस्स भुमगाओ फुग्गफुग्गाओ विगयबीभच्छदसणाओ, सीसघ-16
| वाध्ययन डिविणिग्गयाइं अच्छीणि विगयबीभच्छदसणाई, कण्णा जह सुप्पकत्तरं चेव विगयबीभच्छदंसणिजा, उरम्भपुडसन्निभा से नासा, झुसिरा जमलचुल्लीसंठाणसंठिया दोऽवि तस्स नासापुडया, घोडयपु; व तस्स मंसूई
॥६६॥ आकार जेवु हतुं. तेना केशो डांगरनी कुंडीओना जेवा पीळी कान्ति वडे दीपता हता. मोटा उष्ट्रिका-माटीना घडानी ठीब जेवू तेनुं ललाट हतुं. तेनी मुंगुसना पूंछडा जेवी भमरो फगफगती हती अने तेथी तेनो देखाव विकृत-बेडोळ अने बीभत्स हतो. तेनी आंखो शीर्षघटी-मस्तक रूप घटीकाथी बहार नीकळेली तथा विकृत अने बीभत्स दर्शनवाळी हती. तेना कान सुपडाना खंड जेवा अने बेडोळ तथा बीभत्स देखाववाळा हता. तेनी नासिका उरभ्र-घेटानी नासिकापुट जेवी हती. तेना बन्ने नासिकासंपुट शुषिर-मोटा छिद्र-| वाळा यमल-साथे रहेली बे चुलनी आकृति जेवा हता. तेनी श्मश्रू-दाढीमुछ घोडाना पुच्छना जेवी अने पीळा वर्णवाळी विकृतविस्तीर्ण कर्पर-माटीना वासणनी कपाल-ठीबना जेवु छ । 'सालिमसेलसरिसा' शालि-डांगरनी भसेल्ल-इंडीओना जेवा तेना केशवाळ छे. एज बाबतने स्पष्ट करे छे-ते 'कपिलतेपणं दिप्पमाणा' कपिल-पीळी कांति वडे दीपता-सुशोभित छे. 'उट्रियाकमलसंठाणसंठिया' उष्ट्रिका-पाणी भरवाना माटीना घटना कमल-कपाल-ठीबना संस्थान-आकारवाळु तेनुं 'निडाल' ललाट छे. 'महल्लउट्टियाकभल्लसरिसोचम' एवो बीजो पाठ छे. मोटा उष्टिका-पाणी भरवाना घडाना कमल-कपालना समान उपमा-समानपणुं जेने विशे छे पवु ललाट छे. 'मुगुसपुंछ व' मुगुंसा-भुजपरिसर्पविशेष, तेमा पृछडाना जेबी 'तस्य' ते पिशाचनी 'भूमगाओ' भमरो छे. प्रस्तुत | उपमाना अर्थने स्पष्ट करे छे-अने ते 'फुग्गफुगाओ' परस्पर छुटा रोमवाळी छे पटले फगफगती होय छे. बीजा पुस्तकमा 'जडिलकुडिलाओं'
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥६७॥
कविलकविलाई विगयबी भच्छदंसणाई, उट्ठा उहस्स चैव लम्बा, फालसरिसा से दन्ता, जिन्भा जहा सुष्पकत्तरं | चैव विगयवीभच्छदंसणिजा, हलकुद्दालसंठिया से हणुया, गल्लकडिल्लं च तस्म खड्डे फुटं कचिलं फरुसं महल, वेटोळ अने बीभत्स देखाववाली हती. होठ ऊंटना जेवा लांचा अने तेना दांत फाल-कोशना जेवा हता. तेनी जीभ शूर्पकर्तर- सुप डाना टुकडा जेवी अने वेडोळ तथा बीभत्स देखाववाळी हती. तेनी हनु-वे दाढो हकनी कोदाळी सरखा आकारखाळी हती. तेना गलकडिल - गालरूप कडाइ फुट्ट पहोळी खड्ड खाडना जेवी कपिल-पीळी, परुप-कठोर अने महत्-मोटी हती. तेना स्कन्ध-खभा पोपाठ - पटले जटिल जटावाळी अने कुटिल-गुंचळावाळी छे, तथा 'विगयविभच्छदसणाओ' विकृत-बेडोळ अने बीभत्स-सूग उत्पन्न करनार दर्शन जेवु छे पवी छे. 'सीसघडिविणिग्गयाणि शीर्ष-मस्तक रूप घटी घट, कारण के तेना जेवो तेनो आकार है. शीर्षघट की विनिर्गत-नीकळेल होयनी शुं पवा, कारण के, मस्तक रूप घटथी बहार नीकळीने रहेलां छे वा तेनां अक्षि नेत्रां विकृत - डोळे अने वीभत्स देखाववाळां है. 'कण' तेना कान 'शूर्पकर्तरमेव सूपडाना टुकडा जेवा छे, परन्तु अन्य आकारवाळा नथी, अर्थात् टोपरानी आकृति जेवा अने विकृत अने बीभत्स देखाववाळा छे. 'उरम्भपुडसन्निभा' उरभ्र घेटाना पुट-नासिकाना पुट जेवी 'से' तेनी नासा - नासिका छे. 'हुम्भपुडसंठाणसंटिया' हुरभ्रा-एक जातनुं वादित्र, तेना पुट- पुष्कर-मुखना संस्थान आकृति जेवी नासिका छे, कारण के तेनी नासिका अत्यन्त चीबी होवाथी तेना समान छे. 'इसिरा' मोटा छिद्रवाळा 'जमलचुल्लिसंडासेठिया' यमल-पक साधे रहेला वे चुली-चूलना जेवा आकारवाळा 'तस्य' तेना 'द्वावपि बन्ने 'नासापुढे' नासिकाना विवर छिद्रो छे. बीजी वाचनाम 'महकुब्वसंठिया दोवि से कवोला' जेमां मांसरहित होवाथी अने हाडका उंचा होवाथी तेना 'द्रौवपि' बन्ने कपोल लमणा महल-मोटा कुब्ब-उंडा खाडाना जेवी आकृतिवाळा हे. 'घोडयपुंछ व' घोडाना पूंछडाना जेवी 'तस्य' ते पिशाचनी 'मणि' दाढी-मूछ छे अने 'कपिलपिलानि' अतिशय पीळी तथा विकृत, बेडोळ अने बीभत्सदर्शनवाळी हे. घोडयपुंछ व तस्स कविलफरुसाओ उद्धलोमाओ
२ कामदे वाध्ययन
॥६७॥
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उपासकदशांग सानुवाद
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॥६८॥
| मुइङ्गाकारोवमे से खन्धे, पुरवरकवाडोवमे से वच्छे, कोट्ठियासंठाणसंठिया दोवि तस्स बाहा, निसापाहाण- कामदेसंठाणसंठिया दोवि तस्स अग्गहत्था, निसालोढसंठाणसंठियाओ हत्थेसु अंगुलीओ, सिप्पिपुडगसंठिया से (2) वाध्ययन नक्खा, पहावियपसेवओ व्व उरंसि लम्बन्ति दोऽवि तस्स थणया, पोहें अयकोट्टओ व्व वह, पाणकलन्दमृदंगना आकार जेवा अने तेनी छाती नगरना कपाट-कमाड जेवी हती. तेना बे हाथ कोष्ठिका-कोठीना आकार जेवा, ते हाथना अग्र ॥६॥ भाग निशापाषाण-दाळ वाटवानी शिला जेवा, आंगळीओ निशालोढ-दाळ वाटवाना पत्थर जेवी अने तेना नखो छीपना दलना जेवी आकृतिवाळा हता. तेना बन्ने स्तनो नापितनी कोथळीनी पेठे छातीनी उपर लटकता हता. तेनुं पेट लोढानी कोठी जेवू वर्तुल-गोळ दाढियाओ' एवं पाठान्तर छे. पटले घोडाना पूछडाना जेवी परुष-कर्कशस्पर्शवाळी अने उभा रोम-केशवाळी परन्तु तीरछी नमेली नहि एवी दंष्ट्रिका-दाढी-नीचेना होठना बन्ने बाजुना वाळ छे. तेना 'ओष्ठौं' बन्ने होठ ऊँटना जेवा लांबा छे. 'उट्टा से घोडगस्स जहा दोवि लम्बमाणा' ए पाठान्तर छे.. एटले तेना बत्ने होठ घोडाना जेवा लांबा छे. तथा 'फालसरिसा लांबा होवाथी फाल-लोढानी कोशना जेवा तेना दांत छे. 'जिहा यथा शुर्पकर्तरमेव जीभ सूपडाना कर्तर-टुकडाना जेवी छे, पण अन्यना जेवी नथी, तेमज विकृत अने बीभत्स दर्शनवाळी छे. 'हिंगुलुयधाउकन्दरबिलं व तस्स वयणं' ए, अन्य पाठान्तर छे. एटले हिंगळो रूप धातु-खनिज द्रव्य जेमा छे पचुकन्दर-गुफारूप बिलना जेवू तेनुं वदन-मुख छे. 'हलकुद्दालं' हळना उपरनो भाग, तेना आकार जेवी अत्यन्त वक्र अने लांबी 'से' तेनी 'हणुया' बे दाढो छे. ते पिशाचनी गल्लकडिलं गल्ल-गालरूपी कडिल्ल-मण्डकादिने रांधवानुं पात्र, कडाई खडु-खाडाना जेवी छे. एटले तेनो मध्य भाग नीचाणवाळो अने फुट-पहोळो छे. अहों समान धर्म वडे 'कडिल' प उपमान कडेलुं छे. वळी ते वर्ण थी कपिल-पीळी अने स्पर्शथी 'फरुसं' कठोर अने 'महलं' मोटी छे. तेना स्कन्ध-खभा मृदंगना आकारनी उपमा-सादृश्य जेनु छे एवा
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥६९॥
सरिसा से नाही, सिक्कगसंठाणसंठिए से नेत्ते, किण्णपुडसंठाणसंठिया दोऽवि तस्स वसणा, जमलकोट्ठियासंठाणसंठिया दोऽवि तस्स ऊरू, अज्जुणगुडं व तस्स जाणूइं कुडिलकुडिलाई विगयबी भच्छदंसणाई, जंघाओ कक्खडीओ लोमेहिं उवचियाओ, अहरीसंठाणसंठिया दोऽवि तस्स पाया, अहरीलोढसंठाण संठियाओ हतुं तेनी नाभि पानकलन्द - कांजीना कुंडा जेवी हती. तेनुं नेत्र - पुरुषचिन्ह शीकाना जेवी आकृतिवाळु अने तेना बन्ने वृषण - अंडकोश किण्व - सुराबीजथी भरेली वे गुणनी आकृतिवाळा हता. तेना बन्ने ऊरु --साथळ साथे रहेला वे कोठीनी आकृति जेवा हता. तेना जानु- ढींचण अर्जुन- एक जातना घासना गुट्ट-गुच्छाना जेवा अत्यन्त वांका विकृत अने बीभत्स देखाववाळा हता. तेनी जांघ कर्कश - कठण अने रोम-वाळ वडे उपचित-व्याप्त थयेली हती. तेने बन्ने पग अधरी-घाटवानी शिला जेवा अने तेना पगनी आंगकीओ अधरीलोढ - वाटवाना पत्थर जेवी हती, तेना (पगनी आंगळीओना) नखो छीपना दळ जेवा हता. ते लडह-गाडानी पाछळना छे. 'से' तेना 'वच्छे' वक्षःस्थल विस्तीर्ण होवाथी पुरवर-श्रेष्ठ नगरना कपाटनी उपमा जेने छे पवा छे, तथा कोटिका-लोह वगेरे धातुने धमवा माटे माटीनी कोठी, तेनुं जे संस्थान-आकार, तेवा आकारवाळा बन्ने बाहु-हाथ छे, पटले स्थूल छे. तथा पहोळा अने जाडा होवाथी निसापाहाण-मग वगेरेनी दाळने वाटवानी शिला, तेवा आकारवाळा हाथना बे अग्रभागो छे. तथा जाडी अने लांबी होवाथी निसालोढ - शिलापुत्रक- वाटवानो पत्थर, तत्संस्थानसंस्थिता - तेना आकारवाळी हाथनी आंगळीओ छे. 'सिप्पिड'त्ति शुक्तिकापुसंस्थिता - छीपना संपुटनो एक दल-भागनी आकृति वाळा तेना हाथना नखो छे. अन्य वाचनामां आ प्रमाणे बीजो पाठ छे-'अडयाल संठिओ उरो तस्स रोमविलो' त्ति । अडयालग-अट्टालक-किल्लानी ऊपरनो भाग कहेवाय छे, तेवा आकारवाळु उरः- वक्षःस्थल छे. कारण के कृशत्वादिधर्म वडे तेनुं समानपणुं छे. वळी ते रोम-वाळवडे गुपिल-व्याप्त छे. ते पिशाचना बन्ने स्तनो 'नापितप्रसेवक इव' नापितनी
२ कामदेवाध्ययन
॥६९॥
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२ कामदेवाध्ययन
उपासकदशांग सानुवाद ॥७ ॥
॥७
॥
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| पाएसु अंगुलीओ, सिप्पिपुडसंठिया से नक्खा, लडहमडहजाणुए विगयभग्गभुग्गभुमए अवदालियवयणविवरनिल्लालियग्गजीहे सरडकयमालियाए उन्दुरमालापरिणद्धसुकयचिंधे नउलकयकण्णपूरे सप्पकयवेगच्छे अप्फोभागना लाकडा सरखा अने मडह-अप्रशस्त जानु-दींचणवाळो, विकृत-बेडोळ, भग्न-मांगेल अने भुग्न-वांकी भमरवाळो; अबदारित-पहोलुं करेल छ मुख रूपी विवर जेणे तथा निर्लालित-बहार काढेल जीभनो अग्रभाग जेणे एवो, शरट-काकीडानी जेणे माळा करी छे एवो, उंदरनी माळा वडे युक्त सुकृत-सारी रीते करेलुं छे चिन्ह जेणे एवो, जेणे नकुल-नोळीयानुं कर्णपूर-काननु आभूषण करेलु छ अने सापर्नु वैकक्ष-उत्तरासंग करेलुं छे एवो, करास्फोट करतो, जेणे भयंकर अट्टहास्य कयुं छे एवो, नानाविध-अनेक नेरणी अने अस्त्रो राखवानी कोथळी नो पेठे 'उरंसि'-छातीमा लटके छे. 'पोट्ट' पेट अयःकोष्ठकवद-लोढानी कोठीनी जेम वृत्त-वल-गोळ छे. तथा 'पाणकलन्दसरीसा' पान-धान्यना रस बडे संस्कारकाळ पाणी, अर्थात् कांजी, जे बडे वणकरो खोने पाय छे, तेनुं कलन्द-कुंई, तेना सरखी गम्भीरपणावडे तेनी नाभि-जठरनो मध्य भाग छे. अन्य वाचनामां आ प्रमाणे पाठ छ- "भग्गकडी विगयवंकपट्टी असरिसा दोषि तस्स फिसगा" तेमां जेनी केड भांगी गयेली अने विगय-विकृत-बेडोळ अने वक्र-वांकी पृष्ट-पीठ छे एवो, तेना बन्ने फिसगा-कुला असमान छे. 'सिकगसंठाणसंठिए शिक्यक-शीकुं, जे दहीं वगेरेना पात्रनु दोरीमय अवलंबन-आधारभृत छे, तेना भकारवालं तेनुं नेत्र-मन्थानना दण्डने खंचवान दोरडं, तेनी पेठे लावु होवाथी नेत्र-पुरुषचिन्ह छे. किण्वपुटसंस्थानसंस्थितं' किण्व-मदिराना अङ्गरूप तंदुलादिथी भरेल परस्पर संलग्न गुणना [छालकाना] आकार जेवा तेना वृषण-अण्डकोश छे, तथा 'जमलकोहिया ठाणसंठिया' यमल-समानपणे रहेल बे कोठीनी आकृतिना जेवा तेना ऊरु-साथळ छे. तथा 'अज्जुणगुटुं व अर्जुन-एक जातनु घास, तेना गुटुं-गुच्छाना जेवा तेना जानु | ढिंचण छे. हमणां कहेली उपमार्नु समानपणु बतावे छे-ते अत्यन्त वक्र अने विकृत-बेडोळ तथा बीभत्सदेखावयाळा छे. तेनी जंघा-ढिंचणनी नीचे रहेनारी जांघ-कर्कश-कठण छे एटले मांसरहित छे. तथा रोम-बाळ वडे उपचित व्याप्त छे. तथा अधरी-चाटवानी शिला. तेनी आकृति
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उपासक
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दशांग सानुवाद
॥७
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डन्ते अभिगज्जन्ते भीममुक्कदृदृहासे नाणाविहपञ्चवण्णेहिं लोमेहिं उवचिए एग महं नीलुप्पलगवलगुलियअय-12
२ कामदेप्रकारना पांचवर्णवाळा रोम वडे उपचित-व्याप्त एवो (पिशाच) एक मोटी काळा कमळ, गवल-पाडाना शिंगडा, गुलिका-गळी अने
वाध्ययन अळसीना पुष्प जेवी, क्षुरधार-तीक्ष्ण धारवाळी असि-तलवारने ग्रहण करीने ज्यां पोषधशाला छे अने ज्यां कामदेव श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे, आबीने आसुरत्ते-गुस्से थयेलो, रुष्ट कुपित, चंडिक्किए-तीव्र क्रोधवाळो अने मीस मीस करतो (दांत कचडतो) ७१॥ कामदेव श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कहेवा लाग्यो-अरे अप्रार्थित (मरण)नी प्रार्थना करनार, दुरन्त-दुष्ट परिणामवाळा अने प्रान्त
जेवा तेना बन्ने पग छे. तथा 'अहरीलोढसंठाणसंठियाओ' अधरीलोष्ठः-शिलापुत्रक-बाटवानो परथर, तेना आकार जेवी बन्ने पगनी आंगOळीओ छे. 'सिप्पिपुडसठिया' छीपना पड जेचा तेना पगनी आंगळीना नखो छे. केशना अग्रभागथी नखना अग्रभाग सुधी पिशाचना रूपर्नु
वर्णन कयु. हवे सामान्य रीते तेना वर्णन माटे कहे छे-'लडहमडहजाणुप' अहीं प्रसंगथी लडह शब्द बडे गन्त्री-गाडाना पाछळना भागमा रहेलु तेना उत्तरांगनुं रक्षण करवा माटे जे लाकडं होय छे ते कहेवाय छे. ते ढीलाबन्धनवाळ होय छे.प प्रमाणे ढीला सांधाना बन्धन होवाथी लडहना जेवा ते लडह अने स्थूल, अल्प अने लांबा होवाथी मडह-अप्रशस्त जानु-ढींचण जेना छे एवो, 'विगयभग्गभुग्गभुमए' विकृतविकारवाळी, भग्न-विरूप होवाथी भांगेली अने भुग्न-वक्र भू-भृकुटी जेनी छे एवो, अहीं अन्य वाचनामां बीजां चार विशेषणो कहेवायां छे-मसिमसगमहिसकालए' मषि, मूषक-उदर अने महिष-पाडानी पेठे काळो, भरियमेहवणे' जळथी भरेला मेघना जेवा वर्णवाळो, अर्थात् काळो, 'लंबोडे' लांबा होठवाळो, 'निग्गयदन्ते' बहार नीकळेला दांतवाळो, 'अवदालियवयणविवरत्ति अवदारित-पहोलु करेलुं छे मुखरूपी | विवर जेणे तथा निर्लालित-बहार काढेल छे जीभनो अग्रभाग जेणे एवो, 'शरटकृतमालिकाकः' जेणे शरट-काकीडानी माला मस्तकमां
अथवा छातीमां धारण करी छे पवो, तथा उंदरनी माला बडे परिणद्ध-व्याप्त सुकृत-सारी रीते करेलु छे चिन्ह जेणे, नकुलकृत-- नोळीया बडे करेलु हे कर्णपूर-काननुं आभूषण जेणे एवो, 'सर्पकृतवैकक्षः' बे साप वढे करेलुं छे वैकक्ष-उत्तरासंग जेणे पवो, अर्दी
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
॥७२॥
॥७२॥
सिकुसुमप्पगासं असि खुरधारं गहाय जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ।। उवागच्छित्ता आसुरत्ते रुढे कुविए चण्डिक्किए मिसिमिसीयमाणे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो कामदेवा! समणोवासया ! अप्पत्थियपत्थिया दुरन्तपन्तलक्खणा हीणपुण्णचाउद्दसिया हिरिसिरिधिइकित्तिपरिवज्जिया धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकंखिया पुण्णकंखिया सग्गकंखिया खराब लक्षण जेओना छे एवा, हीनपुण्यचातुर्दशिक-अधुरी काळी चउदशे जन्मेला, ही-लज्जा, श्री-शोभा, धृति-धैर्य अने कीर्तिवडे रहित, धर्मनी इच्छावाळा, पुण्यनी इच्छावाळा, स्वर्गनी इच्छावाळा, मोक्षनी इच्छावाळा, धर्मनी कांक्षावाळा, पुण्यनी कांक्षावाळा, 'मूसगकयाचुंभलए, विच्छुयकयवेगच्छे सप्पकयजण्णोवइप' मूषक-उंदरनो करेलो छे चुंभलय-माळायुक्त मुकुट जेणे, वींछीनुं करेलुं छे वैकक्ष-उत्तरासंग जेणे, अने सापर्नु करेल छे यज्ञोपवीत-जनोई जेणे पवो, अभिन्नमुहनयणनक्खवरवग्यवित्तकत्तिनियंसणे' अभिन्न-अखपिडत छे मुख, नयन अने नखो जेने विशे पर्बु श्रेष्ठ वाघना कृत्ति-चर्म रूप निवसन-वस्त्र जेने छे पवो, 'सरसरुहिरमंसावलित्तगत्ते' सरसरसाळा रुधिर-लोही अने मांस वडे अवलिप्त-खरडायेलु गात्र-शरीर जेनुं छे एवो, 'आस्फोटयन्' करास्फोट करतो, 'अभिगजन्ते' मेघनी पेठे गर्जना करतो, 'भीममुक्कट्टहासे' भीम-भयङ्कर-मुक्त कर्यु छे अट्टहास्य जेणे एवो, नाणाविहपञ्चवण्णेहि' अनेकप्रकारना पांचवर्णवाळा रोम-धाळ वडे उपचित-व्याप्त पवो (पिशाच) पक मोटी नीलोत्पल-काळा कमळ, गवल-पाडानुं शींगहुं, गुलिका-गळी अने अळसीना पुष्प जेवो प्रकाश जेनो छे पवी 'शुरधारं' अस्त्राना जेवी तीक्ष्णधारवाळी असि-तलवारने 'गृहीत्वा ग्रहण करीने ज्यां पोषधशाला के अने ज्यां कामदेव श्रावक छे त्यां आवे छे. आवोने आसुरुत्ते रुढे कुविए चण्डिक्किए मिसिमिमिसीयमाणे' गुस्से थयेलो. रुष्ट थयेलो, कुपित, चण्ड-तीव्रकोधवाळो, अने होठ पीसतो [आ बधा शब्दो समान अर्थवाळा अने अतिशय कोप बताववा माटे छे] कामदेव
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२ कामदेवाध्ययन
उपासकदशांग सानुवाद ॥७३॥
-७३॥
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मोक्खकंखिया धम्मपिवासिया पुण्णपिवासिया सग्गपिवासिया मोक्खपिवासिया नो खलु कप्पइ तव देवाणुप्पिया! जं सीलाई वयाई वेरमणाई पच्चक्खाणाई पोसहोववासाई चालित्तए वा खोभित्तए वा खण्डित्तए वा भञ्जित्तए वा उज्झित्तए वा परिचइत्तए बा, तं जइ णं तुम अन्ज सीलाई जाव पोसहोववासाइं न छड्डेसि न भञ्जसि तो ते अहं अज इमेणं नीलुप्पल. जाव असिणा खण्डाखण्डि करेमि, जहा णं तुम देवाणुप्पिया! अदृदुहद्दवस। अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि । स्वर्गनी कांक्षावाळा, मोक्षनी कांक्षावाला, धर्मनी पिपासावाळा, पुण्यनी पिपासावाळा, स्वर्गनी पिपासावाळा अने मोक्षनी पिपासावाळा कामदेव श्रमणोपासक ! देवानुप्रिय ! जे शील-अणुव्रतो, व्रतो-दिशावत वगेरे, विरमण-रागादिनी विरति, पच्चक्खाण-प्रत्याख्यान अने पोषधोपवासने चलावयो-भंग करवो, (एने पाळवामा) क्षोभ करवो, खंडन करवो, भांगयो, त्याग करवो अने सर्वथा त्याग करवो तने कल्पतो नथी. जो तुं आजे शील यावद् पोषधोपवास छोडीश नहि के भांगीश नहि तो आजे आ काळा कमळ जेवी यावत् तलवार वडे तारा टुकडे टुकडा करीश. जे रीते हे देवानुप्रिय ! तुं आर्तध्याननी दुर्घट-अत्यंत पराधीनताथी पीडित थयेलो अकाळे जीवितथी मुक्त थइश. श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कहे छे-'अपत्थियपत्थया' अप्रार्थित-नहि इच्छेल मरणनी प्रार्थना करनार, 'दुरन्तपंतलक्खणा' दुरन्त-दुष्ट अन्त-परिणाम जेनो छे एवा अने प्रान्त-हीन लक्षणवाळा, 'हीनपुण्णचाउद्दसिया' हीन-अपूर्ण पुण्य चतुर्दशी-काळी चतुर्दशीने विशे| जेनो जन्म थयेलो छे एवा, श्री-शोभा, ही-लजा, धृति-धैर्य अने कीर्तिरहित, 'धम्मकामया' शृत अने चारित्र रूप धर्मनी अभिलाषा
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
॥७४॥
७४॥
तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं पिसायरवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए अतत्थे अणुब्बिग्गे अवखुभिए अचलिए असम्भन्ते तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरह।
त्याबाद ते कामदेव श्रमणोपासक ते पिशाच रूप देवे ए प्रमाणे कडं एटले अभीत-भयभीत थया सिवाय, अत्रस्त-त्रास पाम्या वगर, उद्वेगरहित, अक्षुभित-क्षोभरहित, अचलित, असंभ्रान्त-निश्चल तूष्णीक-उत्तर आप्या वगर धर्मध्यानने प्राप्त थयेलो विहरे छे. करनारा, ए प्रमाणे बधा पदोनो अर्थ जाणवो, परन्तु शुभप्रकृतिरूप पुण्य, स्वर्ग-पुण्यनु फल, मोक्ष-धर्मर्नु फल, कांक्षा-अधिक इच्छा, पिपासा-अधिक कांक्षा, ए प्रमाणे ए पदो वडे उत्तरोत्तर इच्छानी अधिकता बतावेली छे. एवा हे कामदेव ! 'नो खलु' तने शील वगेरेने चलायमान करवू कल्पतुं नथी, योग्य नथी-ए वस्तुस्थिति छे. केवळ जोतुं आज शीलादिने चलायमान नहि कर तो हुँ तारा | खण्डाखण्डि-टुकडे टुकडा करीश-ए वाक्यनो अर्थ छे. तेमां शील-अणुव्रत, व्रत-दिशावत वगेरे, विरमण-रागादिनी विरति, प्रत्याख्यान-नमुक्कारसही वगेरे, पोषधोपवास आहारादिना मेद वडे 'चार प्रकारनो छे. ते शोलादिने 'चालित्तप' भङ्ग करवाथी चलायमान करवाने, 'क्षोभयितुं' पर्नु पालन करवामां क्षोभ करवाने, 'खण्डयितुम्' देशथी खंडन करवाने, भऋतुम्' सर्वथा भांगवाने, 'उज्झितुं' सर्व देशविरतिनो त्याग करवाथी.छोडवाने 'परित्यक्तुम्' सम्यक्त्वनो पण त्याग करवाथी सर्वथा त्याग करवाने योग्य नथी.
'अट्टदुहट्टवसट्टे' आर्तध्याननी दुहट्ट-दुर्घट-जेनो ताग न आवो शके पवी अथवा रोकी न शकाय एवी वश-पराधीनता, ते बडे ऋत-पीडित, अथवा आर्तदुःखार्त-आर्तध्यान बड़े दुःखार्त-दुःखथी पीडित तथा वश-विषयोनी पराधीनता बडे ऋत-व्याप्त, ते पछी कर्म | धारय समास करबो. 'अभीते' इत्यादि एकार्थक शब्दो छे अने अभयनो प्रकर्ष बतायया माटे छे.
१ देश अने सर्वथा आहारना त्याग करवा बडे आहारपोषध, शरीरसत्कार-आभूषण वगेरेना त्याग बडे शरीरसत्कारपोषध, अह्मचर्य-मैथुनना त्याग बढे अब्रह्मचर्यपोषध अने अव्यापार-सदोष प्रवृत्तिना त्याग बडे अव्यापार पोषध,
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
॥७५॥
॥७५॥
३ तए णं से देवे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव धम्मज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोचंपि कामदेवं एवं वयासी-हं भो कामदेवा ! समणोवासया ! अपत्थियपत्थया! जइ णं तुम अज्ज जाव ववरोविज्जसि । तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं दोच्चंपि तचंपि एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव धम्मज्झाणोवगए विहरइ । तए णं से देवे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ । पासित्ता आसुरत्ते, तिवलियं भिउडि निडाले साहटु कामदेवं समणोवासयं नीलुप्पल० जाव असिणा खण्डाखण्डि करेइ । तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव दुरहियासं वेयणं सम्मं सहइ जाव अहियासेइ।
३ त्यार पछी ते पिशाच रूप देव कामदेव श्रमणोपासकने निर्भय यावत् धर्मध्यानने प्राप्त थयेलो जुए छे. जोइने बीजीवार पण कामदेवने ए प्रमाणे कर्ष-अप्रार्थितनी प्रार्थना करनार हे कामदेव ! जो तुं आजे शील व्रत वगेरेनो त्याग नहि कर तो तुं यावत् जीवितथी मुक्त थइश. त्यार बाद ते कामदेव श्रमणोपासक ते देवे बीजी वार अने त्रीजी वार पण ए प्रमाणे कडें एटले ते भयभीत थया सिवाय यावत् धर्म ध्यानने प्राप्त थयेलो विहरे छे. त्यार बाद ते पिशाच रूप देव कामदेव श्रमणोपासकने निर्भीक रहेलो जुए छे. जोइने आसुरुत्ते-गुस्से थइ त्रिवलियुक्त (त्रण वळीया वाळी) भमर ललाट विशे करीने कामदेव श्रमणोपासकना काळा कमळ जेवी यावत् तलवार वडे खंडाखंडिं-टुकडेटुकडा करे छे. त्यार पछी ते कामदेव श्रमणोपासक उज्ज्वल-शुद्ध, केवळ असह्य वेदनाने सम्यक् प्रकारे यावत् सहन करे छे.
३ तिवलियं 'त्रिवलिकां' त्रण चळियावाळी 'भृकुटी' दृष्टिनी रचनाविशेषने ललाटने विशे 'संहृत्य'-करीने 'चलयितुं' अन्यथा करवाने,
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उपासकदशांग सानुवाद
॥७६॥
४. तए णं से देवे पिसायरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ। पासित्ता जाहे नो
N२ कामदे संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गन्थाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे
वाध्ययन सन्ते तन्ते परितन्ते सणियं सणियं पच्चोसक्कड़, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता दिव्वं पिसायरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एग महं दिव्वं हथिएवं विउव्वइ, सत्तङ्गपइट्टियं सम्म संठियं
॥७६॥ | ४ त्यार बाद ते पिशाच रूप देव कामदेव श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो जुए छ. जोइने ज्यारे ते कामदेव श्रमणोपासकने निम्रन्थ प्रवचनथी चलायमान करवाने, क्षोभ पमाडवाने, विपरिणाम-अन्यथा परिणाम करवाने शक्तिमान् थतो नथी त्यारे श्रान्त थयेलो थाकेलो अत्यंत थाकेलो धीमे धीमे पाछो फरे छे, पाछो फरी पोषधशालाथी बहार नीकळे छे. बहार नीकळीने दिव्य पिशाच रूपनो त्याग करे छे. त्याग करीने एक मोटुं दिव्य हाथीनुं रूप विकुर्वे छे. जेना सात अंग भूमिने लागेलांछे एवं, सम्यक् संस्थित-आकृति वाळु, सुजात-पूरा दिवसे जन्मेलं, आगळथी उंचु अने पाछळथी वराहना जेवू, अजाना जेवा पेटवालं, अलम्बकुक्षि-जेनुं पेट लांबु चलन बे प्रकारे छे-संशयद्वारा अने विपर्यास द्वारा. तेमा संशयथी क्षोभ पमाडयाने अने विपर्यासथी विपरिणाम करवाने.
४ 'सन्ते' श्रान्त वगेरे शब्दो समानार्थक छे. 'सत्तङ्गपइट्ठियं' चार पग, कर-सुंढ, पुच्छ अने पुरुषचिन्ह, ए सात अङ्गो प्रतिष्ठित-भूमिने विशे लागेलां जेना छे एg, सम्म-मांसनी गुद्धि थवाथी सारी रीते, संस्थित-हाथीना लक्षण सहित अङ्गोपांग होवाथो सारा आकारवाळु, 'सुजात' सुजातना जेवू, एटले पूरा दिवसे जन्मेलु, 'पुरओ' आगळ, उदग्रं-उंचं जेनुं माथु छे पq, 'पृष्ठतः' पृष्ठ भागमा वराहना जेवू, अहीं प्राकृत होवाथी नपुंसकलिंग छे. अजाना जेवू कुक्षि-पेट जेनु छे ते अजाकुनि, बळवान होवाथी, 'अलम्बकुक्षि' जेर्नु पेट लावु नथी एवं, 'प्रलम्बोदराधरकर' प्रलंब-लांबा
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदे| वाध्ययन
॥७७॥
॥७७॥
सुजायं पुरओ उदग्गं पिट्ठओ वाराहं अयाकुच्छि अलम्बकुच्छि पलम्बलम्बोदराधरकर अब्भुागयमउलमल्लियाविमलधवलदन्तं कञ्चणकोसीपविट्ठदन्तं आणामियचावललियसंविल्लियग्गसोण्डं कुम्मपडिपुण्णचलणवीसइनक्वं अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छं मत्तं मेहमिव गुलगुलेन्तं मणपवणजइणवेगं दिव्वं हत्थिरूवं विउव्वइ। विउवित्ता जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवं समणोवासयं एवं नथी एवं, लम्बोदर-गणेशनी पेठे लांबा होठ अने कर-सुंढ जेनी छे एवू, मुकुलावस्थाने प्राप्त थयेला मल्लिका-मोगरानी पेठे विमलस्वच्छ अने धोळा दांत जेना छे एवं, कांचनकोशी-सुवर्णनी कोशी-खोळीमां प्रविष्ट छे दांत जेना एवं, आनामित-कंडक नमावेल चाप-धनुषनी पेठे ललित-चेष्टावाळी अने संवेल्लित-संकुचित थयेल सुंढनो अग्र भाग जेनो छे एवं, कूर्म काचबानी पेठे परिपूर्ण चरणो जेना छे एवं, वीशनखवाळु, आलीन-संगत अने प्रमाणयुक्त पुच्छ जेनुं छे एवं, मदोन्मत्त, मेघनी पेठे गर्जना करतुं, मन अने पवनने
जितनार वेग जेनो छे एवू दिव्य हाथीनुं रूप विकुर्वे छे. विकुर्वीने ज्यां पोषधशाला छे अने ज्यां कामदेव श्रमणोपासक छे त्यां| * आवे छे. आवीने कामदेव श्रमणोपासकने तेणे आ प्रमाणे कह्यु-हे कामदेव श्रमणोपासक ! इत्यादि तेमज कहे छे, यावत् शील वगे
लम्बोदर-गणपतिनी पेठे अधर-होठ, कर-सुंढ जेनी छे एq, 'अम्भुग्गय' अभ्युद्गत-प्राप्त करेली मुकुलावस्था जेणे एवो मल्लिका-मोगरो, तेनी पेठे विमल-स्वच्छ अने धोळा दांत जेना छे पq, 'काश्चनकोशीप्रविष्टदन्तम्' सुवर्णनी कोशी-खोली, तेमा प्रवेशेला दांत जेओना
छे पq, पटले तेना दांत उपर सुवर्णनी खोळी छे, कोशी-'प्रतिमा. आनामित-कंडक नमावेल चाप-धनुषनी पेठे ललित-विलास|| वाळी अने संवेल्लित-संकुचित थयेल छे सुंढनो अग्रभाग जेनो एवु, तथा कूर्म-काचबाना आकार जेवा प्रतिपूर्ण चरण जेना छे पर्बु,
१ अहीं प्रतिमानो अर्थ हाथीना दांत बांधवानुं आभूषण एवो धाय छे. “प्रतिमा प्रतिरूपके गजस्य दन्तबन्धे च"-अनेकार्थत्रिस्वरकांड श्लो, ४६३.
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(+
उपासक
दशांग सानुवाद
॥७८॥
वयासी-हं भो कामदेवा! समणोवासया ! तहेव भणइ जाव न भञ्जसि, तो ते अज्ज अहं सोण्डाए गिण्हामि,
Col२ कामदे गिण्हित्ता पोसहसालाओ नीणेमि, नीणित्ता उड्ढे वेहासं उब्विहामि, उविहित्ता तिक्खेहिं दन्तमुसलेहिं पडि- वाध्ययन च्छामि पडिच्छित्ता अहे धरणितलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेमि , जहा णं तुम अदृदुहवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसितए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं हत्थिरूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए
॥७८॥ जाव विहरइ । तए णं से देवे हत्थिरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोचंपि तचंपि कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-'हं भो कामदेवा ! तहेव जाव' सोऽवि विहरइ । तए णं से देवे रेने यावत् भांगीश नहि तो आजे तने सुंढथी ग्रहण करीश, ग्रहण करीने पोषधशालाथी बहार लइ जइश. लइने उपर आकाशमां फेंकीश. फेंकीने तीक्ष्ण दांतरूपी मुशल वडे ग्रहण करीश. ग्रहण करीने नीचे पृथिवीना तळे त्रण वार पग वडे रोळीश. जे रीते तुं आर्तध्याननी दुर्घट-अत्यन्त वश-पराधीनताथी पीडित थयेलो अकाळे जीवितथी मुक्त थइश. ते हस्तिरूप देवे ए प्रमाणे कडं एटले कामदेव श्रमणोपासक निर्भय थइने रहे छे. त्यार बाद ते हस्तीरूप देव कामदेव श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो जुए छे, जोइने बीजी वार अने त्रीजी वार पण कामदेव श्रमणोपासकने ए प्रमाणे कयु-हे कामदेव ! इत्यादि तेमज कहे. यावत् ते पण तेमज (निर्भय) रहे छे. | त्यार पछी ते हस्तीरूप देव कामदेव श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो जुए छे. जोइने गुस्से थयेलो ते कामदेव श्रमणोपासकने सुंढ वडे वीश नख जेना छे एवं, आलीन-उचित प्रमाण युक्त पुच्छ जेवू छे पद्, उन्मत्त, मेघनी जेम गर्जना करतुं, मन अने पवनने जिती शके पवो वेग जेनो छे एवं दीव्य हाथीनुं रूप विकुर्वे छे. बाकी बधु स्पष्ट छे.
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उपासकदशांग सानुवाद
॥७९॥
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हत्थिरूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाब विहरमाणं पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते ४ कामदेवं समणोवासयं २ कामदेसोण्डाए गिण्हेइ, गिण्हित्ता उड्टुं वेहासं उव्विहइ, उब्विहित्ता तिक्खेहिं दन्तमुसलेहिं पडिच्छइ, पडिच्छित्तार वाध्ययन अहे धरणितलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेइ । तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव अहियासेइ ॥
५तए णं से देवे हत्थिरूवे कामदेवं समणोवासयं जाहे नो संचाएइ जाव सणियं सणियं पच्चोसक्का, पच्चोसक्कि- ॥७९॥ त्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्वमित्ता दिव्वं हत्थिरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं सप्परूवं विउब्वइ । उग्गविसं चण्डविसं घोरविसं महाकायं मसीमूसकालगं नयणविसरोसपुण्णं अंजणपुंजग्रहण करे छे. ग्रहण करीने उंचे आकाशमा उछाळे छे. उछाळीने तीक्ष्ण दन्तरूप मुशलवडे ग्रहण करे छे. ग्रहण करीने नीचे पृथिवी तळमांत्रण वार पग वडे रोळे छे. त्यार पछी ते कामदेव श्रमणोपासक उज्ज्वल-केवळ असाता रूप वेदनाने सहन करे छे.
५. त्यारवाद ते हस्तीरूप देव कामदेव श्रमणोपासकने ज्यारे (चलायमान करवाने) यावत् शक्तिमान् थतो नथी, त्यारे ते धीमे धीमे पाछो खसे छे, पाछो खसीने पोषधशालाथी बहार नीकले छे. बहार नीकळीने दिव्य हस्तीरूपनो त्याग करे छे. त्याग करीने एक मोटु दिव्य सापर्नु रूप विकुर्वे छे. ते उग्रविषवाळु, चंड-तीव्रविषवाळु, घोर विषवाळु, मोटा शरीरवालु, मषी अने मूषा (मूस)
५ 'उग्गविसं' इत्यादि सर्परूपना विशेषणो छे अने ते क्वचित् यावत् शब्दथी ग्रहण करेला अने क्वचित् साक्षात् कहेलां देखाय छे, तेमां 'उग्रविष' असह्य जेनुं विष छे एवू, 'चंडविष' तीव्र जेनुं विष छे एवं, कारण के तेनुं विष थोडा काळमांज डंखेला शरीरने व्याप्त करे छे. 'घोरविषं' भयंकर विषवाळु, कारण के तेनो नाश करे छे. 'महाकायं' मोटा शरीरवाळु, 'मषीमूषाकालकम्' मधी-काजळ
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदे वाध्ययन
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निगरप्पगासं रत्तच्छ लोहियलोयणं जमलजुयलचञ्चलजीहं धरणीयलवेणिभूयं उक्कडफुडकुडिलजडिलकक्कसवियडफडाडोवकरणदच्छं लोहागरधम्ममाणधमधमेन्तघोसं अणागलियतिब्वपचण्डरोसं सप्परूवं विउव्वइ, जेवू काळ, नयनविष-दृष्टिविष अने रोषवडे पूर्ण, अंजनना ढगलाना समूहनी पेठे प्रकाश जेनो छे एवं, राती आंख जेनी छे एवं, लाल छे नेत्र जेना एवू, यमल-साथे रहेली अने अत्यन्त चपल जिह्वायुगल जेनुं छे एएँ, पृथ्वीतलनी वेणीरूप, उत्कट, स्पष्ट, कुटिलवक्र जटिल-जटायुक्त, कर्कश-कठोर अने विकट-विस्तीर्ण स्फटाटोप-फेणनो आडंबर करवामां दक्ष-निपुण, धमाती लोहाकर-लोढानी भट्ठीनी पेठे 'धमधम एवा प्रकारनो शब्द जेनो छे एवं, अनाकलित-रोकवाने अशक्य तीव्र-अत्यंत प्रचंड रोष-गुस्सो जेनो छे एवं सापर्नु रूप विकुर्वे छे. विकुर्वीने ज्यां पोषधशाला छे अने ज्यां कामदेव श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे. आवीने तेणे कामदेव श्रमणोपाअने 'मूषानी पेठे कालु, 'मयनविषरोषपूर्णम्' नयनविष-दृष्टिविष अने रोष-गुस्सा वडे पूर्ण, 'अञ्जनपुञ्जनिकरप्रकाशम्' अंजनपुंज-काजळना ढगलाना निकर-समूहनी जेवो प्रकाश जेनो छे पq, 'रक्ताक्षम्' राती आंख जेनी एवं, 'लोहितलोचनम्' लाल लोचन हे जेना पद्, 'यमलयुगलचञ्चलजिह्वम्' यमल-साथे रहेली चंचल-अत्यन्त चपल जीभनु युगल जेनुं छे पq, 'धरणितलवेणीभूतम्' कृष्णवर्ण अने लंबाइ बडे पृथिवीतलनी वेणी-केशपाशना जेवू, कोइथी पराभव न थइ शके माटे उत्कट, देदीप्यमान देखातुं होवाथी स्फुट-व्यक्त, वक्र होवाथी कुटिल, केशनी जटाना योगथी जटिल-जटावाळु, नम्रताना अभावथी कर्कश-कठोर, विकट-विस्तीर्ण स्फटाटोप-फेणनो आर्डवर करवामां दक्ष-निपुण, तथा 'लोहागरधम्ममाणधमधमेन्तघोसं' ध्मायमान-धमणना वायु बड़े उद्दीपन कराती अने 'धमधम' एवो शब्द करती लोढानी भट्ठीनी पेठे घोष-अवाज जेनो छे एवं, अहीं विशेष्यनो पूर्वनिपात प्राकृत होवाथी थयो छे. 'अणागलियतिब्वपयंड
१ मूषा-मूस, धातुने ओगाळवानी माटीनी कुलडी,
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उपासक- दशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
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विउवित्ता जेणेव पोसहसाला जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवं समणो- वासयं एवं वयासी-'हं भो कामदेवा ! समणोवासया! जाव न भजेसि तो ते अज्जेव अहं सरसरस्स कार्य दरुहामि, दुरुहित्ता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीवं वेढेमि, वेढेत्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकदृमि,जहाणं तुम अदुहट्टवसद्दे अकाले चेव जीवियाओबवरोविजसि । तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं सप्परूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ, सोऽवि दोचंपि तचंपि भणइ । कामदेवोऽवि जाव विहरइ । तए णं से देवे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते ४ कामदेवस्स समणोवासयस्स सरसरस्स कायं दुरुहइ, दुरुहित्ता पच्छिमेणं भायेणं तिक्खुत्तो गीवं वेढेइ, वेढेत्ता तिक्खाहिं सकने ए प्रमाणे का-हे कामदेव श्रमणोपासक ! जो तुं यावत् शील वगेरेने भांगीश नहि तो हुँ आजे तारा शरीर उपर सरसर चडी जइश. चडीने पाछळना भाग-पुंछडा वडे ग्रीवा-डोकने वींटी लइश. वींटीने तीक्ष्ण अने विष बडे व्याप्त दाढ वडे तारी छातीमा प्रहार करीश, जे रीते तुं आर्तध्याननी अत्यन्त पराधीनताथी पीडित थयेलो अकाळे जीवितथी मुक्त थइश. त्यारबाद ते कामदेव श्रमणोपासक ते सर्परूप देवे ए प्रमाणे कडं एटले निर्भय थइने यावत् विहरे छे. ते देव पण तेने बीजीवार त्रीजी बार पग कहे छे. रोसं' अनाकलित-अप्रमित अथवा अनर्गल-रोकी शकवाने अशक्य तीव्र प्रचंड-अत्यंत घणो रोष-गुस्सो जेने छे एवं सापर्नु रूप |विकर्वे छे. विकुर्वी कामदेव श्रमणोपासकनी पासे आवीने कहे छे के जो तुं आजे तारा शील, व्रत वगेरेनो नहि त्याग कर तो 'सरसरस्स ए लौकिक अनुकरण वाची छे. पटले हुं तारा शरीर उपर सरसर करतो चढी जइश. अने चढीने 'पच्छिमेणं भाषणं-पुंछडा वडे तारी
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
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॥८२॥
॥८२॥
विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकुद्देइ । तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव अहियासेइ ॥
६ तए णं से देवे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गन्थाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे सन्ते ३ सणियं सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता दिव्वं सप्परूवं विप्पजकामदेव पण यावत् तेमज रहे छे. त्यारवाद ते सर्परूप देव कामदेव श्रमणोपासकने भयरहित जुए छे. जोइने गुस्से थयेलो ते यावत् कामदेव श्रमणोपासकना शरीर उपर सरसर चढे छे. चढीने पश्चिम भाग-पुंछडा वडे ग्रीवा-डोकने त्रण वार वींटे छे. वींटीने तीक्ष्ण अने विषयुक्त दाढ वडे छातीमा प्रहार करे छे. त्यार पछी ते कामदेव श्रमणोपासक ते उज्ज्वल-केवळ वेदनाने यावत् सहन करे छे.
६. त्यार बाद ते सर्परूप देव कामदेव श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो जुए छे. जोइने ज्यारे ते कामदेव श्रमणोपासकने निर्ग्रन्थ प्रवच नथी चलायमान करवाने, क्षोभ पमाडवाने अने विपरिणाम करवाने शक्तिमान् थतो नथी त्यारे ते श्रान्त थयेलो धीमे धीमे त्यांची डोकने वींटीने तारी छातीमा तीक्ष्ण दाढ वडे 'निकुट्टेमि' प्रहार करीश. जेथी आर्तध्याननी दुर्घट पराधीनताथी पीडित थइने अकाळे | मरण पामीश. त्यारवाद सर्प ते प्रमाणे करे छे. अने कामदेव श्रमणोपासक 'उज्ज्वला' विपक्ष-सातावेदनीयना अंश वडे पण अकलंकितरहित, शरीरव्यापी होवाथी विपुल, कर्कश-कठोर द्रव्यनी पेठे अनिष्ट, 'प्रगाढा' अत्यंत, 'चंडां' रोद्र-भषेकर, 'दुःखां दुखरूप, पण सुखरूप नहि एवी, तात्पर्य ए छे के दुरहियासं' सहन करी न शकाय एवी वेदना सहन करे छे.
६ ज्यारे सर्परूप देव कामदेव श्रमणोपासकने निर्ग्रन्थ प्रवचनथी चलायमान करी शकतो नथी त्यारे सर्परूपनो त्याग करी देवर्नु
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
॥८३॥
१८३॥
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हइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, हारविराइयवच्छं जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं पासाईयं दरिसणिजं अभिरूवं पडिरूवं दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता कामदेवस्स समणोयासयस्स पोसहसालं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता अन्तलिकग्वपडिवन्ने सखिग्विणियाई पञ्चवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिए कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो कामदेवा ! समणोवासया ! धन्ने सि णं तुम देवाणुप्पिया ! सपुण्णे खसे छे, खसीने पोषधशालाथी नीकळे छे, नीकळीने दिव्य सर्परूपनो त्याग करे छे, त्याग करीने एक मोटुं दिव्य देवरूप विकुंचे छ. हार वडे विराजित-सुशोभित वक्षःस्थल जेनुं छे एवं, यावत् दस दिशाओने उयोतित अने प्रकाशित करतुं, प्रासादीय-प्रसन्नता करतुं, दर्शनीय, अभिरूप-मनोज्ञ, प्रतिरूप-विशिष्ट रूपवाळु दिव्य देवरूप विकुर्वे छे. विकुर्वीने कामदेव श्रमणोपासकनी पोपधशालामा प्रवेश करे छे. प्रवेश करीने आकाशमा रहीने घुघरीओ सहित पांचवर्णवाळा वस्त्रोने प्रवरपरिहितः-सारी पहेरेला छे जेणे एवा तेणे कामदेव श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कमु-हे कामदेव श्रमणोपासक ! तुं धन्य छो, हे देवानुप्रिय ! तुं पुण्यशाली, कृतार्थ अने * रूप विकुर्वे छे. तेनु वर्णन करे छे-'हारविराइयवच्छं' हार वडे विराजित-सुशोभित वक्षःस्थल जेनु छे प, अहीं यावत् शब्दथी आ प्रमाणे वर्णन जाणवू. 'कडगतुडियर्थभियभुयं' कटक-कडां, त्रुटित-बाहुरक्षक, बहेरखा; ते घणा होवाथी ते बडे स्तम्भित-अक्कड रहेली छे भुजाओ जेनी एवं: 'अंगदकुंडलमट्टगंडतलकण्णपीढधारि' अंगद-केयूर, बाहुन भूषण, कुंडल प्रसिद्ध छे, अने मृष्ट-स्पर्श कयों छे गंडस्थळनो जेणे पवा कर्णपीठ-कानना आभूषणने धारण करनार, विचित्तहत्थाभरण' विचित्र हाथना आभरण जेने छे पवु, विचित्तमालामउलि' विचित्र मालायुक्त मौलि-मुकुट अथवा मस्तक जेनुं छे एबुं, 'कल्लाणगपवरवत्थपरिहियं' कल्याणक-नवीन प्रवर-श्रेष्ट वस्त्र जेणे परिहित-पहेरेलु छे एबुं, 'कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरं' कल्याणकारक अने प्रवर-श्रेष्ठ माल्य-पुप्पो अने अनुलेपन-विलेपन धारण कर
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥८४॥
कत्थे कयलक्खणे, सुलद्धे णं तव देवाणुपिया ! माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स णं तव निरगन्थे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्वा पत्ता अभिसमन्नागया । एवं खलु देवाणुप्पिया ! सक्के देविन्दे देवराया जाव सक्कंसि सीहासांसि चउरासीईए सामाणियसाहस्सीणं जाव अन्नेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य मज्झगए कृतलक्षण ( जेणे शरीरना लक्षण - चिन्हो सफळ कर्या छे एवो) छो. हे देवानुप्रिय ! तें मनुष्यनो जन्म अने जीवितनुं फळ सारी रीते प्राप्त कर्यु छे, के जे तने निर्ग्रन्थप्रवचनने विशे आ आवा प्रकारनी प्रतिपत्ति (ज्ञान) लब्ध प्राप्त अने सुनिर्गीत छे. ए प्रमाणे खरेखर हे देवानुप्रिय ! शक्र, देवेन्द्र देवराज यावत् शक्र नामना सिंहासनने विशे रही चोराशी हजार सामानिक देवो यावत् बीजा घणा देवो अने नार, 'भासुरबोंदि' भासुर-देदीप्यमान बोंदि शरीर जेनुं छे पहुं, 'पलंबवणमालधरं' प्रलंब-लांबी वनमाला-ढींचण सुधी लटकती माळाने धारण करनार, 'दिव्वेणं वण्णेणं' अहीं 'युक्त'नो अध्याहार हे पटले दिव्य वर्ण वडे युक्त, दिग्वेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिग्वेणं संघयणेणं दिव्वेणं संठागेणं' दिव्य गन्ध, दिव्य स्पर्श, दिव्य संघयण अने दिव्य संस्थान वडे युक्त, 'दिव्वाप इड्ढीए' विमान अने वस्त्रभूषणादि रूप दिव्य ऋद्धि वडे, 'दिव्वाए जुईए' दिव्य युक्ति- इष्टपरिवारादिना योग वडे, 'दिव्वाप पभाव' दिव्य प्रभा प्रभाव बडे - दिव्वाए छायाए' दिव्य, छाया-प्रतिबिंब बडे, 'दिव्वार अच्चीर' दिव्य अनि-प्रकाशनी ज्वाला वडे, 'दिव्वेणं तेपणं' दिव्य कान्ति वडे, 'दिव्वाए लेसाप' दिव्य लेइया-आत्म परिणाम वडे युक्त एवं दश दिशाओने 'उद्योयत्' प्रकाश करतु, 'प्रभासयत्' शोभावतुं, 'प्रासादीयं' चित्तने आह्लाद करतु, 'दर्शनीयं' जेने जोता चक्षु थाकी न जाय तेनुं, 'अभिरूपे' मनोज्ञ, 'प्रतिरूपं' दरेक जोनारना प्रति रूप जेनुं छे एवं दिव्य देवरूप विकुर्वे छे. 'विकुर्व्य' विकुर्वीने 'अन्तरीक्षप्रतिपन्नः' आकाशमां रही, 'सकिंकिणिकानि' नाना घुघरी ओवाळा पांच वर्णना वस्त्रोने सारी रीते पहेरी तेणे कामदेव श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कां ए संबन्ध छे.
२ कामदे
वाध्ययन
॥८४॥
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥८५॥
एवमाइक्रखइ ४ - एवं खलु देवा ! जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए कामदेवे समणोवासए पोसहसालाए पोसहियबम्भचारी जाव दग्भसंधारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवसम्पजित्ता णं विहरइ, नो खलु से सक्को केणइ देवेण वा दाणवेण वा जाव गन्धव्वेण वा निग्गन्धाओ पावयदेवीओना मध्यमां रही आ प्रमाणे कहे छे-हे देवो ! ए प्रमाणे खरेखर जंबूद्वीप नामे द्वीपमां भरत क्षेत्रने विशे चंपा नगरीमां कामदेव श्रमणोपासक पोषधशालामां पोषध सहित अने ब्रह्मचारी यावत् दर्भना संथाराने प्राप्त थयेलो श्रमण भगवान् महावीरनी पासेथी प्राप्त | करेली धर्मप्रज्ञप्तिने स्वीकारीने विहरे छे. खरेखर ते कोइ देव, दानव यावत् गान्धर्व वडे निर्ग्रन्थ प्रवचनथी चलायमान करवाने, क्षोभ
'सक्के देविदे' इत्यादिने विशे यावत् शब्दनुं ग्रहण होवाथी शक्रनुं वर्णन आ प्रमाणे जाणवुं 'वज्रपाणी' वज्र जेना हाथने विशे छे वो, 'पुरन्दरे' पुर-असुर विशेषना नगरोने दारण-नाश करवाथी पुरन्दर, 'सयक्कऊ' ऋतु शब्द वडे अहीं श्रावकनी प्रतिमा विवक्षित छे. अने ते कार्तिक शेठना भवमां सो क्रतु प्रतिमा-अभिग्रहविशेष जेओप ग्रहण करी छे ते शतक्रतु एवी चूर्णिकारनी व्याख्या छे. 'सहसक्खे' पांचसो मन्त्रीओनी हजार आंखो थाय छे, माटे तेना संबन्धथी ते सहस्राक्ष कहेवाय छे. मघशब्द वडे मेघ विवक्षित छे, ते जेने वश छे ते मघवान्, 'पागसासणे' पाक नामे बलवान शत्रु, तेने शासन- शिक्षा करवाथी पाकशासन, दाहिणड्ढलोगाहिवई' लोकनो दक्षिण दिशानो अर्धभाग तेनो अधिपति, 'बत्तीसविमाणसय सहस्साहिवई' बत्रीश लाख विमाननो अधिपति, 'परावणवाहणे' परावण ऐरावत हस्ती, ते जेनुं वाहन छे एवो, 'सुरिंदे' सुष्ठु राजन्ते सारी रीते शोभे ते सुरो, तेनो इन्द्र-स्वामी सुरेन्द्र, अथवा सुर-देवोनो इन्द्र ते सुरेन्द्र, कारण के पूर्व देवेन्द्रपणे प्रतिपादन करेलुं छे अने अहीं सुरेन्द्रपणे प्रतिपादन जाणवु अथवा अन्य प्रकारे पुनरुक्तिनो परिहार करवो. 'अयरंबरवत्थधरे' अरजस्-रजरहित निर्मल, अंबर-आकाश तेना जेवा स्वच्छ होवाथी अम्बर कहेवाय छे, एवा वस्त्रोने धारण कर
२ कामदे
वाध्ययन
॥८५॥
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उपासक
२ कामदे. बाध्ययन
दशांग
सानुवाद
॥८६॥
॥८६॥
णाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा। तए णं अहं सक्कस्स देविन्दस्स देवरणो एयमहूँ | असद्दहमाणे ३ इहं हव्वमागए, 'तं अहो णं देवाणुप्पिया ! इड्डी ६ लद्धा ३, तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिया! इड्डी जाव | अभिसमन्नागया, तं खामेमि णं देवाणुप्पिया! खमन्तु मज्झ देवाणुप्पिया! खन्तुमरहन्ति णं देवाणुप्पिया! नाई पमाडवाने के विपरिणाम करवाने शक्य नथी. त्यार बाद हुं देवेन्द्र देवराज शक्रनी ए वातनी श्रद्धा नहि करतो शीघ्र अहीं आव्यो. अहो ! देवानुप्रिय ! तें ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम प्राप्त करेलुं छे. हे देवानुप्रिय ! ऋद्धि में प्रत्यक्ष जोइ, यावद् में सारी रीते जाणी. हे देवानुप्रिय! हुं खमाबु छु, हे देवानुप्रिय! तमे मने क्षमा आपो, हे देवानुप्रिय ! तमे क्षमा आपवाने योग्य छो, नार, 'आलइयमालमउडे' आलगित-आरोपेली छे माला जेने विशे पवा मुकुटवाळो, 'नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे' नवा अने हेम-सुवर्णना चारु-सुशोभित, चित्र-चित्रवाळा चंचल कुंडलो बडे विलिख्यमान-स्पर्श कराता गंड-गाल जेना छे एवो, 'भासुरबोंदी भासुर-देदीप्यमान बौदि-शरीर जेनुं छे एवो, 'पलंबवणमालधरे' प्रलंब-लांबी बनमालाने धारण करनार पवो (इन्द्र) सौधर्म कल्पमां सौधर्मावतंसक विमानने विशे सुधर्मा सभामा 'चउरासीईए सामाणियसाहस्सीणं' चोराशी हजार सामानिक देवो, अझै यावत् शब्द कहेवाथी तेत्रीश त्रायखिश देवो, चार लोकपाल, परिवार सहित आठ अग्रमहिषीओ, त्रण पर्षदो, सात प्रकारना अनीक-सैन्यना देवो, सात अनीकाधिपति-सैन्यना अधिपति अने चारगुणा चोराशी हजार आत्मरक्षक देवोना मध्यमां रही, तेमां त्रायस्त्रिंश-पूज्य गुरुस्थानीय देवो, चार लोकपाल पूर्वादि दिशाना अधिपति सोम, यम, वरुण अने कुबेर, आठ अग्रमहिषी-पट्टराणी, तेनो प्रत्येकनो परिवार पांच हजार देवीओ, बधी मळी परिवार रूप देवीओ चाळीश हजार जाणवी. अभ्यन्तर, मध्यम अने वाह्य त्रण पर्षद जाणवी. पदातिपायदळ, गज, अश्व, रथ अने वृषभ-ए भेद पांच प्रकारचं संग्रामने उपयोगी सैन्य अने गन्धर्वानीक-संगीत करनार, अने नाटयानीक
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥८७॥
भुजो करणयाए' तिकट्टु पायवडिए पज्ञ्जलिउडे एयमहं भुज्जो भुज्जो खामेइ, खामेत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए । तए णं से कामदेवे समणोवासए निरुवसग्गं तिकडु पडिमं पारेह || ७ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तए णं से कामदेवे समणोवासए इमीसे हुं फरीथी एम करीश नहि' एम कहीने पगें पड्यो अने हाथ जोडीने ए अर्थने वारंवार खमावे छे. खमावीने जे दिशाथी आग्यो हतो ते दिशाए गयो. त्यारबाद ते कामदेव श्रमणोपासक पोताने उपसर्गरहित जाणीने प्रतिमाने पारे छे..
७. ते काळे अने ते समये श्रमण भगवान् महावीर विहरे छे. त्यारबाद कामदेव श्रमणोपासक आवातथी विदित थइ 'ए प्रमाणे
नाटक करनार देवो-एम सात प्रकारनुं सैन्य जाणवु. अनीकाधिपति सात आ प्रमाणे छे प्रधान पदाति, प्रधान हाथी, एम बीजा पण सैन्याधिपति देवो जाणवा. आत्मरक्षक-अंगनी रक्षा करनारा देवो चोराशी हजार छे, ते सिवाय बीजा घणा देवो अने देवीओनी मध्यमां आ प्रमाणे 'आइक्खइ' सामान्यपणे कहे छे अने भाषते विशेषतः कहे छे, एनेज 'प्रज्ञापयति' अने प्ररूपयति' ए वे पद वडे अनुक्रमे कहे छे-ते (कामदेव श्रमणोपासक ) 'देवेण वा' इत्यादिने विशे यावत् शब्दनुं ग्रहण होवाथी आ प्रमाणे जाणवुं कोई यक्ष वडे, राक्षस वडे, किन्नर, किंपुरुष, महोरग अने गन्धर्व वडे निग्रन्थ प्रवचनथी चलायमान करवो शक्य नथी.
'इड्ढी' इत्यादि. अहीं यावत् शब्द होवाथी आ प्रमाणे समज-जुई, जसो, बलं, वीरियं, पुरिसक्कारपरक्कमेति । पटले हे कामदेव ! तें ऋद्धि-आत्मिक शक्ति, कृति-तेज, यश, बल, वीर्य अने पुरुषकारपराक्रम प्राप्त करेलुं छे.
'नाई भुज्जो करणयाप' न निषेधार्थक छे' 'आई' निपात-अव्यय वाक्यालंकारमां के अवधारण अर्थमां वपराय छे. 'भुज्जो' भूयःफरीथी करवामां हुं प्रवृत्ति करीश नहि प तात्पर्य छे.
२ कामदे
वाध्ययन
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उपासक
कामदे. वाध्ययन
दशांग
सानुवाद
॥८८॥
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SABSEXXXXXXXSEXESOSORRY
| कहाए लढे समाणे 'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीरं वन्दित्ता नमंसित्ता तओ पडिणियत्तस्स पोसहं पारित्तएत्ति कटु एवं सम्पेहेइ, संपेहित्ता सुद्धप्पावे- साई वत्थाई जाव अप्पमहग्घ० जाव मणुस्सवग्गुरापरिक्वित्ते सयाओ गिहाओपडिणिक्खमइ,पडिनिक्खमित्ता चम्पं नगरिं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव पज्जुवासइ ।। तए ण समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य जाव धम्मकहा समत्ता। श्रमण भगवान महावीर विचरे छे, तो मारे 'श्रमण भगवान् महावीरने वंदन नमस्कार करीने त्यांथी पाछा आवीने पोषध पारवो | श्रेयरूप छ' एम विचारे छे, विचारीने शुद्ध अने प्रवेश योग्य-बहार जवा योग्य वस्त्रो पहेरे छे, यावत् अल्प अने महामूल्य अलंकार | पहेरी मनुष्यरूपी वागुराथी वींटायेलो पोताना घरथी बहार नीकळे छे, नीकळीने चंपानगरीना मध्यभागमा जाय छे. जइने ज्यां पूर्णभद्र चैत्य छे त्यां आवे छे, यावत् शंखनी पेठे पर्युपासना करे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीरे कामदेव श्रमणोपासकने अने ते अत्यंत मोटी परिषदने धर्मकथा कही, यावत् धर्मकथा समाप्त थइ..
७. 'जहा संखो'त्ति जेम शंख श्रावक भगवतीसूत्रमा कह्यो छे तेम आ कामदेव श्रावक पण कहेवो. तात्पर्य आ छे-बीजा श्रावको सचित्त द्रव्यनो त्याग करवो वगेरे पांच प्रकारना 'अभिगमने समवसरणमा प्रवेश करतां करे छे, परन्तु शंखे पोषध करेलो
१ सचित्त आहार वगेरेनो त्याग करबो, २ अचित्त वस्त्रालंकारादिनो त्याग न करबो, अर्थात् वस्त्रालंकारादि पहेरवां, ३ मननी एकाग्रता, ४ एक बस्त्रनु | उत्तरासंग करवं, अने ५ जिनेश्वरनुं दर्शन थतां अंजली करवी-हाथ जोडी प्रणाम करवी.
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उपासकदशांग
सानुवाद
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होवाने लीधे सचित्तादि द्रव्यना अभावधी पांच अभिगम कर्या नथी. कामदेव श्रावक पण पोषधवत युक्त छे माटे शंखना जेवो कह्यो छे. अहीं मूळ पाठमा 'यावत्' शब्द छे, तेथी आ वर्णन जाणवुं - 'ते कामदेव श्रावक ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे. आवीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार जमणी बाजुथी प्रदक्षिणा करे छे. करीने वंदन अने नमस्कार करे छे, वंदन नमस्कार करीने अत्यन्त पासे नहि, तेम अत्यंत दूर नहि पवी रीते उभो रही शुश्रूषा करतो नमस्कार करतो सन्मुख रही हाथ जोडी पर्युपासना करे छे.
'त समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य' - आ सूत्रथी आरंभी औपपातिक सूत्रमां कहेल पाठ यावत् 'धर्मकथा समाप्त थई अने परिषद् पाछी गई' त्यां सुधी कहेवो. ते आ प्रमाणे सविशेषपये बतावाय छे-त्यार बाद श्रमण भगवान् महावीर कामदेव श्रमणोपासकने अने अत्यन्त मोटी ऋषिपरिषदने, मुनिपरिषदने, यतिपरिषदने धर्म कहे छे. तेमां पश्यन्तीति जुप ते ऋषिओ-अवधि वगेरे ज्ञानवाळा, मुनि-मौनने धारण करनारा, अर्थात् वाणीनो संयम करनारा, यतयः धर्म क्रियामां प्रयत्न करनारा 'अणेगसयवंदाए' अनेक सैकडा प्रमाण वृन्द-समूह जेने विशे छे पवी, 'अणेगसयबन्दपरिवाराए' अनेक सेंकडो प्रमाण वृन्द- समूह रूप परिवार जेने विशे छे पवी परिषदने धर्म कहे छे ए संबन्ध छे. भगवान् केवा छे तेनुं वर्णन करे छे– 'ओहबले' ओघ - अव्यवच्छिन्न बल जेनुं छे पवा, 'अइबले' समग्र पुरुषो, देवो अने तिर्यचो करतां अधिक बल जेनुं छे ear, 'महाबले' मो बल जेनुं छे एवा, पनुंज सविस्तर वर्णन करे छे– 'अपरिमियबलविरयतेय माहष्पकं तिजुत्ते' अपरिमित बल- शारीरिक सामर्थ्य, वीर्य - जीव सामर्थ्य, तेज प्रकाश, माहात्म्य महानुभावपणु अने कांति रम्यता बडे युक्त, 'सारयनव मेहथणिय दुंदुभिसरे' शरद काळना नवीन मेघना स्तनित-शब्दनी पेठे मधुर शब्द जेनो छे अने दुंदुभिना जेवो स्वर जेनो छे पवा, 'उरे वित्थडाए' छातीमां विशाल, ( आ पदोनो सरस्वतीनो साथ संबन्ध छे) कारण के तेमनी छाती विस्तीर्ण छे, 'कंठे पवट्टयाए' कंठने विशे गोळाकार, कारण के गळानुं छिद्र वर्तुलाकार छे सिरे संकिण्णाप' मस्तकने विशे संकीर्ण थती, कारण के शरीरनो विस्तार मस्तक बडे सांकडो थाय
२ कामदे
वाध्ययन
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
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छे, 'अगरलाए' स्पष्ट वर्णवाळी, 'अमम्मणाए' बच्चे अटक्या सिवाय अस्खलित बोलाती, 'सव्यक्वरसन्निवाइयाए' सर्व अक्षरना संयोगवाळी, 'पुण्णरत्ताप' परिपूर्ण मधुर, 'सबभासाणुगामिणीप' सर्व भाषारूपे परिणमनस्वभाववाळी, 'सरस्सइए' सरस्वती-बाणीवडे जोयणनीहारिणा सरेणं' योजनगामी शब्द बडे 'अद्धमागहाए भासाए भासइ अरहा धम्म परिकहर' अर्ध मागधी भाषा, के जेमा 'र' नो ल अने 'स' नो श थाय छे इत्यादि मागधी भाषानु लक्षण संपूर्ण नथी, ते मागधी भाषा बडे 'अरहा-अईन-पूजाने योग्य अथवा अरहस्य-जेने कांई पण रहस्य-छार्नु नथी, कारण के ते सर्वज्ञ छे, पवा भगवान् श्रद्धा करवा योग्य, जाणवा योग्य अने आचरवा योग्य वस्तुने विशे श्रद्धान, शान अने आचरणरूप धर्मने 'परिकथयति' समस्तपणे, समग्र विशेषने कथन करवा पूर्वक कहे छे. तथा 'सब्वेसि आरियमणारियाण अगिलाए धम्ममाइक्खइ' केवळ ऋषिपरिषदादिने धर्म कहे छे पम नहि, परन्तु जे वंदनादि माटे आवेला ते बधा आर्य-आर्यदेशमा उत्पन्न थयेलाने अने अनार्य-म्लेच्छोने अग्लानि-खेद पाम्या सिवाय धर्म कहे छे.
हवे धर्मकथानु स्वरूप बतावे छे-'अस्थि लोए, अस्थि अलोए' लोक छ, अलोक छे. प प्रमाणे जीव, अजीव, बंध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आम्रव, संवर, वेदना अने निर्जरा छे.प पदार्थोनुं अस्तित्व बताववा वडे शून्यवादी, विज्ञानवादी, निरात्मवादी, अद्वैतवादी, एकान्त क्षणिकवादी, नित्यवादी अने नास्तिकादि कुदर्शनोनो निषध करवाथी परिणामी वस्तुनुं प्रतिपादन द्वारा सर्व आ लोक अने परलोकनी क्रियाओगें निदाषपणुं बताव्यु. तथा अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नारको, तियचो, तिर्यंचखीओ, माता, पिता, ऋषिओ, देवो, देवलोको, सिद्धि, सिद्धो, परिनिर्वाण अने परिनिर्वृत-निर्वाणने प्राप्त थयेला जीयो छे. सिद्धि-कृता र्थता अने परिनिर्वाण-सर्व कर्म बडे करायेला विकारना अभावथी अतिशय स्वस्थता, ए प्रमाणे सिद्ध अने परिनिर्वृत-निर्वाणने प्राप्त थयेलानो मेद जाणवो. तथा प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम-राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान (खोटुं आळ मूकबु), पैशुन्य, अरतिरति, परपरिवाद-निंदा, मायामृषावाद अने मिथ्यादर्शनशल्य छे. प्राणातिपातविरमण, यावत् क्रोधविवेक-क्रोधनो त्याग यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक छे. अधिक कहेबाथी शुं? परन्तु सर्व
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदे वाध्ययन
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अस्तिभावने अस्तिरूपे कहे छे अने सर्व नास्तिभावने नास्तिरूपे कहे छे. दानादि सारा को शुभफळवाळां अने दुष्ट कर्मो अशुभ फळवाळां थाय छे. आत्मा शुभाशुभ कर्मनो बंध करें-छे, परन्तु सांख्यमतनी पेठे नथी बंधातो पम नथी. जीवो उत्पन्न थाय छे पटले जन्मे छे. कल्याण अने पाप-शुभा शुभ कर्म फळवाळां छे. ए प्रमाणे धर्मनो उपदेश करे छे. पटले ज्ञेय जाणवा योग्य अने श्रद्धा करवा योग्य तत्त्वने विशे जाणवा अने श्रद्धा करवा रूप धर्म कहे छे. तथा 'इणमेव निग्गन्थे पावयणे सच्चे, आ प्रत्यक्ष निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य छे, कारण के सुवर्णनी पेठे 'कषादि वडे शुद्ध छे. 'अणुत्तरे' जेनाथी बीजं कोई प्रधान नथी पq छ, 'केवलिप' अद्वितीय छे. 'संसुद्धे' शुद्ध-निर्दोष छ, 'पडिपुण्णे' सद्गुणोथी परिपूर्ण छ, 'नेयाउए' न्याययुक्त छे, | 'सल्लगत्तणे' मायादि शल्यनो कर्तन-नाश करनार छे. 'सिद्धिमग्गे' सिद्धिनो-हितप्राप्तिनो मार्ग छे, 'मुत्तिमग्गे मुक्तिना-अहितना त्यागना | मार्गरूप छे. 'निव्वाणमग्गे' निर्वाण-सिद्धक्षेत्रनी प्राप्तिनो मार्ग छे, 'परिनिब्वाणमग्गे' कर्मनो अभाव थवाथी उत्पन्न थयेला सुखनो मार्ग छे, 'सर्वदुक्खपहीणमग्गे' सर्व दुःखना क्षयनो मार्ग छे. हवे आ प्रवचननुं स्वरूप फळ द्वारा बतावे छे-आ प्रवचनने विशे रहेला जीवो कृतार्थपणे सिद्ध थाय छे, केवलिपणा वडे बोध पामे छे, कर्मवडे मुक्त थाय छे, अने निर्वाण पामे छे. 'पगच्या पुण पगे भयंतारो' एकााः -पक-अद्वितीय अर्व्य-पूजवा योग्य अथवा एकारी-संयम अनुष्ठानने विशे एक-असदृश-अनुपम अर्चा-शरीर जेमर्नु छ एवा केटलापक छे जेओ सिद्ध थता नथी, पण तेओ निर्ग्रन्थप्रवचन-जिनशासनना भक्तार:-सेवा करनारा, अथवा भदन्त-कल्याण युक्त, भट्टारक-पूज्य, अथवा भयत्रातार:-भयथी रक्षण करनारा पूर्व कर्म बाकी होवाथी महाऋद्धिवाळा, महातिवाळा, महायश
"विधिप्रतिषेधो कष इति" । अहिंसा, संयम अने तप बगेरेनुं विधान अने हिंसादिनो निषेध ते कष. "तत्संभवपालनाचेष्टोक्तिश्छेद इति" विधि अने प्रतिषेधनी उत्पति अने तेना पालन करवानी चेष्टानुं प्रतिपादन ते छेद. “उभयनिबन्धनभाववादस्ताप इति" विधि अने प्रतिषेधन परिणामी कारण जीवादि भावनी प्ररूपणा करवी ते ताप. एटले स्थावाद बडे जीवादि भावोनुं प्रतिपादन कर. जेम सुवर्णनी कष, छेद अने ताप वडे परीक्षा कराय छे तेम धमनी उक्त स्वरूप कषादि वर्ड परीक्षा कराय छे. जे धर्म कषादि वडे निदोष छे ते शुद्ध धर्म कही शकाय . जुओ धर्मबिन्दु.
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२ कामदे वाध्ययन
॥१२॥
उपासक- बाळा, महाबलवाळा, महासुखवाळा, दूर रहेला अने लांबा काळनो स्थितिवाळा कोइ पण देवलोकमां देवपणे उत्पन्न धाय छे. ते दशांग- देवो महाऋद्धिवाळा, यावत् लांबा काळनी स्थितिवाळा, हार वडे सुशोभित छातीवाळा, कडा अने शुटित-बाहुरक्षक वडे अक्कड भुजा- सानुवाद वाळा, अंगद-बाजुबंध, कुंडल अने जेणे गंडस्थलनो स्पर्श को छे एवा कर्णपीठ-कानना आभूषणने धारण करनारा, विचित्र हाथ
ना आभरणवाळा, विचित्र मालायुक्त मुकुट जेओने छे पवा, कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र जेणे पहेरेला छे पवा, कल्याणकारी श्रेष्ठ माळा ॥१२॥ अने विलेपनने धारण करनारा, भासुर-देदीप्यमान बोन्दि-शरीर जेओर्नु छे पवा, लांबी लटकती वनमालाने धारण करनारा, दिव्य
COMवर्ण वडे, दिव्य गन्ध वडे, दिव्य स्पर्श वडे, दिव्य संघयण वडे, दिव्य संस्थान वडे, दिव्य ऋद्धि बडे, दिव्य प्रति वडे, दिव्य प्रभा || वडे, दिव्य छाया वडे, दिव्य-अचि-प्रकाशनी ज्वाला वडे, दिव्य तेज बडे अने दिव्य लेश्या बडे दस दिशाओने उयोतित करता,
प्रकाशित करता, कल्याणकारकगतिवाळा, कल्याणकारक स्थितिवाळा, 'आगमेसिभद्दा' भविष्य काळे थवानुं छे भद्र-कल्याण जेओर्नु एवा, प्रसन्नता करनारा, दर्शनीय, अभिरूप-मनोहर प्रतिरूप-विशिष्ट रूपवाळा पवा देवो देवपणे उत्पन्न थाय छे. ए प्रमाणे जे अहीं धर्मनुं फळ छे ते कहे छे. ए प्रमाणे चार स्थानके जीवो नैरयिकपणे कर्म करे छे अने नैरयिकपणे कर्म करीने नैरयिकोमां उत्पन्न थाय छे. ते आ प्रमाणे-महारंभ वडे, महापरिग्रह वडे, पंचेन्द्रियनी हिंसा वडे, अने मांसाहार बडे ए प्रमाणे ए पाठ वडे तिर्यंचोमा माया बडे, असत्य वडे, उत्कंचन वडे, अने वंचन वडे. तेमां माया छेतरवानी बुद्धि, उत्कंचन-भोळा माणसोने छेतरवामां प्रवृत्त थयेलाए पासे रहेला चतुर पुरुषोने खबर न पडे तेवी रीते क्षणवार प्रवृत्ति न करवी, वंचन-छेतर. मनुष्योमा प्रकृतिना भद्रपणाथी, विनीतपणाथी, दयाथो, अने अमात्सर्य-अदेखाइ रहितपणाथी उपजे छे. प्रकृतिनी भद्रता-स्वभावथीज बीजाने संताप न करवो. देवोमां सराग संयमथी, देश विरतिथी, अकामनिर्जराथी, अने बालतप वडे उपजे छे.प प्रमाणे नारकत्वादिना कारणोनो उपदेश करे छे. जे प्रकारे नरकमां जवाय छे, जे नरको छे अने नरकमां जे वेदना छे तेने कहे छे)अने तिर्यंचयोनिमां शारीरिक अने मानसिक दुःखोने कहे छे (१) व्याधि, जरा, मरण अने बेदना बडे प्रचुर-व्याप्त तथा अनित्य एवा मनुष्यपणाने कहे छे. देवो, देवलोको, अने देवोने विशे देवोना
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥९३॥
सुखो कहे छे (२). नरक, तिर्येच, मनुष्यभाव, देवलोक, सिद्धि, सिद्धिस्थान अने छ जीवनिकायने कहे छे (३). जे प्रकारे जीवो बंधाय छे मूकाय. छे, कलेश पामे छे अने प्रतिबंध विनाना जेम दुःखोनो अन्त करे छे ते कहे छे. (४). जे प्रकारे आर्त अने आर्तचित्तवाळा जीवो दुःखसागरने प्राप्त थाय छे अने जे प्रकारे वैराग्यने प्राप्त थयेला कर्मरूपी समुद्गक पेटीने उघाडे छे, आर्त-शरीरथी दुःखी थयेला, आर्तचित्त वाळा - शोकादिथी पीडित थयेला, अथवा आर्तध्यानथी पीडित थयेला मनवाळा जाणवा (५). जे प्रकारे रागथी ( अने द्वेषथी) करेलां कर्मनो फलविपाक प्राप्त थाय छे अने जे प्रकारे क्षीण करेलां छे कर्म जेणे पवा सिद्धो सिद्धालयने प्राप्त थाय छे ते कहे छे. (६) हवे आचरण करवा योग्यनुं आचरण रूप धर्म बतावे छे ते धर्म बे प्रकारनो छे के जे धर्म वडे सिद्धो सिद्धालयने प्राप्त करे छे. ते आ प्रमाणे- आगारधर्म अने अनगारधर्म अनगारधर्म सर्वथा सर्व धन धान्यादि प्रकारने आश्रयी सर्व आत्म परिणाम वडे गृहस्थावासथी अनगारिता - साधुपणाने प्राप्त थयेलाने सर्वथा प्राणतिपातथी विरमण, प प्रमाणे मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह अने रात्रिभोजनथी विरमण करवा रूप जाणवो. हे आयुष्मन् ! आ अनगारसामायिक धर्म कह्यो छे. ए धर्मनी शिक्षा-समज अने आचरण करवामां तत्पर थयेला निर्ग्रन्थ-अने निर्ग्रन्थी- साध्वी विहरता आज्ञाना आराधक थाय छे. अगारधर्म- गृहस्थधर्म बार प्रकारनो कहेलो छे. ते आ प्रमाणे पांच अणुव्रत, त्रण गुणव्रत अने चार शिक्षाव्रत. पांच अणुव्रत आ प्रमाणे छे -१ स्थूल प्राणातिपातथी विरमण, २ एम स्थूल मृषावादथी विरमण, ३ स्थूल अदत्तादानथी विरमण, ४ स्वदारसंतोष अने ५ इच्छापरिमाण. त्रण गुणवत आ प्रमाणे छे-१ अनर्थदंडविरमण, २ दिशावत अने ३ उपभोगपरिभोगपरिमाण. चार शिक्षाव्रत छे, ते आ प्रमाणे- १ सामायिक, २ देशावकाशिक, ३ पोषधोपवास अने ४ अतिथिसंविभाग. त्यारबाद अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना - शरीर अने कषायादिने कृश करनार तप विशेषनुं जुषणाऽऽराधना, पटले सौथी छेल्ले मरणान्ते संलेखना - तपविशेषनुं जुषणा सेवन करयुं पांच अणुव्रतना उपकारक व्रत कहेवाय छे अने जे शिक्षा पुनः पुनः आचरवा योग्य ते शिक्षाव्रत कहेवाय छे. हे आयुष्मन् ! आ आगारसामायिक धर्म कह्यो छे. आ धर्मनी शिक्षा समज अने आचरणमां तत्पर थयेल श्रावक अने श्राविका विहरता आज्ञाना आराधक थाय छे.
२ कामदे
वाध्ययन
॥९३॥
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥९४॥
८. कामदेवा ! इसमणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-से नूणं कामदेवा ! तुब्भं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तिए पाउन्भूए, तए णं से देवे एगं महं दिव्वं पिसायरूवं विउब्वह, विउच्वि८ " हे कामदेव !" एम कही श्रमण भगवंत महावीरे कामदेव श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कं हे कामदेव ! खरेखर मध्यरात्रिना समये तारी पासे कोई एक देव प्रगट थयो हतो. ते पछी ते देवे एक मोडुं पिशाचनुं रूप विकुर्यु. विकुर्वीने गुस्से थयेला
त्या बाद अत्यन्त मोटी मनुष्यनी परिषद् श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी धर्म सांभळीने, अवधारीने हृष्ट-प्रसन्न हृदयवाळी थइने उठे छे, उठीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार आदक्षिण-जमणी बाजुथी प्रदक्षिणा करे छे, प्रदक्षिणा करीने वंदन नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने केटलाएक मुंड थहने गृहवासथी साधुपणाने अंगीकार करे छे अने केटलापक पांच अणुव्रत अने सात शिक्षा व्रत रूप बार प्रकारना गृहस्थ धर्मने प्राप्त थाय छे. बाकीनी परिषद् श्रमण भगवंत महावीरने वंदन करी आ प्रमाणे कहे छेहे भगवन् ! आपे निर्ग्रन्थ प्रवचन सारी रोते कह्युं छे, भेद बताववा वडे सारी रीते प्ररूप्युं छे, वचननी स्पष्टताथी सारी रोते भाष्यं छे. शिष्योने विषे विनियोग करवांधी व्यवस्थित' कहेलं छे, तत्त्वना कहेवाथी सारी रीते भाव्युं छे, हे भगवन्! निर्ग्रन्थ प्रवचन अनुत्तर- जेनाथी बीजुं कोइ श्रेष्ठ नथी एवं छे. ते धर्मने कहेता तमे उपशमने कहो छो, उपशम-क्रोधादिनो निग्रह करवो. उपशमने क हेता विवेकने कहो छो, विवेक बाह्य परिग्रहनो त्याग. विवेकने कहेता विरमणने कहो छो, विरमण - प्राणातिपातादिथी मननी निवृत्ति, विरमणने कहेता पाप कर्मने नहि करवानुं कहो छो. अर्थात् उपशमादि रूप धर्मने कहो छो प तात्पर्य छे. बीजा कोइ श्रमण अथवा ब्राह्मण नथी, जे आवा प्रकारना धर्मने कहेवाने समर्थ होय, तो पछी आधी उत्तम धर्म कहेवाने माटे शुं कहेवु. ए प्रमाणे वंदन करीने परिषद् जे दिशा तरफथी आवी हती ते दिशा तरफ गइ.
२ कामदेवाध्ययन
॥९४॥
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
॥९५॥
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|त्ता आसुरुते ४ एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय तुम एवं वयासी-हं भो कामदेवा !जाव जीवियाओ वव-
रोविजसि । तं तुमं तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरसि, एवं वण्णगरहिया तिण्णिवि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारेयब्वा जाव देवो पडिगओ। से नूणं कामदेवा! अढे समझे ? हन्ता, अत्थि । 'अलो! इ समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गन्थे य निग्गन्धीओ य आमन्तेत्ता एवं वयासी-जइ ताव अज्जो! समणोवासगा गिहिणो गिहमज्झावसन्ता दिव्वमाणुसतिरिक्खजोणिए उवसग्गे सम्म सहन्ति जाव अहियासेन्ति, सक्का पुणाई अजो! समणेहिं निग्गन्थेहिं दुवालसङ्गं गणिपिडगं अहिज्जमाणेहिं दिव्वमाणुसतिरिक्खजोतेणे एक मोटी काळा कमळना जेवी तलवार ग्रहण करी तने आ प्रमाणे कडं-हे कामदेव ! तुं यावत् जीवितथी मुक्त थईश. ते देवे तने ए प्रमाणे कडं एटले तुं निर्भय रह्यो. एम वर्णन रहित त्रणे उपसों तेम ज फरीथी कहेवा यावत् देव पाछो गयो. हे कामदेव ! आ अर्थ समर्थ-यथार्थ छ ? हा, छे. श्रमण भगवंत महावीरे 'हे आर्यो ! एम संबोधी घणा श्रमण निग्रन्थो अने निर्ग्रन्थीओने आ प्रमाणे कड्यु-'हे आर्यो ! जो गृहवासमा रहेता गृहस्थ श्रमणोपासको दिव्य, मनुष्य अने तिर्यच संवन्धी उपसगोंने सम्यक् सहे छे, यावत् शान्तिथी सहे छे, तो हेआर्यों! द्वादशाङ्गरूप गणिपिटकने अध्ययन करनारा श्रमण निर्ग्रन्थोए दिव्य, मनुष्य अने तिर्यच | संबन्धी उपसों सम्यक् सहन करवा यावत् विशेषतः सहन करवा योग्य छे. त्यार बाद ते घगा श्रमण निग्रन्थो अने निर्ग्रन्थीओ
८ 'अढे समढे' त्ति आ अर्थ छे अथवा अर्थ-में कहेली वस्तु समर्थ-संगत छे. 'हन्ता' ए कोमळ आमन्त्रणवाची छे. 'अज्जो'त्ति 'हे आर्यो !' ए प्रमाणे बोलावीने कयुं. 'सहन्ति' सहन करे छे, यावत् शब्दना पाठथी आ जाणवू 'खमन्ति, तितिक्खन्ति'
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२ कामदेवाध्ययन
उपासकदशांग सानुवाद ॥१६॥
॥१६॥
णिए सम्म सहित्तए जाव अहियासित्तए। तओ ते बहवे समणा निग्गन्था य निग्गन्थीओ य समणस्स भग-| वओ महावीरस्स तहत्ति एयमढे विणएणं पडिसुणन्ति । तए णं से कामदेवे समणोवासए हट्ट जाव समणं | भगवं महावीरं पसिणाई पुच्छइ, अट्ठमादियइ, समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ चम्पाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहार विहरद ॥
९. तए णं से कामदेवे समणोवासए पढम उवासगपडिम उवसम्पज्जित्ताणं विहरइ, तए णं से कामदेवे श्रमण भगवंत महावीरना ए अर्थने 'तहत्ति कही विनय वडे स्वीकारे छे. त्यार पछी हृष्ट-प्रसन्न थइ यावत् श्रमण भगवंत महावीरने प्रश्नो पूछे छे, तेनो अर्थ ग्रहण करे छे, अने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार वदन-नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने जे दिशामांथी आव्यो हतो ते दिशामां पाछो जाय छे. त्यार बाद श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोई दिवसे चम्पा नगरीथी नीकळे छे अने नीकळी बहार देशोमां विहार करे छे. ।।
९. ते पछी कामदेव श्रमणोपासक प्रथम श्रावकनी प्रतिमाने अंगीकार करीने विहरे छे. त्यार बाद ते कामदेव श्रमणोपासक घणा शीलवत वगेरेथी आत्माने भावित करी वीश चरस सुधी श्रमणोपासक पर्यायने पाळी, अगियार श्रावकनी प्रतिमाओने सम्यक्ए बधा एकार्थक छे. तेनी विशेषता पण बतावेली छे से अन्य ग्रन्थथी जाणी लेवु.
'निक्खेवओ' त्ति निगमन-उपसंहारवाक्य छ. ते आ प्रमाणे-'एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स
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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
॥९७॥
॥९७॥
समणोवासए बहहिं सीलवएहिं जाव भावेत्ता वीसं वासाई समणोवासगपरियागं पाउणित्ता एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं कारणं फासेत्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता| आलोइयपडिकन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरस्थिमेणं अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, कामदेवस्सवि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । से णं भन्ते! कामदेवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणन्तरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ, कहिं उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । निक्खेवो। सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं बीतियं अज्झयणं समत्तं ॥ विधिपूर्वक काया वडे स्पर्शी एक मासनी संलेखना बडे आत्माने क्षीण करी साठ भक्त (टंक) अणसण बडे छेदी-व्यतीत करी, आलोचना करी, प्रतिक्रमी समाधिने प्राप्त थइ कालसमये काळ करी सौधर्म देवलोकमां सौधर्मावतंसक महाविमाननी उत्तरपूर्व दिशाए अरुणाभ विमानने विशे देषपणे उत्पन्न थयो. त्यां केटलाएक देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे. कामदेव देवनी पण चार पल्योपमनी स्थिति छे. हे भगवन् ! कामदेव ते देवलोकथी आयुषना क्षय थवाथी, भवना क्षय थवाथी, स्थितिना क्षय थवाथी तुरत च्यवी क्या जशे? क्या उत्पन्न थशे ? हे गौतम! महाविदेह क्षेत्रमा सिद्धिपद पामशे. निक्षेप-उपसंहार कहेवो.
___ सातमा उपासक दशांगना वीजा अध्ययननो अनुवाद समाप्त. अयमढे पन्नत्ते त्ति. ए प्रमाणे हे जम्बू ! यावत् निर्वाणने प्राप्त थयेला श्रमण भगवान् महावीरे बीजा अध्ययननो आ अर्थ कह्यो छे.
उपासकदशांगना बीजा अध्ययननो टीकानुवाद समाप्त.
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उपासकदशांग सानुवाद
३ चुलनीपिताध्ययन
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- तइयं अज्झयणं । १. उक्खेवो तइयस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नाम नयरी, कोहए। चेइए, जियसत्तू राया। तत्थ णं वाणारसीए नगरीए चुलणीपिया नाम गाहावई परिवसइ, अड्डे जाव अपरिभूए। सामा भारिया। अट्ठ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, अट्ठ वुड्डिपउत्ताओ, अट्ट पवित्थरपउत्ताओ, अट्ट वया
३ चुलनीपिता अध्ययन १ त्रीजा अध्ययननो उपोद्घात कहेवो. ए प्रमाणे हे जम्बू ! ते काळे अने ते समये वाराणसी नामे नगरी हती. कोष्ठक चैत्य हतुं. जितशत्रु राजा हतो. ते वाराणसी नगरीमा चुलनीपिता नामे गृहपति रहे छे, ते आढय-धनिक यावत् कोईथी | पराभव न पामे तेवो छे. तेने श्यामा नामे भार्या छे. तेणे आठ हिरण्यकोटि निधानमा मूकेली, आठ हिरण्यकोटि वृद्धि-व्याजे मृकेली अने आठ हिरण्यकोटि धनधान्यादिना विस्तारमा रोकेली छे. तेने दस हजार गायर्नु एक व्रज एवां आठ बजो छे. ते आ
१. हवे त्रीजा अध्ययननी व्याख्या करीए छीए. ते सुगम छे. परन्तु 'उक्खेवो' उत्क्षेप-उपोद्घात त्रीजा अध्ययननो कहेवो जोइप. ते आ प्रमाणे छे-हे भगवन् ! यावत् निर्वाणने प्राप्त थयेला श्रमण भगवंत महावीरे उपासक दशाना बीजा अध्ययननो आ अर्थ
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उपासकदशांग सानुवाद
३ चुलनीपिताध्ययन
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॥९९॥
दसगोसाहस्सिएणं वएणं, जहा आणन्दे राईसर० जाव सव्वकज्जवड्डावए यावि होत्था। सामी समोसढे, परिसा निग्गया, चुलणीपियावि जहा आणन्दो तहा निग्गओ, तहेव गिहिधम्म पडिवजइ । गोयमपुच्छा तहेव सेसं जहा कामदेवस्स जाव पोसहसालाए पोसहिए बम्भचारी समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मप| पणत्तिं उवसम्पज्जित्ता णं विहरह।
२. तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तियं पाउन्भूए। नंदनी पेठे राजा, ईश्वर-शेठ वगेरेने (घणा कार्योमा पूछवा योग्य) यावत् सर्व कार्योनो वधारनार हतो. महावीर स्वामी समोसर्या, परिषद् वांदवाने नीकळी. चुलनीपिता पण आनन्दनी जेम वांदवा नीकळ्यो अने तेनी पेठे ज गृहस्थधर्मनो स्वीकार करे छे. गौतम स्वामीनी पृच्छा तेमज जाणवी. (एटले गौतम स्वामी आनन्द संबन्धे प्रश्न करे छे के हे भगवन् ! आनन्द श्रमणोपासक देवानुप्रिय एवा आपनी पासे प्रव्रज्या ग्रहण करवाने समर्थ छ ? इत्यादि प्रश्नो तेमज कहेवा.) बाकी बधु कामदेवनी पेठे जाणवू. यावत् पोषधशालामा पोषधसहित अने ब्रह्मचारी (चुलनीपिता) श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी प्राप्त थयेल धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने विहरे छे.
२. त्यार बाद ते चुलनीपिता श्रमणोपासकनी पासे मध्य रात्रिना समये एक देव प्रगट थयो. ते देवे एक मोटी काळा कमळ जेवी कह्यो छे, तो हे भगवन् ! श्रीजा अध्ययननो शो अर्थ कह्यो छे ? आ स्पष्ट छे. तथा क्वचित् कोष्ठक चैत्य छे अने क्वचित महाकामबन चैत्य छे. श्यामा नामे भार्या छे.
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उपासकदशांग सानुवाद
॥१०॥
तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असिंगहाय चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया! समणोवासया! जहा कामदेवो जाव न भञ्जसि तो ते अहं अन्ज जेडं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तव पिताध्ययन अग्गओ घाएमि, घाएत्ता तओ मंससोल्ले करेमि, करेत्ता आदाणभरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अहहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयश्चामि, जहा णं तुमं अदृदुहवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि ।
॥१०॥ यावत् असि-तलवार लइने चुलनीपिता श्रमणोपासकने ए प्रमाणे कडं-'हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! इत्यादि कामदेवने कह्या प्रमाणे कहेवू, यावत् व्रत वगेरेने भांगीश नहिं तो हुं आजे तारा ज्येष्ठ पुत्रने तारा पोताना घरथी लई जईश अने लईने तारा समक्ष तेनो घात करीश. घात करीने त्रण 'मांससोल्ले' मांसना टुकडा करीश. करीने 'आदाणभरियंसि' आधण-पाणी, तेल वगेरेथी भरेला कडायामां नांखी उकाळीश. उकाळीने तारा शरीरने मांस अने लोही वडे छांटीश. जे प्रकारे तुं आर्तध्याननी (4) परवशताथी पीडित थयेलो अकाळे ज जीवितथी मुक्त थईश.
२. 'तओ मंससोल्ले त्ति त्रीणि मांसशूल्यानि-शूले पच्यन्ते शूळमां-लोढाना अणीवाला सळीयामां परोवीने पकावाय-काय ते शूल्य पटले पाणी विना पकावेलु मांस एवो पर्थ थाय छे, परन्तु मांस शब्दना संनिधानथी टीकाकारे तेनो मांसना खंड एवो अर्थ कर्यों छे. पटले त्रण मांसना खंड करे छे ए तात्पर्य छे. 'आदाणभरियसि' आदाग-आद्रहण-आंधण पाणी तेल वगेरे, जे कोइ पण एक द्रव्यने पकाववा माटे अग्नि उपर उकाळाय छे, ते वडे भरेला 'कडाहंसि लोढाना कडायाने विशे 'अद्दहेमि' आद्रयामि-उकाळीश. 'आयश्चामि' आसिञ्चामि-छांटीश.
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३ चुलनी.
उपासक
दशांग सानुवाद
पिताध्ययन
॥१०॥
॥१०१॥
३. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ।तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता दोचंपितच्चपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो| चुलणीपिया!समणोवासया!तं चेव भणइ,सोजाव विहरइ। तए णं से देवेचुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता आसुरुत्ते ४ चुलणीपियस्स समणोवासयस्स जेहें पुत्तं गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता अग्गओ घाएइ, घाएत्ता तओ मंससोल्लए करेइ, करेत्ता आदाणभरियंसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अद्दहेत्ता चुलणीपियस्स समणोवासयस्स गाय मंसेण य सोणिएण य आयञ्चइ । तए णं से चुलिणीपिया समणोवासए तं उज्जलं जाव अहियासेइ । तए ण से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता दोचंपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी
३. त्यार बाद ते चुलनीपिता श्रमणोपासक ते देवे ए प्रमाणे कडं एटले भय पाम्या सिवाय यावत् विहरे छे. त्यार पछी ते देव चुलनीपिता श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो यावत् जुए छे. निर्भय रहेलो जोइने तेणे बीजी वार अने त्रीजी वार पण चुलनीपिता श्रमणोपासकने ए प्रमाणे कयु-हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! इत्यादि तेमज कहे छे अने ते यावत् तेमज विहरे छे. त्यार पछी चुलनीपिता श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो यावत् जोईने गुस्से थयेलो ते देव चुलनीपिता श्रमणोपासकना ज्येष्ठ पुत्रने घरथी लई जाय छे, लईने तेना समक्ष तेनो घात करे छे, घात करीने त्रण मांसना टुकडा करे छे, टुकडा करीने आधण-पाणी अने। तेल वगेरेथी भरेला कडायामा उकाळे छे. उकाळीने चुलनीपिता श्रमणोपासकना शरीरने मांस अने रुधिर वडे छोटे छे. त्यार बाद ते चुलनीपिता श्रमणोपासक उज्ज्वल-केवळ दुःखरूप वेदना यावत् सहन करे छे. त्यार पछी ते देव चुलनीपिता श्रमणो
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उपासक
दशांग सानुवाद.
३चुलनीपिताध्ययन
॥१०॥
| ॥१०२॥
| हं भो चुलणीपिया! समणोवासया! अपत्थियपत्थया ! जाव न भञ्जसि तो ते अहं अज्ज मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, जहा जेटुं पुत्तं तहेव भणइ, तहेव करेइ। एवं तचंपि कणीयसं जाव अहियासेइ।
४.५-६. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता चउत्थंपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं बयासी-"हं भो चुलणीपिया!समणोवासया! अपत्थियपत्थया! ४ जइ णं तुम जाव न भञ्जसि तओ अहं अन्ज जा इमा तव माया भद्दा सत्थवाही देवयगुरुजणणी दुक्करदुक्करकारिया तं ते साओ गिहाओ नीणेमि, पासकने निर्भय रहेलो यावत् जुए छे, जोइने तेणे बीजी वार पण चुलनीपिता श्रमणोपासकने ए प्रमाणे कडं-अभार्थितनी (मरणनी) प्रार्थना करनार हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! यावत् व्रत वगेरेने तुं नहि भांगे तो हुं आजे तारा मध्यम-वचला पुत्रने तारा पोताना घरथी लई जईश. लईने तारा समक्ष तेनो घात करीश-इत्यादि जेम ज्येष्ठ पुत्र संबन्धे कयुं हतुं तेम कहे छे अने ते प्रमाणे करे छे. ए प्रमाणे त्रीजा नाना पुत्रने पण करे छे. यावत् (चुलनी पिता) दुःखरूप वेदना सहन करे छे.
४. त्यार बाद ते देव चुलनीपिता श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो जुए छे. जोईने तेणे चोथी वार पण चुलनीपिता श्रमणोपासकने ए प्रमाणे कह्यु-अप्रार्थित (मरण)नी प्रार्थना करनार हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! जो तुं यावत् व्रतादिने भांगीश नहि तो आजे हुँ जे आ तारी माता भद्रा सार्थवाही देव, गुरु अने जननीरूप तथा गर्भपालनादि रूप अत्यन्त दुष्कर करनारी छे, तेने तारा पोताना घरथी लई जईश. लईने तारी आगळ तेनो घात करीश. घात करीने त्रण मांसना टुकडा करीश. करीने आदान-आधग तेल वगेरेथी भरेला
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उपासक
दशांग सानुवाद ॥१०३॥
नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, घाएत्ता तओ मंसमोल्लए करेमि, करेत्ता आदाणभरियसि कडाहयंसि अहहेमि, | ३ चुलनीअद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयश्चामि, जहा णं तुमं अदृदुहवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोवि- पिताध्ययन ज्जसि ।तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरह। ता णं से देवेचुलगीपियं समणोवामयं अभीयं जाब विहरमाणं पासइ, २ चुलणीपियं समणोवासयं दोबंपि तचंपि एवं वयासी-हं भो |॥१०३।। चुलणीपिया! समणोवासया! तहेव जाव ववरोविज़सि । तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चपि तच्चपि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ५-अहोणं इमे पुरिसे अणारिए अणारियबुद्धी अणा. रियाई पावाई कम्माई समायरह, जेणं ममं जेटं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ,२ मम अग्गओ घाएइ, २ जहा कतंतहा कडायामा उकाळीश. उकाळीने तारा शरीरने मांस अने लोही वडे छांटीश. जे रीते तुं आर्तध्याननी अत्यन्त परवशताथी पीडित थयेलो अकाळे ज जीवितथी मुक्त थईश. त्यार पछी ते चुलनीपिता श्रमणोपासक ते देवे ए प्रमाणे कां एटले निर्भय थईने विहरे छे.. त्यार पछी ते देव चुलनीपिता श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो जुए छे, जोइने चुलनीपिता श्रमणोपासकने तेणे बीजी वार अने त्रीजी वार पण ए प्रमाणे कडं-हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! इत्यादि तेमज कहेवू यावत् तुं अकाळे ज जीवितथी मुक्त थईश.
५. त्यार बाद ते देव वडे बीजीवार अने त्रीजीवार पण ए प्रमाणे कडेवायेला चुलनीपिता श्रमणोपासकने आ आवा प्रकारनो अध्यवसाय-संकल्प थयो-अहो ! आ अनार्य अने अनार्यबुद्धिवाळो पुरुष अनार्य पाप कर्म करे छे. जे मारा ज्येष्ठ पुत्रने मारा पोताना घर थकी लइ जाय छे. लईने मारी आगळ घात करे छे. घात करीने इत्यादि जे प्रमाणे (देवे) कयु हतुं तेम चिन्तवे
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३ चुलनी
उपासक
दशांग सानुवाद.
॥१०४॥
रा॥१०४||
चिन्तेइ जाव गायं आयञ्चइ, जेणं मम मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ जाव सोणिएण य आयञ्चइ, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव आयञ्चइ, जाऽवि यणं इमा ममं माया भद्दा सत्थवाही देवयगुरुजणणी पिताध्ययन दुक्करदुक्करकारिया तंपि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिण्हित्तएत्तिकदृ उद्धाइए, सेवि य आगासे उप्पइए, तेणं च खम्भे आसाइए, मया महया सद्देणं को. लाहले कए। 'तए णं सा भद्दा सत्थवाही तं कोलाहलसई सोचा निसम्म जेणेव चुलणीपिया समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-किण्णं पुत्ता! तुमं महया महया सद्देणं कोलाहले कए ? तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयं भई सत्थवाहिं एवं वयासी-एवं खलु अम्मो ! न जाणामि, छे, यावत् मारा शरीर उपर छोटे छे. जे मारा मध्यम पुत्रने मारा पोताना घरथी लइ जाय छे, यावत् मांस अने रुधिर बडे मारा शरीरने छोटे छे.-जे मारा कनिष्ठ पुत्रने मारा पोताना घरथी लई जाय छे इत्यादि तेमज कहेवं यावत् (मारा शरीर ऊपर) छांटे छे. जे आ मारी माता देव, गुरु अने जननीरूप भद्रा सार्थवाही छे अने अत्यन्त दुष्करने करनारी छे, तेने पण मारा पोताना घरथी | लइने मारी आगळ घात करवाने इच्छे छे, ते माटे मारे ए पुरुषने पकडवो योग्य छ' एम विचारी ते 'उद्धावितः' दोडयो. ते | देव पण आकाशमा उडयो. तेणे घरनो स्तम्भ पकडयो अने अत्यन्त मोटा शब्द वडे कोलाहल कर्यो..
६. त्यार बाद ते भद्रा सार्थवाही ते कोलाहलने सांभळी, अवधारीने ज्यां चुलनीपिता श्रमणोपासक छे त्यां आवी. आवीने चुलनीपिता श्रमणोपासकने तेणे ए प्रमाणे कड्यु-हे पुत्र ! ते केम घणा मोटा शब्द वडे कोलाहल कयों ? त्यार पछी ते चुलनीपिता
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥१०५॥
||१०
केविपुरिसे आसुरुत्ते ५ एगं महं नीलुप्पल. जाव असिं गहाय ममं एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया समणोवा- 12/३ चुलनी|सया! अपत्थियपत्थया ४ वज्जिया जइणं तुमजाव ववरोविजसि । अहं तेणं पुरिसेणं एवं वुत्तेसमाणे अभीए जाव
पिताध्ययन विहरामि । तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ताममं दोच्चपि तच्चम्पि एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! तहेव जाव गायं आयञ्चइ । तए णं अहं तं उज्जलं जाव अहियासेमि । एवं तहेव उच्चारेयवं सव्वं जाव कणीयसं जाव आयश्चइ, अहं तं उज्जलं जाव अहियासेमि। तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता ममं च उत्थम्पि एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया समणोवासया! अपत्थियपत्थया जावन भञ्जसि तोते अन्ज जा इमा माया गुरु० जाव ववरोविज्जसि । तए णं अहं तेणं पुरिसेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए श्रमणोपासके पोतानी माता भद्रा सार्थवाहीने आ प्रमाणे कयु-हे माता ! हुं जाणतो नथी, पण कोईक पुरुषे गुस्से थईने काळा कमळ जेवी एक मोटी तलवारने ग्रहण करी मने एम कर्दा-अप्रार्थित (मरण)नी प्रार्थना करनार, ही-लज्जा, श्री-लक्ष्मी, धृति अने कीर्तिरहित हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! जो व्रतादिनो भंग नहि कर तो तुं आजे यावत् जीवितथी मुक्त थईश. ते पुरुषे ए प्रमाणे कडं एटले हुं निर्भय थईने यावत् रह्यो. ते पछी ते पुरुषे मने निर्भय रहेलो यावत् जोईने मने बीजी वार अने त्रीजी वार पण एम कडंहे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! इत्यादि तेमज कहे, यावत् , (मांस अने रुधिर वडे) मारा शरीरने छांटयुं. त्यार पछी में उज्ज्वल-13 केवळ वेदनाने यावत् सहन करी. ए प्रमाणे तेमज बधा पाठनो उच्चार करवो यावत् कनिष्ठ-सौथी नाना पुत्रने मारीने यावत् तेना मांस अने रुधिर वडे मारा शरीरने छांटथु अने में उज्ज्वल-केवळ वेदना सहन करी. त्यार पछी ते पुरुषे मने निर्भय रहेलो जोईने
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥१०६॥
आगासे उसे
रणनी प्रार्थना
जाव विहरामि। तए णं से पुरिसे दोचंपि तच्चपि ममं एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया समणोवासया ! अज्ज
३चुलनीजाव ववरोविज्जसि । तए णं तेणं पुरिसेणं दोच्चपि तच्चपि ममं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झ- शापिताध्ययन थिए ५-अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जाव समायरइ, जेणं ममं जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव कणीयसं जाव आयश्चइ, तुम्भेऽवि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु )
K१०६॥ ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्तिकद्दु उद्धाइए, सेऽवि य आगासे उप्पइए, मएऽवि य खम्भे आसाइए, महया | मने चोथी वार ए प्रमाणे कर्यु-अप्रार्थित-मरणनी प्रार्थना करनार हे चुलनीपिता! यावत् तुं व्रतादिनो भंग नहि कर तो आजे तारी जे आ माता देव, गुरु अने जननीरूप छे, (तेनो तारा समक्ष घात करीश, यावत् तुं आर्तध्याननी पराधीनताथी पीडित थयेलो) जीवितथी मुक्त थईश. ते पछी ते पुरुष एम कडं एटले हुं अभीक-निर्भय रह्यो. त्यार पछी ते पुरुषे बीजीवार अने त्रीजीवार पण मने आ प्रमाणे कयु-हे चुलनीपिता श्रमणोपासक ! शीलवतादिने नहि छोड तो तुं आजे यावत् जीवितथी मुक्त थईश. त्यार बाद ते पुरुष वडे बीजीवार अने त्रीजीवार ए प्रमाणे कहेवायेला मने आ आवा प्रकारनो संकल्प थयो-अहो आ पुरुष अनार्य छे. यावत् अनार्य पाप | कर्म करे छे. जे मारा ज्येष्ठ पुत्रने मारा पोताना घरथी लई गयो, तेमज यावत् सौथी नाना पुत्रने लई गयो अने यावत् तेना मांस अने लोही वडे मारा शरीरने छोटे छ, तमने पण मारा पोताना घरथी लईने मारी आगळ घात करवाने इच्छे छ, माटे ते पुरुषने मारे पकडवो योग्य छ' एम विचारीने हुं दोडयो अने ते पण आकाशमा उडयो. में पण स्तम्भ पकडयो अने घणा मोटा शब्द वडे कोलाहल कर्यो.
भने जननी
EXCEXEEEEEEEEEECROCER:
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥१०७॥
महया सद्देणं कोलाहले कए
७. तए
सा भद्दा सत्यवाही चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-नो खलु केई पुरिसे तब जाव कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएइ, एस णं केइ पुरिसे तव उवसग्गं करेइ, एस
७. त्यार पछी ते भद्रा सार्थवाहीए चुलनीपिता श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कां - 'खरेखर कोई पुरुष यावत् तारा कनिष्ठ - नाना | पुत्रने तारा पोताना घरथी लई गयुं नथी. लइने तारी पासे घात कर्यो नथी. आ कोई पुरुषे तने उपसर्ग कर्यो छे. आ तें विदर्शन| विभीषिका - बीहामणुं दृश्य जोयुं छे. माटे तुं अत्यारे भग्नव्रतवाळो भग्ननियमवाळो अने भग्नपोषघवाळो छो. तेथी हे पुत्र ! तुं ए स्थाननी आलोचना कर, यावत् तपकर्म रूप प्रायश्चित्तनो स्वीकार कर.
६. 'एस णं तर विदरिसणे दिट्ठे' आ तें विदर्शन-विरूप आकारवाळी विभीषिका भयंकर वस्तु वगेरे जोइ. अंधकारमां भयंकर वस्तुनुं दर्शन थाय छे ते विदर्शन कहेवाय छे.
७. ‘भग्गवर' भग्नव्रतः- भंग कर्यो छे व्रतनो जेणे एवो, कारण के स्थूल प्राणातिपातनी विरतिनो भावधी तेणे भंग कर्यो छे, केमके क्रोध बडे तेनो नाश करवा माटे ते दोड्यो छे, अने तेथी अपराधी छतां पण ते व्रतनो 'विषय छे. 'भग्ननियमः' जेणे नियमनो भंग कर्मों के पयो, कारण के कोपना उदय वडे उत्तर गुण रूप क्रोधना अभिग्रहनो भंग कर्यो छे. 'भग्नपोषधः' जेणे पोषधनो भंग कर्यो
१ सामान्यतः श्रावकने स्थूलप्राणातिपातनी विरतिनो विषय अपराधी प्राणी नथी, परन्तु तेगे पोषध व्रत ग्रहण करेल होवाथी अपराधी छतां तेनी विरतिनो विषय थाय छे, अथवा कोप वडे तेनो नाश करवानो अभिप्राय होवाथी भावथी तेणे प्राणातिपातनो विरतिनो भंग कर्यो छे.
३ चुलनीपिताध्ययन
॥१०७॥
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३ चुलनी
उपासक
दशांग सानुवाद
पिताध्ययन
॥१०८॥
॥१०८॥
णं तुमे विदरिसणे दिढे,तं गं तुम इयाणिं भग्गव्वए भग्गनियमे भग्गपोसहे विहरसि, तं णं तुमं पुत्ता! एयरस ठाणस्स आलोएहि, जाव पडिवजाहि । तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मगाए भद्दाए सत्थवाहीए तहत्ति एयमढें विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवजइ।
८. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए पढम उवासगपडिमं उवसम्पज्जित्ता णं विहरइ, पढमं उवासत्यार पछी चुलनीपिता श्रमणोपासक भद्रा सार्थवाही माताना ए अर्थने 'तह'त्ति कही विनय वडे स्वीकारे छे. स्वीकारीने ते स्थाननी आलोचना करे छ यावत् प्रायश्चित्तने स्वीकारे छे.
८. त्यार पछी चुलनीपिता श्रमणोपासक प्रथम उपासक प्रतिमाने स्वीकारी विहरे छे, प्रथम उपासक प्रतिमाने यथासूत्र सूत्र-प्रमाणे छे एवो, कारण के तेणे अव्यापार रूप पोषधनो भंग कयों छे. 'एयस्त' अहीं छट्ठी विभक्तिनो द्वितीया विभक्ति अर्थ होवाथी 'एतमर्थमालोचय' ए अर्थनी आलोचना कर एटले गुरुने निवेदन कर. यावत् शब्दना ग्रहणथो ‘पडिक्कमाहि' तेथी निवृत्त था, 'निंदाहि आत्मसाक्षीए निन्दा कर, 'गरिहाहि' गुरुनी साक्षीय निंदा कर. विउट्टाहि' वित्रोटय-ते भावना अनुबंधनो विच्छेद कर 'विसोहेहि अतिचार रूप मळने दूर करवा वडे विशुद्धि कर, 'अकरणयाए अन्भुटेहि फरीथो नहि करवानो स्वीकार कर. 'अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जाहि' यथायोग्य तपकर्म रूप प्रायश्चित्तनो अंगीकार कर. प बडे 'निशीथादि सूत्रोमां गृहस्थने प्रायश्चित्त कहां नथी माटे गृहस्थने प्रायश्चित्त होतुं नथी' एम कोई माने छे तेनो मत दर कर्यों छे. साधुने उद्देशी कंड पण करे तो गृहस्थने प्रायश्चित्त जित व्यवहारने अनुसरीने होय छे.
उपासकदशाना तृतीय अध्ययननो टीकानुवाद समाप्त. .
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥१०९॥
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|गपडिम अहासुत्तं जहा आणन्दो जाव एक्कारसवि । तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं उरालेणं जहा ३ चुलनी. कामदेवो जाव सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसगस्सं महाविमाणस्स उत्तरपुरथिमेणं अरुणप्पभे विमाणे देवत्ताएपिताध्ययन उववन्ने । चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता । महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५॥ निक्खेवो ।। सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं तइयं अज्झयणं समत्तं ॥
| ॥१०९॥ आनन्द श्रावकनी जेम आराधे छ यावत् अगीयारे प्रतिमानुं आराधन करे छे. ___ त्यार बाद चुलनीपिता श्रमणोपासक ते उदार तप वडे कृश थयो अने (काळ करी) कामदेवनी जेम यावत् सौधर्म देवलोकमा | | सौधर्मावतसंक विमाननी उत्तरपूर्व दिशाए अरुणप्रभ नामना विमानने विशे देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां चार पल्योपमनी स्थिति | कही छे. यावत् ते महाविदेह क्षेत्रने विशे सिद्ध थशे. निक्षेप कहेवो. .
सातमा उपासकदशांगना त्रीजा अध्ययननो अनुवाद समाप्त.
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उपासकदशांग
सानुवाद.
॥११०॥
चउत्थमज्झयणं ।
१. उक्खेवओ चउत्थस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समरणं वाणारसी नामं नयरी । कोट्ठए चेइए। जियसत्तू राया । सुरादेवे गाहावई, अड्डे । छ हिरण्णकोडीओ जाव छ वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं । धन्ना भारिया । सामी समोसढे । जहा आणन्दो तहेब पडिवजह गिहिधम्मं । जहा कामदेवो जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ति उवसम्पज्जित्ता णं विहरइ ।
४ सुरादेव अध्ययन.
१ चोथा अध्ययननो उपोद्घात कहेवो. (जेमके श्रमण भगवान् महावीरे त्रीजा अध्ययननो आ अर्थ को छे, तो चोथा अध्ययननो शो अर्थ कह्यो छे १ ) ए प्रमाणे हे जंबू ! ते काले अने ते समये वाराणसी नामे नगरी हती. कोष्ठक चैत्य हतुं जितशत्रु राजा हतो. सुरादेव गृहपति हतो. ते आढय धनिक हतो. तेने छ हिरण्यकोटि निधानमां, छ व्याजे अने छ धनधान्यादिना विस्तारमां हती. दस हजार गायनुं एक व्रज एवां छ व्रजो हतां तेने धन्या भार्या हती. महावीर स्वामी समोसर्या, आणन्दनी जेम ते गृहस्थ धर्मनो स्वीकार करे छे. अने कामदेवनी पेठे यावत् श्रमण भगवंत महावीरनी धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने विहरे छे.
१. हवे चोथा अध्ययननो प्रारंभ कराय छे. ते पण सुगम है. परन्तु कोष्ठक चैत्य छे. बीजा पुस्तकमां काममहावन चैत्य छे, धन्या भार्या छे.
४ सुरादेव
अध्ययन
॥११०॥
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥१११॥
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२. तए णं तस्स मुरादेवस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तियं पाउन्भ-II ४ सुरादेववित्था । से देवे एगं महं नीलुप्पल० जाव असि गहाय सुरादेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो सुरादेवा |
अध्ययन समणोवासया ! अपत्थियपत्थया ४ जइ णं तुमं सीलाई जाव न भञ्जसि तो ते जेठं पुत्तं साओ गिहाओ नीमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, घाएत्ता पश्च सोल्लए करेभि, आदाणभरियसि कडाहयंसि अद्दहेमि, ॥११॥ अहहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयञ्चामि । जहा णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविजसि । एवं मज्झिमयं, कणीयसं, एक्केक्के पश्च सोल्लया, तहेव करेइ, जहा चुलणीपियस्स, नवरं एक्केक्के पञ्च सोल्लया।
२. त्यार बाद ते सुरादेव श्रमणोपासकनी पासे रात्रिना मध्य समये एक देव प्रगट थयो. ते देवे एक मोटी काळा कमळ जेवी तलवार लइने सुरादेव श्रमणोपासकने आप्रमाणे कयु-हे अप्रार्थित (मरण) नी प्रार्थना करनार सुरादेव श्रमणोपासक ! जो तुं शील वगेरेने भांगीश नहि तो तारा ज्येष्ठ पुत्रने तारा पोताना घरथी लइ जइश. लइने तारी आगळ तेनो घात करीश. घात करीने तेना मांसना पांच सोल्ल-टुकडा करीश. अने तेने आदान-आंधण-पाणी तेल वगेरेथी भरेला कडायामां उकाळीश. उकाळीने तारा शरीरने मांस अने रुधिर बडे छांटीश. जे रीते तुं आर्तध्याननी अत्यन्त परवशताथी पीडित थयेलो अकाळे जीवितथी मुक्त थइश.ए प्रमाणे मध्यम पुत्रने अने कनिष्ठ-नाना पुत्रने माटे समजबु. एक एकना पांच सोल्ल-टुकडा करीश अने तेमज करे छे-इत्यादि बधुं
२. 'जमगसमग' ति. एक काले ए अर्थ छे. 'सासे' इत्यादिने विशे यावत् शब्दनुं ग्रहण होवाथी आ प्रमाणे जाणवू-१ | श्वास, २ कास-खांसी, ३ ज्वर-ताव, ४ दाह-उष्णता, ५ कुक्षिशूल-पेटनुं शूल, ६ भगन्दर, ७ अर्श-हरस, ८ अजीर्ण, ९ दृष्टिरोग,
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उपासक
दशांग सानुवाद.
४ सुरादेव ध्ययन
॥११२॥
॥११२॥
तए णं से देवे सुरादेवं समणोवासयं चउत्थंपि एवं वयासी-हं भो सुरादेवा ! समणोवासया! अपत्थिपत्थया ४ जावन परिचयसि तो ते अज्ज सरीरंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायले पक्खिवामि, तंजहा-सासे, कासे, जाव कोढे, जहा णं तुम अदृदुहद्द० जाव ववरोविजसि । तए णं से सुरादेवे समणोवासए जाव विहरइ । एवं | देवो दोचंपि तचंपि भणइ जाव ववरोविजसि
३. तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोचंपि तचंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे चुलनीपितानी जेम जाणवू. परन्तु अहीं एक एकना पांच टुकडा समजवा. त्यारपछी ते देवे सुरादेव श्रमणोपासकने चोथी वार पण आ प्रमाणे कयु-अप्रार्थित (मरण)नी प्रार्थना करनार हे सुरादेव श्रमणोपासक ! जो तुं शील वगेरेनो त्याग नहि करे तो आजे तारा शरीरमा एक साथे सोळ रोगो मूकीश. ते आ प्रमाणे-श्वास, कास-खांसी, यावत् कोढ. जे प्रकारे तुं आर्तध्याननी अत्यन्त परवशताथी पीडित थइ अकाळे ज जीवितथी मुक्त थइश. त्यार पछी ते सुरादेव श्रमणोपासक यावद् निर्भय रहे छे. ए प्रमाणे देव बीजी वार अने त्रीजी वार पण कहे छे के यावत् तुं जीवितथी मुक्त थइश.
३. त्यार बाद ते देवे बे वार अने त्रण वार ए प्रमाणे कडं एटले ते सुरादेव श्रमणोपासकने आ आवा प्रकारनो अध्यवसाय१० मूर्धशूल-मस्तकनुं शूल, ११ अकारक-अरोचकपणुं, १२ अक्षिवेदना-आंखनी पीडा, १३ कर्णवेदना, १४ कंडू-खरज १५ उदररोग अने १६ कोढ.
उपासकदशाना चोथा अध्ययननो टीकानुवाद समाप्त.
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४ सुरादेवध्ययन
॥११३॥
उपासक- अज्झथिए ४-अहोणं इमे पुरिसे अणारिए जाव समायरइ, जेणं ममं जेडं पुत्तं जाव कणीयसं जाव आयञ्चइ,
दशांग जेवि य इमे सोलस रोगायङ्का तेऽवि य इच्छइ मम सरीरगंसि पक्खिवित्तए, तं सेयं खलु मम एवं पुरिसं सानुवाद
गिण्हित्तए त्तिकट्ठ उद्घाइए । सेवि य आगासे उप्पइए, तेण य खम्भे आसाइए, महया महया सद्देणं ॥११३॥ | कोलाहले कए।
४. तए णं सा धन्ना भारिया कोलाहलं सोचा निसम्म जेणेव सुरादेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं महया महया सद्देणं कोलाहले कए ? तए णं से सुरादेवे समणोवासए धन्नं भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! केवि पुरिसे तहेव कहेइ जहा चुलणीपिया। धन्नावि पडिभणइ-जाव कणीयसं, नो खलु देवाणुप्पिया! तुभं केवि पुरिसे सरीरंसि जमगसमगं सोलस संकल्प थयो-अहो ! आ पुरुष अनार्य छे अने यावत् अनार्य पाप कर्म करे छे. जे मारा ज्येष्ठ पुत्रने यावत् कनिष्ठ पुत्रने मारी आगळ घात करीने यावत् मांस अने रुधिर वडे मारा शरीरने छोटे छे. अने जे आ सोळ रोगो छे तेने पण मारा शरीरमां एक साथे मुकवाने इच्छे छे. तेथी मारे ते पुरुषने पकडवो श्रेयरूप छे.' एम विचार करीने ते दोडयो. ते देव पण आकाशमा उडयो. तेणे घरनो स्तंभ-थांभलो पकडयो अने अत्यन्त मोटा शब्द वडे कोलाहल कर्यो.
४. त्यार पछी ते धन्या भार्या कोलाहल सांभळीने अवधारीने ज्यां सुरादेव श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे. आवीने तेणे आ| KI प्रमाणे कड्यु-हे देवानुप्रिय ! तमे अत्यन्त मोटा शब्द वडे केम कोलाहल कर्यो ? त्यार बाद ते सुरादेव श्रमणोपासके धन्या भार्याने
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उपासक
दशांग सानुवाद
४ सुरादेवअध्ययन
॥११४॥
॥११४॥
| रोगायङ्के पक्खिवइ, एस णं केवि पुरिसे तुम्भं उवसग्गं करेइ, सेसं जहा चुलगीपियस्स तहा भणइ । एवं सेसं | जहा चुलणीपियस्स निरवसेसं जाव सोहम्मे कप्पे अरुणकन्ते विमाणे उववन्ने । चत्तारि पलिओवमाइं ठिई, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ५। निक्खेवो ॥
सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं चउत्थं अज्झयणं समत्तं ॥ | आ प्रमाणे कयु-हे देवानुप्रिये ! कोई पुरुष-इत्यादि जेम चुलनीपिताए कह्यु हतुं तेम कहे छे. धन्या पण उत्तर आपे छे-कोइ पुरुषे यावत् . कनिष्ठ पुत्रने घरथी लइने घात कयों नथी. हे देवानुप्रिय ! तमने कोइ पण पुरुष शरीरमा एक साथे सोळ रोगो मुकतो नथी. आ कोइ पण पुरुष तमने उपसर्ग करे छे. बाकी बधुं चुलनीपिताने कयुं तेम कहे छे. ए प्रमाणे बाकी बधुं चुलनीपिता संबन्धे कयुं तेम कहे. यावत् ते सौधर्म देवलोकने विशे अरुणकान्त विमानमा उत्पन्न थयो. त्यां चार पल्योपमनी स्थिति छे. ते महाविदेह क्षेत्रमा मोक्षे जशे. अहीं निक्षेप-उपसंहार कहेवो
सातमा उपासकदशांगना चोथा अध्ययननो अनुवाद समाप्त.
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५ चुल्लशत
काध्ययन
उपासक
दशांग सानुवाद ॥११५॥
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॥११५॥
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पंचमं अज्झयणं । १. एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नाम नयरी। सङ्खवणे उजाणे। जियसत्तू राया ।। चुल्लसयए गाहावई, अड्डे, जाव छ हिरण्णकोडीओ जाव छ बया दसगोसाहस्सिएणं वएणं । बहुला भारिया । सामी समोसढे । जहा आणंदो तहा गिहिधम्म पडिवजइ, सेसं जहा कामदेवो जाव धम्मपण्णत्ति उवसम्पजित्ताणं विहरह॥ २. तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तियं जाव असिं
५ चुल्लशतकाध्ययन. | १. हे ! जम्बू ए प्रमाणे खरेखर ते काळे अने ते समपे आलभिका नामे नगरी हती. शंखवन नामे उद्यान हतुं. त्यां जितशत्रु राजा हतो.. चुल्लशतक नामे गृहपति रहेतो हतो, ते आढय-धनिक हतो. यावत् तेने छ हिरण्यकोटि निधानमां, छ कोटि व्याजे अने छ कोटि द्रव्य धन धान्यादि विस्तारमा हतुं, तथा दस हजार गायोनुं एक व्रज एवां छ बजो हता. तेने बहुला नामे भार्या हती. महावीर स्वामी समोसर्या. आनन्दनी जेम ते गृहस्थ धर्मनो अंगीकार करे छे. बाकी बधुं कामदेवनी पेठे कहेवु यावत् ते धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने विहरे छे.
२. त्यार बाद ते चुल्लशतक श्रमणोपासकनी आगळ मध्य रात्रिना समये एक देव प्रगट थयो, अने तेणे यावत् तलवार
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उपासकदशांग सानुवाद
॥११६॥
गहाय एवं वयासी-हं भो चुल्लसयगा समणोवासया ! जाव न भञ्जसि तो ते अज्ज जेहं पुत्तं साओ गिहाओ नीमि, एवं जहा चुलणीपियं, नवरं एक्केके सत्त मंससोल्लया जाव कणीयसं जाव आयञ्चामि । तए णं से चुल्लसयए समणोवासए जाव विहरइ । तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं चउत्थम्पि एवं वयासी-हं भो चुल्लसयगा ! समणोवासया ! जाव न भञ्जसि तो ते अज्ज जाओ इमाओ छ हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ | बुड्डिपउत्ताओ, छ पवित्थरपउत्ताओ ताओ साओ गिहाओ नीणेभि, नीणेत्ता आलभियाए नयरीए सिङ्घाडग० जाव पसु सच्चओ समन्ता विप्पइरामि, जहा णं तुमं अहदुहट्टवसट्टे अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जसि । ग्रहण करीने आ प्रमाणे कां हे चुल्लशतक श्रमणोपासक ! यावत् शीलत्रतादिने भांगीश नहि तो आजे तारा मोटा पुत्रने तारा पोताना घरथी लइ जइश, [ अने तारा समक्ष तेनो घात करीश ] इत्यादि जेम चुलनीपिताने कधुं हतुं तेम कहेवुं, परन्तु एक एकना सात मांससोल-मांसना टुकडा करीश, यावत् नाना पुत्रनो घात करी तेना लोही अने मांस वडे तारा शरीर उपर छांटीश. ते पछी चुलशतक श्रमणोपासक निर्भीक - नीडर रहे छे. त्यार बाद ते देवे चुल्लशतक श्रमणोपासकने चोथी वार पण आ प्रमाणे कयुं-हे चुल्लशतक | श्रमणोपासक ! यावत् तुं शीलवतादिने भांगीश-छोडीश नहि तो आजे जे तारुं छ हिरण्यकोटि द्रव्य निधानमां मूकेलं छे, छ कोटि व्य. जे मूकेलं छे अने छ कोटि धनधान्यादिना विस्तारमां छे, तेने तारा पोताना घरथी लइ जइश अने लइने आलभिका नगरीना शृङ्गाटक मार्गमां यावत् त्रिक, चत्वर अने मोटा मार्गमां चारे तरफ सघले स्थळे ज्यां त्यां फेंकी दश. जेथी तुं आर्तध्याननी अत्यन्त परवशताथी पीडित थयेलो अकाळे जीवितथी मुक्त थइश.
५ चुल्लशतकाध्ययन
॥११६॥
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उपासक
दशांग सानुवाद
५ चुल्लशतकाध्ययन
॥११७॥
॥११७॥
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३. तए णं से चुल्लसयए समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ । तए णं से देवे चुल्ल- सयगं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता दोचम्पि तच्चम्पि तहेव भणइ जाव ववरोविजसि । तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोचम्पि तचंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए ४'अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जहा चुलणीपिया तहा चिन्तेइ जाव कणीयसं जाव आयञ्चइ । जाओऽवि य णं इमाओ मम छ हिरणकोडीओ निहाणपउत्ताओ छ बुड्डिपउत्ताओ छ पवित्थरपउत्ताओ ताओऽवि यण इच्छइ ममं साओ गिहाओ नीणेत्ता आलभियाए नयरीए सिङ्घाडग. जाव विप्पइरित्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए'त्तिकट्ठ उद्धाइए जहा सुरादेवो तहेव भारिया पुच्छइ तहेव कहेइ ५। सेसं जहा चुलणीपि
३. त्यार बाद ते चुल्लशतक श्रमणोपासक ते देवे एम कयु एटले निर्भय थइने रहे छे. त्यार पछी ते देव चुल्लशतक श्रमणोपासकने निर्भय रहेलो यावत् जोइने बीजी वार अने त्रीजी वार पण एम ज कहे छे के यावत् तुं जीवितथी मुक्त थइश. ते देवे बीजी वार अने त्रीजी वार ए प्रमाणे को एटले चुल्लशतक श्रमणोपासकने आ आवा प्रकारनो संकल्प थयो–'अहो आ पुरुष अनार्य छे-इत्यादि चुलनीपितानी जेम चिंतवे छे, यावत् नाना पुत्रनो घात करीने तेना रुधिर अने मांस बडे मारा शरीरने छोटे छे अने वळी जे * छ हिरण्यकोटि निधानमा मूकेली, छ व्याजे मूकेली अने छ धनादि विस्तारमा रोकेली छे तेने पण मारा पोताना घरथी लइने आलभिका नगरीना शृंगाटक वगेरे मार्गमां चारे तरफ ज्यां त्यां फेंकी देवाने इच्छे छे, माटे मारे ए पुरुषने पकडवो योग्य छ | एम विचारी तेने पकडवाने ते दोडयो-इत्यादि यावत् सुरादेवनी जेम तेनी भार्या पूछे छे अने ते तेमज कहे छे. बाकी बधं चुलनी
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥११८॥
यस्स जाव सोहम्मे कप्पे अरुणसिहे विमाणे उववन्ने, चत्तारि पलिओवमाई ठिई । सेसं तहेव जाव महावि
सतह जाव महा५ चुल्लशत| देहे वासे सिज्झिहिइ ५॥ निक्खेवो।
काध्ययन सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं पञ्चमं अज्झयणं समत्त पितानी पेठे जाणवू. यावत् ते सौधर्म देवलोकमां अरुणशिष्ट विमानने विशे उत्पन्न थयो. तेनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे. ॥११८॥ वाकी बधुं तेमज कहेवु यावत् ते महाविदेह क्षेत्रने विशे सिद्धिपदने पामशे. अहीं निक्षेप कहेवो.
सातमा उपासकदशांगना पांचमा अध्ययननो अनुवाद समाप्त. १.३. पांच, अध्ययन स्पष्ट छे.
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उपासक
दशांग सानुवाद
६ कुंडकोलिक अ
ध्ययन. ||११९॥
॥११९॥
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छटुं अज्झयणं । १. छट्ठस्स उक्खेवओ। एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कम्पिल्लपुरे नयरे । सहसम्बवणे उजाणे । जियसत्तू राया । कुण्डकोलिए गाहावई । पूसा भारिया। छ हिरणकोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ वुड्डिपउत्ताओ, छ पवित्थरपउत्ताओ, छ वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं । सामी समोसढे । जहा कामदेवो तहा सावयधम्म पडिवजइ । सच्चेष वत्तव्वया जाव पडिलामेमाणे विहरइ । २. तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए अन्नया कयाइ पुवावरण्हकालसमयसि जेणेव असोगवणिया
६ कुंडकोलिक अध्ययन. १. अहीं छठा अध्ययननो उत्क्षेप-उपोद्घात कहेवो. ए प्रमाणे खरेखर हे जम्बू ! ते काळे अने ते समये कांपिल्यपुर नगर हतुं. सहस्राम्रवन उद्यान हतुं. जितशत्रु राजा हतो. कुंडकोलिक गृहपति हतो. तेने पुष्या नामे भार्या हती. तेणे छ हिरण्यकोटी निधानमा मूकेली, छ वृद्धि-व्याजे मूकेली अने छ धन धान्यादिना विस्तारमा रोकेली हती. दस हजार गायो, एक ब्रज एवां छ व्रजो हता. महावीर स्वामी समोसर्या. कामदेवनी जेम ते श्रावक धर्मनो स्वीकार करे छे-इत्यादि तेज वधी वक्तव्यता कहेवी यावत् ते (श्रमण निर्ग्रन्थोनो अशनादि वडे ) सत्कार करतो विहरे छे.
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उपासक
दशांग सानुवाद
६ कुंडकोलिक अ. ध्ययन.
॥१२०॥
॥१२०॥
जेणेव पुढविसिलापट्टए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नाममुद्दगं च उत्तरिजगं च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, ठवेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवसम्पजित्ता णं विहरइ ।
३. तए णं तस्स कुण्डकोलियस्स समणोवासयस्स एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था । तए णं से देवे नाममुद्दे | २. त्यार बाद ते कुंडकोलिक श्रमणोपासक अन्य कोइ दिवसे मध्याह्न समये ज्यां अशोकवनिका छे अने ज्यां पृथ्वीशिलापट्ट छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने नामांकित मुद्रिका (बीटी) अने उत्तरीय वस्त्रने पृथ्वीशिला पट्ट उपर मूके छे. मूकीने श्रमण
भगवंत महावीरनी पासे धर्मप्रज्ञप्तिने स्वीकारी विहरे छे. । ३. ते वार पछी ते कुंडकोलिक श्रमणोपासकनी पासे एक देव प्रगट थयो, अने ते देव ते कुंडकोलिक श्रमणोपासकनी नाममुद्रा अने उत्तरीय वस्त्रने पृथिवीशिला पट्ट उपरथी ग्रहण करे छे. ग्रहण करीने घुघरीओ सहित श्रेष्ठ वस्त्रो जेणे पहेरेलां छे एवा ते
१-२-३ हवे छट्ठा अध्ययन संबन्धे कंइक लखीए छीए-'धम्मपण्णत्ति'त्ति । धृतधर्मनी प्ररूपणा, दर्शन, मत, सिद्धान्त ए तेनो अर्थ छे. 'उत्थानं' उठवू, बेटेलो उभो थाय ते उत्थान, 'कर्म' जवू, आवq वगेरे. 'बलं' शरीरनुं सामर्थ्य, 'वीर्य' जीवनुं सामर्थ्य 'पुरुषकारः' पुरुषपणानुं अभिमान, 'पराक्रमः' ज्यारे पुरुषकार पोतानुं प्रयोजन सिद्ध करे त्यारे पराक्रम कहेवाय छे. 'इति' उपदर्शन अर्थमां छे. जीवोने विशे उत्थानादि नथी, पटले के ते निष्प्रयोजन छे, कारण के ते पुरुषार्थना साधक नथी. तेनुं असाधकपणुं पुरुषकार होवा छतां पण पुरुषार्थनी सिद्धि थती नथी. माटे ५ रीते सर्व भावो नियत-नियतिने आधीन छे. जे जे प्रकारे थवार्नु छे ते ते प्रकारे थाय छे, परन्तु पुरुषकारना बलथी अन्यथा करवू शक्य नथी. ए संबन्धे का छ के
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उपासक
दशांग सानुवाद
६ कुंडकोलिक अध्ययन.
॥१२१॥
॥१२॥
च उत्तरिजं च पुढविसिलापट्टयाओ गेण्हइ, गेण्हेत्ता सखिखिणि० अन्तलिखपडिवन्ने कुण्डकोलिंय समणोवासयं एवं वयासी-हं भो कुण्डकोलिया समणोवासया! सुन्दरी णं देवाणुप्पिया गोसालस्स मङ्कलिपुत्तस्स देवे आकाशमां रहीने कुंडलोकिक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कड्यु-हे देवानुप्रिय कुंडकोलिक श्रमणोपासक! मंखलिपुत्र गोशालकनी धर्मप्रज्ञप्ति सुंदर छे, (केमके तेनी धर्मप्रज्ञप्तिमां). उत्थान, कर्म, बल, वीर्य अने पुरुषकार-पराक्रम नयी, सर्व भावो नियत
'प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥"
नहि भवति यन्न भाव्यं भवति च भाव्यं विनाऽपि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यति यस्य तु भवितव्यता नास्ति ॥" . "नियतिना सामर्थ्यनो आश्रय करवा वडे मनुष्योने शुभ अथवा अशुभ जे अर्थ प्राप्त थवानो छे ते अवश्य थाय छे. मोटो प्रयत्न |करवामां आवे तो पण प्राणीओने जे थवानुं नथी ते थतं नथी अने जे थवान छेतेनो नाश थतो नथी.
जे थवानुं नथी ते थतुं नथी अने जे थवानुं छे ते यत्न सिवाय पण थाय छे. जेनी भवितव्यता नथी ते हाथमा रहेलुं होय तो पण नाश पामे छे."
माटे श्रमण भगवंत महावीरनी 'मंगुली' खराब-अयुक्त 'धर्मप्रज्ञप्तिः श्रुतधर्मनी प्ररूपणा छे. केवा प्रकारनी छ ? तेना उत्तरमां कहे छे-'अस्ति'इत्यादि. बधा भावो अनियत छे, कारण के ते उत्थानादिथी थाय छे अने उत्थानादि सिवाय थतां नथी. तेथी कुंडकोलिके ते देवने ए प्रमाणे कां-जो गोशालकनो 'उत्थानादि नथी माटे सर्व भावो नियत छे' एवा प्रकारनो सुन्दर धर्म छे, अने 'उत्थानादि छे माटे सर्व भावो अनियत छे' पवा प्रकारनो महावीरनो धर्म अयुक्त छ, एम तेना मतनो अनुवाद करीने कुंडकोलिक तेना मतने
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥१२२॥
धम्मपण्णत्ती, नथि उठाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसक्कारपरक्कमे इवा, नियया सव्वभावा,
६ कुंडकोमंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती, अत्थि उहाणे इ वा, कम्मे इ वा, बले इ वा वीरिए
लिक अइ वा, पुरिसक्कारपरक्कमे इ वा, अणियया सव्वभावा।
ध्ययन. (नियतिने आश्रित) छे. श्रमण भगवंत महावीरनी धर्म प्रज्ञप्ति मंगुली-खराब छे. (कारण के तेमना मते) उत्थान, यावत् पुरुष
॥१२२॥ कार-पराक्रम छे. सर्व भावो अनियत छ (नियतिने आश्रित नथी). दृषित करवा माटे बे विकल्प करे छे-'तुमे ण ' इत्यादि. पूर्वना वाक्यमा 'यदि जो-ए पदनुं ग्रहण करेलु होवाथी आ वाक्यनी आदिमां 'तदा' तो-ए पदनो अध्याहार जाणवो. तो ते आ दिव्य देवऋद्धि वगेरे गुण शाथी प्राप्त कर्यों ? शं उत्थादि वडे 'उदाहु अथवा उत्थानादि सिवाय ? पटले के तप ब्रह्मचर्य वगेरेना आचरण सिवाय प्राप्त कर्यों ? जो उत्थानादि सिवाय प्राप्त कयों-ए पक्ष | गोशालकना मतनो आश्रय करेलो होवाथी तने संमत छे तो जे जीवोने उत्थानादि-तपश्चर्या वगेरे नथी ते जीवो देवो केम नथी? पूछनारनो आ अभिप्राय छे-जेम तारी मान्यताथी तुं पुरुषकार विना देव थयो छे, पण सर्व जीवो जे उत्थानादि विनाना छे ते देवो 10 थवा जोइए, परन्तु प प्रमाणे इष्ट नथी, माटे उत्थानादिनो अपलाप करवाना पक्षमा दूषण छे. अने जो ते आ ऋद्धि उत्थानादि वडे प्राप्त करी छे तो जे तुं कहे छे के 'गोशालकनो मत सुन्दर छे अने महावीरनो मत सुन्दर नथी ते तारं मिथ्या वचन छे, कारण के तेनो व्यभिचार-अन्यथापणुं छे. तेणे पम कां पटले ते देव 'शंकितः' शंकावाळो थयो-शु गोशालकना मत सत्य छे के महाबीरनो मत सत्य छे! कारण के तेणे महावीरनो मत युक्तिथी सिद्ध कयों छे, तेथी आवा प्रकारना विकल्पवाळो थयो. 'कांक्षितः' महाबीरनो मत पण सारो छे, कारण के युक्तियुक्त छे' आवा प्रकारना विकल्पवाळो थयो. यावत् शब्दना कथनथी 'भेदमापन्नः' | 00) मतिमेदने प्राप्त थयो. कारण के 'गोशालकनो मत ज सारो छ प निश्चयथी रहित थयो छे. तथा 'कलुषं समापन्नः' पूर्वना निश्च-14
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उपासक
दशांग सानुवाद.
६ कुंडकोलिक अध्ययन.
॥१२३॥
॥१२३॥
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४. ताणं से कुण्डकोलिए समणोवासा तं देवं एवं वयासी-जहणं देवा ! सुन्दरी गोसालस्स मङलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती-नत्थि उहाणे इ वा जाव नियया सवभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्म धम्मपण्णत्ती-अस्थि उहाणे इ वा जाव अणियया सव्वभावा, तुमे णं देवा ! इमा एयारूवा दिव्या देविही दिव्वा देवज्जुई दिब्वे देवाणुभावे किणा लढे, किणा पत्ते, किणा अभिसमन्नागए, कि उहाणेणं जाव पुरिसकारपरकमेणं, उदाह अणुट्टाणेणं अकम्मेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं? तए णं से देवे कुण्डकोलियं समणोवासयं एवं बयासी-एवं खलु, देवाणुप्पिया ! मए इमेयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ अणुहाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरकमेणं
४. त्यार बाद ते कुंडकोलिक श्रमणोपासके ते देवने आ प्रमाणे कयु-हे देव ! जो मंखलिपुत्र गोशालकनी धर्मप्रज्ञप्ति, (जेमां) उत्थान नथी, यावत् सर्व भावो नियत छ-ए सुंदर होय अने श्रमण भगवंत महाबीरनी 'उत्थान छे, यावत् सर्व भावो अनियत छे ए धर्मप्रज्ञप्ति खराब होय तो हे देव ! तें आ दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव-देवप्रभाव शाथी मेळव्यो, शाथी प्राप्त कयों, शाथी अभिमुखपणे प्राप्त कयों? शुं उत्थान वडे, यावत् पुरुषकार-पराक्रम वडे ? अथवा उत्थान सिवाय, कर्म सिवाय के पुरुषकार-पराक्रम सिवाय ? ते वार पछी ते देवे कुंडकोलिक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कर्यु-ए प्रमाणे खरेखर हे देवानुप्रिय ! में यथी विपर्ययरूप कलुषपणाने प्राप्त थयो छे. गोशालकमतने अनुसरनारना मत बडे मिथ्यात्वने प्राप्त थयेलो छे. अथवा 'आणे मते जित्यो' ए खेदप कलुषित भावने प्राप्त थयो. तेथी ते कुंडकोलिक श्रमणोपासकने 'किंचि पामोक्वं' कंद पण उत्तर आइक्वित्तए 'आख्यातुं' आपवाने 'नो संचापद' शक्तिमान् थतो नथी.
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उपासक
दशांग सानुवाद.
लिक अध्ययन.
॥१२४॥
॥१२४॥
लद्धा पत्ता अभिसमन्नगया। तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा! तुमे इमा | एयारूवा दिव्या देविड्डी ३ अणुहाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, जेसि णं जीवाणं नत्थि उहाणे इ वा जाव परकमे इ वा, ते किं न देवा ? अह णं देवा ! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ उहाणेणं जाव परकमेणं लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, तो जं वदसि-सुन्दरी णं गोसालस्स मङ्खलिपुत्तस्स धम्मपण्णत्ती, नत्थि उहाणे इ वा जाव नियया सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्तीअस्थि उहाणे इ वा जाव अणियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा। तए णं से देवे कुण्डकोलिएणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए जाव कलुसं समावन्ने नो संचाइ कुण्डकोलियरस समणोवासयस किंचि पामोक्खमाइक्खि. आ आवा प्रकारनी दिव्य देवऋद्धि उत्थान सिवाय यावत् पुरुषकार-पराक्रम सिवाय मेळवी छे, प्राप्त करी छे, अभिमुख पणे प्राप्त करी छे. त्यार बाद ते कुंडकोलिक श्रमणोपासके ते देवने ए प्रमाणे कयु-हे देव ! जो तें आ आवा प्रकारनी दिव्य देवद्धि उत्थान सिवाय यावत् पुरुषकार-पराक्रम सिवाय मेळवी, प्राप्त करी अभिमुखपणे प्राप्त करी छे तो जे जीवोने विशे उत्थान नथी, यावत् पुरुपकार-पराक्रम नथी ते देवो केम नथी ? हे देव ! जो तें आ आवा प्रकारनी दिव्य देवर्द्वि उत्थान वडे यावत् पुरुषकारपराक्रम बडे मेळवी, प्राप्त करी अने अभिमुखपणे प्राप्त करी तो पछी तुं जे कहे छे के मंखलिपुत्र गोशालकनी धर्मपज्ञप्ति सुंदर छे, कारण के (तेमां) उत्थान नथी, यावत् सर्व भावो नियत छे, श्रमण भगवंत महावीरनी धर्मप्रज्ञप्ति खराब छे, (कारण के तेमां) उत्थान छे, यावत् सर्व भावो अनियत छे, ते मिथ्या छे. त्यार बाद कुंडकोलिक श्रमणोपासके ए प्रमाणे का एटले ते देव शंकित थयो, यावत् कलुष
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त
"
उपासकदशांग सानुवाद
६ कुंडकोलिक अ
ध्ययन ॥१२५॥
॥१२५॥
|त्तए, नाममुद्दयं च उत्तरिजयं च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
५. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसंढे । तए णं से कुण्डकोलिए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धडे हट्ठ० जहा कामदवो तहा निग्गच्छइ जाव पज्जुवासइ । धम्मकहा ।
६. 'कण्डकोलिया इसमणे भगवं महावीरे कुण्डकोलिय समणोवासयं एवं बयासी-से नणं कुण्डकोविपर्ययने प्राप्त थयो अने कुंडकोलिक श्रमणोपासकने कई पण उत्तर आपवाने शक्तिमान् न थयो. तेणे नाममुद्रा अने उत्तरीय वस्त्रने पृथिवीशिलापट्ट उपर मूक्या, अने मृकीने जे दिशाथी आव्यो हतो ते दिशा तरफ गयो. ..
५. ते काळे अने ते समये महावीर स्वामी समोसर्या. त्यारे ते कुंड कोलिक श्रमणोपासक आ महावीर स्वामी आव्यानी वात वडे विदित थयेलो हृष्ट-प्रसन्न थयो अने कामदेवनी पेठे वंदन करवा माटे नीकळे छे यावत् पर्युपासना करे छे. (भगवंते) | धर्म कथा कही.
६. 'हे कुंडकोलिक' एम संबोधी श्रमग भगवान महावीरे कुंडकोलिक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे का-हे कुंडकोलिक ! खरेखर ६ 'गिहमज्झावसन्ताण'ति गृहवासमा रहेनारा, 'ण' वाक्यालंकारमा वपराय छे. 'अन्ययूथिकान' अन्यतीथिकोने 'अर्थः' जीवादि पदार्थों वडे, अथवा सूत्रना अर्थो वडे, हेतुभिः' अन्वय' अने व्यतिरेक स्वरूपवाळा हेतुओ वडे, 'प्रश्नः' बीजाने पूछवा योग्य पदार्थो वडे,
१ यत्सत्त्वे यत्सत्त्वमन्वयः' जेना अस्तित्वमा जेनुं अस्तित्व होय ते अन्वय, अने 'यदभावे यदभावो व्यतिरेकः' जेना अभावमा जेनो अभाव होय ते व्यतिरेक. कायकारणभाव अन्वय ब्यतिरेकथी जणाय छे, जेमके माटीना अस्तित्वमा घटर्नु अस्तित्व अने तेना अभावमा घटनो अभाव छे, माटे माटी घटनु कारण छे.
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उपासक-1
दशांग सानुवाद ॥१२६॥
६ कुंडकोलिक अध्ययन
| ॥१२६॥
| लिया ! कलं तुब्भ पुब्वावरण्हकालसमयंसि असोगवणियाए एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था। तए णं से देवे नाममुदं च तहेव जाव पडिगए । से नूणं कुण्डकोलिया! अढे समझे ? हन्ता अस्थि । तं धन्ने सिणं तुम कुण्डकोलिया! जहा कामदेवो । 'अज्जो' इ समणे भगवं महावीरे समणे निग्गन्थे य निग्गन्धीओ य आमन्तित्ता एवं वयासी-जइ ताव अज्जो गिहिणो गिहमज्झावसन्ता णं अन्नउत्थिए अटेहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणे करेन्ति, सका पुणाई अज्जो समणेहिं निग्गन्थेहिं दुवालसङ्गं काले तारी पासे मध्याह्न समये अशोकवानिकामां कोई एक देव आव्यो हतो. त्यार बाद ते देवे तारी नाममुद्रा अने उत्तरीय लइ ली, इत्यादि यावत् ते पाछो गयो. हे कुंडकोलिक! खरेखर आ अर्थ सत्य छे ? हा, छे. तो कुंडकोलिक ! तुं धन्य छो, वगेरे कामदेवनी पेठे कहेवू. 'हे आर्यो' एम संबोधी श्रमण भगवंत महावीरे निर्ग्रन्थो अने निर्ग्रन्थीओने आ प्रमाणे कडं-हे आर्यो ! जो गृहस्थावासमा रहेता गृहस्थो अर्थ, हेतु, प्रश्न, कारण अने उत्तर वडे अन्यतीथिकोने निरुत्तर करे छे तो हे आर्यो ! द्वादशांग 'कारणः' उपपत्ति-युक्तिओ बडे, साविती चडे, 'व्याकरणैः' बीजाए पूछेला प्रश्नोना उत्तर आपवा बडे, 'निप्पपसिणवागरणे' त्ति. निरस्त अने स्पष्ट कर्या छे प्रश्नना व्याकरण-उत्तरो जेओना एघा, अथवा प्राकृत होवाथी 'निष्पिष्टप्रश्नव्याकरणान्' निष्पिष्ट-खंडन | |करेला छे प्रश्शना उत्तरो जेओना पवा प्रकारना करे छे. 'सका पुणति हे आयों! श्रमणोप निरस्त अने स्पष्ट करेला छे प्रश्नोत्तर | जेओना पवा अन्यतीर्थिकोने करवा शक्य ज छे.
उपासकदशाना छठा अध्ययननो टीकानुवाद समाप्त.
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥१२७॥
गणिपिडगं अहिज़माणेहिं अन्नउत्थिया अट्ठेहि य जाव निष्पट्टपसिणवागरणा करित्तए । तए णं समणा निगन्धाय निग्गन्धीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स तहत्ति एयमहं विणएणं पडिसुणेन्ति । तए णं से कुण्डको लिए समणोवासए समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वदित्ता नमसित्ता परिणाई पुच्छड, पुच्छित्ता अट्टमादियर, आदिइत्ता जामेव दिसं पाउवभूए तामेव दिसं पडिगए। सामी बहिया जणवयविहारं विहरइ । ७. तए णं तस्स कुण्डकोलियस्स समणोवासयस्स बहहिं सीलव्जाव भावेमाणस्स चोदस्स संच्छराई इन्ताई, पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अन्तरा वहमाणस्स अन्नया कयाइ जहा कामदेवो तहा जेट्ठपुत्तं वेत्ता तदा पोसहसालाए जाव धम्मपण्णत्ति उवसम्पजित्ता णं विहरः । एवं एक्कारस उवासगपडिमाओ तहेब जाव गणिपिटकनुं अध्ययन करता एवा श्रमण निर्ग्रन्थोए अर्थ वडे यावत् अन्यतीर्थिकोने निरुत्तर - निरास करवा शक्य छे. त्यार | पछी श्रमण निर्ग्रन्थो अने निर्ग्रन्थीओ श्रमण भगवंत महावीरना ए अर्थने 'तह'त्ति कही विनय वडे स्वीकारे छे. त्यार बाद कुंड कोलिक श्रमणोपासक श्रमण भगवंत महावीरने वन्दन अने नमस्कार करे छे. वन्दन अने नमस्कार करी, प्रश्नो पूछे छे, पूछीने अर्थने ग्रहण करे छे, अर्थ ग्रहण करीने जे दिशाथी आव्यो हतो ते दिशा तरफ गयो. पछी महावीरस्वामी बहारना देशोमां विहार करे छे.
त्यार बाद ते कुंडकोलिक श्रमणोपासकने घणा शील- व्रतादि बडे यावत् आत्माने भावित करता चौद वर्ष व्यतीत थया अने पंदरमा वर्षानी बच्चे वर्तता तेने अन्य दिवसे ( कदाचित् मध्य रात्रिना समये धर्मजागरण करतां आवा प्रकारनो संकल्प थयो-इत्यादि) कामदेवनी पेठे ते प्रमाणे ज्येष्ठ पुत्रने स्थापीने अने तेमज पोपधशालामां यावद् धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने विहरे छे. एम
६ कुंडकोलिक अ ध्ययन
॥१२७॥
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उपासक दशांग सानुवाद
७ सद्दालपुत्र ध्ययन
सोहम्मे कप्पे अरुणज्झए विमाणे जाव अन्तं काहिह । निक्खेवो॥
___ सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं छठें अज्झयणं समत्तं अगियार उपासक प्रतिमाओ तेमज पाळीने यावत् सौधर्म देवलोकमां अरुणध्वज विमानने विशे उत्पन्न थयो यावत् पछी (म- | हाविदेहमां) कर्मोनो अन्त करशे. अहीं निक्षेप कहेवो.
सातमा उपासकदशाना छट्ठा अध्ययननो अनुवाद समाप्त.
॥१२८॥
||१२८॥
७ अज्झयणं । १. सत्तमस्स उक्खेवो। पोलासपुरे नाम नयरे । सहस्सम्बवणे उजाणे । जियसत्तू राया। तत्थ णं पोलासपुरे नयरे सद्दालपुत्ते नाम कुम्भकारे आजीविओवासए परिवसइ, आजीवियसमयंसि लद्धढे गहियढे पु
७ सद्दालपुत्र अध्ययन. १. सातमा अध्ययननो उपोद्घात कहेवो-(श्रमण भगवान् महावीरे छट्ठा अध्ययननो आ अर्थ कह्यो छे तो सातमा अध्यय| ननो शो अर्थ छे ?) पोलासपुर नामे नगर हतुं. सहसाम्रबन नामे उद्यान हतुं. जितशत्रु राजा हतो. ते पोलासपुर नगरमा आजीविकना
१. सातमु अध्ययन सुगमज छे, परन्तु 'आजीविओवासपत्ति. 'आजीविकाः' गोशालकना शिष्यो, तेओनो उपासक-श्रावक 'लब्धार्थ'
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उपासकदशांग सानुवाद
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१२९॥
॥१२९॥
च्छियट्टे विणिच्छियढे अभिगयढे अद्विमिंजपेमाणुरागरत्ते य, अयमाउसो! आजीवियसमए अढे अयं परमढे सेसे अणद्वेत्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एक्का हिण्णकोडी निहाणपउत्ता, एक्का बुड्विपउत्ता, एक्का पवित्थरपउत्ता, एके वए दसगोसाहस्सिएणं वएणं || तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स अग्गिमित्ता नाम भारिया होत्था । तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पोलासपुरस्स नगरस्स बहिया पश्च कुम्भकारावणसया होत्था । तत्थ णं बहवे पुरिसा दि| पणभइभत्तवेयणा कल्लाकल्लिं बहवे करए य वारए य पिहडए य घडए य अद्धघडए य कलसए य अलिञ्जरए सिद्धान्तनो अर्थ जेणे जाण्यो छे, जेणे अर्थ ग्रहण कर्यो छे, जेणे अर्थ पूछयो छे, जेणे अर्थ विशेषतः निश्चित कर्यो छे अने जेणे तात्पर्यथी अर्थने जाण्यो छे एवो, तथा अस्थिनी मज्जामां प्रेमना अनुराग बडे रंगायेलो आजीविकनो उपासक सद्दालपुत्र नामे कुंभार रहेतो हतो. हे आयुष्मन् ! आ 'आजीविकनो समय-सिद्धान्त एज अर्थरूप छे, एज परमार्थरूप छे अने बाकी बधु अनर्थ रूप छ' एम ते आजीविकना समय वडे आत्माने भावतो-वासित करतो विहरे छे. ते आजीविकना उपासक सद्दालपुत्रने एक श्रवणथी अर्थ जाणेलो छ जेणे पयो, एटले जेणे श्रवण मात्र करेलुं छे पवो, 'गृहीतार्थः' बोध थवाथी जेणे अर्थ जाणेल छे पवो, 'पृष्टार्थः' संशय पडवाथी जेणे अर्थ पूछ्यो छे पवो, 'निश्चितार्थः' उत्तर मळवाथी विशेष निश्चित करेल छे अर्थ जेणे एवो आजीविकोपासक सद्दालपुत्र है.
'दिण्णभइभत्तवेयण त्ति दत्तभृतिभक्तवेतनः-आप्यु छे भृति-पगार, भक्त-भोजन रूप वेतन-मूल्य जेओने एवा. 'कल्लाकलिं'
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उपासक दशांग सानुवाद
॥१३॥
BOOKCEERXXX
य जम्बूलए य उट्टियाओ य करेन्ति । अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा कल्लाकल्लिं तेहिं बहहिं|
ICO७ सद्दालपुत्र करएहि य जाच उहियाहि य रायमग्गंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरन्ति ।
अध्ययन २. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ पुब्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालस्स मङ्खलिपुत्तस्स अन्तियं धम्मपण्णत्तिं उवसम्पजित्ता गं
॥१३०॥ हिरण्यकोटि निधानमा रहेली, एक व्याजे मृकेली अने एक कोटि धनधान्यादिना विस्तारमा रोकायेली हती. तेने दस हजार गायोर्नु एक व्रज हतुं. ते आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने अग्निमित्रा नामे भार्या हती. ते आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने पोलासपुर नगरनी बहार कुंभकारना पांचसो हाट हता. तेमां जेने भृति-पगार अने भोजन रूप वेतन-मूल्य आप्यु छ एवा घणा पुरुषो दरेक प्रभाते घणा करक, वारक, पिठर, थट, अर्धघट, कलश, अलिंजर, जंबूल अने उष्ट्रिका करे छे. अने जेने पगार अने भोजनरूप मूल्य आप्यु छे एवा | बीजा घणा पुरुषो दरेक प्रभाते ते घणा करको, यावत् उष्ट्रिका वडे राजमार्गमा पोतानी आजीविका करता विहरे छे.
२. त्यार बाद ते आजीविकोपासक सद्दालपुत्र अन्य कोई दिवसे मध्याह्नकाळे ज्यां अशोकवनिका छे त्यां आवे छे. त्यां दरेक प्रभाते, 'बहुन् करकान्'-पाणी भरवानी घडीओ, 'वारकान्' गटकुडां, पिठरकान्' तावडीओ, 'घडकान्' घडाओ, 'अर्धघटकान्' अरधो घडो पाणी समाय तेवा नाना घडा, 'कलशकान्' अमुक प्रकारना आकारवाळा मोटा घडाओ, 'जंवूलकान्' लोकनी प्रसिद्धिथो जाणवा योग्य (चंबुओ), 'उष्ट्रीकाः' मद्य अने तेल वगेरेना पात्र विशेष, गाडवा.
२. 'पहिर' आवशे, 'इहं' था नगरमां, 'महामाहणे'त्ति. मा इन्मि-हुं नहि हर्ण, अथवा पोते हनन-हिंसाथी निवृत्त थइ बीजाने 'मा हन'-न हणो पम कहे ते माहन, अने तेज मन, वचन करणादि वडे आजन्म-जन्म पर्यन्त ? (जीवनपर्यन्त) सूक्ष्मादि मेदवाळा
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उपासकदशांग सानुवाद
मद्दालपुत्र अध्ययन
॥१३॥
१३१॥
विहरइ । तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था । तए णं से देवे अन्तलिक्खपडिवन्ने सखिखिणियाइं जाव परिहिए सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-एहिइणं देवाणुप्पिया ! कल्लं इहं महामाहणे उप्पन्नणाणदंसणधरे तीयपटुपन्नमणागयजाणए अरहा जिणे केवली सव्वण्णू सव्वदरिसी तेलोक्कवहियमहियपूइए सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अच्चणिज्जे वन्दणिज्जे सक्कारणिज्जे संमाणणिज्जे कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेइयं जाव पज्जुवासणिज्जे तच्चकम्मसम्पयासम्पउत्ते, तं णं तुम वन्देजाहि, जाव आवीने मंखलिपुत्र गोशालकनी पासे धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने विहरे छे. ते पछी आजीविकोपासक सद्दालपुत्रनी पासे एक देव आव्यो, अने घुघरीओ सहित श्रेष्ठ वस्त्र जेणे पहेरेला छे एवा ते देवे 'अंतरीक्षप्रतिपन्नः' आकाशमा रही आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने आ प्रमाणे कडं-हे देवानुप्रिय ! आवती काले अहीं महामाहग, उत्पन्न थपेला ज्ञान अने दर्शनने धारण करनारा, अतीत, वर्तमान अने भविष्यने जाणनारा, अरिहंत, जिन, केवली, सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी त्रण लोक वडे अवलोकित, महित-स्तुति करायेला अने पूजित, देव, मनुष्य अने असुर सहित लोकने अर्चनीय, वन्दनीय, सत्कार करवा योग्य, सन्मान करवा योग्य, कल्याग, मंगल, देव अने चैत्यनी पेठे उपासना करवा योग्य, सत्य कर्मनी संपत्तियुक्त एवा (पुरुष) आवशे, माटे तुं वंदन करजे, यावत् पर्युजीवनी हिंसाथी निवृत्त थयेल होवाथी महामाहन कहेवाय छे. पटले आ नगरमां महामाहन आवशे. 'उप्पन्ननाणदसणधरे उत्पन्न-आवरणना क्षयथी प्रगट थयेल ज्ञान अने दर्शनने धारण करनार, अने एथीज 'अतीतप्रत्युत्पन्नागतज्ञायकः' अतीत-भूत, प्रत्युत्पन्न-वर्तमान अने अनागत-भविष्य काळने जाणनार, 'अरहति अशोक वृक्षादि महाप्रातिहार्यरूप पूजाने योग्य होवाथो अर्हन् , अथवा सर्वज्ञ
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उपासक दशांग सानुवाद ॥१३२॥
| पज्जुवासेन्जाहि, पाडिहारिएणं पीढफलगसिज्जासंथारएणं उवनिमन्तेजाहि । दोच्चपि तचंपि एवं वयइ, वइत्ता
C७ सद्दालपुत्र जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए।
अध्ययन ३. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झ पासना करजे, तथा प्रातिहारिक (पाछा आपवा योग्य) पीठ-आसन, फलक-पाटीउ, शय्या-वसति-स्थान, अने संस्तारक-संथारा
॥१३२॥ वडे निमंत्रण करजे. एम बीजीवार अने त्रीजीवार कह्यु , कहीने (ते देव) जे दिशाथी आव्यो हतो ते दिशा तरफ गयो.
३. त्यार बाद ते देवे ए प्रमाणे कयुं एटले आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने आ आवा प्रकारनो अध्यवसाय थयो-ए प्रमाणे होवाथी अविद्यमान छे रह-एकान्त जेने ते 'अरहाः' जेने एकान्त-छानुं नथी एवा, रागादिनो जय करनार होवाथी जिन, केवलपरिपूर्ण, शुद्ध अथवा अनन्त शानादि जेने छे ते केवली, अतीतादिनुं ज्ञान छतां सर्व ज्ञान प्रति शंका थाय माटे सर्वक्ष-सर्वने विशे. षपणे जाणनार. कारण के तेमने साकार उपयोग छे. 'सर्वदर्शी' अनाकार उपयोगना सामर्थ्यथी सर्वने सामान्यपणे देखनार, तथा 'तेलोक्वहियमहियपूयए' प्रण लोक वासी जन वडे 'अवहितः' सर्व ऐश्वर्यादि. अतिशयना समूहने जोवामां तत्पर मन वडे अत्यन्त हर्ष वडे अने अतिशय कुतूहलथी अनिमेष लोचन वडे जोयेला, 'महियत्ति सेव्यपणे इच्छित, 'पूजितः' पुष्पादिथी पूजायेला पवा. पज बाबतने स्पष्ट करे छे. 'सदेवमनुजासुरम्य' देवसहित मनुष्य अने असुरो जेने विशे छे एवा लोकने पुष्पादि वडे अर्चन करवा योग्य, 'वन्दनीयः' स्तुति वडे वन्दन करवा योग्य, 'सत्करणीयः' सत्कार करवा योग्य, आदर करवा योग्य, 'सन्माननीयः' अभ्युत्थान वगेरे विनय करवा वडे सन्मान करवा योग्य, कल्याण, मंगल अने देव रूप छे एवो बुद्धि वडे. उपासना करवा योग्य, 'तञ्चकम्मसंपयासंपउत्ते'त्ति.तथ्य-अवश्य सफल होवाथी सत्य फळ कर्मोनी सम्पत्ति वडे युक्त एवा प्रकारना छे..
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उपासकदशांग सानुवाद
सद्दालपुत्र अध्ययन
|
॥१३३॥
॥१३३॥
थिए ४ समुप्पन्ने-'एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मङ्खलिपुत्ते, से ण महामाहणे उप्पन्नणाण- दसणधरे,जाव तच्चकम्मसम्पयासम्पउत्ते, सेणं कल्लं इहं हव्वमागच्छिस्सइ ।तए णं तं अहं वन्दिस्सामि, जाव पज्जुवासिस्सामि, पाडिहारिएणं जाव उवनिमन्तिस्सामि ।
४. तए णं कल्लं जाव जलन्ते समणे भगवं महावीरे जावसमोसरिए । परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ । तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए इमीसे कहाए लढे समाणे 'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं, वन्दामि जाव पज्जुवासामि' एवं सम्पेहेइ,संपेहित्ता बहाए जाव खरेखर मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक गोशाल मंखलिपुत्र छे ते महामाहण, उत्पन्न थयेला ज्ञान-दर्शनने धारण करनारा, यावत् सत्य कर्मनी संपत्तिथी युक्त छे. अने ते काले अहीं शीघ्र आवशे, तेथी हुं तेमने वंदन करीश, यावत् तेमनी पर्युपासना करीश. अने प्रातिहारिक पीठ-आसन वगेरे बडे निमन्त्रण करीश.
४. ते पछी काले यावत् सूर्योदय थतां श्रमण भगवान् महावीर समोसर्या. परिषद् वांदवाने नीकळी, यावत् तेमनी पर्युपासना करी. त्यार वाद आजीविकोपासक सद्दालपुत्र आ वातथी विदित थई 'ए प्रमाणे खरेखर श्रमग भगवान् महावीर यावत् विहरे छे, माटे श्रमण भगवंत महावीरनी पासे जउं, तेमने वांदुं अने तेमनी पर्युपासना करूं' एम विचार करे छे. विचार करी स्नान करी
४. 'कलं' अहीं यावत् शब्दना ग्रहणथी 'पाउप्पभायाए रयणीए (प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां-प्रातःकालनो आविर्भाव थयो के जेमां एवी रात्रि थां) त्यांथी मांडी 'जलन्ते सूरिए' (ज्वलति सूर्य-तेज बडे सूर्य देदोप्यमान थतां) त्यां सुधो प्रभातर्नु वर्णन जाणवू अने तेनी ज्ञातासूत्रना उपोद्घातनी जेम व्याख्या करवी.
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सद्दालपुत्र अध्ययन
उपासकदशांग सानुवाद ॥१३४॥
| ॥१३४॥
पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई जाव अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे मणुस्सवग्गुरापरिगए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ । पडिनिक्खमित्ता पोलासपुरंनयरं मझमझेणं निग्गच्छइ । निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्सम्बवणे उजाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासइ ॥
५. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य महइ० जाव धम्मकहा समत्ता। 'सद्दालपुत्ता' इ समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-'से नूण सद्दालपुत्ता! | कल्लं तुमं पुवावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया जाव विहरसि । तए णं तुम्भं एगे देवे अन्तियं पाउ| कौतुक, मंगल अने प्रायश्चित्त करी शुद्ध अने प्रवेश योग्य वस्त्रो पहेरी अल्प अने महामूल्यवाळा घरेणा घडे शरीरने अलंका करी मनुष्यरूपी वागुरा (जाळ) वडे वींटायेलो ते पोताना घरथी बहार नीकळे छे. नीकळीने पोलासपुर नगरना मध्य भागमां थइने जाय छे. जइने ज्यां सहस्राम्रवन नामे उद्यान छे अने ज्यां श्रमण भगवान महावीर छे त्यां आवे छे, आवीने त्रण वार प्रदक्षिणा करे छे, प्रदक्षिणा करीने वंदन नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने पर्युपासना करे छे.
५. त्यार बाद श्रमण भगवान महावीरे आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने अने अत्यन्त मोटी परिषदने धर्मकथा कही, यावत् धर्म कथा समाप्त थई. 'हे सद्दालपुत्र' ! एम संबोधी श्रमण भगवान् महावीरे आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने आ प्रमाणे कड्यु-'सद्दालपुत्र ! गइ काले तुं मध्याह्नकाळे ज्यां अशोकवनिका छे त्यां यावत् रह्यो हतो, त्यारे तारी पासे एक देव आव्यो. ते पछी ते
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उपासकदशांग सानुवाद
सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१३५॥
॥१३५॥
उभविस्था। तए णं से देवे अन्तलिकग्वपडिवन्ने एवं बयासी-हं भो सद्दालपुत्ता!तं चेव सव्वं जाव पज्जुवासि-1 स्सामि' । से नृणं सहालपुत्ता ! अढे समझे ? हंता अस्थि । नो खलु सदालपुत्ता ! तेणं देवेगं गोसालं मङ्खलिपुत्तं पगिहाय एवं वुत्ते । तए णं तस्स सहालपुत्तस्स आजीविओवासयस्म समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४-'एस णं समणे भगवं महावीरे महामाहणे उप्पन्नणाणसणधरे जाव तच्चकम्मसम्पयासम्पउत्ते, तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं वन्दित्ता नमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढफलग जाव उवनिमन्तित्तए' एवं सम्पेहेइ, संपेहित्ता उहाए उद्देइ, उढेत्ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वन्दित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'एवं ग्वलु भन्ते ! ममं पोलासपुरस्स नयरस्स बहिया पञ्च कुम्भकादेवे आकाशमा रही आ प्रमाणे का-हे सद्दालपुत्र ! (काले आ नगरमा महामाहण आवशे) इत्यादि बधु कहे, यावत् (तने विचार थयो के) 'हुँ सेवा करीश.' सद्दालपुत्र ! खरेखर आ अर्थ युक्त छे ? (सद्दालपुत्रे कयु) हा, छे. परन्तु हे सद्दालपुत्र ! ते देवे मंखलिपुत्र गोशालकने उद्देशीने ए प्रमाणे कर्तुं न होतुं. त्यार पछी आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने श्रमग भगवंत महावीरे एम कयुं एटले आवा प्रकारनो आ अध्यवसाय थयो-आ श्रमण भगवंत महावीर महामाहण, उत्पन्न थयेल ज्ञान-दर्शनने धारण करनारा, यावत् सत्य कर्मनी संपत्तियुक्त छे, ते माटे मारे श्रमण भगवंत महावीरने वंदन नमस्कार करीने प्रातिहारिक ( पाछा आपका योग्य ) पीठ-आसन, फलक-इत्यादि वडे निमन्त्रण करवू श्रेय-योग्य छे' एम विचार करे छे. एम विचार करीने प्रयत्न वडे उठे छे, उठीने श्रमण भगवंत महावीरने वन्दन नमस्कार करे छे, वंदन नमस्कार करीने तेणे एम कह्यु-हे भगवन् ! खरेखर पोलासपुर नगरनी बहार मारा
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥१३६॥
रावणसया । तत्थ णं तुग्भे पाडिहारियं पीढ०जाब संधारयं ओगिव्हित्ता णं विहरह' । तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एयमहं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सद्दालपुत्तस्स आजीविओवास|गस्स पञ्चकुम्भकारावणसएस फासुएसणिज्जं पाडिहारियं पीढफलग० जाव संथारयं ओगिव्हित्ता णं विहरः । ६. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ वायाहययं कोलाल भण्डं अन्तो सालाहिंतो बहिया नीणेइ, नीणेत्ता आयवंसि दलयइ । तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं पांच सो कुंभारना हाटो छे, त्यां तमे प्रातिहारिक पीठ, फलक यावत् संथाराने ग्रहण करीने रहो. त्यार बाद श्रमण भगवान् महावीर आजीविकोपासक सद्दालपुत्रनी ए बात स्वीकारे छे, स्वीकारी आजीविकोपासक सद्दालपुत्रना पांचसो कुंभारना हाटोमां प्रासुक अने एषणीय (निर्दोष) प्रातिहारिक पीठ, फलक यावत् संथाराने ग्रहण करीने विहरे छे.
६. त्यार पछी आजीविकोपासक सद्दालपुत्र अन्य कोई दिवसे शालामांथी बहार काढे छे. बहार काढीने तडकामां सूकवे छे. त्यारे
वाताहत - वायुथी सुकायेल कुंभारना पात्र अंदर रहेला छेतेने श्रमण भगवान् महावीरे आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने कधुं -
६ 'वायाहयगं ति. वाताहतं वायु वडे कंडक सूकायेलां, काचा, 'कोलालभंडे ति कुलाल-कुंभार, तेना संबन्धी ते कौलाल - कुंभारे घडेला भांड-पात्र . प पुरुषकारवडे कराय छे के ते सिवाय कराय छे ? प प्रमाणे भगवंते पूछधुं पटले ते नियतिवाद रूप गोशालकना मत वडे भावित-वासित होवाथी 'पुरुषकारवडे कराय छे' ए उत्तर आपवामां पोताना मतनो त्याग अने परमतना स्वीकाररूप दोषने जाणता तेणे 'अपुरुषकारेण' पुरुषकार सिवाय कराय छे एम उत्तर आप्यो छे. त्यार पछी तेणे स्वीकारेल नियतिमतनो
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१३६॥
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उपासकदशांग सानवाद
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१३७॥
AN
H१३७॥
वयासी-'सहालपुत्ता ! एस णं कोलालभण्डे कओं? तए णं से सहाल पुत्ते भाजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-एस णं भन्ते ! पुटिव मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं निमिजइ, निमित्ता छारेण य करिसेण य एगयओ मीसिज्जइ, मिसित्ता चक्के आरोहिज्जइ, तओ बहवे करगा य जाव उहियाओ य कजति । तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-'सद्दालपुत्ता ! एस णं कोलालभण्डे किं उठाणेणं जाव पुरिसकारपरक्कमेणं कजति, उदाहु अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं हे सद्दालपुत्र ! 'आ कुंभारना पात्र केवी रीते थाय छ १ ते पछी आजीविकोपासक सद्दालपुत्रे श्रमण भगवान् महावीरने आ प्रमाणे काभगवन् ! आ पूर्व माटी हती, त्यार पछी ते पाणी वडे स्थापन कराय छे-पलाळाय छे, पलाळीने राख अने छाण बडे एकत्र मेळवाय छे, मेळवीने चक्र (चाक) उपर चडावाय छे. त्यार पछी घणा करको (पाणी भरवाना घडा) यावद् उष्ट्रिका (घी तेल भरवाना पात्र) कराय छे. त्यार पछी श्रमण भगवान् महावीरे आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने आ प्रमाणे कडं-हे सहालपुत्र ! आ कुंभारना पात्र उत्थान (प्रयत्न) निरास करवा माटे फरीथी प्रश्न करता भगवान् महावीर कहे छे-'सद्दालपुत्ता' इत्यादि.हे सद्दालपुत्र ! जो कोइ पुरुष तारा वाताहतघायुथी सूकायेला पटले काचा, अथवा 'पक्केलयं' पक्व-अग्निथी पाकेला कौलालभांड-पात्रने 'अपहरेद वा' चोरी जाय, विकिरेद वा' ज्यां त्यां फेंकी दे, 'भिन्द्याद् वा' काणां करे, फोडी नांखे, 'आछिन्द्याद् वा' हाथथो खुचवीने बळात्कारे लइ ले, 'विछिन्द्याद् वा' प पाठान्तर छे पटले विविध प्रकारे छेद करे, 'परिष्ठापयेद् वा' बहार लइने त्याग करे, ते पुरुषने शुं तुं दंड 'निवत्तेजासि-निर्वर्तयसि-करे? ते पुरुषने हुं 'आओसेज्जा वा' आक्रोशयामि-आक्रोश करुं, 'तुं मरी गयो छे'इत्यादि शापो-गाळो बडे भांडं. 'हणेज्जा वा' हन्मि-दंडादि
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उपासक दशांग सानुवाद
॥१३८॥
कजति'? तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-'भन्ते ! अणुहाणेणं जाब .
७ सद्दालपुत्र अपुरिसक्कारपरक्कमेणं, नत्थि उट्टाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा।
अध्ययन ७. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-'सद्दालपुत्ता ! जइ णं तुम्भ | केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केलयं वा कोलालभण्डं अवहरेज्जा वा विक्विरेजा वा भिन्देजा वा अच्छिदेजा वा
॥१३८॥ बडे, यावत् पुरुषकार-पराक्रम वडे कराय छे अथवा उत्थान सिवाय, यावत् पुरुषकार--पराक्रम सिवाय कराय छे ? त्यारे ते आजीविकोपासक सद्दालपुत्रे श्रमण भगवान् महावीरने आ प्रमाणे कधु-भगवन् ! उत्थान सिवाय, यावत् पुरुषकार-पराक्रम सिवाय कराय छे. (कारण के) उत्थान नथी, यावत् पुरुषकार--पराक्रम नथी, सर्व भावो नियत छे.
७. ते वार पछी श्रमण भगवान महावीरे आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने आ प्रमाणे कर्दा-सदालपुत्र ! जो कोई पुरुष तारा बडे हगुं, 'बंधेज्जा वा' बध्नामि था-रज्जु बगेरेथी वांधु, 'महेज्जा वा मथ्नामि-नाश कसं, 'तज्जेज्जा वा' तर्जयाभि-हे दुराचार ! इत्यादि वचनो बडे तर्जना करूं, 'तालेजा वा' ताउयामि-चपेटा वगेरेथी ताडन करूं. 'निच्छोडेज्जा वा' निश्छोटयामि धनादि लइ लेवा बडे बहार काटुं, "निभज्जेज्जा वा' निर्भर्त्सयामि कटोर वचनो वडे निर्भरतना-तिरस्कार कसं अने अकाळे जीवितात् व्यपरोपयामिजीवितथी मुक्त कर, जीवधी मारी नांग्य्. आ प्रमाणे भगवंत ते सद्दालपुत्रने पोताना वचन बडे पुरुपकारनो स्वीकार करावी तेना मतने दृषित करवा माटे कहे छे-'सद्दालपुन' इत्यादि हे सहालपुत्र ! जो वास्तविक रीते उत्थानादि नथी तो तारा भांड कोइ हरण करतुं नधी, अने तुं तेने आक्रोश करतो नथी. जो कोइ ताग भांड हरण करे छे अने तुं तेना उपर आक्रोश करे छे एम माने छे छतां जे तुं कहे छे के उत्थानादि नथी' ते मिश्या-असत्य छे.
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उपासकदशांग सानुवाद
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१३९॥
॥१३९॥
परिवेजा वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोग भोगाई भुञ्जमाणे विहरेजा, तस्स णं तुम पुरिसस्स किं दण्डं निवत्तेजासि? भन्ते ! अहं णं तं पुरिसं आओसेजा वा हणेज्जा वा बन्धेजा वा महेजा वा तज्जेजा वा तालेला वा निच्छोडेजा वा निभच्छेला वा अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेजा। सद्दालपुत्ता! नो खलु तुब्भं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलाल भण्डं अवहरइ वा जाव परिहवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरइ, नो वा तुम तं पुरिसं आओसेन्जसि वा हणिजसि वा जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेजसि, जइ नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा नियया सव्वभावा। अहणं तुम्भं केइ पुरिसे वायाहयं जाव परिहवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा जाव विहरइ, तुम वा तं पुरिसं आओवायुथी सूकायेला (काचा) अने पाकेला कुंभारना पात्रने हरी जाय, ज्यां त्यां फेंकी दे, फोडी नाखे, बलात्कारे ले, बहार मूकी दे, अथवा तारी स्त्री अग्निमित्रा साथे विपुल भोगो भोगवतो विहरे तो शुं तुं ते पुरुषने शिक्षा करे ? हे भगवन् ! हुं ते पुरुषने आक्रोश करूं, हणुं, बांधु, मारूं, तजना करूं, ताडन करूं, तेनुं बधुं खुंचवी लडं अने तेनो तिरस्कार करु, तथा तेने अकालेज जीवितथी मुक्त करूं. सद्दालपुत्र! जो उत्थान नथी, यावत् पुरुषकार-पराक्रम नथी अने सर्व भावो नियत छे तो कोई पुरुष तारा वायुथी सूकायेला (काचा) अने पाका कुंभारना पात्रने हरण करतुं नथी, यावत् बहार लइने मूकतुं नथी, अने तारी अग्निमित्रा भार्या साथे विपुल भोगो भोगवतुं नथी, तथा तुं ते पुरुपने आक्रोश करतो नथी, हणतो नथी यावत् अकाले जीवितथी मुक्त करतो नथी, अने जो तारा वायुथी स्कायेला पात्रने कोई पुरुष हरी जाय यावत् बहार मूकी दे, तथा अग्निमित्रानी साथे कोइ पुरुष विपुल भोगो भोगवतो विहरे अने तु ते पुरुषने आक्रोश करे
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उपासक दशांग सानुवाद
वा
॥१४॥
सेसि वा जाव ववरोवेसि, तो जं वदसि नस्थि उहाणे इ वा जाव नियया सव्वभावा तं ते मिच्छा । एत्थ णं | से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए सम्बुद्धे ।
७ सद्दालपुत्र
अध्ययन ८. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वन्दित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामि णं भन्ते ! तुझ अन्तिए धम्मं निसामेत्तए'। तए णं समणं भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स
| ॥१४॥ आजीविओवासगस्स तीसे य जाव धम्म परिकहेइ । तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ० जाव हियए जहा आणंदो तहा गिहिधम्म पडिवज्जइ । | नवरं एगा हिरण्णकोडी निहाणपउत्ता, एगा हिरण्णकोडी बुड्डिपउत्ता, एगा हिरण्णकोडी पवित्थरपउत्ता, यावत् जीवितथी मुक्त करे तो तुं जे कहे छे के 'उत्थान नथी, यावत् सर्व भावो नियत छे ते मिथ्या छे. अहीं आजीविकोपासक सद्दाल पुत्र बोध पाम्यो.
८. त्यार बाद आजीविकोपासक सद्दालपुत्र श्रमण भगवंत महावीरने वंदन नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने तेणे आ प्र-2) माणे कडं-हे भगवन् ! तमारी पासे धर्म श्रवण करवाने इच्छु छु. ते पछी श्रमग भगवान महावीरे आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने अने ते मोटी परिषदने यावत् धर्म कह्यो. त्यार बाद आजीविकोपासक सद्दालपुत्र श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी धर्म सांभळी अवधारी हृष्ट-प्रसन्न अने संतुष्ट चित्तवाळो थई आनन्दनी पेठे ते प्रमाणे गृहस्थ धर्मनो स्वीकार करे छे. परन्तु तेणे एक हिरण्यकोटि निधानमां, एक हिरण्यकोटि व्याजे अने एक हिरण्यकोटि धनधन्यादिना विस्तारमा राखेली छे. दस हजार गायोगें एक बज छे.
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उपासकदशांग सानुवाद
॥ १४१ ॥
एगे बए दसगोसाहस्सिएणं वएणं, जाव समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वन्दित्ता नर्मसित्ता जेणेव | पोलासपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोलासपुरं नयरं मज्झम्मज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव अग्गिमित्ता भारिया तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता अग्गिमित्तं भारियं एवं वयासी - 'एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे, तं गच्छाहि णं तुमं समणं भगवं महावीरं, वन्दाहि जाव पज्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पञ्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पडिवज्जाहि' ।
९. तणं सा अग्गिमित्ता भारिया सद्दालपुत्तस्स समणोवासगस्स 'तह'त्ति एयमहं विणएणं पडिसुणेइ । यावत् श्रमण भगवंत महावीरने वंदन नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने ज्यां पोलासपुर नामे नगर छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने पोलासपुर नगरना मध्य भागमां ज्यां पोतानुं घर छे अने ज्यां अग्निमित्रा भार्या छे त्यां आवे छे. आवीने तेणे अग्निमित्रा भार्याने आ प्रमाणे कां - ए प्रमाणे खरेखर हे देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर समोसरेला छे, ते माटे तुं जा अने श्रमण भगवंत महावीरने वंदन कर यावत् पर्युपासना कर, तथा श्रमण भगवंत महावीरनी पासे पांच अणुव्रत अने सात शिक्षात्रत रूप बार प्रकारनो गृहस्थ धर्म अंगीकार कर.
९. त्यार पछी ते अग्निमित्रा भार्या श्रमणोपासक सद्दालपुत्रना ए अर्थने 'तह'त्ति कही विनय वडे स्वीकारे छे. त्यार बाद ९. तप णं सा अग्गिमित्ता' इत्यादि. त्यार बाद ते अग्निमित्रा भार्या सद्दालपुत्र श्रमणोपासकना ए अर्थने 'तह'सि कही विनय वडे
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
H१४१ ॥
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उपासकदशांग सानुवाद
सद्दालपुत्र अध्ययन
EKXXXX
॥१४२॥
॥१४२॥
तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु
* प्पिया ! लहुकरणजुत्तजोइयं समखुरवालिहाणसमलिहियसिङ्गएहिं जम्बूणयामयकलावजोत्तपइविसिट्टएहिं - रययामयघण्टसुत्तरज्जुगवरकश्चणखइयनत्थापग्गहोग्गहिएहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाश्रमणोपासक सद्दालपुत्र कौटुम्बिक पुरुषोने बोलावे छे. बोलावीने तेणे आ प्रमाणे कह्यु-हे देवानुप्रिय ! लहुकरण-शीघ्र क्रिया करवामां युक्त एवा पुरुषे जोडेल, समान खुर-खरी अने वालिधान-पुच्छ जेओना छे तथा सरखी रीते उगेला शीगडावाळा, जम्बूनदसुवर्णमय कलाप-डोक- आभूषण, अने योक्त्र-जोतर प्रतिविशिष्ट-सुशोभित जेओर्नु छे एवा, रजतमय घंट जेने छे एवा, सूतरनी रज्जुरूप . श्रेष्ठ सुवर्ण वडे युक्त नाथसंबन्धी राश बडे अवगृहीत-बांधेला, काळा कमळना करेला आपीड-छोगा जेओने छ एवा श्रेष्ठ युवान बळदो वडे स्वीकारे छै. स्वीकारीने स्नान करी जेणे बलिकर्म करेलुं छे एवी, बलिकर्म लोकमां प्रसिद्ध छे, जेणे कौतुक, मंगल अने प्रायश्चित्त कयु छे एवी, कौतुक-मेषना तिलक करवा वगेरे, मंगल-दहीं, अक्षत, चंदन वगेरे, प्रायश्चित्त-दुःस्वप्नादिनो नाश करनार होवाथी प्रायश्चितनी पेठे अवश्य करवा योग्य, 'सुद्धप्पावेसाई' शुद्धात्मा-शुद्ध आत्मा जेनो छे पवी, वैषिकाणि-वेपने योग्य श्रेष्ठ वस्त्रो जेणे पहेरेला छे पवी, 'अल्पमहा_भरणालंकृतशरीरा' अल्प अने महामूल्य वाला आभरण बडे अलंकृत-सुशोभित शरीर जेनु छे एवी, 'चेटिकाचक्रवालपरिकीर्णा दासीओना समूह वडे वीटायेली, बीजा पुस्तकमां यानतुं वर्णन छे ते व्याख्या सहित आ प्रमाणे जाणवू'लहुकरणजुत्तजोइयं' लघुकरण-शीघ्र क्रिया करवा बडे-दक्षपणा घडे युक्त पुरुषोए योजित-यन्त्र अने यूपादि वडे जोडायेलु, 'समखुरवालिहाण-समलिहियसिंगरहि' सम-तुल्य छे खरी अने वालिधान-पुच्छ जेना तथा सम-सरखा लिखित-उल्लिखित कोतरेला-उगेला शृंग-शींगडा जेना छे पचा, 'जाम्बूनदमयकलापयोक्त्रप्रतिविशिष्टाभ्यां' सुवर्णमय कलाप-डोक- आभरण अने योक्त्र-जोतर प्रतिवि
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उपासकदशांग सानुवाद
अध्ययन
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॥१४३॥
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णामणिकणगघण्टियाजालपरिगयं सुजायजुगजुत्तउज्जुगपसत्थसुविरइयनिम्मियं पवरलक्षणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवरं उबट्टवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह' । तए णं ते कोडुम्बियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणन्ति ॥
१०. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया पहाया जाच पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई जाव अप्पमहग्घाभरणा'जुत्तामेव' युक्त-जोडेल, अनेक प्रकारना मणि युक्त घंटिका-घुघरीओना समूह वडे युक्त, सुजात-उत्तम, युक्त-संगत, ऋजु-सरल, प्रशस्त, सारी रीते घडेलुं अने सारी रीते गोठेवेलुं युग-धोंसरं जेने विशे छे एवा, प्रवर-श्रेष्ठ लक्षणो वडे सहित, धार्मिक यानप्रवर-श्रेष्ठ वाहनने हाजर करो. हाजर करीने मने आ आज्ञा पाछी आपो. त्यार बाद ते कौटुम्बिक पुरुषो (ते बधुं करीने) आज्ञा पाछी आपे छे.
१०. त्यार पछी ते अग्निमित्रा भार्या स्नान करी यावत् कौतुक, मंगल अने प्रायश्चित्त करी शुद्ध अने प्रवेश योग्य वस्त्रो शिष्ट सुशोभित जेओने छे एवा, 'रजतमयघण्टसूत्ररज्जुवरकाञ्चनखचितनस्तप्रग्रहावगृहीतकाभ्यां' रजतमय घंट-टोकरा जेने छे पवा, सूतरनी रज्जुरूप श्रेष्ठ सुवर्ण वडे खचित-युक्त नाथनी प्रग्रह-दोरी वडे बांधेला, 'नीलोत्पलकृतशेखराभ्यां' काळा कमळ वडे करेलां छे शेखर-कलगी जेओने पवा, 'पवरगोणजुवाणरहिं' श्रेष्ठ जुवान पवा बे बळदो वडे 'जुत्तामेव' युक्त-जोडेल, 'नानामणिकनकघण्टिकाजालपरिगतम् अनेक प्रकारना मणिमय सुवर्णनी घुघरीओना समूह वडे युक्त, 'सुजातयुगयुक्तऋजुकप्रशस्तसुविरचितनिर्मितं' | सुजात-उत्तम काष्ठर्नु बनेलुं युग-धोंसरं, युक्त-संगत, ऋजुक-सरल, प्रशस्त, सुविरचित-सारी रीते घडेल अने निर्मित-नांखेलं छे जेने विशे पवा, प्रवर-श्रेष्ठ लक्षण बडे सहित, 'जुत्तामेच' नो संबन्ध 'पवरगोणजुवाणपहि' नी साथे करवो, पटले श्रेष्ठ अने जुबान बे | बळदो सहित, धार्मिक यानप्रवर-श्रेष्ठ वाहनने 'उपस्थापयत' हाजर करो.
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उपासकदशांग सानुवाद
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१४४॥
| ॥१४४॥
लंकियसरीरा चेडियाचक्कवालपरिकिण्णा धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता पोलासपुरं नगरं मज्झम्मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्सम्बवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता चेडियाचक्कवालपरिबुडा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नचासन्ने नाइदूरे जाव पञ्जलिउडा ठिइया चेव पज्जुवासइ ।
११. तए ण समणे भगवं महावीरे अग्गिमित्ताए तीसे य जाव धम्म कहेइ । तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म हहतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमपहेरी, अल्प अने महामूल्यवाळा अलंकार वडे शरीर शणगारी, चेटिका-दासीओना समूह वडे वींटायेली धार्मिक श्रेष्ठ वाहन उपर चढे छे, चढीने पोलासपुर नगरना मध्य भागमां थइने नीकळे छे. नीकळीने ज्यां सहस्राम्रवन नामे उद्यान छे त्यां आवीने धार्मिक यानथी नीचे उतरे छे. नीचे उतरीने दासीओना समुदाय वडे वींटायेली (अग्निमित्रा) ज्यां श्रमण भगवान् महावीर छे त्यां आवे छे. आवीने त्रण वार यावत् वन्दन नमस्कार करें छे, वन्दन नमस्कार करीने अत्यन्त पासे नहि, तेम अत्यन्त दूर नहि एम यावत् | हाथ जोडी उभी रहीने पर्युपासना करे छे.
११. त्यार बाद श्रमण भगवान् महावीर अग्निमित्राने अने ते मोटी परिषदने यावत् धर्मोपदेश करे छे, त्यार पछी ते अग्निमित्रा भार्या श्रमण भगवंत महावीरनी पासे धर्म सांभळी अवधारी हृष्ट-प्रसन्न अने संतुष्ट थयेली श्रमण भगवंत महावीरने वंदन
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उपासक- सह. वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी-सद्दहामि णं भन्ते ! निग्गन्धं पावयणं, जाव से जहेयं तुन्भे वयह, जहा|७ सद्दालपुत्र
दशांगणं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे उग्गा भोगा जाव पव्वइया नो खलु अहं तहा संचाएमि देवाणुप्पियाणं अ-14 अध्ययन सानुवाद
न्तिए मुण्डा भवित्ता, जाव अहं णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पञ्चाणुव्वइयं सत्तसिक्वावइयं दुवालसविहं गि॥१४५॥ हिधम्म पडिवजिस्सामि' । अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिवन्धं करेह । तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया स-|
॥१४५॥ मणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पञ्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजइ, पडिवजित्ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ, वंदित्तानमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरुहइ, दुरुहित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पोलासपुराओ न यराओ सहस्सम्बवणाओ पडिनिग्गच्छइ, पडिनिग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ।। नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने तेणे आप्रमाणे कयु-'हे भगवन् ! हुं निर्ग्रन्थ प्रवचननी श्रद्धा करूं छु के यावत् जे तमे कहो छो. जे प्रकारे देवानुप्रिय एवा आपनी पासे घणा उग्रकुळना, भोग कुळना क्षत्रिओए यावत् प्रव्रज्या ग्रहण करी छे ते प्रमाणे हुँ देवानुप्रिय एवा आपनी पासे मुंड थइने प्रव्रज्या ग्रहण करवा समर्थ नथी, परन्तु हुं देवानुप्रिय एवा आपनी पासे पांच अणुव्रत अने सात शिक्षाव्रत रूप बार प्रकारना गृहस्थ धर्मने अंगीकार करीश. (भगवंते कड्यु-)हे देवानुप्रिय ! तमने सुख थाय तेम करो, परन्तु प्रतिबन्ध न करो. त्यार पछी ते अग्निमित्रा भार्या श्रमण भगवान् महावीरनी पासे पांच अणुव्रत अने सात शिक्षा व्रत रूप बार प्रकारना गृहस्थ धर्मने स्वीकारे छे. स्वीकारीने श्रमण भगवंत महावीरने वंदन अने नमस्कार करे छे. वंदन अने नमस्कार करीने तेज
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥१४६॥
१२. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ । तए णं से गोसाले मङ्कलिपुत्ते इमी से कहाए लट्ठे समाणे एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीवियसमयं वमित्ता समणाणं निग्गन्धाणं दिहिं | पडिवन्ने, तं गच्छामि णं सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं समणाणं निग्गन्धाणं दिहिं वामेत्ता पुणरवि आजीवियदिट्ठि गेण्डावित्तए ' तिकट्टु एवं सम्पेहेइ, संपेहित्ता आजीवियसङ्घसम्परिवुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे जेणेव आजीवियसभा तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता आजीवियसभाए भण्डनिक्खेवं करेइ । करेत्ता कइवएहिं आजीविएहिं सद्धिं जेणेव सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ । तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोधार्मिक प्रवर यान (रथ) उपर चढे छे, चढीने जे दिशाथी आवी हती ते दिशा तरफ जाय छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीर अन्य कोई दिवसे पोलासपुर नगरथी अने सहस्राम्रवन उद्यानथी नीकळे छे अने नीकळीने बहारना देशोमां विहरे छे.
१२. त्यार पछी सद्दालपुत्र श्रमणोपासक थयो अने जेणे जीवाजीव तच्च जाणेला छे एवो यावत् विहरे छे. त्यार पछी मंखलिपुत्र गोशालक आ वातने जाणी 'ए प्रमाणे खरेखर सद्दालपुत्रे आजीविकसमयनो त्याग करीने श्रमण निग्रेन्थनी दृष्टि अंगीकार करी छे, तो हुं जउं अने आजीविकोपासक सद्दालपुत्रने श्रमण निर्ग्रन्थोनी दृष्टिनो त्याग करावी फरीथी आजीविकनी दृष्टि ग्रहण करावं' एम विचारे छे. एम विचारी आजीविकना संघसहित ज्यां पोलासपुर नगर छे अने ज्यां आजीविकसभा छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने आजीविकसभामां भांड-पात्रादि उपकरण मूके छे. मूकीने केटलाक आजीविको साथै ज्यां सद्दालपुत्र श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे. ते वारे सद्दालपुत्र श्रमणोपासक मंखलिपुत्र गोशालने आवतो जुए छे. आवतो जोइने तेनो
७सद्दाल पुत्र अध्ययन
॥१४६॥
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥ १४७॥
| सालं मङ्गलिपुत्तं एज्जमाणं पासइ । पासित्ता नो आढाइ, नो परिजाण, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे तुसि णीए संचिट्ठर ।
१३. तए णं से गोसाले मङ्गलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं अणाढाइजमाणे अपरिजाणिजमाणे पीढफल गसिज्जासंथारट्टयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं | वयासी - ' आगए णं देवाणुप्पिया ! इहं महामाहणे ? तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मङ्गलिपुत्तं एवं वयासी' के णं देवाणुप्पिया ! महामाहणे ' ? तए णं से गोसाले मङ्गलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं बयासी - 'समणे भगवं महावीरे महामाहणे' से केणट्टेणं देवाणुप्पिया! एवं बुच्चइ - 'समणे भगवं महावीरे महाआदर करतो नथी, तेने जाणतो नथी, आदर नहि करतो अने नहि जाणतो ते मूंगो उभो रहे छे.
१३. त्यार बाद श्रमणोपासक सद्दालपुत्र वडे नहि आदर करायेला, नहि जाणेला अने पीठ, फलक, शय्या अने संथारा मा श्रमण भगवंत महावीरना गुणकीर्तन करता मंखलिपुत्र गोशालके श्रमणोपासक सद्दालपुत्रने आ प्रमाणे कधुं- 'हे देवानुप्रिय ! अहीं महामाहण आव्या हता? त्यारे ते सद्दालपुत्र श्रमणोपासके कछु हे देवानुप्रिय ! कोण महामाहण छे ? त्यारे मंखलिपुत्र गोशाल के कांश्रमण भगवंत महावीर महामाहण छे. हे देवानुप्रिय ! शा हेतुथी एम कहो छो के श्रमण भगवान् महावीर महामाहण छे ? हे सद्दालपुत्र ! खरेखर श्रमण भगवान महावीर महामाहण, उत्पन्न थयेला ज्ञान दर्शनने धारण करनारा यावत् महित-स्तुति करायेला अने पूजित छे, यात्रत् तथ्य कर्मनी संपत्ति वडे युक्त छे, ते कारणथी हे देवानुप्रिय ! भ्रमण भगवान् महावीर महामाहण छे.
७सद्दालपुत्र अध्ययन
॥ १४७॥
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उपासक
दशांग
सानुवाद.
॥१४८॥
माहणे' ? एवं खलु सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महामाहणे उत्पन्नणाणदंसणधरे जाव महियपूइए, जाव तच्चकम्मसम्पयासंपउत्ते, से तेणद्वेणं देवाणुप्पिया ! एवं बुच्चइ - 'समणे भगवं महावीरे महामाहणे' । आगए णं देवाणुप्पिया ! इहं महागोवे ? के णं देवाणुप्पिया ! महागोवे ? समणे भगवं महावीरे महागोवे । से केणट्ठेणं
हे देवानुप्रिय ! अहीं ' महागोप' आव्या हता ? हे देवानुप्रिय ! 'महागोप' कोण छे ? श्रमण भगवान् महावीर महागोप छे. हे देवानुप्रिय ! शा हेतुथी यावत् महागोप कहेवाय छे ? हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर संसाराटवीमां नाश पामता, विनाश पामता, भक्षण कराता, छेदाता, भेदाता, लुप्त थता, विलुप्त थता घणा जीवोने (गायोनी पेठे) धर्मरूप दंड वडे संरक्षण करता, संगोपन ( बचाव ) करता निर्वाणरूप महा वाडामां पोताना हाथे पहोंचाडे छे, ते हेतुथी हे सद्दालपुत्र ! एम कहेवाय छे के 'श्रमण भगवान् महावीर महागोप छे. '
१३. महागोवेत्यादि. गोप-गायनी रक्षक, अने' बीजा गायना रक्षको करतां अत्यन्त विशिष्ट होवाथी महान् छे माटे महागोप छे. 'नश्यतः' सन्मार्गथी दूर थता, 'विनश्यतः' अनेक प्रकारे मरता, 'खाद्यमानान् मृगादि अवस्थामां वाघ वगेरेथी भक्षण कराता, 'छिद्यमानान्' मनुष्यादिपणामां खङ्ग वगेरेथी छेदाता, 'भिद्यमानान्' भाला वगेरेथी भेदाता, 'लुप्यमानान्' कान, नासिका वगेरेना छेद करवा वडे लुप्त थता, 'विलुप्यमामान्' बाह्य उपधि-उपकरणना हरण करवाथी लोप पामता 'गा इव' गायोनी पेठे (ए अध्याहार जाणवो) एवा जीवने 'निवाण महाबार्ड' निर्वाण रूप महा वाडामां-सिद्धि रूपो गायोना स्थान विशेषमां 'साहित्थि 'ति स्वहस्तेनैवपोताना हाथे साक्षात् 'संपावेइ' पहचाडे छे.
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१४८॥
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥१४९॥
|देवाणुप्पिया ! जाव महागोवे ? एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे | नस्समाणे विणस्समाणे खज्ज माणे छिनमाणे भिमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममवेणं दण्डेणं सारक्खमाणे | संगोवेमाणे निव्वाणमहावाडं साहस्थि सम्पावेइ, से तेणट्टेणं सद्दालपुत्ता ! एवं बुच्चइ - 'समणे भगवं महावीरे महागोवे । आगए णं देवाणुप्पिया ! इहं महासत्थवाहे ? के णं देवाणुप्पिया ! महासत्थवाहे ? सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे से केणट्टेणं । एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे धम्ममएणं पेन्थेणं सारक्खमाणे निव्वाणमहापट्ट
हे देवानुप्रिय ! अहीं महासार्थवाह आव्या हता ? हे देवानुप्रिय ! महासार्थवाह कोण छे ? संद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह छे. शा हेतुथी एम कहो छो ? हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर संसाराटवीमां नाश पामता, विनाश पामता, यावत् विलुप्त थता घणा जीवोने धर्ममय मार्ग वडे संरक्षण करता निर्वाण रूप महापट्टण-नगरना सन्मुख पोताना हाथे पहचाडे छे, ते हेतुथी हे सद्दालपुत्र ! एम श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह कहेवाय छे.
हे देवानुप्रिय ! अ महाधर्मकथी आव्या हता । हे देवानुप्रिय ! महाधर्मकथी कोण छे ? श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी छे. शा हेतुथी श्रमण भगवान् महावीर धर्मकथी छे ? हे देवानुप्रिय ! ए प्रमाणे खरेखर श्रमण भगवान् महावीर अत्यन्त
बोजा पुस्तकमां महासार्थवाहना आलापक-पाठ पछी आ बीजो पाठ कहेलो छे-'हे देवानुप्रिय ! अहीं महाधर्मकथी आव्या हता ? हे देवानुप्रिय ! कोण महाधर्मकथी छे ? श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी छे ? शा हेतुथी श्रमण भगवान् महावीर धर्मकथी छे ? हे
७सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१४९॥
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उपासकदशांग सानुवाद
सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१५॥
॥१५॥
णाभिमुहे साहत्थि सम्पावेइ, से तेणटेणं सद्दालपुत्ता! एवं बुच्चइ-'समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे ।। आगए णं देवाणुप्पिया! इहं महाधम्मकही? के णं देवाणुप्पिया! महाधम्मकही ? समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही । से केणटेणं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ? एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे महइमहालयंसि संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे खज्जमाणे छिज्जमाणे भिज्जमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे उम्मग्गपडिवन्ने सप्पहविप्पणढे मिच्छत्तफ्लाभिभूए अट्ठविहकम्मतमपडलपडोच्छन्ने बहहिं अट्ठेहि मोटा संसारमा नाश पामता, विनाश पामता, भक्षण कराता, छेदाता, भेदाता, लुप्त थता, विलुप्त थता, उन्मार्गने प्राप्त थयेला, सन्मार्गथी भूला पडेला, मिथ्यात्वना बळ वडे पराभव पामेला अने आठ प्रकारना कर्म रूप अन्धकारना समूह वडे ढंकायेला घणा जीवोने घणा अर्थो, यावत व्याकरणो-उत्तरो वडे चार गतिरूप संसाराटवीथी पोताना हाथे पार उतारे छे, ते हेतुथी हे देवानुप्रि| य ! एम कहेवाय छे के 'श्रमण भगवान महावीर महाधर्मकथी छे'. सहालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर अत्यन्त मोटा संसारने विशे नाश पामता, यावत् विलोप पामता, उन्मार्गने प्राप्त थयेला, सन्मागथी दूर गयेला, मिथ्यात्वना बल बडे पराभव पामेला, आठ प्रकारना कर्म रूप अन्धकारना पटल-समूह बडे ढंकायेला घणा जीवोने घणा अथा, हेतुओ, प्रश्नो, कारणो-युक्तिओ अने उत्तरो बडे चार गति वाळा संसार रूप अटवोथी पोताना हाथे पार उतारे छे, ते माटे हे सद्दालपुत्र ! श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी छे. आ पाठनो अर्थ स्पष्ट छे. परन्तु जीवोना नश्यन्-नाश पामता बगेरे विशेषण रूप हेतु बताववा कहे छे-'उन्मार्गप्रतिपन्नान्' उन्मार्गने प्राप्त थयेला, पटले जेणे मिथ्याष्टिना शासननो आश्रय करेलो छे एवा, 'सत्पथविप्रनष्टान-सम्मानो-जिन शासननो जेणे त्याग कयाँ हे पवा, पम शा हेतुथी छे ? ते कहे ठे-मिथ्या
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उपासकदशांग सानुवाद
सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१५॥
॥१५॥
य जाव वागरणेहि य चाउरन्ताओ संसारकन्ताराओ साहत्थि नित्थारेइ, से तेणटेणं देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ-'समणे भगवं महावीरे महाधम्मकहीं'। आगए णं देवाणुप्पिया! इहं महानिजामए ? के णं देवाणु| प्पिया ! महानिजामए? समणे भगवं महावीरे महानिजामए । से केणटेणं? एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसारमहासमुद्दे बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे वुडमाणे निबुड्डमाणे उप्पियमाणे धम्ममईए नावाए निव्वाणतीराभिमुहे साहत्यि सम्पावेइ, से तेणटेणं देवाणुप्पिया! एवं वुचइ'समणे भगवं महावीरे महानिजामए ।
१४. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मङ्खलिपुत्तं एवं वयासी-'तुब्भे णं देवाणुप्पिया! इय-
हे देवानुप्रिय ! अहीं महानिर्यामक आव्या हता? हे देवानुप्रिय ! कोण महानिर्यामक छ ? श्रमण भगवान् महावीर महानिर्यामक छे. एम शा हेतुथी कहो छो? हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान महावीर संसाररूप महासमुद्रमा नाश पामता, विनाश पामता, यावत् विलुप्त थता, बुडता, अत्यन्त बुडता 'उप्पियमाणे गोयां खाता घणा जीवोने धर्मबुद्धि रूप नौका वडे निर्वाणरूप तीरना सन्मुख पोताना हाथे पहोंचाडे छे. ते हेतुथी हे देवानुप्रिय ! एम कहेवाय छे के 'श्रमण भगवान महावीर महानिर्यामक छे.. त्वबलाभिभूतान्' मिथ्यात्वना बल बडे पराभव पामेला, तथा आठ प्रकारना कर्मरूपी तमः पटल-अन्धकारनो समूह ते वडे प्रत्य वच्छन्न-ढंकायेला. तथा निर्यामकना आलापकमां 'बुडमाणे बुडता, 'निवुडमाणे जन्ममरणादि जळमां अत्यंत बुडता, 'उप्पियमाणे उत्पलाव्यमानान्-गोथां खाता जीवोने पोताना हाथे पार उतारे छे.
EXCEESCC
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उपासक
७सद्दालपुत्र अध्ययन
दशांग
सानुवाद
॥१५२॥
॥१५२॥
च्छेया जाव इयनिउणा इयनयवादी इयउवएसलद्धा इयविण्णाणपत्ता, पभू णं तुम्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवाद करेत्तए १ नो तिण? समझे। से केणटेणं देवाणुप्पिया एवं वुच्चइ'नो खलु पभू तुब्भे मम धम्मायरिएणं जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए ? सद्दालपुत्ता! से जहानामए केइ पुरिसे तरुणे जुगवं जाव निउणसिप्पोवगए एगं महं अयं वा एलयं वा सूयरं वा कुक्कुडं वा तित्तिरं वा वयं वा लावयं वा कवोयं वा कविञ्जलं वा वायसं वा सेणयं वा हत्थंसि वा पायंसि वा खुरंसि वा पुच्छंसि
१४ त्यारबाद सद्दालपुत्र श्रमणोपासके मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कडं-हे देवानुप्रिय! तमे 'इतिछेकाः' आ प्रमाणे छेकप्रस्तावने जाणनारा, यावत् ए प्रमाणे निपुण-मूक्ष्मदर्शी, ए प्रमाणे नयवादी-नीतिनो उपदेश करनारा, एम उपदेशलब्धा-आप्तना उपदेशनुं श्रवण कयु छ जेणे एवा, अने ए प्रमाणे विज्ञानप्राप्त छो, तो तमे मारा धर्माचार्य अने धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर साथे विवाद करवाने समर्थ छो? ए अर्थ युक्त नथी. हे देवानुप्रिय ! एम शा हेतुथी कहो छो के तमे मारा धर्माचार्य यावत् भगवंत महावीरनी साथे विवाद करवाने समर्थ नथी? हे सद्दालपुत्र ! जेम के कोइ पुरुष तरुण, बलवान्, युगवान्-उत्तम काळमां उत्पन्न थपेलो, यावत् निपुण शिल्पने प्राप्त थयेलो होय, ते एक मोटा अज, एडक-घेटा, सुकर, कुकडा, तेतर, बतक, लावा, कपोत, कपिंजल,
१४. 'पभुत्ति प्रभवः-समर्थ. 'इतिच्छेकाः' इति-प प्रमाणे, उपलब्ध अद्भुत प्रकार वडे, पम बीजे पण 'इति' शब्दनो अर्थ जाणवो. छेक-प्रस्तावने जाणनार, वृद्ध आचार्यों 'कलापंडित' एवी व्याख्या करे छे. 'इतिदक्षा:' कार्यने जलदी करनारा, तथा 'इतिप्रष्ठाः' दक्ष पुरुषोमां प्रधान, 'वाग्ग्मी-जेनी प्रशस्तवाणी छे एवा' एम वृद्धाचार्योए कह्यु छे. कवचित् 'पत्तट्ठा' पवो पाठ छे. तेमां 'प्राप्ताः ' जेणे
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उपासक
दशांग सानुवाद
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१५३॥
||१५३॥
वा पिच्छसि वा सिङ्गसि वा विसाणंसि वा रोमंसि वा जहिं जहिं गिण्हइ तहिं तहिं निचलं निप्फन्दं धरेइ, एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहहिं अटेहि य हेऊहि य जाव वागरणेहि य जहिं जहिं गिण्हइ तहिं | वायस अने श्येन-बाजने हाथे, पगे, खरीए, पुंछडे, पिंछाए, शींगडे, विषाण-सुकरना दांते के रुघाटे ज्यां ज्यां पकडे त्यां त्यां निश्चल अने स्पन्द रहित पणे धारण करी शके छे, ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर मने घणा अर्थो, हेतुओ, यावत् उत्तरो वडे प्रयोजन प्राप्त कयु छे पवा, तथा 'इतिनिपुणाः' सूक्ष्मदर्शी, वृद्धो 'कुशल' एवो अर्थ करे छे. 'इतिनयवादिनः' नीतिना कहेनारा, 'इत्युपदेशलब्धा' जेणे आप्त पुरुषोनो उपदेश प्राप्त कर्यों छे पवा, बीजी वाचनामा 'इतिमेधाविनः' अपूर्व श्रुतने ग्रहण करवानी शक्ति वाळा, 'इति विज्ञानप्राप्ताः' अने जेमणे सद्बोध प्राप्त कयों छे एवा छो, तो तमे मारा धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीरनी साथे विवाद करवाने अहीं 'प्रभु' शब्दनो संबन्ध छे पटले समर्थ छो? ए तात्पर्य छे. ___'से जहे'त्यादि यथानाम-जेम कोइ पुरुष तरुण-वधती जती उमरवाळो, अन्य आचार्य 'वर्णादि गुण वडे उपचित' एवी व्याख्या करे छे. यावत् शब्दना कथनथी आ जाणवु-'बलवं' सामर्थ्यवाळो, 'जुगवं' युगवान्-युग-प्रशस्त काळ विशेष जेओने छे पवो, पटले उत्तम काळमां उत्पन्न थयेलो, कारण के दुए काळ बळनी हानि करनार होवाथी तेनो निषेध करवा माटे आ विशेषण छे. 'जुवाणे' त्ति युवान, 'अप्पार्यके नीरोगी, 'थिरम्गहत्थे सारा लेखकनी पेठे स्थिर अग्र हस्तवाळो, कारण के जेना हाथनो अन भाग अस्थिर होय तो बरोबर पकडी न शके माटे आ विशेषण छे. 'दढपाणिपाए' मजबूत हाथ पगबाळो, 'पासपिदृन्तरोरुपरिणए' पाचपृष्ठान्तरोरु परिणतः-बे पार्श्व-पडखां, पृष्टान्तर-पीठना विभागो, ऊरू-साथळो परिणत-परिपक्व थयेला छे जेना एवो, पटले उत्तम संघयणवाळो ए तात्पर्य छे. 'तलजमलजुयलपरिघनिभबाहुत्ति. यमल-समधेणिमा रहेला तल-ताडना युगल अने परिघ-आगळीआना समान बाहु जेना छे एवो, 'घणनिचियवट्टपालिखंधे'त्ति. घननिचित-अत्यन्त निबिड, वृत्त-वर्तुलाकार, पाली-तळाव वगेरेनी पाळना सरखा स्कन्ध
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उपासकदशांग सानुवाद
तहिं निप्पट्टपसिणवागरणं करेइ, से तेणटेणं सद्दालपुत्ता! एवं वुच्चइ-'नो खलु पभू अहं तव धम्णायरिएणं| जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए । ज्या ज्यां पकडे त्यां त्यां निरुत्तर करे छे, ते हेतुथी हे सद्दालपुत्र ! हुं एम कहुं छु के 'हुं तारा धर्माचार्य यावत् भगवान् महावीरनी साथे विवाद करवाने समर्थ नथी.
सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१५४॥
॥१५४॥
जेना छे पवो, 'चम्मेदृगहणमोट्टियसमाहयनिचियगायकाए' चर्मेटका-इंटना ककडा वगेरेथी भरेली चामडानी कुल्लो, जेने खेंचवा वडे धनुषधारी व्यायाम करे छे, दुघण-मुद्गर, मौष्टिक जेमां चामडानी दोरी परोवेली छे एवो-मुठी प्रमाण पत्थरनो गोळो, ते बडे समाहत-व्यायाम करवामां ठोकेला गात्र-अंगो जेना छे एवा शरीरवाळो, आ विशेषण वडे अभ्यास जन्य सामर्थ्य बतायुं. 'लंघणपवणजविणवायामसमत्थे लंघन-उल्लंघन करवू, प्लवन-कुदबुं अने जविनव्यायाम-ते सिवाय अन्य शीघ्र व्यायाम, तेओमां समर्थ, 'उरस्सबलसमागप' औरस्य-अंतरना उत्साह अने बल सहित, 'छए' प्रयोगने जाणनार, 'दक्खे' दक्षः-शीघ्र करनार, 'पत्तट्टे' प्रस्तुत काममा पूर्णताने प्राप्त थयेल, 'प्रज्ञ' पम अन्य आचार्य अर्थ करे छे. 'कुसले' विचारपूर्वक करनार, 'मेहावि' त्ति. एकवार जोयेल अने सांभळेल कर्मने जाणनार, 'निउणे' उपायनो आरंभ करनार, 'निउणसिप्पोवगए' सूक्ष्म शिल्प युक्त (मनुष्य) 'अजे वा' बकरो, 'एलकं वा' घेटो, 'शूकरं वा' दुक्कर, कुर्कुट-कुकडो, तित्तिर-तेतर, वर्तक-बतक, लावक-लावा, कपोत-पारेवा कपिंजल, वायस-कागडो, श्येन-बाज ए बधा लोक प्रसिद्ध पक्षीओ जाणवा. तेने 'हत्थंसि वा' हाथने विशे, जो के अज वगेरेने हाथ होता नथी, तो पण आगळनो पग हाथ जेवो छ पम समजी 'हाथने विशे' पम कयुं छे, जेने जे संभवे ते प्रमाणे हाथ, पग, खरी, पुच्छ, पिच्छ, शिंगडा, विषाण अने रोमनी योजना करवी. पिच्छ-पिछा-पांखनो अवयवविशेष, शिंगडा बकरा अने घेटाने जाणवा. विषाण शब्द जो के
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उपासक दशांग सानुवाद
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१५५||
१५५।।
१५ तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मङ्खलिपुत्तं एवं वयासी-'जम्हा णं देवाणुप्पिया! तुब्भे मम धम्मायरियस्स जाव महावीरस्स संतेहिं तचेहिं तहिएहिं सन्भूएहिं भावेहिं गुणकित्तणं करेह तम्हा थे | अहं तुम्भे पाडिहारिएणं पीढ० जाच संथारपणं उवनिमन्तेभि, नो चेव णं धम्मोत्ति वा तवोत्ति वा, तं गच्छह ण तुम्भे मम कुम्भारावणेसु पाडिहारियं पीढफलग० जाव ओगिण्हित्ताणं विहरह । तए णं से गोसाले मडलिपुत्ते सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयम8 पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता कुम्भारावोसु पाडिहारियं पीढ जाव
ओगिण्हित्ता णं विहरइ। तए णं से गोसाले मङ्खलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं जाहे नो संचाइए बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विष्णवणाहि य निग्गन्थाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए
१५. त्यार बाद श्रमणोपासक सद्दालपुत्रे मंखलिपुत्र गोशालकने आ प्रमाणे कह्यु-हे देवानुप्रिय ! जे माटे मारा धर्माचार्य महावीरना विद्यमान, सत्य, तथाप्रकारना सद्भूत भावो वडे गुणकीर्तन करो छो, तेथी हुं तमने (प्रातिहारिक) पाछा आपवा योग्य पीठआसन, यावत् संस्तारक वडे आमन्त्रण करुं छु, परन्तु धर्म अने तपनी बुद्धिथी करतो नथी. ते माटे तमे जाओ अने मारा कुंभकारनी शालामा प्रातिहारिक पीठ, फलक यावत् ग्रहण करीने रहो. त्यार पछी ते मंखलिपुत्र गोशालक श्रमणोपासक सद्दालपुत्रने ज्यारे आघवणा-कथन, प्रज्ञापना, संज्ञापना अने विज्ञापना वडे निग्रन्थ प्रवचनथी चलायमान करवाने, क्षोभ करवाने, विपरिणाम करवाने हाथीना दांतने विशे प्रसिद्ध छे, तो पण समानपणाथी सुअरना दान्तने विशे जाणवो. 'निश्चलम्' सामान्यतः अचल, 'निष्पन्द'-कंइ पण चलन क्रियाथी रहित.
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उपासक
दशांग सानुवाद.
*सद्दालपुत्र
अध्ययन
॥१५६॥
॥१५६॥
वा विपरिणामित्तए वा ताहे सन्ते तन्ते परितन्ते पोलासपुराओ नगराओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खभित्ता | बहिया जणवयविहारं विहरइ।।
१६. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहहिं सील. जाव भावेमाणस्स चोदस संवच्छरा वइक्कन्ता, पण्णरसमस संवरच्छरस्स अन्तरा वट्टमाणस्स पुब्वरत्तावरत्तकाले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्तिं उवसम्पन्जित्ता णं विहरइ । तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोसमर्थ थतो नथी त्यारे श्रान्त थयेलो, तान्त-ग्लानि पामेलो अने परितान्त-खिन्न थयेलो ते पोलासपुर नगरथी नीकळे छे अने बहारना देशोमां विहरे छे.
१६. त्यार पछी सद्दालपुत्र श्रमणोपासकने घणा शीलवत वगेरे वडे यावत् आत्माने भावित करतां चौद वर्ष व्यतीत थया. पंदरमा वर्षनी बच्चे धर्तता तेने रात्रिना मध्य समये (धर्म जागरण करता विचार थयो-) यावत् ते पोषधशालामा श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने 'विहरे छे. ते वार पछी ते सद्दालपुत्र श्रमणोपासकनी पासे मध्य रात्रीए एक देव | आव्यो अने ते देवे एक मोटी काळा कमळ जेवी तलवार लईने सद्दालपुत्र श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कडं-इत्यादि जेम चुलनीपि
१५. 'आघवणाहि य' आख्यानै:-कहेवा वडे, 'प्रशापनाभिः' भेदथी वस्तुनी प्ररूपणा करवा वडे, संज्ञापनाभिः' वारंवार जणाववा वडे, 'विज्ञापनाभिः' अनुकूल कहेवा वडे.
उपासकदशाना सातमा अध्ययननो टीकानुवाद समाप्त. .
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उपासकदशांग सानुवाद
॥१५७॥
वासयस पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउभवित्था। तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असिं७ सद्दालपुत्र गहाय सद्दालपुत्तं समणोवासयं एयं वयासी-जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्गं करेइ, नवरं एक्केक्के | अध्ययन पुत्ते नव मंससोल्लए करेइ, जाव कणीयसं घाएइ, घाइत्ता जाव आयश्चइ । तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए अभीए जाव विहरइ । तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता चउत्थंपि सद्दालपुत्तं सम
॥१५७॥ णोवासयं एवं वयासी-'हं भो सद्दालपुत्ता! समणोवासया! अपत्थियपत्थया जाव न भञ्जसि तओ ते जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्मसहाइया धम्मबिइजिया धम्माणुरागरत्ता समसुहदुक्खसहाइया तं ते साओ ताने कह्यु हतुं तेम कहेवू, अने तेमज देव उपसर्ग करे छे, परन्तु एक एक पुत्रना ना मांसना खंड करे छे, यावत् सौथी नाना पुत्रनो घात करे छे. घात करी तेना लोही अने मांस वडे तेना शरीरने छोटे छे. त्यार पछी ते सद्दालपुत्र श्रमणोपासक भय रहित थई यावत् विहरे छे. त्यार बाद ते देवे सद्दालपुत्र श्रमणोपासकने निर्भय यावत् जोइने चोथी वार पण सद्दालपुत्र श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कडं-अप्रार्थित-मरणनी प्रार्थना करनार हे सद्दालपुत्र श्रमणोपासक ! जो तुं शीलब्रतादिक भांगीश नहि तो जे आ धर्ममां सहाय करनारी, धर्ममां द्वितीय, धर्मना अनुराग वडे रंगायेली अने समानपणे सुख दुःखमा सहाय करनारी तारी अग्निमित्रा भार्या छे तेने तारा पोताना घरथी लइ जइश, लइने तारी पासे तेनो घात करीश. घात करीने नव मांस सोल्ल-मांसना खंड करीश. करीने आदाण-आंधणथी भरेला कडायामां उकाळीश, उकाळीने तारा शरीरने मांस अने लोही वडे छांटीश, जे रीते आर्तध्याननी अत्यन्त पराधीनताथी पीडित थयेलो तुं जीवितथी मुक्त थइश.
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥। १५८।।
गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, घाएत्ता नव मंससोल्लए करेमि, करेत्ता आदाणभरियंसि कहाडयंसि अहेमि, अद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयञ्चामि, जहा णं तुमं अहदुहह० जाव व वरोविजसि । तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वृत्ते समाणे अभीए जाव विहरह । तए णं से | देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं दोचंपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो सद्दालपुत्ता ! समणोवासया । तं चैव भणइ । तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोचंपि तचपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयं अज्झत्थिए ४ समुप्पन्ने । एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिन्तेइ - 'जेणं ममं जेहं पुत्तं, जेणं ममं मज्झिमयं पुत्तं, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं जाव आयञ्चइ, जाऽवि य णं ममं इमा अग्गिभित्ता भारिया समसुहदुक्खसहाइया तंपि य इच्छइ साओ
त्यार पछी ते देवे ए प्रमाणे कां छतां ते सद्दालपुत्र श्रमणोपासक निर्भय थहने विहरे छे. त्यार बाद ते देवे सद्दालपुत्र श्रमणोपासक बीजी वार अने त्रीजी वार ए प्रमाणे कां - हे सद्दालपुत्र श्रमणोपासक ! इत्यादि ( पूर्वोक्त ) कहे छे. ते पछी ते देवे बीजी वार अने त्रीजी वार ए प्रमाणे कां एटले सद्दालपुत्र श्रमणोपासकने आ प्रकारनो विचार थयो-इत्यादि चुलनीपितानी पेठे चिन्तवे छे - 'जे मारा ज्येष्ठ पुत्रने, जे मारा मध्यम पुत्रने, अने जे मारा कनिष्ठ - नाना पुत्रने मारी ( तेना लोही अने मांस वडे मारा शरीरने ) छांटे छे, अने जे आ मारी अग्निमित्रा भार्या सुख दुःखमां समान सहाय करनारी छे तेने पण मारा पोताना घरथी लड्ने मारी पासे घात करवाने इच्छे छे, तो मारे ए पुरुषने पकडवो श्रेय योग्य छे' एम विचारीने ते दोढ्यो - इत्यादि चुलनीपिता संबन्धे कधुं छे तेम बधुं कहेवुं. परन्तु अग्निमित्रा भार्या कोलाहल सांभळीने कहे छे. बाकी बधी वक्तव्यता चुलनीपितानी वक्तव्यतानी
७सद्दालपुत्र अध्ययन
।। १५८।।
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उपासकदशांग सानुवाद
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१५९॥
गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिण्हित्तए' तिकडु उद्धाइए जहा चुलणीपिया तहेव सव्वं भाणियब्वं, नवरं अग्गिभित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ, सेसं जहा चुलणिपियावत्तब्वया, नवरं अरुणभूए विमाणे उववन्ने, जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिह । निक्खेवओ।
सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं सत्तमं अज्झयणं समत्तं । पेठे जाणवी. परन्तु ते ( सद्दालपुत्र ) काळ करी अरुणभूत विमानमां उत्पन्न थयो अने यावत् महाविदेह क्षेत्रमा सिद्धिपद पामशे. अहीं निक्षेप-उपसंहार कहेवो.
सातमा उपासकदशांगना सातमा अध्ययननो अनुवाद समाप्त.
॥१५९॥
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥१६०॥
अ
अझयणं ।
१. अट्ठमस्स उक्खेवओ । एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे । गुणसिले बेइए । सेणिए राया । तत्थ णं रायगिहे महासयए नामं गाहावई परिवसर, अड्डे जहा आणन्दो । नवरं अट्ठ हिरण्ण| कोडीओ सकंसाओ निहाणपउत्ताओ, अट्ठ हिरण्णकोडीओ सकंसाओ वुडिपउत्ताओ, अट्ठ हिरण्णक्रोडीओ सर्कसाओ पवित्थरपउत्ताओ, अट्ठ वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं । तस्स णं महासयगस्स रेवईपामोक्खाओ
८ महाशतक अध्ययन.
१ आठमा अध्ययननो उत्क्षेप-उपोद्घात कहेवो. हे जम्बू ! ए प्रमाणे खरेखर ते काळे अने ते समये राजगृह नगर हतुं. गुणशील चैत्य हतुं श्रेणिक राजा हंतो. ते राजगृह नगरमां महाशतक नामे गृहपति रहेतो हतो. ते आढ्य- धनवान् अने (समर्थ) आनन्दना जेवो हतो. परन्तु तेणे कांस्य सहित आठ हिरण्यकोटी निधानमां मूकेल, कांस्य सहित आठ हिरण्यकोटी वृद्धिमां- व्याजे मूकेल अने कांस्यसहित आठ हिरण्यकोटी धनधान्यादिना विस्तारमां (व्यवहारमा) रोकेली हती. ते महाशतकने रेवती प्रमुख तेर स्त्रीओ हती. ते अहीन - परिपूर्ण अंगवाळी अने सुंदर रूपवाळी हती. ते महाशतकनी भार्या रेवतीने कुलघर - पिताना घरथी आवेल आठ
१ जेमां बे द्रोणी वजन समाय एवं एक जातनुं माप एक द्रोणीमां १२८ शेर समाय छे. एटले २५६ शेर वजन माय तेनुं एक जातनुं कांस्य नामनुं माप.
१८महाशतक अध्ययन
| ॥ १६०॥
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८महाशतक अध्ययन
उपासक दशांग सानुवाद ॥१६१।।
॥१६॥
तेरस भारियाओ होत्था, अहीण. जाव सुरूवाओ । तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोलघरियाओ अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ट वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था । अवसेसाणं दुवालसहं भारियाणं कोलघरिया एगमेगा हिरण्णकोडी, एगमेगे य वए दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था।
२. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे । परिसा निग्गया । जहा आणन्दो तहा निग्गच्छइ, तहेव | सावयधम्म पडिवजइ । नवरं अट्ठ हिरण्णकोडीओ सकंसाओ उच्चारेइ, अट्ट वया, रेवईपामोक्खाहिं तेरसहिं भारियाहिं अवसेसं मेहुणविहिं पच्चक्खाइ, सेसं सव्वं तहेव । इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कल्लाकल्लिं च णं कप्पइ मे बेदोणियाए कंसपाईए हिरण्णभरियाए संववहरित्तए । तए णं से महासयर समणोहिरण्यकोटी, अने दस हजार गायो, एक व्रज एवां आठ बजो हता. बाकीनी बार स्त्रीओने पोताना पिताना घरथी आवेल एक एक हिरण्यकोटी अने दस हजार गायोनुं एक ब्रज एबुं एक एक ब्रज हतुं.
२. ते काळे अने ते समये महावीर स्वामी समोसर्या. परिषद् वांदवाने नीकळी. आनन्दनी जेम (महाशतक) वंदन करवाने नीकळे छे अने तेमज श्रावक धर्मने अंगीकार करे छे. परन्तु कांस्य सहित आठ हिरण्यकोटी अने आठ बजना परिमाणनो उच्चार करे छे. तथा रेवतीप्रमुख तेर भार्याओ सिवाय अवशेष मैथुन विधिनो त्याग करे छे. बाकी बधू तेमज जाणवू, अने आ आवा प्रका
१ आठमुं अध्ययन पण सुगम छे. 'सकंसाओं'त्ति, कांस्य-द्रव्यनुं एक जात प्रमाण, ते बडे सहित सकांस्य-कांस्य नामना प्रमाण युक्त. 'कोलरियाओं' 'कौलगृहिकाः' कुलगृह-पिताना घरथी दायजामां आवेली.
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उपासकदशांग सानुबाद
८महाशतक अध्ययन
॥१६२॥
॥१६२॥
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| वासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ, तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ ।।
३. तए णं तीसे रेवईए गाहावइणीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडम्ब० जाव इमेयारूवे | अज्झथिए ४-'एवं खलु अहं इमासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं विघाएणं नो संचाएमि महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई माणुस्सयाई भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरित्तए, तं सेयं खलु ममं एयाओ दुवालसवि सवत्तियाओ अग्गिप्पओगेणं वा सत्थप्पओगेणं वा विसप्पओगेणं वा जीवियाओ ववरोवित्ता, एयासिं एगमेगं हिरणकोडिं एगमेगं वयं सयमेव उवसम्पज्जित्ता णं महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई जाव विहरनो अभिग्रह ग्रहण करे छे-हमेशां बे द्रोण प्रमाण हिरण्यथी भरेला कांस्य पात्र वडे व्यवहार करवो मने कल्पे छे. त्यार बाद महाशतकश्रमणोपासक थयो अने जेणे जीव अने अजीव तच्च जाणेल छे एवो यावत् विहरे छे.
३. त्यार बाद रेवती गृहपत्नीने अन्य कोइ दिवसे मध्य रात्रिना समये कुटुम्ब जागरण करता आ आवा प्रकारनो विचार थयोए प्रमाणे खरेखर हुं आ बार सपत्नीना विघात-प्रतिबन्ध वडे महाशतक श्रमणोपासक साथे उदार मनुष्य संबन्धी भोगवा योग्य भोगोने भोगववाने समर्थ नथी, तो मारे आ बारे सपत्नीओने अग्निप्रयोग वडे, शस्त्रप्रयोग बडे अथवा विषप्रयोग बडे जीवितथी मुक्त करीने अने एओनी एक एक हिरण्यकोटि अने एक एक गायोना बजने स्वयमेव ग्रहण करीने महाशतक श्रमगोपासक साथे उदार भोगो यावत् भोगववा योग्य छ'-एम विचार करे छे, विचार करीने ते बारे सपत्नीओना अन्तर-अवसर, छिद्रो, अने विवरो जोती रहे छे. त्यार बाद रेवती गृहपत्नी अन्य कोइ दिवसे ते वारे सपत्नीओना अन्तर-छिद्रो जाणीने छ सपत्नीओने शस्त्रप्रयोगथी
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महाशतक
उपासक दशांग सानुवाद
अध्ययन
रित्तए' एवं सम्पेहेइ । संपेहित्ता तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अन्तराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागर- माणी विहरइ । तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अन्तरं जाणित्ता छ स-| वत्तीओ सत्थप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं कोलघरियं एगमेगं हिरण्णकोडिं एगमेगं वयं सयमेव पडिवजइ, पडिवज्जित्ता महासयएणं समणो.
॥१६३।।
॥१६३॥
• मारे छे अने छ सपत्नीओने विषप्रयोगथी मारे छे. मारीने ते बारे सपत्नीओना पितृगृहथी (पियरथी ) आवेल एक एक हिरण्य
कोटी अने एक बजने स्वयमेव ग्रहण करे छे, ग्रहण करीने महाशतक श्रमणोपासक साथे उदार एवा भोग्य भोगोने भोगवती रहे
REEEEXXERCEEEEKKEEEEEEEECH
३'अन्तराणि' अवसरो, 'छिद्राणि'-विरल-थोडा परिवार रूप छिद्रो, 'विवरान्' एकान्तो. 'मांसलोलुपे'त्यादि. मांसमां लंपट, एनंज Ikx विशेषण आपे छे-'मांसमूर्छिता' मांसमां तेना दोष नहि जाणवा वडे मूढ थयेली, 'मांस ग्रथिता' मांसना अनुराग रूप तन्तु वडे गुंथायेली, 'मांसगृद्धा' तेनो उपभोग करवा छतां जेनी इच्छानो विच्छेद थयो नथी पवी, 'मांसाध्युपपन्ना' मांसने विशे एकाग्र चित्तवाळी अने तेथी बहु प्रकारना सामान्य अने विशेष प्रकारना मांसनी साथे, केवा? ते संबन्धे कहे छे-'सोल्लिएहिं' शूल्यकैः-शूलमां परोवीने संस्कार करेला. 'तलितैः' घो इत्यादि वडे अग्नि उपर तळेला, 'भर्जितैः' अग्निमात्र वडे पकावेला, अहीं 'सह' नो अध्याहार समजबो. एटले तेवा मांसनी साथे सुरा-काष्ठ अने पिष्टथी बनेल, मधु-मध, मेरक-पक जातनुं मद्य, मद्य-गोळ अने धावडीथी थयेल मदिरा, सिधु | अने प्रसन्ना-पक जातनी मदिराने 'आस्वादयन्ती' इषत्-थोडो स्वाद करती, कदाचित् 'विस्वादयन्ती' विविध प्रकारे अथवा विशेष प्रकारे | स्वाद करती, कदाचित् 'परिभाजयन्ती' पोताना समस्त परिवारने उपर कहेला तेना (मद्यना) विशेष प्रकारने वहेंचती विहरे छे.
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उपासक
दशांग
८महाशतक अध्ययन
सानुवाद ॥१६४॥
॥१६४॥
BEEKSEEEEEEE
वासएणं सद्धिं उरालाई भोगभोगाइं भुञ्जमाणी विहरइ । तए णं सा रेवई गाहावइणी मंसलोलुया मंसेसु मुच्छिया जाव अज्झोववन्ना बहुविहेहिं मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुंच मेरगं च मज्जं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणी ४ विहरइ ॥
४. तए णं रायगिहे नयरे अन्नया कयाइ अमाघाए घुढे यावि होत्था । तए णं सा रेवई गाहावइणी मंस-| लोलुया मंसेसु मुच्छिया ४ कोलघरिए पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-तुब्भे देवाणुप्पिया ! मम कोलघरिएहितो वएहितो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए उद्दवेह, उद्दवेत्ता ममं उवणेह । तए णं कोलघरिया पुरिसा रेवईए गाहावइणीए 'तह'त्ति एयमढे विणएणं पडिसुणन्ति । पडिसुणेत्ता रेवईए गाहावइणीए कोलघछे. ते पछी ते रेवती गृहपत्नी मांसने विशे लोलुप थयेली, मांसमां मूर्छित थोली, यावत् अत्यन्त आसक्त थयेली बहु प्रकारना || शेकेला, तळेला अने मुंजेला मांसनी साथे सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु अने प्रसन्ना-मदिरानो आस्वाद करती विहरे छे.
४. त्यार बाद राजगृह नगरमा अन्य कोइ दिवसे अमाघात-अमारिनो घोष थयो. त्यारे ते मांसमां लोलुप, मांसमां मूर्छित | थयेली ते रेवती गृहपत्नी कौलगृहिक-पितृगृह-पियेरना पुरुषोने बोलावे छे. बोलावीने तेणे आ प्रमाणे कड्यु-हे देवानुप्रिय ! तमे मारा पितृगृह सबन्धी ब्रजोमांथी दरेक प्रभाते बब्बे वाछडाने मारो अने मारीने मने आपो. त्यारबाद ते पितृगृह-पियरना संबन्धी
४-५ 'अमाघाओ' रूढि शब्द होवाथी तेनो 'अमारि' एवो अर्थ थाय छे. 'कोलरिए' कुलगृह-पितृगृहसंबन्धी 'गोणपोतको बे वाछडाने 'उद्दवेह' मारो. 'मत्ता' इति. सुरा-मदिरा वगेरेना मदवाळो, लुलिता-मद केफ वडे कंपती, स्खलना पामती. 'विकीर्णकेशी'
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उपासक
दशांग सानुवाद
महाशतक अध्ययन
॥१६५॥
॥१६५॥
रिएहिंतो वएहितो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोणपोयए वहेन्ति, वहेत्ता रेवइए गाहावइणीए उवणेन्ति । तए ण सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोणमसेहिं सोल्लेहि य.४ सुरं च ३ आसाएमाणी ४ विहरइ।
५. तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहहिं सील. जाव भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छरा व| इक्कन्ता । एवं तहेव जेहें पुत्तं ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपण्णत्तिं उवसम्पज्जित्ता णं विहरइ । तए णं सा| रेवई गाहावइणी मत्ता लुलिया विइण्णकेसी उत्तरिजयं विकड्डमाणी २ जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए पुरुषो रेवती गृहपत्नीना ए अर्थने 'तहति कहीने विनय वडे स्वीकारे छे. स्वीकारीने रेवती गृहपत्नीना पियरना वजोमांथी दरेक प्रभाते बब्बे वाछडाओनो वध करे छे. वध करीने रेवती गृहपत्नीने आपे छे. त्यार पछी ते रेवती गृहपत्नी ते शेकेला, तळेला अने भुंजेला वाछडाना मांसनी साथे सुरा-मदिरानो आस्वाद करती विहरे छे.
५. त्यार बाद ते महाशतक श्रमणोपासकने घगा शील-व्रतो वगेरे वडे आत्माने भावित करता चौद वरस व्यतीत थया. ए प्रमाणे तेमज मोटा पुत्रने स्थापन करे छे. यावत् पोषधशालामां धर्मप्रज्ञप्तिने स्वीकारीने विहरे छे. त्यार पछी ते रेवती गृहपत्नी मत्त-उन्मत्त थयेली, लुलित-स्खलना पामती, छुटा केशवाळी उत्तरीय-उपरना वस्त्रने दूर करती करती, ज्यां पोषधशाला छे अने छटा केशवाळी. 'उत्तरीयकं' उपरना वस्त्रने विकर्षयन्ती' काढी नाखती (रेवती) ज्यां भहाशतक श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे, आवीने 'मोहोन्मादजनकान्' कामने उद्दीपन करनारा, 'शृंगारिकान्' शृंगाररसवाळा 'स्त्रीभावान्' कटाक्ष बताववा वगेरे स्त्रीभावने 'उपदर्शयन्ती' बतावती महाशतक श्रमणोपासकने कहे छे-'हे भो' ए आमन्त्रण-संबोधन वाची छे. 'महाशतक! इत्यादिथी मांडी
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उपासक
दशांग सानुवाद.
*महाशतक
अध्ययन
॥१६६॥
॥१६६॥
समणोवासए तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता मोहुम्भायजणणाई सिङ्गारियाई इथिभावाइं उवदंसेमाणी २ महासययं समणोवासयं एवं वयासी-'हं भो महासयया ! समणोबासया! धम्मकामया पुण्णकामया सग्गकामया मोक्खकामया धम्मकटिया ४ धम्मपिवासिया ४ किण्णं तुम्भं देवाणुप्पिया! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा? जण्णं तुमं मए सद्धिं उरालाई जाव भुञ्जमाणे नो विहरसि । तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयमद्वं नो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढाइजमाणे अपरियाणमाणे तुसिणीए धम्मज्यां महाशतक श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे. त्या आधीने मोहोन्माद उत्पन्न करनारा, शृंगाररसवाळा स्त्रीभावने प्रदर्शित करती करती तेणे महाशतक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कयु-धर्मनी इच्छावाळा, पुण्यनी इच्छावाळा, स्वर्गनी इच्छावाळा, मोक्षनी इच्छावाभा, धर्मनी कांक्षावाळा ४ धर्मनी पिपासावाळा ४ हे महाशतक श्रमणोपासक ! देवानुप्रिय ! तमारे धर्म, पुण्य, स्वर्ग के मोक्षनुं शुं काम छे, के जे तमे मारी साथे उदार यावत् भोग्य-भोगववा लायक भोगो भोगवता नथी? ते पछी ते महाशतक श्रमणोपासक रेवती गृहपत्नीना ए अर्थनो आदर करतो नथी, अने तेने सारी रीते जागतो नथी, आदर नहि करतो अने नहि जागतो मौन धारण 'विहरसि' सुधी रेवतीना वाक्यनो आ अभिप्राय छ-आज एनो स्वर्ग अथवा मोक्ष छे के जे मारी साथे विषयसुखनो अनुभव करवो. धर्मानुष्ठान स्वर्गादि माटे कराय छे, सुखना माटे स्वर्गादिनी इच्छा कराय छे अने सुख तो एटलुंज छे जे कामर्नु सेवन करवू, ए संबन्धे कहे छ के
"जइ नरिथ सोमंसिणी भो मणहरपियंगुवण्णाओ। ता हे सितिय ! बंधणं खु मोक्खो न सो मोक्खो"॥
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उपासक
दशांग सानुवाद
महाशतक अध्ययन
॥१६७॥
१६७॥
ज्झाणोवगए विहरइ । तए णं सा रेवई गाहावदणी महासययं समणोवासयं दोचंपि तचंपि एवं वयासी- जो! चेव भणइ, सोवि तहेब जाव अणाढाइजमाणे अपरियाणमाणे विहरइ । तए णं सा रेवई गाहावाणी महासयएणं समणोवासएणं अणाढाइजमाणी अपरियाणिजमाणी जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया ।
६. तए णं से महासयए समणोवासए पढमं उवासगपडिम उवसंपज्जित्ता णं. विहरइ । पढमं अहासुत्तं करी धर्मध्यानने प्राप्त थयेलो विहरे छे. त्यार बाद ते रेवती गृहपत्नीए महाशतक श्रमणोपासकने बीजीवार अने त्रीजीवार आ प्रमाणे कह्यु-हे महाशतक श्रमणोपासक! इत्यादि तेमज कहे छे, ते (महाशतक श्रमणोपासक) पग तेमज यावत् आदर नहि करतो, नहि जाणतो विहरे छे. ते पछी ज्यारे महाशतक श्रमणोपासके आदर न कर्यो अने सारी रीते जाणी नहि त्यारे ते रेवती जे दिशा तरफथी आवी हती ते दिशा तरफ चाली गइ.
६. त्यार बाद महाशतक श्रमणोपासक प्रथम उपासक प्रतिमाने स्वीकारीने विहरे छे. प्रथम प्रतिमाने सूत्रमा कह्या प्रमाणे जो मनहर प्रियंगुलताना जेवा वर्णवाळी स्त्रीओ नथी, तो हे सैद्धान्तिक ! मोक्ष ए बन्धन छे, ते (खरेखर ) मोक्ष नथी.
तथा--"सत्यं वच्मि हितं वच्मि सारं वच्मि पुनः पुनः । अस्मिन्नसारे संसारे सारं सारङ्गलोचनाः" ॥ हुँ साचुं कहुं छु, हितकारक कहुं छु अने वारंवार सारभूत कहुंछ के आ असार संसारमा साररूप हरणना जेवा लोचनवाळी (स्त्री) छे. तथा-सोळ बरसनी खी अने पचीश वरसनो पुरुष, आ बन्नेनी निरन्तर प्रीति ए स्वर्ग कहेवाय छे.
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महाशतक अध्ययन
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उपासक
दशांग सानुवाद ॥१६८॥
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॥१६८॥
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जाव एक्कारसवि । तए णं से महासयए समणोवासए तेणं उरालेणं जाव किसे धमणिसन्तए जाए । तए ण तस्स महासययस्स समणोवासयस्स अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकाले धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए ४-'एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जहा आणन्दो तहेव अपच्छिममारणन्तियसंलेहणाझुसियसरीरे भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं अणवकडमाणे विहरइ । तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्झवसाणेणं जाव खओवसमेणं ओहिणाणे समुप्पन्ने । पुरत्थिमेण लवणसमुद्दे जोयणसाहस्सियं खेत्ते जाणइ पासइ, एवं दक्षिणेणं पञ्चत्थिमेणं, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवन्तं वासहरपब्वयं जाणइ पासइ, अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइवाससहस्सटिइयं जाणइ पासइ॥ (विधिथी ) पूर्ण करे छे. एम अगियारे प्रतिमाने पूर्ण करे छे. त्यार पछी महाशतक श्रमणोपासक ते उदार तप वडे यावत् कुशदुर्बळ थयो अने धमनीओ (नाडीओ) बडे व्याप्त थयो. ते पछी ते महाशतक श्रमणोपासकने अन्य कोइ दिवसे मध्य रात्रिना समये धर्म जागरण करता आ आवा प्रकारनो विचार थयो-आ उदार तप वडे हुं कृश थयो छ-इत्यादि आनन्दनी पेठे सौथी छेल्ली मारणान्तिक संलेखना वडे क्षीण थयुं छे शरीर जेर्नु एवो अने प्रत्याख्यात-त्याग कर्यो छे भात पाणीनो जेणे एवो ते काळनी दरकार कर्या सिवाय विहरे छे. त्यार पछी महाशतक श्रमणोपासकने शुभ अध्यवसाय वडे यावत् (अवधिज्ञानावरणना) क्षयोपशम बडे अबधिज्ञान उत्पन्न थयु. ते पूर्व दिशाए लवण समुद्रमा हजार योजन प्रमाण क्षेत्र जाणे छे अने देखे छे. एम दक्षिण अने पश्चिम दिशाए जाणवू. उत्तर दिशाए यावत् चुल्ल हिमवंत वर्षधर पर्वतने जाणे छे अने देखे छे. अधो दिशामां रत्नप्रभा-पृथ्वीना चोराशी हजार
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥१६९॥
७. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ मत्ता जाव उत्तरिजयं विकड्डमाणी २ जेणेव पोसहसाला
पासहसाला८महाशतक जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासययं तहेव भणइ, जाव दोचंपि तचंपि एवं अध्ययन वयासी-'हं भो तहेव । तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोचंपि तचंपि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ४ ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता रेवई गाहावइणिं एवं वयासी-'हं भो
॥१६९॥ रेवइ ! अपत्थियपत्थिए ! ४ एवं खलु तुमं अन्तो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अदृदुहद्दवसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासीइवावरसनी स्थितिवाळा लोलुय अच्युत नामना नरकावासने जाणे छे अने देखे छे. __७. त्यार बाद ते रेवती गृहपत्नी अन्य कोइ दिवसे मत्ता-उन्मत्त थयेली, यावत् उत्तरीय-उपरना वस्त्रने काढी नांखती २ ज्यां पोषधशाला छे अने ज्यां महाशतक श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे. आवीने महाशतक श्रमणोपासकने तेमज कहे छे. यावत् तेणे बीजी वार अने त्रीजी वार आ प्रमाणे कडं हे महाशतक श्रमगोपासक ! इत्यादि पूर्वे कहेलुं तेमज जाणवू. ते पछी रेवती गृहपत्नीए बीजीवार अने त्रीजीवार ए प्रमाणे कडं एटले गुस्से थयेलो ४ महाशतक श्रमणोपासक अवधिज्ञान प्रयुंजे छ, प्रयुजीने अवधिज्ञान वडे जाणे छे. जाणीने तेणे रेवती गृहपत्नीने आ प्रमाणे कयु-अप्रार्थित ( मरण )नी प्रार्थना करनार हे रेवती ! तुं खरे| खर सात रातनी (दिवसनी) अंदर अलसक (विषूचिका) रोग वडे पीडित थइ, आर्तध्याननी अत्यन्त परवशताथी दुःखित थयेली
७ 'अलसपणं' विषूचिका विशेषरूप अजीर्ण वडे, तेनुं आ लक्षण छे-आहार उपर न जाय, नीचे न जाय, तेम पाचन न थाय,
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का
उपासक
दशांग सानुवाद
॥१७॥
SXXXXXXXXXXXXAKCK8***&&&
ससहस्सटिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववजिहिसि । तए णं सा रेवई गाहावाणी महासयएणं समणोवास
Cl८महाशतक एणं एवं वुत्ता समाणी एवं वयासी-रुटे णं ममं महासयए समणोवासए, हीणे णं ममं महासयए समणोवासए,
अध्ययन अवज्झाया णं अहं महासयएणं समणोवासएणं, न नजइ णं अहं केणवि कुमारेणं मारिजिस्सामित्तिकद्दु भीया तत्था तसिया उव्विग्गा सञ्जायभया सणियं २ पच्चोसक्का, पच्चोसक्कित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ,
॥१७॥ उवागच्छित्ता ओहय० जाव झियाइ । तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्तो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया अदृदुहवसट्टा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासीइवाससहअसमाधिने प्राप्त थइ मरण समये काळ करी आ रत्नप्रभा पृथिवीना लोलुय अच्चुय नरकने विशे चोराशी हजार वरसनी स्थितिवाळा नैरयिकोमा नारकपणे उत्पन्न थइश. ते महाशतक श्रमणोपासके ए प्रमाणे कडं एटले ते रेवती गृहपत्नी आ प्रमाणे बोली-महाशतक श्रमणोपासक मारा उपर गुस्से थयेल छे, महाशतक श्रमणोपासक मारा उपर हीन-विरक्त थयो छे. महाशतक श्रमणोपासके मारा विशे दुर्विचार कयों छे, नथी जाणती के हुँ कोइक कुमार-दुःखकारक मृत्यु वडे मराइश' एम विचारी भयभीत थइ, त्रास पामी, त्रस्त
थइ उद्विग्न थइ अने जेने भय थयो छे एवी धीमे धीमे पाछी गइ. पाछी जइने ज्यां पोतानुं घर छे त्यां आवी. आवीने अप|हत थयेली छे मननी इच्छा जेनी एवी ते यावत् विचार करे छे. ते पछी ते रेवती गृहपत्नी सात रातनी अंदर अलसक व्याधि वडे पण आमाशयने विशे अलसीभूत ( आळसुनी पेठे) पडी रहे तेथी ते अलसक रोग कहेवाय छे.
'हीणे त्ति प्रीतिथी रहित. 'अपध्याता' दुनिना विषयभूत करायेली. 'कुमारेणं' दुःखकारक मृत्यु बडे.
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८महाशतक अध्ययन
उपासक
दशांग सानुवाद ॥१७॥
| ॥१७॥
|स्सटिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ना ॥
८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे, समोसरणं, जाव परिसा पडिगया। 'गोयमा'!इ० समणे भगवं महावीरे एवं वयासी-'एवं खलु गोयमा! इहेव रायगिहे नयरे ममं अन्तेवासी महासयए नाम समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिममारणन्तियसंलेहणाए झूसियसरीरे भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं अणवकङ्खमाणे विहरइ । तए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव विकड्डेमाणी २ जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहुम्माय जाव एवं वयासी-तहेव जाव दोचम्पि तच्चम्पि एवं वयासी । तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोचम्पि तच्चम्पि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते ४ पीडित थइ आर्तध्याननी अत्यन्त पराधीनता वडे दुःखी थइ काळ समये काळ करीने आ रत्नप्रभा नरकपृथिवीना लोलुयच्चुय नरकने विशे चोराशी हजार वरसनी स्थितिवाळा नैरयिकोमां नैरयिकपणे उत्पन्न थइ.
८. ते काळे ते समये श्रमण भगवान् महावीर समोसर्या. यावत् परिषद् वांदीने पाछी गई. 'हे गौतम' ! एम सम्बोधी श्रमण भगवान् महावीरे आप्रमाणे का-हे गौतम ! आज राजगृह नगरमां पोसहशालामा सौथी छेल्ली मारणान्तिक संलेखना वडे कृश थयेला शरीरवाळो, भात पाणीनुं प्रत्याख्यान कयु छे जेणे एवो अने कालनी दरकार नहि करतो मारो अन्तेवासी-शिष्य महाशतक नामे श्रमणोपासक रहे छे. ते पछी ते महाशतकनी मदोन्मत्त थयेली यावत् उपरना वस्त्रने काढी नांखती २एवी रेवती नामे गृहपत्नी ज्यां पोषधशाला छे अने ज्या महाशतक छे त्यां आवे छे. आवीने मोहोन्मादने उत्पन्न करनारा. (शृंगारिक स्त्रीभावोने) बतावती
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उपासक
दशांग सानुवाद
॥ १७२ ॥
ओहिं पउंजइ, परंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता रेवई गाहावइणिं एवं वयासी - 'जाव उववज्जि हिसि' । नो खलु कप्पड़ गोयमा ! समणोवासगस्स अपच्छिम० जाव झूसियसरीरस्स भत्तपाणपडिया इक्वियस्स परो सन्तेहिं तच्चेहिं तहिएहिं सम्भूएहिं अणिट्ठेहिं अकन्तेहि अप्पिएहिं अमणुण्णेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए, तं गच्छ णं देवाणुपिया ! तुमं महासययं समणोवासयं एवं वयाहि-नो खलु देवाणुपिया ! कप्पर समणोवासगस्स अपच्छिम० जाव भत्तपाणपडियाइक्वियस्स परो सन्तेहिं जाव वागरित्तए । तुमे य णं देवातेणे आ प्रमाणे कछु - ( हे महाशतक ! ) इत्यादि तेमज कहे छे, यावत् बीजीवार अने त्रीजी वार पण एम कघुं. त्यार पछी ते रेवती गृहपत्नीए बीजीवार अने त्रीजीवार ए प्रमाणे कां एटले ते महाशतक श्रमणोपासक गुस्से थइ अवधिज्ञानने प्रयुंजे छे. प्रयुंजीने अवधिज्ञान वडे जाणे छे. जाणीने तेणे रेवती गृहपत्नीने आ प्रमाणे कधुं यावत् तुं (सात दिवसमां अलसक व्याधिथी मरीने नरक मां उत्पन्न थइश ) तो हे गौतम! अपश्चिम-सौथी छेल्ली मारणान्तिक संलेखना वडे क्षीण थयुं छे शरीर जेनुं एवा अने भक्त पाननुं जेणे प्रत्याख्यान कर्यु छे एवा श्रमणोपासकने सत्य, तथ्य, तेवा प्रकारना सद्भूत छतां अनिष्ट, अनिच्छनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ अमनाप-अमनोहर उत्तर वडे बीजाने उत्तर आपको योग्य नथी, माटे हे देवानुप्रिय ! तुं जा अने तुं महाशतक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कहे के 'हे देवानुप्रिय ! अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना वडे क्षीग थयेला शरीरवाळा अने यावत् भक्त - पाननुं जेणे प्रत्या
८ 'न खलु कण्प गोयमे' त्यादि. 'सन्तेहि' विद्यमान, 'तच्चेहिं' तथ्य-सत्यरूप, तस्वरूप अथवा वास्तविक, 'तहिपहि' तेज पूर्वोक प्रकारने प्राप्त थयेला, पण अल्पांशे न्यूनाधिक नहि एवा, तात्पर्य ए छे के 'सद्भूतैः' सद्रूप छतां 'अनिप्रैः' नहि वांछेल, 'अकान्तैः' स्व
८ महाशतक अध्ययन
॥ १७२॥
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उपासक
दशांग सानुवाद
महाशतक अध्ययन
॥१७३॥
का॥१७३॥
णुप्पिया! रेवई गाहावइणी संतेहिं ४ अणि?हिं ६ वागरणेहिं वागरिया, तं णं तुम एयरस ठाणस्स आलोएहि | जाव जहारिहं च पायच्छित्तं पडिवजाहि' । तए णं से भगवंगोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स 'तहत्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तो पडिणिक्वमइ, पडिनिक्खभित्ता रायगिह नयरं मज्झमज्झेणं अणुप्पविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ । तए णं से महासयए भगवं गोयमं एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट जाब हियए भगवं गोयम वन्दइ नमसइ । तए णं से भगवं गोयमे महासययं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं ख्यान कयु छ एवा श्रमणोपासकने सत्य यावत् अनिष्ट कथन वडे बीजाने उत्तर आपवो योग्य नथी. हे देवानुप्रिय ! तें रेवती गृह| पत्नीने सत्य ४ छतां अनिष्ट ६ कथन वडे उत्तर आप्यो छे, ते माटे तुंए स्थाननी आलोचना कर अने यथायोग्य प्रायश्चित्तनो स्वीकार |
कर. त्यार बाद भगवान् गौतम श्रमण भगवन्त महावीरना ए अर्थने 'तह'त्ति कही विनय वडे स्वीकारे छे. स्वीकारीने त्यांथी नी. कळे छे. नीकळीने राजगृहनगरमा मध्यभागमां थइने प्रवेश करे छे. प्रवेश करीने ज्यां महाशतक श्रमणोपासकर्नु घर छे अने ज्यां महाशतक श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे. त्यारे ते महाशतक श्रमणोपासक भगवान् गौतमने आवता जुए छे. जोइने प्रसन्न अने संतुष्ट रूप वडे अनिच्छनीय, 'अप्रियैः' अप्रीतिकारक, 'अमनोझैः' मन वडे न जणाय, कहेवाने पण न इच्छाय तेवा, 'अमनआपैः' मनने | विचार बडे पण न प्राप्त थाय ते, जेने कहेवामां अने विचारमा मन उत्साहित न थाय एवा व्याकरणः-वचन विशेष बडे उत्तर | आपवो योग्य नथी.
सातमा उपासकदशाना आठमा अध्ययननो अनुवाद समाप्त.
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उपासक
दशांग सानुवाद.
॥१७४॥
महावीरे एवमाइक्ग्वड़ भासह पण्णवेइ परुवेइ-नो खलु कप्पर देवाणुपिया ! समणोवासगस्स अपच्छिम० जाव वागरित्तए, तुमे णं देवाणुपिया ! रेवई गाहाबहणी सन्तेहिं जाव वागरिआ, तं गं तुमं देवाणुपिया ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवज्जाहि' । तए णं से महासयए समणोवासए भगवओ गोयमस्स 'तहत्ति एयमहं विणणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स टाणस्स आलोएइ, जाव अहारिहं च पायच्छित्तं पडिवज्जइ । तए णं से भगवं गोयमे महासयगस्स समणोवासयस्म अन्तियाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्वमित्ता रायगिह नगरं मज्झमझेणं निग्गच्छ, निग्गच्छित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदड नसइ, वंदित्ता नमसित्ता संजमेग तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं हृदयवाळो ते भगवंत गौतमने वंदन नमस्कार करे छे. त्यार पछी भगवान् गौतमे महाशतक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कयुं हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगवान् महावीर आ प्रमाणे कहे छे, भाषे छे, जगावे छे अने प्ररूपं छे- हे देवानुप्रिय ! सौथी छेल्ली मारणान्तिक संलेखना वडे क्षीण धयं छे शरीर जेनुं एवा श्रमणोगासकने सत्य छतां अनिष्ट उत्तर वडे कहेतुं योग्य नथी. हे देवानुप्रिय ! रेवती गृहपनीने सद्भुत छतां अप्रिय उत्तर वडे कां छे, तो हे देवानुप्रिय ! तुं ए स्थाननी आलोचना कर, यावत् प्रायश्चित्तनो स्वीकार कर. ते पछी ते महाशतक श्रमणोपासक भगवंत गौतमनाए अर्थने 'तहति' कही बडे स्वीकार है, स्वीकारीने ते स्थाननी आलोचना करे छे, यावन यथायोप्रायश्चित्तने स्वीकारे छे, न्यार बाद भगवान् गौतम महाशतक श्रमणोपासकनी पाथी नीकले छे. नीकळीने राजगृह नगरना मध्य भागमां जाय है. जड़ने ज्यां श्रमण भगवान् महावीर के त्यों आवे छे. त्यां आवीने श्रमण भगवंत महावीरने वंदन नमस्कार करे
८ महाशतक अध्ययन
॥१७४॥
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उपासक
दशांग
सानुवाद
॥ १७५ ॥
समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥
९. तए णं से महासयए समणोवासए बहहिं सील० जाव भावेत्ता वीसं वासाई समणोवासय परियायं | पाउणित्ता एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं कारण फासित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कन्ते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे अरुणवर्डिसए विमाणे देवत्ताए उववन्ने । चत्तारि पलिओ माई ठिई । महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । निक्खेवो ॥
सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं अट्ठमं अज्झयणं समत्तं ।
छे. वंदन नमस्कार करीने संयम अने तप वडे आत्माने भावित करता विहरे छे. ते पछी श्रमण भगवान् महावीर अन्य कोई दिवसे बहारना देशोमां विहरे छे.
त्यार बाद महाशतक श्रमणोपासक घणा शील व्रत वगेरे बडे यावत् आत्माने भावित करतो वीश वरस सुवी श्रमणोपासक पर्यायाने पाळीने अगियार उपासक प्रतिमाओने सम्यक् काया वडे स्पर्शीने मासिक संलेखना वडे आत्माने कृश करी साठ भक्त अनशन वडे व्यतीत करी आलोचना अने प्रतिक्रमण करी समाधिने प्राप्तथइ मरणसमये काळ करीने सौधर्म देवलोकमां अरुणावतंसक विमानने विशे देव थयो. तेनी चार पल्योपमनी स्थिति छे. ते महाविदेह क्षेत्रने विशे सिद्ध थशे. निक्षेप कहेवो.
सातमा उपासकदशांगना आठमा अध्ययननो अनुवाद समाप्त.
८ महाशतक अध्ययन
॥ १७५ ॥
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उपासक
दशांग सानुवाद.
नन्दिनीपिताध्ययन
॥१७६॥
॥१७६॥
नवमं अज्झयणं । १. नवनस्स उक्खेवो । एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी । कोहए चेइए । जियसनराया। तत्थ णं सावत्थीए नयरीए नन्दिणीपिया नाम गाहावई परिवसइ। अड्डे । चत्तारि हिरणकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ बुड्डिपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ, चत्तारि वया दसगोसाहस्सिएणं वएणं । अस्सिणी भारिया । सामी समोसढे । जहा आनन्दो तहेव गिहिधम्म पडि| वनइ । सामी बहिया विहरइ । तए ण से नन्दिणीपिया समणोवासए जाए, जाव विहरइ । तए णं तस्स नन्दि
९ नन्दिनीपिता अध्ययन. १. नवमा अध्ययननो उपोद्घात कहेवो. हे जम्बू ! ते काले अने ते समये श्रावस्ती नामे नगरी हती. कोष्ठक चैत्य हतुं. जितशत्रु राजा हतो, ते श्रावस्ती नगरीमा नन्दिनी पिता नामे गृहपति रहेतो हतो. ते आढय-धनवान् हतो. तेने चार हिरण्यकोटि निधानमां, चार हिरण्यकोटि व्याजे अने चार हिरण्यकोटि धनधान्यादिना विस्तारमा रोकायेली हती. दस हजार गायोनुं एक व्रज एवा चार | ब्रजो तेने हता. तेने अश्विनी नामे स्त्री हती. महावीर स्वामी समोसा, आनन्द श्रावकनी पेठे तेणे तेमज गृहस्थ धर्मनो स्वीकार कर्यो. महावीर स्वामी बहारना देशोमां विचरवा लाग्या. ते पछी ते नन्दिनीपिता श्रावक थयो अने यावत् (जीव अजीवादि तचने
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उपासक
दशांग सानुवाद
|णीपियस्स समणोवासयस्स बहहिं सीलब्वयगुण जाव भावेमाणस्स चोइस संवच्छराइं वइक्कन्ताई। तहेव जेहूँ | पुत्तं ठवेइ, धम्मपण्णत्ति, वीसं वासाइं परियागं, नाणत्तं अरुणगवे विमाणे उववाओ। महाविदेहे वासे सिजिझ- | हिइ । निक्खेवो॥
॥सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं नवमं अज्झयणं समत्तं ॥
नन्दिनीपिता अध्ययन
॥१७७॥
॥१७॥
जाणतो) विहरे छे. ते पछी ते नन्दिनीपिता श्रमणोपासकने घणा शीलवतो, (गुणवतो वगेरेथी आत्माने भावित करता चौद वरस व्यतीत थया. तेमज ते ज्येष्ठ पुत्रने स्थापन करे छे अने धर्मप्रज्ञप्तिनो स्वीकार करीने विहरे छे. वीश वरस सुधी श्रावकपणानो पर्याय पाळे छे, भेद ए छे के ते अरुणगव विमानमा उत्पन्न थयो, अने पछी ते महाविदेह क्षेत्रमा मोक्षे जशे. अही निक्षेप कहेवो.
उपासकदशाना नवमा अध्ययननो अनुवाद समाप्त.
SO900०
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उपासकदशांग
सानुवाद
॥ १७८॥
दसमं अज्झयणं ।
१. दसमस्स उक्खेवो । एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी । कोट्ठए चेइए। जियसत्तू । तत्थ णं सावत्थीए नयरीए सालिहीपिया नामं गाहावई परिवसइ । अड्डे दित्ते । चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ वुड्डपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ । चत्तारि वया दसगो साहस्सिएणं वएणं । फग्गुणी भारिया । सामी समोसढे । जहा आणन्दो तहेव गिहिधम्मं पडिवज्जइ,
१० सालिहीपिता अध्ययन
१. दसमा अध्ययननो उपोद्घात कहेवो. हे जम्बू ! ते काळे ते समये श्रावस्ती नगरी हती. कोष्ठक चैत्य हतुं. जितशत्रु राजा हतो. ते श्रावस्ती नगरीमां सालिद्दीपिता नामे गृहपति रहेतो हतो. ते धनिक अने दीप्त-तेजस्वी हतो तेने चार हिरण्यकोटी निधानमां मूकेली, चार हिरण्यकोटि व्याजे मूकेली अने चार हिरण्यकोटि धनधान्यादिना विस्तारमां हती. तेने दस हजार गायोनुं व्रज एवा चार व्रजो हतो. फाल्गुनी भार्या हती. महावीर स्वामी समोमर्या. आनन्दनी पेठे ते गृहस्थधर्मने स्वीकारे ले. अने कामदेवनी
१ नव अने दस अध्ययन स्पष्ट छे. दरेक अध्ययने उपक्षेप-उपोद्घात अने निक्षेप-निगमन विचारीने कहेवो. तथा 'प प्रमाणे हे जम्बू' इत्यादि उपासकदशानुं निगमन वाक्य जाणवु.
१० सालिहीपिता
अध्ययन
॥१७८॥
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उपासक दशांग सानुवाद
॥१७९||
SKREKKENNECKXXXXXXXXXX
जहा कामदेवो तहा जे पुत्तं ठवेत्ता पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ति उवसम्पन्जि-१० सालिण विहरइ । नवरं निरुवसग्गाओ एक्कारसवि उवासगपडिमाओ तहेव भाणियवाओ। एवं कामदेवगमेणं हीपिता नेयब्बं जाव सोहम्मे कप्पे अरुणकीले विमाणे देवत्ताए उववन्ने । चत्तारि पलिओवमाइं ठिई, महाविदेहे वासे
अध्ययन सिज्झिहिद ॥
॥१७९॥ २. दसण्हवि पणरसमे संवच्छरे वट्टमाणाणं चिन्ता। दसहवि वीसं वासाई समणोवासयपरियाओ॥ एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव सम्पत्तणं सत्तमस्स अगस्स उवासगदसाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमहे पण्णत्ते।
३. वाणियगामे चम्पा दुवे य वाणारसीए नयरीए । आलभिया य पुरवरी कम्पिल्लपुरं च बोद्धव्वं ॥१॥ जेम ज्येष्ठ पुत्रने स्थापीने पोसहशालामा श्रमण भगवंत महावीरनी धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकारीने विहरे छे. परन्तु अगीयारे श्रावकनी प्रतिमाओ उपसर्ग रहित तेमज कहेवी. एम कामदेवना मूत्रपाठ वडे जाग. यावत् सौधर्म कल्पमा अरुगकिल विमानने विशे देवपणे उत्पन्न थयो. त्यां तेनी चार पल्योपमनी स्थिति छे. ते महाविदेह क्षेत्रने विशे मोझे जशे.
२. दशे श्रावकोने पंदरमा वर्षे चिन्ता-धर्मप्रज्ञप्ति मुजब वर्तवानो विचार थाय छे. अने दशे श्रावकनो वीश वरस श्रमणोपासक पर्याय छे. ए प्रमाणे हे जम्बू ! यावत् निर्वागने प्राप्त थयेला श्रमण भगवान् महावीरे उपासकदशाना दसमा अध्ययनो आ अर्थ कह्यो छे.
३. वाणिज्य ग्रामने विषे प्रथम, बे श्रावको चम्पानगरीमा २-३, वाराणसीमा ४यो, आलभिका नगरीमा ५मो, कंपीलपुरमां
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उपासकदशांग सानुवाद
१० सालिहीपिता अध्ययन
॥१८॥
॥१८॥
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पोलासं रायगिह साथीए पुरीए दोन्नि भवे । एए उवासगाणं नयरा खलु होन्ति बोद्धव्या ॥२॥ सिवनन्द भद्द सामा धन्न बहुल पूस अग्गिमित्ता य । रेवइ अस्सिणि तह फग्गुणी य भजाण नामाई ॥३॥ ओहिण्णाण पिसाए माया वाहिधणउत्तरिज्जे य । भज्जा य सुब्बया दुबया निरुवसग्गया दोनि ॥४॥ अरुणे अरुणाभे खलु अरुणप्पहअरुणकन्तसिट्टे य । अरुणज्झए य छटे भूय वडिंसे गवे कीले ॥५॥ चाली सहि असीई सट्ठी सही य सहि दस सहस्सा । असिई चत्ता चत्ता एए वइयाग य सहस्सा ।।६।।
बारस अट्ठारस चउवीसं तिविहं अटुरेसाई नेयं । धन्नण ति चोवीसं बारसं बारसे य कोडीओ ॥७॥ ६ट्ठो, पोलासपुरमा ७मो, राजगृहमा ८मो, अने बे श्रावक श्रावस्ती नगरीमां थया. ए उपासकोना-श्रावकना नगरो जाणवा योग्य छे.
शिवनन्दा, भद्रा, श्यामा, धन्या, बहुला, पुष्या, अग्निमित्रा, रेवती, अश्विनी, अने फाल्गुनी ए दस श्रावकोनी भार्याना अनुक्रमे नाम छे. __अवधिज्ञान १, पिशाच २, माता ३, व्याधि ४, धन ५, उत्तरीय वस्त्र ६, सुव्रता-सुंदर आचारवाळी भार्या ७, अ दुराचारवाळी भार्या उपसर्गोना निमित्तो छ. अने छेल्ला बे श्रावक उपसर्गरहित छे.
ए दसे श्रावकोनी उत्पत्ति अनुक्रमे अरुण, अरुगाभ, अरुणप्रभ, अरुणकान्त, अरुणशिष्ट, छठो अरु गधज, अरुणभूत, अरुणा. | वतंसक, अरुणगव अने अरुणकिल विमानने विशे थई छे.
चालीश, साठ, अॅसी, साठ, साठ, साठ, दस, अॅसी, चाळीश, अने चाळीश एटला हजार गायोना बज अनुक्रमे जाणवा.
९. पता
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उपासक
दशांग सानुवाद
उल्लणदन्तवणफले अभिङ्गणुव्वट्टणे सणाणे य। वत्थ विलेवण पुप्फे आभरणं धूवपेजाइ ॥८॥ भक्खोयण सूय घए सागे माहुर-जेमण-पाणे य। तम्बोले इगवीसं आणन्दाईण अभिग्गहा ॥९॥ उड्ढे सोहम्मपुरे लोलूए अहे उत्तरे हिमवन्ते । पञ्चसए तह तिदिसं ओहिष्णाणं दसगणस्स ॥१०॥ दसण-वय-सामाइय पोसह-पडिमा-अबम्भ-सच्चित्ते। आरम्भ-पेस-उद्दिट्ठवज्जए समणभूए य ॥११।।
इक्कारस पडिमाओ वीसं परियाओ अणसणं मासे । सोहम्मे चउपलिया महाविदेहम्मि सिज्झिहिइ ॥१२॥ पहेला आनन्द श्रावकने बार हिरण्यकोटि, बीजा श्रावकने अढार, त्रीजाने चोवीश, अने पछी चोथा, पांचमा अने छट्ठा ए त्रण श्रावकने अढार अढार कोटी, सातमाने त्रण कोटी, आठमाने चोवीश कोटि अने नवमा तथा दसमा श्रावकने बार बार हिरण्यकोटि
१० सालिहीपिता अध्ययन | ॥१८॥
॥१८॥
द्रव्य छै.
उल्लण-अंगुछा, दातण, फळ, अभ्यंग, उद्वर्तन, स्नान, वस्त्र, विलेपन, पुष्प, आभरण, धूप, पेया, भक्ष्य, ओदन, सूप, घी, शाक, माधुर, (फळनो मधुर रस) जमण, पाणी अने तांबूल ए एकवीश प्रकारना अभिग्रहो आनन्दादि श्रावकोने छे.
उर्ध्व दिशामां सौधर्म देवलोक सुधी, अधो दिशामां रत्नप्रभाना लोलुयच्चुय नरकावास सुधी, उत्तरदिशामा हिमवन्त पर्वत सुधी अने चाकीनी त्रणे दिशामां पांचसो योजन सुधीन अवधिज्ञान दसे श्रावकोने छे.
बधा श्रावकोने दर्शन, व्रत, सामायिक, पोसह, कायोत्सर्ग प्रतिमा, अब्रह्मचर्यवर्जन, सच्चित्ताहारवर्जन, आरंभवर्जन, प्रेष्यवर्जन, उद्दिष्टवर्जन, अने श्रमणभूत ए अगियार प्रतिमाओ छ, वीश वरसनो श्रावकपणानो पर्याय छे, एक मासर्नु अनशन छे, सौधर्म
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उपासक
दशांग सानुवाद.
१. सालिहीपिता अध्ययन
॥१८२॥
॥१८२॥
उवासगदसाओ समत्ताओ॥ उवासगदसाणं सत्तमस्स अङ्गस्स एगो सुयखन्धो दस अज्झयणा एकसरगा दससु चेव दिवसेसु उद्दिस्सिज्जति तओ सुयखन्धो समुद्दिस्सिज्जइ अणुण्णविजइ दोसु दिवसेसु, अङ्गं तहेव॥
॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दसमं अज्झयणं समत्तं ॥ कल्पमा चार पल्योपमनी स्थिति छ, अने बधा श्रावको महाविदेह क्षेत्रमा मोक्षे जवाना छ.]
उपासकदशा समाप्त. सातमा उपासकदशा अंगनो एक श्रुतस्कन्ध छे. दश अध्ययनो एक सरखा छे. ते दस दिवसे उपदेशाय छे, त्यार बाद बे दिवसोमां श्रुतस्कन्धनो समुद्देश-सूत्रने स्थिर परिचित करवा माटे उपदेश कराय छे अने अनुज्ञा-संमति अपाय छे तेमज ते अंगनो समुद्देश अने अनुज्ञा अपाय छे.
शिष्टादि नामो अरुणपदपूर्वक जाणवा, तेथी अरुणशिष्ट इत्यादि नाम कहेवा. अने ए गाथाओ पूर्वे कह्या प्रमाणे जाणवी. अहीं जेनी व्याख्या करी नथी तेनी व्याख्या ज्ञाताधर्मकथानुं व्याख्यान सावधानपणे जोइने जाणी लेवी. ___ सर्व मनुष्योने प्रायः पोतार्नु बचन अभिमत-इष्ट होय है, परन्तु जे पोताने पण सारी रीते रुचतुं नथी ते बीजाने शी रीते रुचे? तो पण कोइक चित्तना उल्लासथी ए प्रमाणे में कंडक कां छे, तेमा जे युक्त होय तेनो मारी प्रीतिने माटे निर्मल बुद्धिवाळा पुरुषो स्वीकार करो. श्री चन्द्रकुलरूप आकाशमां सूर्यसमान श्रीजिनेश्वराचार्यना शिष्य श्रीमदनवांगीना टीकाकार श्रीमद्
अभयदेवाचार्य करेला उपासकदशानी टीकानो अनुवाद समाप्त.
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________________ OCRORE श्रीमदुपासकदशाङ्ग अनुवाद सहित समाप्त / OROSO DESCRICANCERICASARAMANARASANGREHLOKARMACRO