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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
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१८३॥
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हइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, हारविराइयवच्छं जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं पासाईयं दरिसणिजं अभिरूवं पडिरूवं दिव्वं देवरूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता कामदेवस्स समणोयासयस्स पोसहसालं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता अन्तलिकग्वपडिवन्ने सखिग्विणियाई पञ्चवण्णाई वत्थाई पवरपरिहिए कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो कामदेवा ! समणोवासया ! धन्ने सि णं तुम देवाणुप्पिया ! सपुण्णे खसे छे, खसीने पोषधशालाथी नीकळे छे, नीकळीने दिव्य सर्परूपनो त्याग करे छे, त्याग करीने एक मोटुं दिव्य देवरूप विकुंचे छ. हार वडे विराजित-सुशोभित वक्षःस्थल जेनुं छे एवं, यावत् दस दिशाओने उयोतित अने प्रकाशित करतुं, प्रासादीय-प्रसन्नता करतुं, दर्शनीय, अभिरूप-मनोज्ञ, प्रतिरूप-विशिष्ट रूपवाळु दिव्य देवरूप विकुर्वे छे. विकुर्वीने कामदेव श्रमणोपासकनी पोपधशालामा प्रवेश करे छे. प्रवेश करीने आकाशमा रहीने घुघरीओ सहित पांचवर्णवाळा वस्त्रोने प्रवरपरिहितः-सारी पहेरेला छे जेणे एवा तेणे कामदेव श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कमु-हे कामदेव श्रमणोपासक ! तुं धन्य छो, हे देवानुप्रिय ! तुं पुण्यशाली, कृतार्थ अने * रूप विकुर्वे छे. तेनु वर्णन करे छे-'हारविराइयवच्छं' हार वडे विराजित-सुशोभित वक्षःस्थल जेनु छे प, अहीं यावत् शब्दथी आ प्रमाणे वर्णन जाणवू. 'कडगतुडियर्थभियभुयं' कटक-कडां, त्रुटित-बाहुरक्षक, बहेरखा; ते घणा होवाथी ते बडे स्तम्भित-अक्कड रहेली छे भुजाओ जेनी एवं: 'अंगदकुंडलमट्टगंडतलकण्णपीढधारि' अंगद-केयूर, बाहुन भूषण, कुंडल प्रसिद्ध छे, अने मृष्ट-स्पर्श कयों छे गंडस्थळनो जेणे पवा कर्णपीठ-कानना आभूषणने धारण करनार, विचित्तहत्थाभरण' विचित्र हाथना आभरण जेने छे पवु, विचित्तमालामउलि' विचित्र मालायुक्त मौलि-मुकुट अथवा मस्तक जेनुं छे एबुं, 'कल्लाणगपवरवत्थपरिहियं' कल्याणक-नवीन प्रवर-श्रेष्ट वस्त्र जेणे परिहित-पहेरेलु छे एबुं, 'कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरं' कल्याणकारक अने प्रवर-श्रेष्ठ माल्य-पुप्पो अने अनुलेपन-विलेपन धारण कर
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