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________________ CE उपासकदशांग सानुवाद १ आनंदा. ध्ययन ॥४४॥ ॥४४॥ लाभेमाणस्स विहरित्तए'त्तिकटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठाई आदियइ, आदिइत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वन्दइ, वंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव वाणियगामे नयरे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिवनन्दं भारियं एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिए ! मए समणस्स रनो अभिग्रह-नियम ग्रहण करे छे, ग्रहण करीने ते संबन्धे प्रश्नो पूछे छ, प्रश्नो पूछी तेनो अर्थ ग्रहण करे छे, अर्थ ग्रहण करी श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार वंदन करे छे, वंदन करी श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी अने तिपलाश चैत्यथी नीकळे छे. नीकळीने ज्यां वाणिज्यग्राम नगर छे अने ज्यां पोतार्नु घर छे त्यां आवे छे. त्यां आवीने तेणे शिवनंदा भार्याने आ प्रमाणे कडं-“हे देवानुप्रिये ! खरेखर में श्रमण भगवंत महावीरनी पासे ए प्रमाणे धर्म सांभळ्यो अने ते धर्म मने इष्ट छे, पुनः पुनः इष्ट छे अने तेनी आपवाने 'अनुप्रदातुम्' वारंवार आपवाने योग्य, नथी. आ धर्मबुद्धिथी आपवानो निषेध छे, पण करुणाबुद्धिथी नथी, करुणा वडे तो आपे पण खरो. शुं सर्वथा योग्य नथी? प शंकाना समाधानमा कहे छे-'नन्नत्थ रायामिओगेणं' राजाभियोगाद् अन्यत्रराजानो अभियोग-पराधीनता ते सिवाय बोजे योग्य नथी. अहीं तृतीया विभक्ति पंचमीना अर्थमां छे. गण-समुदाय, तेनो अभियोग -परवशता, बलाभियोग-राजा अने गण-समुदाय सिवाय बलवाननो पराधीनता, देवाभियोग-देवनी पराधीनता, गुरुनिग्रह-मातापिता नी पराधीनता, अथवा गुरु-चैत्य अने साधुओनो निग्रह-शत्रुओए करेलो उपद्रव ते गुरुनिग्रह, ते प्राप्त थाय त्यारे अन्यतीथिकोने Mi आपवा छतां पण सम्यक्त्वने दृषित करतो नथी. 'वित्तिकंतारेण वृत्ति-आजीविका, तेनो कांतार-अरण्यना जेवं क्षेत्र अने काळ होय ते दृत्तिकान्तार-निर्वाहनो अभाव, तेथी बीजे दान अने प्रणामादिनो निषेध छे. श्रमण निर्ग्रन्थोने निर्दोष आहार पाणी, वस्त्र, प्रतिग्रह
SR No.600279
Book TitleUpasakdashanga Sutra
Original Sutra AuthorAbhaydevsuri
Author
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_upasakdasha
File Size15 MB
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