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________________ उपासक दशांग सानुवाद ॥ १७२ ॥ ओहिं पउंजइ, परंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता रेवई गाहावइणिं एवं वयासी - 'जाव उववज्जि हिसि' । नो खलु कप्पड़ गोयमा ! समणोवासगस्स अपच्छिम० जाव झूसियसरीरस्स भत्तपाणपडिया इक्वियस्स परो सन्तेहिं तच्चेहिं तहिएहिं सम्भूएहिं अणिट्ठेहिं अकन्तेहि अप्पिएहिं अमणुण्णेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए, तं गच्छ णं देवाणुपिया ! तुमं महासययं समणोवासयं एवं वयाहि-नो खलु देवाणुपिया ! कप्पर समणोवासगस्स अपच्छिम० जाव भत्तपाणपडियाइक्वियस्स परो सन्तेहिं जाव वागरित्तए । तुमे य णं देवातेणे आ प्रमाणे कछु - ( हे महाशतक ! ) इत्यादि तेमज कहे छे, यावत् बीजीवार अने त्रीजी वार पण एम कघुं. त्यार पछी ते रेवती गृहपत्नीए बीजीवार अने त्रीजीवार ए प्रमाणे कां एटले ते महाशतक श्रमणोपासक गुस्से थइ अवधिज्ञानने प्रयुंजे छे. प्रयुंजीने अवधिज्ञान वडे जाणे छे. जाणीने तेणे रेवती गृहपत्नीने आ प्रमाणे कधुं यावत् तुं (सात दिवसमां अलसक व्याधिथी मरीने नरक मां उत्पन्न थइश ) तो हे गौतम! अपश्चिम-सौथी छेल्ली मारणान्तिक संलेखना वडे क्षीण थयुं छे शरीर जेनुं एवा अने भक्त पाननुं जेणे प्रत्याख्यान कर्यु छे एवा श्रमणोपासकने सत्य, तथ्य, तेवा प्रकारना सद्भूत छतां अनिष्ट, अनिच्छनीय, अप्रिय, अमनोज्ञ अमनाप-अमनोहर उत्तर वडे बीजाने उत्तर आपको योग्य नथी, माटे हे देवानुप्रिय ! तुं जा अने तुं महाशतक श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कहे के 'हे देवानुप्रिय ! अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना वडे क्षीग थयेला शरीरवाळा अने यावत् भक्त - पाननुं जेणे प्रत्या ८ 'न खलु कण्प गोयमे' त्यादि. 'सन्तेहि' विद्यमान, 'तच्चेहिं' तथ्य-सत्यरूप, तस्वरूप अथवा वास्तविक, 'तहिपहि' तेज पूर्वोक प्रकारने प्राप्त थयेला, पण अल्पांशे न्यूनाधिक नहि एवा, तात्पर्य ए छे के 'सद्भूतैः' सद्रूप छतां 'अनिप्रैः' नहि वांछेल, 'अकान्तैः' स्व ८ महाशतक अध्ययन ॥ १७२॥
SR No.600279
Book TitleUpasakdashanga Sutra
Original Sutra AuthorAbhaydevsuri
Author
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_upasakdasha
File Size15 MB
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