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उपासकदशांग सानुवाद
२ कामदेवाध्ययन
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|त्ता आसुरुते ४ एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय तुम एवं वयासी-हं भो कामदेवा !जाव जीवियाओ वव-
रोविजसि । तं तुमं तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरसि, एवं वण्णगरहिया तिण्णिवि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारेयब्वा जाव देवो पडिगओ। से नूणं कामदेवा! अढे समझे ? हन्ता, अत्थि । 'अलो! इ समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गन्थे य निग्गन्धीओ य आमन्तेत्ता एवं वयासी-जइ ताव अज्जो! समणोवासगा गिहिणो गिहमज्झावसन्ता दिव्वमाणुसतिरिक्खजोणिए उवसग्गे सम्म सहन्ति जाव अहियासेन्ति, सक्का पुणाई अजो! समणेहिं निग्गन्थेहिं दुवालसङ्गं गणिपिडगं अहिज्जमाणेहिं दिव्वमाणुसतिरिक्खजोतेणे एक मोटी काळा कमळना जेवी तलवार ग्रहण करी तने आ प्रमाणे कडं-हे कामदेव ! तुं यावत् जीवितथी मुक्त थईश. ते देवे तने ए प्रमाणे कडं एटले तुं निर्भय रह्यो. एम वर्णन रहित त्रणे उपसों तेम ज फरीथी कहेवा यावत् देव पाछो गयो. हे कामदेव ! आ अर्थ समर्थ-यथार्थ छ ? हा, छे. श्रमण भगवंत महावीरे 'हे आर्यो ! एम संबोधी घणा श्रमण निग्रन्थो अने निर्ग्रन्थीओने आ प्रमाणे कड्यु-'हे आर्यो ! जो गृहवासमा रहेता गृहस्थ श्रमणोपासको दिव्य, मनुष्य अने तिर्यच संवन्धी उपसगोंने सम्यक् सहे छे, यावत् शान्तिथी सहे छे, तो हेआर्यों! द्वादशाङ्गरूप गणिपिटकने अध्ययन करनारा श्रमण निर्ग्रन्थोए दिव्य, मनुष्य अने तिर्यच | संबन्धी उपसों सम्यक् सहन करवा यावत् विशेषतः सहन करवा योग्य छे. त्यार बाद ते घगा श्रमण निग्रन्थो अने निर्ग्रन्थीओ
८ 'अढे समढे' त्ति आ अर्थ छे अथवा अर्थ-में कहेली वस्तु समर्थ-संगत छे. 'हन्ता' ए कोमळ आमन्त्रणवाची छे. 'अज्जो'त्ति 'हे आर्यो !' ए प्रमाणे बोलावीने कयुं. 'सहन्ति' सहन करे छे, यावत् शब्दना पाठथी आ जाणवू 'खमन्ति, तितिक्खन्ति'
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