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________________ उपासकदशांग सानुवाद ॥९४॥ ८. कामदेवा ! इसमणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-से नूणं कामदेवा ! तुब्भं पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अन्तिए पाउन्भूए, तए णं से देवे एगं महं दिव्वं पिसायरूवं विउब्वह, विउच्वि८ " हे कामदेव !" एम कही श्रमण भगवंत महावीरे कामदेव श्रमणोपासकने आ प्रमाणे कं हे कामदेव ! खरेखर मध्यरात्रिना समये तारी पासे कोई एक देव प्रगट थयो हतो. ते पछी ते देवे एक मोडुं पिशाचनुं रूप विकुर्यु. विकुर्वीने गुस्से थयेला त्या बाद अत्यन्त मोटी मनुष्यनी परिषद् श्रमण भगवंत महावीरनी पासेथी धर्म सांभळीने, अवधारीने हृष्ट-प्रसन्न हृदयवाळी थइने उठे छे, उठीने श्रमण भगवंत महावीरने त्रण वार आदक्षिण-जमणी बाजुथी प्रदक्षिणा करे छे, प्रदक्षिणा करीने वंदन नमस्कार करे छे. वंदन नमस्कार करीने केटलाएक मुंड थहने गृहवासथी साधुपणाने अंगीकार करे छे अने केटलापक पांच अणुव्रत अने सात शिक्षा व्रत रूप बार प्रकारना गृहस्थ धर्मने प्राप्त थाय छे. बाकीनी परिषद् श्रमण भगवंत महावीरने वंदन करी आ प्रमाणे कहे छेहे भगवन् ! आपे निर्ग्रन्थ प्रवचन सारी रोते कह्युं छे, भेद बताववा वडे सारी रीते प्ररूप्युं छे, वचननी स्पष्टताथी सारी रोते भाष्यं छे. शिष्योने विषे विनियोग करवांधी व्यवस्थित' कहेलं छे, तत्त्वना कहेवाथी सारी रीते भाव्युं छे, हे भगवन्! निर्ग्रन्थ प्रवचन अनुत्तर- जेनाथी बीजुं कोइ श्रेष्ठ नथी एवं छे. ते धर्मने कहेता तमे उपशमने कहो छो, उपशम-क्रोधादिनो निग्रह करवो. उपशमने क हेता विवेकने कहो छो, विवेक बाह्य परिग्रहनो त्याग. विवेकने कहेता विरमणने कहो छो, विरमण - प्राणातिपातादिथी मननी निवृत्ति, विरमणने कहेता पाप कर्मने नहि करवानुं कहो छो. अर्थात् उपशमादि रूप धर्मने कहो छो प तात्पर्य छे. बीजा कोइ श्रमण अथवा ब्राह्मण नथी, जे आवा प्रकारना धर्मने कहेवाने समर्थ होय, तो पछी आधी उत्तम धर्म कहेवाने माटे शुं कहेवु. ए प्रमाणे वंदन करीने परिषद् जे दिशा तरफथी आवी हती ते दिशा तरफ गइ. २ कामदेवाध्ययन ॥९४॥
SR No.600279
Book TitleUpasakdashanga Sutra
Original Sutra AuthorAbhaydevsuri
Author
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_upasakdasha
File Size15 MB
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