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उपासकदशांग सानुवाद
१ आनंदाध्ययन
॥५९॥
॥५९॥
| पाए अभिवन्दित्तए, तुम्भे भन्ते ! इच्छाकारेणं अणभिओएणं इओ चेव एह, जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वन्दामि नमसामि'। तए णं से भगवं गोयमे जेणेव आणन्दे समणोवासए तेणेव उवागच्छद॥
१४. तए णं से आणन्दे समणोवासए भगवओ गोयमस्स तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वन्दइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'अत्थि णं भन्ते ! गिहिणो गिहमज्झावसन्तस्स ओहिनाणे समुप्पज्जइ ? हन्ता अत्थि। जइ णं भन्ते ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ, एवं खलु भन्ते ! ममवि गिहिणो गिहमज्झावसन्तस्स ओहिनाणे समुप्पन्ने-पुरत्थिमेणं लवणसमुद्दे पञ्च जोयणसयाइं जाव लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि । तए णं से त्रण वार मस्तक वडे आपना पगे वंदन करवाने समर्थ नथी, तो हे भगवन् ! तमेज इच्छा वडे अनभियोग-स्वतन्त्रपणे अहीं आवो, यावत् देवानुप्रिय एवा आपना पगे मस्तक वडे त्रणवार वन्दन नमस्कार करूं'. त्यार बाद भगवान् गौतम ज्यां आनन्द श्रमणोपासक छे त्यां आवे छे.
१४. त्यार बाद ते आनन्द श्रावक भगवान् गौतमने त्रण वार मस्तक बडे पगे वंदन नमस्कार करे छे, वंदन नमस्कार करीने तेणे आ प्रमाणे कह्यु-'हे भगवन् ! गृहस्थने गृहवासमा रहेता अवधि ज्ञान थाय छे ? हा, थाय. हे भगवन् ! गृहस्थने यावत् अबधिज्ञान थाय छे तो हे भगवन् ! गृहवासमा रहेता गृहस्थ एवा मने पण अवधिज्ञान थयु छे. पूर्व दिशामां लवण समुद्रने विशे पांचसो योजन सुधी यावत् नीचे रोरुयनामे नरकावासने जाणुं छु अने देखु छु, त्यार बाद भगवान् गौतमे आनन्द श्रमणोपासकने ए प्रमाणे
१४. 'गिहमज्झावसन्तस्स' गृहमध्यावसतः-धरमा रहेता.