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उपासक
दशांग सानुवाद
७ सद्दालपुत्र अध्ययन
॥१५३॥
||१५३॥
वा पिच्छसि वा सिङ्गसि वा विसाणंसि वा रोमंसि वा जहिं जहिं गिण्हइ तहिं तहिं निचलं निप्फन्दं धरेइ, एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहहिं अटेहि य हेऊहि य जाव वागरणेहि य जहिं जहिं गिण्हइ तहिं | वायस अने श्येन-बाजने हाथे, पगे, खरीए, पुंछडे, पिंछाए, शींगडे, विषाण-सुकरना दांते के रुघाटे ज्यां ज्यां पकडे त्यां त्यां निश्चल अने स्पन्द रहित पणे धारण करी शके छे, ए प्रमाणे श्रमण भगवान् महावीर मने घणा अर्थो, हेतुओ, यावत् उत्तरो वडे प्रयोजन प्राप्त कयु छे पवा, तथा 'इतिनिपुणाः' सूक्ष्मदर्शी, वृद्धो 'कुशल' एवो अर्थ करे छे. 'इतिनयवादिनः' नीतिना कहेनारा, 'इत्युपदेशलब्धा' जेणे आप्त पुरुषोनो उपदेश प्राप्त कर्यों छे पवा, बीजी वाचनामा 'इतिमेधाविनः' अपूर्व श्रुतने ग्रहण करवानी शक्ति वाळा, 'इति विज्ञानप्राप्ताः' अने जेमणे सद्बोध प्राप्त कयों छे एवा छो, तो तमे मारा धर्माचार्य श्रमण भगवान महावीरनी साथे विवाद करवाने अहीं 'प्रभु' शब्दनो संबन्ध छे पटले समर्थ छो? ए तात्पर्य छे. ___'से जहे'त्यादि यथानाम-जेम कोइ पुरुष तरुण-वधती जती उमरवाळो, अन्य आचार्य 'वर्णादि गुण वडे उपचित' एवी व्याख्या करे छे. यावत् शब्दना कथनथी आ जाणवु-'बलवं' सामर्थ्यवाळो, 'जुगवं' युगवान्-युग-प्रशस्त काळ विशेष जेओने छे पवो, पटले उत्तम काळमां उत्पन्न थयेलो, कारण के दुए काळ बळनी हानि करनार होवाथी तेनो निषेध करवा माटे आ विशेषण छे. 'जुवाणे' त्ति युवान, 'अप्पार्यके नीरोगी, 'थिरम्गहत्थे सारा लेखकनी पेठे स्थिर अग्र हस्तवाळो, कारण के जेना हाथनो अन भाग अस्थिर होय तो बरोबर पकडी न शके माटे आ विशेषण छे. 'दढपाणिपाए' मजबूत हाथ पगबाळो, 'पासपिदृन्तरोरुपरिणए' पाचपृष्ठान्तरोरु परिणतः-बे पार्श्व-पडखां, पृष्टान्तर-पीठना विभागो, ऊरू-साथळो परिणत-परिपक्व थयेला छे जेना एवो, पटले उत्तम संघयणवाळो ए तात्पर्य छे. 'तलजमलजुयलपरिघनिभबाहुत्ति. यमल-समधेणिमा रहेला तल-ताडना युगल अने परिघ-आगळीआना समान बाहु जेना छे एवो, 'घणनिचियवट्टपालिखंधे'त्ति. घननिचित-अत्यन्त निबिड, वृत्त-वर्तुलाकार, पाली-तळाव वगेरेनी पाळना सरखा स्कन्ध