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उपासकदशांग
सानुवाद
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एवमाइक्रखइ ४ - एवं खलु देवा ! जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए कामदेवे समणोवासए पोसहसालाए पोसहियबम्भचारी जाव दग्भसंधारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्ति उवसम्पजित्ता णं विहरइ, नो खलु से सक्को केणइ देवेण वा दाणवेण वा जाव गन्धव्वेण वा निग्गन्धाओ पावयदेवीओना मध्यमां रही आ प्रमाणे कहे छे-हे देवो ! ए प्रमाणे खरेखर जंबूद्वीप नामे द्वीपमां भरत क्षेत्रने विशे चंपा नगरीमां कामदेव श्रमणोपासक पोषधशालामां पोषध सहित अने ब्रह्मचारी यावत् दर्भना संथाराने प्राप्त थयेलो श्रमण भगवान् महावीरनी पासेथी प्राप्त | करेली धर्मप्रज्ञप्तिने स्वीकारीने विहरे छे. खरेखर ते कोइ देव, दानव यावत् गान्धर्व वडे निर्ग्रन्थ प्रवचनथी चलायमान करवाने, क्षोभ
'सक्के देविदे' इत्यादिने विशे यावत् शब्दनुं ग्रहण होवाथी शक्रनुं वर्णन आ प्रमाणे जाणवुं 'वज्रपाणी' वज्र जेना हाथने विशे छे वो, 'पुरन्दरे' पुर-असुर विशेषना नगरोने दारण-नाश करवाथी पुरन्दर, 'सयक्कऊ' ऋतु शब्द वडे अहीं श्रावकनी प्रतिमा विवक्षित छे. अने ते कार्तिक शेठना भवमां सो क्रतु प्रतिमा-अभिग्रहविशेष जेओप ग्रहण करी छे ते शतक्रतु एवी चूर्णिकारनी व्याख्या छे. 'सहसक्खे' पांचसो मन्त्रीओनी हजार आंखो थाय छे, माटे तेना संबन्धथी ते सहस्राक्ष कहेवाय छे. मघशब्द वडे मेघ विवक्षित छे, ते जेने वश छे ते मघवान्, 'पागसासणे' पाक नामे बलवान शत्रु, तेने शासन- शिक्षा करवाथी पाकशासन, दाहिणड्ढलोगाहिवई' लोकनो दक्षिण दिशानो अर्धभाग तेनो अधिपति, 'बत्तीसविमाणसय सहस्साहिवई' बत्रीश लाख विमाननो अधिपति, 'परावणवाहणे' परावण ऐरावत हस्ती, ते जेनुं वाहन छे एवो, 'सुरिंदे' सुष्ठु राजन्ते सारी रीते शोभे ते सुरो, तेनो इन्द्र-स्वामी सुरेन्द्र, अथवा सुर-देवोनो इन्द्र ते सुरेन्द्र, कारण के पूर्व देवेन्द्रपणे प्रतिपादन करेलुं छे अने अहीं सुरेन्द्रपणे प्रतिपादन जाणवु अथवा अन्य प्रकारे पुनरुक्तिनो परिहार करवो. 'अयरंबरवत्थधरे' अरजस्-रजरहित निर्मल, अंबर-आकाश तेना जेवा स्वच्छ होवाथी अम्बर कहेवाय छे, एवा वस्त्रोने धारण कर
२ कामदे
वाध्ययन
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