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उपासक
कामदे. वाध्ययन
दशांग
सानुवाद
॥८८॥
॥८॥
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| कहाए लढे समाणे 'एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ, तं सेयं खलु मम समणं भगवं महावीरं वन्दित्ता नमंसित्ता तओ पडिणियत्तस्स पोसहं पारित्तएत्ति कटु एवं सम्पेहेइ, संपेहित्ता सुद्धप्पावे- साई वत्थाई जाव अप्पमहग्घ० जाव मणुस्सवग्गुरापरिक्वित्ते सयाओ गिहाओपडिणिक्खमइ,पडिनिक्खमित्ता चम्पं नगरिं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव पज्जुवासइ ।। तए ण समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य जाव धम्मकहा समत्ता। श्रमण भगवान महावीर विचरे छे, तो मारे 'श्रमण भगवान् महावीरने वंदन नमस्कार करीने त्यांथी पाछा आवीने पोषध पारवो | श्रेयरूप छ' एम विचारे छे, विचारीने शुद्ध अने प्रवेश योग्य-बहार जवा योग्य वस्त्रो पहेरे छे, यावत् अल्प अने महामूल्य अलंकार | पहेरी मनुष्यरूपी वागुराथी वींटायेलो पोताना घरथी बहार नीकळे छे, नीकळीने चंपानगरीना मध्यभागमा जाय छे. जइने ज्यां पूर्णभद्र चैत्य छे त्यां आवे छे, यावत् शंखनी पेठे पर्युपासना करे छे. त्यार बाद श्रमण भगवंत महावीरे कामदेव श्रमणोपासकने अने ते अत्यंत मोटी परिषदने धर्मकथा कही, यावत् धर्मकथा समाप्त थइ..
७. 'जहा संखो'त्ति जेम शंख श्रावक भगवतीसूत्रमा कह्यो छे तेम आ कामदेव श्रावक पण कहेवो. तात्पर्य आ छे-बीजा श्रावको सचित्त द्रव्यनो त्याग करवो वगेरे पांच प्रकारना 'अभिगमने समवसरणमा प्रवेश करतां करे छे, परन्तु शंखे पोषध करेलो
१ सचित्त आहार वगेरेनो त्याग करबो, २ अचित्त वस्त्रालंकारादिनो त्याग न करबो, अर्थात् वस्त्रालंकारादि पहेरवां, ३ मननी एकाग्रता, ४ एक बस्त्रनु | उत्तरासंग करवं, अने ५ जिनेश्वरनुं दर्शन थतां अंजली करवी-हाथ जोडी प्रणाम करवी.