Book Title: Paumchariyam Part 01
Author(s): Parshvaratnavijay
Publisher: Omkarsuri Aradhana Bhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिनाइलवंसदिणयरराहुसूरिपसीसेण पुव्वहरेण विमलायरियेण विरइयं सक्कयछायासमलंकियं पउमचारियं (पद्मचरित्रम् ) : छायाकार-संशोधक-संपादकश्च : मुनि पार्श्वरत्नविजयः प्रथमो विभागः : प्रकाशक: आ. ॐकारसूरी आराधना भवन, • गोपीपुरा, सुरत For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ. ॐकारसूरि ज्ञानमंदिर ग्रंथावली-६५ सिरिनाइलवंसदिणयरराहुसूरिपसीसेण पुव्वहरेण विमलायरियेण विरइयं सक्कयछायासमलंकियं पउमचरियं (पद्मचरित्रम्) प्रथमो विभागः पूर्व सम्पादक: डॉ. हर्मन जेकोबी संशोधकः पुनःसम्पादक्श्च मुनिपुण्यविजयः छायाकार-संशोधक-संपादकश्च मुनि पार्श्वरत्नविजयः प्रकाशक: आ. ॐकारसूरी आराधना भवन आ. ॐकारसूरि ज्ञानमंदिर, गोपीपुरा, सुरत For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ का नाम : पउमचरियं (संस्कृत छाया सह) भाग आवृत्ति प्रकाशक : : प्रथम सं. २०६८ आ. ॐकारसूरी आराधना भवन गोपीपुरा, सुरत ३०० रूपये ५०० मूल्य : प्रत : प्राप्तिस्थान : • आचार्य श्रीॐकारसूरिज्ञानमंदिर आचार्य श्रीॐकारसूरि आराधनाभवन, सुभाषचोक, गोपीपुरा, सुरत फोन : ९८२४१५२७२७ • आचार्य श्रीॐकारसूरि गुरुमंदिर वावपथकनी वाडी, दशापोरवाड सोसायटी, पालडी चार रस्ता, अमदावाद-३८० ००७ फोन : ०७९-२६५८६२९३ E-mail : omkarsuri@rediffmail.com / mehta_sevantilal@yahoo.co.in • विजयभद्र चेरिटेबल ट्रस्ट पार्श्वभक्तिनगर, नेशनल हाईवे नं. १४, भीलडीयाजी, जि. बनासकांठा-३८५५३५ फोन: ०२७४४-२३३१२९, २३४१२९ • सरस्वती पुस्तक भंडार हाथीखाना, रतनपोल, अमदावाद-३८० ००१ 'आख्यानक मणिकोश' संस्कत छाया के साथ ४ भाग में आगामी दिनो में प्रकाशित होंगा ।। मुद्रक: किरीट ग्राफीक्स ४१६, वृन्दावन शोपींग सेन्टर, रतनपोळ, अमदावाद-१, दूरभाष : ९८९८४९००९१ For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ समर्पण... वर्धमान तपोनिधि, न्यायशास्त्र विशारद सुविशाल गच्छाधिपति सुविहित आचार्यप्रवर श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा.ना करकमलमां जन्मशताब्दि वर्षे सादर समर्पण... For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय पू.आ.भ.श्री अरविंदसूरी म.सा., पू.आ.भ.श्री यशोविजयसूरि म.सा. आदिनी प्रेरणा-मार्गदर्शनपूर्वक आ ग्रंथमाळामां अनेकविध ग्रंथरत्नो प्रगट थई रह्या छे. 'पउमचरियं' ग्रंथना ४ भागना प्रकाशन माटे पू.आ.भ.श्री मुनिचन्द्रसूरि म.सा.) प.पू.मुनिराजश्री पार्श्वरत्नविजयजी म.सा.ने प्रेरणा अने मार्गदर्शन आप्युं अने अमारी ग्रंथमाळामां आ महाकाय ग्रंथ प्रगट करवा भलामण करी ओ प्रमाणे आ ग्रंथ अमारी संस्था द्वारा प्रकट करता अमो आनंद अनुभवीओ छीओ. प्रस्तुत ग्रंथ प्रगट करवा माटे पू. मुनिराज श्रीपार्श्वरत्नविजयजी म.सा. तेमज पू.आ.भ.श्री ॐकारसुरीश्वरजी म.सा.ना समुदायना स्व.सा.श्री सत्यरेखाश्रीजीना शिष्या साध्वीश्री महायशाश्रीजीओ आ ग्रंथमां प्रुफ संशोधनादि कार्योमां श्रुतभक्तिथी प्रेराई भारे जहेमत उठावी छे. तेनी अमो भूरी भूरी अनुमोदना करीओ छीओ.. आ साहित्यनो स्वाध्याय करी सहु आत्मकल्याणने वरे ओ ज अभिलाषा. लि. प्रकाशक For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजय संपादित पूर्वसंस्करण का सम्पादकीय किञ्चित् विद्वद्वर डॉ. हर्मन जेकोबीद्वारा सम्पादित पउमचरियां हमने 'संघवी पाडा जैन ज्ञानभण्डार - पाटण' गत क्रमाङ्क ३७१की सं. १४५८ में लिखित ताड़पत्रीय प्रतिके साथ आजसे करीब ४५ वर्ष पूर्व मिलान करके रखा था । इसके बाद हमारे अपने संग्रहगत दो काजकी प्रतोंके साथ भी मिलान किया था. इस तरह इन तीनों प्रतिओंके आधारपर डॉ. जेकोबीके सम्पादनका संशोधन 'प्रत्यन्तरे' ऐसा सङ्केत करके पाठभेदोंकी नोंध लेकर किया था, किन्तु उस समय हमारी यह कल्पना नहीं थी कि हमें इसका पुनः सम्पादन करना होगा । अतएव हमने पाठभेदोंके साथ प्रतिओंके सङ्केतकी नोंध नहीं रखी थी । किन्तु सङ्केत न होनेके कारण संशोधनमें कोई क्षति नहीं रहेगी, एसा मानकरके जब प्राकृत टेक्ष सोसायटीने इसे शीघ्र प्रकाशित करनेका निर्णय किया तब हमने अपनी संशोधित मुद्रित प्रति दे दी और उसका मुद्रण भी समाप्त हो गया । इसके बाद ‘श्रीजिनभद्रसूरि जैन ज्ञानभंडार - जेसलमेर' की वि० १३वीं शताब्दिमें लिखी गइ ताड़पत्रीय प्रतका पता लगा, तब हमें मालुम हुआ कि इस प्रतके उपयोगके विना 'पउमचरिय'का सम्पादन पूर्णशुद्धिकी दृष्टिसे अपूर्ण ही रहेगा अतएव श्रीनगीनभाईको जेसलमेर भेजकर उक्त प्रतिसे पउमचरियका मिलन करके पाठभेदोंकी नोंध ली गई । अब उन पाठोमेंसे जो मूलमें ही देने योग्य है और जिन पाठोंकी शुद्धि इस प्रतिसे होती है उन सबकी सूचना दूसरे खण्डमें परिशिष्टके रूपमें दे दी जायगी तथा पूर्वोक्त तीनों प्रतोंके भी पाठान्तरोंका विवेक परिशिष्टोमें दे दिया जायगा । इतना हो जानेसे यह सम्पादन पूर्ण होगा । इस कार्यमें तथा पउमचरियके विविध परिशिष्टोके कार्य में अतिविलम्ब होगा, एसा मानकर प्रस्तुत प्रथम खण्डका प्रकाशन रोक रखना हमने उचित नहीं समझा है । इस ग्रन्थका हिन्दि अनुवाद हो जानेसे अभ्यासिओंको इसके समझनेमें भी सुविधा होगी । हमारे निजी संग्रह, जो आज श्रीलालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृतिविद्यामंदिर-अहमदाबाद को समर्पित है, की जो दो हस्तप्रतिओंका यहाँ पाठ भेद दिया जा रहा है For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. श्री ला० द० भा० संस्कृतविद्यामंदिर-अहमदाबादके हस्तलिखित ग्रन्थसंग्रहमें इस प्रतिका क्रमाङ्क २०८५ है । प्रतिके अन्तमें लेखनसंवत् नहीं है फिर भी आकार प्रकार और विशेषतः लिपिके मोड़से प्रस्तुत प्रतिका लेखनसमय विक्रमकी १६वीं शतीका उत्तरार्द्ध कहा जा सकता है। प्रतिकी लिपि सुन्दर और सुवाच्य है, स्थिति भी सुन्दर है । कुल १९७ पत्रात्मक इस प्रतिके आद्य १ से ९ तथा २६, ३४, ३७ और ८१ वाँ पत्र मिलके कुल १३ पत्र अप्राप्य हैं । प्रत्येक पत्रकी प्रत्येक पृष्ठिमें १६ पंक्तियाँ हैं, प्रत्येक पंक्तिमें ५६ से ६० तक अक्षर हैं। प्रत्येक पृष्ठिकी मध्यस्थ चार पंक्तियों में मध्यभाग का चतुष्कोण भाग लेखकने रिक्त रखा है। ये मध्यस्थ चार पंक्तियोमें ५३-५४ अक्षर हैं । लम्बाई चोड़ाई १० x ४ इंच प्रमाण है । ग्रन्थ पूर्ण होने के बाद "ग्रन्थाग्रं १०५५० सर्वसंख्या ॥" इतना ही लेखकने लिखा है । अतः लेखक की कोई जानकारी नहीं मिलती। २. श्री ला. द.भा. संस्कृतिविद्यामन्दिर-अहमदाबाद के हस्तलिखित ग्रन्थसंग्रह में प्रस्तुत प्रतिका क्रमाङ्क ४१७८ है । २१९ पत्रात्मक इस प्रतिके ६९ से १२८ पत्र अप्राप्य हैं । प्रत्येक पत्रकी प्रत्येक पृष्ठिमें १५ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में कम से कम ५० और अधिक से अधिक ५८ अक्षर हैं । प्रत्येक पृष्ठि के मध्यभाग की पांच पंक्तिओं के बीच में लेखकने अष्टकोण भाग रिक्त रखा है। ऊपर निर्दिष्ट (क्रमाङ्क-२०८५ वाली) प्रतिकी अपेक्षा यह प्रति अशुद्ध है । लम्बाई चोड़ाई १० x ४ इंच प्रमाण है। लेखक की पुष्पिका इस प्रकार है - "अक्सर मत्ता बिंदू जं च न लिहियं अयाणमाणेणं । तं खमसु सव्वमहं (महं सव्वं) तित्थयरविणग्गया वाणी ॥ छ ॥ शुभ भवतु ॥ श्रीसंघस्य श्रियो ३ : (स्तु) ॥ संवत् १६४८ वर्षे वइशाष वदि ३ बुधे ३ (ओ) झा रुद्र लिखितं । लेखकपाठकयोर्जयोऽस्तु ॥" ___ भारतीय दर्शकोने गभीर अभ्यासी श्री पं. दलसुखभाई मालवणियाजीने प्रस्तुत ग्रन्थका साद्यन्त समग्र प्रूफवाचन करके सहयोग देकर हमारा श्रम हलका किया है एतदर्थ उन्हें धन्यवाद देता हूँ। - मुनि पुण्यविजय चैत्रकृष्णा १३ ता. २-४-६३ लूनसावाडा, मोटी पोल के सामने, जैन उपाश्रय, अमदावाद-१ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र ही साधु का नेत्र हैं । आगमचक्खू साहू इंदियचक्खूणि सव्वभूदानि । देवाय ओहिचक्खू सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू ॥ प्रवचनसार ३४ ॥ साधुभगवंत आगमचक्षु होते हैं । सर्वभूत इन्द्रियचक्षु, देव अवधिचक्षु और सिद्ध परमात्मा सर्वतः चक्षु होते हैं । श्रमण भगवान महावीरने घोर साधना के बल पर केवल ज्ञान की प्राप्ति की । तत्पश्चात् श्री गौतम गणधर आदि ने प्रभुकृपासे द्वादशांगी की रचना की । उसी श्रुतज्ञान की परंपरा प्रभु के शासनमें चली । समस्त जैन साहित्य का वर्गीकरण विषयकी दृष्टि से चार भागो में किया है । यह अनुयोग - विभाग श्री आर्यरक्षितसूरिजीने किया था । उन्होंने भविष्यमें होनेवाले अल्पबुद्धि शिष्यों का विचार करके आगमिक साहित्य चार अनुयोग में विभाजित किया । जैसे ग्यारह अंगो को चरणकरणानुयोगमें, ऋषिभाषितों का धर्मकथानुयोगमें, सूर्यप्रज्ञप्ति चंद्रप्रज्ञप्ति आदि को गणितानुयोगमें रखा और बारहवें अंग दृष्टिवादको द्रव्यानुयोग में रखा। दिगंबर परंपरा में भी प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के नाम से ४ विभाग किये हुए हैं । पुराणचरितादिको प्रथमानुयोगमें गिने है । करणशब्द के दो अर्थ हैं- परिणाम और गणितसूत्र । अतः खगोल- भूगोल का वर्णन करनेवाले तथा जीव और कर्म के संबंध आदि के निरूपक कर्मसिद्धांत विषयक ग्रन्थ करणानुयोग में लिए गए हैं । आचारसंबंधी साहित्य चरणानुयोगमें आता हैं । और द्रव्य-गुण-पर्याय आदि वस्तुस्वरूपके प्रतिपादक ग्रंथ द्रव्यानुयोग में आते हैं । नंदीसूत्र में उल्लेख है कि दृष्टिवाद के एक विभाग स्वरूप गण्डिकानुयोग में चक्री, बलदेव, वासुदेव आदि के चरित्र आते हैं । परंतु कालक्रम से श्रुतका विच्छेद होनेसे अब यह साहित्य उपलब्ध नहीं हैं । केवल वर्तमानमें उपलब्ध आगमोंमें भी ये चरित्र नहीं मिलते हैं । दशवे अंग प्रश्नव्याकरणमें 'सती सीता'का फक्त नामोल्लेख है । ठाणांग सूत्र एवं समवायांग सूत्रमें बलदेव, वासुदेव के नाम उनके मातापिता आदि के नाम हैं- परंतु राम-लक्ष्मण (जो बलदेव - वासुदेव हुए) का कोई इतिहास नहीं मिलता हैं 1 फिरभी हमारा सौभाग्य हैं कि पूर्वधर नाइलवंशीय श्री विमलसूरिजी का 'पउम चरियं' आज भी उपलब्ध हैं । प्रशस्ति से पता चलता है की यह रचना वीरनिर्वाण ५३० की हैं। जिनशासनमें सबसे प्राचीनतम राम For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र ‘पउम चरियं' ही हैं । श्री रविषेण, श्री स्वयंभू, श्री शीलांकाचार्यजी, श्री हेमचंद्राचार्यजी आदि की रामायण इसके बाद की हैं । __यह ग्रंथ पहले हिन्दी अनुवाद सहित छप चुका है। परंतु इसमें अमुक स्थानोमें अशुद्धपाठ दृष्टिगोचर होते हैं, कहीं तो इतनी अशुद्धि जान पडती हैं की अर्थ का अनर्थ हो गया है । जैसे: अह अट्ठकम्मरहियस्स२३०/- में केवलज्ञान पाने के वक्त आठ कर्मों का क्षय होने की बात द्योतित है जो बराबर नहीं हैं। ___ इस प्रकारकी अनेक अशुद्धियाँ पर Dr. K. R. Chandra ने अपनी पुस्तक में अंगुली निर्देश किया है। प्राप्य हस्तलिखित प्रतोंके द्वारा अशुद्धि परिमार्जन करना जरूरी है, परंतु यह बहुत बडा कार्य होने से वे कर नहीं पाए । अतः कोई भी विद्वान इस कार्य को करे तो जिनशासन के श्रुत साहित्य की बड़ी सेवा होगी। विशेष में आज दिन तक इसकी संस्कृत छाया भी दृष्टि गोचर नहीं हुई । मुनिश्री पार्श्वरत्न विजयजी म.सा.ने महेनत कर संस्कृत छाया की है। अल्पावधिमें किया हुआ प्रयास स्तुत्य है । साथ ही अनेक कार्यों की व्यस्तता होने पर भी, चिन्तनमनीषी पंन्यास प्रवर श्री मुक्तिवल्लभ विजयजी म.के. शिष्य मुनिराज श्री वितराग वल्लभ विजयजी म.सा.ने उदारतापूर्वक इस ग्रंथ के प्रथम भाग के ४९ उद्देशका संशोधन किया है इसलिए वे भी साधुवादाह है। विशेष में संघ एकताके शिल्पी प.पू. आ.भ. श्री ॐकारसूरिजी म.सा.के सुमुदाय के पू. मुनिश्री. जिनचंद्रविजयजी म.सा. के शिष्यरत्न साहित्यकार्यमें मग्न प्रशांतमूर्ति आ.भ. श्री मुनिचंद्रसूरीश्वरजी म.सा. ने उदारतापूर्वक संपादन-प्रकाशन आदि में अपना अमूल्य समय प्रदान किया उसकी तो बहुत ही अनुमोदना होती है। ___ रात्रि भोजन के भयंकर नुकसान के दिग्दर्शन से, जिनपूजा के अनुपम लाभ के वर्णन आदि से यह ग्रंथ अत्यंत रोचक है, अतः इसका पठन-पाठन करें यही सभी से अभ्यर्थना । __ इसके पठन-पाठन से महापुरुषों के आदर्शों का ज्ञान प्राप्त हो सकेगा । उन आदर्शों को आचरण में लेकर सभी अक्षयसुख के भोक्ता बने यही शुभाभिलाषा । भैरुबाग जैन तीर्थ जोधपुर(राज.) २०६८, पोष वद-४, बुधवार १४-१२-२०११ प.पू. दीक्षादानेश्वरी आ.भ.श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य प.प्रा. आ.भ.श्री पुण्यरत्नसूरीश्वरजी म.सा. आ.यशोरत्नसूरि (१) देखिए: अध्यात्मोपनिषद् एवं ज्ञानसार ! (२) आ. नियुक्ति गा. 763-777 । (३) देखिए : की Dr. K.R. Chandra : A Critical stuty of Pauma chariyam Pg. 1 For Personal & Private Use Only Jain Education Intemational Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं भाग - १ ग्रंथ प्रकाशननो संपूर्ण लाभ श्री कैलासनगर जैन संघ सूरत ज्ञानद्रव्यमांथी लीधो छे. अनुमोदना For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'पउमचरिय' प्राकृतभाषानो अनूठो ग्रंथ छे. पउम = पद्म एटले राम. आ रामचरित्र छे. सौथी जुनुं जैनरामायण आ छे. आ ग्रंथर्नु सहु पहेला संपादन जर्मन विद्वान हर्मन जेकोबीए करेलुं. ई.स. १९१४मां भावनगरनी आत्मानंद सभाए आनुं प्रकाशन करेलुं. ___पुनः संपादन आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजय म.ए कर्यु. शांतिलाल वोराना हिंदी अनुवाद साथे प्राकृत ग्रंथ परिषद द्वारा ई.स. १९६२ अने १९६८मां बे भागमा प्रकाशित थयु. आ.भ. नरचन्द्रसूरि म.सा.ना प्रयासथी उपरोक्त ग्रंथनुं पुनर्मुद्रण आ ज संस्थाए ई.स. २००५मां कयुं छे. प्राकृत ग्रंथ परिषद प्रकाशित भाग-१मां V. M. Kulkarni लिखित Introduction मां अने Dr. K. R. Chandra ए एमना Ph.D. माटेना महानिबंध A Critical Study of Paumacariyam (रीसर्च ईन्स्टीटयूट ओफ प्राकृत जैनोलोजी एन्ड अहिंसा वैशाली मुझफरपुर बिहार द्वारा प्रकाशित)मा 'पउमचरियं' विशे विगते पोतानी रीते चर्चा करी छे. अमे केटलीक वात मूळ ग्रंथ अने आ बे ग्रंथोना आधारे अहीं करीए छीए. ग्रंथकारनो समय अने शाखा सामान्य रीते मोटाभागना ग्रंथकारो पोताना कुल विषे, गुरुपरंपरा विषे अने रचना संवत विषे कशुं लखता नथी होता. सद्भाग्ये पूर्वधर ग्रंथकार श्री विमलसूरिजीए आवी बधी विगतो असंदिग्ध रीते आपी छे. छतां कमनसीबे आधुनिक विद्वानोए एमना समय विषे अने तेओश्री श्वेतांबर शाखाना दिगंबर शाखाना के यापनीय शाखाना होवा विषे भिन्न भिन्न मतो प्रगट कर्या छे. ग्रंथकारे आपेली विगतो आ प्रमाणे छे. "पंचेव य वाससया दुसमाए तीसवरिससंजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं ॥ ११८-१०३ ॥ राहु नामायरिओ ससमयपरसमयगहियसहभावो । विजओ य तस्स सीसो नाइलकुलवंसनंदियरो ॥ ११८-११७ ॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 सीसेण तस्स रइयं, राहवचरियं तु सूरिविमलेण । सोऊणं पुव्वगए नारायण-'सीरिचरियाई ॥ ११८-११८ ॥ सुत्ताणुसारसरसं रइयं गाहाहि पायडफुडत्थं । विमलेण पउमचरियं संखेवेण निसामेह ॥ १-३१ ॥" अंते : "इइ नाइलवंसदिणयरराहुसूरिपसीसेण महप्पेण पुव्वहरेण । विमलायरिएण विरइयं सम्मत्तं पउमचरियं ॥ ११८ ॥" 'पउमचरियं'नो उल्लेख आ.उद्योतनसूरिजीए ई.स. ७७८मां रचेला कुवलयमाळा ग्रंथमां (पेज ३:११ २७-२९) कर्यो छे. केटलाक विद्वानोनुं मानवं छे के ई.स. ६७७मां रचायेखें 'पद्मचरित' प्रस्तुत 'पउमचरिय'नो ज विस्तार छे. एटले पउमचरियं विक्रमना सातमा सैका पहेलाथी ज जाणीतुं बन्युं छे ए निश्चित छे. ___ ग्रंथकारे आपेली माहिती प्रमाणे नाईलवंशमां सूर्यसमान आचार्य 'राहुसूरि' स्वसमय अने परसमयना विशेषज्ञ हता. तेमना शिष्य नाईलवंशने आनंद करावनार 'विजय' थया. तेमना शिष्य पूर्वधर आ. विमलसूरिए 'पूर्व'मां रहेला नारायण (वासुदेव) अने बळदेवना चरित्र सांभळीने वीरप्रभुना निर्वाणने ५३० वर्ष पसार थया त्यारे संक्षेपमा 'पउमचरिय' रच्युं छे. उद्योतनसूरिए करेला उल्लेख 'बुहयणसहस्सदइयं हरिवंसुप्पत्तिक्रारयं पढ़मं ।' मुजब विमलसूरिए हरिवंसनुं वर्णन करतुं कोई काव्य रच्युं होय तेम जणाय छे. जो के अत्यारे ते मळतुं नथी. ग्रंथकार श्वेतांबर शाखाना ज होवाना अनेक स्पष्ट प्रमाणो ग्रंथमां उपलब्ध थाय छे. कोइ कोइ बाबतो दिगंबर संमत पण आमां जोवा मले छे एy कारण एवं पण होय के कोइए संप्रदायव्यामोहथी ग्रंथमां फेरफार कर्यो होय. आq अनुमान करवानुं कारण ए छे केपउमचरिय २०:९५मां पूर्वमुद्रित संस्करणमां आ प्रमाणे पाठ छे. अट्ठारस तेर अट्ठ य सयाणि सेसेसु पञ्चधणुवीसं । पडिहायन्तो कमसो उस्सेहो कुलकराण इमो ॥ २०-९५ ॥ जेसलमेरनी प्राचीन ताडपत्रीय प्रतनो पाठ पउमचरियं भाग-२ परिशिष्ट ७ 'पाठान्तराणि' पृ. ८४मां आ प्रमाणे छे. नव अट्ठ सत्त सड्ढा छच्छच्च धणू अद्धछट्ठा य । पंच सया पणुवीसा उस्सेहो कुलकराण इमो ॥ १. केटलाक विद्वानोए 'सिरि'नो अर्थ बळदेव करवाना बदले 'श्री' को छे. २. एक प्रतना पाठ प्रमाणे ५२० वर्ष अने पं.कल्याणविजयजी गणिना मते 'तिसयवरिससंजुत्ता' पाठ होवो जोईए. ए प्रमाणे गणतां ई.स. २७४ पउमचरियंनो रचना संवत आवे. मुनि मौर्यरत्नविजयजीना अनुमान मुजब जो दूसमाए तिवरिससंजुत्ता पाठ होय तो वी.नि.सं. ५०३मां रचना थई एवो अर्थ थाय. For Personal & Private Use Only www.iainelibrary.org Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पूर्वसंस्करणना पाठ मुजब कुलकरोनी ऊंचाई क्रमशः १८०० १३००८०० धनुष्य पछी क्रमशः २५-२५ धनुष घटाडवी एवो अर्थ अभिप्रेत छे. आवो सुधारो कागळनी प्रतोमा दिगंबरग्रंथ तिलोयपन्नत्ति ४२१:४९५ प्रमाणे सुधार्यो छे तेवू स्पष्ट जणाय छे. ज्यारे जेसलमेरनी ताडपत्रीय प्रतनो पाठ प्राचीन अने स्वीकारवा योग्य होवा छतां ए प्रत मळी त्यारे ग्रंथर्नु मुद्रण शरू थयुं होवाथी एना पाठो ७मा परिशिष्टमां अपाया छे. जे प्रतना पाठ मजब कुलकरोनी क्रमशः ऊंचाई ९०० ८०० ७०० ६५० ६०० ५५० ५२५ धनुष्य होवानुं जणाय छे. अने आ प्रमाण आवश्यक नियुक्ति गार्था १५६ प्रमाणेनुं छे. आथी स्पष्ट समजाय छे के पाछळथी कागळनी प्रतो उपर प्रतिलेखन करती वखते दिगंबर संप्रदायना अभिनिवेशथी कोईके मनस्वी फेरफारो कर्या छे. आ कारणे प्रस्तुत ग्रंथमा केटलीक वातो दिगंबरसंप्रदायानुसारी जोवा मळे छे. श्री कुलकर्णी अने चंद्रए नोंधेली केटलीक विगतो १. पउमच. २:२८-२९मां भ. महावीरप्रभुना लग्ननो उल्लेख नथी. पउमच. २:२२ मां भ. महावीरना देवानंदानी कुक्षीमां च्यवननी वात नथी. (जो के ग्रंथकार अतिसंक्षेपमा वर्णन करता होय त्यारे अमुक घटनानो उल्लेख छोडी दे एनो अर्थ एमने ए मान्य नथी एवो करी न शकाय. जेमके त्रिशष्ठि १०मा पर्वमां देवनंदानी कुक्षीमां च्यवननो उल्लेख करनार क.स. हेमचन्द्रसूरि म.सा.ए योगशास्त्रनी टीकामां देवानंदानो उल्लेख नथी कर्यो.) ३. आवी रीते कुलकरनी संख्या १४ (३ : ५०-५६) समाधिमरण, चोथा शिक्षापदमां स्थान (१४ : ११५) वगेरे केटलीक बाबतो विद्वानोए नोंधी छे. कुलकर्णी अने चंद्रए पउमचरियंमा मात्र श्वेतांबर संप्रदायने ज स्वीकार्य थई शके एवी बाबतोनी नोंध आपी छे. केटलीक आ प्रमाणे छे. १. जिणवरमुहाओ अत्थो जो पुचि निग्गओ बहुवियप्पो । सो गणहरेहिं धरिउं संखेवमिणो य उवट्ठो ॥ १ : १० ॥ पउमचरियंनी शरूआतमां ज जिनेश्वरना मुखथी निकळेलो अर्थ गणधरोए धारण करी उपदेश आप्यानुं जणावे छे. दिगंबरमत मुजब भगवान देशनामां कोई शब्द बोलता नथी. मात्र दिव्यध्वनि ज प्रगटतो होय छे. पं.श्री कल्याणविजयजीना मते आ मुद्दो ग्रंथकारना श्वेतांबर होवा माटे अगत्यनो छे. १. णव धणुसया य पढमो अट्ठ य सत्तद्ध-सत्तमारं च । छच्चेव अद्धछट्ठा पंचसया पण्णवीसं तु ॥ १५६ ॥ २. जो के कहेवाता विद्वानो क्यारेक साव वाहियात दलीलो करता होय छे. जेमके पउमच.मां स्थावरना पांच प्रकारो बताव्या छे माटे आ ग्रंथ दिगंबर छे एवं पंडित प्रेमी जणावे छे. (जुओ कुलकर्णीनी Introduction पेज १९) Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 २. २ : २६मां मेरूकंपननी वात छे. ३. २ : ३६, ३७मां महावीरप्रभु ठेर ठेर देशना आपतां विपुलगिरि पहोंच्या. ४. ३ : ६२, २१ : १२-१४ मरूदेवा माता अने पद्मावती माताने आवेला १४ स्वप्न. (पद्मचरितमां दि. रविषेणाचार्ये १६ स्वप्न बताव्या छे.) १४ स्वप्न माटेनी गाथा गयवसह... अक्षरशः कल्पसूत्र अने ज्ञाताधर्मकथा जोडे मळती आवे छे. ५. ८३:१२ कैकयी- मोक्षगमन. (दिगंबरो स्त्रीओनी मुक्ति मानता नथी.) ६. ७५ : ३५-३६ बार देवलोकनुं वर्णन. (दि. १६ देवलोक माने छे.) ७. १७ : ४२ 'धर्मलाभ' शब्दनो प्रयोग. (दि. 'धर्मवृद्धि' शब्द प्रयोग करे छे.) ८. २ : ८२ वीसस्थानक वर्णन ज्ञाताधर्मकथा ८ : ६९ने मळतुं छे. ९. ४ : ५८, ५ : १६८ चक्रवर्तीनी ६४००० राणीओ (दि.मां ९६००० बतावी छे.) १०. २ : ५० समवसरणना ३ गढनुं वर्णन. (दि.मां माटीना गढ साथे ४ गढ होय छे. तिलोयपन्नत्ति ४ : ७३३) जुदा जुदा विद्वानोना अभिप्रायोनी चर्चा कर्या पछी श्रीकुलकर्णी एवा तारण उपर आवे छे के - ग्रंथकार आ.विमलसूरि श्वेतांबर संप्रदायना हता. आ निर्णय उपर आववा माटे तेओ मुख्य त्रण मुद्दाओ आ प्रमाणे जणावे छे. १. नाईलकुलवंशने नाईलीशाखा अथवा नागेन्द्रगच्छ तरीके ओळखवामां आवे छे. नंदिसूत्रमा श्वेतांबराचार्य भूतदिन्ननुं विशेषण 'नाइलकुलवंशनंदिकर' अपायुं छे. आ ज विशेषण आ. विमलसूरिए (११८ : ११७मां) पोताना गुरु माटे प्रयोज्युं छे. २. पउमचरियंमां चारथी पांच वखत 'सेयंबर' शब्दप्रयोग सहज रीते थयो छे. ३. पउमचरियंनी भाषा महाराष्ट्री प्राकृत छे. श्वेतांबर संप्रदायर्नु मोटाभागनुं प्रकरणादि साहित्य महाराष्ट्रीय प्राकृतमां मळे छे. दिगंबरोनुं साहित्य महाराष्ट्री प्राकृतमां मळतुं नथी. मुख्यतया दि. साहित्य शौरसेनीमां मळे छे.) ग्रंथकारश्रीए आपेलो रचना संवत अमान्य करी केटलाक विद्वानोए जुदी मान्यता रजू करी छे. १. हर्मन जेकोबीना मते वीरनिर्वाण संवत नहीं पण विक्रमसंवत ५३०मां रचना थई हशे. २. डॉ. के. एच. ध्रुवना मते ई.स. ६७८ थी ७७८ वच्चे रचना थई छे. (जैनयुग वो.-१ भाग-२ वि.सं. १९८१ पेज ६८-६९) पं. परमानंद जैन शास्त्रीना मते आ. विमलसरि कंदकंदाचार्य पछी थया छे. (अनेकांत कि. १०-११ ई.स. १९४२) Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. पं. कल्याणविजयजीना मते ई.स. २७४ (डो. कुलकर्णी उपरना पत्रमां, जुओ डॉ. कुलकर्णिनी प्रस्तावना) ग्रंथकारे असंदिग्ध शब्दोमां जणावेल रचना संवतने न मानवा माटे विद्वानो केटलाक कारणो आपे छे. ते आवा छे. शक, सुरंग, यवन, दिनार जेवा शब्दोनो उपयोग पउमचरियंमां आवे छे ते शब्दोनो प्रयोग भारतमां मोडेथी शरू थयो छे. २. ग्रहोना नाम ग्रीक असरवाळा छे. ३. केटलाक छंदो अर्वाचीन ग्रंथमा ज जोवा मळे तेवा अहीं छे. जो के विद्वानोए आ कारणोने वजूद वगरना जणावी आना उत्तरो पण आप्या छे. १. 'यवन' शब्दनो उल्लेख महाभारत १२-२०७-४३ मां अने पाणिनी अष्टाध्यायी अने अशोकना शिलालेखमां पण छे. 'सुरंग' शब्द अर्थशास्त्रमा पण प्रयुक्त छे. ग्रीक शब्दोनो परिचय ई.पूर्वे पांच-छ सदीमां पण होवाना पुरावा छे. वगेरे. समग्रतया जोईए तो ग्रंथकारो पोतानी गुरुपरंपरा रचना संवत विषे भाग्ये ज उल्लेख करता होय छे. क्यारेक रचना संवत आप्यो होय तो पण ए शक संवत के विक्रमसंवत गणवो एवा प्रश्नो थाय छे. ज्यारे अहीं तो प्रभुवीरना मोक्षगमनथी ५३० वर्ष गये छते रचना कर्यानुं लख्यु छे त्यारे एने अमान्य करवानें कोई व्याजबी कारण जणातुं नथी. वर्तमानकाळमां संस्कृतनुं अध्ययन जेटलुं व्यापक बन्युं छे एटलुं प्राकृत भाषाओ- बन्यु नथी. संस्कृत छाया संस्कृत अध्ययन माटे विपुल प्रमाणमां साधनग्रंथो रचाया छे. रचाय छे. कमनसीबे प्राकृत अध्ययन माटे प्रमाणमां ओछु साहित्य मळे छे. अभ्यासीओए पण प्राकृत भाषाना अध्ययन माटे विशेष प्रयत्न करवो जरूरी छे एम लागे छे. ज्यारे आपणां बधा आगमग्रंथो अने अनेक प्रकरणादि ग्रंथो अर्धमागधी वगेरे प्राकृत भाषाओमां रचाया छे त्यारे साधु-साध्वीजीओए ए माटे विशेष लक्ष्य आपq जरूरी छे.. आवा विशिष्ट अभ्यासीओनी अल्पताने कारणे घणां प्राकृत भाषाओना अमूल्य ग्रंथोनो अभ्यास घटतो रह्यो छे. आ संजोगोमां आवा प्राकृत ग्रंथोनी संस्कृत छाया बनाववानो प्रयोग शरू थयो. ताजेतरमा आ. धनेश्वरसूरिकृत सुरसुंदरी चरियंनी संस्कृत छाया साध्वी श्री महायशाश्रीए अने संवेगरंगसाळानी मुनि मुक्तिश्रमणविजयजीए करी छे. भूतकाळमां पण सुपासनाहचरियं वगेरेनी संस्कृत छायाओ प्रगट थई छे. For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 प्रस्तुत पउमचरियंनी पण संस्कृत छाया आ ग्रंथनो वधु अभ्यास थाय ए लक्ष्यथी करवामां आवी छे. अभ्यासीओ मूळ पउमचरियं ग्रंथने ज वांचवा प्रयत्न करे अने संस्कृत छायाने क्लिष्ट स्थळो समजवा माटे उपयोगमा ले तेवी अपेक्षा छे. मुनिश्री पार्श्वरत्नविजयजीए आ ग्रंथरत्ननी संस्कृतछाया घणा उत्साहथी बनावी ने अभ्यासीओ उपर उपकार कर्यो छे. आख्यानकमणिकोशनी प्राकृतकथाओनी संस्कृतछाया पण तेओ बनावी रह्या छे. प्राकृतसाहित्यने लोकभोग्य बनाववानो आ प्रयत्न सफळ रहे एज आशा आशीर्वाद. पू.आ.भ.श्री अरविन्दसूरीश्वरजी म.सा.ना आज्ञावर्तिनी स्व.सा.श्री सत्यरेखाश्रीजीना शिष्या विदुषी साध्वीश्री महायशाश्रीजीए ग्रंथना आदिथी अंत सुधीना प्रुफो जोया छे अने संस्कृत छायामां जरुरी परिमार्जन वगेरे कर्यु छे. खूब खूब आशीर्वाद. पू. आ. विजयभद्रसुरीश्वरजीना शिष्यरत्न पू. मुनिराजश्री जिनचंद्रविजयजी म.सा.ना विनेय आ. विजयमुनिचंद्रसूरि Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं : एक सर्वेक्षण - प्रो. सागरमल जैन प्राच्यविद्यापीठ राजापुर रामकथा की व्यापकता राम और कृष्ण भारतीय संस्कृति के प्राण-पुरुष रहे है । उनके जीवन आदर्शों एवं उपदेशो ने भारतीय संस्कृति को पर्याप्त रूप से प्रभावित किया है । भारत एवं भारत के पूर्वी निकटवर्ती देशो में आज भी रामकथा के मंचन की परम्परा जीवित है । हिन्दु, जैन और बौद्ध धर्म परम्परा में राम-कथा सम्बन्धी प्रचुर उल्लेख पाये जाते है । राम-कथा सम्बन्धी ग्रन्थों में वाल्मिकी रामायण प्राचीनतम ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ हिन्दु परम्परा में प्रचलित राम-कथा का आधार ग्रन्थ है । इसके अतिरिक्त संस्कृत में रचित पद्मपुराण और हिन्दी में रचित रामचरितमानस भी राम-कथा सम्बन्धी प्रधान ग्रन्थ है, जिन्होने हिन्दु जन-जीवन को प्रभावित किया है । जैन परम्परा में रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों में प्राकृत भाषा में रचित आ.विमलसूरि का 'पउमचरियं' एक प्राचीनतम प्रमुख ग्रन्थ है । लेखकीय प्रशस्ति के अनुसार यह ई.सन् की प्रथम शती के रचना है । वाल्मिकी की रामायण के पश्चात् रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों में यही प्राचीनतम ग्रन्थ है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी में रचित रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थ इसके परवर्ती ही है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़ एवं हिन्दी में जैनो का रामकथा सम्बन्धी साहित्य विपुल मात्रा में है। जिसकी चर्चा हम आगे विस्तार से करेगे । बौद्ध परम्परा में रामकथा मुख्यतः जातक कथाओं में वर्णित है । जातक कथाएँ मुख्यतः बोधिसत्व के रूप में बुद्ध के पूर्वभवो की चर्चा करती है। इन्ही में दशरथ जातक में रामकथा का उल्लेख है । बौद्ध परम्परा में रामकथा सम्बन्धी कौन-कौन से प्रमुख ग्रन्थ लिखे गये इसकी जानकारी का अभाव ही है । रामकथा सम्बन्धी जैन साहित्य ___ जैन साहित्यकारों ने विपुल मात्रा में रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की है, इनमें दिगम्बर लेखकों की अपेक्षा श्वेताम्बर लेखक और उनके ग्रन्थ अधिक रहे हैं । जैनों में रामकथा सम्बन्धी प्रमुख ग्रन्थ कौन से रहे है, इसकी सूची निम्नानुसार है For Personal & Private Use Only www.iainelibrary.org Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 our m * 3 9 क्र. ग्रन्थ लेखक भाषा काल पउमचरियं आ.विमलसूरि (श्वे.) प्राकृत वी.नि. ५३० २ वसुदेव हिण्डी श्री संघदासगणि (श्वे.) प्राकृत ईस्वीसन् ६०९ ३ पद्म पुराण श्री रविषेण (दि.) संस्कृत ईस्वीसन् ६७८ पउमचरिउ श्री स्वयम्भू (दि.) अपभ्रंश प्रायः ई.सन् ८वीं शती (मध्य) चउपन्न महापरिसचरियं आ.शीलाङ्क (श्वे.) प्राकृत ई.सन् ८६८ उत्तरपुराण श्री गुणभद्र (दि.) संस्कृत ई.सन् प्राय ९वीं शती बृहत्कथाकोष श्री हरिषेण (दि.) संस्कृत ई.सन् ६३१-६३२ ८ महापुराण श्री पुष्पदंत (दि.) अपभ्रंश ई.सन् ९६५ कहावली आ. भद्रेश्वर (श्वे.) प्राकृत प्राय ईस्वीसन् ११वीं शती १० त्रिषष्टीशलाकापुरुषचरित आ.हेमचन्द्र (श्वे.) संस्कृत प्रायः ईस्वीसन् १२वीं शती ११ योगशास्त्र स्वोपज्ञ वृत्ति आ. हेमचन्द्र (श्वे.) संस्कृत प्रायः ईस्वीसन् १२वीं शती १२ शत्रुजयमहात्म्य आ. धनेश्वरसूरि (श्वे.) संस्कृत प्रायः ईस्वीसन् १४वीं शती १३ पुण्यचन्द्रोदय पुराण श्री कृष्णदास (दि.) संस्कृत ई.सन् १५२८ १४ रामचरित देवविजयगणि (श्वे.) संस्कृत ई.सन् १५९६ १५ लघुत्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित मेघविजय (श्वे.) संस्कृत ई.सन् की १७वीं शती इनमें एकाध अपवाद को छोडकर शेष सभी ग्रन्थ प्रायः प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त भी रामकथा सम्बन्धी अनेक हस्तलिखित प्रतियों का उल्लेख जिनरत्नकोश में मिलता है, जिनकी संख्या ३० से अधिक है । इनमें त, सीताचरित आदि भी सम्मिलित है । विस्तारभय ये यहा इन सबकी चर्चा अपेक्षित नहीं है । आधुनिक युग में भी हिन्दी में अनेक जैनाचार्यों ने रामकथा सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना की है। इनमें स्थानकवासी जैन संत शुक्लचन्द्रजी म.की 'शुक्लजैनरामायण' आ. भद्रगुप्तसूरीश्वरजी का 'जैन रामायण' तथा आचार्य तुलसी की 'अग्नि-परीक्षा' अति प्रसिद्ध है। जैनों में रामकथा की दो प्रमुख धाराएँ वैसे तो आवान्तर कथानकों की अपेक्षा जैन परम्परा में भी रामकथा के विविध रूप मिलते है। फिर भी जैनों में रामकथा की दो धाराए लगभग प्राय ईसा की ९वीं शताब्दि से देखी जाती है - १. ग्रन्थकार विमलसूरि की रामकथा धारा और २. गुणभद्र की रामकथा धारा । सम्प्रदायों की अपेक्षा-अचेल यापनीय एवं श्वेताम्बर ग्रन्थकार विमलसूरि की रामकथा की धारा का अनुसरण करते रहे, जबकि दिगम्बर धारा में भी मात्र कुछ आचार्यो ने ही गुणभद्र की धारा का अनुसरण किया । श्वेताम्बर परम्परा में संघदासगणि एवं यापनियो में रविषेण, स्वयम्भू एवं हरिषेण भी मुख्यतः विमलसूरि के 'पउमचरियं' का ही अनुसरण करते है, फिर भी संघदासगणि Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 के कथानकों में कहीं कहीं विमलसूरि से मतभेद भी देखा जाता है । रामकथा सम्बन्धी प्राकृत ग्रन्थों में आ. शीलांक चउपन्नमहापुरिसचरियं में आ. हरिभद्र धूर्ताव्याख्यान में और आ. भद्रेश्वर कहावली में, संस्कृत भाषा में रविषेण पद्मपुराण में दिगम्बर अमितगति धर्मपरीक्षा में आ. हेमचन्द्र योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में, आ. धनेश्वर शत्रुञ्जयमहात्म्य में, देवविजयगणि 'रामचरित' (अप्रकाशित) और मेघविजयगणि लघुत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (अप्रकाशित) में प्रायः विमलसूरि का अनुसरण करते है । अपभ्रंश में स्वयम्भू 'पउमचरिउ' में भी विमलसूरि का ही अनुसरण करते है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि रविषेण का 'पद्मपुराण' (संस्कृत) और स्वयम्भू का 'पउमचरिउ' (अपभ्रंश) चाहे भाषा की अपेक्षा भिन्नता रखते हो, किन्तु ये दोनों ही विमलसूरि के पउमचरियं का संस्कृत या अपभ्रंश रूपान्तरण ही लगते है । श्री गुणभद्र के उत्तरपुराण की रामकथा का अनुसरण प्रायः अल्प ही हुआ है । मात्र कृष्ण के संस्कृत के पुण्यचन्द्रोदयपुराण में तथा अपभ्रंश के पुष्पदंत के महापुराण में इसका अनुसरण देखा जाता है । पउमचरियं की भाषा एवं छंद योजना सामान्यतया 'पउमचरियं' प्राकृत भाषा में रचित काव्य ग्रन्थ है, फिर भी इसकी प्राकृत मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची और महाराष्ट्री प्राकृतों में कौन सी प्राकृत है, यह एक विचारणीय प्रश्न है। यह तो स्पष्ट है कि इसका वर्तमान संस्करण मागधी, अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृतो की अपेक्षा महाराष्ट्रीय प्राकृत से अधिक नैकट्य रखता है, फिर भी इसे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से अलग रखना होगा । इस सम्बन्ध में प्रो. वी.एम. कुलकर्णी ने पउमचरियं की अपनी अंग्रेजी प्रस्तावना में अतिविस्तार से एवं प्रमाणो सहित चर्चा की है । उसका सार मात्र इतना ही है कि पउमचरियं की भाषा परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत न होकर प्राचीन महाराष्ट्री प्राकृत है । वह सामान्य महाराष्ट्री प्राकृत का अनुसरण न करके जैन महाराष्ट्री प्राकत का अनुसरण करती है. अतः उसका नैकट्य आगमिक अर्धमागधी से भी देखा जाता है। वे लिखते है कि "Paumachariya, which represents an archaic form of Jain maharastri" पउमचरियं की भाषा की प्राचीनता इससे भी स्पष्ट हो जाती है कि था (आर्या) छंद की प्रमखता है, जो एक प्राचीन और सरलतम छंद योजना है। गाथा या आर्या छंद की प्रमुखता होते हुए भी पउमचरियं में स्कन्धक, इन्द्रवज्रा, उपेन्दवज्रा, उपजाति आदि अनेक छन्दों के प्रयोग भी मिलते है, फिर भी ये गाथा/आर्या छंद की अपेक्षा अति अल्प मात्रा में प्रयुक्त हुए है । मेरी दृष्टि में इनकी भाषा और छन्द योजना का नैकट्य आगमिक व्याख्या साहित्य में नियुक्ति साहित्य से अधिक है । इसकी भाषा और छन्द योजना से यह सिद्ध होता है कि इसका रचनाकाल दूसरी-तीसरी शती से परवर्ती नहीं है। पउमचरियं का रचनाकाल पउमचरियं में विमलसूरि ने इसके रचनाकाल का भी स्पष्ट निर्देश किया हैपंचेव य वास सया दुसमाए तीस वरिस संजुत्ता । वीरे सिद्धिमुवगए तओ निबद्धं इमं चरियं ।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 अर्थात् दुसमा नामक आरे के पाँच सौ तीस वर्ष और वीर का निर्वाण होने पर यह चरित्र लिखा गया । यदि हम लेखक के इस कथन को प्रामाणिक माने तो इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् ६० के लगभग माननी होगी। महावीर का निर्वाण दुसम नामक आरे के प्रारम्भ होने लगभग ३ वर्ष और ९ माह पूर्व हो चुका था अतः इसमें चार वर्ष और जौडना होगे । मतान्तर से भ. महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् के ४१० वर्ष पूर्व भी माना जाता है, इस सम्बन्ध में मैने अपने लेख “Date of Mahavira's Nirvana” में विस्तार से चर्चा की है । अतः उस दष्टि से पउमचरियं की रचना विक्रम संवत १२४ अर्थात विक्रम संवत की दसरी शताब्दी के पर्वार्ध में हई होगी। मेरी दृष्टि में पउमचरियं का यही रचना काल युक्ति-संगत सिद्ध होता है। क्योंकि ऐसा मानने पर लेखक के स्वयं के कथन से संगति होने के साथ-साथ उसे परवर्ती काल का मानने के सम्बन्ध में जो तर्क दिये गये है वे भी निरस्त हो जाते है । हरमन जेकोबी, स्वयं इसकी पूर्व तिथि २ री या ३ री शती मानते है, उनके मत से यह मत अधिक दूर भी नहीं है। दूसरे विक्रम की द्वितीय शताब्दी पूर्व ही शकों का आगमन हो चुका था अतः इसमें प्रयुक्त लग्नों के ग्रीक नाम तथा 'दीनार', यवन, शक आदि शब्दों की उपलब्धि में भी कोई बाधा नही रहती है। यवन शब्द ग्रीकों अर्थात् सिकन्दर आदि का सूचक है जो ईसा पूर्व भारत में आचुके थे । शकों का आगमन भी विक्रम संवत् के पूर्व हो चुका था, कालकाचार्य द्वारा शकों के भारत लाने का उल्लेख विक्रम पूर्व का है। दीनार शब्द भी शकों के आगमन के साथ ही आगया होगा । साथ ही नाईल कुल या शाखा भी इस काल मे अस्तित्व में आ चुकी थी। इसे मैनें पउमचरियं की परम्परा में सिद्ध किया है। अतः पउमचरियं को विक्रम की द्वितीय शती के पूर्वार्ध में रचित मानने में कोई बाधा नही रहती है। विमलसूरि और उनके पउमचरियं का सम्प्रदाय यहाँ क्या विमलसूरि का पउमचरियं यापनीय है ? इस प्रश्न का उत्तर भी अपेक्षित है। विमलसूरि और उनके ग्रन्थ पउमचरियं के सम्प्रदाय सम्बन्धी प्रश्न को लेकर विद्वानों में मतभेद पाया जाता है । जहाँ श्वेताम्बर और विदेशी विद्वान् पउमचरियं में उपलब्ध अन्तः साक्ष्यों के आधार पर उसे श्वेताम्बर परम्परा का बताते हैं, वहीं पउमचरियं के श्वेताम्बर परम्परा के विरोध में जानेवाले कुछ तथ्यों को उभार कर कुछ दिगम्बर विद्वान् उसे दिगम्बर या यापनीय सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं । वास्तविकता यह है कि विमलसूरि के पउमचरियं में सम्प्रदायगत मान्यताओं की दृष्टि से यद्यपि कुछ तथ्य दिगम्बर परम्परा के पक्ष में जाते है, किन्तु अधिकांश तथ्य श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं । जहाँ हमें सर्वप्रथम इन तथ्यों की समीक्षा कर लेनी होगी । प्रो. वी.एम.कुलकर्णी ने जिन तथ्यों का संकेत प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी से प्रकाशित 'पउमचरियं' की भूमिका में किया है, उन्हीं के आधार पर यहाँ हम यह चर्चा प्रस्तुत करने जा रहे हैं । १. पउमचरियं भाग-१, इण्ट्रोडक्सन पेज १८, फूटनोट नं. २ । २. वही, ३. देखें, पद्मपुराण (रविषेण), भूमिका, डॉ. गन्नालाल जैन, पृ. २२-२३ । ४. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन (वी. एम. कुलकर्णी), पेज १८-२२ । For Personal & Private Use Only Jain Education Interational Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 • पउमचरियं की दिगम्बर परम्परा के निकटता सम्बन्धी कुछ तर्क और उनके उत्तर (१) कुछ दिगम्बर विद्वानों का कथन है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सामान्यतया किसी ग्रन्थ का प्रारम्भ-'जम्बू स्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी ने कहा', - इस प्रकार से होता है, आगमों के साथ-साथ कथा ग्रन्थों में यह पद्धति मिलती है, इसका उदाहरण संघदासगणि की वसुदेव हिण्डी है। किन्तु वसुदेवहिण्डी में जम्बूस्वामी ने प्रभवस्वामी को कहा - ऐसा भी उल्लेख हैं। जबकि दिगम्बर परम्परा के कथा ग्रन्थों में सामान्यतया श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर ने कहा - ऐसी पद्धति उपलब्ध होती है । जहाँ तक पउमचरियं का प्रश्न है उसमें निश्चित ही श्रेणिक के पूछने पर गौतम ने रामकथा कही ऐसी ही पद्धति उपलब्ध होती है। किन्तु मेरी दृष्टि में इस तथ्य को पउमचरियं के दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने का आधार नहीं माना जा सकता. क्योंकि पउमचरियं में स्त्र मुक्ति आदि ऐसे अनेक ठोस तथ्य हैं, जो श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं । यह संभव है कि संघभेद के पूर्व उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में दोनों ही प्रकार की पद्धतियाँ समान रूप से प्रचलित रही हों और बाद में एक पद्धति का अनसरण श्वेताम्बर आचार्यों ने किया हो और दूसरी का दिगम्बर या यापनीय आचार्यो ने किया है । यह तथ्य विमलसूरि की परम्परा के निर्धारण में बहुत अधिक सहायक इसीलिए भी नहीं होता है, कि प्राचीन काल में, श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में ग्रन्थ प्रारम्भ करने की अनेक शैलिया प्रचलित रही हैं। दिगम्बर परम्परा में विशेष रूप से यापनीयों में जम्बूस्वामी और प्रभवस्वामी से भी कथा परम्परा के चलने का उल्लेख तो स्वयं पद्मचरित में ही मिलता है । वही क्रम श्वेताम्बर ग्रन्थ वसुदेवहिण्डी में भी है। श्वेताम्बर परम्परा में भी कुछ ऐसे भी आगम ग्रन्थ हैं, जिनमें किसी श्राविका के पूछने पर श्रावक ने कहा- इससे ग्रन्थ का प्रारम्भ किया गया है । 'देविन्दत्थव' नामक प्रकीर्णक में श्रावक-श्राविका के संवाद के रूप में ही उस ग्रन्थ का समस्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। आचारांग में शिष्य की जिज्ञासा समाधान हेतु गुरु के कथन से ही ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है। उसमें जम्बू और सुधर्मा से संवाद का कोई संकेत भी नहीं है। इससे यही फलित होता है कि प्राचीनकाल में ग्रन्थ का प्रारम्भ करने की कोई एक निश्चित पद्धति नहीं थी । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवयांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प आदि अनेक ग्रन्थों में भी जम्बूस्वामी और सुधर्मास्वामी के संवादवाली पद्धति नहीं पायी जाती है । पद्धतियों कि एकरूपता और विशेष सम्प्रदाय द्वारा विशेष पद्धति का अनुसरण-यह एक परवर्ती घटना है । जबकि पउमचरियं अपेक्षाकृत एक प्राचीन रचना है । (२) दिगम्बर विद्वानों ने पउमचरियं में महावीर के विवाह के अनुल्लेख (पउमचरियं २/२८-२९ एवं ३/५७५८) के आधार पर उसे अपनी परम्परा के निकट बताने का प्रयास किया है। किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए ५. ति तस्सेव पभवों कहेयव्वो, तप्पभवस्य य पभवस्य त्ति । वसुदेवहिण्डी (संघदासगणि), गुजरात साहित्य अकादमी, गांधीनगर पृ. २ । ६. तह इन्दभूइकहियं, सेणियरण्णस्स नीसेसं । - पउमचरियं १, ३३ ७. वर्द्ध मानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरं । इन्द्रभूति परिप्राप्त: सुधर्म धारिणीभवम् ।। प्रभवं क्रमत: कीर्ति तत्तोनुत्तरवाग्मिनं । लिखितं तस्य संप्राप्य सवेयेत्नोयमुद्गतः ॥ - पद्मचरित १/४१-४२ पर्व १२३-१६६ ८. देविदत्थओ (दवेन्द्रस्तव, सम्पादक-प्रो. सागरमल जैन, आगम-अहिंसा-समता-प्राकृत संस्थान उदयपुर) गाथा क्रमांक-३, ७, ११, १३, १४ । ९. सुयं में आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं । - आचारांग (सं. मधुकर मुनि), १/१/१/१ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 कि प्रथम तो पउमचरियं में भ. महावीर का जीवन-प्रसंग अति संक्षिप्त रूप से वर्णित है अतः महावीर के विवाह का उल्लेख न होने से उसे दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं माना जा सकता है । स्वयं श्वेताम्बर परम्परा के कई प्राचीनग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें महावीर के विवाह का उल्लेख नहीं है । पं. दलसुखभाई मालवणिया ने स्थानांग एवं समवायांग के टिप्पण में लिखा है कि भगवतीसूत्र के विवरण में महावीर के विवाह का उल्लेख नहीं मिलता है । विवाह का अनुल्लेख एक अभावात्मक प्रमाण है, जो अकेला निर्णायक नहीं माना जा सकता, जब तक कि अन्य प्रमाणों से यह सिद्ध नहीं हो जावे कि पउमचरियं दिगम्बर या यापनीय ग्रन्थ है। (३) पुन: पउमचरियं में महावीर के गर्भ-परिवर्तन का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु मेरी दृष्टि से इसका कारण भी उसमें भ. महावीर की कथा को अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत करना है। पुनः यहाँ भी किसी अभावात्मक तथ्य के आधार पर ही कोई निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न होगा, जो कि तार्किक दृष्टि से समुचित नहीं है । (४) पउमचरियं में पाँच स्थावरकायों के उल्लेख के आधार पर भी उसे दिगम्बर परम्परा के निकट बताने का प्रयास किया गया है, किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि स्थावरों की संख्या तीन मानी गई है अथवा पाँच, इस आधार पर ग्रन्थ के श्वेताम्बर या दिगम्बर परम्परा का होने का निर्णय करना संभव नहीं है। क्योंकि दिगम्बर परम्परा में जहाँ कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय (१११) में तीन स्थावरों की चर्चा की हैं, वहीं अन्य आचार्यो ने पाँच की चर्चा की है। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के उत्तराध्ययन आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी, तीन स्थावरों की तथा पाँच स्थावरों की - दोनों मान्यताएँ उपलब्ध होती है। अत: ये तथ्य विमलसूरि और उनके ग्रन्थ की परम्परा के निर्णय का आधार नहीं बन सकते । इस तथ्य की विशेष चर्चा हमने तत्त्वार्थसत्र की परम्परा के प्रसंग में की है, साथ ही एक स्वतन्त्र लेख भी श्रमण अप्रैल-जून ६३ में प्रकाशित किया है, पाठक इसे वहाँ देखें । (५) कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पउमचरियं में १४ कुलकरों की अवधारणा पायी जाती हैं। दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में भी १४ कुलकरों की अवधारणा का समर्थन देखा जाता है अतः यह ग्रन्थ दिगम्बर परम्परा का होना चाहिए । किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में अन्तिम कुलकर के रूप में ऋषभ का उल्लेख है। ऋषभ के पूर्व नाभिराय तक १४ कुलकारों की अवधारणा तो दोनों परम्पराओं में समान है। अत: यह अन्तर ग्रन्थ के सम्प्रदाय के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण नहीं माना जा सकता है । पुनः जो कुलकरों के नाम पउमचरियं में दिये गये है उनका जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और तिलोयपण्णत्ति दोनों से ही कुछ अन्तर है। (६) पउमचरियं के १४वें अधिकार की गाथा ११५ में समाधिमरण को चार शिक्षाव्रतों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है, किन्तु श्वेताम्बर आगम उपासकदशा में समाधिमरण का उल्लेख शिक्षाव्रतों के रूप में नहीं हुआ १०. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन, पृष्ठ १९ का फूटनोट क्र. १ । ११. पउमचरियं, २/६५ एवं २/६३ । १२. पउमचरियं, ३/५५-५६ १३. तिलोयपण्णत्ति, महाधिकार गाथा-४२१ (जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर) । १४. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार २ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 I है । जबकि दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्द आदि कुछ आचार्य समाधिमरण को १२वें शिक्षाव्रत के रूप में अंगीकृत करते हैं अतः पउमचरियं दिगम्बर परम्परा से सम्बन्द्ध होना चाहिए । इस सन्दर्भ में मेरी मान्यता यह है कि गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है" दिगम्बर परम्परा में तत्वार्थ का अनुसरण करने वाले दिगम्बर आचार्य भी समाधिमरण को शिक्षाव्रतों में परिग्रहित नहीं करते हैं । जबकि कुन्दकुन्द ने उसे शिक्षाव्रतों में परिग्रहित किया है । जब दिगम्बर परम्परा ही इस प्रश्न पर एकमत नहीं है तो फिर इस आधार पर पउमचरियं की परम्परा का निर्धारण कैसे किया जा सकता है ? साम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थिरीकरण के पूर्व निर्ग्रन्थ परम्परा में विभिन्न धारणाओं की उपस्थिति एक सामान्य बात थी । अत: ग्रन्थ के सम्प्रदाय का निर्धारण करने में व्रतों के नाम एवं क्रम सम्बन्धी मतभेद सहायक नहीं हो सकते । (७) पउमचरियं में अनुदिक् का उल्लेख हुआ है । " श्वेताम्बर आगमों में अनुदिक् का उल्लेख नहीं है, जबकि दिगम्बर ग्रन्थ (यापनीय ग्रन्थ) षट्खण्डागम एवं तिलोयपण्णत्ती में इसका उल्लेख पाया जाता है ।" किन्तु मेरी दृष्टि में प्रथम तो यह भी पउमचरियं के सम्प्रदाय निर्णय के लिए महत्त्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अनुदिक् की अवधारणा से श्वेताम्बरों का भी कोई विरोध नहीं है । दूसरे जब अनुदिक् शब्द स्वयं आचारांग में उपलब्ध है" तो फिर हमारे दिगम्बर विद्वान् यह कैसे कह देते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में अनुदिक् की अवधारणा नहीं है ? (८) पउमचरियं में दीक्षा के अवसर पर भ. ऋषभ द्वारा वस्त्रों के त्याग का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार भरत द्वारा भी दीक्षा ग्रहण करते समय वस्त्रों के त्याग का उल्लेख है ।" किन्तु यह दोनों सन्दर्भ भी पउमचरियं १५. पंच य अणुव्वयाई तिण्णेव गुणव्वयाई भणियाई । सिक्खावयाणि एत्तो चत्तारि जिणोवइट्ठाणि || थूलयरं पाणिवहं मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवित्ती संतोषसवयं च पंचमयं ॥ दिसिविदिसाण य नियमो अणत्थदंडस्स वज्जणं चेव । उपभोगपरीमाणं तिण्णेय गुणव्वया एए ॥ सामाइयं च उववास-पोसहो अतिहिसंविभागो य । अंते समाहिमरणं सिक्खासुवयाइ चत्तारि ॥ १६. पंचेवणुव्वयाइं गुणव्वयाई हवंति तह तिण्णि । सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥ थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य । परिहारो परमहिला परिग्गहारंभ परिमाणं ॥ दिसविदिसमाणपढमं अणत्थदण्डस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमाण इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥ सामाइयं च पढमं बिदियं च तहेव पोसहं भणियं । तीइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥ ज्ञातव्य है कि जटासिंह नन्दी ने भी वराङ्गचरित सर्ग २२ में विमलसूरि का अनुसरण किया है । १७. देखिए जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (लेखक - डो. सागरमल जैन) भाग-२ पृ.सं. २७४ १८. पउमचरियं, १०२ / १४५ चारित्तपाहुड २२-२६ १९. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन, पृष्ठ १९ पद्मपुराण, भूमिका (पं. पन्नालाल), पृ. ३० । २०. जो इमाओ (दिसाओ) अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ, ओऽहं । आचारांग १ / २ / १ / १, शीलांकटीका, पृ. १९ । (ज्ञातव्य है कि मूल पउमचरियं में केवल 'अनुदिसाई. शब्द है जो कि आचारांग में उसी रूप में है। उससे नौ अनुदिशाओं की कल्पना दिखाकर उसे श्वेताम्बर आगमों में अनुपस्थित कहना उचित नहीं है ।) २१. देखिए, पउमचरियं ३ / १३५-३६ For Personal & Private Use Only - पउमचरियं १४ / ११२ - ११५ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 के दिगम्बर या यापनीय होने के प्रमाण नहीं कहे जा सकते । क्योंकि श्वेताम्बर मान्य ग्रन्थों में भी दीक्षा के अवसर पर वस्त्राभूषण त्याग का उल्लेख तो मिलता ही है। यह भिन्न बात है कि श्वेताम्बर ग्रन्थों में उस वस्त्र त्याग के बाद कहीं देवदुष्य का ग्रहण भी दिखाया जाता है ।२२ भ. ऋषभ, भरत, भ. महावीर आदि की अचेलकता तो स्वयं श्वेताम्बरों को भी मान्य है । अत: पं. परमानन्द शास्त्री का यह तर्क ग्रन्थ के दिगम्बरत्व का प्रमाण नहीं माना जा सकता है । (९) पं. परमानन्द शास्त्री के अनुसार पउमचरियं में नरकों कि संख्या का जो उल्लेख मिलता है वह आचार्य पूज्यपाद के सर्वार्थसिद्धिमान्य तत्त्वार्थ के पाठ के निकट है, जबकि श्वेताम्बर भाष्य-मान्य तत्त्वार्थ के मूलपाठ में यह उल्लेख नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य एवं अन्य श्वेताम्बर आगमों में इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध होने से इसे भी निर्णायक तथ्य नहीं माना जा सकता है । इसी प्रकार नदियों के विवरण का तथा भरत और एरावत क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के विभाग आदि तथ्यों को भी ग्रन्थ के दिगम्बरत्व के प्रमाण हेतु प्रस्तुत किया जाता है, किन्तु ये सभी तथ्य श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी उल्लेखित है । अतः ये तथ्य ग्रन्थ के दिगम्बरत्व या श्वेताम्बरत्व के निर्णायक नहीं कहे जा सकते । मूल परम्परा के एक होने से अनेक बातों में एकरूपता का होना तो स्वाभाविक ही है । पुनः षट्खण्डागम, तिलोयपण्णति, तत्त्वार्थसूत्र के पउमचरियं का अनुसरण देखा जाना आश्चर्यजनक नहीं है किन्तु इनके आधार पर पउमचरियं की परम्परा को निश्चित नहीं किया जा सकता है । पूर्ववर्ती ग्रन्थ के आधार पर परवर्ती ग्रन्थ की परम्परा का निर्धारण तो सम्भव है किन्तु परवर्ती ग्रन्थों के आधार पर पूर्ववर्ती ग्रन्थ की परम्परा को निश्चित नहीं की जा सकती है । पुनः पउमचरियं में तीर्थंकर माता के १४ स्वप्न, तीर्थकर नामकर्मबन्ध के बीस कारण, चक्रवर्ती की रानियों को ६४००० संख्या, भ. महावीर के द्वारा मेरुकम्पन, स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट उल्लेख आदि अनेक ऐसे तथ्य है जो स्त्री मुक्ति निषेधक दिगम्बर परम्परा के विपक्ष में जाते हैं । विमलसूरि के सम्पूर्ण ग्रन्थ में दिगम्बर शब्द का अनुल्लेख और सियम्बर शब्द का एकाधिक बार उल्लेख होने से उसे किसी भी स्थिति में दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं किया जा सकता है। क्या पउमचरियं श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ है ? आयें अब इसी प्रश्न पर श्वेताम्बर विद्वानों के मंतव्य पर भी विचार करें और देखें कि क्या वह श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ हो सकता है ? २२. पउमरचियं, ८३/५ २३. मुक्कं वासोजुयलं......... । - चउपन्नमहापुरिसचरियं, पृ. २७३ २४. एगं देवदूसमादाय......... पव्वइए । - कल्पसूत्र ११४ २५. पउमचरियं भाग-१ (इण्ट्रोडक्सन पेज १९, फूटनोट ५) २६. "जिणवरमुहाओ अत्थो सो गणहेरहि धरिउं । आवश्यक नियुक्ति १/१० Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 पउमचरियं के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं - (१) विमलसूरि ने लिखा है कि 'जिन' के मुख से निर्गत अर्थरूप वचनों को गणधरों ने धारण करके उन्हें ग्रन्थरूप दिया-इस तथ्य को मुनि कल्याणविजय जी ने श्वेताम्बर परम्परा सम्मत बताया है । क्योंकि श्वे. परम्परा की नियुक्ति में इसका उल्लेख मिलता है । (२) पउमचरियं (२/२६) में भ. महावीर के द्वारा अँगूठे से मेरूपर्वत को कम्पित करने की घटना का भी उल्लेख हुआ है, यह अवधारणा भी श्वेताम्बर परम्परा में बहुत प्रचलित है। (३) पउमचरियं (२/३६-३७) में यह भी उल्लेख है कि भ. महावीर केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् भव्य जीवों को उपदेश देते हुए विपुलाचल पर्वत पर आये, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार भ. महावीर ने ६६ दिनों तक मौन रखकर विपुलाचल पर्वत पर अपना प्रथम उपदेश दिया । डो. हीरालाल जैन एवं डॉ. उपाध्ये ने भी इस कथन को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में माना है । (४) पउमचरियं (२/३३) में महावीर का एक अतिशय यह माना गया है कि वे देवों के द्वारा निर्मित कमलों पर पैर रखते हुए यात्रा करते थे । यद्यपि कुछ विद्वानों ने इसे श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में प्रमाण माना है, किन्तु मेरी दृष्टि में यह कोई महत्त्वपूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता । यापनीय आचार्य हरिषेण एवं स्वयम्भू आदि ने भी इस अतिशय का उल्लेख किया है। (५) पउमचरियं (२।८२) में तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति के बन्ध के बीस कारण माने है । यह मान्यता आवश्यकनिर्यक्ति और ज्ञाताधर्मकथा के समान ही है। दिगम्बर एवं यापनीय दानों ही परम्पराओं में इसके १६ ही कारण माने जाते रहे है । अतः इस उल्लेख को श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में एक साक्ष्य कहा जा सकता है। (६) पउमरचियं में मरूदेवी और पद्मावती - इन तीर्थंकर माताओं के द्वारा १४ स्वप्न देखने का उल्लेख है ।“ यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा १६ स्वप्न मानती है । इसीप्रकार इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बन्ध में प्रबल साक्ष्य माना जा सकता है । पं. नाथूराम जी प्रेमी ने यहाँ स्वप्नों की संख्या १५ बतायी है ।" भवन और विमान को उन्होने दो अलग-अलग स्वप्न माना है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में ऐसे उल्लेख मिलते है कि जो तीर्थंकर नरक से आते है, उनकी माताएँ भवन और जो तीर्थंकर देवलोक से जाते है उनकी माताएँ विमान देखती है । यह एक वैकल्पिक व्यवस्था है अतः संख्या चौदह ही होगी । अतः भवन और विमान वैकल्पिक स्वप्न माने गये हैं, इसप्रकार माता द्वारा देखे जाने वाले स्वप्न की संख्या तो १४ ही रहती २६. 'जिणवरमुहाओ अत्थो सो गणहेरहि धरिउं । आवश्यक नियुक्ति १/१० २७. देखे.......पद्मपुराण (आचार्य रविषेण), प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी, सम्पादकीय, पृ. ७ । २८. पउमचरियं, ३/६२/२१/१३ । (यहाँ मरूदेवी ओर पद्मावती के स्वप्नों में समानता है, मात्र मरूदेवी के सन्दर्भ में 'वरसिरिदाम' शब्द आया है, जबकि पद्मावती के स्वप्नों में 'अभिसेकदाम' शब्द आया है - किन्तु दोनों का अर्थ लक्ष्मी ही है ।) २९. जैन साहित्य और इतिहास (नाथूराम प्रेमी), पृष्ठ ९९ । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 है (आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति पृ. १०८) । स्मरण रहे कि यापनीय रविषेण ने पउमचरियं के ध्वज के स्थान पर मीन-युगल को माना है । ज्ञातव्य है कि प्राकृत ‘झय' के संस्कृत रूप 'ध्वज' तथा झष (मीन-युगल) दोनों सम्भव है। साथ ही सागर के बाद उन्होनें सिहासन का उल्लेख किया है और विमान तथा भवन को अलग-अलग स्वप्न माना हैं यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्वप्न सम्बन्धी पउमचरियं की यह गाथा श्वेताम्बर मान्य 'नायधम्मकहा' से बिलकुल समान है। अतः यह अवधारणा भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के सम्बन्ध में प्रबल साक्ष्य है। (७) पउमचरियं में भरत और सगर चक्रवर्ती की ६४ हजार रानियों का उल्लेख मिलता है, जबकि दिगम्बर परम्परा में चक्रवर्तीयों की रानियों की संख्या ९६ हजार बतायी है। अत: यह साक्ष्य भी दिगम्बर और यापनीय परम्परा के विरुद्ध है और मात्र श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में जाता है। (८) भ. अजितनाथ और भ. मुनिसुव्रतस्वामी के वैराग्य के कारणों को तथा उनके संघस्थ साधुओं की संख्या को लेकर पउमचरियं और तिलोयपण्णत्ति में मत वैभिन्य है। किन्तु ऐसा मतवैभिन्य एक ही परम्परा में भी देखा जाता है अतः इसे ग्रन्थ के श्वेताम्बर होने का सबल साक्ष्य नहीं कहा जा सकता है। (९) पउमचरियं और तिलोयपण्णत्ति में बलदेवों के नाम एवं क्रम को लेकर मतभेद देखा जाता है, जबकि पउमचरियं में दिये गये नाम एवं क्रम श्वेताम्बर परम्परा में यथावत् मिलते हैं। अतः इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के पक्ष में एक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । यद्यपि यह स्मरण रखना होगा कि पउमचरियं में भी राम को बलदेव भी कहा गया है। (१०) पउमचरियं में १२ देवलोकों का उल्लेख है जो कि श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुरूप है। जबकि यापनीय रविषेण और दिगम्बर परम्परा के अन्य आचार्य देवलोकों की संख्या १६ मानते है अतः इसे भी ग्रन्थ के श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने का प्रमाण माना जा सकता है। __ (११) पउमचरियं में सम्यक्दर्शन को पारिभाषित करते हुए यह कहा गया है कि जो नव पदार्थो को जानता है वह सम्यग्दृष्टि है । पउमचरियं में कही भी ७ तत्त्वों का उल्लेख नहीं हुआ है । पं. फूलचन्द जी के अनुसार यह साक्ष्य ग्रन्थ के श्वेताम्बर होने के पक्ष में जाता है। किन्तु मेरी दृष्टि में नव पदार्थो का उल्लेख दिगम्बर ३०. णायाधम्मकहा (मधुकर मुनि) प्रथम श्रुतस्कंध, अध्याय ८, २६ । ३१. पउमचरियं ४/५८, ५/९८ । ३२. पद्मपुराण (रविषेण), ४/६६, २४७ । ३३. देखें पउमचरियं २१/२२, पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन पेज २२ फूटनोट-३ । तुलनीय-तिलोयपण्णत्ती, ४/६०८ । ३४. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन पेज २१ । ३५. पउमचरियं, ७५/३५-३६ और १०२/४२-५४ । ३६. पउमचरियं, १०२/१८१ । ३७. अनेकान्त वर्ष ५, किरण १-२ तत्त्वार्थ सूत्र का अन्त: परीक्षण, पं. फूलचन्दजी पृ. ५१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 परम्परा में भी पाया जाता है अतः इसे ग्रन्थ के श्वेताम्बर होने का महत्त्वपूर्ण साक्ष्य तो नहीं कहा जा सकता । दोनों ही परम्परा में प्राचीन काल में नव पदार्थ ही माने जाते थे, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् दोनों में सात तत्त्वों की मान्यता भी प्रविष्ट हो गई । चूंकि श्वेताम्बर प्राचीन स्तर के आगमों का अनुसरण करते थे, अतः उनमें ९ तत्त्वों की मान्यता की प्रधानता बनी रही । जबकि दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ के अनुसरण के कारण सात तत्त्वों की प्रधानता स्थापित हो गई। (१२) पउमचरियं में उसके श्वेताम्बर होने के सन्दर्भ में जो सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध है वह यह कि उसमें कैकयी को मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है, इस प्रकार पउमचरियं स्त्रीमुक्ति का समर्थक माना जा सकता है। यह तथ्य दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाता है। किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यापनीय भी स्त्रीमुक्ति तो स्वीकार करते थे अतः यह दृष्टि से यह ग्रन्थ श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं से सम्बद्ध या उनका पूर्वज माना जा सकता है। (१३) इसी प्रकार पउमचरियं में मुनि का आशीर्वाद के रूप में धर्मलाभ कहते हुए दिखाया गया है, जबकि दिगम्बर परम्परा में मुनि आशीर्वचन के रूप में धर्मवृद्धि कहता हैं, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्मलाभ कहने की परम्परा न केवल श्वेताम्बर है, अपितु यापनीय भी है । यापनीय मुनि भी श्वेताम्बर मुनियों के समान धर्मलाभ ही कहते थे । ___ ग्रन्थ के श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के इन अन्तःसाक्ष्यों के परीक्षण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ग्रन्थ के अन्तःसाक्ष्य मुख्य रूप से उनके श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने के पक्ष में अधिक हैं । विशेष रूप से स्त्री-मुक्ति का उल्लेख यह सिद्ध कर देता है कि यह ग्रन्थ स्त्री-मुक्ति निषेधक दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध नही हो सकता है । (१४) विमलसूरि ने पउमचरियं के अन्त में अपने को नाइल (नागेन्द्र) वंशनन्दीकर आचार्य राहू का प्रशिष्य और आचार्य विजय का शिष्य बताया है। साथ ही पउमचरियं का रचनाकाल वी.नि.सं. ५३० कहा है। ये दोनों तथ्य भी विमलसूरि एवं उनके ग्रन्थ के सम्प्रदाय निर्धारण हेतु महत्त्वपूर्ण आधार माने जा सकते हैं । यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में नागेन्द्र कुल का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है, जबकि श्वेताम्बर मान्य कल्पसूत्र स्थविरावली में आर्यवज्र के प्रशिष्य एवं व्रजसेन के शिष्य आर्य नाग से नाईल या नागिल शाखा के निकलने का उल्लेख है।" श्वेताम्बर पट्टावलियों के अनुसार भी व्रजसेन के शिष्य आर्य नाग ने नाइल शाखा प्रारम्भ की ३८. सिद्धिपयं उत्तम पत्ता-पउमचरियं ८६/१२ । ३९. देखें, पउमचरियं इण्ट्रोडक्सन पेज २१ । ४०. गोप्या यापनीया । गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं भणन्ति ।..... षट्दर्शनसमुच्चय टीका ४/१ । ४१. पउमचरियं, ११८/११७ । ४२. वही, ११८/१०३ । ४३. 'थेरेहितो णं अज्जवइरसेणिएहितो एत्थ णं अज्जनाइली साहा निग्गया'.... कल्पसूत्र २२१, पृ. ३०६ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 थी। विमलसूरि इसी नागिल शाखा में हुए हैं । नन्दीसूत्र में आचार्य भूतदिन को भी नाइलकुलवंशनंदीकर कहा गया है। यही बिरूद विमलसूरि ने अपने गुरुओं आर्य एवं आर्य विजय को भी दिया है। अत: यह सुनिश्चित है कि विमलसूरि उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा से सम्बन्धित है और उनका यह 'नाइल कुल' श्वेताम्बरों में बारहवीं शताब्दी तक चलता रहा है। चाहे उन्हें आज के अर्थ में श्वेताम्बर न कहा जाये, किन्तु वे श्वेताम्बरों के अग्रज अवश्य है, इसमें किसी प्रकार के मतभेद की सम्भावना नहीं है । पउमचरियं जैनों के सम्प्रदाय-भेद से पूर्व का हैं - पउमचरियं के सम्प्रदाय का निर्धारण करने हेतु यहाँ दो समस्याएँ विचारणीय हैं - प्रथम तो यह कि यदि पउमचरियं का रचनाकाल वीर नि.सं. ५३० है, जिसे अनेक आधारों पर अयथार्थ भी नहीं कहा जा सकता है, तो वे उत्तरभारत के सम्प्रदाय विभाजन के पूर्व के आचार्य सिद्ध होगे । यदि हम भ. महावीर का निर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई. सन् ६४ और वि.सं. १२३ आता है । दूसरे शब्दों में पउमचरियं विक्रम की द्वितीय शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है । किन्तु विचारणीय यह है कि क्या वीर नि.सं. ५३० में नागिलकुल अस्तित्व में आ चुका था ? यदि हम कल्पसूत्र पट्टावली की दृष्टि से विचार करें तो आर्य वज्र के शिष्य आर्य वज्रसेन और उनके शिष्य आर्य नाग महावीर की पाट परम्परा के क्रमशः १३वें, १४वें एवं १५वें स्थान पर आते हैं यदि आचार्यों का सामान्य काल ३० वर्ष मानें तो आर्यवज्रसेन और आर्यनाग का काल वीर नि. के ४२० वर्ष पश्चात् आता है, इस दृष्टि से वीर नि. के ५३० वें वर्ष में नाइलकुल का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । यद्यपि पट्टावलियों में वज्र स्वामी के समय का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है किन्तु निह्नवों के सम्बन्ध में जो कथायें है, उसमें आर्यरक्षित को आर्य भद्र और वज्र स्वामी को समकालीन बताया गया है और इस दृष्टि से वज्रस्वामी का समय वीर नि. ५८३ मान लिया गया है, किन्तु यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । इस संबंध में विशेष उहापोह करके कल्याणविजयजी ने आर्य वज्रसेन की दीक्षा वीर नि. सं. ४८६ में निश्चित की है । यदि इसे हम सही मान ले तो वीर नि.सं. ५३० में नाईल कुल का अस्तित्व मानने में कोई बाधा नहीं आती है। पुनः यदि कोई आचार्य दीर्घजीवी हो तो अपनी शिष्य परम्परा में सामान्यतया वह चार-पाँच पीढियाँ तो देख ही लेता है। वज्रसेन के शिष्य आर्य नाग, जिनके नाम पर नागेन्द्र कुल ही स्थापना हुई, अपने दादा गुरु आर्य वज्र के जीवनकाल में जीवित हो सकते हैं । इसी आधार पर उन्हें आर्य वज्र का सीधा शिष्य मानकर वज्रसेन को उनका गुरुभ्राता मान लिया गया और आर्यरक्षित के काल के आधार पर उनके काल का निर्धारण कर लिया गया । किन्तु नन्दीसूत्र में आचार्यो के क्रम में बीच-बीच में अन्तराल रहे है । अत: आचार्य विमलसूरि का काल वीर निर्वाण सं. ५३० अर्थात् विक्रम की दूसरी शताब्दी का पर्वार्ध मानने में कोई बाधा नहीं आती है। यदि हम पउमचरियं के रचनाकाल वीर नि.सं. ५३० को स्वीकार करते हैं, तो यह स्पष्ट है कि उस काल तक उत्तरभारत के निर्ग्रन्थ संघ में विभिन्न कुल शाखाओं की उपस्थिति और उनमें कुछ मान्यता भेद या वाचनाभेद तो था फिर ४४. नाइलकुल-वंसनांदिकरे.........भूयदिनमायरिए । - नन्दीसूत्र ४४-४५ । ४५. पट्टावली परागसंग्रह (कल्याणविजयजी), पृ. २७ एवं १३८-१३९ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 भी स्पष्ट संघभेद नहीं हुआ था । दोनों परम्पराएँ इस संघभेद को वीर निर्वाण सं. ६०६ या ६०९ में मानती है । अतः स्पष्ट है कि अपने काल की दृष्टि से भी विमलसूरि संघभेद के पूर्व के आचार्य है और इसलिए उन्हें किसी संप्रदाय विशेष से जोडना संभव नहीं है। पउमचरियं में स्त्रीमुक्ति आदि की जो अवधारणा है वह भी यही सिद्ध करती है कि वे इन दोनों परम्पराओं के पूर्वज हैं, क्योंकि दोनों ही परम्परायें स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करती है । पुनः यह भी सत्य है कि सभी श्वेताम्बर आचार्य उन्हें अपनी परम्परा का मानते रहे हैं । जबकि यापनीय रविषेण और स्वयंभू ने उनके ग्रन्थों का अनुसरण करते हुए भी उनके नाम का स्मरण तक नहीं किया है, इससे यही सिद्ध होता है कि वे उन्हें अपने से भिन्न परम्परा का मानते थे। किन्तु यह स्मरण रखना होगा कि वे उसी युग में हए हैं जब श्वेताम्बर, यापनीय और दिगम्बर का स्पष्ट भेद सामने नहीं आया था । यद्यपि कुछ विद्वान उनके ग्रन्थ में मुनि के लिए 'सियंबर' शब्द के एकाधिक प्रयोग देखकर उनकी श्वेताम्बर परम्परा से सम्बद्ध करना चाहेंगे, किन्तु इस संबंध में कुछ सावधानियाँ की अपेक्षा है । विमलसूरि के इन दो-चार प्रयोगों को छोडकर हमें प्राचीन स्तर के साहित्य में कहीं भी श्वेताम्बर या दिगम्बर शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता है । स्वयं विमलसूरि द्वारा पउमचरियं में एक भी स्थल पर दिगम्बर शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। विद्वानों ने भी विमलसूरि के पउमचरियं में उपलब्ध श्वेताम्बर (सियंबर) शब्द के प्रयोग को संप्रदाय सचन न मानकर उस यग के सवस्त्र मनि का सचक माना है। क्योंकि सीता साध्वी के लिये भी सियंबर शब्द का प्रयोग उन्होनें स्वयं किया होगा । मथुरा के ईसा की प्रथम-द्वितीय शती के अंकन भी इसकी पुष्टि करते हैं। जिस प्रकार सवस्त्र साध्वी सीता को विमलसूरि ने सियंबरा कहा उसी प्रकार सवस्त्र मुनि को भी सियंबर कहा होगा । उनका यह प्रयोग निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा वस्त्र रखने की प्रवृत्ति का सूचक है, न कि श्वेताम्बर दिगम्बर संघभेद का । विमलसूरि निश्चित ही श्वेताम्बर और यापनीय-दोनो के पूर्वज है । श्वेताम्बर उन्हें अपने संप्रदाय का केवल इसीलिये मानते हैं कि वे उनकी पूर्व परम्परा से जुड़े हुए है । श्रीमती कुसुम पटोरिया ने महावीर जयन्ती स्मारिका जयपुर वर्ष १९७७ ई. पृष्ठ २५७ पर इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि विमलसूरि और पउमचरियं यापनीय नहीं है । वे लिखती हैं कि 'निश्चित विमलसूरि एक श्वेताम्बराचार्य है। उनका नाइलवंश, स्वयंभू द्वारा उनका स्मरण न किया जाना तथा उनके (ग्रन्थ में) श्वेतांबर साधु का आदरपूर्वक उल्लेख-उनके यापनीय न होने के प्रत्यक्ष प्रमाण है। विमलसूरि और उनके ग्रन्थ पउमचरियं को यापनीय मानने में सबसे बड़ी बाधा यह भी है कि उनकी कृति महाराष्ट्री प्राकृत को अपने ग्रन्थ की भाषा नहीं बनाया है । यापनीयों ने सदैव ही अर्धमागधी से प्रभावित शौरसेनी प्राकृत को ही अपनी भाषा माना है। अतः आदरणीय पं. नाथुरामजी प्रेमी ने उनके यापनीय होने के संबंध में जो संभावना प्रकट की है, वह समुचित प्रतीत नहीं होती है । यह ठीक है कि उनकी मान्यताओं की श्वेताम्बरों एवं यापनीयों दोनों से समानता है, किन्तु इसका कारण उनका इन दोनों परम्पराओं का पूर्वज होना है - श्वेताम्बर या यापनीय होना नहीं । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 कालकी दृष्टि से भी वे इन दोनों के पूर्वज ही सिद्ध होते है । पुनः यापनीय आचार्य रविषेण और अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू द्वारा उनकी कृति का पूर्णतः अनुसरण करने पर भी उनके नाम का उल्लेख नहीं करना यही सूचित करता है कि वे उन्हें अपनी परम्परा का नहीं मानते थे । अतः सिद्ध यही होता है कि विमलसूरि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्परा के पूर्वज है । श्वेताम्बरो ने सदैव अपने पूर्वज आचार्यो को अपनी परम्परा का माना है । विमलसूरि के दिगम्बर होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, यापनीयों ने उनका अनुसरण करते हुए भी उन्हें अपनी परम्परा का नहीं माना, अन्यथा रविषेण और स्वयम्भू कहीं न कहीं उनका नाम निर्देश अवश्य करते । पुन: यापनीयों की शौरसेनी प्राकृत को न अपना कर अपना काव्य महाराष्ट्री प्राकृत में लिखना यही सिद्ध करता है कि वे यापनीय नहीं है । अत: विमलसूरि की परम्परा के सम्बन्ध में दो ही विकल्प है । यदि हम उनके ग्रन्थ का रचना काल वीर निर्वाण सम्वत् ५३० मानते हैं तो हमें उन्हें श्वेताम्बर और यापनीयों का पूर्वज मानना होगा । क्योंकि श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०६ वर्ष वाद और दिगम्बर श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद ही मानते है । यदि हम इस काल को वीर निर्वाण सम्वत् मानते है, वे श्वेताम्बरों और यापनीयों के पूर्वज सिद्ध होगे और यदि इसे विक्रम संवत् मानते है जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो उन्हे श्वेताम्बर आचार्य मानना होगा । For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थानुक्रमः पृष्ठ नं. [प्रथम विभाग] क्रम विषय पृष्ठ नं. | क्रम विषय १. सुत्तविहाणो नाम उद्देसो १-८/४. लोगट्ठिइ-उसभ-माहणाहिगारो नाम मङ्गलम् चउत्थो उद्देसओ ३४-४१ अभिधेयम् श्रेयांसगृहे ऋषभस्य भिक्षाप्राप्ति:देहावयवसाफल्यम् ऋषभजिनदेशना - ग्रन्थविषयानुक्रमणिका बाहुबलिदीक्षा२. सेणियचिन्ताविहाणो नाम बिईयो भरतस्य ऋद्धिः - समुद्देसओ ब्राह्मणानामुत्पत्तिःमगधा जनपदः रक्खसवंसाहिया ४२-६४ राजगृहनगरम् - इक्ष्वाकुवंश:श्रेणिको राजा सोमवंश:[सिरिवीरजिणचरियं ] वीरजिनजन्म, विद्याधरवंश:सुरकृतो जन्माभिषेकश्च अजितजिनचरितम्वीरस्य प्रव्रज्या, ज्ञानं, अतिशयाश्च सगरचक्रिचरितम्केवलमहिमार्थं देवानामागमनम् - पुण्यधन-त्रिलोचनयोः पूर्वभव: - वीरस्तुतिः सहस्रनयन-मेघवाहनयोः पूर्वभवः - समवसरणम् सगरचक्रि-सहस्रनयनयोः सम्बन्धः - वीरस्य भगवतो देशना - लङ्कापुरीश्रेणिकस्य पद्मचरिते संशयः - १७ तीर्थङ्करा:३. विज्जाहरलोगवण्णणो नाम तइओ चक्रिण:उद्देसओ २०-३३ सगरपुत्राणामष्टापदयात्रा नागेन्द्रेण दहनं चश्रेणिकस्य गौतमपार्वे गमनम्, पृच्छा च- २० भगीरथपूर्वभवः - लोकः २१ महाराक्षसस्य वैराग्यं पूर्वभवश्चजम्बुद्वीपः, तद्गतक्षेत्रादि राक्षसवंशःकालः रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणो नाम दानफलम् - छट्ठो उद्देसओ ६५-८३ कुलकरा ऋषभस्वामि चरितं च वानरवंशः - देवकृतः ऋषभजिनजन्मोत्सवः - धर्मः तत्फलं च ७४ मेरुपर्वतेऽभिषेकः - विद्याधराणामुत्पत्ति ३२ | ७. दहमुहविज्जासाहणो नाम सत्तमो उद्देसो ८४-९७ २२ २६ - २७ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ १६३ १६४ १६८ १३० १७१ क्रम विषय पृष्ठ नं. | क्रम विषय पृष्ठ नं. ८. दहमुहपुरिपवेसो नाम अट्ठमो उद्देसो ९८-११९ | १३. इन्दनिव्वाणगमणो नाम हरिषेणचक्रिचरितम् :१०८ तेरसमो उद्देसओ १५७-१६० भुवनालङ्कारहस्ती ११४ इन्द्रस्य वैराग्यम् - १५८ इन्द्रस्य पूर्वभवचरितम् - १५८ ९. वालिनिव्वाणगमणो नाम नवमो उद्देसो १२०-१२८ १४. अणन्तविरियधम्मकहणो नाम बालिसुग्रीवौ १२० चउद्दसमो उद्देसओ १६१-१७३ रावणस्य बालिना सह युद्धम् - १२२ नरक गतिः १६२ तिर्यग्गतिःरावणस्य अष्टापदे अवतरणम्१२४ १६३ मनुष्यगतिःअष्टापदस्थजिनस्तुतिः १२७ देवगतिः१०. दहमुह-सुग्गीवपत्थाण-सहस्सकिरण सुपात्रकुपात्रं दानं, तत्प्रकाराः फलं चःअणरणपव्वज्जाविहाणो नाम श्रमणधर्म: १६६ देवविमानानि देवा: सत्सौख्यं चदसमो उद्देसओ १२९-१३५ श्रावकधर्म: १६९ रावणदिग्विजयः रात्रिभोजनविरतिस्तत्फलं च :इन्द्रोपरि प्रस्थानम् - १३१ जलक्रीडा १३१ १५. अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो दशमुखस्य सहस्रकिरणेन सह युद्धम् नाम पञ्चदसो उद्देसओ १७४-१८१ हनुमन्तचरित्रम् १७४ ११. मस्यजन्नविद्धंसणो जणवयाणुरायो अञ्जनासुन्दरीचरितम् - . १७४ नाम एक्कारसमो उद्देसो १३६-१४५ नन्दीश्वरयात्रा १७६ यज्ञोत्पत्ति: १३६ अञ्जनायाः पवनञ्जयेन सह सम्बन्धःनारदस्वरूपम् - १४० दश कामवेगा: १७७ आर्षवेदसम्मत्ता यज्ञाः १४२ पवनञ्जयेन अञ्जनाया दर्शनं तद्विरागश्च- १७८ तापसविप्रयोस्त्पत्ति: अञ्जनासख्युल्लापा:१४३ १७९ जनपदानुरागवर्णनम् - पवनञ्जयेन अञ्जनायाः परिणयनम् १८१ १४४ प्रावृट्कालः - १४४ १६. पवणंजयअञ्जणासुन्दरीभोगविहाणो १२. वेयड्डगमण-इंदबन्धण-लङ्कापवेसणो नाम सोलसमो उद्देसओ १८२-१८९ अञ्जनायास्त्यागः परिदेवनं च १८२ नाम बारसमो उद्देसओ १४६-१५६ रावणस्य वसणेन सह विरोधःरावणपुत्रीमनोरमाया: परिणयनम् : पवनञ्जयस्य रणार्थं निस्सरणम् - १८४ मधुकुमारपूर्वभवः शूलरत्नोत्पत्तिश्च:- १४६ सन्ध्यावर्णनम्, पवनञ्जयेन अञ्जनायाः रावणस्य नलकूबरेण सह युद्धम्:- १५० स्मरणम् चरावणस्य इन्द्रेण समं युद्धम् - १५१ पवनञ्जयाञ्जनयोः मीलनम् - १३३ १७६ १८३ १४६ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिनाइलवंसदिणयरराहुसूरिपसीसेण पुव्वहरेण विमलायरियेण विरइयं सक्कयछायासमलंकियं पउमचरियं (पद्मचरित्रम्) प्रथमो विभागः Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ક્રમાંક ૧. ૨. ૩. ૪. ૫. ૬. ૭. ૮. ૯. ૧૦. ૧૧. ૧૨. ૧૩. ૧૪. ૧૫. ૧૬. ૧૭. ૧૮. ૧૯. ૨૦. ૨૧. ૨૨. ૨૩. ૨૪. ૨૫. ૨૬. ૨૭. ૨૮. ૨૯. ૩૦. ૩૧. ૩૨. ૩૩. ૩૪. ૩૫. ૩૬. ૩૭. આ.શ્રીૐકારસૂરિ જ્ઞાનમંદિર ગ્રંથાવલિનાં પ્રકાશનો લેખક પુસ્તકનું નામ કર પડિક્કમણું ભાવશું શ્રી શાન્તિનાથ ચરિત મહાકાવ્યમ્ ભાગ-૧ શ્રી શાન્તિનાથ ચરિત મહાકાવ્યમ્ ભાગ-૨ ચતુર્થ કર્મગ્રંથ ષડશીતિ નવાંગી ગુરુપૂજન નવાંગી ગુરુપૂજન પ્રશ્નોત્તરી યોગ દૃષ્ટિનાં અજવાળાં ભાગ-૩ ધ્યાન અને જીવન ભાગ ૧-૨ આતમજ્ઞાની શ્રમણ કહાવે સો-હી ભાવ નિગ્રંથ મેરે અવગુણ ચિત્ત ન ધરો પ્રભાવક ચરિત્ર આપ હી આપ બુઝાય પ્રસંગ પ્રભા ન્યાય સંગ્રહ-સ્વોપજ્ઞ ન્યાયાર્થ મંજુષા બૃહવૃત્તિ સહિત પ્રભુનો પ્યારો સ્પર્શ ઋષભ જિનેસર પ્રીતમ માહરો રે મહાયોગી આનંદઘન આનંદઘન આકાશવ્યાપી જૈન કાષ્ઠપટ ચિત્ર-ગુજરાતી જૈન કાષ્ઠપટ ચિત્ર-અંગ્રેજી પંચમ કર્મગ્રંથ શ્રી ઉપમિતિ કથોદ્ધાર શ્રી દાનોપદેશમાલા પ્રસંગ કલ્પલતા આત્માનુભૂતિ પ્રમાણ નય તત્વાલોક (વિવેચન સાથે) જૈન સંસ્કૃત સાહિત્યનો ઈતિહાસ ભાગ-૧ જૈન સંસ્કૃત સાહિત્યનો ઈતિહાસ ભાગ-૨ જૈન સંસ્કૃત સાહિત્યનો ઈતિહાસ ભાગ-૩ સુર સુંદરી ચરિય પ્રસંગ વિલાસ હ્રીંકાર સ્તોત્ર સ્વાધ્યાય પ્રસંગ સુવાસ યોગશાસ્ત્ર અષ્ટમ પ્રકાશનું સવિસ્તર વિવરણ ભાગ-૧ જૈન સાહિત્યનો સંક્ષિપ્ત ઈતિહાસ (સચિત્ર) પાઈઅ (પ્રાકૃત) ભાષાઓ અને સાહિત્ય For Personal & Private Use Only અભયશેખરસૂરિ રમ્યરેણુ રમ્યરેણુ રમ્યરેણુ અભયશેખરસૂરિ અભયશેખરસૂરિ પં. મુક્તિદર્શનવિજયજી પં.શ્રી પદ્મસેનવિજય ગણિવર આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ મુ. રત્નવલ્લભ વિ. આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ વસંતલાલ કાન્તિલાલ ઈશ્વરલાલ વાસુદેવ સ્માર્ત જગદીપ સ્માર્ત રમ્યરેણુ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ રમ્યરેણુ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ સા. મહાયશાશ્રીજી આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ સા. મહાયશાશ્રીજી આ. મુનિચંદ્રસૂરિ હર્ષશીલાશ્રીજી / ક્ષમાશીલાશ્રીજી આ. મુનિચંદ્રસૂરિ અમૃતલાલ કાલીદાસ દોશી મોહનલાલ દલીચંદ દેસાઈ સં.આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૧.. ૪૨. ૪૮. ૪૯. ૫૦. ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ ૩૮. સંક્ષિપ્ત મુક્તાવલી પ્રવેશિકા ૩૯. પ્રભુના હસ્તાક્ષર ૪૦. ધ્યાન અને કાયોત્સર્ગ પ્રસંગ અંજન કથા રત્નસાગર પ્રવચન અંજન જો સદ્ગુરુ કરે ૪૪. ધ્યાન અને કાયોત્સર્ગ (બીજી આવૃત્તિ) ૪૫. એકાંતનો વૈભવ ચોપન મહાપુરુષોના ચરિત્ર પરમ તારા માર્ગે સાધનાપથ રસો વૈ સહઃ પ્રસંગ સિદ્ધિ (હિન્દી) વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૧) વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૨) વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૩) ૫૪, વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૪) ૫૫.. વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૫) ૫૬. વ્યવહાર સૂત્ર (ભાગ-૬) પ્રસંગરંગ પ્રગટ્યો પૂરન રાગ વિવિધ ગચ્છો કા સંક્ષિપ્ત ઈતિહાસ વાત્સલ્યનો ઘૂઘવતો સાગર ચતુર્વિશતિ ચૈત્યવંદન વિજયચંદ્ર કેવલીચરિત્ર અપ્રગટ પ્રાચીન ગુર્જર સાહિત્ય પ્રસંગરંગ શ્વેતાંબર ગચ્છોકા સંક્ષિપ્ત ઈતિહાસ ભાગ-૧ ૬૬. શ્વેતાંબર ગચ્છોના સંક્ષિપ્ત ઈતિહાસ ભાગ-૨ ૬૭. સમાધિ શતક ભાગ-૧ ૬૮. સમાધિ શતક ભાગ-૨ ૬૯. સમાધિ શતક ભાગ-૩ ૭૦. સમાધિ શતક ભાગ-૪ લેખક ૫. જગદીશભાઈ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ ડૉ. શિવપ્રસાદ આ. યશોવિજયસૂરિ સા.શ્રી મહાયશાશ્રીજી ૫૨. ૫૭. ૫૮. ૬૧. ૬૨. ૬૩.. ૬૪. ૬૫. સા. વિરાગરસાશ્રી / ડૉ. કવિન શાહ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ ડૉ. શિવપ્રસાદ ડૉ. શિવપ્રસાદ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ આ. યશોવિજયસૂરિ ૭૨. વિર નિર્વાણોત્તર બૃહદ્ગચ્છ કા ઈતિહાસ બૃહદ્ગચ્છીય લેખ સમુચ્ચય પ્રસંગ સરિતા ડૉ. શિવપ્રસાદ ડૉ. શિવપ્રસાદ ડૉ. શિવપ્રસાદ આ. મુનિચંદ્રસૂરિ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥णमो अणुओगधराणं॥ सिरीविमलायरियविरड्यं पउमचरियं १. सुत्तविहाणं मङ्गलम् सिद्ध-सुर-किन्नरोरग-दणुवइ-भवणिन्दवन्दपरिमहियं । उसहं जिणवरवसहं, अवसप्पिणिआइतित्थयरं ॥१॥ अजियं विजियकसायं, अपुणब्भव-संभवं भवविणासं ।अभिनन्दणं च सुमई, पउमाभं पउमसच्छायं ॥२॥ तिजगुत्तमं सुपासं, ससिप्पभं जिणवरं कुसुमदन्तं । अह सीयलं मुणिन्दं, सेयंसं चेव वसुपुज्जं ॥३॥ विमलं तहा अणन्तं, धम्मं धम्मासयं जिणं सन्ति । कुन्थु कसायमहणं, अरंजियारिं महाभागं ॥४॥ मल्लिं मलियभवोहं, मुणिसुव्वय सुव्वयं तियसनाहं । पउमस्स इमं चरियं, जस्स य तित्थे समुप्पन्नं ॥५॥ नमि नेमि तह य पासं, उरगमहाफणिमणीसु पज्जलियं । वीरं विलीणरयमलं, तिहुयणपरिवन्दियं भयवं ॥६॥ अन्ने वि जे महारिसि, गणहर अणगार लद्धमाहप्पे । मण-वयण-कायगुत्ते, सव्वे सिरसा नमसामि ॥७॥ पद्मचरित्रम् सर्ग-१ सूत्रविधानम् मङ्गलम् सिद्ध-सुर-किन्नरोरग-भुवनेन्द्रवृन्दपरिमहितम् । ऋषभं जिनवरवृषभमवसर्पिण्यादि तीर्थकरम् ॥१॥ अजितं विजितकषायमपुनर्भवंसम्भवंभवविनाशम् । अभिनन्दनञ्च सुमतिं पद्मप्रभं पद्मसच्छायम् ॥२॥ त्रिजगदुत्तमं सुपार्वं शशीप्रभं जिनवरं कुसुमदन्तम् । अथ शीतलं मुनीन्द्रं श्रेयांसं चैव वासुपूज्यम् ॥३॥ विमलं तथानन्तं धर्मं धर्माशयं जिनं शान्तिम् । कुन्थु कषायमथनमरं जितारं महाभागम् ॥४॥ मल्लिं मलितभवौधं मुनिसुव्रतं सुव्रतं त्रिदशनाथम् । पद्मस्येदं चरित्रं यस्य तीर्थे समुत्पन्नम् ॥५॥ नमि नेमिस्तथा पार्श्वमुरगमहाफणीमणिषु प्रज्वलितम् । वीरं विलीनरजोमलं त्रिभुवनपरिवन्दितं भगवन्तम् ।।६।। अन्यानपि यान्महर्षीन् गणधराणगारलब्धमहात्म्यान् । मनवचनकायगुप्तान् सर्वान् (तान्) शिरसा नमामि ।।७।। १. सुविधिजिनम्। पम.भा-१/१ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अभिधेयम् नामावलियनिबद्धं, आयरियपरंपरागयं सव्वं । वोच्छामि पउमचरियं, अहाणुपुविं समासेण ॥८॥ को वण्णिऊण तीरइ, नीसेसं पउमचरियसंबन्धं । मोत्तूण केवलिजिणं, तिकालनाणं हवइ जस्स ॥९॥ जिवरमुहाओ अत्थो, जो पुव्विं निग्गओ बहुवियप्पो । सो गणहरेहि धरिओ, संखेवेणं य उवइट्ठो ॥१०॥ एवं परंपराए, परिहाणी पुव्वगन्थ-अत्थाणं । नाऊण कालभावं, न रूसियव्वं बुजणं ॥११॥ अत्थेत्थ विसमसीला, केवि नरा दोसगणणर्त लिच्छा । तुट्ठा वि सुभणिएहिं, एक्कं पि गुणं न गेहन्ति ॥१२॥ सव्वन्नुभासियत्थं, भणन्ति कइणो जहागमगुणेणं । किं वज्जसूइभिन्ने, न रियइ तन्तू महारयणे ॥१३॥ एत्थं चिय परिसाए, नराण चित्ताइँ बहुवियप्पाई । को सक्को घेत्तुं जे' पवणहियाइं व पत्ताई ? ॥१४॥ तित्थयरेहि वि न कयं, एक्कमयं तिहुयणं सुयधरेहिं । अम्हारिसेहि किं पुण, कीरइ इह मन्दबुद्धीहिं ? ॥१५॥ जइ वि हु दुग्गहहियओ, लोगो बहुकूड - कवडमेहावी । तह वि य भणामि संपइ, सबुद्धिविहवाणुसारेणं ॥१६॥ देहं रोगाइण्णं, जीयं तडिविलसियं पिव अणिच्चं । नवरं कव्वगुणरसो, जाव य ससि - सूर-गहचक्कं ॥१७॥ तम्हा नरेण निययं, महइमहापुरिसकित्तणुच्छहं । हियए च्चिय कायव्वं, अत्ताणं चेयमाणेणं ॥१८॥ देहावयवसाफल्यम् ते नाम होन्ति कण्णा, जे जिणवरसासणम्मि सुइपुण्णा । अन्ने विदूसगस्स व, दारुमया चेव निम्मविया ॥१९॥ अभिधेयम् नामावलिकानिबद्धमाचार्यपरंपरागतं सर्वम् । कथयिष्यामि पद्मचरित्रं, यथानुपूर्वी समासेन ॥८॥ को वर्णयितुं पार्यते निःशेषं पद्मचरित्रसम्बन्धम् । मुक्त्वा केवलिजिनं, त्रिकालज्ञानं भवति यस्य ॥९॥ जिनवरमुखादर्थो यः पूर्वं निर्गतो बहुविकल्पः । स गणधरै र्धृतः संक्षेपेणचोपदिष्टः ॥१०॥ एवं परम्परया परिहाणीपूर्वग्रन्थानां ज्ञात्वा । कालभावं न रोषितव्यं बुधजनेन ॥ ११॥ अस्त्यत्र विषमशीलाः केऽपि नरा दोषगणतत्पराः । तुष्टा अपि सुभणितैरेकमपि गुणं न गृह्णन्ति ॥१२॥ सर्वज्ञभाषितार्थं भणन्ति कवयो यथागमगुणेन । किं वज्रसूचिभिन्ना न प्रविशति तन्तवो महारत्ने ॥१३॥ एवं चैव पर्षदि नराणां चित्तानि बहुविकल्पानि । कः शक्यते ग्रहितुं यानि पवनहतानीव पत्राणि ? ॥१४॥ तीर्थंकरैरपि न कृतमेकमिदं त्रिभुवनं सूत्रधरैः । अश्मादृशैः किं पुनः क्रियत इह मन्दबुद्धिभिः ॥ १५ ॥ यद्यपि खलु दुर्ग्रहहृदयो लोको बहुकूटकपटमेघावी । तथापि च भणामि संप्रति, स्वबुद्धिविभवानुसारेण ॥१६॥ देहं रोगाकीर्णं, जीवनं तडिद्विलसितमिवानित्यम् । नवरं काव्यगुणरसो यावच्च शशी सूर्य ग्रहचक्रम् ॥१७॥ तस्मान्नरेण नियमा महन्महापुरुष किर्तनोत्साहः । हृदि चेव कर्तव्योऽऽत्मानं ज्ञायमानेन ॥१८॥ देहावयवसाफल्यम् ते नाम भवन्ति कर्णा जिनवर शासने सुचिपूर्णाः । अन्ये विदुषकस्येव दारुमयाश्चैव निर्मापिताः ॥ १९॥ १. तत्पराः । २. प्रविशति । ३. पादपूरणार्थकमव्ययम् । ४. स्वबुद्धि । ५. चेतयता- जानता । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तविहाणं-१/८-३१ तं चेव उत्तमिङ्गं, जं घुम्मइ वण्णणाइसामन्ने । अन्नं पुण गुणरहियं, नालियरकरङ्कयं चेव ॥२०॥ 1 जिदरिसज्जया वि हु, जे नयणा ते हवन्ति सुपसत्था । मिच्छत्तमइलिया पुण, चित्तयरेणं व निम्मविया ॥२१॥ जिणवरकहाणुरत्ता, दन्ता ते होन्ति कन्तिसंजुत्ता । सो सिलेसकज्जे, जाया वि हु वयणबन्धम्मि ॥२२॥ किं नासियाएँ कीरड़, बहुविहससुगन्धगन्धलुद्धाए ? । सुसुयत्थगन्धगन्धं, जा न वि जाणेइ लोगम्मि ॥२३॥ जे चि सल्लावं, भणन्ति ते उत्तमा इहं ओट्टा । अन्ने सुत्तजलूगा-पट्टीसंवुक्कसमसरिसा ॥२४॥ जा जाणइ समयरसं, सा जीहा सुन्दरा हवइ लोए । दुव्वयणतिक्खधारा, सेसा छुरिय व्व नवघडिया ॥२५॥ तं पि य हवइ पहाणं, मुहकमलं जं गुणेसु तत्तिल्लं । अन्नं बिलं व भण्णइ, भरियं चिय दन्तकीडाणं ॥२६॥ जो पढइ सुणइ पुरिसो, सामण्णे उज्जमेइ सत्तीए । सो उत्तमो हु लोए, अन्नो पुण सिप्पियकओ व्व ॥२७॥ सव्वायरेण एवं, पुरिसेणं उज्झिऊण मूढत्तं । होयव्वं नयमइण, जिणसासणभत्तिजुत्ते ॥२८॥ अह पउमचरियतुङ्गे, वीरमहागयवरेण निम्मविए । मग्गे परंपराए, अज्जवि कविकुञ्जराण गमो ॥२९॥ तह कइवरगयमयगन्धलोलुओ महुयरो व्व मग्गेणं । पयदाणबिन्दुदिट्ठी, अहमवि तेणं चिय पयट्टो ॥३०॥ सुत्ताणुसारसरसं, रइयं गाहाहि पायडफुडत्थं । विमलेण पउमचरियं, संखेवेणं निसामेह ॥३१॥ तच्चेवोत्तमाङ्गं यद्धुनाति वर्णनादिश्रामण्ये । अन्यत् पुन र्गुणरहितं, नालिकेरकरङ्कमेव ॥२०॥ जिनदर्शनोद्यते अन्येऽपि हु ये नयने ते भवतः सुप्रशस्थे । मिथ्यात्वमलिते पुनश्चित्रकारेणैव निर्मापिते ॥२१॥ जिनवरकथानुरक्ता दन्तास्ते भवन्ति कान्तिसंयुक्ताः । शेषाः श्लेषकार्ये जाता अपि खलु वदनबन्धे ॥२२॥ किं नासिकया क्रियते बहुविधसुगन्धगन्धलुब्धया ? । सुसूत्रार्थगन्धं या नापि जानाति लोके ॥२३॥ ये चेव समयोल्लापं मुणन्ति ते उत्तमा इहौष्ठाः । अन्ये सुप्तजलूका पृष्ठशङ्खसमसदृशाः ||२४|| या जानाति समयरसं सा जिह्वा सुन्दरा भवति लोके । दुर्वचनतीक्ष्णधारा शेषा छूरिकैव नवघटिता ॥२५॥ तदपि च भवति प्रधानं मुखकमलं यदुणेसु तत्परम् । अन्यब्दिलमिव भण्यते, भृतं चेव दन्तकीटानाम् ॥२६॥ य पठति श्रुणोति पुरुषः श्रामण्ये उद्यमति शक्त्या । स उत्तमो खलु लोके, अन्य पुनः शिल्पीकृत इव ॥२७॥ सर्व्वादरेणेवं पुरुषेणोज्जित्वा मूढत्वम् । भवितव्यं नयमतिना जिनशासनभक्तियुक्तेन ॥२८॥ अथ पद्मचरित्रतुङ्गे वीरमहागजवरेण निर्मापिते । मार्गे परंपरया ऽद्यापि कविकुञ्जराणां गमः ॥२९॥ तथा कविवरगजमदगन्धलोलुपो मधुकर इव मार्गेण । पददानबिन्दुदृष्टिरहमपि तेन चेव प्रवृत्तः ||३०|| सूत्रानुसारसरसं रचितं गाथाभिः प्रकट स्फूटार्थम् । विमलेन पद्मचरित्रं संक्षेपेन निशम्यताम् ॥३१॥ १. सिद्धान्तवचनम् । २. तत्परम् । For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं ग्रन्थविषयानुक्रमणिकाठिइवंससमुप्पत्ती, पत्थाणरणं लवंकुसुप्पत्ती । निव्वाणमणेयभवा, सत्त पुराणेत्थ अहिगारा ॥३२॥ पउमस्स चेट्ठियमिणं, कारणमिणमोऽहिगारसंजुत्तं । तिसलासुएण भणियं, सुत्तं संखेवओ सुणह ॥३३॥ वीरस्सपवरठाणं, विउलगिरीमत्थए मणभिरामे । तह इन्दभूइकहियं, सेणियरण्णस्स नीसेसं ॥३४॥ कुलगरवंसुप्पत्ती, नीईए लोगकारणं चेव । उसभजिणजम्मणुब्भव, अहिसेयं मन्दरगिरिम्मि ॥३५॥ उवएसं चिय विविहं, लोगस्स य अत्तिनासणं चेव । सामण्ण केवलुब्भव, अइसय कुसुमोहवुट्ठीओ ॥३६॥ सव्वसुरा-ऽसुरमहियं, निव्वाणं परमसोक्खमाहप्पं । भरहस्स बाहुबलिणो, तह संगामं जहावत्तं ॥३७॥ जाईण य उप्पत्ती, कुतित्थगण-विविहवेसधारीणं । विज्जाहरवंसस्स य, उप्पत्ती विज्जुदन्तस्स ॥३८॥ उवसग्गं पि य घोरं, मुणिवरवसहस्स संजयन्तस्स । केवलनाणुप्पत्ती, विज्जाहरणं च धरणेणं ॥३९॥ अजियस्स य उप्पत्ती, पुण्णघणसुहा-ऽसुहं समोसरणे । विज्जाहरस्स दिन्नं, सरणं जह रक्खसिन्देणं ॥४०॥ दिन्नं रक्खसवइणा, ठाणं च वरो जहा कुमारस्स । सगरस्स य उप्पत्ती, दुक्खं सामण्ण निव्वाणं ॥४१॥ अइकन्तमहारक्खो, जम्मणविहवस्स कित्तणं चेव । तह रक्खसवंसस्स य, पवत्तणं चेव नायव्वं ॥४२॥ वाणरकेऊण तहा, वंसुप्पत्ती कमेण नायव्वा । तडिकेसरिस्स य चरियं, उदहिकुमारेण सहियस्स ॥४३॥ ग्रन्थविषयानुक्रमणिका - स्थितिवंशसमुत्पत्तिः रणप्रस्थानौ, लवांकुशोत्पत्तिः । निर्वाणमनेकभवाः, सप्तःपुराण अत्राधिकाराः ॥३२॥ पद्मस्य चेष्टितमिदं कारणमिदमधिकारसंयुक्तम् । त्रिशलासुतेन भणितं सूत्रं संक्षेपेन श्रुणुयात् ॥३३॥ वीरस्य प्रवरस्थानं, विपुलगिरिमस्तके मनोऽभिरामे । तथेन्द्रभूतिकथितं, श्रेणिकराज्ञे निःशेषम् ॥३४॥ कुलकरवंशोत्पत्तिर्नीत्या लोककारणं चेव । ऋषभजिनजन्मोद्भवोऽभिषेकं मन्दरगिरौ ॥३५॥ उपदेशं चैव विविधं, लोकस्य चार्तिनाशनं चेव । श्रामण्यं केवलोद्भवमतिशयः कुसुमौघवृष्टिः ॥३६।। सर्वसुराऽसुरमहितं, निर्वाणं परमसौख्यमाहात्म्यम् । भरतस्य बाहुबलेस्तथा संग्रामं यथावृत्तम् ॥३७|| जातीनामुत्पतिः कुतीर्थगणविविधवेशधारीणाम् । विद्याधरवंशस्य चोत्पत्ति विधुद्दन्तस्य ॥३८॥ उपसर्गमपि च घोरं मुनिववृषभस्य संयतस्य । केवलज्ञानोत्पत्ति विद्याहरणं च धरणेन ॥३९॥ अजितस्योत्पत्तिः पूर्णधनशुभाऽशुभं समवसरणे । विद्याधरस्य दत्तं शरणं यथा राक्षसेन्द्रेण ॥४०॥ दत्तं राक्षसपतिना स्थानं च वरो यथा कुमारस्य । सगरस्य चोत्पति १:क्खं श्रामण्यं निर्वाणम् ॥४१॥ अतिक्रान्तमहारक्ष स्तथा जन्मविभवस्य किर्तनमेव । तथा रक्षोवंशसस्य च प्रवर्तनमेव ज्ञातव्यम् ॥४२॥ वानरकेतुनां तथा वंशोत्पत्तिः क्रमेण ज्ञातव्या । तडित्केशेश्चरित्रमुदधिकुमारेण सहितस्य ॥४३॥ १. आति-पीडा । २. यथावृत्तम् । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तविहाणं-१/३२-५६ किक्किन्धिअन्धयणं, सिरिमालाखेयराण आगमणं । वहणं च विजयसीहस्स कोवणं असणिवेगस्स ॥४४॥ अन्धयवहं पवेसो, पायालंकारपुरवरे तइया । किक्किन्धिपुरनिवेसं, महुगिरिउवरिं मणभिरामं ॥४५॥ लङ्कागमण-पवेसं, सुकेसिपुत्ताण बलमहन्ताणं । निग्घायमरणहेऊ, मालिस्स य संपयं विउलं ॥४६॥ वेयड्डदक्खिणाए, सेढीए चक्कवालनयरम्मि । इन्दस्स य उप्पत्ती, विज्जाहरसेढिसामित्तं ॥४७॥ मालिस्स वहं जुझे, वेसमणकुमारजम्मणुप्पत्ती । कुसुमन्तवरुजाणे, सुमालिपुत्तस्स य पवेसं ॥४८॥ केकसिसहसंजोग, निदरिसणं तह य परमसुमिणाणं । जणणं च दहमुहस्स य, विज्जासमुवासणं चेव ॥४९॥ खोहं जक्खस्स अणाढियस्स तह आगमं सुमालिस्स । मन्दोयरीय लम्भं, कन्नाण निरिक्खणं चेव ॥५०॥ तह भाणुकण्णचरियं, कोवं वेसमणउन्भवं चेव । रक्खसजक्खाण रणं, धणयस्स तवो य नायव्वो ॥५१॥ दहमुहलङ्कागमणं, अवलोयण पुच्छणं जिणहराणं । हरिसेणस्स य चरियं, पुण्णं तह पावमहणं च ॥५२॥ गहणं मत्तमहागयभुवणालंकारनामधेयस्स । ठाणं जमस्स लद्धं, रिक्खरयाइच्चकिक्विन्धी ॥५३॥ दहवयण-दूसणाणं, पायालंकारपुरवरपवेसं । चन्दोयरस्स विरहे, अणुराहादुक्खसंघढें ॥५४॥ लंभो विराहियपुरे, सुग्गीवसिरीसमागमं चेव । वालिस्स य पव्वज्जा, खोहं अट्ठावयनगस्स ॥५५॥ सुग्गीव सुताराए, लम्भं मरणं च साहसगइस्स । संतावं चिय परमं, वेयड्ढगमं दहमुहस्स ॥५६॥ किष्किन्ध्यन्धकानां श्रीमालखेचराणामागमनम् । वघनं च विजय सिंहस्य कोपनमशनिवेगस्य ॥४४॥ अन्धकवधः प्रवेश: पाताललंकापुरवरे तदा । काष्किन्धिपुरनिवेशं, मधुगिरेरुवरि मनोभिरामम् ॥४५॥ लङ्कागमन-प्रवेशं सुकेशीपुत्राणां बलमहताम् । निर्घातमारणहेतु मालेश्च संपद् विपुलम् ॥४६॥ वैताढ्यदक्षिणे श्रेणौ चक्रवालनगरे । इन्द्रस्य चोत्पत्तिर्विद्याधरश्रेणीस्वामित्वम् ॥४७॥ मालेर्वधं युद्धे वैश्रमणकुमारजन्मोत्पत्तिः । कुसुमन्तवरोद्याने सुमालिपुत्रस्य च प्रवेशम् ॥४८॥ कैकशीसहसंयोग, निदर्शनं तथ च परमस्वप्नानाम् । जननं च दशमुखस्य च विद्यासमुपासनं चैव ॥४९॥ क्षोभं यक्षस्य अनादृतस्य तथागमं सुमालेः । मन्दोदर्या लाभं कन्यानां निरीक्षणं चैव ॥५०॥ तथा भानुकर्णचरित्रं, कोपं वैश्रमणोद्भवं चैव । राक्षसयक्षाणां रणं, धनदस्य तपश्च ज्ञातव्यम् ॥५१॥ दशमुखलङ्कागमनमवलोकनं पृच्छनं जिनवराणाम् । हरिसेणस्य चरित्रं, पुण्यं तथा पापमथनं च ॥५२।। ग्रहणं मतमहागजभुवनालङ्कारनामधेयस्य । स्थानं यमस्य लब्धं, रुक्षरजआदित्यकिष्किन्धयः ॥५३॥ लाभो विराधितपुरे सुग्रीवश्रीसमागमं चैव । वालेश्च प्रव्रज्या क्षोभमष्टापदनगस्य ॥५४|| सुग्रीवस्य सुताराया लाभं मरणं च साहसगतेः । सन्तापमेव परमं वैताढ्यगमनं दशमुखस्य ॥५५॥ दशवदन-दुषणयोः पाताललङ्कापुरवरप्रवेशम् । चन्द्रोदरस्य विरहे अनुराधादुःखसंघट्टम् ।।५६|| १. चरितेऽस्मिन् किक्किन्धिस्थाने किंकिंधि इत्यपि पाठो प्राचीनेष्वादशेषु दृश्यते । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं अणरण-सहसकिरणाण ताण वेरग्ग जननासं च । महुपुव्वभवक्खाणं, उवरम्भाए य अहिलासं ॥५७॥ विज्जाणं चिय लम्भं, महिन्दरायस्स लच्छिनासं च । दहमुहमन्दरागमणं, पुणरवि य नियत्तणं चेव ॥५८॥ अणगारमहरिसिस्स वि, अणन्तविरियस्स केवलुप्पत्ती । रावणनियमग्गहणं, हणुयस्स समुब्भवं चेव ॥५९॥ अट्ठावयस्स उवरिं, महिन्द-पल्हायदरिसणसिणेहं । पवणञ्जयस्स कोवं, तह अञ्जणउज्झणं चेव ॥६०॥ सिटुं च मुणिवरेणं, हणुयपरब्भवसमूहसंबन्धं । सूई हणुरूहपुरे, कया य पडिसूरनामेणं ॥६१॥ भूयाडवीय मज्झे, पवणञ्जयखेरयस्स य नियोगं । तह दरिसणूसवसुहं, विज्जाहरिअञ्जणाइ समं ॥६२॥ पवणञ्जयपुत्तमहाबलस्स तह दारुणं रणं परमं । रज्जं दसाणणस्स य, जिणउस्सेहन्तरं चेव ॥६३॥ बल-केसव-पडिसत्तूण चेट्ठियं चक्कवट्टिपमुहाणं । दसरहरज्जुप्पत्ती, केगइवरसंपयं परमं ॥४॥ इन्देण समं जुझं, काऊण य गिण्हियं दहमुहेणं । संवेगसमावन्नो, नरवइ दिक्खं समणुपत्तो ॥६५॥ रामस्स लक्खणस्स य, भरहस्स य तह य सत्तुनिहणस्स । उप्पत्ती सीयाए, विदेहि तह सोगसंबन्धं ॥६६॥ नारयसीयालिहणं, दट्टण सहोयरस्स मूढत्तं । कन्नासयंवरत्थं, उप्पत्ती चावरयणस्स ॥६७॥ दसरहनिवस्स दिक्खं, पो मुणिसव्वभूयसरणस्स । ववगयभवाण कहणं, समागमं चेव सीयाए ॥६८॥ केकइवरस्स लम्भं, रज्जं भरहस्स परममाहप्पं । तह लक्खमो य रामो, सीया य गया विदेसम्मि ॥६९॥ अनरण्य-सहस्रकिरणयोस्तयो वैराग्यं यज्ञनाशं च । मधुपूर्वभवाख्यान, मुपरम्भायांश्चाभिलाषः ॥५७।। विद्यानामेव लाभं महेन्द्रराजस्य लक्ष्मीनाशं च । दशमुखमन्दरगमनं पुनरपि च निवर्तनं चैव ॥५८।। अणगारमहर्षैरप्यनन्तवीर्यस्य केवलोत्पत्तिः । रावणनियमग्रहणं, हनुमतः समुद्भवं चैव ॥५९॥ अष्टापदस्योपरि, महेन्द्र-प्रह्लाददर्शनस्नेहम् । पवनञ्जयस्य कोपं, तथाऽञ्जनोज्जनं चैव ॥६०॥ शिष्टं च मुनिवरेण हनुमत्पूर्वभवसमूहसम्बन्धम् । सूति हनुरुहपुरे कृता च प्रतिसूर्यनाम्ना ॥६१॥ भुवनाटव्या मध्ये पवनञ्जयखेचरस्य च नियोगम् । तथा दर्शनोत्सवसुखं विद्याधर्यंजनासमम् ॥६२॥ पवनञ्जयपुत्रमहाबलस्य तथा दारुणं रणं परमम् । राज्यं दशाननस्य च जिनोत्सेधान्तरं चैव ॥६३।। बल-केशव-प्रतिशत्रूणां चेष्टितं चक्रवर्तीप्रमुखाणाम् । दशरथराज्योत्पत्तिं कैकयीवरसंप्राप्तं परमम् ॥६४॥ इन्द्रेण समं युद्धं, कृत्वा च गृहीतं दशमुखेन । संवेगसमापन्नो नरपतिर्दीक्षां समनुप्राप्तः ॥६५।। रामस्य लक्ष्मणस्य च भरतस्य च तथा च शत्रुनिधनस्य । उत्पत्तिः सीताया विदेहे तथा शोकसम्बन्धम् ॥६६॥ नारदसीतालेखनं दृष्टवा सहोदरस्य मूढता । कन्यास्वयंवरार्थंमुत्पत्तिश्चापरत्नस्य ॥६७॥ दशरथराजस्य दीक्षा, पार्वे मुनिसर्वभूतशरणस्य । व्यपगतभवानां कथनं समागमं चेव सीतायाः ॥६८॥ कैकयी वरस्य प्राप्ति, राज्यं भरतस्य परममाहात्म्यम् । तथा लक्ष्मणश्च रामः सीता च गताः विदेशे ॥६९।। १. शत्रुघ्नस्य। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तविहाणं - १/५७-८३ तह वज्जकण्णनरवइ-विचेट्ठियं वरकुमारिलम्भं च । वसिकाररुद्दभूई, विमोयणं वालिखिल्लस्स ॥७०॥ अरुणुग्गामासन्ने, रामपुरिनिवेसणं परमरम्मं । वणमालासंयोगं, अइविरियसमुन्नई चेव ॥ ७१ ॥ लाभो जिपमाए, कुल - देसविभूसणाण उवसग्गं । वंसगिरिमत्थोवरि, जिणहरकरणं च रामेण ॥७२॥ दट्ठूण दाणविभवं, जडागिणो नियमलद्धमाहप्पं । नागरहारोहं चिय, संबुक्कविवायणं चेव ॥७३॥ केगइपुत्तागमणं, खरदूसणविग्गहं परमघोरं । सीयाहरणनिमित्तं, सोगं चिय रामदेवस्स ॥७४॥ सिग्घं विराहियस्स य, आगमणं 'दूसणस्स य वहं च । रयणजडिविज्जनासं, सुग्गीवसमागमं चेव ॥७५॥ साहसगइस्स य वहं, सीयापडिवत्तिकारणं लम्भं । मिलणं विहीसणेणं, विज्जाबलकेसिसंपत्ती ॥७६॥ तह कुम्भयण्ण-इन्दइभुयङ्ग पासेसु बन्धणं परमं । लक्खणसत्तिपहारं, तह य विसल्लागमं चेव ॥७७॥ दहमुपवेसणं चिय, भवणे जिणसन्तिसामिनाहस्स । तह पाडिहेरगमणं, लङ्काए पवेसणं चेव ॥७८॥ चक्कुप्पत्ती तह लक्खणस्स दहमुहविवायणं चेव । वरजुवईण पलावं, आगमणं चेव केवलिणो ॥ ७९ ॥ इन्दइपमुहाण तहा, दिक्खा सीयासमागमं वत्तं । नारयलङ्कागमणं, साएयपुरीपवेसं च ॥८०॥ पुव्वभवाण य चरियं, भरहगयाणं जहा समक्खायं । भरहस्स य पव्वज्जा, ठविओ च्चिय लक्खणो रज्जे ॥८१॥ लद्धा मणोरमा वि य, सिरिवच्छालीढदेहधारिस्स । मरणं च समावन्नं, सुमहल्लवणस्स संगामे ॥८२॥ महुरापुरिदेसस्स य, उवसग्गविणासणं जणवयस्स । सत्तरिसीण पवत्ती, सीयानिव्वासणं चेव ॥८३॥ 1 तथा वज्रकर्णनृपतेर्विचेष्टितं वरकुमारिलाभं च । वशीकाररुद्र भूतेर्विमोचनं वालिखिल्यस्य ॥७०॥ अरुणग्रामासन्ने रामपुरिनिवेसनं परमरम्यम् । वनमालासंयोगमतिवीर्यसमुन्नतिश्चैव ॥७१॥ लाभो जितपद्माया: कुल - देशविभूषणयोरुपसर्गः । वंशगिरिमस्तकोपरि जिनगृहकरणं च रामेण ॥७२॥ दृष्टवा 'दानवैभवं जटायुना नियमलब्धमाहात्म्यम् । नागरथारोहणं चैव संबुकविपादनं चैव ॥७३॥ कैकयीपुत्रागमनं खरदुषणविग्रहं परमघोरम् । सीताहरणनिमित्तं, शोकं चैव रामदेवस्य ॥७४॥ शीघ्रं विराधितस्य चागमनं दूषणस्य च वधं च । रत्नजटीविद्यानाशं, सुग्रीवसमागमं चैव ॥७५॥ साहसगतेश्च वधं, सीताप्रतिपत्तिकारणं प्राप्तम् । मिलनं विभीषणेन विद्याबलकेशीसंप्राप्तिः ॥७६|| तता कुम्भकरणेन्द्रजीद्भुजङ्गपासेषु बन्धनं परमम् । लक्ष्मणशक्तिप्रहारं, तथा च विशल्यागमं चैव ॥७७॥ दशमुखप्रवेशनं चेव भवने जिनशान्तिस्वामिनाथस्य । तथा प्रातिहार्यगमनं लङ्कायां प्रवेशनं चैव ॥७८॥ चक्रोत्पत्तिस्तथा लक्ष्मणस्य दशमुखविपादनं चैव । वरयुवतीनां प्रलापमागमनं चैव केवलिनः ॥७९॥ इन्द्रप्रमुखानां तथा दीक्षा सीता समागमनं वृत्तम् । नारदलङ्कागमनं, साकेतपुरीप्रवेशनं च ॥८०॥ पूर्वभवानां च चरित्रं भरतगजयो र्यथा समाख्यातम् । भरतस्य च प्रवज्या, स्थापितश्चैव लक्ष्मणो राज्ये ॥८१॥ लब्धा मनोरमाऽपि च श्रीवत्सालीढदेहधारिणः । मरणं च समापन्नं सुमहल्लवणस्य संग्रामे ॥८२॥ मथुरापुरिदेशस्य च उपसर्गविनाशनं जनपदस्य । सप्तर्षेर्प्रवृत्तिः सीतानिर्वासनं चैव ॥८३॥ For Personal & Private Use Only ७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं अह वज्जजङ्घनरवइ, दिट्ठा सीया लवंकुसुप्पत्ती । जेऊण नरवरिन्दे, पियरेण समं कयं जुझं ॥४४॥ सयलजणभूसणाणं, नाणुप्पत्ती सुराण आगमणं । वत्तं च पाडिहेरं, सीयाए भीसणभवोहं ॥८५॥ घोरं तवोविहाणं, कयन्तवयणे सयंवरे खोहं । दिक्खा य कुमाराणं, भामण्डलदुग्गई चेव ॥८६॥ हणुयस्स य पव्वज्जा, लक्खणपरलोगगमणहेउम्मि । लवणंकुसाण य तवो, रामपलावं च सोगं च ॥८७॥ पुव्वभवदेवजणियं, दिक्खं चिय राघवस्स निग्गन्थं । केवलनाणुप्पत्ती, तहेव निव्वणगमणं च ॥४८॥ सव्वं पि एवमेयं, सुणन्तु इह सज्जणा य मज्झत्था । सिद्धिपहं संपत्तं, पउमं विमलेण भावेण ॥८९॥ एयं अट्ठमरामदेवचरियं वीरेण सिटुं पुरा, पच्छा उत्तमसाहवेहि धरियं लोगस्स उब्भासियं । एत्ताहे विमलेण पायडफुडं गाहानिबद्धं कयं, सुत्तत्थं निसुणन्तु संपइ महापुण्णं पवित्तक्खरं ॥१०॥ ॥इति पउमचरिए सुत्तविहाणो नाम उद्देसो समत्तो ॥ अथ वज्रजङ्घनरपतिर्दृष्टा सीता लवकुशोत्पत्तिः । जीत्वा नरवरेन्द्रा न पितृभिः समं कृतं युद्धम् ॥८४॥ सकलजनभूषणानां ज्ञानोत्पत्तिः सुराणामागमनम् । वृत्तं च प्रातिहार्य, सीताया भीषणभवौधम् ॥८५।। घोरं तपोविधानं कृतान्तवदनस्य स्वयंवरे क्षोभः । दिक्षा च कुमारयोर्भामण्डलदुर्गतिश्चैव ॥८६।। हनुमतश्चप्रव्रज्या लक्ष्मणपरलोकगमनहेतौ । लवणंकुशयोश्च तपः, रामप्रलापं च शोकं च ।।८७॥ पूर्वभवदेवजनितां दिक्षां चैव राधवस्य निग्रन्थता । केवलज्ञानोत्पत्तिस्तथैव निर्वाणगमनं च ॥८८॥ सर्वमप्येवमेव श्रुण्वन्तु इह सज्जनाश्चमध्यस्थाः । सिद्धिपथं संप्राप्तं पद्मं विमलेन भावेन ॥८९॥ एवमष्टमरामदेवचरित्रं वीरेण शिष्टं पुरा, पश्चादुत्तमसाधवैधृतं लोकस्योद्भासितम् । अधुना विमलेन प्रकटस्फुटं गाथानिबद्धं कृतं, सूत्रार्थं निश्रुणवन्तु संप्रति महापुण्यं पवित्राक्षरम् ॥१०॥ ॥ इति पद्मचरित्रे सुत्रविधानो नामोद्धेशः समाप्तः ॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सेणियचिंताविहाणं मगधा जनपदःइह जम्बुद्दीवेदीवे, दक्खिणभरहे महन्तगुणकलिओ।मगहा नाम जणवओ, नगरा-ऽऽगरमण्डिओ रम्मो ॥१॥ गाम-पुर-खेड-कब्बड-मडम्ब-दोणीमुहेसुपरिकिण्णो।गो-महिसि-वलवपुण्णो, धणनिवहनिरुद्धसीमपहो ॥२॥ सत्थाह-सेट्ठि-गहवइ-कोडुम्बियपमुहसुद्धजणनिवहो । मणि-कणगरयण-मोत्तिय-बहुधन्नमहन्तकोट्ठारो ॥३॥ देसम्मि तम्मि लोगो, विन्नाणवियक्खणो अइसुरूवो। बल-विहव-कन्तिजुत्तो, अहियं धम्मुज्जुयमईओ ॥४॥ नड-नट्ट-छत्त-लवयनिच्चनच्चन्तगीयसद्दालो । नाणाहारपसाहियभुज्जाविज्जन्तपहियजणो ॥५॥ अहियं वीवाहोसववियावडो गन्धकुसुमतत्तिल्लो । बहुपाण-खाण-भोयण-अणवरयंवड्डिउच्छाहो ॥६॥ पुक्खरणीसु सरेसु य, उज्जाणेसु य समन्तओ रम्मो । परचकक्-मारि-तक्कर-दुब्भिक्खविवज्जिओ मुइओ ॥७॥ राजगृहनगरम् - तस्स बहुमज्झदेसे, पायारुब्भडविसालपरिवेढं । नयरं चिय पोराणं, रायपुरं नाम नामेणं ॥८॥ सर्ग-२ श्रेणिक चिन्ता विधानम् मगधा जनपदःइह जम्बूद्वीपेद्वीपे दक्षिणभरते महद्गुणकलित । मगधा नाम जनपदो नगराऽऽकरमण्डितो रम्यः ॥१॥ गाम-पुर-खेट-कर्बट-मडम्ब-द्रोणमुखेषु परिकीर्णः । गो-महिष-बलीवर्दपुर्णो धननिवहनिरुद्धसीमपथः ॥२॥ सार्थवाह-श्रेष्ठि-गाथापति-कौटुम्बिकप्रमुखशुद्ध जननिवहः । मणि-कनक-रत्न-मौक्तिक-बहुधान्यमहत्कोष्टागारः ॥३॥ देशे तस्मिन्नलोको-विज्ञानविचक्षणोऽतिसुरुपः । बल-विभव-कान्तियुक्तो ऽधिकं धर्मोद्यतमतिकः ॥४॥ नट-नाट्य-छत्र-लङ्घकनित्यनृत्यद्गीतशब्दवान् । नानाहारप्रसाधितभोजयमानपथिकजनः ॥५॥ अधिकं विवाहोत्सवव्यावृत्तो गन्धकुसुमतत्परः । बहुपान-खान-भोजनाननवरतवर्धितोत्साहः ॥६॥ पुष्करिणिषु सरःषु च उद्यानेषु च समन्ततो रम्यः । परचक्र-मारि-तस्कर-दुर्भिक्षविवर्जितो मुदितः ॥७॥ राजगृहनगरम् - तस्यबहुमध्यदेशे, प्राकारोद्भटविशालपरिवेष्टम् । नगरं चैव पोराणां राजपुरं नाम नाम्ना ॥८॥ पम.भा-१/२ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पउमचरियं वरभवण-तुङ्गतोरण-धवलट्टालय कलङ्कपरिमुक्कं । फलिहासु संपउत्तं, कविसीसयविरड्याभोयं ॥९॥ बहुभण्डसारगरुयं, जल-थलयसमिद्धरयणभरियघरं । नाणादेससमागय-वणियजणुल्लावसद्दालं ॥१०॥ भवणङ्गणच्चणेसु य, मरगय-माणिक्ककिरणकब्बुरियं ।अगुरुय-तुरुक्क-चन्दष्ट-जणवयपरिभोयसुसुयन्धं ॥११॥ चेइयघरेहि रम्मं, आरामुज्जाण-काणणसमिद्धं । सर-सरसि-वावि-वप्पिण-सएसु अइमणहरालोयं ॥१२॥ चच्चर-चउक्कमणहर-पेच्छणयमहन्तमहुरनिग्घोसं । पण्डियजणसुसमिद्धं, अक्खलियचरित्तबहुसत्थं ॥१३॥ किं जंपिएण बहुणा, तं नयरं गुणसहस्सआवासं । अमरपुरस्स य सोहं, घेत्तूण व होज्ज निम्मवियं ॥१४॥ श्रेणिको राजाएवंविहे य नयरे, वसइ निवो तत्थ सेणिओ नाम । नरवइगुणेहि जुत्तो, वेसवणो चेव पच्चक्खो ॥१५॥ भमरनिभनिद्धकेसो, वियसियवरपउमसरिसमुहसोहो । घण-पीण-कढिणखन्धो, थोरुनय-दीहबाहुजुओ ॥१६॥ वित्थिण्णपिहुलवच्छो, करयलसमगिज्झललियतणुमज्झो।मयरायसरिसकडियड, समहियवरहत्थिहत्थोरू ॥१७॥ कुम्मवरचारुचलणो, सोवण्णियपव्वओ व्व दिप्यन्तो । चन्दो व्व सोमवयणो, सलिलनिही चेव गम्भीरो ॥१८॥ तं नत्थि जं न याणइ, नरिन्दविन्नाण-नाणमाहप्पं । सम्मत्तलद्धबुद्धी, गुरु-देवयपूयणसमत्थो ॥१९॥ विविहकला-ऽऽगमकुसलो विमाणवो तस्स वरनरिन्दस्स।सुचिरंपिभण्णमाणो,गुणाण अन्तंन पाविज्जा ॥२०॥ वरभवनतुङ्गतोरण-धवलाथालयं कलङ्कपरिमक्तम् । परिखाभिः संप्रयुक्तं कपिशीर्षविराजिताभोगम् ॥९॥ बहुभाण्डसारगुरुकं, जलस्थलसमृद्धरत्नभृतगृहम् । नानादेशसमागतवणिग्जनोल्लापशब्दवत् ॥१०॥ भवनांऽगणार्चनेषु च मरकत-माणिक्यकिरणकर्बुरितम् । अगुरु-तुरुक्क-चंदन-जनपदपरिभोगसुसुगन्धम् ॥११॥ चैत्यगृहैरम्यमारामुद्यानकाननसमृद्धम् । सर: सरसिवापिक्षेत्रशतैरतिमनोहरालोकम् ॥१२॥ चर्चर-चतुष्कमनोहर-प्रेक्षणक महसो मधुरनिर्घोषम् । पण्डितजनसुसमृद्धमस्खलितचरित्रं बहुशास्त्रम् ॥१३॥ किं ज्लपितेन बहुना तन्नगरं गुणसहस्रावासम् । अमरपुरस्य च शोभां गृहीत्वेव भवेत् निर्मापितम् ॥१४॥ श्रेणिको राजाएवंविधे च नगरे वसति राजा तत्र श्रेणिको नाम । नरपतिगुणैर्युक्तो वैश्रवण इव प्रत्यक्षः ॥१५॥ भ्रमरनिभस्निग्धकेशो विकसितवरपद्मसदृशमुखशोभः । घनपीनकठिनस्कन्धः स्थूलोन्नतदीर्घबाहुयुग्मः ॥१६॥ विस्तीर्णपृथुवक्षः स्थलः करतलसमग्राह्यललिततनुर्मध्यः । मृगराजसदृशकटितटः समधिकवरहस्तिहस्तोरुः ॥१७॥ कुर्मवरचारुचरणः सौवर्णिकपर्वत इव दीप्यमानः । चन्द्र इव सौम्यवदनः सलिलनिधिरिव गम्भीरः ॥१८॥ तन्नास्ति यन्न जानाति नरेन्द्रविज्ञान-ज्ञान माहत्म्यम् । सम्यक्त्वलब्धबुद्धिगुरु-देव-पूजनसमर्थः ॥१९॥ विविधकलाऽऽगम कुशलोऽपि मानवस्तस्य वरनरेन्द्रस्य । सुचिरमपि भण्यमानो गुणानामन्तं न पार्येत् ॥२०॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेणियचिताविहाणं - २/९-२९ [ सिरिवीरजिणचरियं ] वीरजिनजन्म, सुरकृतो जन्माभिषेकश्च अत्थेत्थ भरहवासे, कुण्डग्गामं पुरं गुणसमिद्धं । तत्थ य नरिन्दवसहो, सिद्धत्थो नाम नामेणं ॥२१॥ तस्स य बहुगुणकलिया, भज्जा तिसल त्ति रूवसंपन्ना । तीए गब्भम्मि जिणो, आयाओ चरिमसमम्मि ॥२२॥ आसणकम्पेण सुरा, मुणिऊण जिणेसरं समुप्पन्नं । सव्वे वि समुच्चलिया, परिओसुब्भिन्नरोमञ्चा ॥ २३ ॥ आगन्तूणय नयरे, गन्धोदयवारिवरिसणं काउं । घेत्तूण जिणवरिन्दं मन्दरसिहरम्मि संपत्ता ॥२४॥ ठविऊण पण्डुकम्बल-सिलाए सीहासणे मणिविचित्ते । अभिसिञ्चन्ति सुरिन्दा, खीरोदहिवारिकलसेहिं ॥२५॥ आकम्पिओ य जेणं, मेरू अङ्गुट्ठएण लीलाए । तेणेह महावीरो, नामं सि कयं सुरिन्देहिं ॥ २६ ॥ नमिऊण जिणवरिन्दं, थोऊण पयाहिणं च काऊणं । पुणरवि माउसयासे, ठवेन्ति देवा तिलोयगुरुं ॥२७॥ सुरवइदिन्नाहारो, अङ्गुट्ठयअमयलेवलेहेणं । उम्मुक्कबालभावो, तीसइवरिसो जिणो जाओ ॥२८॥ ज्ञानं, अतिशयाश्च वीरस्य प्रव्रज्या, अह अन्नया कयाई, संवेग गओ जिणो मुणियदोसो | लोगन्तियपरिकिण्णो, पव्वज्जमुवागओ वीरो ॥२९॥ [ श्रीवीरजिनचरित्रम् ॥] वीरजन्म, सुरकृतो जन्माभिषेकश्चः - अस्त्यत्र भरतवर्षे कुण्डग्रामं पु र्गुणसमृद्धम् । तत्र च नरेन्द्रवृषभः सिद्धार्थो नाम नाम्ना ॥२१॥ तस्य बहुगुणकलिता भार्या त्रिशलेति रुपसम्पन्ना । तस्या गर्भे जिनआयातश्चरमसमये ॥२२॥ आसनकम्पेन सुरा ज्ञात्वा जिनेश्वरं समुत्पन्नम् । सर्वेऽपि समुच्चलिताः परितोषोद्भिन्नरोमाञ्चाः ॥२३॥ आगत्य च नगरे गन्धोदकवारिवर्षणं कृत्वा । गृहीत्वा जिनवरेन्द्रं मन्दरशिखरे संप्राप्ताः ||२४|| स्थाप्य पण्डुकम्बलशिलायां सिंहासने मणि विरचिते । अभिषिञ्चन्ति सुरेन्द्राः क्षीरोदधिवारिकलशैः ॥२५॥ आकम्पितश्च येन मेरुरङ्गुष्टेन लीलया । तेनेह महावीरो नाम तस्य कृतं सुरवरेन्द्रैः ॥२६॥ नत्वा जिनवरेन्द्रं, स्तुत्वा प्रदक्षिणं च कृत्वा । पुनरपि मातृसकाशे, स्थापयन्ति देवास्त्रिलोकगुरुम् ॥२७॥ सुरपतिदत्ताहारोऽंगुष्टामृतलेपेन । उन्मुक्तबालभावस्त्रिद्वर्षो जिनो जातः ॥२८॥ वीरस्य प्रव्रज्या ज्ञानमतिशयाश्च । अथान्यदा कदाचित्संवेगगतो जिनो ज्ञातदोषः । लोकान्तिकपरिकीर्णः प्रव्रज्यामुपागतो वीरः ॥२९॥ ११ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं अह अट्ठद्धकम्मरहियस्स तस्स झाणोवओगुत्तस्स । सयलजगुज्जोयकरं, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥३०॥ रुहिरं खीरसवण्णं, मलसेयविवज्जियं सुरभिगन्धं । देहं सलक्खमगुणं, रविप्पभं चेव अइविलमं ॥३१॥ नयणा फन्दणरहिया, नहकेसाऽवट्ठिया य निद्धा य । जोयणसयं समन्ता, मारीइ विवज्जिओ देसो ॥३२॥ जत्तो ठवेइ चलणे, तत्तो जायन्ति सहसपत्ताई । फलभरनमिया य दुमा, साससमिद्धा मही होइ ॥३३॥ आयरिससमा धरणी, जायइ इह अद्धमागही वाणी । सरए व निम्मलाओ, दसाओ रय-रेणुरहियाओ ॥३४॥ ठायइ जत्थ जिणिन्दो, तत्थ य सीहासणं रयणचित्तं । जोयणघोसमणहरं, दुन्दुहि सुरकुसुमवुट्ठी य ॥३५॥ एवं सो मुणिवसहो, अट्ठमहापाडिहेरपरियरिओ। विहर जिणिन्दभाणू, बोहिन्तो भवियकमलाई ॥३६॥ अइसयविहूइसहिओ, गण-गणहर-सयलसङ्घपरिवारो । विरहन्तो च्चिय पत्तो, विउलगिरिन्दं महावीरो ॥३७। केवलमहिमार्थं देवानामागमनम् - नाऊण देवराया, विउलमहागिरिवरे जिणवरिन्दं । एरावणं वलग्गो, हिमगिरिसिहरस्स संकासं ॥३८॥ सिंदूरड्यकुम्भं, विरड्यनक्खत्तमालकयसोहं । घण्टारवनिग्धोसं, गण्डयलुब्भिन्नमयलेहं ॥३९॥ गुमुगुमुगुमेन्तमहुयर-निलीणमयसुरहिवासियसुयन्धं । चलचवलकण्णचामर-वाऊ व्वन्तधयमालं ॥४०॥ अथाष्टार्धकर्मरहितस्य तस्य ध्यानोपयोगयुक्तस्य । सकलजगोद्योतकरं केवलज्ञानं समुत्पन्नम् ॥३०॥ रुधिरं क्षीरसवर्णं, मलस्वेदविवर्जितं सुरभिगन्धम् । देहं सलक्षणगुणं रविप्रभं चेवातिविमलम् ॥३१॥ नयने स्पन्दनरहिते नखकेशाऽवस्थिताश्चस्निग्धाश्च । योजनशतं समन्ततो मारीति विवर्जितो देशः ॥३२॥ यत्र स्थापयति चरणौ तत्र जायन्ति सहस्रपत्राणि । फलभरनमिताश्चद्रुमाः शस्यसमृद्धा मही भवति ॥३३॥ आदर्शसमा धरतिर्जायतीहार्धमागधि वाणी। शरद इव निर्मला दिशो रजोरेणुरहिताः ॥३४॥ तिष्ठति यत्र जिनेन्द्रस्तत्र च सिंहासनं रत्नचितम् । योजनघोषमनोहरं दुन्दुभिः सुर-कुसुमवृष्टिश्च ॥३५॥ एवं स मुनिवृषभोऽष्टमहाप्रातिहार्यपरिवरितः । विहरति जिनेन्द्रभानु र्बोधयन् भविककमलानि ॥३६॥ अतिशयविभूतिसहितो गण-गणधर-सकलसङ्घपरिवारः । विहंरश्चैव प्राप्तो विपुलगिरीन्द्रं महावीरः ॥३७।। केवलमहिमार्थं देवानामागमनम् - ज्ञात्वा देवराजा, विपुलमहागिरिवरे जिनवरेन्द्रम् । ऐरावणं प्रलग्नो हिमगिरिशिखरस्य सदृशम् ॥३८॥ सिन्दूररचितकुम्भं विरचितनक्षत्रमालाकृतशोभम् । घण्टारव निर्घोषं, गण्डतलोद्भिन्नमदरेखम् ॥३९॥ गुमगुमायमानमधुकरनिलीनमदसुरभ्यधिवासितसुगन्धम् । चलचपलकर्णचामरवायूद्धवद्ध्वजमालम् ॥४०॥ १. संवेगपरो मु० । २. अष्टकर्माहस्य (?) । अत्राचार्यस्य प्रमादः प्रतिभाति, केवलज्ञानोत्पत्तिसमये चतुःकर्मसंभवान्-सं० । अदुद्धकम्म-जे० For Personal & Private Use Only Jain Education Intemalional Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेणियचिताविहाणं-२/३०-५० सामाणियपरिकिण्णो, अच्छरसुग्गीयमाणमाहप्पो । सव्वसुरासुरहिओ, विउलगिरि आगओ इन्दो ॥४१॥ दट्टण जिणवरिन्दं, करयलजुयलं करीय सीसम्मि । सक्को पहट्ठमणसो, थोऊण जिणं समाढत्तो ॥४२॥ वीरस्तुतिःमोहन्धयारतिमिरे, सुत्तं चिय सयलजीवलोगमिणं । केवलकिरणदिवायर!, तुमेव उज्जोइयं विमलं ॥४३॥ संसारभवसमुद्दे, सोगमहासलिलवीइसंघट्टे। पोओ तुमं महायस!, उत्तारो भवियवणियाणं ॥४४॥ संसारभवकडिल्ले, संजोगविओगसोगतरुगहणे । कुपहपणट्ठाण तुम, सत्थाहो नाह ! उप्पन्नो ॥४५॥ तुहनाह! को समत्थो, सब्भूयगुणाण कुणइ परिसंखा?।सुइरम्मि भण्णमाणो, अवि वाससहस्सकोडीहिं॥४६॥ थोऊण देवराया, अन्ने वि चउव्विहा सुरनिकाया। भावेण कयपणामा, उवविट्ठा सन्निवेसेसु ॥४७॥ मगहाहिवो वि राया, दट्टण सुरागमं जिणसगासे । भडचडयरेण महया, तो रायपुराओ नीसरिओ ॥४८॥ पत्तो य तमुद्देसं, मत्तमहागयवराओ ओइण्णो । थोऊण जिणवरिन्दं, उवविट्ठो मगहसामन्तो ॥४९॥ समवसरणम्पुव्वविणिम्मियभाग, जोयणपरिवेढमण्डलाभोयं । पायारतिउणमणिमय-गोउरवित्थिण्णकयसोहं ॥५०॥ सामानिकपरिकीर्णो अप्सरःसुगीयमानमहात्म्यः । सर्वसुरासुरसहितो विपुलगिरिमागत इन्द्रः ॥४१॥ दृष्ट्वा जिनवरेन्द्रं करतलयुगलं कृत्वा शीर्षे । शक्रः प्रहृष्टमनाः स्तोतुं जिनं समारब्धः ॥४२॥ वीर स्तुतिः - मोहान्धकारतिमिरे सुप्तं चैव सकलजीवलोकमिदम् । केवलकिरणदिवाकर ! त्वयैवोद्योतितं विमलम् ॥४३॥ संसारभवसमुद्रे शोकमहासलिलवीचिसंघट्टे। पोतस्त्वं महाभाग ! उत्तारो भविकवणिजाम् ॥४४॥ संसारभवगहने संयोगवियोगशोकतरुव्याप्ते । कुपथप्रनष्टानां त्वं सार्थवाहो नाथ ! उत्पन्नः ॥४५॥ तव नाथ ! कः समर्थः, सद्भूत गुणानां करोति परिसंख्या ? । सुचिरमपि भण्यमानोऽपि वर्षसहस्रकोटिभिः ॥४६॥ स्तुत्वा देवराजा ऽन्येपि च चतुर्विधाःसुरनिकायाः । भावेन कृतप्रणामा उपविष्टाः स्वस्थानेषु ॥४७॥ मगधाधिपोऽपि राजा दृष्ट्वा देवागमनं जिनसकाशे । भटसमूहेन महता तावद्राजपूरान्निर्गतः ॥४८॥ प्राप्तश्च तदुद्देशं, मत्तमहागजराजादवतीर्णः । स्तुत्वा जिनवरेन्द्रमुपविष्टो मगधसामन्तः ॥४९॥ समवसरणम् - पूर्वविनिर्मितभागं, योजनपरिवेष्टमण्डलाभोगम् । प्राकारत्रिकमणिमयगोपुरविस्तीर्णकृतशोभम् ॥५०॥ १. संत्तारो-मु० । २. अह-प्रत्यन्तरेषु । ३. स्वस्थानेषु । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अह दोणिय वक्खारा, अट्ठमहापाडिहेरसंजुत्ता । अट्ठट्ठ नाडयाइं, दारे दारे य नच्चन्ति ॥ ५१ ॥ सोलस वरवावीओ, कमलुप्पलविमलसलिलपुण्णाओ । चउसु विदिसासु मज्झे, हवन्ति चत्तारि चत्तारि ॥५२॥ भवं पि तिहुयणगुरू, विचित्तसीहासणे सुहनिविट्ठो । छत्ताइछत्त - चामर - असोग - भामण्डलसणाहो ॥५३॥ एवंविहम्मितत्तो, सुरवरमेलीणजणसमूहम्मि । पत्तेयं पत्तेयं, वक्खारं कित्तइस्समामि ॥५४॥ पढमम्मिय वक्खारे, परिसा निग्गन्थमहरिसीणं तु १ । तयणन्तरंमि बीए, सोहममाईसुरवहूणं २ ॥ ५५ ॥ तइयम्मि य वक्खारे, परिसा अज्जाण गुणमहन्तीणं३ । तत्तो परं तु नियमा, जोइसकन्नाण परिसा य४ ॥५६॥ वन्तरवहूण तो५, परिसा उण भवणवासियवहूणं६ । तत्तो परं तु नियमा, जोइसियाणं सुरवराणं७ ॥५७॥ वन्तरभवणिन्दाणं८, वक्खारेसु य हवंति परिसाओ९ । सोहम्माईण तओ, देवाणं कप्पवासीणं१० ॥५८॥ अवरम्मि य वक्खारे, परिसा मणुयाण नरवरिन्दाणं११ । होइ तिरिक्खाण पुणो, परिसा पुव्वुत्तरे भागे १२ ॥५९॥ एवं पसन्नचित्ते, सुरवरमेलीणपत्थिवसमूहे । पुच्छइ धम्मा-ऽधम्मं, तित्थयरं गोयमो नमिउं ॥ ६० ॥ तो अद्धमागहीए, भासाए सव्वजीवहियजणणं । जलहरगम्भीररवो, कहेइ धम्मं जिणवरिन्दो ॥ ६१ ॥ वीरस्य भगवतो देशना - दव्वं च होइ दुविहं, जीवाजीवं तहेव नायव्वं । जीवा हवन्ति दुविहा, सिद्धा संसारवन्ता य ॥६२॥ अथ द्वौ च वक्षस्कारावष्टमहाप्रातिहार्यसंयुक्तौ । अष्टाष्ट नाटकानि द्वारे द्वारे च नृत्यन्ति ॥५१॥ षोडश वरवाप्यः कमलोत्पलविमलसलिलपूर्णाः । चतुर्षु विदिक्षु मध्ये भवन्ति चत्वारश्चत्वारः ॥५२॥ भगवन्नपि त्रिभुवनगुरु विचित्रसिंहासने सुखनिविष्ठः । छत्रातिछत्र - चामराशोकभामण्डलसनाथः ॥५३॥ एवंविधे तत्र सुरवरमिलितजनसमूहे, प्रत्येकं प्रत्येकं वक्षस्कारं कीर्तयिस्यामि ॥५७॥ प्रथमे च वक्षस्कारे पर्षन्निग्रन्थमहर्षीणां तु ? । तदनन्तरे द्वितीये सौधर्मादिसुरवधूनाम् ॥५५॥ तृतीये वक्षस्कारे पर्षदार्याणां गुणमहतीनाम् । ततः परं तु नियमा ज्योतिष्कन्यानां पर्षच्च ॥५६॥ व्यन्तेरवधूनां ततः पर्षत् पुनर्भवनवासिवधूनाम् । ततः परं तु नियमा ज्योतिषां सुरवराणाम् ॥५७॥ व्यन्तरभवनेन्द्राणां वक्षस्कारेषु च भवन्ति पर्षदः । सौधर्मादीनां ततो देवानां कल्पवासीनाम् ॥५८॥ अपरे च वक्षस्कारे पर्षन्मनुष्याणां नरवरेन्द्राणाम् । भवति तिरश्चां पुनः पर्षत् पूर्वोत्तरे भागे ॥५९॥ एवं प्रसन्नचित्ते सुरवरमिलितपार्थिवसमूहे । पृच्छति धर्माऽऽधर्मं तीर्थकरं गौतमो नत्वा ॥६०॥ तस्मादर्धमागध्यां भाषायां सर्वजीवहितजनकम् । जलधरगंभीररवः कथयति धर्मं जिनवरेन्द्रः ||६१ ॥ वीरस्य भगवतो देशना - द्रव्यं च भवति द्विविधं, जीवाऽजीवास्तथैव ज्ञातव्याः । जीवा भवन्ति द्विविधाः सिद्धाः संसारवन्तश्च ॥६२॥ पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेणियचिंताविहाणं-२/५१-७५ जे होन्ति सिद्धजीवा, ताण अणन्तं सुहं अणोवमियं । अक्खयमयलमणन्तं, हवइ सया बाह परिमुक्कं ॥६३॥ तत्थ य संसारत्था, दुविहा तस-थावरा मुणेयव्वा । उभए वि होन्ति दुविहा, पज्जत्ता तह अपज्जत्ता ॥६४॥ पुढवि जल जलण मारुय, वणस्सई चेव थावरा भणिया । बेइन्दियाइ जाव उ, दुविह तसा सन्नि इयरे य ॥६५॥ जंतं अजीवदव्वं, धम्मा-ऽधम्माइभेयभिन्नं च । भव्वाण सिद्धिगमणं, तं विवरीयं अभव्वाणं ॥६६॥ मिच्छत्त-जोगपच्चय, तह य कसाएसु लेससहिएसु । एएसु चेव जीवो, बन्धइ असुहं सया कम्मं ॥६७॥ नाणेण दंसणेण य, चारित्त-तवेण सम्मसहिएणं । मण-वयण-कायगुत्तो, अज्जिणइ अणन्तयं पुण्णं ॥६८॥ अट्ठविहभेयभिन्नं, कम्मं संखेवओ समक्खायं । बज्झन्ति य मुच्चन्ति य, जीवा परिणामजोगेणं ॥९॥ संसारपवन्नाणं, जीवाणं विसयसङ्गमूढाणं । जं होइ तक्खणसुहं, तं पुण दुक्खं अणेगविहं ॥७०॥ जाव य निमिसपमाणो, कालो वच्चेज्ज नरयलोगम्मि । तावं चियनत्थि सुहं, जीवाणं पावकम्माणं ॥७१॥ दमणेसु ताडणेसु य, बन्धमनिब्भच्छणाइदोसेसु । दुक्खं तिरिक्खजीवा, अणुहवमाणा य अच्छन्ति ॥७२॥ संजोग-विप्पओगे, लाभालाभे य रोग-सोगेसु । मणुयाण हवइ दुक्खं, सारीरं माणसं चेव ॥७३॥ अप्पिड्डियदेवाण वि, दट्टण महिड्डिए सुरसमूहे।जं उप्पज्जइ दुक्खं, तत्तो गुरुयं चवणकाले ॥७४॥ एयारिसम्मि घोरे, संसारे चाउरङ्गमग्गम्मि । दुक्खेहि नवरि जीवो, भट्ठो मणुयत्तणं लहइ ॥५॥ ये भवन्ति सिद्धजीवास्तेषामनन्तं सुखमनोपमितम् । अक्षतमचलमनन्तं भवति सदा बाधापरिमुक्तम् ॥६३॥ तत्र च संसारस्था द्विविधास्त्रस-स्थावरा ज्ञातव्याः । उभया अपि भवन्ति द्विविधाः पर्याप्तास्तथापर्याप्ताः ॥६४|| पृथ्वी-जल-ज्वलन-मारुत-वनस्पतिश्चैव स्थावरा भणिताः । द्विन्द्रियादि यावत्तु द्विविधास्त्रसाः संज्ञिन इतरे च ॥६५॥ यत्तदजीवद्रव्यं धर्माऽधर्मादिभेदभिन्नं च । भव्यानां सिद्धिगमनं तद्विपरितं चाभव्यानाम् ।।६६।। मिथ्यात्व-योगप्रत्ययस्तथा च कषायेषु लेश्यासहितेषु । एतेषु चैव जीवो बध्नात्यशुभं सदा कर्म ॥६७।। ज्ञानेन दर्शनेन च चारित्र-तपोभ्यां सम्यक्त्वसहितेन । मनवचनकायगुप्तोऽय॑ते ऽनन्तं पुण्यम् ॥६८॥ अष्टविधभेदभिन्नं कर्म संक्षेपतः समाख्यातम् । बध्यन्ते च मुच्यन्ते च जीवाः परिणामयोगेन ॥६९।। संसारप्रपन्नानां जीवानां विषयसङ्गमूढानाम् । यद्भवति तत्क्षणसुखं तत्पुनर्दुःखमनेकविधम् ॥७०।। यावच्च निमिषप्रमाणः कालो गच्छेन्नरकलोके । तावच्चैव नास्ति सुखं जीवानां पापकर्माणाम् ॥७१।। दमनेषु ताडनेषु च बन्धननिर्भत्सनादिदोषेषु । दुःखं तिर्यग्जीवा अनुभूयमानाश्च वर्तन्ते ॥७२।। संयोग-विप्रयोगयो, लाभाऽलाभयोश्च च रोगशोकयोः । मनुष्याणां भवति दुःखं शारीरं मानसं चैव ॥७३॥ अल्पधिदेवानामपि दृष्ट्वा महधिकान् सुरसमूहान् । यदुत्पद्यते दु:खं तस्माद्गुरुकं च्यवनकाले ॥७४॥ एतादृशे घोरे संसारे चातुरंगे । दुःखै नवरि जीवो भ्रष्टो मनुष्यत्वं लभते ॥५॥ १. बाधा परिमुक्तम् । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं लद्धे वि माणुसत्ते, सबराइकुलेसु मन्दविभवेसु । उत्तमकुलम्मि दुक्खं, उप्पत्ती होइ जीवस्स ॥६॥ उप्पन्नो वि हुसुकुले, वामण-बहिर-ऽन्ध-मूय-कुणि-खुज्जो।दुक्खेहि लहइ जीवो, निरोगपञ्चिन्दियं रूवं ॥७७॥ सव्वाण सुन्दराणं, लद्धे वि समागमे अपुण्णस्स । न हवइ धम्मुद्धी, मूढस्स उ लोभ-मोहेणं ॥८॥ उप्पन्ना वि य बुद्धी, धम्मस्सुवरिं कुधम्म-हम्मेसु । तह वि य पुण भामिज्जइ, न लहइ जिणदेसियं धम्मं ॥७९॥ लखूण माणुसत्तं, जस्स न धम्मे सया हवइ चित्तं । तस्स किर करयलत्थं, अमयं नटुंचिय नरस्स ॥८०॥ केइत्थ धीरपुरिसा, चारित्तं गिण्हिऊण भावेण । अक्खण्डियचारित्ता, जाव ठिया उत्तमट्ठम्मि ॥८१॥ अन्ने पुणो वि केई, वीसं जिणकारणाइँ भावेउं । तेलोक्कखोभणकर, अणन्तसोक्खं समज्जेन्ति ॥८२॥ अन्ने तवं विगिटुं, काउं, थोवावसेससंसारा । दो तिण्णि भवे गन्तुं, निव्वाणमणुत्तरमुवेन्ति ॥८३॥ काऊण तवमुयारं, आराहिय धीबलेण कालगया। ते होन्ति वरअणुत्तर-विमाणवासेसु अहमिन्दा ॥८४॥ तत्तो चुया समाणा, हलहर-चक्कहरभोग-रिद्धीओ । भोत्तूण सुचिरकालं, धम्मं काऊण सिज्झन्ति ॥८५॥ घेत्तूण समणधम्मं, घोरपरीसहपराइया अन्ने । भज्जन्ति संजमाओ, सेवन्ति अणुव्वयाणि पुणो ॥८६॥ तुट्ठा हवन्ति अन्ने, दरिसणमेत्तेणजिणवरिन्दाणं । पच्चक्खाणनिवित्तिं, न वि ते सुविणे वि गेहन्ति ॥८७॥ मिच्छत्तमोहियमई, निस्सीला निव्वया गिहारम्भे । पविसन्ति महाघोरं, संगामं विसयरसलोला ॥८८॥ लब्धेऽपि मानुष्यत्वे शबरादिकुलेषु मन्दविभवेषु । उत्तमकुले दुःखमुत्पत्ति भवति जीवस्य ॥५॥ उत्पन्नोऽपि सुकुले, वामन-बधिरान्ध-मूक-कुणिम-कुब्जः । दुखैर्लभति जीवो निरोगपञ्चेन्द्रियं रूपम् ॥७७॥ सर्वेषां सुन्दराणां लब्धेऽपि समागमो ऽपुण्यस्य । न भवति धर्मबुद्धि र्मूढस्य तु लोभ-मोहाभ्याम् ॥७८॥ उत्पन्नोऽपि खलु बुद्धिर्धर्मस्योपरि कुधर्महम्येषु । तथापि च भ्राम्यते न लभते जिनदेशितं धर्मम् ॥७९॥ लब्ध्वा मानुष्यत्वं यस्य न धर्मे सदा भवति चित्तम् । तस्य खलु करतलस्थममृतं नष्टं चैव नरस्य ।।८०॥ केचिद्धीरपुरुषाश्चारित्रं गृहीत्वा भावेन । अखण्डितचारित्रा यावत्स्थिता उत्तमार्थे ।।८१।। अन्ये पुनरपि केऽपि विंशति जिनकारणानि भावित्वा । त्रैलोक्यक्षोभनकरमनन्तसुखं समर्जयन्ति ॥८२॥ अन्ये तपो विकृष्टं कृत्वा स्तोकावशेषसंसाराः । द्वात्रिर्भवेषु गत्वा निर्वाणमनुत्तरमुपयान्ति ॥८३॥ कृत्वा तप उदारमाराध्य धीबलेन कालगताः । ते भवन्ति वरानुत्तर-विमानवासेष्वहमिन्द्राः ॥८४॥ ततश्च्युताः सन्ता हलधर-चक्रधरभोगर्धयः । भुक्त्वा सुचिरकालं धर्मं कृत्वा सिध्यन्ति ॥८५।। गृहीत्वा श्रमणधर्मं, घोरपरिषहपराजिता अन्ये । भज्यन्ते संयमात् सेवन्ते ऽणुव्रतानि पुनः ॥८६॥ तुष्टा भवन्त्यन्ये दर्शनमात्राज्जिनवरेन्द्राणाम् । प्रत्याख्याननिर्वृत्तिं नापि ते स्वप्नेऽपि गृह्णन्ति ॥८७।। मिथ्यात्वमोहितमतयो निःशीलानिता गृहारम्भे । प्रविशन्ति महाघोरं संग्रामं विषयरसलोलाः ॥८८।। Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेणियचिताविहाणं-२ / ७६-१०० अन्ने वि करिसणाई, वावारा विविहजन्तुसंबाधा । काउण जन्ति नरयं, तिव्वमहावेयणं घोरं ॥ ८९ ॥ माया- कुडिलसहावा, कूडतुला - कूडमाणववहारी । धम्मं असद्दहन्ता, तिरिक्खजोणी उवणमन्ति ॥९०॥ उज्जुयधम्मायारा, तणुयकसाया सहावभद्दा य । मज्झिमगुणेहि जुत्ता, लहन्ति ते माणुस जम्मं ॥९१॥ अणुवय-महव्वएहि य, बालतवेण य हवन्ति संजुत्ता । ते होन्ति देवलोए, देवा परिणामजोगेणं ॥ ९२ ॥ दंसण-नाण-चरित्ते, सुद्धा अन्नोन्नकरणजोएसु । देहे वि निरवयक्खा, सिद्धिं पावेन्ति धुयकम्मा ॥९३॥ तं अक्खयं अणन्तं, अव्वाबाहं सिवं परमसोक्खं । पावन्ति समणसीहा, कम्मट्ठविवज्जिया मोक्खं ॥९४॥ चउगइमहासमुद्दे, जीवा घोलन्ति कम्मपडिबद्धा । न य उत्तरेज्ज केई, मोत्तुं जिणधम्मबोहित्थं ॥९५॥ संसारमहागिम्हे, दुक्खायवतिव्ववेयणुम्हवियं । जिणवयणमेहसीयल- उल्हवियं सयलजियलोयं ॥९६॥ श्रेणिकस्य पद्मचरिते संशय: - अह ते सद्दसित्तु धम्मं, जिणवरमुहकमलनिग्गयं देवा । सम्मत्तलद्धबुद्धी, गया य निययाइँ ठाणाई ॥९७॥ मगहाहिवो वि राया, वीरजिणं पणमिऊण भावेणं । सव्वपरिवारसहिओ, कुसग्गनयरं समणुपत्तो ॥ ९८ ॥ ताव य दिवसवसाणे, अत्थं चिय दिणयरो समल्लीणो । मउलन्ति य कमलाई, विरहो चक्कायमिहुणा ॥९९॥ उत्थरइ तमो गयणे, मइलन्तो दिसिवहे कसिणवण्णो । सज्जणचरिउज्जोयं, नज्जइ ता दुज्जणसहावो ॥१००॥ अन्येऽपि कर्षणादी र्व्यापारा, विविधजन्तुसम्बाधाः । कृत्वा यान्ति नरकं तीव्रमहावेदनं घोरम् ॥८९॥ माया- कूटिलस्वभावाः कूटतुलाकूटमानव्यवहारिणः । धर्मम श्रद्धन्तस्तिर्यग्योनीरुपनमन्ति ॥९०॥ ऋजुकधर्माचारास्तनुककषयाः स्वभावभद्राश्च । मध्यमगुणैर्युक्ता लभन्ते ते मानुषं जन्म ॥९१॥ अणुव्रत- महाव्रतैश्च बालतपसा च भवन्ति संयुक्ताः । ते भवन्ति देवलोके देवाः परिणामयोगेन ॥९२॥ दर्शनज्ञानचारित्रे शुध्धा अन्योन्यकरणयोगेषु । देहेऽपि निरपेक्षाः सिद्धिं प्राप्नुवन्ति धुतकर्माणः ॥९३॥ तदक्षयमनन्तमव्याबाधं शिवं परमसौख्यम् । प्राप्नुवन्ति श्रमणसिंहाः कर्माष्टविवर्जिता मोक्षम् ॥९४॥ चतुर्गतिमहासमुद्रे जीवाऽऽस्फालयन्ति कर्मप्रतिबद्धाः । न चोत्तरेत् केपि मुक्त्वा जिनधर्मपोतम् ॥९५॥ संसारमहाग्रीष्मे, दुःखातपतीव्रवेदनोष्मायितम् । जिनवचनमेघशीतल विध्मापितं सकलजीवलोकम् ॥९६॥— श्रेणिकस्य पद्मचरित्रे संशय: - अथ ते श्रुत्वा धर्मं जिनवरमुखकमलनिर्गतं देवाः । सम्यक्त्वलब्धबुद्धयो गताश्च निजकानि स्थानानि ॥९७॥ मगधाधिपोऽपि राजा वीरजिनं प्रणम्य भावेन । सर्वपरिवारसहितः कुशाग्रनगरं समनुप्राप्तः ॥ ९८॥ तावच्च दिवसावसाने उक्तं चेव दिनकरः समालीनः । मुकुलयन्ति च कमलानि, विरहश्चक्रवाकमिथुनानाम् ॥९९॥ अवस्तृणाति तमो गगने मलिनयन् दिग्पथान् कृष्णवर्णः । सज्जनचरित्रोद्योतं, ज्ञायते तावद् दुर्जनस्वभावः ॥ १००५| १. गच्छंति-प्रत्य० । २. घोरमणंतं दुरुत्तारं । ३. जोएण- प्रत्य० । ४. तिक्खेवेयणु - प्रत्य० । पउम भा-१/३ १७ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पउमचरियं या विनिययभवणे, मणिदीवजलन्तकिरणविच्छुरिए । सयणे सुहप्पसुत्तो, कुसुम पडोच्छ्इयपल्लङ्के ॥१०१॥ निहं सेवन्तो च्चिय, सुविणे वि पुणो पुणो जिणवरिन्दं । पेच्छइ पुच्छ्इ य तओ, संसय परमं पयत्तेणं ॥१०२॥ घणगुरुगभीरगज्जिय-निणायबहुतूरबन्दिसद्देणं । अह उट्ठिओ महप्पा, थुव्वन्तो मङ्गलसएहिं ॥१०३॥ चिन्तेऊण पवत्तो, भणियं वीरेण धम्मसंजुत्तं । चक्कहराइनराणं, भुवणमिणं हवइ परिहाणं ॥ १०४ ॥ पउमचरियम्मि एत्तो, मणो महं कुणइ परमसंदेहं । कह वाणरेहि निहया, रक्खसवसहा अइबला वि ? ॥१०५॥ जिणवरधम्मेणं चिय, महइमहाकुलसमुब्भवा जाया । विज्जासयाण पारं, गया य बलगव्विया वीरा ॥१०६॥ सुव्वन्ति लोयसत्थे, रावणपमुहा य रक्खसा सव्वे । वस - लोहिय- मंसाई - भक्खम - पाणे कयाहारा ॥१०७॥ किर रावणस्स भाया, महाबलो नाम कुम्भयण्णो त्ति । छम्मासं विगयभओ, सेज्जासु निरन्तरं सुयइ ॥ १०८ ॥ जइ वि य गएसु अङ्गं, पेल्लिज्जइ गरुयपव्वयसमेसु । तेल्लवडेसु य कण्णा, पूरिज्जन्ते निद्दयन्तस्स ॥१०९॥ पडुपडहतूरसद्दं, न सुणइ सो सम्मुहं पि वज्जन्तं । न य उट्ठेइ महप्पा, सेज्जाए अपुण्णकालम्मि ॥११०॥ अह उट्ठओ वि सन्तो असणमहा (णामह) घोरपरिगयसरीरो । ४ ओ हवेज्ज जो सो, कुञ्जर- महिसाइणो गिलइ ॥१११॥ काऊण उदरभरणं, सुर- माणुस - कुञ्जराइबहुए । पुणरवि सेज्जारूढो, भयरहिओ सुयइ छम्मासं ॥ ११२ ॥ अन्नं पि' एव सुव्वइ, जह इन्दो रावणेण संगामे । जिणिऊण नियलबद्धो, लङ्कानयरी समाणीओ ॥११३॥ राजाऽपि निजभवने, मणिदीपज्वलत्किरणविस्फुरिते । शयने सुखप्रसुप्तः कुसुमपटाच्छादितपल्यङ्के ॥१०१॥ निद्रां सेवमानश्चैव, स्वप्नेऽपि पुनः पुनर्जिनवरेन्द्रम् । प्रेक्षते पृच्छति च ततः संशयं परमं प्रयत्नेन ॥१०२॥ घनगुरुगंभीरगर्जितनिनादबहुतूर्यबन्दिशब्देन । अथोत्थितो महात्मा, स्तुवन्मङ्गलशतैः ॥१०३॥ चिन्तयितुं प्रवृतो भणितं वीरेण धर्मसंयुक्तम् । चक्रधरादिनराणां भुवनमिदं भवति परिधानम् ॥१०४॥ पद्मचरित्रे एतस्मान्मनो मम करोति परमसंदेहम् । कथं वानरै निहताः राक्षसवृषभा अतिबला अपि ? ॥१०५॥ जिनवरधर्मेण चैव महतिमहाकुलसमुद्भवा जाताः । विद्याशतानां पारं गताश्च बलगर्विता वीराः ॥ १०६ ॥ श्रूयन्ते लोकशास्त्रे रावणप्रमुखाश्च राक्षसाः सर्वे । वसा - लोहित - मांसादि भक्षण -पाने कृताहाराः ||१०७|| किल रावणस्य भ्राता महाबलो नाम कुम्भकर्ण इति । षण्मासं विगतभयः शय्यासु निरन्तरं शेते ॥ १०८ ॥ यद्यपि च गजैरङ्गं पीड्यते गुरुपर्वतसमैः । तैलघटैश्च कर्णौ पूर्यतः सुप्तस्य ॥ १०९॥ पटुपहतूर्यशब्दं न श्रुणोति स्वसमुखमपि वाद्यमानम् । न चोत्तिष्ठति महात्मा शय्याया अपूर्णकाले ॥११०॥ अथोत्थितोऽपि सन्नसममहाघोरपरिगतशरीरः । पुरो भवेद्यान् स कुञ्जर- महीषादीन् गलति ॥ १११ ॥ कृत्वोदरभरणं सुर-मनुष्य-कुञ्जरादिबहुभिः । पुनरपि शय्यारुढो भयरहितः शेते षण्मासम् ॥११२॥ अन्यदप्येवं श्रूयते यथेंद्रः रावणेन संग्रामे । जित्वा निगडबद्धो लङ्कानगरीं समानीतः ॥११३॥ १. ज्ञायते । २. पटावस्तृत । ३. धीरा - प्रत्य० । ४. अशना- क्षुधा । For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेणियचिंताविहाणं-२/१०१-११९ को जिणिऊण समत्थो, इन्दं ससुरा-ऽसुरे वि तेलोक्के । जो सागरपेरन्तं, जम्बुददीवं समुद्धरइ ॥१४॥ एरावणो गइन्दो, जस्स यवज्जंअमोहपहरेत्थं । तस्स किरचिन्तिएण वि, अन्नो विभवेज्ज मसिरासि( सी ) ॥११५॥ सीहो मएण निहओ, साणेण य कुञ्जरो जहा भग्गो । तह विवरीयपयत्थं, कईहि रामायणं रइयं ॥११६॥ अलियं पि सव्वमेयं, उववत्तिविरुद्धपच्चयगुणेहिं । न य सद्दहन्ति पुरिसा, हवन्ति जे पण्डिया लोए ॥११७॥ एवं चिन्तन्तो च्चिय, संसयपरिहारकारणं राया। जिणदरिसणुस्सुयमणो, गमणुच्छाहो तओ जाओ ॥११८॥ वरकमलनिबद्धा निग्गयालीसमत्ता, महुरसरनिनायाच्चन्तरम्मा पदेसा। तरुपवणवलग्गा पुष्फरेणुं मुयन्ता, विमलकिरणमन्ताइच्चभासा विसुद्धा ॥११९॥ ॥ इय पउमचरिए सेणियचिन्ताविहाणो नाम बिईयो समुद्देसओ समत्तो ॥ को जेतुं समर्थ इन्द्रं ससुरासुरे ऽपि त्रैलोक्ये । य सागरपर्यन्तं जंबूद्वीपं समुद्धरति ॥११४॥ ऐरावणो गजेन्द्रो यस्य च वज्रममोघप्रहारास्त्रम् । तस्य किल चिन्तनेनाप्यन्योऽपि भवेन्मसिराशी ॥११५॥ सिंहो मृगेण निहतः शुना च कुञ्जरो यथा भग्नः । तथा विपरितं पदार्थं कविभीरामायणं रचितम् ॥११६।। अलिकमपि सर्वमेतदुपपत्तिविरुद्धप्रत्ययगुणैः । न च श्रद्दधते पुरुषा, भवन्ति ये पण्डिता लोके ॥११७॥ एवं चिन्तयंश्चैव संशयपरिहारकारणं राजा। जिनदर्शनोत्सुकमना गमनोत्साहस्ततो जातः ॥११८।। वरकमल निबद्धा निर्गताऽलिसमस्ताः, मधुरस्वरनिनादादत्यन्तरम्याः प्रदेशाः । तरुपवनावलग्नाः पुष्परेणुं मुञ्चन्तो विमलकिरणमदादित्यभासो विशुद्धाः ॥११९॥ ॥ इति पद्मचरित्रे श्रेणिकचिन्ताविधानो नाम द्वितीयः समुद्देशकः समाप्तः ॥ १. च-प्रत्य०। २. प्रहरास्त्रम् । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ३. विज्जाहरलोगवण्णणं श्रेणिकस्य गौतमपार्वे गमनम्, पृच्छा चअत्थाणिमण्डवत्थो, सव्वालंकारभूसियसरीरो । सामन्तमउडमोत्तिय-किरणसमुज्जलियपा वीढो ॥१॥ सो तत्थ मगहराया, मुणिदरिसणकारणे कउच्छाहो । आरुहइ वरगइन्दं, परिहत्थं लक्खणपसत्थं ॥२॥ अह निग्गओ पुराओ, गयवरहजोहतुरयपरिकिण्णो । वच्चइ नरिन्दवसहो, जत्थऽच्छइ गोयमो भयवं ॥३॥ पत्तो य तं पएसं, मुणिवरगणसङ्घमज्झयारम्मि । पेच्छइ गणहरवसहं, सरयरविं चेव तेएणं ॥४॥ ओयरिय गयवराओ, काऊण पयाहिणं मुणिं राया। पणमइ पहट्ठमणसो, अञ्जलिमउलं सिरे काउं ॥५॥ दिन्नासीस च्चिय सो, उवविट्ठो मुणिवरस्स पामूले । देहकुसलाइ सव्वं, पुच्छड़ परमेण विणएणं ॥६॥ नाऊण य पत्थावं, पुणरवि विणओवयारसंजुत्तो । संसयतिमिरावहरं, अह पुच्छइ गोयमं राया ॥७॥ पुणचरियं महायस!, अहयं इच्छामि परिफुडं सोउं । उप्पाइया पसिद्धी, कुसत्थवादीहि विवरीया ॥८॥ जइ रावणो महायस!, निसायरो सुरवरो व्व अइविरिओ। कह सो परिहूओ च्चिय, वाणरतिरिएहि रणमज्झे ॥९॥ || ३. विद्याधरलोक वर्णनम् - श्रेणिकस्य गौतमपार्वे गमनम्, पृच्छा च - आस्थानिकामण्डपस्थ: सर्वालङ्कारभूषितशरीरः । सामन्तमुकुटमौक्तिक किरणसमुज्ज्वलितपादपीठः ॥१॥ स तत्र मगधराजा मुनिदर्शनकारणे कृतोत्साहः । आरोहति वरगजेन्द्रं दक्षं लक्षणप्रशस्तम् ॥२॥ अथ निर्गतः पुरो गजवररथयोधतुरगपरिकीर्णः । व्रजति नरेन्द्रवृषभो यत्रास्ति गौतमो भगवान् ॥३॥ प्राप्तश्च तं प्रदेशं मुनिवरगणसङ्घमध्ये । प्रेक्षते गणधरवृषभं शरद् रविं चैव तेजसा ॥४॥ अवतीर्य गजवरात् कृत्वा प्रदक्षिणं मुनिं राजा। प्रणमति प्रहृष्टमना अञ्जलिमुकुलं शीर्षे कृत्वा ॥५॥ दत्ताषीश्चैव स उपविष्टो मुनिवरस्य पादमूले । देहकुशलादि सर्वं पृच्छति परमेण विनयेन ॥६॥ ज्ञात्वा च प्रस्तावं पुनरपि विनयोपचारसंयुक्तः । संशयतिमिरापहरमथ पृच्छति गौतमं राजा ।।७।। पद्मचरित्रं महायशः ! अहमिच्छामि परिस्फुटं श्रोतुम् । उत्पादिता प्रसिद्धिः कुशास्त्रवादिभि विपरिताः ॥८॥ यदि रावणो महायश ! निशाचर: सुरवर इवातिवीर्यः । कथं स परिभूत एव वानरतिर्यग्भी रणमध्ये ॥९॥ १. पादपीठः । २. कृतोत्साहः । ३. दक्षम् । ४. परियरियो-प्रत्य० । ५. पादमूले। Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जाहरलोगवण्णणं-३/१-२० रामेण कणयदेहो, सरेण भिन्नो मओ अरण्णम्मि । सुग्गीवसुतारत्थं, छिद्देण विवाइओ वाली ॥१०॥ गन्तूण देवनिलयं, सुरवइ जिणिण समरमज्झम्मि । दढकढिणनियलबद्धो, पवेसिओ चारगेहम्मि ॥११॥ सव्वत्थसत्थकुसलो, छम्मासं सुयइ कुम्भकण्णो वि । कह वाणरेहि बद्धो, सेउ च्चिय सायरजलम्मि ॥१२॥ भयवं ! कुणह पसायं, कहेह तच्चत्थहेतुसंजत्तं । संदेहअन्धयारं, नाणुज्जोएण नासेह ॥१३॥ तो भणइ गणहरिन्दो, सुणेहि नरवसह ! दिन्नकण्णमणो । जह जिणवरेण सिटुं, अहमवि तुम्हं परिकहेमि ॥१४॥ न य रक्खसो त्ति भण्णइ, दसाणणो णेय मणुयआहारो । अलियं ति सव्वमेयं, भणन्ति जं कुकइणो मूढा ॥१५॥ 'न य पीढबन्धरहियं, कहिज्जमाणं पि देइ भावत्थं । पत्थिव ! हीणं च पुणो, वयणमिणं छिन्नमूलं व ॥१६॥ पढमं खेत्तविभागं, कालविभागं च तत्थ वण्णेहं । महइमहापुरिसाण य, चरियं च जहक्कमं सुणसु ॥१७॥ लोकःअत्थि अणन्ताणन्तं, आगासं तस्स मज्झयारम्मि । लोओ अणाइनिहणो, तिभेयभिन्नो हवइ निच्चो ॥१८॥ वेत्तासणसरिसो च्चिय, अह लोगो चेव होइ नायव्वो । झल्लरिसमो य मझे, उवरिं पुण मुरयसंठाणो ॥१९॥ सव्वो य तालसरिसो, तीसु य वलएसु होइ परिणद्धो । मज्झम्मि तिरियलोओ, सायरदीवेसु बहुएसु ॥२०॥ रामेण कनकदेहो शरेण भिन्नो मृतोऽरण्ये । सुग्रीवसुतारार्थं छिद्रेण व्यापादितो बली ॥१०॥ गत्वा देवनिलयं सुरपति जित्वा समरमध्ये । दृढकठिननिगडबद्धः प्रवेशयतश्चारगृहे ॥११॥ सर्वास्त्रशस्त्रकुशलष्षण्मासं शेते कुम्भकर्णोऽपि । कथं वानरै र्बद्धः सेतुश्चैव सागरजले ॥१२॥ भगवन् ! कुरुत प्रसादं कथयत तत्त्वार्थहेतुसंयुक्तम् । संदेहान्धकारं ज्ञानोद्योतेन नश्यतु ॥१३॥ तावद्भणति गणधरेन्द्रः श्रुणु नरवृषभ ! दत्तकर्णमनाः । यथा जिनवरेण शिष्टमहमपि तुभ्यं परिकथयामि ॥१४॥ न च राक्षस इति भण्यते, दशाननो नैव मनुजाहारः । अलिकमिति सर्वमेतद् भणन्ति यत्कुकवयो मूढाः ॥१५।। न च पीठबन्धरहितं कथ्यमानमपि ददाति भावार्थम् । पार्थिव ! हीनं च पुनर्वचनमिदं छिन्नमूलमिव ॥१६॥ प्रथमं क्षेत्रविभाग, कालविभागं च तत्र वर्णयिष्यामि । महतिमहापुरुषणां च चरित्रं च यथाक्रमं श्रुणु ॥१७।। लोकःअस्त्यनन्तानन्तमाकाशं तस्य मध्ये । लोको ऽनादिनिधनस्त्रिभेदभिन्नो भवति नित्यः ॥१८॥ वेत्रासनसदृशश्चैव यो लोकश्चैव भवति ज्ञातव्यः । झल्लरीसमश्च मध्य उपरि पुन सुरजसंस्थानः ॥१९॥ सर्वश्च तालसदृशस्त्रिषु च वलयेषु भवति परिणद्धः । मध्ये तिर्यग्लोक: सागरद्वीपेषु बहुषु ॥२०॥ १. मृगः । २. सायरवरम्मि-प्रत्य०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पउमचरियं जम्बुद्वीपः, तद्गतक्षेत्रादि - तस्स वि य मज्झदेसे, जम्बुद्दीवो य दप्पणायारो । एक्कं च सयसहस्सं, जोयणसंखापमाणेणं ॥२१॥ सो य पुण सव्वओ च्चिय, लवणसमुद्देण संपरिक्तित्तो । पउमवरवेइयाए, दारेसु समुज्जलसिरीओ ॥२२॥ मज्झम्मि मन्दरगिरी, चउकाणणमण्डिओ रयणचित्तो । नवनइ सहस्साइं, समुस्सिओ दस य वित्थिणो ॥२३॥ जोयणसहस्समेगं, अहोगओ वज्जपडलमल्लीणो । उवरिं च चूलियाए, सोहम्मं चेव फुसमाणो ॥२४॥ छच्चेव य वासहरा, वासा सत्तेव होन्ति नायव्वा । चोद्दस महानईओ, नाभिगिरी चेव चत्तारि ॥२५॥ वीसं वक्खारगिरी, चोत्तीस हवन्ति रायहाणीओ । वेयड्डपव्वया वि य, चोत्तीसं चेव नायव्वा ॥२६॥ अट्ठ य सट्ठीओ तह, गुहाण सीहासणाण पुण तीसं । उत्तर-देवकुरूणं, मज्झे वरपायवे दिव्वे ॥२७॥ दो कञ्चणकूडसया, छ च्चेव दहा हवन्ति नायव्वा । चित्त-विचित्ता य दुवे, जमलगिरी होन्ति दो चेव ॥२८॥ छ ब्भोगभूमिभागा, वरपायवमण्डिया मणभिरामा । एएसु य ठाणेसुं, हवन्ति जिणचोइयघराई ॥२९॥ अह एत्तो लवणजले, दीवा चत्तारि होन्ति नायव्वा । जिणचेइएसुरम्मा, भोगेण य दिव्वलोगसमा ॥३०॥ जम्बुद्दीवे भरहस्स दक्खिणे रक्खसाण दीवोऽत्थि । दीवो गन्धव्वाणं, अवरेण ठिओ विदेहस्स ॥३१॥ तत्तो एरवयस्स य, किन्नरदीवो उ होइ उत्तरओ। पुव्वविदेहस्स पुणो, पुव्वेण ठिओ वरुणदीवो ॥३२॥ जम्बूद्वीपः, तद्गतक्षेत्रादितस्यापि च मध्यदेशे जम्बूदेशे जम्बूद्वीपश्च दर्पणाकारः । एकं च शतसहस्रं योजनसंख्याप्रमाणेन ॥२१॥ स च पुनः सर्वतश्चैव लवणसमुद्रेण संपरिक्षिप्तः । प्रवरवेदिकाभिद्वरिषु समुज्ज्वलश्रीकः ॥२२॥ मध्ये मन्दगिरि श्चतुष्काननमण्डितः रत्नचित्रः । नवनवतिः सहस्राणि समुच्छ्रितो दश च विस्तीर्णः ॥२३।। योजनसहस्रमेकमधोगतो वज्रपटलमालीनः । उपरि च चूलिकया सौधर्ममिव स्पृशन् ॥२४॥ षडेव च वर्षधराः, वर्षाः सप्तैव भवन्ति ज्ञातव्याः । चतुर्दश महानद्यो "नाभिगिरयश्चैव चत्वारः ॥२५॥ विंशति र्वक्षस्कारगिरयश्चतुस्त्रिंशद्भवन्ति राजधानयः । वैताढ्यपर्वता अपि च चतुस्त्रिंशच्चैव ज्ञातव्याः ॥२६॥ अष्टा च षष्ठिस्तथा गुहानां सिंहासनानां पुन स्त्रिंशत् । उत्तरकुरु-देवकुर्वो मध्ये वरपादपे दिव्ये ॥२७।। द्वे काञ्चनकूटशतानि षट्चैव द्रहा भवन्ति ज्ञातव्याः । चित्र-विचित्रौ च द्वौ यमलगिरी भवतो द्वौ चैव ॥२८॥ षड्भोगभूमिभागा, वरपादपमण्डिता मनोभिरामाः । एतेषु च स्थानेषु भवन्ति जिनचैत्यगृहाणि ॥२९॥ अर्थतस्या लवणजले द्वीपाश्चत्वारो भवन्ति ज्ञातव्याः । जिनचैत्यै रम्या भोगेन च दिव्यलोकसमाः ॥३०॥ जम्बूद्वीपे भरतस्य दक्षिणे राक्षसानां द्वीपोऽस्ति । द्वीपो गान्धर्वाणामपरेण स्थितो विदेहस्य ॥३१॥ तत ऐरावतस्य च किन्नरद्वीपस्तु भवत्युत्तरतः । पूर्वविदेहस्य पुनः पूर्वेण स्थितो वरुणद्वीपः ॥३२॥ १. तत्थ वि-प्रत्य० । २. चेइएहि-प्रत्य० । ३. देवलोक-प्रत्य० । ४. नाभिगिरयः = वृत्तवैताढ्या: Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जाहरलोगवण्णणं-३ / २१-४३ कालः भरवसु तहा, हाणी वुड्डी य होइ नायव्वा । सेसेसु होइ कालो, खेत्तेसु अवट्ठिओ निच्चं ॥३३॥ जम्बुद्दीवावाहिवई, अणाढिओ सुरवरो महिड्डीओ । देवसहस्ससमग्गो, सामित्तं कुणइ सव्वेसिं ॥३४॥ आसि पुरा भरहमिणं, उत्तरकुरुसरिसभोगसंपुण्णं । वरकप्परुक्खपउरं, सुसमासुसमासु अइरम्मं ॥३५॥ तिष्टणेव गाउयाई, उच्चत्तं ताण होइ मणुयाणं । चउरंसं संठाणं, आउठिई तिणि पल्लाई ॥३६॥ - तुडियङ्ग१ भोगिङ्गा २, विहूसणङ्गा३ मयङ्ग४ वत्थङ्गा५ । गिह६ जोइ७ दीवियङ्गा८ भायण९मल्लङ्ग१० कप्पदुमा ॥३७॥ एहिं मणभिरामं जहिच्छियं दसविहं महाभोगं । भुञ्जन्ति निच्च सुहिया, गयं पि कालं न याणन्ति ॥ ३८ ॥ आउम्मि थोवसेसे, मिहुणं जणिऊण 'पवरलायण्णं । कालं काऊण तओ, सुरवरसोक्खं पुण लभन्ति ॥३९॥ सीहादओ वि सोमा, न वि ते कुप्पन्ति एक्मेक्कस्स । सच्छन्दसुहविहारी, ते वि हु भुञ्जन्ति सोक्खाई ॥४०॥ भरवसुतहा, हाणी वुड्डी य हवइ कालस्स । न य हाणी न य वुड्डी, सेसेसु य होइ खेत्तेसु ॥४१॥ सुणिराया पुच्छ साहुं पुणो पणमिऊणं । केण कएण मणूसो, उप्पज्जइ भोगभूमीसु ॥ ४२ ॥ तो भइ गणहरिन्दो, जे एत्थं उज्जुया नरा भद्दा । ते भोगभूमिमग्गं, लहन्ति साहुप्पयाणेणं ॥४३॥ 1 काल: भरतैरवतयोस्तथा तथा हानि वृद्धिश्च भवति ज्ञातव्या । शेषेषु भवति कालः क्षेत्रेष्वस्थितो नित्यम् ॥३३॥ जम्बूद्वीपाधिपतिरनादृतः सुरवरो महद्धिकः । देवसहस्रसमग्रः स्वामित्वं करोति सर्वेषाम् ||३४|| आसीत्पुरा भरतोऽयमुत्तरकुरुसदृशभोगसंपूर्णः । वरकल्पवृक्षप्रचूरः सुषमसुषमायामतिरम्यः ||३५|| त्रिण्येव कोशा गव्यूतान्युच्चत्वं तेषां भवति मनुष्याणाम् । चतुरस्त्रं संस्थानमायुः स्थितिस्त्रणि पल्योपमानि ||३६|| त्रुटितांगा भोजनांगा विभूषणांगा मदांगवस्त्रांगाः । गृहज्योतिर्दीपिकाङ्गा भाजनमाल्यांगकल्पद्रुमाः ॥३७॥ एतैर्मनोभिरामं यथेच्छितं दशविधं महाभोगम् । भुञ्जन्ति नित्यं सुखिकाः गतमपि कालं न जानन्ति ||३८|| आयुष्ये स्तोकशेषे मिथुनं जनित्वा प्रवरलावण्यम् । कालं कृत्वा ततः सुरवर सौख्यं पुनर्लभन्ते ||३९|| सिंहादयो ऽपि सौम्या नापि ते कुप्यन्ते एकमेकस्य । स्वच्छन्दसुखविहारी, तेऽपि हु भुञ्जन्ति सौख्यानि ॥४०॥ भरतैरवतयोस्तथा हानि र्वृद्धिश्च भवति कालस्य । न च हानि र्नच वृद्धिः शेषेषु भवति क्षेत्रेषु ॥ ४१ ॥ एवं श्रुत्वा राजा पृच्छति साधुं पुनः प्रणम्य । केन कृतेन मनुष्य उत्पद्यते भोगभूमिषु ॥४२॥ तदा भणति गणधरेन्द्रो यो ऽत्रर्जवो नरा भद्राः । ते भोगभूमिमार्गं लभन्ते साधुप्रदानेन ||४३|| १. जत्थ सुहिया - प्रत्य० । २. परमलायण्णं मु० । For Personal & Private Use Only २३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पउमचरियं दानफलम् - जे कुच्छिएसु दाणं, देन्ति सुहभोगकारणनिमित्तं । ते कुञ्जराइ जाया, भुञ्जन्तिह दाणजं सोक्खं ॥४४॥ जह खेत्तम्मि सुकिटे, बीयं वड्डइ न तस्स परिहाणी। एवं सुसाहुदाणे, विउलं पुण्णं समज्जिणइ ॥४५॥ एक्कम्मि जह तलाए, धेणुए सप्पेण पाणियं पीयं । सप्पे परिणमइ विसं, घेणुसु खीरं समुब्भवइ ॥४६॥ तह निस्सील-सुसीले, दिन्नं दाणं फलं अफलयं च । होही परम्म लोए, पत्तविसेसेण से पुण्णं ॥४७॥ कुलकरा ऋषभस्वामि चरितं च - एवं दाणविसेसो, नरवइ ! कहिओ मए समासेणं । कुलगरवंसुप्पत्ति, भणामि एत्तो निसामेहि ॥४८॥ जह चन्दो परिवड्डइ, ओसरड् य अप्पणो सभावेणं । उस्सप्पिणी वि वड्डइ, एवं अवसप्पिणीहाणी ॥४९॥ तइयम्मि कालसमए, पल्लोवमअट्ठभागसेसम्मि । पढमो कुलगरवसभो, उप्पन्नो पडिसुई नामं१ ॥५०॥ जाईसरो महप्पा, जाणइ जो तिण्णि जम्मसंबन्धे । तस्स य सुई पसन्ना, वसइ सुहं सव्वओ वसुहा ॥५१॥ एवं समइक्कन्ते, काले तो सम्मुई समुप्पन्नो२ । खेमंकरो य एत्तो३, तओ य खेमंधरो जाओ४ ॥५२॥ सीमंकरो महप्पा५ जाओ सीमंधरो६ पयाणन्दो७ । तत्तो य चक्खुनामो, उप्पन्नो भारहे वासे८ ॥५३॥ दय॒ण चन्द-सूरे, भीओ आसासिओ जणो जेणं । सिटुं च निरवसेसं, जहवत्तं कालसमयम्मि ॥५४॥ दान फलम् - य कुत्सितेभ्यो दानं ददति सुखभोगकारणनिमित्तम् । ते कुञ्जरादयो जाता भुञ्जन्तीह दानजं सौख्यम् ॥४४॥ यथा क्षेत्रे सुकृष्टे बीजं वर्धते न तस्य परिहाणिः । एवं सुसाधुदाने विपुलं पुण्यं समर्जयति ॥४५।। एकत्र यथा तडागे घेन्वा सर्पण पानीयं पीतम् । सर्प परिणमति विषं धेनुषु क्षीरं समुद्भवति ॥४६॥ तथा नि:शील-सुशीलेभ्योदत्तं दानं फलमफलकं च । भवति परस्मिल्लोके पात्रविशेषेण तस्य पुण्यम् ॥४७॥ कुलकरा ऋषभस्वामि चरित्रं च । - एवं दानविशेषो नरपते ! कथितो मया समासेन । कुलकरवंशोत्पत्तिं भणाम्यधुनां निशामय ॥४८॥ यथा चन्द्रःपरिवर्धते ऽपसरति चात्मनः स्वभावेन । उत्सर्पिण्यपि वर्धत एवमवसर्पिणीहानिः ॥४९॥ तृतीये कालसमये पल्योपमाष्ट भागशेषे । प्रथम: कुलकरवृषभ उत्पन्नः प्रतिश्रुति र्नामा ॥५०॥ जातिस्मरो महात्मा, जानाति यस्त्रिन् जन्मसंबन्धान् । तस्य च स्मृति प्रसन्ना वसति सुखं सर्वतो वसुधा ॥५१॥ एवं समतिक्रान्ते काले ततः सन्मतिः समुत्पन्नः । क्षेमंकरश्चैतस्मात्ततश्च क्षेमंधरो जातः ॥५२॥ सीमंकरो महात्मा जातः सीमंधरः प्रजानन्दः । ततश्च चक्षुर्नामोत्पन्नो भरते वासे ॥५३॥ दृष्टवा सूर्यचन्दमसौ भीत आश्वासितो जनो येन । शिष्टं च निरवशेष यथावृतं कालसमये ॥५४॥ १. भुअंति गयाण जं-मु० । २. समज्जेइ-मु० । ३. महाणंदो-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जाहरलोगवण्णणं-३/४४-६६ तत्तो हवे महप्पा, उप्पन्नो विमलवाहणो धीरो९ । अभिचन्दो१० चन्दाभो११ मरुदेव१२ पसेणई१३ नाभी१४ ॥५५॥ एए कुलगरवसभा, चोद्दस भरहम्मि जे समुप्पन्ना । पुहईसु नीइकुसला, लोयस्स वि पिइसमा आसी ॥५६॥ गिहपायवो विचितो, बहुविहउज्जाण-वाविपरिकिण्णो । भोगठिईणाऽऽवासो, जत्थ य नाभी सयं वसइ ॥५७॥ तस्स य बहुगुणकलिया, जोव्वण-लावण्ण-रूवसंपन्ना । मरुदेवि त्ति पिया सा, भज्जा देवी व पच्चक्खा ॥५८॥ ताहे च्चिय परियम्मं, हिरि-सिरि-धिइ-किति-बुद्धि-लच्छीओ।आणं करेन्ति निच्चं, देवीओ इन्दवयणेणं ॥५९॥ आहार-पाण-चन्दण-सयणा-ऽऽसण-मज्जणाइविणिओगं । वडन्ति देवयाओ, वीणा-गन्धव्व-नट्टे य ॥६०॥ अह अन्नया कयाई, सयणिज्जे महरिहे सुहपसुत्ता । पेच्छइ पसत्थसुमिणे, मरुदेवी पच्छिमे जामे ॥१॥ वसह१ गय२ सीह६ वरसिरि४ दामं५ ससि६ रवि७ झयं च८ कलसं च९ । सर१० सायरं११ विमाणं-वरभवणं१२ रयणकूड१३ ऽग्गी१४ ॥६२॥ सुमिणावसाणसमए, जयसहुग्घुट्ठतूरसद्देणं । छज्जइ य नवविबुद्धा, सूरागमणे कमलिणि व्व ॥६३॥ कयकोउयपरियम्मा, नाभिसयासं गया हरिसियच्छी । रयणासणोवविट्ठा, कहइ य पइणो वरे सुमिणे ॥६४॥ नाऊण य सुविणत्थं, नाभी तो भणइ सुन्दरी ! तुझं । गब्भम्मि य संभूओ, होही तित्थंकरो पुत्तो ॥६५॥ एवं सुणित्तु वयणं, मरुदेवी हरिसपूरियसरीरा । पप्फुल्लकमलनेत्ता, परिओसुब्भिन्नरोमञ्चा ॥६६॥ ततो भवेन् महात्मोत्पन्नो विमलवाहनो धीरः । अभिचन्द्रश्चन्द्राभो मरुदेव प्रसेनजिन्नाभिः ॥५५॥ एते कुलकरवृषभाश्चतुर्दश भरते ये समुत्पन्नाः । पृथव्यां नीतिकुशला लोकस्यापि प्रीतिसमा आसन् ॥५६॥ गृहपादपो विचित्रो बहुविधोद्यान-वापीपरिकीर्णः । भोगस्थित्याऽऽवासो यत्र च नाभिः स्वयं वसति ॥५७|| तस्य च बहुगुणकलिता यौवन-लावण्य-रुपसंपन्ना । मरुदेवीति प्रिया सा भार्या देवीव प्रत्यक्षा ॥५८|| तदैव परिकर्म ही श्री-धृति-कीर्ति-बुद्धि-लक्ष्म्यः । आज्ञां कुर्वन्ति नित्यं देव्य इन्द्रवचनेन ॥५९॥ आहार-पान-चन्दन-शयना-ऽऽसन-मज्जनादि विनियोगम् । वर्धन्ते देवता वीणा-गान्धर्व-नृत्येषु च ॥६०॥ अथान्यदा कदाचिच्छयनीये महार्हे सुखप्रसुप्ता । पश्यति प्रशस्तस्वप्नान्मरुदेवी पश्चिमे यामे ॥६१॥ वृषभगजसिंह-वरश्री-दाम-शशि-रवि-ध्वजं च कलशं च । सर: सागरं-विमान-वरभवनं रत्नकूटाऽग्नी ॥६२॥ स्वप्नावसानसमये जयशब्दोद्धृष्टतूर्यशब्देन । राजते च नवविबुद्धा सूर्याऽऽगमने कमलिनी ॥६३।। कृतकौतुकपरिकर्मा, नाभिसकाशं गता हर्षिताक्षी । रत्नासनोपविष्टा कथयति च पतये वरान्स्वप्नान् ॥६४॥ ज्ञात्वा च स्वप्नार्थं नाभिस्ततो भणति सुन्दरी ! तव । गर्भे च संभूतो भविष्यति तीर्थकरः पुत्रः ॥६५।। एवं श्रुत्वा वचनं मरुदेवी हर्षपूरितशरीरा । प्रफुल्लकमलनेत्रा परितोषोद्भिन्नरोमाञ्चा ॥६६।। SCLAS १. नट्टेणं मु० । २. राजते । ३. नाऊण सुइण अत्थं नाभी तो भणइ प्रिययमे ! तुझं-प्रत्यं० । पउम.भा-१/४ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पउमचरियं छम्मासेण जिणवरो, होही गब्भम्मि चवणकालाओ । पाडेइ रयणवुट्ठी, धणओ मासाणि पन्नरस ॥६७॥ गब्भट्ठियस्स जस्स उ, हिरण्णवुट्ठी सकञ्चणा पडिया । तेणं हिरण्णगब्भो, जयम्मि उवगिज्जए उसभो ॥६८॥ नाणेसु तीसु सहिओ, गब्भे वसिऊण जम्मसमयम्मि । अह निग्गओ महप्पा, खोभेन्तो तिहुयणं सयलं ॥६९॥ दट्टणं पुत्तजम्मं, नाभी पडुपडह-तूरसद्दालं । मङ्गलविभूइसहियं, आणन्दं कुणइ परितुट्ठो ॥७०॥ देवकृतः ऋषभजिनजन्मोत्सवः - पुण्णाणिलाहयाई, दटुं चलियासणाइँ देविन्दा । अवहिविसएण ताहे, पेच्छन्ति जिणं समुप्पन्नं ॥७१। सङ्ग्रेण भवणवासी, वन्तरदेवा वि पडहसद्देणं । उट्ठन्ति ससंभन्ता, जोइसिया सीहनाएणं ॥७२॥ कप्पाहिवा वि चलिया, घण्टासद्देण बोहिया सन्ता । सव्विड्डिसमुदएणं, एन्ति इहं माणुसं लोगं ॥७३॥ गय-तुरय-वसह-केसरि-विमाणवरवाहणेसु आरूढा । देवा चउप्पयारा, तो नाभिघरं समणुपत्ता ॥४॥ वेरुलिय-वज्ज-मरगय-कक्केयण-सूरकन्तपज्जलियं । पाडेन्ति रयणवुटुिं, नाभिघरे हरिसिया देवा ॥७५॥ सेसणिओ वि ताहे, घेत्तूण जिणेसरं सुरवइस्स । उवणेइ करयलत्थं, मायाबालं ठविय पासे ॥७॥ काऊण सिरपणाम, घेत्तूण जिणं ससंभमो सक्को । पुलयन्तो य न तिप्पइ, अच्छीण सहस्समेत्तेणं ॥७७॥ तो सव्वसमुदएणं, देवा वच्चन्ति मन्दराभिमुहा । गयणं समोत्थरन्ता, आभरणसमुज्जलियसिरिया ॥७८॥ षण्मासेन जिनवरो भविष्यति गर्भे च्यवनकालात् । पातयति रत्नवृष्टी र्धनदो मासा पंचदशः ॥६७॥ गर्भस्थितस्य यस्य तु हिरण्यवृष्टिः सकांचना पतिता । तेन हिरण्यगर्भो जगत्युपगीयते ऋषभः ॥६८॥ ज्ञानैस्त्रिभिस्सहितो गर्भ उषित्वा जन्मसमये । अथ निर्गतो महात्मा क्षोभयंस्त्रिभुवनं सकलम् ॥६९।। दृष्टवा पुत्रजन्म नाभिः पटुपटह-तूर्यशब्दवत् । मङ्गलविभूति सहितमानन्दं करोति परितुष्टः ॥७०।। देवकृत ऋतभजिनजन्मोत्सवः - पुण्यानिलाहतानि दृष्ट्वा चलितासनानि देवेन्द्राः । अवधिविषयेन तदा प्रेक्षन्ते जिनं समुत्पन्नम् ॥७१।। शवेन भवनवासिनो व्यन्तरदेवा अपि पटहशब्देन । उत्तिष्ठन्ति ससंभ्रमा ज्योतिषः सिंहनादेन ॥७२॥ कल्पाधिपा अपि चलिता घण्टाशब्देन बोधिताः सन्तः । सर्वधिसमुदायेनाऽऽयान्तीह मानुषं लोकम् ॥७३॥ गज-तुरग-वृषभ-केसरि-विमान वरवाहनेष्वारुढाः । देवाश्चतुष्प्रकारास्ततो नाभिगृहं समनुप्राप्ताः ॥७४।। वैडूर्य-वज्र-मरकत-ककेतन-सूर्यकान्तप्रज्वलितम् । पातयन्ति रत्नवृष्टिं नाभिगृहे हर्षिता देवाः ॥५॥ सेनानिकोऽपि तदा गृहीत्वा जिनेश्वरं सुरपतेः । उपनयति करतलस्थं मायाबालं स्थाप्य पार्वे ।।७६।। कृत्वा शिरः प्रणामं गृहीत्वा जिनं ससंभ्रमः शक्रः । पश्यंश्च न तृप्यति अक्षणां सहस्रमात्रेणः ॥७७|| १. लक्ष्ण-प्रत्यं० । २. खेत्तं-प्रत्य० । ३. पश्यन् । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जाहरलोगवण्णणं - ३ / ६७-९० मेरुपर्वतेऽभिषेकः दिट्ठो य नगवरिन्दो, फलिहसिलाविविहरयणपब्भारो । सुललियलयाविलोलिय- पलम्बलम्बन्तवणमालो ॥७९॥ सिहरकरनिवहनिग्गय-विविहमहामणिमयूहपज्जलिओ । दलरुइरविमलकोमल - पवणुद्धुयपल्लवकरग्गो ॥८०॥ वरतरुणतरुवरुग्गय-कुसुमसुयन्धड्डमहुयरीगीओ । घुलुहुलवहन्तनिम्मल - उग्गालिवहन्तजलनिवहो ॥८१॥ हरि-नउल-वसह-केसरि-वराह - रुरु- चमरसावयसमिद्धो । विगयभयजणियमणहर- सच्छन्दरमन्तघणवन्दो ॥८२॥ गरुड-वरकिन्नरोरग-किंपुरिससमूहचड्डियपएसो । तियसबहुमहुरमम्मण- गन्धव्वुग्गीयसव्वदिसो ॥८३॥ एयारिसगुणकलिओ, मेरू तस्सुत्तमे महासिहरे । अह ते महाणुभावा, ओइण्णा सुरवरा सव्वे ॥८४॥ दिट्ठा य पण्डुकम्बल-सिला समुज्जलमणीसु पज्जलिया । चन्दपहस न्नियासा, उब्भासेन्ती दस दिसाओ ८५ ॥ सीहासणे जिणिन्दो, ठविओ सक्केण हतुट्टेणं । अभिसेयं च महरिहं, काऊण सुरा समाढत्ता ॥८६॥ पडुपडह-भेरि-झल्लरि-आइङ्ग-मुइङ्ग-सङ्घ- पणवाणं । जम्माभिसेयतूरं, समाहयं मेहनिग्घोसं ॥८७॥ गन्धव्व-जक्ख-किन्नर-तुम्बुरुय - महोरगा अणेगविहा । वरकुसुम - चन्दणा - ऽगुरु- दिव्वंसुय - चामरविहत्था ॥८८॥ नच्चन्ति के तुट्टा, अवरे गायन्ति महुरसद्देणं । अप्फोडण - चलण-वियम्भणाइँ केइत्थ कुव्वन्ति ॥ ८९ ॥ अवरेत्थ आयवत्तं, धरेन्ति उवरिं समोत्तिओऊकुलं । घणगुरु- गभीरसद्दं, वायन्ति य दुन्दुही अन्ने ॥ ९० ॥ ततः सर्वबलसमुदायेन देवा व्रजन्ति मन्दराभिमुखाः । गगनं समवस्तृण्वन्त आभरणसमुज्जवलितश्रिकाः ॥७८॥ मेरुपर्वतेऽभिषेक: दृष्टश्च नगवरेन्द्रः स्फटिकशिलाविविधरत्नप्राग्भारः । सुललितलताविलोकितप्रलम्बलम्बनमालः ॥७९॥ शिखरकरनिवहनिर्गत-विविधमहामणिमयूख प्रज्ज्वलितः । दलरुचिर विमलकोमलपवनोद्युतपल्लवकराग्रः ||८०|| वरतरुणतरुवरोद्गत कुसुमसुगन्धाढ्य मधुकरीगीतः । घुलुहुलवहन्निर्मलोद्गालिवहज्जलनिवहः ॥८१॥ हरि-नकुल-वृषभ-केसरि-वराह - रूरु- चमर - श्वापदसमृद्धः । विगतभयजनितमनोहरस्वच्छन्दरमद्धनवृन्दः ॥८२॥ गरुडवरकिन्नरोरग-किंपुरुषसमूहपिष्टप्रदेशः । त्रिदशवधुमधुरमदनगांधर्वोद्गीतसर्वदिक् ॥८३॥ एतादृश गुणकलितो मेरुस्तस्योत्तमे महाशिखरे । अथ ते महानुभावा अवतीर्णाः सुरवराः सर्वे ॥८४॥ दृष्टा च पण्डुकम्बलशिला समुज्ज्वलमणिभिः प्रज्ज्वलिता । चन्द्रप्रभा सन्निमोद्धासन्ती दश दिशः ॥८५॥ सिंहासने जिनेन्द्रः स्थापितः शक्रेण हृष्टतुष्टेन । अभिषेकं च महार्ह कर्तुं सुराः समारब्धाः ॥८६॥ पटुपटह भेरी झल्लरि-आइंग-मृदंग- शङ्ख-पणवानाम् । जन्माभिषेकतूर्यं समाहतं मेघनिर्घोषम् ॥८७॥ गांधर्व-यक्ष- किन्नर -तुम्बरुक - महोरगा अनेकविधाः । कुसुमचन्दनागुरु दिव्यांशुक चामर विहस्ताः ॥८८॥ नृत्यन्ति केपि तुष्टा अपरे गायन्ति मधुरशब्देन । आस्फोटन - चलन- विजृम्भनादीन् केचित्कुर्वन्ति ॥८९॥ अपरे आतपत्रं धरन्त्युपरि समौक्तिकावचूलम् । धनगुरुगम्भीरशब्दं वादयन्ति च दुन्दुभिरन्ये ॥९०॥ १. सन्निभा सा प्रत्य० । २. समौक्तिकावचूलम् । ३. 'खलभलवु' इति भाषायाम् । २७ For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं २८ नच्चन्ति य सविलासं, अमरवहूओ सभावहावत्थं । सललियपयनिक्खेवं, कडक्खदिट्ठीवियारिल्लं ॥ ९१ ॥ उवरिं च कुसुमवासं, मुञ्चन्ति सुरा विचित्तगन्धडुं । जह निम्मलं पि गयणं, खणेण रयधूसरं जायं ॥९२॥ तो सुरगणेहि तुरियं, कलसा खीरोयसायरजलाओ । भरिऊण य आणीया, अभिसेयत्थं जिणिन्दस्स ॥९३॥ घेत्तूण रयणकलसं, इन्दो अहिसिञ्चिउंसमाढत्तो । जयसद्दमुहलमुरव - थुङ्गमङ्गलकलयलारावं ॥९४॥ जम - वरुण-सोममाई, अन्ने वि महिड्डिया सुरवरिन्दा । पयया पसन्नचित्ता, जिणाभिसेगं पकुव्वन्ति ॥ ९५ ॥ इन्दाणीपमुहाओ, देवीओ सुरहिगन्धचुण्णेहिं । उव्वट्टन्ति सहरिसं, पल्लवसरिसग्गहत्थेहिं ॥९६॥ काऊणय अभिसे, विहिणा आभरणभूसणनिओगं । विरएड़ सुरवरिन्दो, जिणस्स असु परितुट्ठो ॥९७॥ चूडामणि से उवरिं, संताणयसेहरं सिरे रइयं । कण्णेसु कुण्डलाई, भुयासु माणिक्ककडयाइं ॥९८॥ कत्ति पिणद्धं, कडियडपट्टम्मि जिणवरिन्दस्स । दिव्वंसुयस्स उवरिं, उब्भासइ रयणपज्जलियं ॥९९॥ सव्वायरेण एयं, काऊणाऽऽभरणभूसियसरीरं । हरसियमणो सुरिन्दो, थोऊण जिणं समाढत्तो ॥ १००॥ जय मोहतमदिवायर ! जय सयलमियङ्क ! भवियकुमुयाणं । जय भवसायरसोसण ! सिरिवच्छविहूसिय! जयाहि ॥ १०१ ॥ अन्ने वि सुरवरिन्दा, सब्भूयगुणेहि जिणवरं थोडं । काऊण य तिक्खुत्तं, जहागयं पडिगया सव्वे ॥१०२॥ हरिणगवेसी वि तओ, आणेत्तु जिणेसरं निययगेहं । ठविऊण माउअगेहे, सुरालयं सो वि संपत्तो ॥ १०३ ॥ नृत्यन्ति च सविलासममरवध्वः सभावहावस्थम् । सललितपदनिक्षेपं कटाक्षदृष्टिविकारवन्तम् ॥९१॥ उपरि च कुसुमवासं मुञ्चन्ति सुरा विचित्रगन्धाढ्यम् । यथा निर्मलमपि गगनं क्षणेन रजोधूसरं जातम् ॥९२॥ ततः सुरगणैस्त्वरितं कलशाः क्षीरोदधिजलेन । भृत्वा चानीता अभिषेकार्थं जिनेन्द्रस्य ॥९३॥ गृहीत्वा रत्नकलशमिन्द्रोऽभिषिक्तुंसमारब्धः । जयशब्दमुखरमुरवस्तुतिमङ्गलं कलकलारावम् ॥९४॥ यम-वरुण-सोमादयोऽन्येऽपि महद्धिकाः सुरवरेन्द्राः । प्रयताः प्रसन्नचित्ता जिनाभिषेकं प्रकुर्वन्ति ॥९५॥ इन्द्राणीप्रमुखा देव्यः सुरभिगन्ध चूर्णैः । उद्वर्तन्ति सहर्षं पल्लवसदृशाग्रहस्तैः ॥९६॥ कृत्वा चाभिषेकं विधिनाभरणभूषणनियोगम् । विरचयति सुरवरेन्द्रो जिनस्याङ्गेषु परितुष्टः ॥९७॥ चूडामणि तस्योपरि `संतानकशेखरं शिरसि रचितम् । कर्णयोः कुण्डलादि भुजयोर्माणिक्यकटके ॥९८॥ कटिसूत्रं पिनद्धं कटितटपट्टे जिनवरेन्द्रस्य । दिव्यांशुकस्योपर्युद्भासते रत्नप्रज्ज्वलितम् ॥९९॥ सर्वादरेणैतत्कृत्वाऽऽभरणभूषितशरीरम् । हर्षितमनाः सुरेन्द्रः स्तोतुं जिनं समारब्धः ॥१००॥ जय मोहतमदिवाकर ! जय सकलमृगांक ! भविक कुमुदानाम् जय भवसागरशोषण ! श्रीवत्सविभूषित ! जय ॥१०१॥ अन्येऽपि सुरवरेन्द्राः सद्भूतगुणैजिर्नवरं स्तुत्वा । कृत्वा च त्रिकृत्वो यथागतं प्रतिगताः सर्वे ॥१०२॥ हरिणैगमेष्यपि तत आनीय जिनेश्वरं निजकगृहे । स्थापयित्वा मात्रंके सुरालयं सोऽपि संप्राप्तः ॥१०३॥ १. जहागया - मु० । २. संतानक- कल्पवृक्षना फुलनी माला । For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जाहरलोगवण्णणं-३/९१-११६ दट्ठण य मरुदेवी, दिव्वालंकारभूसियं पुत्तं । पुलइ-रोमञ्चइया, न माइ नियएसु अंगेसु ।१०४॥ नाभी वि सुयं दर्दू, सुरकुङ्कमबहलदिन्नर्चच्चिक्कं । वररयणभूसियङ्ग, तइलोक्काईसयं वहइ ॥१०५॥ उयरम्मि जं पविट्ठो, उसभो जणणीए कुन्दससिवण्णो । उसभो त्ति तेण नामं, कयं से नाभीण तुट्टेणं ॥१०६॥ अणुदियहं परिवड्डइ, अङ्गट्ठयअमयलेहणवसेणं । सुरदारयपरिकिण्णो, कीलणयसएसु कीलन्तो ॥१०७॥ पत्तो सरीरविद्धि, कालेणऽप्पेण परमलायण्णो। लक्खण-गुणाण निलओ, सिरिवच्छुक्किण्णवच्छयलो ॥१०८॥ धणुपञ्चसउच्चत्तं, देहं नारायवज्जसंघयणं । लक्खणसहस्ससहियं, रवि व्व तेएण पज्जलियं ॥१०९॥ आहार-पाण-वाहण-सयणा-ऽऽसण-भूसणाइयं विविहं । देवेहि तस्स सव्वं, उवणिज्जइ तक्खणे परमं ॥११०॥ कालसभावेण तओ, नट्टेसु य विविहकप्परुक्खेसु । तइया इक्खुरसो च्चिय, आहारो आसि मणुयाणं ॥१११॥ विन्नाण-सिप्परहिया, धम्मा-ऽधम्मेण वज्जिया पुहई । कल्लाण-पयरणाणं, न य पासण्डाण उप्पत्ती ॥११२॥ तइया धणएण कया नयरी वरकणगतुङ्गपागारा । नवजोयणवित्थिण्णा, बारस दीहा रयणपुण्णा ॥११३॥ उसभजिणेण भगवया, गामा-ऽऽ-गर-नगर-पट्टण-निवेसा। कल्लाण-पयरणाणि य, सयं च सिप्पाण उवइटुं ॥११४॥ रक्खण करणनिउत्ता, जे तेण नरा महन्तदढसत्ता । ते खत्तिया पसिद्धि, गया य पुहइम्मि विक्खाया ॥११५॥ वाणिज्ज-करिसणाई, गोरक्खण-पालणेसु उज्जुत्ता । ते होन्ति वइसनामा, वावारपरायणा धीरा ॥११६॥ दृष्ट्वा च मरुदेवी दिव्यालङ्कारभूषितं पुत्रम् । पुलकितरोमाञ्चिता न माति निजकेष्वङ्गेषु ॥१०४।। नाभिरपि सुतं दृष्ट्वा सुरकुङ्कमबहलदत्तमण्डितम् । वररत्नभूषिताङ्गं त्रैलोक्यातिशयं वहति ॥१०५।। उदरे यत्प्रविष्टो वृषभ जनन्याः कुन्दशशीवर्णः । ऋषभ इति तेन नाम कृतं तस्य नाभिना तुष्टेन ॥१०६।। अनुदिवसं परिवर्धत अंगुष्टामृतलेहनवसेन । सुरदारकपरिकीर्णः क्रीडनकशतैः क्रीडन् ॥१०७॥ प्राप्तः शरीरवृद्धि कालेनाल्पेन परमलावण्यः । लक्षणगुणानां निलयः श्रीवत्सोत्कीर्णवक्षःस्थलः ।।१०८।। पञ्चधनुशतोच्चत्वं देहं वज्रनाराच संहननम् । लक्षणसहस्रसहितं रविरिव तेजसा प्रज्ज्वलितम् ।।१०९॥ आहार-पान-वाहन-शयनाऽऽसन-भषणादिकं विविधम । देवैस्तस्य सर्वमपनीयते तत्क्षणे परमम् ॥११०॥ काल स्वभावेन ततो नष्टेषु च विविधकल्पवृक्षेषु । तदेक्षुरसश्चैवाहार आसीन्मनुष्याणाम् ॥१११॥ विज्ञान-शिल्परहिता, धर्माऽधर्मेण वर्जिता पृथिवी । कल्याण-प्रतरणानां च न च पाखण्डानामुत्पत्तिः ॥११२॥ तदा धनदेन कता नगरी वरकनकतङ्गप्राकारा । नवयोजनविस्तीर्णा द्वादशदीर्घा रत्नपूर्णा ॥११३।। ऋषभजिनेन भगवता गामाऽऽकरनगरपट्टननिवेशाः । कल्याण-प्रतरणानि च स्वयं शिल्पान्युपदिष्टानि ॥११४॥ रक्षणकरणनियुक्ता ये तेन नरा महादृढसत्त्वाः । ते क्षत्रियाः प्रसिद्धिं गताश्च पृथिव्यां विख्याताः ॥११५॥ वाणिज्य-कर्षणादि, गोरक्षण-पालनेषूद्यताः । ते भवन्ति वैश्यनामानो व्यापारपरायणा धीराः ॥११६।। १. (दे.) मण्डितम् । २. कयं तु नाभीण-मु० । ३. नाभिना । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पउमचरियं जे नीयकम्मनिरया, परपेसणकारया निययकालं । ते होन्ति सुद्दवग्गा, बहुभेया चेवलोगम्मि ॥११७॥ जेण य जुगं निविटुं, पुहईए सव्वसत्तसुहजणणं । तेण उ जगम्मिघुटुं, तं कालं कयजुगं नाम ॥११८॥ भज्जा सुमङ्गला जिण-वरस्स नन्दा तो भवे बीया । भरहाइकुमाराणं, पुत्तसयं तस्स उप्पन्नं ॥११९॥ दोण्णि य वरधूयाओ, जोव्वण-लायण्ण-कन्ति-कलियाओ। बम्भी वि सुन्दरी वि य, जणम्मि विक्खायकित्तीओ ॥१२०॥ सामन्त-भड-पुरोहिय-सेणावइ-सेठ्ठि-भोइयाणं च । दावेइ रायनीई, लोगस्स वि लोगसंबन्धं ॥१२१॥ एव रायवरसिरिं, भुञ्जन्तस्स उ अइच्छिओ कालो । नीलं वासं दटुं, संवेगपरायणो जाओ ॥१२२॥ कट्ठे अहो ! विलम्बइ, लोओ परपेसणेसु आसत्तो । उम्मत्तओ व्व नच्चइ, कुणइ य बहुचेट्ठियसयाई ॥१२३॥ मणुयत्तणं असारं, विज्जुलयाचञ्चलं हवइ जीय । बहुरोग-सोगकिमिकुल-भायणभूयं हवइ देहं ॥१२४॥ दुक्खं सुहं ति मन्नइ, जीवो विसयामिसेसु अणुरत्तो । पुणरवि बहुं विनडिउं, न मुणइ आउं परिगलन्तं ॥१२५॥ एयं चिय विसयसुहं, असासयंउज्झिऊण निस्सङ्गो । सिद्धिसुहकारणत्थं, करेमि तव-संजमुज्जोयं ॥१२६॥ जाव य चिन्तेइ इमं, संसारोच्छेयकारणं उसभो । ताव य भिसंतमउडा, देवा लोगन्तिया पत्ता ॥१२७॥ काऊण सिरपणामं, भणन्ति साहु त्ति नाह ! पडिबुद्धो । वोच्छिन्नस्स सुबहुओ, कालो इह सिद्धिमग्गस्स ॥१२८॥ एए भमन्ति जीवा, पुणरुत्तं जम्मसायरे भीमे । जिणवयणपोयलग्गा, तरन्तु मा णे चिरावेहि ॥१२९॥ ये नीचकर्मनिरताः परप्रेषणकारकाः नित्यकालम् । ते भवन्ति शुद्रवर्गा बहुभेदा श्चैव लोके ॥११७|| येन च युगं निविष्ठं पृथ्व्यिां सर्वसत्त्वशुभजननम् । तेन तु जगति धृष्टं तत्कालं कृतयुगं नाम ॥११८॥ भार्या सुमङ्गला जिनवरस्य नंदा ततोऽभवद् द्वितीया । भरतादिकुमाराणां पुत्रशतं तस्योत्पन्नम् ॥११९।। द्वे च वरदुहिते यौवन-लावण्य-कान्ति-कलिते । बाह्यपि सुन्दर्यपि च जने विख्यातकीत्यौ ॥१२०।। सामन्तभटपुरोहित-सेनापति-श्रेष्ठि-भोजिकानां च । दर्शयति राजनीति लोकस्यापि लोकसम्बन्धम् ।।१२१।। एवं राजवरश्रीं भुञ्जतस्वतिक्रान्तः कालः । नीलं वासो दृष्ट्वा संवेगपरायणो जातः ॥१२२॥ कष्टमहो ! विडम्बयति लोकः परप्रेषणेष्वासक्तः । उन्मत इव नृत्यति, करोति च बहु चेष्टाशतानि ॥१२३॥ मनुष्यत्वमसारं विद्युल्लता चञ्चलं भवति जीवम् । बहुरोग-शोककृमिकुल-भाजनभूतं भवति देहम् ।।१२४|| दु:खं सुखमिति मन्यते जीवो विषयामिषेष्वनुरक्तः । पुनरपि बहुं विनर्त्य जानात्यायुः परिगलन्तम् ॥१२५।। एतच्चैव विषयसुखमशाश्वतमुज्झित्वा निस्संगः । सिद्धिसुखकारणार्थं करोमि तप:संयमोद्योतम् ॥१२६।। यावच्च चिन्तयतीदं संसारोच्छेदकारणं ऋषभः । तावच्च भासमानमुकुटा देवा लोकान्तिकाः प्राप्ताः ॥१२७।। कृत्वाशिरप्रणामं भणन्ति साध्विति नाथ ! प्रतिबुद्धः । व्युच्छिन्नस्य सुबहुकः काल इह सिद्धिमार्गस्य ॥१२८॥ एते भ्रमन्ति जीवाः पुनरुक्तं जन्मसागरे भीमे । जिनवचनपोतलग्नास्तरन्तु माऽस्मांश्चिरय ॥१२९।। १. दर्शयति। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जाहरलोगवण्णणं - ३ / ११७-१४२ एवं दढववसायस्स तस्स निक्खमणकारणे देवा । तुरियं च समणुपत्ता, सुरिन्दपमुहा चउवियप्पा ॥१३०॥ नमिऊण जिणवरिन्दं, जयसद्दाला य सहरिसं तुट्ठा। धय-छत्त- चारुचामर-चलन्तकरपल्लवसणाहा ॥ १३१ ॥ वज्जिन्दनील - मरगय-चन्दणमणिखचियकणयपरिवेढं । आरूहइ सुरसमाहिय-खन्धं तु सुदंसणं सिबियं ॥१३२॥ अह निग्गओ महप्पा, नयराओ सुर - नरिन्दपरिकिण्णो । तूरसहस्ससमाहय-बन्दियणुग्घुट्ठजयसद्दो ॥१३३॥ वरबउल-तिलय-चम्पय-असोग- पुन्नाग-नागसुसमिद्धं । पत्तो पवरुज्जाणं, वसन्ततिलयं ति नामेणं ॥ १३४॥ आपुच्छिउण सव्वं, माया- पिय- पुत्त-सयण - परिवग्गं । तो मुयइ भूसणाई, कडिसुत्तय - कडय - वत्थाई ॥१३५॥ सिद्धाण नमोक्कारं, काऊणय पञ्चमुट्ठियं लोयं । चउहि सहसेहि समं, पत्तो य जिणो परमदिक्खं ॥१३६॥ 'वज्जाउहो वि ताहे, केसे मणिपडलयम्मि घेत्तूणं । काऊण सिरपणामं, खीरसमुद्दम्मि पक्खिवइ ॥१३७॥ निक्खमणमहामहिमं, देवा काऊण सुरवरसमग्गा । नमिऊण जिणवरिन्दं, गया य निययाइँ ठाणाई ॥१३८॥ चउहि सहस्सेहि समं, समणाणं जिणवरो महाभागो । गहिउववासो विहरइ, वसुहं संवच्छरं धीरो ॥१३९॥ केएत्थ पढममासे, बीए तइए उ जाव छम्मासे । परिसहभडेहि ताव य, भग्गा समणा अपरिसेसा ॥ १४०॥ भहस्स भएण घरं, न एन्ति तण्हाछुहाकिलन्ता वि । लज्जाए गारवेण य, ताहे रण्णं परिवसन्ति ॥ १४१ ॥ अह ते छुहाकिलन्ता, फलाइँ गिण्हन्ति पायवगणेसु । अम्बरतलम्मि घुटुं, मा गेहह समणरूवेण ॥१४२॥ एवं दृढव्यवसायस्य तस्य निष्क्रमणकारणे देवाः । त्वरितं च समनुप्राप्ताः सुरेन्द्रप्रमुखा श्चतुर्विकल्पाः ॥१३०॥ नत्वा जिनवरेन्द्रं जयशब्दवन्तश्च सहर्षं तुष्टाः । ध्वज - छत्र - चारु चामर - चलत्करपल्लवसनाथाः ॥१३१॥ वज्रेन्द्रनील-मरकत-चन्द्रमणिखचितकनकपरिवेष्टम् । आरोहति सुरसमाहृतस्कन्धा तु सुदर्शनां शिबिकाम् ॥१३२॥ अथ निर्गतो महात्मा नगरात् - सुरनरेन्द्रपरिकीर्णः । तूर्यसहस्रसमाहतबन्दिजनोद्धृष्टो जयशब्दः ॥१३३॥ वरबकुल-तिलक-चम्पकाशोक-पुन्नाग- नागसुसमृद्धम् । प्राप्तः प्रवरोद्यानं वसंततिलकमिति नाम्ना ॥ १३४॥ आपृच्छ्य सर्वं मातापितापुत्रस्वजनपरिवर्गम् । ततो मुञ्चति भूषणानि कटिसूत्रं - कटक - वस्त्राणि ॥१३५॥ सिद्धेभ्यो नमस्कारं कृत्वा च पञ्चमुष्टिकं लोचम् । चतुर्भि स्सहस्त्रैः समं प्राप्तश्च जिनः परमदिक्षाम् ॥१३६॥ वज्रायुधोऽपि तस्य केशान्मणिपटले गृहीत्वा । कृत्वा शिरप्रमाणं क्षीरसमुद्रे प्रक्षिपति ॥१३७॥ निष्क्रमणमहामहिमानं देवा कृत्वा सुरवरसमग्राः । नत्वा जिनवरेन्द्रं गताश्च निजकानि स्थानानि ॥१३८॥ चतुर्भिः सहस्रैः समं श्रमणानां जिनवरो महाभाक् । गृहीतोपवासो विहरति, वसुधायां संवत्सरं धीरः ॥१३९॥ कंचिदत्र प्रथमे मासे द्वितीये तृतीये तु यावच्छृण्मासे। परिषहभटैस्तावच्च भग्नाः श्रमणा अपरिशेषाः ॥१४०॥ भरतस्य भयेन गृहं नायान्ति तृष्णाक्षुधाक्लान्ता अपि । लज्जया गारवेण च तदारण्ये परिवसन्ति ॥१४१॥ अथ ते क्षुधाक्लान्ताः फलानि गृह्णन्ति पादपगणेभ्यः । अम्बरतले धृष्टं मा गृह्णीत श्रमणरुपेण ॥१४२॥ तदा वल्कलचीवरकुशपत्रनिवसनाः फलाहाराः । स्वच्छन्दमतिविकल्पाः, बहुभेदास्तापसा जाताः ॥१४३॥ I १. सुरवरिंद- प्रत्य० । २. सौधर्मेन्द्रः । ३. नरवर - मु० । For Personal & Private Use Only ३१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं ताहे वक्कलचीवर-कुसपत्तनियंसणा फलाहारा । सच्छन्दमइवियप्पा, बहुभेया तावसा जाया ॥१४३॥ विद्याधराणामुत्पत्तिं - ताव य जिणस्स पासे, पत्ता नमि-विणमि भोगवरकडी । काऊण सिरपणाम, पायब्भासे सुहनिविट्ठा ॥१४४॥ भोगसमुहाण ताणं, धरणिन्दो आसणे तओ चलिए । सव्वपरिवारसहिओ, सो वि तहिं चेव संपत्तो ॥१४५॥ नमिऊण पायकमले, उवविट्ठो जिणवरस्स आसन्ने । पेच्छइ तरुणजुवाणे, दोण्णि जणे पङ्कयदलच्छे ॥१४६॥ ___ अह भणइ नागराया, भो भो ! तुम्हेत्थ किंनिमित्तेणं । असिलट्ठिगहियहत्था, उभओ वि ठिया जिणसयासे ? ॥१४७॥ तो भणइ नमी वयणं, अम्हं नत्थेत्थ रायवरलच्छी । एयनिमित्तं च पहू !, जिणस्स पासं समल्लीणा ॥१४॥ एवं च भणियमेत्ते, धरणेणं तस्स बलसमिद्धाओ। दिन्नाओ तक्खणं चिय, विज्जाओऽणेयरूवाओ ॥१४९॥ उवइट्ठो य नगवरो, वेयड्डो ताण उत्तमो वासो । पन्नास जोयणाई, वित्थिण्णो सुद्धरययमओ ॥१५०॥ उव्विद्धो पणवीसा, दोसु य सेढीसु उभयओ रम्मो । छज्जोयणाइँ धरणिं, कोसो च्चिय होइ उव्वेहो ॥१५१॥ दक्खिणसेढी गन्तुं, रहनेउरचक्कवालपमुहाई। पन्नास पुरवराई, कयाइँ नमिखेयरिन्देण ॥१५२॥ अह गयणवल्लहपुरं, उत्तरसेढीए [विणमि विक्खायं । वरभवण-तुङ्गतोरण-बहुजिणहरमण्डियं च कयं ॥१५३॥ तत्तो य दसगमित्ता, उवरिं गन्धव्व-किन्नराईणं । वरभवणमण्डियाइं, किंपुरिसाणं च नयराइं ॥१५४॥ विद्याधराणामुत्पत्तिः - तावच्च जिनस्य पार्वे प्राप्तौ नमिविनमी भोगवरकांक्षिणौ । कृत्वा शिरप्रणामं पादभ्यासे सुखनिविष्टौ ॥१४४|| भोगसंमुखयोस्तयो धरणेन्द्र आसने ततश्चलिते । सर्वपरिवारसहितः सोऽपि तत्रैव संप्राप्तः ॥१४५॥ नत्वा पादकमलयोरुपविष्टो जिनवरस्यासन्ने । पश्यति तरुणयुवानौ द्वौ जनौ पङ्कजदलाच्छौ ॥१४६।। अथ भणति नागराजा भो भो ! युवामत्र किं निमितेन । असियष्ठिगृहीतहस्तौ उभयावपि स्थितौ जिनसकाशे ॥१४७॥ तदाभणति नमिर्वचनमावां नास्त्यत्र राज्यवरलक्ष्मीः । एतन्निमित्तं च प्रभो ! जिनस्य पार्वं समालीनौ ॥१४८॥ एवं च भणितमात्रे धरणेन तस्य बलसमृद्धाः । दत्तास्तत्क्षणं चैव विद्या अनेकरुपाः ॥१४९॥ उपदिष्टच नगवरो वैताढ्यस्तयोरुत्तमो वासः । पञ्चाशद्योजनानि विस्तीर्णः शुद्धरजतमयः ॥१५०॥ उद्विद्ध: पंचविंशति द्वयोश्च श्रेण्यो रूभयतो रम्यः । षड्योजनानि धरणौ कोशश्च भवतित्युद्वेधः ॥१५१॥ दक्षिणश्रेणौ गत्वा रथनूपुरचक्रवालप्रमुखानि । पञ्चाशत्पुरवराणि कृतानि नमिखेचरेन्द्रेण ॥१५२।। अथ गगनवल्लभपुरमुत्तरश्रेणौ विनमि विख्यातम् । वरभवनतुङ्गतोरणबहुजिनगृहमण्डितं च कृतम् ॥१५३।। ततश्च दशकमात्रमुपरि गन्धर्व-किन्नरादीनाम् । वरभवनमंडितानि किंपुरुषाणांञ्च नगराणि ॥१५४॥ १. दो वि जणे-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्जाहरलोगवण्णणं-३/१४३-१६२ उवरिं तओ वि गन्तुं, पञ्चऽन्ने जोयणे सिहरपटुं। जिणभवणेसु मणहरं, उब्भासेन्तंदस दिसाओ ॥१५५॥ भवणेसु तेसु निययं, चारणसमणा वसन्ति गुणवन्ता । सज्झाय-झाणनिरया, तवतेयसिरीए दिप्पन्ना ॥१५६॥ बहुगाम-नयर-पट्टण-आरामुज्जाण-काणणसमिद्धा । ___ मणि-रयण-कञ्चणुज्जल-जलन्तघरनिवहपन्तीओ ॥१५७॥ वरमहिसि-गाइपउरो, बहुविहधण्णेण मणहरालोओ। सव्वोसहिसंपन्नो, महु-खीर-घएण पज्झरिओ ॥१५८॥ अइउण्ह-सीयरहिओ, उवघायविवज्जिओ पयइसोमो। नज्जइ य देवलोओ, देसो विज्जाहराइण्णो ॥१५९॥ रविकिरणकोमलाहय-वियसियवरकमलसरिसवयणाओ । विज्जाहरजुवईओ, बहुविहलायण्णकलियाओ ॥१६०॥ विज्जाहरा उ तत्थ वि, विज्जाबलदप्पगव्विया सूरा । देवा व देवलोए, भुञ्जन्ति जहिच्छिए भोए ॥१६१॥ एवंविहा उभयसेढिगया महन्ता, आहार-पाण-सयणा-ऽऽसणसंपउत्ता। विज्जाहरा अणुहवन्ति सुहं समिद्धं, धम्मं करिन्ति विमलं च जिणोवइटुं ॥१६२॥ ॥ इति पउमचरिए विज्जाहरलोगवण्णणो नाम तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ उपरि ततोऽपि गत्वा पञ्चान्यानि योजनानि शिखरपृष्टम् । जिनभवनैर्मनोहरमुद्भाषमाणं दश दिशः ॥१५५॥ भवनेषु तेषु नित्यं चारणश्रमणा वसन्ति गुणवन्तः । स्वाध्याय-ध्याननिरतास्तपस्तेजः श्रिया दिप्यन्तः ॥१५६॥ बहुग्राम-नगर-पत्तनारामोद्यान-काननसमृद्धाः । मणिरत्न-कांचनोज्ज्वलदीप्यगृहनिवहपङ्क्तयः ।।१५७॥ वरमहिषी गवादि प्रचुरो बहुविधधान्येन मनोहरालोकः । सर्वौषधिसंपन्नः मधुक्षीरधृतेन प्रक्षरितः ॥१५८|| अत्युष्ण-शीतरहित उपघातविवर्जितः प्रकृतिसौम्यः । ज्ञायते च देवलोको देशो विद्याधराकीर्णः ॥१५९।। रविकिरणकोमलाहतविकसितवरकमलसदृशवदनाः । विद्याधरयुवतयो बहुविधलावण्यकलिताः ॥१६०।। विद्याधरास्तु तत्रापि विद्याबलदर्पगर्विताः शूरा । देवा इव देवलोके भुञ्जन्ति यथेच्छितान् भोगान् ॥१६१॥ एवंविद्या उभयश्रेणिगता महान्त, आहार-पान-शयनाऽऽसनसंप्रयुक्ताः। विद्याधरा अनुभवन्ति सुखं समृद्धं, धर्मं कुर्वन्ति विमलं च जिनोपदिष्टम् ॥१६२॥ ॥ इति पद्मचरित्रे विद्याधरलोकवर्णनो नाम तृतीय उद्देशकः समाप्तः ॥ १. मणहरधण्णेण-प्रत्य० । २. पज्जलिओ-प्रत्य० । ३. ज्ञायते ! ४. इव । पउम. भा-१/५ For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ४. लोगट्ठिइ-उसभ-माहणाहियारो | अह भयवं तित्थयरो, झाणं मोत्तूण दाणधम्मटे । विहरेऊण पवत्तो, नगरा-ऽऽगरमण्डियं वसुहं ॥१॥ पउमेसु संचरन्तो, गयपुरनयरं कमेण संपत्तो । बहुगुणसयाण निलओ, वसइ निवो जत्थ सेयंसो ॥२॥ मज्झण्हदेसयाले, गोयरचरियाए अभिगओ नयरं । घरपन्तीए भमन्तो, दिट्ठो लोगेण तित्थयरो ॥३॥ चन्दो व्व सोमवयणो, तेएण दिवायरो व्व दिप्पन्तो। लम्बियकरग्गजुयलो, सिरिवच्छविहूसियसरीरो ॥४॥ वरहा-मउड-कुण्डल-मणि-मोत्तियपट्ट-चामराईणि । उवणेइ जणवओ से, न तेसु चित्तं समल्लियइ ॥५॥ केइत्थ गय-तुरङ्गम-रहवर-रयणाइमण्डणाडोवा । पुरओ ठवेन्ति तुट्ठा, चलणपणामं च काऊणं ॥६॥ सव्वङ्गसुन्दरीओ, कन्नाओ पुण्णचन्दवयणाओ। देन्ति जणा सोममणा, भिक्खासण्णं अयाणन्ता ॥७॥ जं जं उवणेइ जणो, तं तं नेच्छड़ जिणो विगयमोहो । लम्बन्तजडाभारो, नरवइभवणं समणुपत्तो ॥८॥ पासायतलत्थो विय, राया दट्टण जिणवरं एन्तं । संभरिय पुव्वजम्मं, पायब्भासं समल्लीणो ॥९॥ श्रेयांसगृहे ऋषभस्य भिक्षाप्राप्तिः - काऊण यतिक्खुत्तो, पयाहिणं सयलपरियणसमग्गो । चलणेसु तस्स पडिओ, हरिसवसुब्भिन्नरोमञ्चो ॥१०॥ [ ४. लोकस्थिति-ऋतभ-माहनाधिकारः - अथ भगवान् तीर्थकरो ध्यानं मुक्त्वा दानधर्मार्थम् । विहर्तुं प्रवृत्तो नगरऽऽकरमंडितां वसुधाम् ॥१॥ 'पद्मेषु संचरन् गजपुरनगरं क्रमेण संप्राप्तः । बहुगुणशतानां निलयो वसति नृपो यत्र श्रेयांसः ॥२॥ मध्याह्नदेशकाले गोचरचर्यायामभिगतो नगरम् । गृहपङ्क्त्यां भ्रमन् दृष्टो लोकेन तीर्थकरः ॥३॥ चन्द्र दव सोम्यवदनस्तेजसा दिवकार इव दिप्यन् । लम्बितकरयुगलः श्रीवत्सविभूषित शरीरः ॥४॥ वरहार-मुकुट-कुण्डल-मणिमौत्किकपट्टचामरादिनि । उपनयति जानपदः स न तेषु चितं समालिनाति ॥५॥ केचिद् गज-तुरङ्गम-रथवर-रत्नादिमण्डनाटोपाः । पुरतः स्थापयन्ति तुष्ठाश्चरणप्रणामं च कृत्वा ॥६॥ सर्वांगसुन्दर्यः कन्याः पूर्णचन्द्रवदनाः । ददति जना सोम्यमनसो भिक्षासंज्ञमजानन्ताः ॥७॥ यधुदुपनयतिजनरस्तत्तन्नेच्छति जिनो विगतमोहः । लम्बज्जटाभार नरपतिभवनं समनुप्राप्तः ॥८॥ प्रासादतलस्थ एव राजा दृष्ट्वा जिनवरमायान्तम् । संस्मृतः पूर्वजन्म पादाभ्यासं समालीनः ॥९॥ श्रेयांसगृहे ऋषभस्य भिक्षाप्राप्तिः - कृत्वा च त्रिकृत्वः प्रदक्षिणं सकलपरिजनसमग्रः । चरणयोस्तस्य पतितो हर्षवशोद्भिन्नरोमाञ्चः ॥१०॥ १. विकृत्वः । २. पद्मेषु संचरन्नित्यत्र केन कारणेन लिखितमेतन्न ज्ञायते । किल भगवतोऽत्र छद्मस्थावस्थायाः प्ररुपणमस्ति । एषोऽतिशयः पुनः केवलज्ञानानन्तरं भवति इति ज्ञातव्यम् । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगट्ठिइ-उसभ-माहणाहियारो-४/१-२२ अह रयणभायणत्थं, अग्धं दाऊण सव्वभावेणं । चलणजुयलप्पणाम, करेइ विमलेण भावेणं ॥११॥ संमज्जिओवलित्ते, उद्देसे तस्स परमसद्धाए । सेयंसनरवरिन्दो, इक्खुरसं देइ परितुट्ठो ॥१२॥ अह वाइउं पयत्तो, वाओ सुहसीयलो सुरहिगन्धो । पडिया य रयणवुट्ठी, कुसुमेहि समं नहयलाओ ॥१३॥ घुटुं च अहो दाणं, दुन्दुहिघणगुरुगभीरसहालं । पत्तो परमब्भुदयं, वरकल्लाणं नरवरिन्दो ॥१४॥ तो अमर-चारणगणा, भणन्ति साधु त्ति परमपुरिस ! तुमे । धम्मरहस्स महाजस ! बीयं चक्कं समुद्धरियं ॥१५॥ एवं काऊण जिणो, पवत्तणं दाणवन्तचरियाए । सयडामुहउज्जाणे, पसत्थजाणं समारूढो ॥१६॥ झायन्तस्स भगवओ, एवं घाइक्खएण कम्माणं । लोगा-ऽलोगपगासं, केवलनाणं समुप्पन्नं ॥१७॥ उप्पन्नम्मि य नाणे, उप्पज्जइ आसणं जिणिन्दस्स । छत्ताइछत्त चामर, तहेव भामण्डलं विमलं ॥१८॥ कप्पडुमो य दिव्वो, दुन्दुहिघोसं च पुष्फवरिसं च । सव्वाइसयसमग्गो, जिणवरड्ढेि समणुपत्तो ॥१९॥ नाऊण समप्पत्ति, केवलनाणस्स आगया देवा । काऊण जिणपणामं, उवविट्ठा सन्निवेसेसु ॥२०॥ ऋषभजिनदेशना - भणियं च गणहरेणं, भयवं जीवा अणन्तसंसारे । परिहिण्डन्ति अणाहा, ताणुत्तारं परिकहेहि ॥२१॥ अह साहिउं पयत्तो, जलहरगम्भीरमहुरनिग्योसो । सुरमणुयमज्झयारे, दुविहं धम्मं जिणवरिन्दो ॥२२॥ अथ रत्नभाजनस्थमयं दत्वा सर्वभावेन । चरणयुग्मप्रणामं करोति विमलेन भावेन ॥११॥ संमार्जितोपलिप्त उद्देशे तस्य परमश्रद्धया । श्रेयांसनरवरेन्द्र इक्षुरसं ददाति परितुष्टः ॥१२॥ अथ वातुं प्रवृत्तो वातः सुखशीतल:सुरभिगन्धः । पतिता च रत्नवृष्टिः कुसुमैः समं नभस्तलात् ॥१३॥ धृष्टं चाहो ! दानं दुन्दुभिधनगुरुगभीरशब्दवत् । प्राप्तः परमभ्युदयं वरकल्याणं नरवरेन्द्रः ॥१४॥ ततोऽमरचारणगणा भणन्ति साध्विति परमपुरुष! । त्वया धर्मरथस्य महायश ! द्वितीयं चक्रं समुद्धरितम् ॥१५॥ एवं कृत्वा जिनः प्रवर्तनं दानवच्चर्यायाः । शकटामुखोधाने प्रशस्त ध्यानं समारुढः ॥१६॥ घ्यायतो भगवतो एवं घातिक्षयेन कर्माणाम् । लोकालोकप्रकाशं केवलज्ञानं समुत्पन्नम् ॥१७॥ उत्पन्ने च ज्ञाने उत्पद्यते आसनं जिनेन्द्रस्य । छत्रातिछत्रं चामरं तथैव भामण्डलं विमलम् ॥१८॥ कल्पद्रुमोऽपि च दिव्यो दुन्दुभिघोषं च पुष्पवर्षं च । सर्वातिशयसमग्रो जिनवरधि समनुप्राप्तः ॥१९॥ ज्ञात्वा समुत्पत्ति केवलज्ञानस्यागता देवाः । कृत्वा जिनप्रणाममुपविष्ठाः स्वस्थानेषु ॥२०॥ ऋषभजिनदेशनाः भणितं गणधरेण भगवन् जीवा अनन्तसंसारे । परिहिण्डन्ति अनाथास्तेषामुत्तारं परिकथय ॥२१॥ अथ कथयितुं प्रवृतो जलधरगम्भीरमधुरनिर्घोषः । सुरमनुष्य मध्ये द्विविधं धर्म जिनवरेन्द्रः ॥२२॥ १. वातुम् । २. विउलं प्रत्य० । ३. स्वस्थानेषु । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ पउमचरियं पञ्च य महव्वयाइं, समिईओ पञ्च तिण्णि गुत्तीओ। एसो हु समणधम्मो, जोगविसेसेण बहुभेओ ॥२३॥ पञ्चाणुव्वयजुत्तो, सत्तहि सिक्खावएहि परिकिण्णो । एसो वि सावयाणं, धम्मो ऊदेसविरयाणं ॥२४॥ धम्मेण लहइ जीवो, सुर- माणुसपरमसोक्खमाहप्पं । दुक्खसहस्सावासं, पावइ नरयं अहम्मेणं ॥२५॥ मेहेण विणा वुट्ठी, न होइ न य बीयवज्जियं सस्सं । तह धम्मेण विरहियं, न य सोक्खं होइ जीवाणं ॥२६॥ जइ वि हु तवं विगिट्टं, करन्ति अन्नाणिया पयत्तेणं । तह वि हु किंकरदेवा, हवन्ति चइया तओ तिरिया ॥२७॥ ते भवसहस्सपउरे, संसारे चाउरङ्गमग्गम्मि । दुक्खाणि अणुहवन्ती, अणन्तकालं परिभमन्त ॥२८॥ जिणवरधम्मं काऊण, निव्वुया होन्ति केइ अहमिन्दा । कप्पालयाहिवत्तं, अवरे पावन्ति दढधम्मा ॥२९॥ वि य निग्गन्थाणं, थुई पउज्जन्ति सव्वभावेणं । ते तस्स फलगुणेणं, न य कुगइपहं पवज्जन्ति ॥ ३० ॥ सोऊण धम्मवणं, जिणवरकहियं नरा - ऽमरसमूहा। सम्मत्तलद्धबुद्धी, संवेगपरायणा मुइया ॥३१॥ केइत्थ समणसीहा, हवन्ति ववगयपरिग्गहा - SSरम्भा । पञ्चाणुव्वयजुत्ता, केई पुण सावया जाया ॥३२॥ एवं सुर-नरवसहा, कहावसाणे जिणं पणमिऊणं । सव्वे परियणसहिया, गया य निययाइँ ठाणाई ॥३३॥ विहरइ जत्थ जिणिन्दो, सो देसो सग्गसन्निहो होइ । जोयणसयं समन्ता, रोगादिविवज्जिओ रम्मो ॥३४॥ अह उससेणपमुहा, चउरासीयं तु गणहरा तस्स । उप्पन्ना य सहस्सा, तावइया चेव समणाणं ॥ ३५ ॥ ताव य चक्कहरत्तं, संपत्तं भरहराइणा सयलं । हयगयजुवइसमग्गो, चउदसरयणाहिवो धीरो ॥३६॥ पञ्च च महाव्रतानि समितयः पञ्च त्रिस्रो गुप्तयः । एष खलु श्रमणधर्मो योगविशेषेण बहुभेदः ||२३|| पञ्चाणुव्रतयुक्तः सप्त शिक्षाव्रतैः परिकीर्णः । एषोऽपि श्रावकाणां धर्मस्तु देशविरतानाम् ॥२४॥ धर्मेन लभते जीवः सुरमनुष्यपरमसौख्यमहात्म्यम् । दुःखसहस्रावासं प्राप्नोति नरकमधर्मेण ॥२५॥ मेधेन विना वृष्टिर्न भवति न च बीजवर्जितं शस्यम् । तथा धर्मेण विरहितं न च सौख्यं भवति जीवानाम् ॥२६॥ यद्यपि खलु तपो विकृष्टं कुर्वन्त्यज्ञानिकाः प्रयत्नेन । तथापि खलु किंकरदेवा भवन्ति च्युत्वा ततस्तिर्यंचः ॥२७॥ ते भवसहस्रप्रचूरे संसारे चातुरङ्गमार्गे । दुःखान्यनुभवन्न्यनन्तकालं परिभ्रमन्त ॥ २८॥ जिनवरधर्मं कृत्वा निर्वृत्ता भवन्ति केऽप्यहमिन्द्राः । कल्पालयाधिपत्यमपरे प्राप्नुवन्ति दृढधर्माः ॥ २९ ॥ येsपि च निर्ग्रन्थानां स्तुतिं प्रयोजयन्ति स्वभावेन । ते तस्य फलगुणेन न च कुगतिपथं प्रव्रजन्ति ॥३०॥ श्रुत्वा धर्मवचनं जिनवरकथितं नराऽमरसमूहाः । सम्यक्त्वलब्धबुद्धयः संवेगपरायणमुदिताः ॥३१॥ केचित् श्रमणसिंहा भवन्ति व्यपगतपरिग्रहाऽऽरम्भाः । पञ्चाणुव्रतयुक्ताः केचित् पुनः श्रावका जाताः ||३२|| एवं सुरनरवृषभाः कथावसाने जिनं प्रणम्य । सर्वे परिजनसहिता गताश्च निजकानि स्थानानि ॥३३॥ विहरति यत्र जिनेन्द्रः स देशः स्वर्गसन्निभो भवति । योजनशतं समन्ताद्रोगादिविवर्जितो रम्यः ||३४|| अथ ऋषभसेन प्रमुखा श्चतुरशीतिस्तु गणधरास्तस्य । उत्पन्नाश्च सहस्रं तावन्तश्चैव श्रमणानाम् ॥३५॥ तदा च चक्रधरत्वं संप्राप्तं भरतराज्ञा सकलम् । हयगजयुवतिसमग्रश्चतुर्दशरत्नाधिपो धीरः ||३६|| For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगट्ठिइ-उसभ-माहणाहियारो-४/२३-४८ उसभजिणस्स भगवओ, पुत्तसयं चन्दसूरसरिसाणं । समणत्तं पडिवन्नं, सए य देहे निरवयक्खं ॥३७॥ तक्खसिलाए महप्पा, बाहुबली तस्स निच्चपडिकूलो । भरहनरिन्दस्स सया, न कुणइ आणा-पणामं सो ॥३८॥ अह रुट्ठो चक्कहरो, तस्सुवरि सयलसाहणसमग्गो । नयरस्स तुरियचवलो, विणिग्गओ सयलबलसहिओ ॥३९॥ पत्तो तक्खसिलपुरं, जयसगुग्घुट्ठकलयलारावो । जुज्झस्स कारणत्थं, सन्नद्धो तक्खणं भरहो ॥४०॥ बाहुबली वि महप्पा, भरहनरिन्दं समागयं सोउं । भडचडयरेण महया, तक्खसिलाओ विणिज्जाओ ॥४१॥ बलदप्पगव्वियाणं, उभयबलाणं रसन्ततूराणं । आभिट्टे परमरणं, नच्चन्तकबन्धपेच्छणयं ॥४२॥ भणिओ य बाहुबलिणा, चक्कहरो किं वहेण लोयस्स ? ।दोण्हं पि होउ जुझं, दिट्ठीमुट्ठीहि रणमझे ॥४३॥ एवं च भणियमेत्ते, दिट्ठीजुझं तओ समन्भिडियं । भग्गो य चक्खुपसरो, पढम चिय निज्जिओ भरहो ॥४४॥ पुणरवि भुयासु लग्गा, एक्वेक्कं कढिणदप्पमाहप्पा । चलचलणपीणपेल्लण-करयलपरिहत्थविच्छोहा ॥४५॥ अद्धतडिजोत्तबन्धण-अवहत्थुव्वत्तकरणनिम्मविया । जुज्झन्ति सवडहुत्ता, अभग्गमाणा महापुरिसा ॥४६॥ एवं भरहनरिन्दो, निहओ भुयविक्कमेण संगामे । तो मुयइ चक्करयणं, तस्स वहत्थं परमरुट्ठो ॥४७॥ विणिवायणअसमत्थं, गन्तूण सुदरिसणं पडिनियत्तं । भुयबलपरक्कमस्स वि संवेगो तक्खणुप्पन्नो ॥४८॥ ऋषभजिनस्य भगवतः पुत्रशतं चन्द्रसूर्यसदृशम् । श्रमणत्वं प्रतिपन्नं स्वे च देहे निरपेक्षम् ॥३७॥ तक्षशिलायां महात्मा बाहुबलिस्तस्य नित्यप्रतिकूलः । भरतनरेन्द्रस्य सदा न करोत्याज्ञा प्रणामं सः ॥३८॥ अथ रुष्टचक्रधरस्तस्योपरि सकलसाधनसमग्रः । नगरात् त्वरितचपलो विनिर्गतः सकलबलसहितः ॥३९॥ प्राप्तस्तक्षशिलापुरं, जयशब्दोधृष्टकलकलारावः । युद्धस्य कारणार्थ, सन्नद्धस्तत्क्षणं भरतः ॥४०॥ बाहुबल्यपि महात्मा भरतनरेन्द्र समागतं श्रुत्वा । भटसमूहेन महता तक्षशिलातो विनिर्यात् ॥४१॥ बलदर्पगर्वितानामुभयबलानां वाद्यत्तूर्याणाम् । प्रवृत्तं परमरणं नृत्यत्कबन्धप्रेक्षणकम् ॥४२॥ भणितश्च बाहुबलिना चक्रधरः किं वधेन लोकस्य । द्वयोरपि भवतु युद्धं दृष्टिमुष्टिभी रणमध्ये ॥४३॥ एवं भणितमात्रे दृष्टियुद्धं ततः संघटितम् । भग्नश्च चक्षुः प्रसरः प्रथममेवं निर्जितो भरतः ॥४४॥ पुनरपि भुजयोर्लग्नावेकैकं कठिनदर्पमहात्मानौ । चलचरणपीनक्षेपणकरतलपरिहस्तविक्षोभौ ॥४५॥ अर्धतडिद्योक्त्रबंधनापहस्तोद्ववर्तकरणनिर्मापितौ । युध्यतः संमुखौ अभग्नमानौ महापुरुषौ ॥४६॥ एवं भरतनरेन्द्रो निहत भुजविक्रमेण संग्रामे । ततो मुञ्चति चक्ररत्रं तस्य वधार्थं परमरुष्टः ॥४७॥ विनिपादनासमर्थं गत्वा सुदर्शनं प्रतिनिवृतम् । भुजबलपराक्रमस्यापि संवेगस्ततक्षण उत्पन्नः ॥४८॥ १. विनिर्यातः । २. प्रवृत्तम् । For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं बाहुबलिदीक्षा - जंपइ अहो ! अकज्जं, जं जाणन्ता वि विसयलोभिल्ला । पुरिसा कसायवसगा, करेन्ति एक्कक्कमवि रोहं ॥४९॥ छारस्स कए नासेन्ति, चन्दणं मोत्तियं च दोरत्थे । तह मणुयभोगमूढा, नरा वि नासन्ति देवि४ि॥५०॥ मोत्तुं कसायजुझं, संजमजुज्झेण जुज्झिमो इण्हि । परिसहभडेहि समयं, जाव ठिओ उत्तमट्टम्मि ॥५१॥ नमिऊण जिणवरिन्दं, लोयं काऊण तत्थ बाहुबली । वोसिरियसव्वसङ्गो, जाओ समणो समियपावो ॥५२॥ काऊण सिरपणाम, चक्कहरो भणइ महुरवयणेहिं । मा गेण्हसु पव्वज्जं, भुञ्जसु रज्जं महाभागं ॥५३॥ संवच्छरपडिमत्थं, बाहुबली पणमिऊण चक्कहरो । सयलबलेण समग्गो, साएयपुरि समणुपत्तो ॥५४॥ बाहुबली वि महप्पा, उप्पाडिय केवलं तवबलेणं । निट्ठवियअट्ठकम्मो, दुक्खविमोक्खं गओ मोक्खं ॥५५॥ भरतस्य ऋद्धिः - भरहो वि चक्कवट्टी, एगच्छत्तं इमं भरहवासं । भुञ्जइ भोगसमिद्धि, इन्दो इव देवलोगम्मि ॥५६॥ विज्जाहरनयरसमा, गामा नयरा वि देवलोगसमा । रायसमा गिहवइणो, धणयसमा होन्ति नरवइणो ॥५७॥ चउसट्ठि सहस्साइं, जुवईणं परमरूवधारीणं । बत्तीसं च सहस्सा, राईणं बद्धमउडाणं ॥५८॥ मत्तवरवारणाणं, चउरासीइं च सयसहस्साई । तावइया परिसंखा, रहाण धय-छत्तचिन्धाणं ॥५९॥ बाहुबलिदीक्षा - जल्पत्यहो ! अकार्यं यज्जानन्तोऽपि विषयलोभवन्तः । पुरुषाः कषायवशगाः कुर्वन्त्येकैकमपि रोधम् ॥४९॥ क्षारस्य कृते नश्यन्ति चन्दनं मौक्तिकं च दवरकार्थे । तथा मनुष्यभोगमूढा नरा अपि नाशयन्ति देवद्धिम् ॥५०॥ मुक्त्वा कषाययुद्धं संयमयुद्धेन युध्यामोऽधुना। परिषहभटैः समं यावत्स्थित उत्तमार्थे ॥५१॥ नत्वा जिनवरेन्द्रं लोचं कृत्वा तत्र बाहुबलिः । व्युत्सृष्ट सर्वसङ्गो जातः श्रमणः समितपापः॥५२॥ कृत्वा शिरप्रणामं चक्रधरो भणति मधुरवचनैः । मा गृहाण प्रवज्यां भुंक्ष्व राज्यं महाभोगम् ॥५३॥ संवत्सरप्रतिमास्थं बाहुबलि प्रणम्य चक्रधरः । सकलबलेन समग्रः साकेतपुरि समनुप्राप्तः ॥५४॥ बाहुबल्यपि महात्मोत्पादित केवलं तपोबलेन । निष्ठापिताष्टकर्मा दुःखविमोक्षं गतो मोक्षम् ॥५५॥ भरतस्य ऋद्धिःभरतोऽपि चक्रवकछत्रमिदं भरतवर्षम् । भुनक्ति भोगसमृद्धिमिन्द्र इव देवलोके ॥५६॥ विद्याधरनगरसमा ग्रामा नगरा अपि च देवलोकसमाः । राज समा गृहपतयो धनदसमा भवन्ति नरपतयः ॥५७॥ चतुषष्ठिसहस्राणि युवतीनां परमरुपधारीणाम् । द्वात्रिंशच्च सहस्राणि राज्ञां बद्धमुकुटानाम् ।।५८॥ मत्त वरवारणानां चतुरशीतिश्च शतसहस्राणि । तावती परिसंख्या रथानां ध्वजछत्रचिह्नानाम् ।।५९॥ १. महाभोगं० मु०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगट्ठि -उसभ-माहणाहियारो - ४/४९-७१ अट्ठारस कोडीओ, तुरयाणं पवरवेगदच्छाणं । किंकरनरनारीणं, को तस्स करेज्ज परिसंखा ॥ ६० ॥ चोद्दस य महारयणा, नव निहओऽणेगभण्डपरिपुण्णा । जल-थलरयणावासा, रक्खिज्जन्ते सुरगणेहिं ॥ ६१ ॥ पुत्ताण य पञ्च सया, अमरकुमारोवभोगदुल्ललिया । भरहस्स चक्कवइणो, रज्जविभूइं समणुपत्ता ॥६२॥ जय जीहास, बुद्धिविभागो हवेज्ज वित्थिण्णो । सो वि मणूसो न तरड़, तस्स कहेउं सयलरज्जं ॥६३॥ ब्राह्मणानामुत्पत्तिः - अह एवं परिकहिए, पुणरवि मगहाहिवो पणमिऊणं । पुच्छइ गणहरवसहं, मणहरमहुरेहि वयणेहिं ॥६४॥ वण्णाण समुप्पत्ती, तिहं पि सुया मए अपरिसेसा । एत्तो कहेइ भयवं, उप्पत्ती सुत्तकण्ठाणं ॥ ६५ ॥ हिंसन्ति सव्वजीवे, करेन्ति कम्मं सया मुणिविरुद्धं । तह विय वहन्ति गव्वं, धम्मनिमित्तम्मि काऊणं ॥६६॥ एवं च भणियमेत्ते, गणहरवसहो कहेइ भूयत्थं । निसुणेहि ताव नरवइ, एगमणो माहणुप्पत्तिं ॥६७॥ साएयपुरवरीए, एगन्ते नाभिनन्दणो भयवं । चिट्ठइ सुसङ्घसहिओ, ताव य भरहो समणुपत्तो ॥ ६८ ॥ "पणउत्तमङ्गमग्गो, करजुयलं करिय तस्स पामूले । तो भणइ चक्कवट्टी, वयणमिणं मे निसामेह ॥६९॥ भयवं ! अणुग्गहत्थं, करन्तु समणा इमे समियपावा । भुञ्जन्तु मज्झ गेहे, परिसुद्धं फासुयाहारं ॥७०॥ तो भइ जिणवरिन्दो, भरह न कप्पइ इमो उ आहारो । समणाण संजयाणं, कीयगडुद्देसनिप्फण्णो ॥७१॥ अष्टादशकोट्यस्तुरगाणां पवरवेगदक्षाणाम् । किंकरनरनारीणां कस्तस्य कूर्यात् परिसंख्या ॥६०॥ चतुर्दशमहारत्नानि नवनिधयोऽनेकभाण्डपरिपूर्णाः । जल-स्थलरत्नावासा रक्ष्यन्ते सुरगणैः ॥ ६१॥ पुत्राणां च पञ्चशतान्यमरकुमारोपभोगदुर्ललितानि । भरतस्य चक्रववत्तिनो राज्यविभूतिः समनुप्राप्ता ॥६२॥ यस्य च जिव्हानां शतं बुद्धिविभगो भवेद्विस्तीर्णः । सोऽपि मनुष्यो न तरति तस्य कथयितुं सकलराज्यम् ॥६३॥ ब्राह्मणानामुत्पत्तिः अथैवं परिकथिते पुनरपि मगधाधिपः प्रणम्य । पृच्छति गणधरवृषभं, मनोहरमधुरैर्वचनैः ॥६४॥ वर्णानां समुत्पत्तिस्त्रयाणामपि श्रुता मयापरिशेषाः । इत कथयतु भगवन्नुत्पत्तिं सूत्रकण्ठानाम् ॥६५॥ हिन्सन्ति सर्वजीवान् कुर्वन्ति कर्म सदा मुनिविरुद्धम् । तथापि वहन्ति गर्वं धर्मनिमित्तं कृत्वा ॥६६॥ एवं च भणितमात्रे गणधरवृषभः कथयति भूतार्थम् । निःश्रुणु तावन्नरपते ! एकमना माहनोत्पत्तिः ॥६७॥ साकेतपुरवर्यामेकान्ते नाभिनन्दनो भगवान् । उपतिष्ठति सुसङ्घसहितस्तदा च भरतः समनुप्राप्तः ||६८|| प्रणतोत्तमाङ्गाग्रः करयुगलं कृत्वा तस्य पादमूले । तदा भणति चक्रवर्ती वचनमिदं मम निशम्यताम् ॥ ६९॥ भगवन्ननुग्रहार्थं कुर्वन्तु श्रमणा इमे समितपापाः । भुञ्जेरन् मम गृहे परिशुद्धं प्रासुकाहारम् ॥७०॥ तदा भणति जिनवरेन्द्रो भरत ! न कल्प्यतेऽयमाहारस्तु । श्रमणानां संयतानां क्रीतकृतोद्देशनिष्पन्नः ॥७१॥ १. प्रणतोत्तमाङ्गाग्रः । २. कृत्वा । For Personal & Private Use Only ३९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पउमचरियं एवं सुणित्तु वयणं, राया चिन्तेइ तग्गयमणेणं । उग्गं तवोविहाणं चरन्ति समणा समियमोहा ॥७२॥ न य भुञ्जन्ति महरिसी, मह गेहे मग्गिया वि पुणरुत्तं । तो सावयाण दाणं, देमि फुडं अन्न-पाणाइ ॥७३॥ एते वि य गिहिधम्मे, पञ्चाणुव्वयगुणेसु उवउत्ता। भुञ्जावेमि य बहुसो, होही दाणस्स पुण्णफलं ॥७४॥ सद्दाविया य तेणं, सायारचरित्तधारिणो सव्वे । तुरियं च समल्लीणा, मिच्छत्ताई नरा तइया ॥५॥ न य ते रियन्ति भवणं, दटुं जव-वीहियङ्करे पुरओ । कागिणिरयणेण तओ, सुत्तं चिय सावयाण कयं ॥७६॥ तो अन्न-पाण-दाणाऽऽसणेसु संपूईयाण उप्पन्नं । गव्वं चिय अइतुझं, वहन्ति इत्थं कयत्थऽम्हे ॥७७॥ मइसायरेण भणिओ, भरहनरिन्दो सहाए मज्झम्मि । जह जिणवरेण भणियं, तं एक्कमणो निसामेहि ॥७८॥ जाणं तुमे नराहिव ! सम्माणो पढमसावयाणकओ। ते वीरस्सऽवसाणे, होहिन्ति कुतित्थपासण्डा ॥७९॥ अलियवयणेसु सत्थं, काऊणं वेयनामधेयं ते । हिंसाभासणमित्तं, जन्नेसु पसू वहिस्सन्ति ॥८॥ विवरीयवित्तिधम्मा, आरम्भ-परिग्गहेसु अणियत्ता । सयमेव मूढभावा, सेसं पि जणं विमोहेन्ति ॥८१॥ सोऊण वयणमेयं, परिकुविओ नरवई भणइ एवं । सिग्घं चिय नयराओ, सव्वे वि करेह निद्देसा ॥८२॥ लोगेण हम्ममाणा, सरणं तित्थंकरं समल्लीणा । तेण य निवारिया ते, पत्थरपहरेसु हम्मन्ता ॥८३॥ मा हणसु पुत्त ! एए, जं उसहजिणेण वारिओ भरहो । तेण इमे सयले च्चिय, वुच्चन्ति य माहणा लोए ॥८४॥ जे वि य ते पढमयरं, पव्वज्जं गेण्हिऊण परिवडिया । ते वक्कलपरिहाणा, तासपासण्डिणो जाया ॥८५॥ एवं श्रुत्वा वचनं राजा चिन्तयति तद्गतमनसा । उग्रं तपोविधानं चरन्ति श्रमणाः समितमोहाः ॥७२॥ न च भुञ्जते महर्षयो मम गृहे मागिता अपि पुनरुक्तम् । ततः श्रावकेभ्यो दानं ददामि स्फुटमन्नपानादि ॥७३॥ एते ऽपि च गृहधर्मे पञ्चाणुव्रतगुणेष्वुपयुक्ताः । भोजये च बहुशो भविष्यति दानस्य पुण्यफलम् ॥७४॥ शब्दायिताश्च तेन साकार चारित्रधारिणः सर्वे । त्वरीतं च समालीनाः मिथ्यात्वादयो नरास्तदा ॥७५।। न च ते प्रविशन्ति भवनं दृष्टवा यव-व्रीह्यङ्करान् पुरतः । काकिणी रत्नेन ततः सूत्रं चैव श्रावकाणां कृतम् ॥७६।। तदान-पान-दानाऽऽसनैः संपूजितानामुत्पन्नम् । गर्वं चैवात्युत्तुगं वहन्तीति कुतार्था वयम् ।।७७॥ मतिसागरेण भणितो भरतनरेन्द्रः सभायां मध्ये । यथा जिनवरेण भणितं तदेकाग्रमना निशामय ॥७८॥ येषां त्वया नराधिप ! सन्मानः प्रथमः श्रावकाणां कृतः । ते वीरस्यावसाने भविष्यन्ति कुतीर्थपाखण्डिनः ॥७९॥ अलिकवचनैः शास्त्रं कृत्वा वेदनामधेयं ते । हिंसाभाषणमात्रं यज्ञेषु पशुं हनिष्यन्ति ॥८०॥ विपरितवृत्तिधर्माण आरम्भपरिग्रहेष्वनिवृत्ताः । स्वयमेव मूढभावाः शेषमपि जनं विमोहयन्ति ॥८१॥ श्रुत्वा वचनमेतत् परिकुपितो नरपति भणत्येवम् । शीघ्रमेव नगरात्सर्वेऽपि कुरुत निर्देशाः ॥८२॥ लोकेन हन्यमानाः शरणं तीर्थकरं समालीनाः । तेन च निवारितास्ते प्रस्तरप्रहारै हैन्यमानाः ॥८३॥ मा हण पुत्र एते यदृषभजिनेन वारितो भरतः । तेनेमे सकला एवोच्यन्ते च माहणा लोके ॥८४॥ येऽपि च ते प्रथमतरं प्रव्रज्यां गृहीत्वा परिपतिताः । ते वल्कलपरिधानास्तापसपाखण्डिनो जाताः ॥८५।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगट्ठिइ-उसभ-माहणाहियारो-४/७२-९० ताण य सीस-पसीसा, मोहेन्ता जणवयं कुसत्थेसु । भिग्गङ्गिरमादीया, जाया बीजं वसुमईए ॥८६॥ एसा ते परिकहिया, उप्पत्ती माहणाण भूयत्थं । एत्तो सुणसु नराहिव, पुरदेवजिणस्स निव्वणं ॥८७॥ भयवं तिलोयनाहो, धम्मपहं दरिसिऊण लोगस्स । अट्ठावयम्मि सेले, निव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥४८॥ भरहो वि चक्कवट्टी, तिणमिव चइऊण रायवरलच्छी । जिणवरपहपडिवन्नो, अव्वाबाहं सिवं पत्तो ॥८९॥ एवं मए सेणिय ! तुज्झ सिट्ठा, लोगट्ठिई पुव्वजणाणुचिण्णा। सुणाहि एत्तो विमलप्पहावा, चत्तारि नामेहि नरीन्दवंसा ॥१०॥ ॥ इति पउमचरिए लोगट्ठिइ-उसभ-माहणाहिगारो नाम चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ तेषाञ्च शिष्य-प्रशिष्या मोहयन्तो जानपदं कुशास्त्रैः । भृग्वंगिरसादिका जाता बीजं वसुमत्याम् ॥८६॥ एषा तव परिकथिता उत्पत्ति हिणानां भूतार्थम् । इतः श्रुणु नराधिप ! पुरदेवजिनस्य निर्वाणम् ।।८७॥ भगवांस्त्रिलोकनाथो धर्मपथं दर्शयित्वा लोकस्य । अष्टापदे शैले निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः ॥८८॥ भरतोऽपि चक्रवर्ती तृणमिव त्यक्त्वा राजवरलक्ष्मीः । जिनवरपथ प्रतिप्रन्नोऽव्याबाध शिवं प्राप्तः ।।८९।। एवं मया श्रेणिक ! तुभ्यं शिष्टा लोकस्थितिः पूर्वजनानुचीर्णाः । श्रुणुयादितो विमलप्रभावांश्चत्वारो नाम्ना नरेन्द्रवंशान् ॥१०॥ ॥ इति पद्मचरिते लोकस्थिति-ऋषभ-माहणाधिकारो नाम चतुर्थ उद्देशः समाप्तः ॥ १. कुसत्थेहि-प्रत्यं०। पउम.भा-१/६ Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५. रक्खसवंसाहियारो । चत्तारि महावंसा, नरवइ पुहइम्मि जे उविक्खाया। ताणं पुण बहुभेया, हवन्ति अवरस्स संजुत्ता ॥१॥ इक्खाग पढमवंसो, बिइओ सोमो य होइ नायव्यो । विज्जाहराण तइओ, हवइ चउत्थो उहरिवंसो ॥२॥ इक्ष्वाकुवंशःभरहस्स पढमपुत्तो, आइच्चजसो त्ति नाम विक्खाओ । तस्स य सीहजसो च्चिय, पुत्तो तस्सेव बलभद्दो ॥३॥ वसुबल महाबलो चिय, अमियबलो चेव होइ नायव्वो । जाओ सुभद्दनामो, सायरभद्दो य रवितेओ ॥४॥ ससिपहपभूयतेओ, तेयस्सी तावणो पयावी य । अइविरिओ य नरिन्दो, तस्स य पुत्तो महाविरिओ ॥५॥ उइयपरक्कमनामो, तस्स वि य महिन्दविक्कमो पुत्तो । सूरो इन्दजुइण्णो, महइ महाइन्दई राया ॥६॥ तत्तो पभू बिभू वि य, अरिदमणो चेव वसहकेऊ य । राया वि य गरुडङ्को, तह य मियङ्को समुप्पन्नो ॥७॥ एते नरवरवसहा, पुहई दाऊण निययपुत्ताणं । निक्खन्ता खायजसा, सिवमयलमणुत्तरं पत्ता ॥८॥ एसो ते परिकहिओ, आइच्चज साइसंभवो वंसो । एत्तो सुणाहि नरवर ! उप्पत्ती सोमवंसस्स ॥९॥ । ५. राक्षसवंशाधिकारः ) चत्वारो महावंशा नरपते ! पृथिव्यां ये तु विख्याताः । तेषां पुनर्बहुभेदा भवन्त्यपरस्य संयुक्ताः ॥१॥ इक्ष्वाकुः प्रथमवंशो द्वितीयः सोमश्च भवति ज्ञातव्यः । विद्याधराणां तृतीयो भवति चतुर्थस्तु हरिवंशः ॥२॥ इक्ष्वाकुवंशःभरतस्य प्रथमपुत्र आदित्ययशा इति नाम विख्यातः । तस्य च सिंहयशाश्चैव पुत्रस्तस्यैव बलभद्रः ॥३॥ वसुबलो महाबल एवामितबल एव भवति ज्ञातव्यः । जातः सुभद्रनामा, सागरभद्रश्च रवितेजाः ॥४॥ शशीप्रभः प्रभुततेजास्तेजस्वी तापनः प्रतापी च । अतिवीर्यश्च नरेनद्रस्तस्य च पुत्रो महावीर्यः ॥५॥ उदितपराक्रमनामा तस्यापि च महेन्द्रविक्रमः पुत्रः । सूर्य इन्द्रद्युम्नो महान् महेन्द्रजिद्राजा ॥६॥ ततः प्रभुविभुरपि चारिदमन एव वृषभकेतुश्च । राजापि च गरुडाकस्तथा च मृगाङ्कः समुत्पन्नः ॥७॥ एते नरवृषभाः पृथिवीं दत्वा निजपुत्रेभ्यः । निष्क्रान्ताः ख्यातयशसः शिवमचलमनुत्तरं प्राप्ताः ॥८॥ एष तुभ्यं परिकथित आदित्ययशसादिसंभवो वंशः । इतः श्रुणु नरवर ! उत्पत्तिः सोमवंशस्य ॥९॥ १. व्जसस्स संभवो-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसवंसाहियारो-५/१-२० सोमवंशःउसभस्स बीयपुत्तो, बाहुबली आसि विक्खाओ । तस्स य महप्पभावो, पुत्तो सोमप्पभो नाम ॥१०॥ एत्तो महाबलो चिय, सुबलो बाहुबलि एवमाईया । सोमप्पहस्स वंसे, उप्पन्ना नरवई बहुसो ॥११॥ केएद्यस्रथ गया मोक्खं, पव्वज्जं गिण्हिऊण धुयकम्मा ।अवरे पुण देवत्तं, पत्ता तव-संजमबलेणं ॥१२॥ एवं तु सोमवंसो, नरवइ ! कहिओ मए समासेणं । विज्जाहराण वंसं, भणामि एत्तो निसामेहि ॥१३॥ विद्याधरवंश:नामेण रयणमाली, नमिरायसुओ महाबलसमिद्धो । तस्स वि य रयणवज्जो, रयणरहो चेव उप्पन्नो ॥१४॥ जाओ य रयणचित्तो, चन्दरहो वज्जसङ्घनामो य । सेणो य वज्जदत्तो, राया वज्जद्धओ जाओ ॥१५॥ वज्जाउहो य वज्जो, सुवज्ज वज्जंधरो महासत्तो । वज्जाभ वज्जबाहू, वज्जङ्को नाम विक्खाओ ॥१६॥ अह वज्जसुन्दरो वि य, वज्जासो वज्जपाणिराया य । उप्पनो य नरवई, वज्जसुजण्हू य वज्जो य ॥१७॥ विज्जूमुहो सुवयणो, राया तह विज्जुदंऽनामो य । विज्जू य विज्जुतेओ, तडिवेओ विज्जुदाढी य ॥१८॥ एए खेयरवसहा, विज्जा-बल-सिद्धिसारसंपण्णा । दाऊण रायलच्छी, सुएसु कालेण वोलीणा ॥१९॥ अह अन्नया कयाई, दोसु वि सेढीसु सामिओ राया। नामेण विज्जुदाढो, अवरविदेहं गओ सहसा ॥२०॥ सोमवंशःऋषभस्य द्वितीयपुत्रो बाहुबली नामासीद्धिख्यातः । तस्य च महाप्रभावः पुत्रः सोमप्रभो नामा ॥१०॥ इतो महाबल एवं सुबलो बाहुबली एवमादिकाः । सोमप्रभस्य वंशे उत्पन्ना नरपतयो बहुशः ॥११॥ केचिद्गता मोक्षं प्रव्रज्यां गृहीत्वा द्युतकर्माणः । अपरे पुनर्देवत्वं प्राप्तास्तपः संयमबलेन ॥१२॥ एवन्तु सोमवंशो नरपते ! कथितो मया समासेन । विद्याधराणां वंशं भणामीतो निशामय ॥१३॥ विद्याधरवंश:नाम्ना रत्नमाली नमि राजसुतो महाबलत्समृद्धः । तस्यापि च रत्नवज्रो रत्नरथ श्चैवोत्पन्नः ॥१४॥ जातश्च रत्नचित्रश्चन्द्ररथो वज्रसय नामा च । सेनश्च वज्रदत्तो राजा वज्रध्वजो जातः ॥१५॥ वज्रायुधश्च वज्रः सुवज्रो वज्रंधरोमहासत्त्वः । वज्राभो वज्रबाहु वज्राङ्को नाम विख्यातः ॥१६॥ अथ वज्रसुन्दरोऽपि च वज्रास्यो वज्रपाणिराजा च । उत्पन्न श्च नरपति र्वज्रसुजगु श्च वज्रश्च ॥१७॥ विद्युन्मुखः सुवदनो राजा तथा विद्युदंऽनामा च । विद्युच्च विद्युत्तेजास्तडिद्वेगो विद्युद्दाढश्च ॥१८॥ एवं खेचरवृषभा विद्या-बल-सिद्धिसारसंपन्नाः । दत्त्वा राजलक्ष्मी सुतेभ्यः कालेन गताः ॥१९॥ अथान्यदा कदाचिद् द्वयोरपि श्रेण्योः स्वामी राजा । नाम्ना विद्युदाढो ऽपरविदेहं गतः सहसा ॥२०॥ १. सुवण्हू-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं दिट्ठो य संजयन्तो, तेण भमन्तेण जोगमारूढो । घेत्तूण पावगुरुणा, इहाणिओ पञ्चसंगमयं ॥२१॥ ठविऊण गिरिवरिन्दे, पत्थरपहरेहि खेयरसमग्गो । आहणइ निरणुकम्पो, तह वि य जोगं न छड्डेइ ॥२२॥ उवसग्गम्मि बहुविहे, तस्स सहन्तस्स जोगजुत्तस्स । समचित्तस्स भगवओ, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥२३॥ एयम्मि देसकाले, धरणिन्दो आगओ मुणिसयासं । नमिउण तस्स चलणे, विज्जाकोसं तओ हरड़ ॥२४॥ जिणभवण-मुणिवराणं, उवरिंगच्छेज्ज जो बलुम्मत्तो । सो विज्जापरिभट्ठो, होही विज्जाहरो नियमा ॥२५॥ काउण समयमेयं, विज्जाओ समप्पिऊण धरणिन्दो । पुच्छइ मुणिवरवसहं, घोरुवसग्गस्स संबन्धं ॥२६॥ अह भणई संजयन्तो, चउगइवित्थिण्णदीहसंसारे । गामे उसयडनामे, कह वि भमन्तो समुप्पन्नो ॥२७॥ वणियकुलम्मि हियकरो, नामेण अहं सुसाहुपडिसेवी । अज्जव-मद्दवजुत्तो, जाओ परिणामजोगेणं ॥२८॥ कालं काऊण तओ, कुसुमावइसामिओ समुप्पन्नो । सिरिवद्धणो त्ति नामं, जाओ हं नरवई तइया ॥२९॥ तत्थेव आसि गामे, विप्पो सो कुच्छियं तवं काउं। कालगओ सुरलोए, देवो अप्पिड्डिओ जाओ ॥३०॥ तत्तो चुओ समाणो, जलणसिहो बम्भणो समुप्पन्नो । सिरिवद्धणस्स तइया, पुरोहिओ सच्चवाई सो ॥३१॥ वणियस्स तेण दव्वं.अवलत्तं तत्थ नियमदत्तस्स । गणियाए तओ विप्पो.नामामहं जिओ जए॥ ३२॥ गन्तूण तस्स गेहं, नामामुद्दच्छलेण रयणाई । चेडीए आणिऊणं, समप्पियाइं च वणियस्स ॥३३॥ घेत्तूण य सव्वस्सं, विप्पो निव्वासिओ पुरवराओ । वेरग्गसमावन्नो, काऊण तवं समाढत्तो ॥३४॥ दृष्टश्च संजयन्तस्तेन भ्रमता योगमारुढः । गृहीत्वा पापगुरुणेहानितः पञ्च संगमकम् ॥२१॥ स्थाप्य गिरिवरेन्द्र प्रस्तरप्रहारैः खेचरसमग्रः । आहन्ति निरनुकम्पस्तथापि च योगं न मुञ्चति ॥२२॥ उपसर्गान् बहुविधान् तस्य सहतो योगयुक्तस्य । समचित्तस्य भगवत उत्पन्नं केवलं ज्ञानम् ॥२३॥ एतस्मिन्देशकाले धरणेन्द्र आगतो मुनिसकाशम् । नत्वा तस्य चरणयो विद्याकोशं ततो हरति ॥२४|| जिनभवन-मुनिवराणामुपरि गच्छेद्यो बलोन्मत्तः । स विद्यापरिभ्रष्टो भविष्यति विद्याधरो नियमा ॥२५॥ कृत्वा समयमेनं विद्याः समर्प्य धरणेन्द्रः । पृच्छति मुनिवरवृषभं घोरोपसर्गस्य सम्बन्धम् ॥२६॥ अथ भणति संजयन्तो चतुर्गतिविस्तीर्णदीर्घसंसारे । ग्रामे तु शकटनाम्नि कथमपि भ्रमन् समुत्पन्नः ॥२७॥ वणिक् कुले हितकरो नाम्नाहं सुसाधुप्रतिसेवी । आर्जव-मार्दवयुक्तो जातः परिणामयोगेन ॥२८॥ कालं कृत्वा ततः कुसुमावती स्वामी समुत्पन्नः । श्रीवर्धन इति नाम, जातोऽहं नरपति स्तदा ।।२९।। तत्रैवासीद्ग्रामे विप्रः स कुत्सितं तपः कृत्वा । कालगतः सुरलोके देवोऽल्पद्धिको जातः ॥३०॥ ततश्च्युतः सन् ज्वलनसिंहो ब्राह्मणः समुत्पन्नः । श्रीवर्धनस्य तदा पुरोहितः सत्यवादी स ॥३१॥ वणिजस्तेन द्रव्यमपलपितं तत्र नियमदत्तस्य । गणिकया ततो विप्रो नाममुद्रं जितो छुते ॥३२॥ गत्वा तस्य गृहे नाममुद्राच्छलेन रत्नानि । चेट्याऽऽनयित्वा समर्पितानि च वणिजः ॥३३॥ गृहीत्वा च सर्वस्वं विप्रो निर्वासितः पुरवरात् । वैराग्यसमापन्नः कर्तुं तपः समारब्धः ॥३४॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसवंसाहियारो-५/२१-४७ मरिऊण य माहिन्दे, देवो होऊण वरविमाणम्मि । तत्तो चुओ समाणो, उप्पन्नो विज्जुदाढो त्ति ॥३५॥ सिरिवद्धणो वि य तवं, काउं देवत्तणाउ चविऊणं । अवरविदेहम्मि तओ, जाओ हं संजयन्तमुणी ॥३६॥ तेणाणुबन्धजणिओ, कोवग्गी दरिसणिन्धणाइण्णो। विज्जाहरस्स एण्हि, उवसग्गनिहेण पज्जलिओ ॥३७॥ जो आसि नियमदत्तो, सो विहु धम्मं पुणो समज्जेउं। मरिऊण तुमं एसो, धरणिन्दत्ते समुप्पन्नो ॥३८॥ सोऊण पगयमेयं, खामेऊण मुणिं सधरणिन्दं । परिचयइ विसयसोक्खं, दिक्खाभिमुहो निवो जाओ ॥३९॥ धरणिन्दो मुणिवसहं, काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो । सव्वपरिवारसहिओ, निययट्ठाणं गओ सहसा ॥४०॥ अह तत्थ विज्जुदाढस्स नन्दणो दढरहो त्ति नामेणं । तस्स वि य पट्टबन्धे, काऊण तवं गओ मोक्खं ॥४१॥ तत्तो य आसधम्मो, जाओ अस्सायरो कुमारवरो । आसद्धओ नरिन्दो, पउमनिहो पउममाली य ॥४२॥ पउमरह सीहवाहो, मयधम्मो मेहसीह संभूओ । सीहद्धओ ससङ्को, चन्दको चन्दसिहरो य ॥४३॥ इन्दरहो चन्दरहो, ससङ्कधम्मो य आउहो चेव । रत्तोट्ठो हरिचन्दो, पुरचन्दो पुण्णचन्दो य ॥४४॥ बलिन्द चन्दचूडो, गयणिन्दु दुराणणो नरवरिन्दु । राया य एकचूडो, दोचूड तिचूड चउचूडो ॥४५॥ जाओ य वज्चूडो, बहुचूडो सीहचूडनामो य । जलणजडि अक्तेओ, एवं विज्जाहरा बहुसो ॥४६॥ केएत्थ गया मोक्खं, अन्ने पुण वरविमाणवासेसु । उववन्ना गुणपुण्णा, जिणवरधम्माणुभावेणं ॥४७॥ मृत्वा च माहिन्द्रे देवो भूत्वा वरविमाने । ततश्च्युतः समुत्पन्नो विद्युद्दाढ इति ॥३५॥ श्रीवर्धनोऽपि च तपं कृत्वा देवत्त्वाच्च्युत्वा । अरविदेहे ततो जातोऽहं संजयन्त मुनिः ॥३६।। तेनानुबन्धजनित: कोपाग्निदर्शनेन्धनाकीर्णः । विद्याधरस्येदानीमपसर्गनिभेन प्रज्ज्वलितः ॥२७॥ य आसीनियमदत्तः सोऽपि हु धर्मं पुनः समW । मृत्वा त्वमेष धरणेन्द्रत्वेन समुत्पन्नः ॥३८॥ श्रुत्वा प्रगटमेतत् क्षामयित्वा मुनि सधरणेन्द्रम् । परित्यजति विषयसुखं दिक्षाभिमुखो नृपो जातः ॥३९॥ धरणेन्द्रो मुनिवृषभं कृत्वा प्रदक्षिणं च त्रिकृत्वः । सर्वपरिवारसहितो निजस्थानं गतः सहसा ॥४०॥ अथ तत्र विद्युद्दाढस्य नन्दनो दृढरथ इति नाम्ना । तस्यापि च पट्टबन्धं कृत्वा तपो गतो मोक्षम् ॥४१॥ ततश्चाश्वधर्मा जातोऽश्वादर: कुमारवरः । अश्वध्वजो नरेन्द्रः पद्मनिभः पद्ममाली च ॥४२॥ पद्मरथः सिंहवाही मृगधर्मा मेघसिंहः संभूतः । सिंहध्वजः शशाङ्कश्चन्द्राङ्कश्चन्द्रशिखरश्च ॥४३॥ इन्द्ररथश्चन्द्ररथः शशाङ्कधर्मा चायुधश्चैव । रक्तोष्ठो हरिश्चन्द्रः पुरचन्द्रः पूर्णचन्द्रश्च ॥४४॥ बालेन्दुश्चन्द्रचूडो गगनेन्दु र्दुराननो नरवरेन्दुः । राजा चैकचूडो द्विचूड स्त्रिचूङश्चतुश्चूडः ॥४५॥ जातश्च वज्रचूडो बहूचूड: सिंहचूडनामा च । ज्वलनजटी अर्कतेजा एवं विद्याधरा बहुशः ॥४६।। केचिद्गता मोक्षमन्ये पुनर्वरविमानवासेषु । उत्पन्ना गुणपूर्णा जिनवरधर्मानुभावेन ॥४७|| १. चंदक्को-प्रत्य०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अजितजिनचरितम् - एवं ते परिकहिओ, वंसो विज्जाहराण संखेवं । एत्तो सुणसु नराहिव, बीयजिणिन्दस्स उप्पत्ती ॥४८॥ उसभजिणजम्मसमए, जे भावा आसि सुहयरा लोए । ओसरिऊण पवत्ता, आउ-बलुस्सेह-तव-नियमा ॥४९॥ एवं परंपराए, समइक्कन्तेसु पुहइपालेसु । साएयपुरवरीए, धरणिधरो नरवरो जाओ ॥५०॥ तस्स यं गुणाणुरूवो, पुत्तो तियसंजओ समुप्पन्नो । तस्स वि य इन्दलेहा भज्जा पुत्तो य जियसत्तू ॥५१॥ पोयणपुरम्म राया, आणन्दो तस्स कमलमाल ति । महिला रूवपडागा, विजया य सुया वरकुमारी ॥५२॥ परिणीया गुणपुण्णा, जियसत्तुनराहिवेण कयपुण्णा । तियसंजओ वि सिद्धि, कइलासगिरिम्मि संपत्तो ॥ ५३ ॥ अह अन्नया कयाई, जाओ तित्थंकरो अजियसामी । देवेहिं तस्स सहसा, अहिसेयाई कयं सव्वं ॥५४॥ रज्जं काऊण तओ, उज्जाणे जुवइरिमिओ दहुं । पङ्कयवणं मिलाणं, वेग्गमणो विचिन्तेइ ॥५५॥ जह एयं पउमसरं, मयरन्दुद्दामकुसुमरिद्धिल्लं । होऊण पुणो निहणं, वच्चइ तह माणुसत्तं पि ॥५६॥ आपुच्छिऊण एत्तो, माया - पिइ - पुत्त-परियणं सव्वं । पुव्वविहाणेण जिणो, पव्वज्जमुवागओ धीरो ॥५७॥ दस य सहस्सा तह पत्थिवाण मोत्तूण रायरिद्धीओ । निग्गन्था पव्वइया, जिणेण समयं महासत्ता ॥५८॥ छट्ठोववासनियमे, साएयपुरम्मि बम्भदत्तेणं । दिन्नं फासुयदाणं, विहिणा बहुभेयसंजुत्तं ॥ ५९ ॥ पउमचरियं अजितजिन चरित्रम् - एवं तुभ्यं परिकथितो वंशो विद्याधराणां संक्षेपेन । इतः श्रुणु नराधिप ! द्वितीयजिनेन्द्रस्योत्पत्तिः ॥४८॥ ऋषभजिनजन्मसमये ये भावा आसन सुखतरा लोके । अवसर्प्य प्रवर्त्ता आयु- र्बलोत्सेध- तपो-नियमाः ॥४९॥ एवं परंपरया समतिक्रान्तेषु पृथिवीपालेषु । साकेतपुरवर्यां धरणिधरो नरवरो जातः ॥५७॥ तस्य यो गुणानुरूपः पुत्रस्त्रिदशंजयः समुत्पन्नः । तस्यापि चेन्द्रलेखा भार्या पुत्रश्च जितशत्रुः ॥५१॥ पोतनपूरे राजाऽऽनन्दस्तस्य कमलमालेति । महिला रुपपताका, विजया च सुता वरकुमारी ॥५२॥ परिणीता गुणपूर्णा जितशत्रुनराधिपेन कृतपुण्या । त्रिदशञ्जयोऽपि सिद्धि कैलाशगिरौ संप्राप्तः ॥५३॥ अथान्यदा कदाचिज्जातस्तीर्थकरोऽजितस्वामी । देवैस्तस्य सहसाऽभिषेकादि कृतं सर्वम् ॥५४॥ राज्यं कृत्वा तत उद्याने युवतिपरिवृतो दृष्टवा । पङ्कजवनं म्लानं वैराग्यमना विचिन्तयति ॥५५॥ यथेदं पद्मसरो मकरन्दोद्दामकुसुमद्धिमत् । भूत्वा पुनर्निधनं गच्छति तथा मानुष्यत्वमपि ॥५६॥ आपृच्छ्येतो मातृ-पितृ-पुत्र - परिजनं सर्वम् । पूर्वविधानेन जिनः प्रवज्यामुपागतो धीरः ॥५७॥ दश च सहस्राणि तथा पार्थिवास्त्यक्त्वा राजद्धः । निर्ग्रन्थाः प्रव्रजिता जिनेन समकं महासत्त्वाः ||५८।। षष्टोपवासनियमे साकेतपुरे ब्रह्मदत्तेन । दत्तं प्रासुकदानं विधिना बहुभेदसंयुक्तम् ॥५९॥ १. परिवृतः । २. सद्धिं महा-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसवंसाहियारो - ५ / ४८-७१ अह बारसमे वरिसे, केवलनाणं तओ समुप्पन्नं । चोत्तीसं च अइसया, अट्ठ महापाडिहेरा य ॥६०॥ उप्पन्ना य गणहरा, नवई समणा नवोणयं लक्खं । संजम - सीलधराणं, गुणरिद्धिविसेसपत्ताणं ॥ ६१॥ सगरचक्रिचरितम् - तियसंजयस्स पुत्तो, बीओ च्चिय विजयसायरो नामं । तस्स वि य होइ भज्जा, सुमङ्गला रूवसंपन्ना ॥६२॥ ती गब्भम्मि सुओ, जाओ सगरो त्ति नाम विक्खाओ । चोद्दसरयणाहिवई, संपत्तो चक्कवट्टित्तं ॥६३॥ एयन्तरम्म सेणिय ! जं वत्तं तं सुणेहि एगमणो । अत्थि इहं वेयड्डे, रहनेउरचक्कवालपुर ॥६४॥ विज्जाहराण राया, पुण्णघणो नाम तत्थ विक्खाओ । अह मेघवाहणो से, पुत्तो गुणरूवसंपन्न ॥६५॥ उत्तरसेढी ठियं, नयरं चिय गयणवल्लहं नाम । परिवसइ तत्थ राया, सुलोयणो खेराहिवई ॥६६॥ तस्स य सहस्सनयणो, पुत्तो धूया य रूवसंपन्ना । तं चेव पवरकन्नं, पुण्णघणो मग्गए पयओ ॥६७॥ "बहुसो जाइज्जन्ती, न य दिन्ना तेण तस्स सा कन्ना । नेमित्तियवयणेणं, सगरनरिन्दस्स उद्दिट्ठा ॥६८॥ कन्नानिमित्तहेडं, पुण्णघण-सुलोयणाण आभिट्टं । जुज्झं महन्तघोरं रहवर -गय-तुरय- पाइकं ॥६९॥ जावय पहरसमिद्धं, दोण्ह वि जुज्झं उण्णसेण्णाणं । ताव य सहस्सनयणो, घेत्तूण सहोयरीं नट्ठो ॥७०॥ तू समरमज्झे, सुलोयणं पविसिऊण नयरम्मि । कन्नं अपेच्छमाणो, पुण्णघणो आगओ सपुरं ॥ ७१ ॥ अथ द्वादशे वर्षे केवलज्ञानं ततः समुत्पन्नम् । चतुस्त्रिंशच्चातिशया अष्टमहाप्रातिहार्याश्च ॥ ६० ॥ उत्पन्नाश्च गणधरा नवति श्रमणा नवोनलक्षम् । संयम - शीलधराणां गुणद्धिविशेषप्राप्तानाम् ॥६१॥ सगरचक्रि चरित्रम् - त्रिदशंजयस्य पुत्रो द्वितीय एव विजयसागरो नामा । तस्यापि च भवति भार्या सुमङ्गला रुपसंपन्ना ॥६२॥ तस्या गर्भे सुतो जातः सगर इति नाम विख्यातः । चतुर्दशरत्नाधिपतिः संप्राप्तश्चक्रवत्तित्वम् ॥६३॥ एतदन्तरे श्रेणिक ! यद्वृत्तं तत्श्रुण्वेकाग्रमनाः । अस्तीह वैताढ्ये रथनूपुरचक्रवालपुरम् ॥६४॥ विद्याधर राजा पूर्णधनो नाम तत्र विख्यातः । अथ मेघवाहनस्तस्य पुत्रो गुणरुपसम्पन्नः ||६५|| उत्तरश्रेणौ स्थितं नगरं चैव गगनवल्लभं नाम । परिवसति तत्र राजा सुलोचनः खेचराधिपतिः ||६६ || तस्य च सहस्रनयनः पुत्रो दुहिता च रुपसंपन्ना । तां चैव प्रवरकन्यां पूर्णधनो मार्गयति प्रयतः ||६७|| बहुशो याच्यमाना न च दत्ता तेन तस्य सा कन्या । नैमित्तिकवचनेन सगरनरेन्द्रायोद्दिष्टा ॥६८॥ कन्यानिमित्तहेतुं पूर्णधन-सुलोचनयोः प्रवृत्तम् । युद्धं महाघोरं रथवर - गज- तुरग - पदातिम् ॥६९॥ यावच्चप्रहरसमृद्धं द्वयोरपि युद्धमुदीर्णसेनानाम् । तावच्च सहस्रनयनो गृहीत्वा सहोदरीं नष्टः ॥७०॥ हत्वा समरमध्ये सुलोचनं प्रविश्य नगरे । कन्यामपश्यन् पुर्णधन आगतः स्वपुरम् ॥७१॥ १. बहुसो वि जाइजंती - प्रत्य० । २. पुणो वि सो आगओ सघरं - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only ४७ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं ताव य सहस्सणयणो, अपहुप्पन्तो बलेण परिहीणो । अच्छइ अरण्णमझे, कालक्खेवं पडिक्खन्तो ॥७२॥ ताव य आसेण हिओ, चक्कहरो आणिओ तमुद्देसं । तस्स चिय नियभइणी, सहस्सनयणेण से दिन्ना ॥७३॥ महिलारयण मणहरं, दट्टण नराहिवो सुपरितुट्ठो । विज्जाहरस्स निययं, देइ समिद्धं महारज्जं ॥७४॥ अह चक्कवालनयरं, सहस्सनयणेण वेढियं सव्वं । निष्फि डइ सवडहुत्तो, पुण्णघणो साहणसमग्गो ॥७५॥ संगामम्मि पवत्ते, बहुलोहियकद्दमे परमघोरे । गाढपहारपरद्धो, पुण्णघणो पाविओ निहणं ॥७६॥ घणवाहणो वि ताहे, वेरियवित्तासिओ पलायन्तो । भयजणियतुरियवेगो, अजियजिणिन्दं गओ सरणं ॥७७॥ इन्देण पुच्छिओ सो, कीस तुमं भयपवेइयसरीरो । तेण वि य तस्स सिटुं, वेरनिमित्तं जहावत्तं ॥७॥ अह तस्स मग्गलग्गो, सहस्सनयणो रवि व्व पज्जलिओ । पेच्छइ तमतिमिरहरं, जिणस्स भामण्डलं दिव्वं ॥७९॥ मोत्तूण निययगव्वं, थोऊण जिणं पराए भत्तीए । तत्थेव सन्निविट्ठो, नच्चासन्ने समोसरणे ॥८०॥ दोण्ह वि पिऊण चरियं, विज्जाहरपत्थिवाण पुव्वभवं । पुच्छइ गणहरवसहो, केवलनाणी परिकहेइ ॥८१॥ पुण्यघनत्रिलोचनयोः पूर्वभवः - अत्थेत्थ भरहवासे, आइच्चपभे पुरे मणभिरामे । चउकोडिधणसमिद्धो, वाणियओ भावणो नामं ॥४२॥ कित्तिमइ त्ति सुरूवा, महिला पुत्तो य तस्स हरिदासो । धणलोभेण य चलिओ, पोएण य भावणो तइया ॥८३॥ तावच्च सहस्रनयनोऽप्रभवन् बलेन परिहीणः । आस्ते ऽरण्यमध्ये कालक्षेपं प्रतीक्षमाणः ॥७२॥ तावच्चाश्वेन हृतश्चक्रधर आनीत तदुद्देशम् । तस्मा एव निजभगिनी सहस्रनयनेन दत्ता ॥७३॥ महिलारत्नं मनोहरं दृष्ट्वा नराधिपः सुपरितुष्टः । विद्याधरस्य निजकं, ददाति समृद्धं महाराज्यम् ॥७४।। अथ चक्रवालनगरं सहस्रनयनेन वेष्टितं सर्वम । निर्गच्छत्यभिमखं पर्णधनः साधनसमग्रः ॥७५|| संग्रामे प्राप्ते बहुलोहितकर्दमे परमघोरे । गाढप्रहारबद्धः पूर्णधनः प्राप्तो निधनम् ॥७६।। धनवाहनोऽपि तदा वैरिवित्रासितः पलायमानः । भयजनितत्वरितवेगोऽजितजिनेन्द्रं गतो शरणम् ॥७७|| इन्द्रेण पृष्टः स कथं त्वं भयप्रकम्पितशीरः । तेनाऽपि च तस्य शिष्टं वैरनिमित्तं यथावृत्तम् ।।७८।। अथ तस्य मार्गलग्नः सहस्रनयनो रविरिव प्रज्ज्वलितः । पश्यति तमस्तिमरहरं जिनस्य भामंडलं दिव्यम् ॥७९॥ त्यक्त्वा निजगर्वं स्तुत्वा जिनं परमया भक्त्या । तत्रैव सन्निविष्टो नात्यासन्ने समवसरणे ॥८०॥ द्वयोरपि पित्रोश्वरितं विद्याधरपार्थिवानां पूर्वभवम् । पृच्छति गणधरवृषभ: केवलज्ञानी परिकथयति ॥८१॥ पूर्णधन-त्रिलोचनयोः पूर्वभवःअस्त्यत्र भरतवर्षे आदित्यप्रभे पुरे मनोभिरामे । चतुष्कोटिधनसमृद्धौ वणिक् भावनो नाम ॥८२।। कीतिमतीति सुरुपा, महिला पुत्रश्च तस्य हरिदासः । धनलोभेन च चलित: पोतेन च भावनस्तदा ।।८३॥ १. निर्गच्छति अभिमुखम् । २. रिऊण-प्रत्य० । ३. अत्थित्थ-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसवंसाहियारो-५/७२-९५ निययं दव्व-घरसरिं, दाऊण सुयस्स विविहउवएसं । तो निग्गओ घराओ, सुहनक्खत्तेकरणजुत्ते ॥८४॥ अह सो जूयंमि जिओ, हरिदासो चोरियं सुरङ्गाए । काऊण समाढत्तो, रायघरं पत्थिओ तइया ॥८५॥ जत्तं काऊण तओ, संपत्तो भावणो निययगेहं । न य पेच्छइ हरिदासं, पुच्छइ महिलं पयत्तेणं ॥८६॥ तीए वि तस्स सिटुं, हरिदासो चोरियं सुरङ्गाए । दव्वस्स कारणट्ठा, रायहरं पत्थिओ नवरं ॥८७॥ सो तस्स मरणभीओ, जाव य सन्ती करेड़ एगमणो । ताव च्चिय संपत्तो, हरिदासो अप्पणो गेहं ॥८८॥ परिचिन्तिऊण एत्तो, को वि महं वेरिओ समल्लीणो । आहणइ पावकम्मो, खग्गपहारेण से सीसं ॥८९॥ मारेऊण य पियरं, काऊण य तस्स पेयकरणिज्जं । पुहईयलं भमन्तो, सो वि हु मरणं समणुपत्तो ॥१०॥ जो भावणो त्ति नामं, पुण्णघणो सो इहं समुप्पन्नो ।जो विहु तस्साऽऽसि सुओ, सुलोयणो सो वि नायव्वो ॥११॥ एवं पुव्वभवगयं, वेरं विज्जाहराण सोऊणं । मा होह कलुसहियया, वेरं दूरेण वज्जेह ॥१२॥ अह भणइ चक्कवट्टी, पुण्णघण-सुलोयणाण जं वत्तं । चरियं सुयं महायस ! कहेह एत्तो सुयाणं पि ॥१३॥ सहस्रनयनमेघवाहनयोः पूर्वभवः - जम्बुद्दीवे भरहे, पउमपुरे रम्भको त्ति नामेणं । तस्साऽऽसि परमसीसा, ससी य आवलियनामो य ॥१४॥ आवलिणा गन्तूणं, कीया गोधेणु गोउले पवरा । मोल्लं जाव न दिज्जइ, ताव ससी तत्थ संपत्तो ॥१५॥ निजकं द्रव्यं-गृहश्रीयं दत्वा सुताय विविधोपदेशम् । ततो निर्गतो गृहात् सुभनक्षत्रे करणयुक्ते ॥८४।। अथ स धुते जितो हरिदासश्चौरिकं सुरङ्गया । कर्तुं समारब्धो राजगृहं प्रस्थितस्तदा ॥८५॥ यात्रां कृत्वा तदा संप्राप्तो भावनो निजगृहम् । न च पश्यति हरिदासं पृच्छति महिला प्रयतेन ॥८६।। तयाऽपि तस्य शिष्टं हरिदासश्चौरिकं सुरङ्गया । द्रव्यस्य कारणार्थं राजगृहं प्रस्थितो नवरम् ॥८७॥ स तस्य मरणभीतो यावच्च शांति करोत्येकमनाः । तावच्चैव संप्राप्तो हरिदास आत्मनो गृहम् ॥८८॥ परिचिन्त्येतः कोऽपि मम वैरि समालीनः । आहन्ति पापकर्मा खड्गप्रहरेण तस्य शीर्षम् ।।८९।। मारयित्वा च पितरं कृत्वा च तस्य प्रेतकरणीयम् । पृथिवीतलं भ्रमन् सोऽपि खलु मरणं समनुप्राप्तः ॥९०॥ यो भावन इति नाम पूर्णधनः इह समत्पन्नः । योऽपि ह तस्यासीत्सतः सलोचनः सोऽपि ज्ञातव्यः ॥९॥ एवं पूर्वभवगतं वैरं विद्याधराणां श्रुत्वा । मा भविष्यतु कलुषहृदया वैरं दुरेण वर्जतु ।।१२।। अथ भणति चक्रवर्ती पूर्णधन-सुलोचनयो र्यद्वृत्तम् । चरित्रं श्रुतं महायश ! कथयेतः सुतानामपि ॥९३।। सहस्त्रनयनमेघवाहनयोः पूर्वभवः - जम्बूद्वीपे भरते पद्मपुरे रम्भक इति नाम्ना । तस्यास्तां परमशिष्यौ शशी चावलिकनामा च ॥९४।। आवलिकेन गत्वा क्रीता गोधेनु गोकुले प्रवरा । मूल्यं यावन्न दीयते तावच्छशी तत्र संप्राप्तः ॥१५॥ १. जत्ता काऊण-मु०। पउम. भा-१/७ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं सिग्धं चिय तेण कओ, दोण्ह वि भेओ सुसत्थकुसलेणं । गोवालएण समयं, काऊणं कूडमन्तणयं ॥१६॥ गोधेणु तेण गहिया, नायं इयरेण जुज्झमावन्नं । पहओ आवलिनामो, मओ य मेच्छो समुप्पन्नो ॥१७॥ ससि मुल्लत्थं च तया, विक्केउणं जहाणुसारेणं । अविभिन्नमुहच्छाओ, लीलाए समागओ गेहं ॥१८॥ अह अन्नया कयाई, गच्छन्तो तामलित्तिनयरं सो । ससिओ मेच्छेण हओ, मओ य वसहो समुप्पन्नो ॥१९॥ तत्तो वि पावगुरुणा, वसहो मेच्छेण मारिउं खद्धो । उप्पन्नो मज्जारो, मेच्छो वि हु मूसओ जाओ ॥१०॥ अन्नोन्नमारणं ते, काऊणं नरय-तिरियजोणीसु । संभमदेवस्स तओ, दोण्णि वि दासा समुप्पन्ना ॥१०१॥ दासा सहोयरा ते, जाया नामेण कूड-कावडिया । जिणहरनिओगकरणे, ते य निउत्ता उ इब्भेणं ॥१०२॥ कालं काऊण तओ, दोण्णि वि भूयाहिवा समुप्पन्ना । पढमो रूवाणन्दो, सुरूवनामो भवे बीओ ॥१०३॥ ससिओ चुओ समाणो, कुलंधरो रायवलि समुप्पन्नो । अवरो त्थ पुस्सभूई, तत्थेव पुरोहिओ जाओ ॥१०४॥ मित्ता होऊण तओ, पीई छेत्तूण सइरिणीए कए । अह पुस्सभूइ एत्तो, इच्छइ य कुलंधरं हन्तुं ॥१०५॥ तरुमूलगयस्स तहा, धम्मं सोऊण साहुपासम्मि । नरवइपरिक्खिओ सो, उवसन्तो पुण्णजोएण ॥१०६॥ दट्टण पुस्सभूई, विभवं धम्मस्स गहियवय-नियमो । कालं काऊण तओ, सणंकुमारे समुप्पन्नो ॥१०७॥ काऊण जिणवरतवं, तत्थेव कुलंधरो वि आयाओ । ते दो वि चुयसमाणा, धायइसण्डे समुप्पन्ना ॥१०८॥ शीघ्रमेव तेन कृतो द्वयोरपि भेदः सुशास्त्रकुशलेन । गोपालेन समं कृत्वा कूटमंत्रणाम् ॥९६।। गोधेनुस्तेन गृहीता ज्ञातमितरेण युद्धमापन्नम् । प्रहत आवलिनामा मृतश्च म्लेच्छः समुत्पन्नः ॥९७|| शशी मूल्यार्थं च तदा विक्रीय यथानुसारेण । अविभिन्नमुखच्छायो लीलया समागतो गृहम् ॥९८॥ अथान्यदा कदाचिद्गच्छंस्तामलिप्तिनगरं स । शशी म्लेच्छेन हतो मृतश्च वृषभः समुत्पन्नः ॥१९॥ ततोऽपि पापगुरुणा वृषभो म्लेच्छेन मारयित्वा भक्षितः । उत्पन्न मार्जारो म्लेच्छोऽपि हु मूषको जातः ॥१००॥ अन्योन्य मारणं तौ कृत्वा नरक-तिर्यग्योनिषु । संभमदेवस्य ततो द्वावपि दासौ समुत्पन्नौ ॥१०१॥ दासौः सहोदरौ तौ जातौ नामा कूट-कार्पटिकौ । जिनगृह नियोगकरणे तौ च नियुक्तौ त्विभ्येन ॥१०२॥ कालं कृत्वा ततो द्वावपि भूताधिपौ समुत्पन्नौ । प्रथमो रुपानन्दः सुरुपनामा भवेद्वितीयः ॥१०३|| शशी च्युतः सन् कुलंधरो राजवल्यां समुत्पन्नः । अवरोऽत्र पुष्यभूतिस्तत्रैव पुरोहितो जातः ॥१०४।। मित्रौ भूत्वा ततः प्रीतिं छित्वा स्वैरिण्या कृते । अथ पुष्यभूतिरित इच्छति च कुलंधरं हन्तुम् ॥१०५।। तरुमूलगतस्य तथा धर्मं श्रुत्वा साधुपाā । नरपतिपरीक्षितः स उपशान्तः पुण्ययोगेन ॥१०६॥ " दृष्टवा पुष्यभूति विभवं धर्मस्य गृहीतव्रत-नियमः । कालं कृत्वा ततः सनत्कुमारे समुत्पन्नः ॥१०७|| कृत्वा जिनवरतपस्तत्रैव कुलंधरोऽप्यायातः । तौ द्वावपि च्युतौ सन्तौ धातकीखण्डे समुत्पन्नौ ॥१०८|| १-२. विस्सभूई-प्रत्य० । ३. सो सामन्तो पुण्ण-मु० । ४. विस्सभूई-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसवंसाहियारो-५/९६-१२० ___५१ नयरे अरिंजयपुरे, जयावईकुच्छिसंभवा जाया। कूरा-ऽमरधणुनामा, भिच्चा उसहस्स रायाणो ॥१०९॥ अह नरवईण समयं पव्वज्जं गेण्हिऊण कालगया। परिनिव्वुओ नरिन्दो, ते सहसारे समुप्पन्ना ॥११०॥ ससि पढमं तत्थ चुओ, जाओ च्चिय मेहवाहणो एसो। आवलिओ वि हुएत्तो, सहस्सनयणो समुप्पन्नो ॥१११॥ सगरचक्रि-सहस्रनयनयोः सम्बन्धः - तो भणइ चक्कवट्टी, सहस्सनयणे विभू ! परिकहेह। पीई मे अहिययरा, केण निमित्तेण उप्पन्ना ? ॥११२॥ अह साहिउँ पवत्तो, तित्थयरो पुव्वजम्मसंबन्धं । भिक्खादाणफलेणं, देवत्तं रम्भको पत्तो ॥११३॥ सोहम्माउ चवित्ता, चन्दपुरे नरवइस्स भज्जाए । वरकित्तिनामधेओ, पव्वज्जं गेण्हिऊण मओ ॥११४॥ देवो होऊण चुओ, अवरविदेहे तओ समुप्पन्नो । चन्दमइ-महाघोसस्स नन्दणो रयणसंचयपुरे ॥११५॥ एत्तो पयावलो सो, पव्वज्जं गेण्हिऊण कालगओ। देवो पाणयकप्पे, होऊण चुओ भरहवासे ॥११६॥ पुहईपुरम्मि जाओ, जसहरपुत्तो जयाए जसकित्ती । निक्खमिय पिउसगासे, विजयविमाणे समुप्पन्नो ॥११७॥ तत्तो चुओ समाणो, जाओ सगरो त्ति चक्कवट्टि तुमं । चोद्दसरयणाहिवई, समत्तभरहाहिवो सूरो ॥११८॥ जेणऽन्तरेण दइओ, आवलिओ रम्भकस्स आसि पुरा । तेणऽन्तरेण तुझं, सहस्सनयणे अहियनेहो ॥११९॥ सोऊण चरियमेयं, निययं पिउसन्तियं हरिसियच्छो । थोऊण समाढत्तो, सब्भूयगुणेहि तित्थयरं ॥१२०॥ नगरे ऽरिजयपूरे जयावती कुक्षिसंभवौ जातौ । कूराऽमरधनुनामानौ भृत्यौ ऋषभस्य राज्ञः ॥१०९।। अथ नरपितना सार्धं प्रव्रज्यां गृहीत्वा कालगतौ । परिनिवृत्तो नरेन्द्रस्तौ सहस्रारे समुत्पन्नौ ॥११०।। शशी प्रथमं ततश्च्युतो जात एव मेघवाहन एषः । आवलिकोऽपि खल्वितः सहस्रनयनः समुत्पन्नः ॥१११।। सगरचक्री-सहस्रनयनयोः सम्बन्धःतदा भणति चक्रवर्ती सहस्रनयने विभु ! परिकथय । प्रीति र्ममाधिकतरा केन निमित्तेनोत्पन्ना ॥११२।। अथ कथयितुं प्रवृत्तस्तीर्थकरः पूर्वभवसम्बन्धम् । भिक्षादानफलेन देवत्त्वं रम्भकः प्राप्तः ॥११३।। सौधर्माच्च्युत्वा चन्द्रपुरे नरपते भर्यायाम् । वरकीर्तिनामधेयः प्रव्रज्यां गृहीत्वा मृतः ॥११४|| देवो भूत्वा च्यूतोऽपरविदेहे ततः समुत्पन्नः । चन्द्रमती-महाधोषयो नन्दनो रत्नसंचयपुरे ॥११५॥ इतः प्रजापालः स प्रव्रज्यां गृहीत्वा कालगतः । देवः प्राणतकल्पे भूत्वा च्युतो भरतवर्षे ॥११६॥ पृथिवीपुरे जातो यशोधरपुत्रो जयायां यशकीर्तिः । निष्क्रम्य पितृसकाशे विजयविमाने समुत्पन्नः ॥११७।। ततश्च्युतः सन् जातः सगर इति चक्रवर्ती त्वम् । चतुर्दशरत्नाधिपतिः समस्तभरताधिपः शूरः ॥११८॥ येनान्तरेण दयित आवलिको रम्भकस्यासीत्पुरा । तेनान्तरेण तव सहस्रनयने अधिकस्नेहः ॥११९॥ श्रुत्वा चरित्रमेतन्निजं पितृसत्कं हर्षिताक्षः । स्तोतुं समारब्धः सद्भूतगुणै स्तीर्थकरम् ।।१२०॥ १. परिकहेह-प्रत्य० । २. णमुप्पन्ना-प्रत्य० । ३. पव्वज्जा-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पउमचरियं एत्थं तु अणाहाणं, सत्ताणं नाह ! कारणेण विणा । उवयारपरो सि तुमं, किण्ण महच्छेरयं एयं ? ॥१२१॥ नाह ! तुमं बम्भाणो, तिलोयणो संकरो सयंबुद्धो । नारायणो अणन्तो, तिलोयपुज्जारिहो अरुहो ॥१२२॥ भणिओ रक्खसवइणा, भीमेणं मेहवाहणो ताहे । साहु कयं ते सुपुरिस! जं सि जिणं आगओ सरणं ॥१२३॥ तो सुणसु मज्झ वयणं भय-सोगविणासणं हियकरं च । पच्छा य होइ पच्छं, कालम्मि य निव्वुई कुणइ ॥१२४॥ अत्थेत्थ तुज्झ सत्तू, वेयड्डे खेयरा बलसमिद्धा । तेहि समं चिय कालं, कह नेहिसि सुयण ! वीसत्थो ? ॥१२५॥ लङ्कापुरीनिसुणेसु सायरवरे, विहुम-मणि-रयणकिरणपज्जलिए । काणणवणेहि रम्मो, रक्खसदीवो त्ति नामेणं ॥१२६॥ सत्तेव जोयणसया, वित्थिण्णो सव्वओ समन्तेणं । तस्स वि य मज्झदेसे, अत्थि तिकूडो त्ति वरसेलो ॥१२७॥ नव जोयणाणि तुङ्गो, पन्नासं सव्वओ य वित्थिण्णो । सिहरं तस्स विरायइ, उब्भासेन्तं दस दिसाओ ॥१२८॥ सिहरस्स तस्स हेतु, जम्बूणयकणगचित्तपयारा । लङ्कापुरि त्ति नामं, नयरी सुरसंपयसमिद्धा ॥१२९॥ बन्धवजणेण समयं, सिग्धं गन्तूण तत्थ वत्थो । भय-सोगविप्पमुक्को, अभिणन्दन्तो सया वससु॥१३०॥ एवं भणिऊण तेणं, रक्खसवइणा जलन्तमणिकिरणो। विज्जाहि समं दिनो, हारो देवेहि परिगहिओ ॥१३१॥ पायालंकारपुरं, धरणियलन्तरगयं च से दिन्नं । छज्जोयणमवगाढं, वित्थिण्णं बारसऽद्धद्धं ॥१३२॥ अत्र त्वनाथानां सत्वानां नाथ ! कारणेन विना । उपकारपरोऽसि त्वं किं न महाश्वर्यमेतत् ॥१२१॥ नाथ ! त्वं ब्रह्मा त्रिलोचनः शंकर: स्वयंबुद्धः । नारायणोऽनन्तस्त्रिलोकपूजा) ऽर्हः ॥१२२।। भणितो राक्षसपतिना भीमेन मेघवाहनस्तदा । साधूकृतं त्वया सत्पुरुष ! यदसि जिनमागतः शरणम् ।।२२३॥ तत:श्रण मम वचनं भयशोकविनाशनं हितकरञ्च । पश्चाद्भवति पथ्यं काले च निर्वत्तिं करोति ॥२२४|| अस्त्यत्र तव शत्रवो वैताढ्ये खेचरा बलसमृद्धाः । तैः सममेव कालं कथं नयसि सुजन ! विश्ववस्तः ॥१२५॥ लङ्कापुरी - निःश्रुणु सागरवरे विद्रुम-मणि-रत्नकिरणप्रज्वलिते । काननवनै रम्यो राक्षसद्वीप इति नाम्ना ॥१२६॥ सप्तैव योजनशतं विस्तीर्णः सर्वतः समन्ततः । तस्यापि मध्यदेशे अस्ति त्रिकूट इति वरशैलः ॥१२७॥ नवयोजनानि तुङ्गः पञ्चाशत्सर्वतश्च विस्तीर्णः । शिखरं तस्य विराजत्युद्भाषमाणं दश दिशः ॥१२८॥ शिखरस्य तस्य तले जाम्बूनदकनकचित्रप्राकारा । लङ्कापुरी इति नाम नगरी सुर संपत्समृद्धा ॥१२९॥ बन्धुजनेन समं शीघ्रं गत्वा तत्र विश्वस्थः । भयशोकविप्रमुक्तोऽभिनन्दन् सदा वस ॥१३०॥ एवं भणित्वा तेन राक्षसपत्या ज्वलन्मणिकिरणः । विद्याभिस्समं दत्तो हारो देवैः परिगृहीतः ॥१३१॥ पाताललङ्कापुरं धरतितलान्तर्गतं च तस्मै दत्तम् । षड्योजनमवगाढं विस्तीर्णं द्वाद्वशार्धाद्धम् ॥१३२॥ १. अरुहा-मु० । २. पथ्यम् । ३. षट्षड्योजनविस्तीर्णा-ऽऽयामम् । For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ रक्खसवंसाहियारो-५/१२१-१४५ एवं रक्खसवइणा, भणिओ घणवाहणो सुपरितुट्ठो । नमिऊण जिणवरिन्दं, तेण समं पत्थिओ लङ्कं ॥१३३॥ पेच्छइ य तुङ्गतोरण-धवलट्टलयविचित्तपागारं । उज्जाण-दीहियाहि य, चेइय-भवणेहि अइरम्मं ॥१३४॥ बन्धवजणेण सहिओ, जयसहुग्घुट्ठकलयलारावो । लङ्कापुरिं पविट्ठो, जिणभवणं आगओ राया ॥१३५॥ भावेण विणयपणओ, काऊण पयाहिणं तिपरिवारं । थोऊण सिद्धपडिमा, रायगिहं पत्थिओ ताहे ॥१३६॥ लङ्कापुरीए सामी, भीमेणं मेहबाहणो ठविओ।विज्जाहरसुसमिद्धं, भुञ्जइ रज्जं सुरिन्दो व्व ॥१३७॥ किन्नरगीयपुरवरे, भाणुमईगब्भसंभवा कन्ना । घणवाहणस्स भज्जा, नामेण य सुप्पभा जाया ॥१३८॥ अमरिन्दरूवसरिसो, पुत्तो घणवाहणस्स उप्पन्नो । सुप्पभदेवीतणओ, सो य महारक्खसो नामं ॥१३९॥ एवं गयवइ काले, भत्तीराएण चोइओ सन्तो । घणवाहणो वि अजियं, वन्दणहेउं समणुपत्तो ॥१४०॥ सीहासणोवविट्ठो, दिट्ठो तित्थंकरो विमलदेहो । नज्जइ स( सा )रयसमए, नहस्स मज्झट्ठिओ सूरो ॥१४१॥ थोऊण जिणवरिन्दं, सब्भूयगुणेहि मङ्गलसएहिं । पुच्छइ जिणवरसंखा, समतीया-ऽणागयाणं च ॥१४३॥ कइ वा समइक्वन्ता, होहिन्ति य केत्तिया महापुरिसा । तित्थयर-चक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवा य ? ॥१४४॥ तीर्थङ्कराः - भणइ जिणो वइकन्तो, उसभो नामेण पढमतित्थयरो१ । जेणेत्थ भरहवासे, लोगस्स निदेसिओ धम्मो ॥१४५॥ एवं रक्षः पत्या भणितो धनवाहनः सुपरितुष्टः । नत्वा जिनवरेन्द्रं तेन समं प्रस्थितो लङ्काम् ॥१३३॥ पश्यति च तुङ्गतोरण-धवलाट्टालयविचित्रप्राकारम् । उद्यान-दीर्घिकाभिश्च चैत्य-भवनैरतिरम्यम् ॥१३४|| बन्धुजनेन सहितो जयशब्दोद्धृष्टकलकलारावः । लङ्कापुरीं प्रविष्टो जिनभवनमागतो राजा ॥१३५॥ भावेन विनयप्रणतः कृत्वा प्रदक्षिणं त्रिकृत्वः । स्तुत्वा सिद्धप्रतिमां राजगृहं प्रस्थितो तदा ॥१३६।। लङ्कापूर्याः स्वामी भीमेन मेघवाहनः स्थापितः । विद्याधरसुसमृद्धं भुनक्ति राज्यं सुरेन्द्र इव ॥१३७॥ किन्नरगीतपुरवरे भानुमतीगर्भसंभवा कन्या । धनवाहनस्यभार्या नाम्ना च सुप्रभा जाता ॥१३८॥ अमरेन्द्ररुपसदृशः पुत्रो धनवाहनस्योत्पन्नः । सुप्रभादेवीतनयः स च महारक्षा नामा ॥१३९।। एवं गते काले भक्तिरागेण चोदितः सन् । धनवाहनोऽप्यजितं वन्दनहेतुः सुमनुप्राप्तः ॥१४०॥ सिंहासनोपविष्टो दृष्टस्तीर्थकरो विमलदेहः । ज्ञायते शरदसमये नभसो मध्यस्थितः सूर्यः ॥१४१।। स्तुत्वा जिनवरेन्द्रं सद्भूतगुणै मंगलशतैः । तत्रैव च विनिविष्टः सुर-नरपर्षदि मध्ये ॥१४२॥ ज्ञात्वा कथान्तरं सगरस्तीर्थकरं प्रणम्य । पृच्छति जिनवरसंख्या समतीताऽनागतानां च ॥१४३॥ कति वा समतिक्रान्ता, भविष्यन्ति च कतिपयामहापुरुषाः । तीर्थकर-चक्रवर्तिनो, बलदेवा वासुदेवाश्च ॥१४४॥ तीर्थकरा: - भणति जिनो व्यतिक्रान्तो ऋषभो नाम्ना प्रथमतीर्थकरः । येनात्र भरतवर्षे लोकस्य निर्देशितो धर्मः ॥१४५॥ १. गतवति सति । २. निवेइओ-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पउमचरियं सो ठविय सुयं रज्जे पव्वज्जं गेण्हिऊण कालगओ। बीओ य वट्टमाणो, अजिओ हं तेण पडितुल्लो२ ॥१४६॥ तह संभवा३ ऽभिणन्दण४ सुमई५ पउमप्पहो६ सुपासो७ य । ससि८ पुप्फदन्त९ सीयल १० सेयंसो११ वासुपुज्जो य१२ ॥ १४७॥ विमल१३ मणन्तइ१४ धम्मो१५ सन्ती १६ कुन्थू१७ अरो१८ य मल्ली य१९ । मुणिसुव्वय२० नमि२१ नेमी२२ पासो२३ वीरो२४ य तित्थयरो ॥ १४८ ॥ एए बावीस जिणा, होहिन्ति कमेणऽणागए काले । ताणं तु चक्कवट्टी, सन्ती कुन्थू अरो चेव ॥१४९॥ उत्तमकुलसंभूया, सव्वे खीरोयवारिअहिसित्ता । सव्वे वि मोक्खगामी, केवलनाणी भवे सव्वे ॥ १५०॥ एए चवीस जिणा, नामेहि जगुत्तमा समक्खाया। निसुणेहि चक्कवट्टी, जहक्कमं कित्तइस्सामि ॥ १५१ ॥ चक्रिणः — होय चक्कवट्टी १ समईओ संपयं तुमं सगरो२ । अवसेसा चक्कहरा, होहिन्ति अणागए काले ॥१५२॥ मघवं३ सणंकुमारो४, सन्ती५ कुन्थू६ अरो७ सुभूमो८ य । पउम९ हरिसेणनामो १०, जयसेणो११ बम्भदत्तो य१२ ॥१५३॥ अयलो१ विर्जओ२ भद्दो३, सुप्पभ४ सुदंसणो य नायव्वो५ । आणन्दो६ नन्दणो७ पउमो८ नवमो रामो य९ बलदेवो ॥१५४॥ होही तिविट्टु दुविडुर, सयंभु३ पुरिसोत्तमो४ पुरिससीहो५ । पुरिसवरपुण्डरीओ६, दत्तो७ नारायणो८ कण्हो९ ॥१५५॥ स स्थाप्य सुतं राज्ये प्रवज्यां गृहीत्वा कालगतः । द्वितीयश्च वर्तमानो ऽजितोऽहं ते प्रतितुल्यः ॥ १४६॥ तता संभवोऽभिनन्दन:सुमतिः पद्मप्रभः सुपार्श्वश्च । शशिपुष्पदन्तः शीतलः श्रेयांसोःवासुपूज्यश्च ॥१४७॥ विमलोऽनन्तो धर्मः शान्तिः कुन्थुररश्च मल्ली च । मुनिसुव्रतोनमिर्नेमिः पार्श्वोवीरश्च तीर्थकरः ॥१४८॥ एते द्वाविंशति जिना भविष्यन्ति क्रमेणानागते काले । तेषान्तु चक्रवर्तिनः शांतिः कुन्थुररश्चैव ॥१४९॥ उत्तमकुलसंभूताः सर्वे क्षीरोदधिवार्यभिषिक्ताः । सर्वेऽपि मोक्षगामिनः केवलज्ञानिनो भवेत्सर्वे ॥१५०॥ एते चतुर्विंशति जिना नाम्ना जगदुत्तमाः समाख्याताः । निश्रुणु चक्रवर्त्तिनो यथाक्रमं कीर्त्तयिष्यामि ॥१५१॥ चक्रिणः भरतश्च चक्रवर्ती समतीतः सांप्रतं त्वं सगरः । अवशेषाश्चक्रधरा भविष्यन्त्यनागते काले ॥१५२॥ मघवा सनत्कुमारः शान्तिः कुन्थुररसुभमश्च । पद्मोहरिषेणनामा जयसेनोब्रह्मदत्तश्च ॥१५३॥ अचलोविजयोभद्रः सुप्रभः सुदर्शनश्चः ज्ञातव्यः । आनन्दोनन्दनः पद्मो नवमो रामश्च बलदेवः ॥१५४॥ भविष्यति त्रिपृष्टोद्विपृष्टः स्वयंभूः पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः । पुरुषवरपुण्डरिकोदत्तोनारायणः कृष्णः ॥१५५॥ १. विजओ सुप्पभ सुदंसणो चेव होइ नायववो - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसवं साहियारो - ५ / १४६ - १६७ पढमो आसग्गीवो १, तारगर मेरग३ निसुम्भ४ महुकेढो५ । बलि६ पल्हाओ७ रावण८ तह य जरासिन्धु९ पडिसत्तू ॥१५६॥ एए महाणुभावा, पुरिसा अवसप्पिणीए कालम्मि । एत्तियमेत्ता य पुणो, हवन्ति ऊसप्पिणीए वि ॥१५७॥ एक्वं जिणवरसिट्टं, धम्मं काऊण पवरभत्तीए । एवंविहा मणुस्सा, होऊण सिवं परमुवेन्ति ॥ १५८ ॥ जे पुण धम्मविरहिया, जीवा बहुपावकम्मपडिबद्धा । ते चउगइवित्थिण्णे, भमन्ति संसारकन्तारे ॥ १५९ ॥ एवं कालसभावं, सुणिऊणं महइपुरिससंबन्धं । घणवाहणो विरागं, तक्खणमेत्तेण संपत्तो ॥ १६० ॥ पञ्चिन्दियविसयविमोहिएण कन्तापसत्तचित्तेणं । धम्मो च्चिय नाहिकओ, हा ! कट्टं वञ्चिओ अप्पा ॥१६१ ॥ इन्दधणुसुमिणसरिसे, विज्जुलयाचवलचञ्चले जीए। को नाम करेज्ज रइं, जो होज्ज सचेयणो पुरिसो ? ॥ १६२ ॥ ता उज्झिऊण रज्जं, कन्ता पुत्ता धणं च धण्णं च । गेण्हामि परमबन्धुं पारत्तबिइज्जयं धम्मं ॥ १६३॥ अहिसिञ्चिऊण रज्जे, सो हु महारक्खसं पढमपुत्तं । उम्मुक्कसव्वसङ्गो, पव्वज्जमुवागओ धीरो ॥१६४॥ लङ्कापुरीए सामी, घणवाहणनन्दणो पहियकित्ती । विज्जाहराण राया, भुञ्जइ रज्जं सुरवरो व्व ॥१६५॥ भज्जा से विमलाभा, तीए पुत्ता कमेण उप्पन्ना । पढमो य देवरक्खो, उअही आइच्चरक्खो य ॥१६६॥ अजिजिन्दो यतओ, धम्मपहं दरिसिऊण लोयस्स । सम्मेयसेलसिहरे, सिवमयलमणुत्तरं पत्तो ॥१६७॥ प्रथमोऽश्वग्रीवस्तारको मेरको निशुम्भो मधुकैटभः । बलिः प्रह्लादो रावणस्तथा जरासिन्धुः प्रतिशत्रवः ॥१५६॥ एते महानुभावाः पुरुषा अवसर्पिण्यां काले । एतावन्मात्राश्च पुनर्भविष्यन्त्युत्सर्पिण्यामपि ॥१५७॥ एकं जिनवरशिष्टं धर्मं कृत्वा प्रवरभक्त्या । एवंविधा मनुष्या भूत्वा शिवं परमुपयान्ति ॥ १५८॥ ये पुनर्धर्मविरहिता जीवा बहुपापकर्मप्रतिबद्धाः । ते चतुर्गतिविस्तीर्णे भ्रमन्ति संसारकांतारे ॥१५९॥ एवं कालस्वभावं श्रुत्वा महापुरुषसम्बन्धम् । धनवाहनो वैराग्यं तत्क्षणमात्रेण संप्राप्तः ॥ १६० ॥ पञ्चेन्द्रियविषयविमोहितेन कान्ताप्रसक्तचित्तेन । धर्म एव नाधिकृतो हा ! कष्टं वञ्चित आत्मा ॥ १६९॥ इन्द्रधनुस्स्वप्नसदृशे विद्युल्लताचपलचञ्चले जीवे । को नाम कुर्याद्रतिं, यो भवेत्सचेतनः पुरुषः ॥१६२॥ तत उज्जित्वा राज्यं कान्ता पुत्रा धनं च धान्यं च । गृह्णामि परमबन्धुं परत्रद्वितीयं धर्मम् ॥१६३॥ अभिषिञ्च्य राज्ये स हु महारक्षसं प्रथमपुत्रम् | उन्मुक्तसर्वसङ्गः प्रव्रज्यामुपागतो धीरः ॥ १६४ ॥ लङ्कापुर्याः स्वामी धनवाहननन्दनः प्रथितकीर्तिः । विद्याधराणां राजा भुनक्ति राज्यं सुरवर इव ॥१६५॥ भार्या तस्य विमलाभा तस्यां पुत्राः क्रमेणोत्पन्नाः । प्रथमश्च देवरक्षा उदधिरादित्यरक्षाश्च ॥१६६॥ अजितजिनेन्द्रश्च ततो धर्मपथं दर्शयित्वा लोकस्य । सम्मेतशैलशिखरे शिवमचलमनुत्तरं प्राप्तः ॥ १६७॥ १. परमभत्तीए - प्रत्य० । ५५ For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सगरपुत्राणामष्टापदयात्रा नागेन्द्रेण दहनं च 1 सगरो वि चक्कवट्टी, चउसट्ठिसहस्सजुवइकयविहवो । भुञ्जइ एगच्छत्तं, सयलसमत्थं इमं भरहं ॥१६८॥ अमरिन्दरूवसरिसा, सट्ठिसहस्सा सुयाण उप्पन्ना । अट्ठावयम्मि सेले, वन्दणहेउं समणुपत्ता ॥१६९॥ वन्दणविहाणपूयं, कमेण काऊण सिद्धपडिमाणं । अह ते कुमारसीहा, चेइयभवणे पसंसन्ति ॥ १७०॥ मन्तीहि ताण सिट्टं, एयाइं कारियाइँ भरहेणं । तुम्हेत्थ रक्खणत्थं, किंचि उवायं लहुं कुणह ॥१७१॥ दण्डरयणेण घायं, दाउं गङ्गानईए मज्झम्मि । सगरपुत्तेण उ ताहे, परिखेवो पव्वयस्स कओ ॥१७२॥ दट्ठूण य तं विवरं, नागिन्दो कोहजलणपज्जलिओ । सव्वे वि सयरपुत्ते, तक्खणमेत्तं डहइ रुट्ठो ॥१७३॥ दण्ढे दोणि जणे, ताणं मज्झट्ठिए कुमाराणं । काऊणं अणुकम्पं, जिणवरधम्मप्पभावेणं ॥ १७४॥ दट्ठूण मरणमेयं, सगरसुयाणं समत्तखन्धारो । भहरहि - भीमेण समं, साएयपुरिं समणुपत्तो ॥ १७५ ॥ सयरस्स निवेयन्ता, सुयमरणं भीम-भगिरही सहसा । नयसत्थपण्डिएहिं निवारिया ते अमच्चेहिं ॥ १७६ ॥ ते तत्थ पवरमन्ती, गन्तूण य पणमिऊण चक्कहरं । दिन्नासणोवविट्ठा, कयसन्ना जंपिउ पयत्ता ॥१७७॥ इह पेच्छ नरवइ ! तुमं, लोयस्स अणिच्चया असारत्तं । को एत्थ कुणइ सोयं, जो पुरिसो पण्डिओ लोए ? ॥१७८॥ आसि पुरा चक्कहरो, भरहो नामेण तुज्झ समविभवो । छक्खण्डा जेण इमा, दासि व्व वसीकया पुई ॥ १७९॥ सगरपुत्राणामष्टापदयात्रा नागेन्द्रेण दहनं च - सगरोऽपि चक्रवर्ती चतुःषष्टिसहस्रयुवतिकृतवैभवः । भुनक्ति एकछत्रं सकलसामर्थ्यमिमं भरतम् ॥१६८॥ अमरेन्द्ररुपसदृशाः षष्टिसहस्राणि सुतानामुत्पन्नाः । अष्टापदे शैले वन्दनहेतुं समनुप्रामाः ॥ १६९॥ वन्दनविधानपूजां क्रमेण कृत्वा सिद्धप्रतिमानाम् । अथ ते कुमारसिंहाश्चैत्यभवने प्रतिसरन्ति ॥ १७० ॥ मन्त्रिभिस्तेभ्यः शिष्टमेतानि कारितानि भरतेन । यूयमत्र रक्षणार्थं किंचिदुपायं लघु कुरु ॥१७१॥ दण्डरत्नेन घातं दत्वा गङ्गानद्यां मध्ये । सगरसुतेन तु तदा परिक्षेपः पर्वतस्य कृतः ॥ १७२ ॥ दृष्टवा च तद्विवरं नागेन्द्रः क्रोधज्वलनजलितः । सर्वानपि सगरपुत्रांस्तत्क्षणमेव दहति रुष्टः ॥१७४॥ न च दग्धौ द्वौ जनौ तेषां मध्यस्थितौ कुमाराणाम् । कृत्वाऽनुकम्पां जिनवरधर्मप्रभावेन ॥१७४॥ दृष्ट्वा मरणमेतत्सगरसुतानां समस्तः स्कन्धावारः । भगीरथभीमाभ्यां समं साकेतपुरीं समनुप्राप्तः ॥१७५॥ सगरस्य निवेदयन्तौ सुतमरणं भीम - भगीरथौ सहसा । नय - शास्त्रपाण्डितैर्निवारितौ तावमात्यैः ॥१७६॥ ते तत्र प्रवरमन्त्रिणो गत्वा च प्रणम्य चक्रधरम् । दत्ताऽऽसनोपविष्टाः कृतसंज्ञा जल्पितुं प्रयताः ॥१७७॥ इह पश्य नरपते ! त्वं लोकस्यानित्यताऽसारता । कोऽत्र करोति शोकं यः पुरुषः पण्डितो लोके ॥ १७८ ॥ आसीत्पुरा चक्रधरो भरतो नाम्ना तव समविभवः । षट्खण्डा येनेमा दासीव वसीकृता पृथिवी ॥ १७९॥ १. पइसरन्ति - मु० । २. दो वि जणे - प्रत्य० । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ रक्खसवंसाहियारो-५/१६८-१९२ तस्साऽऽसि पढमपुत्तो, आइच्चजसो त्ति नाम विक्खाओ । जस्स य नामपसिद्धो, वंसो इह वट्टए लोए ॥१८०॥ एवं एत्थ नरवई, वंसे बल-रिद्धि-कित्तिसंपन्ने । काऊण महारज्जं, वोलीणा दीहकालेणं ॥१८१॥ अच्छन्तु ताव मणुया, जे वि य ते सुरवई महिड्डीया । विभवेण पज्जलेडं, विज्झाणा हुयवहं चेव ॥१८२॥ जे वि य जिणवरवसहा, समत्थतेलोक्कनमियपयवीढा । आउक्खयम्मि पत्ते, ते वि य मुञ्चन्ति ससरीरं ॥१८३॥ जह एक्कम्मि तरुवरे, वसिऊणं पक्खिणो पभायम्मि । वच्चन्ति दस दिसाओ, एक्कुटुम्बम्मि तह जीवा ॥१८४॥ इन्दधणुफेणसुविणय-विज्जुलयाकुसुमबुब्बुयसरिच्छा ।इट्ठजणसंपओगा, विभवा देहा य जीवाणं ॥१८५॥ सोसेन्ति जे वि उदहिं, मेरुं भञ्जन्ति मुट्ठिपहरेहिं । कालेण ते वि पुरिसा, कयन्तवयणं चिय पविट्ठा ॥१८६॥ बलियाण जीवलोए, सव्वाण वि होइ अइबलो मच्चू । निहणं जेण अणन्ता, चक्कहराई इहं नीया ॥१८७॥ एवं मच्चुवसगए, ससुरा-ऽसुर-माणुसम्मि लोयम्मि । उम्मुक्ककम्मकलुसा, नवरंचिय सुत्थिया सिद्धा ॥१८८॥ उत्तमकुलुब्भवाणं, एयाणं गुणसहस्सनिलयाणं । चरिए सुमरिज्जन्ते, कह चेव न फुट्टए हिययं ? ॥१८९॥ जह ते कालेण निवा, इह मणुयभवे खयं समणुपत्ता । तह अम्हे वि य सव्वे, वच्चीहामो निरुत्तेणं ॥१९०॥ अन्नं पि सुणसु सामिय ! दीणमुहा भीम-भगिरही दो वि । एत्थाऽऽगयाण पेच्छसि, नूणं सेसा खयं पत्ता ॥१९१॥ ते पेच्छिऊण राया, तं चिय सोऊण निययसुयमरणं । घणसोयसल्लियङ्गो, मुच्छावसवेम्भलो पडिओ ॥१९२॥ तस्याऽऽसीत्प्रथमपुत्र आदित्ययशा इति नाम विख्यातः । यस्य च नाम्नाप्रसिद्धो वंश इह वर्तते लोके ॥१८०॥ एवमत्र नरपते ! वंशे बलद्धिकीर्तिसंपन्नैः । कृत्वा महाराज्यं गता दीर्घकालेन ॥१८१।। आसतु तावन्मनुष्या येऽपि च ते सुरपतयो महद्धिकाः । विभवेन प्रज्वल्य विद्याता हुतवहमेव ॥१८२।। येऽपि च जिनवरवृषभाः समस्तत्रैलोक्यनमितपादपीठाः । आयुः क्षये प्राप्ते तेऽपि च मुञ्चन्ति स्वशरीरम् ॥१८३।। यथा एकस्मिंस्तरुवरे उषित्वा पक्षिणः प्रभाते । व्रजन्ति दश दिश एककुटुंबे तथा जीवाः ।।१८४॥ इन्द्र धनुःफेनस्वप्न-विद्युल्लताकुसुमबुद्बुदसदृशाः । इष्टजनसंप्रयोगा विभवा देहाश्च जीवानाम् ॥१८५।। शोषयन्ति येऽपिउदधि मेरुं भञ्जन्ति मुष्ठिप्रहारैः । कालेन तेऽपि पुरुषाः कृतान्तवदनमेव प्रविष्टाः ॥१८६।। बलीनां जीवलोके सर्वेषामपि भवत्यतिबलो मृत्युः । निधनं येनाऽनन्ताश्चक्रधरादय इह नीताः ॥१८७।। एवं मृत्यु वशगते ससुराऽसुरमनुष्ये लोके । उन्मुक्तकर्मकालुष्या नवरं चैव सुस्थिताः सिद्धाः ॥१८८।। उत्तमकुलोद्भवानामेतेषां गुणसहस्रनिलयानाम् । चरित्रे स्मर्यमाणे कथमेव न स्फुटति हृदयम् ॥१८९॥ यथा ते कालेन नृपा इह मनुष्यभवे क्षयं समनुप्राप्ताः । तथा वयमपि च सर्वे गमिष्यामो निश्चयेन ॥१९०॥ अन्यदपि श्रुणु स्वामिन् ! दीनमुखौ भीम-भगीरथी द्वावपि । अत्रागतौ पश्यसि नूनं शेषाः क्षयं प्राप्ताः ॥१९१।। तौ दृष्ट्वा राजा तदेव श्रुत्वा निजसुतमरणम् । धनशोकशल्यिताङ्गो मुविशव्याकुलः पतितः ॥१९२॥ १. हुयवहे जेम्व-प्रत्य० । २. मूर्छावशविह्वलः । पउम.भा-१/८ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं चन्दणजलोल्लियङ्गो, पडिबुद्धो पुत्तमरणदुक्खत्तो । अह विलविउं पयत्तो, नयणेसु य मुक्कसलिलोहो ॥१९३॥ हा ! सुकुमालसरीरा, पुत्ता मह सुरकुमारसमरूवा । केण विहया अयण्डे, अविराहियदुट्टवेरीण ? ॥१९४॥ ___ हा ! गुणसहस्सनिलया, हा ! उत्तमरूव सोमससिवयणा। हा ! निग्धिणेण विहिणा, वहिया मे निरणुकम्पेणं ॥१९५॥ किं तुज्झ नत्थि पुत्ता, पावविही ! बालया हिययइट्ठा । जेण मह मारसि इहं, सुयाण सर्टि सहस्साई ॥१९६॥ एयाणि य अन्नाणि य, चक्कहरो विलविऊण बहुयाई । पडिबुद्धो भणइ तओ, वयणाई जायसंवेगो ॥१९७॥ हा ! टुं विसयविमोहिएण सुयणेहरज्जुबद्धेणं । धम्मो मए न चिण्णो, तरुणत्ते मन्दभग्गेणं ॥१९८॥ किं मज्झ वसुमईए ?, नवहि निहीहि व रयणसहिएहिं ! । जं दुल्लहलद्धाणं, पुत्ताण मुहं न पेच्छामि ॥१९९॥ धन्ना ते सप्पुरिसा, भरहाई जे महिं पयहिऊणं । निविण्णकामभोगा, निस्सङ्गा चेव पव्वइया ॥२०॥ अह सो जण्हविपुत्तं, अहिसिञ्चऊण भगिरहिं रज्जे । भीमरहेण समाणं, पव्वइओ जिणवरसयासे ॥२०१॥ काऊण तवमुयारं, उप्पाडिय केवलं सह सुएणं । आउक्खए महप्पा, सगरो सिद्धि समणुपत्तो ॥२०२॥ अह भगिरही वि रज्जं, कुणइ महाभडसमूहपरिकिण्णो । साएयपुरवरीए, इन्दो जह देवनयरीए ॥२०३॥ भगीरथपूर्वभवः - अह भगिरही कयाई, गन्तूण य पणमिऊण मुणिवसहं । तत्थेव सन्निविट्ठो, नच्चासन्ने सुणिय धम्मं ॥२०४॥ चन्दनजलाद्रीताङ्गः प्रतिबुद्धः पुत्रमरणदुःखार्तः । अथ विलपितुं प्रवृत्तो नयनाभ्यां च मुक्तसलिलौधः ॥१९३।। हा ! सुकुमारशरीराः पुत्रा मम सुरकुमारसमरूपाः । केन विहता अकाण्डेऽविराधितदुष्टवेरिणा ? ॥१९४॥ हा ! गुणसहस्रनिलया ! हा ! उत्तमरुपाः सौम्यशशीवदनाः । हा ! निघृणेन विधिना वधिता मम निरनुकम्पेन ॥१९५॥ किं तव नास्ति पुत्राः पाप विधे! बालका हृदयेष्ठाः । येन मम मार्यष इह सुतानां षष्टि सहस्राणि ॥१९६॥ एतानि चान्यानि च चक्रधरो विलप्य बहुनि । प्रतिबुद्धो भणति ततो वचनानि जातसंवेगः ॥१९७|| हा ! कष्टं विषयविमोहितेन सुतनेहरज्जुबद्धेन । धर्मो मया नाचीर्णस्तरुणत्वे मन्दभाग्येन ॥१९८॥ किं मम वसुमत्या ? नवभिनिधिभिर्वा रत्नसहितैः । यद् दुर्लभलब्धानां पुत्राणां मुखं न पश्यामि ॥१९९॥ धन्यास्ते सत्पुरुषा भरतादयो ये महीं प्रजहाय । निर्विणकामभोगा, निसङ्गा एव प्रव्रजिताः ॥२००।। अथ स जाह्नविपुत्रमभिषिञ्च्य भगीरथं राज्ये । भीमरथेन समं प्रव्रजितो जिनवरसकाशे ॥२०१॥ कृत्वा तपउदारमुत्पादितकेवलं सहसुतेन । आयुःक्षये महात्मा सगरः सिद्धि समनुप्राप्तः ॥२०२।। अथ भगीरथोऽपि राज्यं करोति महाभटसमूहपरिकीर्णः । साकेतपुरवयमिन्द्रो यथादेवनगर्याम् ॥२०३॥ भगीरथपूर्वभव:अथ भगीरथः कदाचिद्गत्वा च प्रणम्य मुनिवृषभम् । तत्रैव संनिविष्टो नात्यासन्ने श्रुत्वा धर्मम् ॥२०४॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसवंसाहियारो-५/१९३-२१६ सुयसागरमणगारं, पुच्छइ तं भगिरही 'कुमारवरो । केणेव कारणेणं, ताणं माझे दुवे न मया ? ॥२०५॥ अह भणइ मुणिवरो सो, गच्छो सम्मेयपव्वयं चलिओ। सणियं विहरन्तो च्चिय, संपत्तो अन्तिमं गामं ॥२०६॥ दट्टण समणसङ्घ, गामजणो तस्स कुणइ उवसग्गं । कुम्भारेण निसिद्धो, निन्दन्तो फरुसवयणेहिं ॥२०७॥ चोरत्तं पडिवन्नो, तत्थेगो गामवासिओ पुरिसो । तस्सऽवराहनिमित्तं, गामो दड्डो नरिन्देणं ॥२०८॥ कुम्भारो वि य अन्नं, गामं आमन्तिओ गओ तइया ।सो तत्थ नवरि एक्को, न य दड्डो कम्मजोएणं ॥२०९॥ मरिऊण कुम्भयारो, वणिओ जाओ महाधणसमिद्धो । वाराडयम्मि एत्तो, गामो जाओ समं तेणं ॥२१०॥ तत्तो वि करिय कालं, वणिओ सो नरवई समुप्पन्नो । गामा वि माइवाहा, जाया हत्थीण परिमलिया ॥२११॥ जाओ नरवइ समणो, देवो होऊण वरविमाणम्मि । तत्तो चुओ समाणो, भगिरहिराया तुमं जाओ ॥२१२॥ जो वि हु सो गामजणो, कालं काऊण विविहजाईसु । कम्माणुभावजणिया, सगरस्स सुया समुप्पन्ना ॥२१३॥ सङ्घस्स निन्दणं कुणइ जो नरो राग-दोसपडिबद्धो । सो भवसहस्सघोरे, पुणरुत्तं भमइ संसारे ॥२१४॥ सुणिऊण निययचरियं, भवपरियट्टं च सगरपुत्ताणं । समणो होऊण चिरं, भगीरही सिद्धिमणुपत्तो ॥२१५॥ एयं ते परिकहियं, चरियं सयरस्स पत्थावुप्पन्नं । एत्तो मगहनराहिव !, जं पत्थुय तं च वो सुणसु ॥२१६॥ श्रुतसागरमनागारं पृच्छति तं भगिरथः कुमारवरः । केनैव कारणेन तेषां मध्ये द्वौ न मृतौ ? ॥२०५।। अथ भणति मुनिवर स गच्छ: सम्मेतपर्वतं चलितः । शनै विहरनेव संप्राप्तोऽन्तिमं ग्रामम् ॥२०६।। दृष्ट्वा श्रमणसङ्घ ग्रामजनस्तस्य करोत्युपसर्गम् । कुम्भकारेण निषिद्धो निन्दनपुरुषवचनैः ॥२०७।। चोरत्वं प्रतिपन्नस्तत्रैको ग्रामवासी पुरुषः । तस्यापराधनिमित्ते ग्रामो दग्धो नरेन्द्रेण ॥२०८॥ कुम्भकारोऽपि चान्यं ग्राममामन्त्रितो गतस्तदा । स तत्र केवलमेको न च दग्धः कर्मयोगेन ॥२०९॥ मृत्वा कुम्भकारो वणिग्जातो महाधनसमृद्धः । वराटके इतो ग्रामो जातः समं तेन ॥२१०॥ ततोऽपि कृत्वा कालं वणिग् स नरपतिः समुत्पन्नः । ग्रामा अपि मातृवाहा जाता हस्तिना परिमलिताः ॥२११।। जातो नरपतिः श्रमणो देवो भूत्वा वरविमाने । ततश्च्युतः सन् भगीरथराजा त्वं जातः ॥२१२॥ सोऽपि हु स ग्रामजनः कालं कृत्वा विविधजातिषु । कर्मानुभावजनिता: सगरस्य सुताः समुत्पन्नाः ॥२१३।। सङ्घस्य निन्दनं करोति यो नरो रागद्वेषप्रतिबद्धः । स भवसहस्रघोरे पुनरुक्तं भ्रमति संसारे ॥२१४॥ श्रुत्वा निजचरित्रं भवपरिवर्तं च सगरपुत्राणाम् । श्रमणो भूत्वा चिरं भगीरथः सिद्धिमनुप्राप्तः ॥२१५।। एततुभ्यं परिकथितं चरित्रं सगरस्य प्रस्तावोत्पन्नम् । इतो मगधनराधिप ! यत्प्रस्तुतं तच्च त्वं श्रुणु ॥२१६।। १. कुमारवहं-प्रत्य। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पउमचरियं महाराक्षसस्य वैराग्यं पूर्वभवश्च - जो तत्थ सो महप्पा, लङ्कापुरिसामिओ महारक्खो । निक्कण्टयमणुकूलं, भुञ्जइ रज्जं महाभोगं ॥२१७॥ सो अन्नया कयाई, जुवईजण परिमिओ वरुज्जाणे । रमिऊण वाविसलिले, पेच्छइ भमरं पउममज्झे ॥२१८॥ जह पउमगन्धलुद्धो, नट्ठो च्चिय महुयरो अविन्नाणो । तह जुवइवयणकमले, आसत्तो चेव नट्ठो हं ॥२१९॥ सुइबुद्धिणा विहूणा, नियमेणं महुयरा विणस्सन्ति । कुसलो वि जं विणट्ठो, अहयं तं मोहदुल्ललियं ॥२२०॥ गधेण रसेण इमो, जइ एवं महुयरो खयं पत्तो । पढमं चेव विणट्ठो, पञ्चिन्दियवसगओ जो हं ॥२२१॥ भोत्तूण विसयसोक्खं, पुरिसो धम्मेण विरहिओ सन्तो । परिभमइ चाउरन्तं, पुणरुत्तं दीहसंसारं ॥२२२॥ जाव य विरत्तभावो, अच्छइ लङ्काहिवो परिगणेन्तो । ताव य सङ्घपरिवुडो, पत्तो सुयसायरो समणो ॥२२३॥ तस-पाण-जन्तुरहिए, उज्जाणे फासुए सिलावट्टे । तत्थेव सन्निविट्ठो, समणेहि समं कयनिओगो ॥२२४॥ उज्जाणपालएहिं, सिढे समणागमे तओ राया । गन्तूण पययमणसो, पणमइ सुयसायरं साहुं ॥२२५॥ सेसं च समणसङ्घ, जहक्कमं पणमिऊण उवविट्ठो । पुच्छइ भवपरियटुं, निययं राया मुणिवरिन्दं ॥२२६॥ अह साहिउँ पयत्तो, समणो छउमत्थनाणविसएणं । भरहेत्थ पोयणपुरे, वसइ नरो हियकरो नामं ॥२२७॥ भज्जा य महवी से, पुत्तो पीइंकरो तुम तेसिं । जिणवरधम्मुप्पन्नो, हेमरहो नरवई तत्थ ॥२२८॥ सो अन्नया कयाई, चेइयपूयं रइत्तु भावेणं । पडुपडह-सङ्घसहियं, जयसदं जिणहरे कुणइ ॥२२९॥ महाराक्षसस्य वैराग्यं पूर्वभवश्चयस्तत्र स महात्मा लङ्कापुरीस्वामी महारक्षाः । निष्कण्टकमनुकूलं भुनक्ति राज्यं महाभोगम् ॥२१७॥ सोऽन्यदा कदाचिद्युवतिजनपरिवृतो वरोद्याने । रत्वा वापिसलिले पश्यति भ्रमरं पद्ममध्ये ॥२१८|| यथा पद्मगन्धलुब्धो नष्ट एव मधुकरोऽविज्ञातः । तथा युवतिवदनकमले आसक्त एव नष्टोऽहम् ॥२१९।। शुचिबुद्धिना विहीना नियमेन मधुकरा विनश्यन्ति । प्रथममेव विनष्ठः पञ्चेन्द्रियवशगतो योऽहम् ।।२२१॥ भुक्त्वा विषयसुखं पुरुषो धर्मेण विरहितः सन् । परिभ्रमति चातुरन्तं पुनरुक्तं दीर्घसंसारम् ॥२२२॥ यावच्च विरक्तभाव आसते लङ्काधिपः परिगणन् । तावच्च सङ्घपरिवृत्तः प्राप्तः श्रुतसागरः श्रमणः ॥२२३॥ त्रसप्राणजन्तुरहित उद्याने प्रासुके शिलापट्टे । तत्रैव सन्निविष्टः श्रमणैः समं कृतनियोगः ॥२२४।। उद्यानपालैः शिष्टे श्रमणागमे ततो राजा । गत्वा प्रणतमनाः प्रणमति श्रुतसागरं साधुम् ॥२२५।। शेषञ्चश्रमणसङ्घ यथाक्रमं प्रणम्योपविष्टः । पृच्छति भवपरिवर्तं निजकं राजा मुनिवरेन्द्रम् ॥२२६।। अथ कथयितुं प्रवृत्तः श्रमणश्च्छद्मस्थज्ञानविषयेण । भरतेऽत्र पोतनपुरे वसति नरो हितकरो नाम ।।२२७॥ भार्या च माधवी तस्य पुत्रः प्रियंकरस्त्वं तयोः । जिनवरधर्मोत्पन्नो हेमरथो नरपतिस्तत्र ।।२२८।। सोऽन्यदा कदाचिच्चैत्यपूजां रचित्वा भावेन । पटुपटहशङ्कसहितं जयशब्दं जिनगृहे करोति ॥२२९॥ १. परिवृतः । २. करेत्तु-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसर्वसाहियारो-५/२१७-२४२ उट्ठियमेत्तो सि तुमं, तं सदं सुणिय हट्ठतुट्ठमणो । अह घोसिउं पयत्तो, जिणस्स थुइमङ्गलविहाणं ॥२३०॥ कालं काऊण तओ, जक्खो जाओ महिड्डिसंपन्नो । अवरविदेहे पेच्छइ, कञ्चणनयरे मुणिवरस्स ॥२३१॥ उवसगं कीरन्तं, वारेऊण य रिऊ ससत्तीए । रक्खइ मुणिवरदेहं, जक्खो पुण्णं समज्जेइ ॥२३२॥ तत्तो चुओ समाणो, तडियङ्गयखेयरस्स वेयड्ढे । सिरिप्पभदेवीतणओ, जाओ उइओ वरकुमारो ॥२३३॥ तो वन्दणाए जन्तं, अह चारणविक्कम पलोएउं । विज्जाहराहिराया, कुणइ नियाणं तओ मूढो ॥२३४॥ काऊण तवमुयारं, ईसाणे सुरवरो त्थ होऊणं । घणवाहणस्स पुत्तो, जाओ सि तुमं महारक्खो ॥२३५॥ सुरभोगेसुन तित्ती, जो सि तुमं न य गओ सुचिरकालं । कह परितुट्ठो होहिसि, दियहाणं सोलसद्धेणं ? ॥२३६॥ सोऊण वयणमेयं, गओ विसायं तओ महारक्खो। आसन्नमरणभावो, भणइ नरिन्दो इमं वयणं ॥२३७॥ विसयविसमोहिएणं, महिलानेहाणुरागरत्तेणं । कालो च्चिय न य नाओ, केत्तियमेत्तो वि वोलीणो ॥२३८॥ न य गेहम्मि पलित्ते, कूवो खण्णइ सुतूरमाणेहिं । धाहाविए ण दम्मइ, आसो च्चिय तक्खणं चेव ॥२३९॥ अभिसिञ्चिऊण रज्जे, पुत्तं चिय देवरक्खसं राया। तह भाणुरक्खसं पि य, जुवरज्जे ठविय निक्खन्तो ॥२४०॥ वोसिरियसव्वसङ्गो, चइऊणं चउविहं च आहारं । आराहणाए कालं, काऊण सुरुत्तमो जाओ ॥२४१॥ अह किन्नरगीयपुरे, सिरिधरविज्जाहरस्स वरदुहिया । रइवेगनामधेया, सा महिला देवरक्खस्स ॥२४२॥ उत्थितमात्रोऽसि त्वं तं शब्दं श्रुत्वा हृष्टतुष्टमनाः । अथ धोषयितुं प्रवृत्तो जिनस्य स्तुतिमङ्गलविधानम् ।।२३०॥ कालं कृत्वा ततो यक्षो जातो महद्धिसंपन्नः । अपरविदेहे पश्यति कञ्चननगरे मुनिवरस्य ॥२३१॥ उपसर्गं कुर्वन्तं वारयित्वा च रिपुं स्वशक्त्या । रक्षति मुनिवरदेहं यक्ष:पुण्यं समर्जयति ॥२३२।। ततश्च्युतः संस्तडिताङ्गदखेचरस्य वैताढ्ये । श्रीप्रभादेवीतनयो जात उदितो वरकुमार ॥२३३।। ततो वन्दनाय यान्तमथ चारणविक्रमं प्रलोक्य । विद्याधराधिराजा करोति निदानं ततो मूढः ॥२३४॥ कृत्वा तप उदारमीशाने सुरवरोऽत्र भूत्वा । घनवाहनस्य पुत्रो जातोऽसि त्वं महारक्षाः ॥२३५।। सुरभोगेषु न तृप्ति योऽसि त्वं न च गतः सुचिरकालम् । कथं परितुष्टो भविष्यसि दिवसै र्षोडशाधैः ॥२३६॥ श्रुत्वा वचनमेतद्गतो विषादं ततो महारक्षाः । आसन्नमरणभावो भणति नरेन्द्र इदं वचनम् ॥२३७|| विषयविषमोहितेन महिलास्नेहानुरागरक्तेन । काल एव न ज्ञातः कतिचिन्मात्रोऽपि गच्छन् ।।२३८॥ न च गृहे प्रदिप्ते कुप:खन्यते सुत्वरमाणैः । धावन्नदम्यते ऽश्वश्चैव तत्क्षणमेव ॥२३९॥ अभिषिञ्च्य राज्ये पुत्रमेव देवराक्षसं राजा । तथा भानुराक्षसमपि च युवराज्य स्थाप्य निष्क्रान्तः ॥२४०।। व्युत्सृष्ट सर्वसङ्गस्त्यक्त्वा चतुर्विधं चाहारम् । आराधनया कालं कृत्वा सुरोत्तमो जातः ।।२४१॥ अथ किन्नरगीतपुरे श्रीधरविद्याधरस्य वरदुहिता । रतिवेगानामधेया सा महिला देवराक्षसस्य ॥२४२॥ १. अहवामरविक्कम-मु० । २. खन्यते सत्वरमाणैः । ३. पूत्कृते । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ गन्धव्वगीयनयरे, सुरसन्निभरायनामधेयस्स । जायागन्धारिसुया, गन्धव्वा भाणुरक्खस्स ॥२४३॥ दस देवरक्खससुया, जाया छ च्चेव वरकुमारीओ । तह भाणुरक्खसस्स वि, तावइया चेव उप्पन्ना ॥२४४॥ अमरपुरसन्निमाई, सनामसरिसाइँ पट्टणवराई । रक्खससुएहि सिग्धं, कयाइँ बहुसन्निवेसाई ॥ २४५ ॥ संझायाल१ सुवेलो२, मणपल्हाओ३ मणोहरो४ चेव । हंसद्दीवो५ हरिजो६, धन्नो७ कणओ८ समुद्दो य९ ॥२४६॥ नामेण अद्धसग्गो१०, एव निवेसा महागुणसमिद्धा । उप्पाइया समत्था, महइमहारक्खससुएहिं ॥ २४७॥ आवत्तवियडमेहा, उक्कडफुडदुग्गहा महाभागा । तवणायवलियरयणा, कया य रविरक्खससुएहिं ॥ २४८॥ वरभवण-तुङ्गतोरण-नाणाविहमणिमऊहपज्जलिया । सोहन्ति सन्निवेसा, रक्खसपुत्ताण कीलणया ॥२४९॥ या देवरक्खो, बीओ पुण भाणुरक्खसनरिन्दो । घेत्तूण पवरदिक्खं, अव्वाबाहं समणुपत्तो ॥ २५० ॥ राक्षसवंशः - एवं तु महावंसे, वोलीणे मेहवाहणो जाओ । रक्खससुओ महप्पा, मणवेगाए समुप्पन्नो ॥२५१॥ नस्स य नामेण इमो, रक्खसवंसो जयम्मि विक्खाओ । तस्स वि आइच्चगई, महन्तकिरी व उप्पन्नो ॥ २५२ ॥ सुप्पभदेवीतणया, रवि-चन्दसमप्पभा कुमारवरा । समणो होऊण चिरं, पिया य तेसिं गओ सग्गं ॥२५३॥ नामेण मयणपउमा, आइच्चगइस्स वल्लभा भज्जा । आउणहनामधेया, महिला उ महन्तकित्तिस्स ॥२५४॥ गान्धर्वगीतनगरे सुरसंनिभराजनामधेयस्य । जाता गंधारिसुता गन्धर्वा भानुरक्षसः ॥२४३॥ दश देवराक्षसस्य सुता जाता: षडेव वरकुमार्यः । तथा भानुराक्षसस्यापि तावता एवोत्पन्नाः ॥ २४४॥ अमरपुरसन्निभानि स्वनामसदृशानि पट्टनवराणि । राक्षससुतैः शीघ्रं कृतानि बहु सन्निवेशानि ॥ २४५ ॥ संध्याकालः सुविलो मनः प्रह्लादो मनोहर एव । हंसद्वीपो हरिजो धन्यः कनकः समुद्रश्च ॥ २४६ ॥ नाम्नाऽर्धस्वर्ग एव निवेशा महागुण समृद्धाः । उत्पादिताः समर्था महतिमहाराक्षससुतैः ॥२४७॥ आवर्त्तविकटमेघा उत्कटस्फुटदुर्ग्रहा महाभागाः । तटतोयावलीरत्नद्वीपाः कृताश्च रविराक्षससुतैः ॥२४८॥ वरभवनतुङ्गतोरणनानाविधमयूखप्रज्वलिताः । शोभन्ते संनिवेशा राक्षसपुत्राणां क्रीडनकाः ॥ २४९ ॥ राजा च देवरक्षा द्वितीयः पुनो भानुराक्षसनरेन्द्रः । गृहीत्वा प्रवरदीक्षामव्याबाधं समनुप्राप्तः ॥ २५० ॥ राक्षसवंशः - एवं तु महावंशे गच्छति मेघवाहनो जातः । राक्षससुतो महात्मा मनोवेगायां समुत्पन्नः ॥२५१॥ यस्य च नाम्नोयं राक्षसवंशो जगति विख्यातः । तस्याप्यादित्यगतिर्महाकीर्तिश्चोत्पन्नः ॥ २५२॥ सुप्रभदेवीतनया रवि-चन्द्रसमप्रभाः कुमारवराः । श्रमणो भूत्वा चिरं पिता च तेषां गतः स्वर्गम् ॥२५३॥ नाम्ना मदनपद्माऽऽदित्यगतेर्वल्लभा भार्या । आयुर्नखानामधेया महिला तु महाकीर्तेः ॥ २५४ ॥ १. सुरसन्निभनामधेयरायस्स- प्रत्य० । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खसवंसाहियारो-५/२४३-२६७ आइच्चगइस्स सुओ, भीमरहो नाम नरवई जाओ । तस्साऽऽसि महिलियाणं, सहस्समेगं वरवहूणं ॥२५५॥ अद्भुत्तरं सयं चिय, पुत्ताणं अमररूवसरिसाणं । घेत्तूण य पव्वज्जं, भीमरहो पत्थिओ सिद्धि ॥२५६॥ रक्खन्ति रक्खसा खलु, दीवा पुण्णेण रक्खिया जेण । तेणं चिय खयराणं, रक्खसनामं कयं लोए ॥२५७॥ एसो ते परिकहिओ, रक्खसवंसस्स उब्भवो तुज्झ । सेणिय ! सुणाहि एत्तो, वंसे पुरिसा समासेण ॥२५८॥ भीमप्पहस्स पुत्तो, पढमो पूयारहो समुप्पन्नो । पव्वइओ खायजसो, रज्जे ठविऊण जिय भाणुं ॥२५९॥ जियभाणुस्स वि पुत्तो, संपरिकित्ती विसालवच्छयलो । सुग्गीवो तस्स सुओ, तस्स वि य भवे हरिग्गीवो ॥२६०॥ सिरिगीवो सुमुहो वि य, सुव्वन्तो अमियवेगनामो य । आइच्चगइकुमारो, इन्दप्पभ इन्दमेहो य ॥२६१॥ जाओ मयारिदमणो, पहिओ इन्दइ सुभाणुधम्मो य । एत्तो सुरारि तिजडो, महणो अङ्गारओ य रवी ॥२६२॥ चक्कार वज्जमज्झो, पमोय वरसीहवाहणो सूरो । चण्डरावणो वि य, भीमो भयवाह रिउमहणो ॥२६३॥ निव्वाणभत्तिमन्तो उग्गसिरी अरुहभत्तिमन्तो य । तह य पवणुत्तरगई, उत्तम अणिलो य चण्डो य ॥२६४॥ लङ्कासोग मयूहो, महबाहु मणोरमो य रवितेओ । महगइ महकन्तजसो, अरिसंतासो य रायाणो ॥२६५॥ चन्दवयणो य महरवो, मेहज्झाणो तहेव गहखोभो । नक्खत्तदमणाई, एवं विज्जाहरा नेया ॥२६६॥ कोडीण सयसहस्सा, एवं विज्जाहरा बलसमिद्धा । लङ्कापुरीए सामी, वोलीणा दीहकालेणं ॥२६७॥ आदित्यगतेः सुतो भीमरथोनाम नरपति र्जातः । तस्याऽऽसन् महिलानां सहस्रमेकं वरवधूनाम् ।।२५५।। अष्टोत्तरं शतमेव पुत्राणाममररुपसदृशाम् । गृहीत्वा च प्रव्रज्यां भीमरथः प्रस्थितः सिद्धिम् ॥२५६॥ रक्षन्ति राक्षसाः खलु द्वीपा पुण्येन रक्षित येन । तेनैव खेचराणां राक्षसनाम कृतं लोके ॥२५७।। एष तस्य परिकथितो राक्षसवंशस्योद्भवो तुभ्यम् । श्रेणिक ! श्रुण्वितो वंशे पुरुषाः समासेन ॥२५८॥ भीमप्रभस्य पुत्रः प्रथमः पूजार्हः समुत्पन्नः । प्रव्रजितः ख्यायातयशा राज्ये स्थाप्य जितभानुम् ॥२५९॥ जितभानोरपि पुत्रः संपरिकीर्तिविशालवक्षःस्थलः । सुग्रीवस्तस्य सुतस्तस्यापि च भवेद्धरिग्रीवः ॥२६०॥ श्रीग्रीवः सुमुखोऽपि च सुव्रतो ऽमितवेग नामा च । आदित्यगतिकुमार इन्द्रप्रभ इन्द्रमेघश्च ॥२६१।। जातो मृगारिदमनः प्रहित इन्द्रजीत् सुभानुर्धर्मश्च । इतः सुरारि स्त्रिजटो मथनोऽङ्गारकश्च रविः ॥२६२।। चकारो वज्रमध्यः प्रमोदो परसिंहवाहनः सूरः । चण्डरावणोऽपि च भीमो भयावहो रिपुमथनः ।।२६३।। निर्वाणभक्तिमानुग्रश्रीररुहभक्तिमांश्च । तथा च पवनोत्तरगतिरुत्तमोऽनिलश्च चण्डश्च ॥२६४॥ लङ्काशोको मयूखो महाबाहु मनोरमश्च रवितेजाः । महागति महाकान्तयशा अरिसंत्रासश्च राजानः ॥२६५।। चन्द्रवदनश्च महारवो मेघध्यानस्तथैव ग्रहक्षोभः । नक्षत्रदमनादय एवं विद्याधरा ज्ञेयाः ॥२६६।। कोटिनां शतसहस्रा एवं विद्याधरा बलसमृद्धाः । लङ्कापूर्याः स्वामिनो गता दीर्घकालेन ।।२६७।। १. जिणभाणु-प्रत्य० । २. जिणभाणु-प्रत्य० । Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पउमचरियं पुत्ताण निययरज्जं, दाऊण परंपराए निक्खन्ता । देवत्तं सिवसोक्खं, केइ ससत्तीए संपत्ता ॥२६८॥ एवं गएसु नियमा, महयापुरिसेसु पउमगब्भाए । मेहप्पभस्स पुत्तो, कित्तीधवलो समुप्पन्नो ॥२६९॥ विज्जाहरेहि समयं, आणाइस्सरियविविहगुणपुण्णो । लङ्कापुरीए रज्जं, कुणइ जहिच्छं सुरिन्दो व्व ॥२७०॥ एवं भवन्तरकएण तवोबलेणं, पावन्ति देव-मणुएसु महन्तसोक्खं । केएत्थ दड्डनीसेसकसाय-मोहा, सिद्धा भवन्ति विमला-ऽमलपङ्कमुक्का ॥२७१॥ ॥ इति पउमचरिए रक्खसवंसाहियारे पञ्चमुद्देसओ समत्तो ॥ पुत्रेभ्यो निजराज्यं दत्वा परंपरया निष्क्रान्ताः । देवत्वं शिवसुखं, केचित्स्वशक्त्या संप्राप्ताः ॥२६८॥ एवं गतेसु नियमा महापुरुषेषु पद्मगर्भायाम् । मेघप्रभस्य पुत्रः कीर्तिधवलः समुत्पन्नः ॥२६९।। विद्याधरैः सममाज्ञैश्वर्यविविधगुणपूर्णः । लङ्कापुर्या राज्यं करोति यथेच्छं सुरेन्द्र इव ।।२७०।। एवं भवान्तरकृतेन तपोबलेन प्राप्नुवन्ति देवमनुष्येषु महासुखम् । केचिद्दग्धनिःशेष कषाय-मोहाः सिद्धा भवन्ति विमलाऽमलपङ्कमुक्ताः ॥२७१।। ॥ इति पद्मचरिते राक्षसवंशाधिकारे पञ्चमोद्देशकः समाप्तः ॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो वानरवंश: एसो ते परिकहिओ, रक्खसवंसो मए समासेणं । एत्तो सुणाहि नरवइ ! वाणरवंसस्स उप्पत्ती ॥१॥ वेयड्डनगवरिन्दे, मेहपुरं दक्खिणाए सेढीए । विज्जाहरसामन्तो, अहइन्दो अत्थि विक्खाओ ॥२॥ भय सिरिमई से सिरिकण्ठो तीए गब्भसंभूओ । पुत्तो महागुणधरो, देवकुमारोवमसिरीओ ॥३॥ देवि त्ति नाम कन्ना, सिरिकण्ठसहोयरा विसालच्छी । सयलम्मि जीवलोए, रूवपडागा महिलियाणं ॥४॥ अह रयणपुराहिवई, वीरो पुप्फुत्तरो महाराया । तस्स गुणेहि सरिच्छो, पुत्तो पउमुत्तरो नाम ॥५॥ सिरिकण्ठनिययबहिणी, मग्गइ पुप्फुत्तरो सुयनिमित्तं । न य तेण तस्स दिन्ना, दिन्ना स. कित्तिधवलस्स ॥६॥ वित्तो चिय वीवाहो, दोण्ह वि विहिणा महासमुदएणं । सोऊण तन्निमित्तं, रुट्ठो पुप्फुत्तरो राया ॥७॥ अह अन्नया कयाई, सिरिकण्ठो वन्दणाए देवगिरिं । गन्तूण पडिनियत्तो, पेच्छइ कन्नं वरुज्जाणे ॥८॥ ती विसो कुमारी, दिट्ठो कुसुमाउहो व्व रूवेण । दोण्हं पि समणुरागो, तक्खणमेत्तेण उप्पन्नो ॥९॥ मुणिऊण ती भावं, हरिसवसुभिन्नदेहरोमञ्चो । अवगूहिऊण कन्नं, उप्पइओ नहयलं तुरिओ ॥१०॥ ६. राक्षस-वानर प्रव्रज्याविधानाधिकारः । वानरवंश: एष ते परिकथितो राक्षसवंशो मया समासेन । इतः श्रुणु नरपते ! वानरवंशस्योत्पत्तिः ॥ १ ॥ वैताढ्यनगवरेन्द्रे मेघपुरं दक्षिणायां श्रेण्याम् । विद्याधरसामन्तोऽहमिन्द्रोऽस्ति विख्यातः ||२|| T भार्या च श्रीमती तस्य श्रीकण्ठस्तस्याः गर्भसंभूतः । पुत्रो महागुणधरो देवकुमारोपमश्रिकः ॥३॥ देवीति नाम कन्या श्रीकण्ठसहोदरा विशालाक्षी । सकले जीवलोके रुपपताका महिलानाम् ॥४॥ अथ रत्नपुराधिपति र्वीरः पुष्पोत्तरो महाराजा । तस्य गुणैः सदृशः पुत्रः पद्मोत्तरो नाम ॥५॥ श्रीकण्ठनिजभगिनी मार्गयति पुष्पोत्तरः सुतनिमित्ते । न च तेन तस्य दत्ता, दत्ता सा कीर्तिधवलस्य ॥६॥ वृत्त एव विवाहो उभयोरपि विधिना महासमुदायेन । श्रुत्वा तन्निमितं रुष्टः पुष्पोत्तरो राजा ||७|| अथान्यदा कदाचित्श्रीकण्ठो वन्दनाय देवगिरिम् । गत्वा प्रतिनिर्वृत्तः पश्यति कन्यां वरोधाने ॥८॥ तयाऽपि स कुमारो दृष्टः कुसुमायुध इव रुपेण । द्वयोरपि समनुरागस्तत्क्षणमात्रेणोत्पन्नः ॥९॥ ज्ञात्वा तस्या भावं हर्षवशोद्भिन्नदेहरोमाञ्चः । अवगूहित्वा कन्यामुत्पतितो नभस्तलं त्वरितः ॥१०॥ १. धीरो - प्रत्य० । पउम भा-१/९ For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ पुप्फुत्तरो नरिन्दो, सिट्टे चेडीहि निय सुयासमग्गो । सन्नद्धबद्धकवओ, मग्गेण पहाविओ तस्स ॥११॥ बहुसत्थ-नीइकुसलो, सिरिकण्ठो जाणिऊण परमत्थं । लङ्कापुरिं पविट्ठो, सरणं चिय कित्तिधवलस्स ॥१२॥ संभासिओ सिणेहं, रक्खसवइणा पहट्ठमणसेणं । सिद्धं च जहावत्तं, कन्नाहरणाइयं सव्वं ॥१३॥ तावच्चिय गयणयले गयवर-रह- जोह - तुरयसंघट्टं । उत्तरदिसाए पेच्छइ एज्जन्तं साहणं विउलं ॥१४॥ कित्तिधवलेण दूओ, पेसविओ महुर- सामवयणेहिं । अह सो वि तुरियचवलो, सिग्धं पुप्फुत्तरं पत्तो ॥ १५ ॥ काऊण सिरपणामं, दूओ तं भणइ महुरवयणेहिं । कित्तिधवलेण सामिय !, विसज्जिओ तुज्झ पासम्मि ॥ १६ ॥ उत्तमकुलसंभूओ, उत्तमचरिएहि उत्तमो सि पहु ! । तेणं चिय तेलोक्के, भमइ जसो पायडो तुज्झ ॥१७॥ अह भइ कित्तिधवलो, सामि ! निसामेहि मज्झ वयणाई । सिरिकण्ठो य कुमारो, उत्तमकुल- रूवसंपन्नो ॥१८॥ उत्तमपुरिसाण जए, संजोगो होइ उत्तमेहि समं । अहमाण मज्झिमाण य, सरिसो, सरिसेहि वा होज्जा ॥१९॥ सुड्डु वि रक्खिज्जन्ती, 'थुथुक्कियं रक्खिया पयत्तेणं । होही 'परसोवत्था, खलयणरिद्धि व्व वरकन्ना ॥२०॥ दोण्णि वि उत्तमवंसा, दोण्णि वि वयसाणुरूवसोहाइं । एयाण समाओगो, होउ अविग्घं नराहिवई ! ॥२१॥ झेन कज्जं, बहुजणघाएण कारिएण पहू ! । परगेहसेवणं चिय, एस सहावो महिलियाणं ॥ २२ ॥ एवं चिय वट्टन्ते, उल्लावे ताव आगया दूई । नमिऊण चलणकमले, विज्जाहरपत्थिवं भणइ ॥ २३॥ पुष्पोत्तरो नरेन्द्रः शिष्टे चेटिभि र्निजसुतसमग्रः । सन्नद्धबद्धकवचो मार्गेण प्रधावितस्तस्य ॥११॥ बहुशास्त्रनीतिकुशलः श्रीकण्ठो ज्ञात्वा परमार्थम् । लङ्कापुरिं प्रविष्टः शरणमेव कीर्तिधवलस्य ॥१२॥ संभाषितः स्नेहं राक्षसपतिना प्रहृष्टमानसेन । शिष्टं च यथावृत्तं कन्याहरणादिकं सर्वम् ॥१३॥ तावच्चैव गगनतले गजवर-रथ-योध-तुरगसंघट्टम् । उत्तरदिशः पश्यत्यागच्छन्तं साधनं विपुलम् ॥१४॥ कीर्तिधवलेन दूतः प्रेषितो मधुर - सामवचनैः । अथ सोऽपि त्वरितचपलः शीघ्रं पुष्पोत्तरं प्राप्तः ॥१५॥ कृत्वा शिरःप्रणामं दूतस्तं भणति मधुरवचनैः । कीर्तितधवलेन स्वामिन् ! विसर्जितस्तव पार्श्वे ॥१६॥ उत्तमकुलसंभूत उत्तमचरितैरुत्तमोऽसि प्रभो ! । तेनैव त्रैलोक्ये भ्रमति यशः प्रकटं तव ॥१७॥ अथ भणति कीर्तितधवलः स्वामिन्निशामय मम वचनानि । श्रीकण्ठश्च कुमार उत्तम कुलरुप - संपन्नः ॥१८॥ उत्तमपुरुषाणां जगति संयोगो भवत्युत्तमैः समम् । अधमानां मध्यमानां च सदृशः सदृशै र्वा भवेत् ॥१९॥ सुष्ट्वपि रक्ष्यमाणी तिरस्कृत्य रक्षिता प्रयत्नेन । भविष्यति परोपभोग्या खलजनर्द्धिरिव वरकन्या ॥२०॥ द्वावप्युत्तमवंशौ द्वावपि वयसानुरुपशोभौ । अनयोः संयोगो भवत्वविघ्नं नराधिपते ! ||२१|| युद्धेन नास्ति कार्यं बहुजनघातेन कारितेन प्रभो ! । परगृहसेवनमेवैष स्वभावो महिलानाम् ॥२२॥ एवमेव वर्तत उल्लापे तावदागता दूती । नत्वा चरणकमलयो विद्याधरपार्थिवं भणति ||२३|| १. नियसुयाहरणे - मु० । २. तिरस्कृत्य । ३. परोपभोग्या । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो-६/११-३६ अह विन्नवेइ पउमा, सामि ! तुमं चलणवन्दणं काउं । सिरिकण्ठस्स नराहिव ! थेवो वि हु नत्थि अवराहो ॥२४॥ सयमेव मए गहिओ, एसो कम्माणुभावजोएण । अन्नस्स मज्झ नियमो, नरस्स एयं पमोत्तूणं ॥२५॥ बहुसत्थ-नीइकुसलो, राया परिचिन्तिऊण हियएणं । दाऊण तस्स कन्नं, निययपुरं पत्थिओ सिग्धं ॥२६॥ मग्गसिरसुद्धपक्खे, नक्खत्ते सोहणे तओ दियहे । वत्तं पाणिग्गहणं, अणन्नसरिसं वसुमईए ॥२७॥ अह भणइ कित्तिधवलो, सिरिकण्ठं तिव्वनेहपडिबद्धो । मा वच्चसु वेयव, तत्थ तुमं वेरिया बहवे ॥२८॥ अत्थेत्थ लवणतोए, दीवो मणि-रयणकिरणविच्छुरिओ । कप्पतरुसन्निहेहिं, संछन्नो पायवगणेहिं ॥२९॥ भीमा-ऽइभीमहेउं, दक्खिण्णं सुरवरेहि काऊण । पुव्वं चिय अणुणाया, खेयरवसहा इहं दीवे ॥३०॥ दीवो संझावेलो, मणपल्हाओ सुवेलकणयहरी । नामं सुओधणो वि य, जलअज्झाणो य हंसो य ॥३१॥ नामेण अद्धसग्गो, उक्कडवियडो त्थ रोहणो अमलो । कन्तो फुरन्तरयणो, तोयवलीसो अलवो य ॥३२॥ दीवो नभो य भाणू, खेमो य हवन्ति एवमाईया। निच्चं मणाभिरामा, आसन्ने देवरमणिज्जा ॥३३॥ अवरुत्तराए एत्तो, दिसाए तिण्णेव जोयणसयाइं । लवणजलमज्झयारे, वाणरदीवो त्ति नामेणं ॥३४॥ तत्थऽच्छसु वीसत्थो, काऊण पुरं महागुणसमिद्धं । बन्धवजणेण सहिओ, सुरवरलील विडम्बन्तो ॥३५॥ चेत्तस्स पढमदिवसे, सिरिकण्ठो निग्गओ सपरिवारो । रह-गय-तुरयसमग्गो, दीवाभिमुहो समुप्पइओ ॥३६॥ अथ विज्ञापयति पद्मा स्वामिन् ! तव चरणवन्दनं कृत्वा । श्रीकण्ठस्य नराधिप ! स्तोकोऽपि हु नास्त्यपराधः ॥२४॥ स्वयमेवमथ गृहीत एष कर्मानुभावयोगेन । अन्यस्य मम नियमो नरस्यैतं प्रमुच्य ॥२५॥ बहुशास्त्रनीतिकुशलो राजा परिचिन्त्य हृदयेन । दत्वा तस्य कन्यां निजपुरं प्रस्थितः शीघ्रम् ॥२६॥ मृगशीर्षशुद्धपक्षे नक्षत्रे शोभने ततो दिवसे । वृत्तं पाणिग्रहणमनन्यसदृशं वसुमत्याम् ॥३७॥ अथ भणति कीर्तिधवल: श्रीकण्ठं तीव्रस्नेहप्रतिबद्धः । मा गच्छ वैताढ्यं तत्र तव वैरिणो बहवः ॥२८॥ अस्त्यत्र लवणतोये द्वीपो मणि-रत्नकिरणविच्छुरितः । कल्पतरुसन्निभैः संच्छनः पादपगणैः ॥२९॥ भीमाऽतिभीमहेतुं दक्षिणां सुरवरैः कृत्वा । पूर्वमेवानुज्ञाताः खेचरवृषभा इह द्वीपे ॥३०॥ द्वीपः संध्यावेलो मनप्रह्लादः सुवेलकनकहरयः । नाम सुयोधनोऽपि च जलोध्यानश्च हंसश्च ॥३१॥ नाम्नार्धस्वर्ग उत्कटविकटोऽथ रोहणोऽमलः । कान्तः स्फूरन्तरत्नस्तोयबलीसोऽलङ्ग्यश्च ॥३२॥ द्वीपो नभश्च भानुः क्षेमश्च भवन्त्यवेमादिकाः । नित्यं मनोभिरामा आसन्ना देवरमणीयाः ॥३३॥ अपरोत्तरायामितो दिशि त्रिण्येव योजनशतानि । लवणजलमध्ये वानरद्वीप इति नाम्ना ॥३४॥ तत्रासतु विश्वस्तः कृत्वा पुरं महागुणसमृद्धम् । बान्धवजनेन सहितः सुरवरलीलां विडम्बयन् ॥३५॥ चैत्रस्य प्रथमदिवसे श्रीकण्ठो निर्गतः सपरिवारः । रथ-गज-तुरगसमग्रो द्वीपाभिमुखः समुत्पतितः ।।३६।। १. रमणिज्जे-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं पेच्छइ महासमुई, संघट्टट्ठन्तवीइ-कल्लोलं । गाहसहस्सावासं, आगासं चेव वित्थिण्णं ॥३७॥ संपत्तो च्चिय दळू, दीवं वररयणसंपयसमिद्धं । ओइण्णो सिरिकण्ठो, तत्थ निविट्ठो मणिसिलासु ॥३८॥ वज्जिन्दनील-मरगय-पूसमणी-पउमरायकन्तीए । लक्खिज्जइ बहुवण्णो, दीवो किरणाणुवालीए ॥३९॥ नाणाविहतरुणतरुब्भवेहि कुसुमेहि पञ्चवण्णेहिं । भसलीकओ व्व नज्जइ, निज्झर-गिरिविविहकुहरेहिं ॥४०॥ पण्डुच्छुवाडपउरो, सहावसंपन्नदीहियाकलिओ । वरकमलकेसरारुण-लवङ्गगन्धेण सुसुयन्धो ॥४१॥ अह एत्तो विहरन्तो, दीवं सव्वायरेण सिरिकण्ठो । पेच्छड् य वाणरगणे, सव्वत्तो माणुसायारे ॥४२॥ घेत्तूण ताण सव्वं, करणिज्जं खाण-पाणमाईयं । कारावियं च सिग्धं, कीलणहेउं नरिन्देण ॥४३॥ नच्चन्ति य वग्गन्ति य, जूवाउलयन्ति अन्नमन्नस्स । वाणरचडुलसहावा, जाया अइवल्लहा तस्स ॥४४॥ किक्किन्धिपव्वओवरि, भवण-ऽट्टालय-सुवण्णपायारं । चोद्दसजोयणविउलं, किक्किन्धिपुरं कयं तेण ॥४५॥ पासाय-तुङ्गतोरण-मणिरयणमयूहभत्तिविच्छुरियं । अमरपुरस्स व सोभां, हाऊण व होज्ज निम्मवियं ॥४६॥ जं जं जणो वि मग्गइ, उवगरणा-ऽऽभरण-भोयणाईयं । तं तत्थ हवइ सव्वं, विज्जाभावेण सन्निहियं ॥४७॥ एवंविहम्मि नयरे, पउमासहिओ अणोवमं रज्जं । भुञ्जइ सया सुमणसो, सुरलोगगओ सुरिन्दो व्व ॥४८॥ अह अन्नया कयाई, भवणस्सुवरिं ठिओ पलोएन्तो । पेच्छइ नहेण जन्तं, इन्दं नन्दीसरंदीवं ॥४९॥ पश्यति महासमुद्रं संघट्टोत्तिष्ठद्वीचीकल्लोलम् । ग्राहसहस्रावासमाकाशमिव विस्तीर्णम् ॥३७॥ संप्राप्त एव दृष्ट्वा द्वीपं वररत्नसंपत्समृद्धम् । अवतीर्णः श्रीकण्ठस्तत्र निविष्टः मणिशिलासु ॥३८॥ वजेन्द्रनील-मरकत-पुष्यमणि-पद्मरागकान्त्या । लक्ष्यते बहुवर्णो द्वीपः किरणानुपात्या ॥३९॥ नानाविधतरुणतरूद्भवैः कुसुमैः पञ्चवर्णैः । भ्रमरीकृत इव ज्ञायते निर्जर-गिरविविधकुहरैः ॥४०॥ पाण्डवेञ्जवाटप्रचूरः स्वभावसंपन्नदीर्घिकाकलितः । वरकमलकेसरारुणलवङ्गगन्धेन सुसुगन्धः ॥४१॥ अथे तो विहरन् द्वीपं सर्वादरेण श्रीकण्ठः । पश्यति च वानरगणान् सर्वतो मनुष्याकारान् ॥४२॥ गृहीत्वा तान् सर्वं करणीयं खानपानादिकम् । कारितं च शीघ्रं क्रीडनहेतु नरेन्द्रेण ॥४३॥ नृत्यन्ति च वल्गन्ति च यूका उल्लूनन्त्यन्योन्यस्य । वानरचटूलस्वभावा जाता अतिवल्लभास्तस्य ॥४४|| किष्किधिपर्वतोपरि भवनाथालय सुवर्णप्राकारम् । चतुर्दशयोजनविपुलं किष्किधिपुरं कृतं तेन ॥४५।। प्रासादतुङ्गतोरणमणिरत्नमयूखभक्तिविच्छुरितम् । अमरपुरस्येव शोभा हात्वेव भवेन्निर्मापितम् ॥४६॥ यद्यज्जनोऽपि मार्गयत्युपकरणाऽऽभरणभोजनादिकम् । तत्तत्र भवति सर्वं विद्याभावेन संनिहितम् ॥४७|| एवंविधे नगरे पद्मासहितोऽनुपमं राज्यम् । भुनक्ति सदा सुमनसः सुरलोकगतः सुरेन्द्र इव ॥४८॥ अथान्यदा कदाचिद्भवनस्योपरि स्थितः प्रलोकयन् । पश्यति नभसा यान्तमिन्द्रं नन्दीश्वरद्वीपम् ॥४९।। १. किंकिंधि-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो-६/३७-६३ गय-वसह-तुरय-केसरि-मय-महिस-वराहवाहणारूढा । वच्चन्ति देवसङ्घा, पूरेन्ता अम्बरं सयलं ॥५०॥ सरिऊण पुव्वजम्मं, भणइ निवो सुरवरा इमे सव्वे । नन्दीसरवरदीवं, वन्दणहेउम्मि वच्चन्ति ॥५१॥ अहमवि सुरेहि समयं, दीवं नन्दीसरं पयत्तेणं । गन्तूण चेइयाई, करेमि थुइमङ्गलविहाणं ॥५२॥ अह कोञ्चविमाणेणं, गयणेणं पत्थियस्स वेगेणं । मणुसुत्तरस्स उवरिं, गइपडिहाओ य से जाओ ॥५३॥ सो पेच्छिऊण देवे, वोलन्ते माणुसोत्तरं सेलं । परिदेविउं पयत्तो, सोगभरापूरियसरीरो ॥५४॥ हा ! कटुंचिय पावो, जो हं नन्दीसरं न संपत्तो । विहलमणोरहभावो, भग्गुच्छाहो फुडं जाओ ॥५५॥ नन्दीसरवरदीवे, जह पूया चेइयाण विरएउं। भावेण नमोक्कारं, पसन्नमणसो करिस्सामि ॥५६॥ जे चिन्तिया महन्ता, मणोरहा मन्दभागधेएणं । ते मे फलं न पत्ता, उदएण अहम्मकम्मस्स ॥५७॥ तह तं तरेमि एण्हि, धम्मं जिणदेसियं मुणिपसत्थं । जेणं चिय अनभवे, नन्दीसरवन्दओ होहं ॥५८॥ आगन्तूण पुरवरे, पुत्तं अहिसिञ्चिऊण रज्जम्मि । नामेण वज्जकण्ठं, पव्वज्जमुवागओ धीरो ॥५९॥ अह वज्जकण्ठराया, पिउचरियं पुच्छई भणइ साहू । दोण्णि जणा वाणियया, पुब्दि एक्कोयरा आसि ॥६०॥ तत्थ वसन्ताणं चिय, पीती जुवईहि फेडिया ताणं । मिच्छत्तो य कणिट्ठो, जेट्ठो पुण सावओ जाओ ॥६१॥ तत्थ कणिद्वेणं चिय, नरवइपुरओ य मारिओ पुरिसो । सो तं परिक्खिऊणं, सहोयरो देइ दव्वं से ॥६२॥ उवसमिऊण कणिटुं, जेट्ठो देवाहिवो समुप्पन्नो । सो वि सुरो होऊणं, चविओ जाओ य सिरिकण्ठो ॥६३॥ गज-वृषभ-तुरग-केसरि-मृग-महिष-वराहवाहनारूढाः । गच्छन्ति देवसङ्घाः पूरयन्तोऽबरं सकलम् ॥५०॥ स्मृत्वा पूर्वजन्म भणति नृपः सुरवरा इमाः सर्वे । नन्दीश्वरद्वीपं वन्दनहेतु गच्छन्ति ॥५१॥ अहमपि सुरैः समकं द्वीपं नन्दीश्वरं प्रयत्नेन । गत्वा चैत्यानि करोमि स्तुतिमङ्गलविधानम् ॥५२॥ अथ क्रौंचविमानेन गगनेन प्रस्थितस्य वेगेन । मानुषोत्तरस्योपरि गतिप्रतिघातश्च तस्य जातः ॥५३॥ स दृष्ट्वा देवान् लङ्घयतो मानुषोत्तरं शैलम् । परिदेवयितुं प्रवृत्तः शोकभरपूरितशरीरः ॥५४॥ हा! कष्टमेव पापो योऽहं नन्दीश्वरं न संप्राप्तः । विमलमनोरथभावो भग्नोत्साहः स्फट जातः ॥५५॥ नन्दीश्वरवरद्वीपे यथा पूजा चैत्यानां विरच्य । भावेन नमस्कारं प्रसन्नमनसः करिष्यामि ॥५६॥ ये चिन्तिता महान्तो मनरोथा मन्दभागधेयेन । ते मम फलं न प्राप्ता उदयेनाधर्मकर्मणः ॥५७॥ तथा तत्करोमीदानीं धर्मं जिनदेशितं मुनिप्रशस्तम् । येनैवान्यभवे नन्दीश्वरवन्दको भविष्यामि ॥५८॥ आगत्य पुरवरे पुत्रमभिषिञ्च्य राज्ये । नाम्ना वज्रकण्ठं प्रवज्यामुपागतो धीरः ॥५९॥ अथ व्रजंकण्ठराजा पितृचरित्रं पृच्छति भणति साधुः । द्वौ जनौ वणिजौ पूर्वमेकोदरावासताम् ॥६०॥ तत्र वसतोरेव प्रीति युवतिभिस्स्फेटिता तयोः । मिथ्यात्वी च कनिष्ठो ज्येष्ठः पुनः श्रावको जातः ॥६१।। तत्र कनिष्ठेनैव नरपतिपुरश्च मारितः पुरुषः । स तं परीक्ष्य सहोदरो ददाति द्रव्यं तस्मै ॥६२॥ उपशामय्य कनिष्ठं ज्येष्ठो देवाधिपः समुत्पन्नः । सोऽपि सुरो भूत्वा च्युतो जातश्च श्रीकण्ठः ॥६३।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पउमचरियं बन्धवनेहेण तओ, इन्दो अप्पाणयं पयरिसन्तो । सिरिकण्ठबोहणत्थं, गओ य नन्दीसरं दीवं ॥६४॥ इन्दस्स दरिसणेणं, तुज्झ पिया सुमरऊण परजम्मं । पडिबुद्धो पव्वइओ, एयं ते परिफुडं कहियं ॥६५॥ राया वि वज्जकण्ठो, पुत्तं इन्दाउहप्पभं रज्जे । ठविऊण य निक्खन्तो, पत्तो हियइच्छियं ठाणं ॥६६॥ इन्दाउहप्पभस्स वि, इन्दामयनन्दणो समुप्पन्नो । तस्स वि रुयकुमारो, मरुयस्स वि मन्दरो पुत्तो ॥६७॥ मन्दरनराहिवस्स वि, पवणगई खेयराहिवो जाओ। पवणगइस्स वि पुत्तो, रविप्पभो चेव उप्पन्नो ॥६८॥ जाओ रविप्पभस्स वि, राया अमरप्पभो महासत्तो । परिणेइ गुणवई सो, तिकूडसामिस्स वरधूयं ॥६९॥ वत्ते चिय वीवाहे, पेच्छइ सा तेहि तत्थ आलिहिए । वरकणयचुण्णकविले, पवङ्गमे दीहणङ्गले ॥७०॥ अह ते घोरायारे, भीया दट्ठण गुणवई सहस । अमरप्पभं पवन्ना, कम्पन्ती अङ्गमङ्गेसु ॥७१॥ अमरप्पभो कुमारो, रुट्ठो जेणेए धरणिपट्टम्मि । लिहिया वाणर अहमा, तस्स फुडं निग्गरं काहं ॥७२॥ विविहकला-ऽऽगमकुसलो, मन्ती तं भणइ महुरवयणेहिं । तं कारणं सुणिज्जउ, जेणेए पवङ्गमा लिहिया ॥७३॥ पुव्वं पहाणपुरिसो, सिरिकण्ठो नाम आसि विक्खाओ । अमरपुरसरिससोहं, किक्विङ्कधिपुरं कयं जेण ॥७४॥ तेणं चिय पढमयरं, आहाराईसु पवरपीईए । घेत्तूण बन्धवा इव, देवब्भूया परिट्ठविया ॥५॥ तत्तो पभूइ जे वि हु, कुल-वंसे नरवई समुप्पन्ना । ताणं पि मङ्गलत्थं, तित्थं चिय वाणरा जाया ॥७६॥ बान्धवस्नेहेन तत इन्द्र आत्मानं प्रकर्षयन् । श्रीकण्ठबोधनार्थं गतश्च नन्दीश्वरं द्वीपम् ॥६४|| इन्द्रस्य दर्शनेन तव पिता स्मृत्वा परजन्मम् । प्रतिबुद्धः प्रव्रजित एतत्तुभ्यं परिस्फूटं कथितम् ॥६५॥ राजाऽपि वज्रकण्ठ: पुत्रमिन्द्रायुधप्रभं राज्ये । स्थाप्य च निष्क्रान्तः प्राप्तो हृदयेच्छितं स्थानम् ॥६६।। इन्द्रायुधप्रभस्यापीन्द्रामृतनन्दनः समुत्पन्नः । तस्याऽपि मरुत्कुमारो मरुतोऽपि मन्दरः पुत्रः ॥६७।। मन्दरनराधिपस्यापि पवनगतिः खेचराधिपो जातः । पवनगतेरपि पुत्रो रविप्रभश्चैवोपन्नः ॥६८॥ जातो रविप्रभस्यापि राजाऽमरप्रभो महासत्त्वः । परिणयति गुणवन्तीं स त्रिकूटस्वामिनो वरदुहितरम् ॥६९।। वृत्त एव विवाहे पश्यति सा ताभिस्तत्रालिखिता । वरकनकचूर्णकपिलान् प्लवङ्गमान् दीर्घलाङ्गुलान् ।।७०।। अथ तान् घोराकारान् भीता दृष्ट्वा गुणवती सहसा । अमरप्रभं प्रपन्ना कम्पमाना अङ्गमङ्गेषु ॥७१॥ अमरप्रभ: कुमारो रुष्टो येनैते धरणिपृष्टे । लिखिता वानरा अधमास्तस्य स्फुटं निग्रहं करिष्यामि ॥७२॥ विविधकलाऽऽगमकुशलो मन्त्री तं भणति मधुरवचनैः । तत्कारणं श्रुणु येनैते प्लवङ्गमा लिखिताः ॥७३॥ पूर्व प्रधानपुरुषः श्रीकण्ठनामासीद्विख्यातः । अमरपुरसदृशशोभं किष्किन्धिपुरं कृतं येन ॥७४।। तेनैव प्रथमतरमाहारादिभिः प्रवरप्रीत्या । गृहीत्वा बान्धवा इव देवभूताः परिस्थापिताः ।।७५॥ ततः प्रभृति येऽपि हु कुलवंशे नरपतयः समुत्पन्नाः । तेषामपि मङ्गलार्थं तीर्थमेव वानरा जाताः ॥७६।। १.वि ताहे रवि-प्रत्य। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो - ६/६४-९० जे परंपरा, तुम्ह कुले वाणरा परिट्ठविया । तेणं इमे नराहिव ! आलिहिया मङ्गलनिमित्तं ॥७७॥ जं जस्स हवइ निययं, कुलोचियं मङ्गलं मणूसस्स । तं तस्स कीरमाणं, करेइ सुहसंपयं विउलं ॥७८॥ एवं सुणित्तु वयणं, भणइ निवो किं इमे धरणिपट्टे । आलिहिया कुलजेट्ठा !, पाएसु जणेण छिप्पन्ति ॥७९॥ छत्ते तोरणेसु य, धएसु पासायसिहर-मउडेसु । काऊण रयणघडिए, ठावेह पवङ्गमे सिग्घं ॥८०॥ एवं च भणियमेत्ते, छताइ विणिम्मिया मणिविचित्ता । वाणरविविहायारा, दिसासु सव्वासु पज्जत्ता ॥८१॥ अह अन्नया कयाई, राया अमरप्पभो य वेयड्ढे । जिणिऊण रिउ नियत्तो, भुञ्जइ रज्जं महाभोगं ॥८२॥ अमरप्पभस्स पुत्तो, नामेण कइद्धओ समुप्पन्नो । तस्स वि य हवइ भज्जा, सिरिप्पभा रूवसंपन्ना ॥८३॥ रिक्खरओ य अइबलो, गयणाणन्दो य खेयरनरिन्दो । गिरिनन्दो वि य एए, अन्नोन्नसुयाऽऽणुपुव्वीए ॥८४॥ एवं अणेयसंखा, वोलीणा वाणराहिवा वीरा । काऊण जिणवरतवं, सकम्मजणियं गया ठाणं ॥ ८५ ॥ जं जस्स हवइ निययं, नरस्स लोगम्मि लक्खणावयवं । तं तस्स होइ नामं, गुणेहि गुणपच्चयनिमित्तं ॥८६॥ खग्गेण खग्गधारी, धणुहेण धणुद्धरो पडेण पडी । आसेण आसवारो, हत्थारोहो य हत्थीणं ॥८७॥ इक्खूण य इक्खागो, जाओ विज्जाहराण विज्जाए । तह वाणरण वंसो, वाणरचिन्धेण निव्वडिओ ॥८८॥ वाणरचिन्धेण इमे, छत्ताइ निवेसिया कई जेण । विज्जाहरा जणेणं, वुच्चन्ति हु वाणरा तेणं ॥८९॥ सेयंसस्स भयवओ, जिणन्तरे तह य वासुपुज्जस्स । अमरप्पभेण एयं वाणरचिन्धं परिट्ठवियं ॥९०॥ येन परंपरया तव कुले वानराः परिस्थापिताः । तेनेमा नराधिप ! आलिखिता मङ्गलनिमित्तम् ॥७७॥ यद्यस्य भवति निजकं कुलोचितं मङ्गलं मनुष्यस्य । तत्तस्य क्रियमाणं करोति सुखसंपद्धपुलम् ॥७८॥ एवं श्रुत्वा वचनं भणति नृपः किमिमा धरणीपृष्टे । आलिखिताः कुलज्येष्ठाः पादैर्जनेन स्पृश्यन्ते ॥७९॥ छत्रेषु ते रणेषु च ध्वजेषु प्रासादशिखरमुकुटेषु । कृत्वा रत्नघटितान् स्थाप्यतां प्लवङ्गमान् शीघ्रम् ॥८०॥ एवं च भणितमात्रे छत्रादयो विनिर्मिता मणिविचित्रा: । वानरविविधाकारा दिक्षु सर्वासु पर्याप्ताः ॥८१॥ अथाऽन्यदा कदाचिद् राजाऽमरप्रभश्च वैताढ्ये । जित्वा रिपुं निवृत्तो भुनक्ति राज्यं महाभोगम् ॥८२॥ अमरप्रभस्य पुत्रो नाम्ना कपिध्वजः समुत्पन्नः । तस्यापि च भवति भार्या श्रीप्रभा रुपसंपन्ना ||८३|| ऋक्षरजाश्चातिबलो गगनानन्दश्च खेचरनरेन्द्रः । गिरिनन्दोऽपि चैते ऽन्योन्यसुता आनुपूर्व्या ॥८४॥ एवमनेकसंख्या गता वानराधिपा वीराः । कृत्वा जिनवरतपः स्वकर्मजनितं गताः स्थानम् ॥८५॥ यद्यस्य भवति निजकं नरस्य लोके लक्षणावयवम् । तत्तस्य भवति नाम गुणैर्गुणप्रत्ययनिमित्तम् ॥८६॥ खड्गेन खड्गधारी धनुष्येण धनुर्द्धरः पटेन पटी । अश्वेनाश्ववारो हस्त्यारोहश्च हस्तिना ॥८७॥ इक्षुणा चेक्ष्वाकुर्जातो विद्याधराणां विद्यया । तथा वानराणां वंशोवानरचिह्नेन निष्पन्नः ॥८८॥ वानरचिह्नेनेमे छत्राणि निवेशिताः कपयो येन । विद्याधरा जेनेनोच्यन्ते खलु वानरास्तेन ॥८९॥ श्रेयांसस्य भगवतो जिनान्तरे तथा च वासुपूज्यस्य । अमरप्रभेणेदं वानरचिह्नं परिस्थापितम् ॥९०॥ For Personal & Private Use Only ७१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अन्ने वि एवमाई, विज्जाहरपत्थिवा महासत्ता । सेवन्ति पुव्वचरियं, किक्विन्धिपुरे जहिच्छाए ॥ ९१ ॥ एवं वाणरवंसस्स संभवो नरवई ! समक्खाओ । अन्नं चिय संबन्धं, सुणाहि एत्तो पयत्तेण ॥९२॥ राया महोयहिरवो, किक्विन्धिपुरुत्तमे कुणइ रज्जं । विज्जुप्पभाए सहिओ, सुरलोगगओ सुरवरो व्व ॥९३॥ अट्टुत्तरं सयं से, पुत्ताणं सुरकुमारसरिसाणं । बलदप्पगव्वियाणं, पडिवक्खगइन्दसीहाणं ॥९४॥ मुनिसुव्वयस्स तित्थं, तइया वट्टइ भवोहमहणस्स । विज्जाहर- सुर-नरवइ - ससि - सूरसमच्चियकमस्स ॥९५॥ लङ्कापुरीए सामी, तडिकेसो नाम नरवई तइया । रक्खसवंसुब्भूओ, भुञ्जइ रज्जं महाभोगं ॥ ९६ ॥ दोहं पि ताण एक्कं, अच्चन्तसिणेहनिब्भरं हिययं । नवरं पुणाइ देहं, अन्नोन्नं केवलं जायं ॥९७॥ नाऊण वि डिके, पव्वइयं सव्वसङ्गओमुक्कं । राया महोयहिरवो, सो वि य दिक्खं समणुपत्तो ॥ ९८ ॥ अह भणइ मगहराया, तडिकेसो कम्मि कारणनिमित्ते । पव्वइओ खायजसो ? कहेह भयवं ! पडिफुडं मे ॥९९॥ तो भइ गणहरिन्दो तडिकेसो सुणसु पउमउज्जाणे । अन्तेउरेण सहिओ, रमिऊण सयंसमाढत्तो ॥ १०० ॥ वरबउल-तिलय-चम्पय-असोग-पुन्नाग- नागसुसमिद्धे । नन्दणवणे व्व सक्को, सुरवहुयासहगओ रमइ ॥१०१॥ अह कीलणसत्ताए, सिरिचन्दाए पवंगमो सहसा । पडिओ य तीए उवरिं, नहेहि फाडेइ थणकलसे ॥ १०२ ॥ दट्ठूण पणइणी सो, थणकलसुब्भिन्नरुहिरविच्छ्डुं । राया वि हु तडिकेसो, बाणेण पवंगमं हणइ ॥१०३॥ अन्येऽप्येवमादयो विद्याधरपार्थिवामहासत्वाः । सेवन्ते पूर्वचरितं किष्किन्धिपूरे यथेच्छ्या ॥९१॥ एवं वानरवंशस्य संभवो नरपते ! समाख्यातः । अन्यमेव संबन्धं श्रुण्वितः प्रयत्नेन ॥९२॥ राजा महोदधिरवः किष्किन्धिपुरोत्तमे करोति राज्यम् । विद्युत्प्रभया सहितः सुरलोकगतः सुरवर इव ॥९३॥ अष्टोत्तरशतं तस्य पुत्राणां सुरकुमारसदृशाम् । बलदर्पगर्वितानां प्रतिपक्षगजेन्द्रसिंहानाम् ॥९४॥ मुनिसुव्रतस्यतीर्थं तदा वर्तते भवौघमथनस्य । विद्याधर- सुर- नरपति - शशि - सूर्यसमचितक्रमस्य ॥९५॥ लङ्कापूर्याः स्वामी तडित्केशो नाम नरपतिस्तदा । राक्षसवंशोद्भूतो भुनक्ति राज्यं महाभोगम् ॥९६॥ द्वयोरपि तयोरेकमत्यन्तस्नेहनिर्भरं हृदयम् । नवरं पुन र्देहमन्योन्यं केवलं जातम् ॥९७॥ ज्ञात्वाऽपि तडित्केशं प्रव्रजितं सर्वसङ्गतो मुक्तम् । राजा महोदधिरवः सोऽपि च दिक्षां समनुप्राप्तः ॥ ९८॥ अथ भणति मगधराजा तडित्केशः कस्मिन्कारणनिमित्ते । प्रव्रजितः ख्यातयशाः कथय भगवन् ! परिस्फुटं मम ॥९९॥ तदा भणाति गणधरेन्द्रस्तडित्केशः श्रुणु पद्मोद्याने । अन्तः पुरेण सहितः रन्तुं स्वयं समारब्धः ॥१००॥ वरबकुल-तिलक-चम्पकाशोक-पुन्नाग-नागसमृद्धे । नन्दनवने इव शक्रः सुरवधुसहगतो रमते ॥१०१॥ अथ क्रीडनासक्तायां श्रीचन्द्रायां प्लवंगमः सहसा । पतितश्च तस्यामुपरि नखैः स्फोटयति स्तनकलशे ॥१०२॥ दृष्टवा प्रणयिनीं स स्तनकलशोद्भिन्नरुधिरविच्छर्दाम् । राजाऽपि हु तडित्केशो बाणेन प्लवंगमं हन्ति ॥ १०३ ॥ १. पुनः । २. भिन्नम् । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो-६/९१-११६ गाढप्पहरपरद्धो, मुच्छावसवेम्भलो पलायन्तो । पडिओ साहुसयासे, पवंगमो थोव जीवासो ॥१०४॥ अह पञ्चनमोक्कारो, दिन्नो से साहुणऽणुकम्पाए । मरिऊण समुप्पन्नो, उदहिकुमारो भवणवासी ॥१०५॥ सरिऊण पुव्वजम्मं, उदहिकुमारो तुरन्तमणवेगो । पत्तो उज्जाणवरे, निययसरीरस्स पूयत्थे ॥१०६॥ दद्वण वाणरगणे, सव्वत्तो खेयरेहि हम्मन्ते । अह कुणइ महाघोरे, पवंगमे जल-थला-ऽऽयासे ॥१०७॥ केएत्थ सिलाहत्था, अवरे गिरि-विविहरुक्खहत्था य । बुक्कारवं करेन्ता, हणन्ति चलणेसु महिवढे ॥१०८॥ दट्ठण वाणरगणे, तडिकेसो भणइ महुरवयणेहिं । को एस महासत्तो, जस्स इमं चेट्ठियं सहसा ? ॥१०९॥ जो सो तुमे नराहिव ! सरेण भिन्नो पवंगमो मरिउं । सो साहुपभावेणं, उदहिकुमारो अहं जाओ ॥११०॥ लङ्काहिवो पवुत्तो, उदहिकुमार मणोहरगिराए । तं खमसु मज्झ सव्वं, अमुणियधम्मस्स पावस्स ॥१११॥ अह ते दोण्णि वि समय, बन्धवनेहेण मुणिवरसयासं । गन्तूण पणमिऊण य, साहु पुच्छन्ति जिणधम्मं ॥११२॥ साहूण वि ते भणिया, मज्झ गुरू चिट्ठए समासन्ने । सन्तेण तेण तुष्भं, कहऽहं साहेमि वो धम्मं ? ॥११३॥ जो गुरवे साहीणे, धम्मं साहेइ पोढबद्धीए । सो पवयणपब्भट्ठो, भण्णइ अच्चासणासीलो ॥११४॥ ते दो वि तेण नीया, नमिऊण गुरुं तहिं चिय निविट्ठा । पुच्छन्ति मुणिवरं ते भयवं ! साहेह को धम्मो ! ॥११५॥ जं तेहि पुच्छिओ सो कहेइ धम्मं मुणी महाघोसो । जह बरहिणेहि घुटं, नवपाउसमेहसङ्काए ॥११६॥ गाढप्रहारपीडितो मूर्छावशविह्वलः पलायन् । पतितः साधुसकाशे प्लवंगमः स्तोकजीविताशः ॥१०४।। अथ पञ्चनमस्कारो दत्तस्तस्मै साधुनाऽनुकम्पया । मृत्वा समुत्पन्नः उदधिकुमारो भवनवासी ॥१०५॥ स्मृत्वा पूर्वजन्मोदधिकुमारस्त्वरन्मनोवेगः । प्राप्त उद्यानवरे निजकशरीरस्य पूजार्थे ॥१०६॥ दृष्ट्वा वानरगणान् सर्वतः खेचरैर्हन्यमानान् । अथ करोति महाघोरान् प्लवंगमान् जल-स्थलाकाशेषु ।।१०७|| केचिदत्र शीलाहस्ता अपरे गिरि-विविधवृक्षहस्ताश्च । गर्जनां कुर्वन्तो घ्नन्ति चरणाभ्यां महीपृष्टम् ॥१०८॥ दृष्ट्वा वानरगणांस्तडित्केशो भणति मधुरवचनैः । क एष महासत्वो यस्येदं चेष्टितं सहसा ॥१०९।। य स त्वया नराधिप ! शरेण भिन्नः प्लवंगमो मृत्वा । स साधुप्रभावेनोदधिकुमारोऽहं जातः ॥११०।। लङ्काधिपः प्रवृत्त उदधिकुमारं मनोहरगिरा । तत्क्षम मम सर्वमज्ञातधर्मस्य पापस्य ॥१११॥ अथ तौ द्वावपि समकं बान्धवस्नेहेन मुनिवरसकाशम् । गत्वा प्रणम्य च साधुं पृच्छतो जिनधर्मम् ॥११२।। साधुनाऽपि तौ भणितौ मम गुरुस्तिष्ठति समासन्ने । सता तेन तुभ्यं कथमहं कथयामि वो धर्मम् ॥११३।। यो गुरौ स्वाधीने धर्मं कथयति प्रौढबुद्धया । स प्रवचनप्रभ्रष्टो भण्यते ऽत्याशतनाशीलः ॥११४|| तौ द्वावपि तेन नीतौ नत्वा गुरुं तत्रैव निविष्टौ । पृच्छतो मुनिवरं तव भगवन् ! कथय को धर्मः ॥११५। यत्ताभ्यां पृष्टः स कथयति धर्मं मुनि महाघोषः । यथा बहिणै घृष्टं नवप्रावृट्मेघशङ्कया ॥११६।। १. विह्वलः । २. स्तोकजीविताशः । ३. साहेहि मे धम्म-प्रत्य० । पउम. भा-१/१० Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ पउमचरियं धर्मः तत्फलं चएक्के भणन्ति धम्मं, अमुणियपरमत्थनिच्छया पुरिसा । न य जाणन्ति विसेसं, आरम्भ-परिग्गहेसु रया ॥११७॥ सायार निरायारो, दुविहो धम्मो जिणेहि उवइट्ठो । मन्नन्ति जे हु तइयं, दड्डा ते मोहजलणेणं ॥११८॥ पढममहिंसा सच्चं, अदत्तदाणं (दत्तादाणं) तहेव नायव्वं । परदारस्स य विरई, संतोसोऽणुव्वया पञ्च ॥११९॥ छ→ च राइभत्तं, गुणव्वया तिणि चेव नायव्वा । चत्तारि य सिक्खाओ, गिहत्थधम्मो भवइ एसो ॥१२०॥ अणगारमहरिसीणं, सुद्धो धम्मो पओगनिप्फण्णो । पञ्चमहव्वयकलिओ, पञ्च य समिई तिगुत्तो य ॥१२१॥ गच्छन्ति देवलोगं, पुरिसा सायारधम्मलद्धपहा । भुञ्जन्ति पवरसोक्खं, अच्छरसामज्झयारगया ॥१२२॥ महरिसिधम्मेण पुणो, अव्वाबाहं सुहं अणोवमियं । पावन्ति समणसीहा, विसुद्धभावा नरा जे उ॥१२३॥ सावयधम्मुब्भूया, देवा चविऊण माणुसे लोए । समणत्तणेण मोक्खं, तिसु दोसु भवेसु वच्चन्ति ॥१२४॥ जइ विह तवं विगिटुं, करेन्ति अन्नाणिणो परं मूढा । तह वि य किंकरवग्गा, हवन्ति अप्पिड्ढिया देवा ॥१२५॥ तत्तो चुया समाणा, संसारे बहुविहासु जोणीसु । दुक्खाइँ अणुहवन्ता, अणेयकालं परिभमन्ति ॥१२६॥ वह-बन्ध-वेह-मारण-ताडण-निब्भच्छणाइबहुदोसं । दुक्खं तिरिक्खजीवा, अणुहवमाणा य अच्छन्ति ॥१२७॥ नरएसु वि नेरड्या, फुलिङ्गजालाउले महादुक्खं । अच्छन्ति अणुहवन्ता, पुव्वं काऊण पावाई ॥१२८॥ करवत्त-जन्त-सामलि-असिपत्तावडण-कुम्भिपाएसु । एएसु चेव जीवा, महन्तदुक्खाइँ पावन्ति ॥१२९॥ धर्मः तत्फलं चएके भणन्ति धर्ममज्ञातपरमार्थनिश्चयाः पुरुषाः । न च जानन्ति विशेषमारम्भपरिग्रहेषु रताः ॥११७।। साकार-निराकारो द्विविधो धर्मो जिनैरुपदिष्टः । मन्यन्ते ये तु तृतीयं दग्धास्ते मोहज्वलनेन ॥११८॥ प्रथममहिंसा सत्येनदत्तादानं तथैव ज्ञातव्यम् । परदारायाश्च विरतिः संतोषोऽणुव्रताः पञ्च ॥११९॥ षष्टं च रात्रिभक्तं गुणव्रतास्त्रिंश्चैव ज्ञातव्याः । चतुर्थ्यश्च शिक्षातो गृहस्थधर्मो भवत्येषः ॥१२०॥ अणगारमहर्षीणां शुद्धो धर्मः प्रयोगनिष्पन्नः । पञ्चमहाव्रतकलितः पञ्च च समितयस्त्रिगुप्तयश्च ॥१२१॥ गच्छन्ति देवलोकं पुरुषाः साकारधर्मलब्धपथाः । भुञ्जन्ति प्रवरसौख्यमप्सरसां मध्यगताः ॥१२२।। महर्षिधर्मेण पुनरव्याबाधं सुखमनोपमितम् । प्राप्नुवन्ति श्रमणसिंहा विशुद्धभावा नरा ये तु ॥१२३॥ श्रावकधर्मोद्भूता देवाश्च्युत्वा मनुष्ये लोके । श्रमणत्वेन मोक्षं त्रिषु द्वयोर्भवेषु र्गच्छन्ति ॥१२४॥ यद्यपीह तवो विकृष्टं कुर्वन्त्यज्ञानिनः परे मूढाः । तथाऽपि च किंकरवर्गा भवन्त्यल्पद्धिका देवाः ॥१२५|| ततश्च्युताः सन्तः संसारे बहुविधासु योनिषु । दुःखान्यनुभवन्तोऽनेककालं परिभ्रमन्ति ॥१२६॥ वध-बन्ध-वेध-मारण-ताडन-निर्भत्सनादिबहुदोषम् । दुःखं तिर्यञ्जीवा अनुभवमानाश्च आसते ॥१२७|| नरकेष्वपि नैरयिकाः स्फुलिंगज्वालाकुलेषु महादुःखम् । आसते ऽनुभवन्तः पूर्वं कृत्वा पापानि ॥१२८॥ करपत्र-यन्त्र-शाल्मल्यसिपत्रापतन-कुम्भीपाकेषु । एतेषु चैव जीवा महादुःखानि प्राप्नुवन्ति ॥१२९।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो-६/११७-१४२ जह रण्णम्मि पविट्ठो, मूढो परिभमइ मग्गनासम्मि । तह धम्मेण विरहिओ, हिण्डइ जीवो वि संसारे ॥१३०॥ ते दो वि तग्गयमणा, मुणिवरमुहकमलनिग्गयं धम्मं । सुणिऊण निययचरियं, पुच्छन्ति पुणो पयत्तेणं ॥१३१॥ जइ एव धम्मरहिओ, जीवो परिभमइ दीहसंसारे। तो कह पुणाइ अम्हे, एत्थं परिहिण्डिया भयवं ! ॥१३२॥ अह साहिउं पवत्तो, पुव्वभवं मुणिवरो महुरभासी । सुणह इओ एगमणा, कहेमि तुझं समासेणं ॥१३३॥ एयम्मि परिभमन्ता, पुरिसा संसारमण्डले घोरे। घाऐंन्ति एक्कमेक्कं, दोण्णि वि मोहाणुभावेणं ॥१३४॥ अह कम्मनिज्जराए, दोण्णि वि पुरिसा तओ समुप्पन्ना । वाणारसीए एक्को, जाओ वाहो महापावो ॥१३५॥ सावत्थीनयरीए, बीओ वि हु मन्तिनन्दणो जाओ।दत्तो नामेण तओ, पव्वइओ जायसंवेगो ॥१३६॥ विहरन्तो संपत्तो, कासिपुरे सुत्थिए वरुज्जाणे । तसपाण-जन्तुरहिए, तत्थ ठिओ झाणजोएणं ॥१३७॥ लोगो वि पूयणत्थं, सम्मद्दिट्ठी समागओ तस्स । भावेण विणयपणओ, पयाहिणं कुणइ परितुट्ठो ॥१३८॥ झाणोवओगजुत्तं, वाहो दट्टण फरुसवयणेहि । सत्थेसु कुणइ तिव्वं, विहीसियं तस्स दुट्ठप्पा ॥१३९॥ । अवसउणो य अलज्जो, पारद्वीफन्दियस्स जाओ मे । तिव्वं अमङ्गलं चिय, धणु पहरन्तो समुग्गिरइ ॥१४०॥ साहू वि झाणजुत्तो, एवं चिन्तेइ तत्थ हियएणं । चूरेमि पावकम्मं मुट्ठिपहाराहयं सन्तं ॥१४१॥ तव-संजमेण पुव्वं, लन्तगजोगं समज्जियं कम्मं । झाणस्सकलुसयाए, जोइसवासित्तणं पत्तं ॥१४२॥ यथा रण्ये प्रविष्टो मूढ: परिभ्रमति मार्गनाशे । तथा धर्मेण विरहितोऽटति जीवोऽपि संसारे ॥१३०।। तौ द्वावपि तद्गतमनसौ मुनिवरमुखकमलनिर्गतं धर्मम् । श्रुत्वा निजचरित्रं पृच्छतः पुनः प्रयत्नेन ॥१३१॥ यद्येवं धर्मरहितो जीव: परिभ्रमति दीर्घसंसारे । तदा कथं पुनरावामत्र पर्यटन्तौ भगवन् ! ॥१३२।। अथ कथयितुं प्रवृत्तः पूर्वभवं मुनिवरो मधुरभाषी । श्रुणुतमित एकाग्रमनसौ कथयामि वां समासेन ॥१३३।। एतस्मिन्परिभ्रमन्तौ पुरुषौ संसारमण्डले घोरे । हत एकमेकं द्वावपि मोहानुभावेन ॥१३४।। अथ कर्मनिर्जराया द्वावपि पुरुषौ ततः समुत्पन्नौ । वाराणस्यामेको जातो व्याधो महापापः ॥१३५।। श्रावस्तीनगर्यां द्वितीयोऽपि हु मन्त्रिनन्दनो जातः । दत्तो नाम्ना ततः प्रव्रजितो जातसंवेगः ॥१३६॥ विहरन्संप्राप्तः काशीपुरे सुस्थिते वरोद्याने । त्रसप्राण-जन्तुरहिते तत्र स्थितो ध्यानयोगेन ॥१३७|| लोकोऽपि पूजनार्थं सम्यग्दृष्टिः समागतस्तस्य । भावेन विनयप्रणतः प्रदक्षिणां करोति परितुष्टः ॥१३८।। ध्यानोपयोगयुक्तं व्याधो दृष्ट्वा परुषवचनैः । शस्त्रैः करोति तीव्र बिभिषिकं तस्य दुष्टात्मा ॥१३९॥ अपशकुनश्चालज्जः पापद्धिस्पन्दितस्य जातो मम । तीव्रममङ्गलमेव धनुः प्रहरन्समुद्दगीरति ॥१४०॥ साधुरपि ध्यानयुक्त एवं चिन्तयति तत्र हृदयेन । पश्यामि पापकर्म मुष्टिप्रहाराहतं सत् ॥१४१।। तपः संयमाभ्यां पूर्वं लान्तकयोग्यं समर्जितं कर्म । ध्यानस्यकालुष्याज् ज्योतिर्वासीत्वं प्राप्तम् ॥१४२॥ १. ठाण जोएणं-प्रत्य० । २. भय प्रदर्शनम् । Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पउमचरियं तत्तो चुओ समाणो, इह तडिकेसो तुमं समुप्पन्नो । वाहो वि परिभमित्ता, संसारे वाणरो जाओ ॥१४३॥ जो सो बाणेण हओ, तडिकेस ! तुमे पवंगमो मरिठं । सो साहुपभावेणं, उदहिकुमारो समुप्पन्नो ॥१४४॥ एयं मुणित्तु चरियं, परिचयह पुणब्भवेसु जं वत्तं । मा पुणरवि संसारं, वेरनिमित्तेण परिभमह ॥१४५॥ मोत्तूण पुव्ववेरं, पणमह मुणिसुव्वयं पयत्तेणं । तो अरय-विरय-विमलं, सिवसुहवासं समज्जेह ॥१४६॥ खामेऊण य एत्तो, उदहिकुमारो गओ निययभवणं । तडिकेसो वि य गिण्हइ, मुणिवरपासम्मि पव्वज्जं ॥१४७॥ तस्स य गुणेहि सरिसो, पुत्तो लङ्काहिवो सुकेसो त्ति । एकन्तसुहसमिद्धं, भुञ्जइ रज्जं महाभोगं ॥१४८॥ काऊण तवमुयारं, सम्मं आराहिऊण कालओ । तडिकेससमणसीहो देवो जाओ महिड्डीओ ॥१४९॥ एत्थन्तरे महप्पा, किक्किन्धिपुराहिवो कुणइ रज्जं । राया महोयहिरवो, ताव य विज्जाहरो पत्तो ॥१५०॥ अह तेण तत्खणं चिय, तडिकेसनिवेयणे समक्खाए । राया महोयहिरवो, तक्खणमेत्तेण संविग्गो ॥१५१॥ अहिसिञ्चिऊण पुत्तं, पडिइन्दं रज्जभरधुराहारं । राया महोयहिरवो, पव्वइओ जातसंवेगो ॥१५२॥ झाणगइन्दारूढो, तवतिक्खसरेण निहयकम्मरिऊ । निक्कण्टयमणुकूलं, सिद्धिपुरि पत्थिओ धीरो ॥१५३॥ पडिइन्दो वि य राया, पुत्तं किक्किन्धिनामधेयं सो । अहिसिञ्चिऊण रज्जे, दिक्खं जिणदेसियं पत्तो ॥१५४॥ चारित्त-नाण-दसण-विसुद्धसम्मत्तलद्धमाहप्पो । काऊण तवमुयारं, सिवमयलमणुत्तरं पत्तो ॥१५५॥ एत्थन्तरे नराहिव, वेयड्ढे दक्खिणिल्लसेढीए । विज्जाहराण नयरं, रहनेउरचक्कवालपुरं ॥१५६॥ ततश्च्युतः सन्निह तडित्केशस्त्वं समुत्पन्नः । व्याधोऽपि परिभ्रम्य संसारे वानरो जातः ॥१४३।। य स बाणेन हतस्तडित्केश ! त्वया प्लवंगमो मृत्वा । स साधुप्रभावेनोदधिकुमार समुत्प्नः ॥१४४॥ एतज्ज्ञात्वा चरित्रं परित्यज पुनर्भवेषु यद्वृत्तम् । मा पुनरपि संसारं वैरनिमित्तेन परिभ्रम ॥१४५।। मुक्त्वा पुर्ववैरं प्रणम मुनिसुव्रतं प्रयतेन । ततोऽरजोविरलविमलं शिवसुखवासं समर्जय ॥१४६।। क्षामयित्वा चेत उदधिकुमारो गतो निजभवनम् । तडित्केशोऽपि च गृह्णाति मुनिवरपार्वे प्रव्रज्याम् ॥१४७|| तस्य च गुणैः सदृशः पुत्रो लङ्काधिपः सुकेश इति । एकान्तसुखसमृद्धं भुनक्ति राज्यं महाभोगम् ॥१४८॥ कृत्वातप उदारं सम्यगाराध्य कालगतः । तडित्केश श्रमणसिंहो देवो जातो महर्द्धिकः ॥१४९। अत्रान्तरे महात्मा किष्किन्धिपुराधिपः करोति राज्यम् । रजा महोदधिरवस्तावच्च विद्याधरः प्राप्तः ॥१५०।। अथ तेन तत्क्षणमेव तडित्केशनिवेदने समाख्याते । राजा महोदधिरवस्तत्क्षणमात्रेण संविग्नः ॥१५१॥ अभिषिञ्च्य पुत्रं प्रतीन्द्रं राज्यभारधुराधारम् । राजा महोदधिरवः प्रव्रजितो जातसंवेगः ॥१५२॥ ध्यानगजेन्द्रारुढस्तपस्तीक्ष्णशरेणनिहतकर्मरिपुम् । निष्कण्टकमनुकूलं सिद्धिपुरिं प्रस्थितो धीरः ॥१५२।। प्रतीन्द्रोऽपिराजा पुत्रं किष्किन्धिनामधेयं स । अभिषिञ्च्य राज्ये दिक्षां जिनदेशितां प्राप्तः ॥१५४।। चारित्र-ज्ञान-दर्शनविशुद्धसम्यक्त्वलब्धमाहत्म्यः । कृत्वा तप उदारं शिवमलमनुत्तरं प्राप्तः ॥१५५।। अत्रान्तरे नराधिप ! वेताढ्यदक्षिणश्रेण्याम् । विद्याधराणां नगरं रथनूपुरचक्रवालपुरम् ॥१५६।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ওও रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो-६/१४३-१६९ तत्थेव असणिवेगो, राया विज्जाहराण सव्वेसिं । पुत्तो य विजयसीहो, बीओ पुण विज्जुवेगो त्ति ॥१५७॥ आइच्चपुराहिवई, मन्दरमालि त्ति नाम विक्खाओ । भज्जा से वेगवई, तीए सुया नाम सिरिमाला ॥१५८॥ तीए सयंवरत्थं, विज्जाहरपत्थिवा समाहूया । आगन्तूण य तो ते, मञ्चेसु ठिया य सव्वे वि ॥१५९॥ सव्वम्मि सुपडिउत्ते सिरिमालाभरणभूसियसरीरा । वरजुवइ-मन्तिसहिया, रायसमुदं समोइण्णा ॥१६०॥ पासेसु चामराई, उवरिं पडिपुण्णनिम्मलं छत्तं । पुरओ य नन्दितूरं, घणगुरुगम्भीरसद्दालं ॥१६१॥ दट्टण तीए रूवं, जोव्वण-लयण्ण-कन्तिसंपुण्णं । वम्महसरेसु भिन्ना, बहवे आयल्लयं पत्ता ॥१६२॥ केई भणन्ति एवं, कस्सेसा ललियजोव्वणापुण्णा । होही वरकल्लाणी, रूवपडाया इमा महिला ॥१६३॥ अन्ने भणन्ति पुव्वं, जेण तवो सुविउलो समणुचिण्णो । तस्सेसा वरम हिला, होही कम्माणुभावेणं ॥१६४॥ सव्वत्थसत्थकुसला, नामेण सुमङ्गला भणइ धाई । निसुणेहि कहिज्जन्ते, सिरिमाले खेयरनरिन्दे ॥१६५॥ जो एस विउलवच्छो, धीरो रविकुण्डलो कुमारवरो । ससिकुण्डलस्स पुत्तो, तडिप्पभागब्भसंभूओ ॥१६६॥ अम्बरतिलयाहिवई, वरेसु एवं मणस्स जइ इट्ठो ।माणेहि सुरयसोक्खं, मयणेण समं रई चेव ॥१६७॥ अन्नो वि एस सन्दरि, लच्छीविज्जंगयस्स वरपुत्तो । रयणपुरस्स य सामी, नामं विज्जासमुग्घाओ ॥१६८॥ एयस्स पासलग्गो, वज्जसिरीगब्भसंभवो एसो । वज्जाउहस्स पुत्तो, वज्जाउहपञ्जरो नामं ॥१६९॥ तत्रैवासनिवेगो राजा विद्याधराणां सर्वेषाम् । पुत्रश्च विजयसिंहो द्वीतीयः पुन विद्युद्वेग इति ॥१५७।। आदित्यपुराधिपतिर्मन्दरमालीति नाम विख्यातः । भार्या तस्य वेगवती, तस्याः सुता नाम श्रीमाला ॥१५८॥ तस्यास्वयंवरार्थं विद्याधरपाथिवाः समाहुताः । आगत्य च ततस्ते मञ्चेषु स्थिताश्च सर्वेऽपि ॥१५९॥ सर्वस्मिन्सुप्रत्युक्ते श्रीमालाभरणभूषितशरीरा । वरयुवतिमन्त्रिसहिता राजसमुद्रं समवतीर्णा ॥१६०॥ पार्श्वयोश्चामरादिरूपरि प्रतिपूर्णनिर्मलं छत्रम् । पुरतश्च नन्दितूर्यं घनगुरुगम्भीरशब्दवत् ॥१६१॥ दृष्ट्वा तस्या रुपं यौवनलावण्यकान्तिसंपूर्णम् । मन्मथशरैभिन्ना बहवः सरोगतां प्राप्ताः ॥१६२॥ केचिद्भणन्त्येवं कस्येषा ललितयौवनापूर्णा । भविष्यति वरकल्याणी रूपपताकेमा महिला ॥१६३।। अन्य भणन्ति पूर्वं येन तपः सुविपुलं समनुचीर्णम् । तस्येषा वरमहिला भविष्यति कर्माणुभावेन ॥१६४।। सर्वशास्त्रकुशला नाम्ना सुमंगला भणति धात्री । निःश्रुणु कथयतः श्रीमाले ! खेचरनरेन्द्रान् ॥१६५।। य एष विपुलवक्षा धीरो रविकुण्डलःकुमारवरः । शशीकुण्डलस्य पुत्रस्तडित्प्रभागर्भसम्भूतः ॥१६६।। अम्बरतिलकाधिपतिं वरैनं मनसो यदीष्टम् । अनुभव सुरतसौख्यं मदनेन समं रतीव ॥१६७॥ अन्योऽप्येष सुन्दरि ! लक्ष्मीविद्यांगदयो वरपुत्रः । रत्नपुरस्य च स्वामी नाम विद्यासमुद्धातः ॥१६८।। एतस्य पार्श्वलग्नो वज्रश्रीगर्भसंभव एषः । वज्रायुधस्य पुत्रो वज्रायुधपञ्जरो नाम ॥१६९॥ १. सरोगताम्। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ पउमचरियं अह मेरुदत्तपुत्तो, सिरिरम्भागब्भसंभवो एसो । मन्दरकुञ्जाहिवई, नामेण पुरंदरो राया ॥१७०॥ माणसवेगस्स सुओ, वेगवईणंदणो वरकुमारो । नागपुरसामिओ सो, पवणगई नाम विक्खाओ ॥१७१॥ एए अन्ने य बहू, सिरिमाले ! पेच्छ खेयरनरिन्दे । कुल-विभव-रूव-जोव्वण-विज्जासयरिद्धिसंपन्ने ॥१७२॥ एयाण नरवईणं, जो सो हिययस्स वल्लहो तुझं । तस्स य करेहि वरतणु ! मालं कण्ठम्मि सिरिमाले ! ॥१३॥ अवलोइऊण सव्वे, विज्जाहरपत्थिवे पयत्तेणं । बालाए मणभिरामा, किक्किन्धि पाविया दिट्ठी ॥१७४॥ हंसगइगमणमणहर-लीलाए कविवरस्स गन्तूणं । सा छेयसिप्पियकया, माला कण्ठम्मि ओलइया ॥१७५॥ दगुण विजयसीहो, किक्किन्धि कुसुममालकयकण्ठं । रुट्ठो पवंगमाणं, आभासइ उच्चकण्ठेणं ॥१७६॥ न य एत्थ नन्दणवणं, फलाउलं नेव निज्झरा रम्मा । न य वानरीण वन्दं, जेणेत्थ पवंगमा पत्ता ॥१७७॥ जेणेते दुरायारा, आणीया वाणरा इहं पावा । दूयाहमस्स सिग्धं, तस्स फुडं निग्गरं काहं ॥१७८॥ सोऊण वयणमेयं, गय-तुरयसमोत्थरन्तपाइक्कं । खुहियं पवंगमबलं, सागरसलिलं व उच्छलियं ॥१७९॥ करपीणसमुप्फोडण-बुक्कारव-तुरयहिंसियरवेणं । बहिरीकयं व नज्जइ, भुवणमिणं तूरसदेणं ॥१८०॥ आलग्गा पवरभडा, विज्जाहरपत्थिवेहि सह जुज्झं । असि-कणय-चक्क-तोमर-घणपहरणपडणसुसमिद्धं ॥१८१॥ हत्थी हत्थीण समं, अब्भिट्टो रहवरो सह रहेणं । तुरएण सह तुरङ्गो, पाइक्को सह पयत्थेणं॥१८२॥ अथ मेरुदत्तपुत्र श्रीरम्भागर्भसंभव एषः । मन्दरकुञ्जाधिपति र्नाम्ना पुरंदरो राजा ॥१७०।। मानसवेगस्य सुतो वेगवतीनन्दनो वरकुमारः । नागपुरस्वामी स पवनगति र्नाम विख्यातः ॥१७१॥ एतानन्यांश्च बहून्श्रीमाले ! पश्य खेचरनरेन्द्रान् । कुल-विभव-रुप-यौवन-विद्या-शतद्धिसंपन्नान् ।।१७२।। एतेषां नरपतीनां य स हृदयस्य वल्लभस्तव । तस्य च कुरु वरतनु ! मालां कण्ठे श्रीमाले ! ॥१७३॥ अवलोक्य सर्वान् विद्याधरपार्थिवान् प्रयतेन । बालाया मनोभिरमा किष्किधि प्रापिता दृष्टिः ॥१७४॥ हंसगतिगमनमनोहरलीलया कपिवरस्य गत्वा । सा निपुणशिल्पिकृता माला कण्ठे आरोपिता ॥१७५॥ दृष्ट्वा विजयसिंहः किष्किधिं कुसुममालाकृतकण्ठम् । रुष्टः प्लवंगमानाभाषयत्युच्चकण्ठेन ॥१७६।। न चात्र नन्दनवनं फलाकुलं नैव निर्झरा रम्याः । न च वानरीणां वृन्दं येनात्र प्लवंगमाः प्राप्ताः ॥१७७॥ येनेते दुराचारा आनीता वानरा इह पापाः । दुताधमस्य शीघ्रं तस्य स्फुटं निग्रहं करिष्यामि ॥१७८॥ श्रुत्वा वचनमेतद्गजतुरगसमवसरत्पदातिम् । क्षुब्धं प्लवंगमबलं सागरसलिलमिवोच्छलितम् ॥१७९॥ करपीनसमुत्स्फोटनगर्जारवतुरगर्हिसितरवेणं । बधिरीकृतमिव ज्ञायते भुवनमिदं तूर्यशब्देन ॥१८०।। आलग्ना प्रवरभटा विद्याधरपार्थिवैः सह युद्धम् । असि-कनक-चक्र-तोमर-दानप्रहरणपाटनसुसमृद्धम् ॥१८१।। हस्ती हस्तिना समं प्रवृत्तो रथवरः सहरथेन । तुरगेण सह तुरङ्गः पदातिः सह पदस्थेन ॥१८२।। १. तस्स करेहि तणुम्मि मालं-प्रत्य० । २. कपिवरस्य । ३. निज्झराऽऽरामा-प्रत्य० । ४. पदस्थेन । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो-६/१७०-१९५ खेयर-पवंगमाणं, वट्टन्ते भेरवे महाजुज्झे । ताव य किक्किन्धिसुही, सुकेसिराया समणुपत्तो ॥१८३॥ तो सो महोरगो इव, रक्खसनाहो उवढिओ पुरओ।विज्जाहरेहि समयं, जुज्झइ पसरन्तबलनिवहो ॥१८४॥ एत्थन्तरम्मि जुज्झं, आवडियं दारुणं वरभडाणं । विच्छूढघायपरं, अन्धयवर-विजयसीहाणं ॥१८५॥ अन्धकुमारेण तओ, किक्किन्धिसहोयरेण रणमज्झे । छिन्नं च असिवरेणं, सीसं चिय विजयसीहस्स ॥१८६॥ सोऊण पुत्तमरणं, वज्जेण व ताडिओ असणिवेगो । परिदेविउं पयत्तो, सोगमहासागरे पडिओ ॥१८७॥ वहिऊण विजयसीह, पवंगमा रक्खसा य बलसहिया । आगासगमणदच्छा, किक्किन्धिपुरं सममुपत्ता ॥१८८॥ राया वि असणिवेगो, सोगं मोत्तूण रोसपज्जलिओ।अह ताण मग्गलग्गो, समागओ सो वि किक्किन्धि ॥१८९॥ सोऊण असणिवेगं, समागयं रणपयण्डसोंडीरं। वाणरसुहडाऽभिमुहा, विणिग्गया रक्खसभडा य ॥१९०॥ असि-कणय-परसु-पट्टिस-संपघट्टट्ठन्तघायपज्जलियं । बहुभडजीयन्तकर, जुझं अइदारुणं लग्गं ॥१९१॥ उग्गिण्णखग्गहत्थो, संपत्तो अन्धओ असणिवेगं । किक्विन्धी वि रणमुहे, आभिट्टो विज्जुवेगस्स ॥१९२॥ निहओ अन्धकुमारो, चडक्कवेगेण समरमज्झम्मि । वोच्छिन्नजीवियासो, रणरसपरिमुक्कवावारो ॥१९३॥ किक्किन्धिनरवईण वि, कढिणसिला गिण्हिऊण विक्खित्ता। वच्छत्थलम्मि विउले, पडिया सा विज्जुवेगस्स ॥१९४॥ सो असणिवेगपुत्तो, तं चेव सिलं महन्त-वित्थिण्णं । पेसेइ पडिपहेणं, वाणरनाहस्स आरुट्ठो ॥१९५॥ खेचर-प्लवंगमानां वर्तते भैरवे महायुद्धे । तावच्च किष्किन्धिसखाः सुकेशीराजा समनुप्राप्तः ॥१८३।। तदा स महोरग इव राक्षसनाथ उपस्थितः पुरतः । विद्याधरैः समकं युध्यति प्रसरन्बलनिवहः ॥१८४|| अत्रान्तरे युद्धमापतितं दारुणं वरभटयोः । विक्षिप्तघातप्रचूरमन्धकवर-विजयसिंहयोः ॥१८५।। अन्धकुमारेण ततो किष्किन्धिसहोदरेण रणमध्ये । छिन्नं चासिवरेण शीर्षमेव विजयसिंहस्यः ॥१८६॥ श्रुत्वापुत्रमरणं वज्रेणेव ताडितोऽशनिवेगः । परिदेवितुं प्रवृतः शोकमहासागरे पतितः ॥१८७।। हत्वा विजयसिंहं प्लवंगमा राक्षसाश्च बलसहिताः । आकाशगमनदक्षाः किष्किन्धिपुरं समनुप्राप्ताः ॥१८८॥ राजाप्यशनिवेग: शोकं त्यक्त्वा रोषप्रज्वलितः । अथ तेषां मार्गलग्नः समागतः सोऽपि किष्किधिम् ॥१८९॥ श्रुत्वाऽशनिवेगं समागतं रणप्रचण्डशौण्डिरम् । वानरसुभटा अभिमुखा विनिर्गता राक्षसभटाश्च ॥१९०॥ असि-कनक-परसु-पट्टिश-संघट्टोत्तिष्ठत्वातप्रज्वलितम् । बहुभटजीवान्तकरं, युद्धमतिदारुणं लग्नम् ॥१९१।। उद्गीर्णखड्गहस्तः संप्राप्तोऽन्धकोऽशनिवेगम् । किष्किन्धिरपि रणमुखे प्रवृत्तो विद्युद्वेगस्य ॥१९२॥ निहतोऽन्धकुमारोऽशनिवेगेन समरमध्ये । व्युच्छ्निजीविताशः रणरसपरिमुक्तव्यापारः ॥१९३।। किष्किन्धिनरपत्यापि कठिनशीला गृहीत्वा विक्षिप्ता । वक्षःस्थले विपुले पतिता सा विद्युत्वेगस्य ॥१९४|| सोऽशनिवेगपुत्रस्तदेव शिलां महद्विस्तीर्णाम् । प्रेषयति प्रति पथेन वानरनाथस्यारुष्टः ॥१९५।। १. अशनिवेगेन। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं ८० नग - नयर - गोउरसमे, पडिया वच्छत्थले सिला सिग्धं । तेण पहरेण पत्तो, किक्विन्धिनराहिवो मोहं ॥ १९६ ॥ लङ्काहिवेण घेत्तुं नीओ पायालपुरवराभिमुहो । आसत्थो च्चिय पुच्छइ, कत्तो सो अन्धयकुमारो ? ॥१९७॥ सि च निरवसेसं, सो तुज्झ सहोयरो समरमज्झे । रायाऽसणिवेगहओ, पत्तो य रणे महानिदं ॥ १९८ ॥ सोऊण वयणमेयं, सत्तिपहारोवमं अकण्णसुहं । मुच्छावलन्तनयणो, धस त्ति धरणीयले पडिओ ॥ १९९॥ चन्दणजलोल्लियङ्गो, पडिबुद्धो विलविऊणमाढत्तो । नाणाविहे पलावे, भाइविओगाउरो कुणइ ॥२००॥ तो विलिविऊण बहुयं, सुकेसि किक्विन्धिसाहणसमग्गो । पायालंकापुरं, सिग्धं पत्ता भउव्विग्गा ॥ २०१ ॥ अह पविसिऊण नयरे, कञ्चणवररयणतुङ्गपायारे । अच्छन्ति बन्धुसहिया, पमोयसोगं च वहमाणा ॥ २०२॥ अह अन्नया कयाई, इन्दधणुं पेच्छिउं विलिज्जन्तं । सो असणिवेगराया, संवेगपरायणो जाओ ॥२०३॥ विसयसुहमोहिओ हं, लद्धूण वि माणुसत्तणं पावो । धम्मचरणाइरेगं, संजममग्गं न य पवन्नो ॥२०४॥ अहिसिञ्चिऊण रज्जे, सहसारं सव्वसुन्दरं पुत्तं । तडिवेगेण समाणं, जाओ समणो समियपावो ॥ २०५ ॥ एत्थन्तरम्मि लङ्क, भुञ्ज निग्घायदाणवो सूरो । पडिवक्खअगणियभओ, जो ठविओ असणिवेगेणं ॥ २०६॥ अह अन्नया कयाई, पायालपुराउ वन्दणाहेउं । सिरिमालासन्निहिओ, किक्किन्धी पत्थिओ मेरुं ॥२०७॥ सो वन्दिउं नियत्तो, दक्षिणभाए समुद्दतीरत्थं । महुपव्वयं महन्तं, पेच्छइ घणसामलायारं ॥ २०८ ॥ अह पेच्छ पेच्छ सुन्दरि ! घणतरु वरकुसुम-पल्लवसणाहं । गुमुगुमुगुमेन्तमहुयर, सव्वत्तो सुरहिगन्धङ्कं ॥ २०९॥ नग - नगर - गोपूरसमे पतिता वक्षःस्थले शिला शीघ्रम् । तेन प्रहारेण प्राप्तः किष्किन्धिनराधिपो मोहम् ॥ १९६॥ लङ्काधिपेन गृहीत्वा नीतः पातालपुरवराभिमुखः । आश्वास्त श्चैव पृच्छति कुत्र सोऽन्धककुमारः ? ॥१९७॥ शिष्टं च निरवशेषं स तव सहोदरः समरमध्ये । राजाऽशनिवेगहतः प्राप्तश्च रणे महानिद्राम् ॥१९८॥ श्रुत्वा वचनमेतत् शक्तिप्रहरोपममकर्णसुखम् । मूर्च्छावलन्नयनो घस् इति धरणीतले पतितः ॥ १९९॥ चन्दनजलावलिप्ताङ्गः प्रतिबुद्धो विलपितुमारब्धः । नानाविधान्प्रलापान्भ्रातृवियोगातुरः करोति ॥ २०० ॥ ततो विलप्य बहुं सुकेशी किष्किन्धसाधनसमग्रः । पाताललंकापुरं शीघ्रं प्राप्तो भयोद्विग्नः ||२०१॥ अथ प्रविश्य नगरे कञ्चनवररत्नोत्तुङ्गप्रकारे । आसते बन्धुसहिताः परमशोकं च वहमानाः ||२०२॥ अथान्यदा कदाचिदिन्द्रधनुः पश्य विलीयमाणम् । सोऽशनिवेगराजा संवेगपरायणो जातः ॥ २०३ ॥ विषयसुखमोहितोऽहं लब्ध्वाऽपि मानुष्यत्वं पापः । धर्माचरणातिरेकं संयममार्गं न च प्रपन्नः ॥२०४॥ अभिषिञ्च्य राज्ये सहस्रारं सर्वसुन्दरं पुत्रम् । तडिद्वेगेन समं जातः श्रमणः समितपापः ॥२०५॥ अत्रान्तरे लङ्कां भुनक्ति र्निर्घातदानवशूरः । प्रतिपक्षागणितभयो यः स्थापितोऽशनिवेगेन ॥ २०६॥ अथान्यदा कदाचित्पातालपुराद्वन्दनाहेतुम् । श्रीमालासन्निहितः किष्किन्धः प्रस्थितो मेरुम् ॥२०७॥ स वन्दित्वा निवृत्तो दक्षिणभागे समुद्रतीरस्थम् । मधुपर्वतं महान्तं पश्यति घनश्यामलाकारम् ॥२०८॥ अथ पश्य पश्य सुन्दरि ! घनतरुवरकुसुमपल्लवसनाथम् । गुमगुमगुमयन्मधुकरं सर्वतः सुरभिगन्धाढ्यम् ॥२०९॥ For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो - ६/१९६-२२३ य एवं मोत्तूण गिरिं न मणो मज्झं समुच्छइह गन्तुं । नयरं सुरपुरसरिसं, करेमि एत्थं न संदेहो ॥२१०॥ भणिऊण वयणमेयं, तो 'चडिओ पव्वयस्स सिहरम्मि । पायार-भवणसोहं, सिग्धं च निवेसियं नयरं ॥२११॥ अह निययनामसरिसं, तेण कयं महियलम्मि विक्खायं । सुरपुरसोभायारं, किक्विन्धिपुरं ति नामेणं ॥ २१२॥ सो तत्थ बन्धुसहिओ, अणेयसामन्तपणचलणजुओ । भुञ्जइ रायवरसिरिं, सम्मद्दिट्ठी जिणमयम्मि ॥२१३॥ चन्द - दिवायरसरिसा, सिरिमालाए सुया समुप्पन्ना । पढमो आइच्चरओ, रिक्खरओ होइ बीओ य ॥ २१४॥ धूया सूरकमला, जाया वरकमलकोमलसरीरा । कमलद्दहवत्थव्वा, कमलसिरी चेव पच्चक्खा ॥२१५॥ रयणपुरम्म य नयरे, मेरुमहानरवइस्स भज्जाए । जाओ य माहवीए, मयारिदमणो वरकुमारो ॥२१६॥ दिन्ना य सूरकमला, मयारिदमणस्स वाणरिन्देणं । वत्तं पाणिग्गहणं, किक्विन्धिपुरे अणन्नसमं ॥ २१७॥ अह कण्णपव्वओवरि, नयरं चिय कण्णकुण्डलं तेणं । विणिवेसियं महन्तं, सुरपुरसोहं विडम्बन्तं ॥२१८॥ पायालंकारपुरे, इन्दाणीगब्भसंभवा तइया । जाया सुकेसपुत्ता, देवकुमारा इव सुरूवा ॥२१९॥ पढमेत्थ होइ माली, तह य सुमालि त्ति नाम विक्खाओ । तइओ य मालवन्तो, अमरकुमारोवमसिरीओ ॥ २२०॥ पत्ता सरीरविद्धि, विज्जाबल - दप्पगव्विया जाया । कीलन्ति जहिच्छाए, काणण- वणरम्मदेसेसु ॥ २२१ ॥ अह ते चवलकुमारा, जं तेण निवारिया सुकेसेणं । मा जाह दक्षिणदिसिं, अन्नत्तो रमह वीसत्था ॥२२२॥ परिपुच्छिओ नरिन्दो, विणयं काऊण तेहि परमत्थं । परिकहइ जहावत्तं, लङ्कापुरिमाइयं सव्वं ॥२२३॥ एतन्मुक्त्वा गिरिं न मनो मम समुच्छिनत्ति गन्तुम् । नगरं सुरपुरिसदृशं करोम्यत्र न संदेहः ॥२१०॥ भणित्वा वचनमेतत्तदारूढः पर्वत्तस्य शिखरम् । प्राकार - भवनशोभं शीघ्रं च निवेशितं नगरम् ॥२११॥ अथ निजकनाम सदृशं तेन कृतं महीतले विख्यातम् । सुरपुरशोभाकारं किष्किन्धपुरमिति नाम्ना ॥ २१२ ॥ स तत्र बन्धु सहितोऽनेक सामन्तप्रणतचरणयुग्मः । भुनक्ति राजवश्रीं सम्यग्दृष्टि जिनमते ॥२१३॥ चन्द्र-दिवाकरसदृशौ श्रीमालायां सुतौ समुत्पन्नौ । प्रथम आदित्यरजा ऋक्षरजा भवति द्वितीयश्च ॥ २१४॥ दुहिता च सूरकमला जाता वरकमलकोमलशरीरा । कमलद्रहवास्तव्याकमल श्रीरेव प्रत्यक्षा ॥ २१५ ॥ रत्नपुरे च नगरे मेरूमहानरपते र्भार्यायाम् । जातश्च माघव्यां मृगारिदमनो वरकुमारः ॥२१६॥ दत्ता च सुरकमला मृगारिदमनस्य वानरेन्द्रेण । वृत्तं पाणिग्रहणं किष्किन्धिपुरे अनन्यसमम् ॥२१७|| अथ कर्णपर्वतोपरि नगरमेव कर्णकुण्डलं तेन । विनिवेशितं महत् सुरपुरशोभां विडम्बयत् ॥२१८॥ पाताललङ्कारपुरे इन्द्राणीगर्भसम्भवास्तदा । जाताः सुकेशपुत्रा देवकुमारा इव सुरुपाः ॥२१९॥ प्रथमोऽत्र भवति माली तथा च सुमालीति नाम विख्यातः । तृतीयश्च माल्यवानमरकुमारोपमश्रिकः ॥२०॥ प्राप्ताः शरीरवृद्धिं विद्याबलदर्पगर्विता जाता: । क्रीडन्ति यथेच्छया काननवनरम्यदेशेषु ॥ २२१ ॥ अथ ते चपलकुमारा यत्तेन निवारिताः सुकेशेन । मा गच्छन्तु दक्षिणदिशि अन्यत्र भ्रमन्तु विश्वस्ताः ॥ २२२॥ परिपृष्टो नरेन्द्रो विनयं कृत्वा तेभ्यः परमार्थम् । परिकथयति यथावृत्तं लङ्कापूर्यादिकं सर्वम् ॥२२३॥ पउम भा-१/११ For Personal & Private Use Only ८१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ पउमचरियं नयरीए तीए सामी, निग्घाओ नाम दाणवो वसइ । अगणियपडिवक्खभओ, ठविओ सो असणिवेगेणं ॥२२४॥ अम्हं परंपराए, सा नयरी आगया गुणसमिद्धा । तस्स भएण विमुक्का, पुत्तय ! अच्चन्तरमणिज्जा ॥२२५॥ जन्ताणि तेण निययं, सव्वत्तो विरड्याइँ पावेणं । मारेन्ति जाइँ पुत्तय, लोयं भीमेण रूवेण ॥२२६॥ सुणिऊण वयणमेयं, रुट्ठा विज्जासु लद्धमाहप्पा । अह ते कुमारसीहा, पायालपुराउ निष्फिडिया ॥२२७॥ चउरङ्गबलस मग्गा, सिग्धं उप्पइय अम्बरतलेणं । हन्तूण जन्तनिवहं, लङ्कानयरी समणुपत्ता ॥२२८॥ सोऊण रक्खसभडे, निग्घाओ निग्गओ सवडहुत्तो।असि-कणय-किरणपउरो, दिवायरो चेव पज्जलिओ ॥२२९॥ गयमेहकण्णपवणो. मयबिन्दझरन्तसलिलसंघाओ। असिविज्जलाउलपरो. सहसा रणपाउसो जाओ॥२३०॥ अन्नोन्नरहसपसरिय-फलउक्कासन्निहेहि सत्थेहिं । दोसु वि बलेसु सुहडा, जुज्झन्ति विमुक्कजीवासा ॥२३१॥ निग्घाओ वि हु माली, आवडिया दो वि रणमुहे सुहडा । मुच्चन्ताऽऽउहनिवहं, असुरा इव दप्पिया सूरा ॥२३२॥ एयारिसम्मि जुज्झे वट्टन्ते उभयलोगसंघट्टे । मालिभडेण य पहओ, निग्घाओ पाविओ मरणं ॥२३३॥ नाऊण निययसेन्नं, निग्घायं मारियं समरमज्झे । भग्गं भयाउलमणं, जह वेयई समणुपत्तं ।२३४॥ तो पडह-भेरि-झल्लरि-जयसङ्ग्घुट्ठमङ्गलरवेणं । लङ्कापुरि पविट्ठो, माली सह बन्धुवग्गेणं ॥२३५॥ पिइ-माइ-सयणसहिओ, परियणपसरन्तभोगवित्थारं । निक्कण्टयमणुकूलं, भुञ्जइ रज्जं गुणसमिद्धं ॥२३६॥ नगर्यां तस्यां स्वामी निर्घातो नाम दानवो वसति । अगणितप्रतिपक्षभयः स्थापितः सोऽशनिवेगेन ॥२२४।। अस्माकं परम्परया सा नगर्यागता गुणसमृद्धा । तस्य भयेन विमुक्ता पुत्रा ! अत्यन्तरमणीया ॥२२५॥ यन्त्राणि तेन नियतं सर्वतो विरचितानि पापेन । मारयन्ति यानि पुत्रा ! लोकं भीमेन रुपेण ।।२२६।। श्रुत्वा वचनमेतद्रुष्टा विद्यासुलब्धमाहात्म्याः । अथ ते कुमारसिंहाः पातालपुरातो निस्फिटिताः ॥२२७॥ चतुरङ्गबलसमग्राः शीघ्रमुत्पत्याम्बरतलेन । हत्वा यन्त्रनिवहं लङ्कानगरी समनुप्राप्ताः ॥२२८॥ श्रुत्वा राक्षसभटान्निर्घातो निर्गतोऽभिमुखः । असि-कनक-किरणप्रचुरो दिवाकर इव प्रज्वलितः ॥२२९।। गजमेघकर्णपवनो मदबिन्दुझरत्सलिलसंघातः । असिविद्युदाकुलपर: सहसा रणप्रावृड् जातः ।।२३०॥ अन्योन्यरभसप्रसरितकलोल्लसंनिभैः शस्त्रैः । द्वयोरपि बलयो:सुभटा युध्यन्ति विमुक्तजीविताशाः ॥२३१।। निर्घातोऽपि खलु माली, आपतितौ द्वावपि रणमुखे सुभटौ । मुञ्चन्तावायुघनिवहमसुराविव दर्पितौ शूरौ ।।२३२।। एतादृशे युद्धे वर्तन्त उभयलोकसंघट्टे । मालिभटेन च प्रहतो निर्घातः प्राप्तो मरणम् ।।२३३।। ज्ञात्वा निजसैन्यं निर्घातं मारितं समरमध्ये । भग्नं भयाकुलमना यथा वैताढ्यं समनुप्राप्तः ।।२३४॥ ततः पटह-भेरि-झल्लरि-जयशब्दोद्दष्टमङ्गलरवेण । लङ्कापुर प्रविष्टो माली सह बन्धुवर्गेण ॥२३५।। पितृमातृ-स्वजनसहितः परिजनप्रसरद्भोगविस्तारम् । निष्कण्टकमनुकूलं भुनक्ति राजयं गुणसमृद्धम् ।।२३६।। १. समिद्धा-प्रत्य० । २. अभिमुखम् । Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो-६/२२४-२४४ एत्तो हेमङ्गपुरे, भोगवईगब्भसंभवा कन्ना । हिमरायस्स य दुहियान्चन्दमई नाम नामेणं ॥२३७॥ मालिकुमारेण तओ, परिणीया सा महाविभूईए । जा निययरूवजोव्वण-गुणेहि दूरं समुव्वहइ ॥२३८॥ पीयंकरस्स दुहिया, पीइमइसमुब्भवा विसालच्छी । पीइपुरम्मि जाया, पीइमहा सुन्दरी नाम ॥२३९॥ सा वि हु सुमालिभज्जा, जाया अच्चन्तसुन्दरावयवा । लक्खमगुणोववेया, रूवेण रई विसेसेइ ॥२४०॥ कणयसिरीकणयसुया, कन्ना कणयावलि त्ति कणयपुरे । तं चेव मालवन्तो, परिणेइ गुणाहियं लोए ॥२४१॥ जुवइसहस्ससमग्गो, संपत्तो उभयसेढिसामित्तं । आणाविसालमउलं, भुञ्जइ माली महारज्जं ॥२४२॥ एयम्मि देसयाले, सुकेसि-किक्किन्धिजणियसंवेगा। पव्वइया खायजसा, पवंगा रक्खसभडा य ॥२४३॥ ___ तवचरणसमग्गा दीहकालं गमित्ता, ववगयभय-सोगा नाण-चारित्तजुत्ता। जणियविमलकम्मा रक्खसा वाणरा य, सिवम यलमणन्तं सिद्धिसोक्खं पवन्ना ॥२४४॥ ॥ इति पउमचरिए रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणो नाम छटो उद्देसओ समत्तो ॥ इतो हेमाङ्गपुरे भोगवतीगर्भसंभवा कन्या। हिमराजस्य च दुहिता चन्द्रमती नाम नाम्ना ॥२३७।। मालिकुमारेण तत: परिणीता सा महाविभूत्या । या निजरुपयौवनगुणै दूंरं समुद्वहति ॥२३८॥ प्रियंकरस्य दुहिता प्रीतिमतीसमुद्भवा विशालाक्षी । प्रीतिपुरे जाता प्रीतिमहासुन्दरी नाम ॥२३९।। साऽपि तु सुमालिभार्या जाताऽत्यन्तसुन्दरावयवा । लक्षणगुणोपपेता रुपेण रति विशेषयति ॥२४०।। कनकश्रीकनकसुता कन्या कनकावलीति कनकपुरे । तामेव माल्यवान् परिणयति गुणाधिका लोके ॥२४१।। युवतिसहस्रसमग्रः संप्राप्त उभयश्रेणीस्वामित्वम् । आज्ञाविशालमतुलं भुनक्ति माली महाराज्यम् ॥२४२॥ एतस्मिन्देशकाले सुकेशि-किष्किन्धिजनितसंवेगाः । प्रव्रजिताः ख्यातयशसः प्लवंगमराक्षसभटाश्च ॥२४३॥ तपश्चरणसमग्रा दीर्घकालं गमयित्वा व्यपगतभयशोका ज्ञानचारित्रयुक्ताः । जनितविमलकर्माणो राक्षसा वानराश्च शिवमचलमनन्तं सिद्धिसौख्यं प्रपन्नाः ॥२४४॥ ॥ इति पद्मचरित्रे राक्षस-वानरप्रव्रज्या विधानो नाम षष्टोद्देशकः समाप्तः ॥ १. भयसंगा-मु०। २. ममल मु०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७. दहमुहविज्जासाहणं । एत्थन्तरम्मि राया, सहसारो नाम निग्गयपयावो । वसइ सया सुहियमणो, रहनेउरचक्कवालपुरे ॥१॥ तस्स य गुणाणरूवा, अह माणससुन्दरी पवरभज्जा । तं पेच्छिऊण राया, तणुयङ्गी पुच्छए सहसा ॥२॥ किं अत्थि तुज्झ सुन्दरि, चिन्ता दुक्खं व दारुणं अङ्गे ? । हियइच्छियं च दव्वं, जं मग्गसि तं पणामेमि ॥३॥ जं एव पुच्छिया सा, पसयच्छी भणइ को वि मे एसो । जत्तो पभूइ गब्भो, संभूओ कम्मदोसेण ॥४॥ तत्तो पभूडू नरवइ !, इच्छामि सुराहिवस्स संपत्ती । दटुं ते परिकहियं, मोत्तूण कुलागयं लज्जं ॥५॥ अह तेण तक्खणं चिय, विज्जाबलगव्विएण होऊण । इन्दस्स परमरिद्धी, परिसाई दरिसिया तीए ॥६॥ संपुण्णडोहला सा, जाया मण-नयणनिव्वुइपसत्था । काले तओ पसूया, सुरवइसरिसं वरकुमारं ॥७॥ कारावियं च सव्वं, जम्मूसवमङ्गलं नरवईणं । इन्दो य तस्स नामं, जणियं इन्दाभिलासेणं ॥८॥ अह सो कमेण एत्तो, जोव्वण-बल-विरिय-तेयमाहप्पो । विज्जाहराण राया, जाओ वेयड्डवासीणं ॥९॥ चत्तारि लोगपाला, सत्त य अणियाइँ तिण्णि परिसाओ । एरावणो गइन्दो, वज्जं च महाउहं तस्स ॥१०॥ चत्तालीसं ठविया, तस्स सहस्सा हवन्ति जुवईणं । मन्ती बिहप्फई से, हरिणिगमेसी बलाणीओ ॥११॥ ७. दशमुखविद्यासाधनम् ) अत्रान्तरे राजा सहस्रारो नाम निर्गतप्रतापः । निवसति सदा सुखितमना रथनूपूरचक्रवालपूरे ॥१॥ तस्य च गुणानुरुपाथ मानससुन्दरी प्रवरभार्या । तां दृष्ट्वा राजा तन्वाङ्गी पृच्छति सहसा ॥२॥ कास्ति तव सुन्दरि! चिन्ता दुःखं वा दारुणमङ्गे ? । हृदयेच्छितं च द्रव्यं यद् मार्गयसि तदर्पयामि ॥३॥ यदेव पृष्टा सा प्रसृताक्षी भणति कोऽपि मे एषः । यतः प्रभृति गर्भः संभूतः कर्मदोषेण ॥४॥ ततः प्रभृति नरपते ! इच्छामि सुराधिपस्य संपत्तिम् । दृष्टुं ते परिकथितं मुक्त्वा कुलागतां लज्जाम् ॥५॥ अथ तेन तत्क्षणमेव विद्याबलगवितेन भूत्वा । इन्द्रस्य परमर्द्धिः पर्षदादि दर्शिता तस्याः ।।६।। संपूर्णदोहदा सा जाता मनोनयननिर्वृत्तिप्रशस्ता । काले ततः प्रसूता सुरपतिसदृशं वरकुमारम् ॥७॥ कारितं च सर्वं जन्मोत्सवमङ्गलं नरपतिना । इन्द्रश्चतस्य नाम जनितमिन्द्राभिलाषेण ॥८॥ अथ स क्रमेणोतो यौवन-बल-वीर्य-तेजोमाहात्म्यः । विद्याधराणां राजा जातो वैताढ्यवासीनाम् ॥९॥ चत्वारो लोकपालाः सप्त चानिकानि तिस्रः पर्षदः । ऐरावणो गजेन्द्रो वजं च महायुधं तस्य ॥१०॥ चत्वारिंशत्स्थापितास्तस्य सहस्रा भवन्ति युवतीनाम् । मन्त्रि बृहस्पतिस्तस्य हरिणैगमेषी बलानिकः ॥११॥ १.संजाओ-प्रत्य। Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहविज्जासाहणं-७/१-२४ तो सो नमि व्व नज्जइ, सव्वेसिं खेयराण सामित्तं । कुणइ सुवीसत्थमणो, विज्जाबलगव्विओ धीरो ॥१२॥ लङ्काहिवो वि माली, इन्दं सोऊण खेयराणिन्दं । बल-भाइ-मित्तसहिओ, तस्सुवरि पत्थिओ सहसा ॥१३॥ गय-तुरय-वसभ-केसरि-मय-महिस-वराहवाहणारूढा । वच्चन्ति रक्खसभडा, छायन्ता अम्बरं तुरिया ॥१४॥ सव्वत्थसत्थकुसलो, भणइ सुमाली सहोयरंजेठं । एत्थं कुणहाऽऽवासं, अहव पुरिं पडिनियत्तामो ॥१५॥ दीसन्ति महाघोरा, उप्पाया सउणया य विवरीया । एते कहन्ति अजयं, अम्हं नत्थेत्थ संदेहो ॥१६॥ रिटु-खर-तुरय-वसहा, सारस-सयवत्त-कोल्हुयाईया । वासन्ति दाहिणिल्ला, एते अजयावहा अम्हं ॥१७॥ सोऊण वयणमेयं, माली पडिभणइ गव्विओ हसिउं । किं दाढीभयभीओ, निययगुहं केसरी चियइ ? ॥१८॥ नन्दणवणे महन्ता, जिणालया कारिया रयणचित्ता । अणुहूयं पवरसुहं, दाणं च किमिच्छियं दिन्नं ॥१९॥ समलंकियं च गोत्तं, जसेण ससिकुन्दनिम्मलयरेणं । जइ होइ समरमज्झे, मरणं तो किं न पज्जत्तं ॥२०॥ एवं सुमालिवयणं, अवगण्णेऊण पत्थिओ माली । वेयड्डनगवरिन्दे, रहनेउरचक्कवालपुरं ॥२१॥ सोऊण रक्खसबलं, समागयं लोगपालपरिकिण्णो । एरावणमारूढो, नयराओ निग्गओ इंदो ॥२२॥ अन्नोन्नरहसपेल्लण-रहवर-गय-तुरयनिहव-पाइक्कं । निक्खमइ इन्दसेन्नं, रणरसपरिवड्ढिउच्छाहं ॥२३॥ रक्खस-पवंगवीरा, सुरसेन्नं पेच्छिऊण सन्नद्धं । बाणासणी मुयन्ता, आभिट्टा इन्दसुहडाणं ॥२४॥ तदा स नमि इव ज्ञायते खेचराणां स्वामित्वम् । करोति सुविश्वस्तमना विद्याबलगवितो धीरः ॥१२॥ लङ्काधिपोऽपि मालीन्द्रं श्रुत्वा खेचराणामिन्द्रम् । बल-भातृ-मित्र सहितस्तस्योपरि प्रस्थितं सहसा ॥१३॥ गज-तुरग-वृषभ-केसरि-मृग-महिष-वराहवाहना रूढाः । गच्छन्ति राक्षसभटाश्च्छादयन्तोऽम्बरं त्वरिताः ॥१४॥ सर्वास्त्रशास्त्रकुशलो भणति सुमाली सहोदरं ज्येष्ठम् । अत्र कुर्यावासमथवा पुरि प्रतिनिवर्तामहे ॥१५॥ दृश्यन्ते महाघोरा उत्पादाः शकुनाश्च विपरिताः । एते कथयन्त्यिजयमस्माकं नास्त्यत्र संदेहः ॥१६॥ रिष्ट-खर-तुरग-वृषभाः सारस-शतपत्र-शृगालादिकाः । भाषन्ते दाक्षिणा एते ऽजयावहा अस्माकम् ॥१७॥ श्रुत्वा वचनमेतन्माली प्रतिभणति गर्वितो हसित्वा । किं शूकरभयभीतो निजगृहां केसरी त्यजति ? ॥१८॥ नन्दनवने महान्तो जिनालया: कारिता रत्नचित्राः । अनुभूतं प्रवरसुखं दानञ्च किमिच्छितं दत्तम् ॥१९॥ समलङ्कृतं च गोत्रं यशसा शशिकुन्दनिर्मलतरेण । यदि भवति समरमध्ये मरणं तदा किं न पर्याप्तम् ।।२०।। एवं सुमालिवचनमवगण्य प्रस्थितो माली । वैताढ्यनगवरेन्द्रे रथनुपूरचक्रवालपुरम् ॥२१॥ श्रुत्वा राक्षसबलं समागतं लोकपालपरिकीर्णः । ऐरावणमारुढो नगरान्निर्गत इन्द्रः ॥२२॥ अन्योन्यरभसप्रेरणरथवरगजतुरगनिवहपदातिम् । निष्कामतीन्द्रसैन्यं रणरसपरिवर्धितोत्साहम् ॥२३॥ राक्षसप्लवंगवीराः सुरसैन्यं दृष्ट्वा सन्नद्धम् । बाणाशनि मुञ्चन्तः प्रवृता इन्द्रसुभटानाम् ॥२४॥ १. खेयराणंद-मु० । २. दाढि:-शूकरः, दंष्ट्रिन् । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ पउमचरियं भज्जइ रहो रहेणं, विवडइ हत्थी समं गयवरेणं । तुरएण समं तुरगो, पाइक्को सह पयत्थेणं ॥२५॥ सर-सत्ति-बाण-मोग्गर-फलिह-सिला-सेल्लआउहसएसु । खिप्पन्तेसु समत्थं, छन्नं गयणङ्गणं सहसा ॥२६॥ सुरवइभडेहि एत्तो, रणरसउच्छाहवड्डियरसेहिं । रक्खसबलस्स पमुहं, भग्गं चिय अग्गिमं खन्धं ॥२७॥ आलोडियं समत्थं, निययबलं पेच्छिऊण परिकुविओ। अह उठ्ठिओ य माली, सत्थोहजलन्तपज्जलिओ ॥२८॥ सर-सत्ति-खग्ग-मोग्गर-चडक्कसरिसोवमेहि पहरेहिं । भग्गं सुरिन्दसेन्नं, मालिनरिन्देण संगामे ॥२९॥ दद्रुण सवडहुत्तं, एज्जन्तं रक्खसाहिवं इन्दो । सूरस्स पव्वओ इव, अवट्ठिओ सत्थसिहरोहो ॥३०॥ इन्दस्स य मालिस्स य, दुण्ह वि जुझं रणे समावडियं । बलदप्पगव्वियाणं, रणरस कण्डू वहन्ताणं ॥३१॥ छिन्दन्ति सरेण सरं, चक्कं चक्केण लाघवकरग्गा । विज्जाबलेण दोण्णि वि, जुज्झन्ति रणे समच्छरिया ॥३२॥ घेत्तूण तो सरोसं, मालिनरिन्देण पज्जलन्तीए । पहओ निडालदेसे, इन्दो घोराए सत्तीए ॥३३॥ सत्तीपहरपरद्धो, इन्दो रत्तारविन्द-समछाओ । अत्थगिरिमत्थयत्थो, संझाराए दिणयरो व्व ॥३४॥ अमरिसवसंगएणं, रोसापूरियफुरन्तनयणेणं । चक्केण सिरं छिन्नं, मालिनरिन्दस्स इन्देणं ॥३५॥ अह पेच्छिउँ सुमाली, ववगयजीयं सहोयरं समरे । मुणिऊण नयविभागं, सहसा भग्गो समरहुत्तो ॥३६॥ मग्गेण तस्स लग्गो, सोमो बलदप्पगव्विओ सूरो । सो भिण्डमालपहओ, निहओ य सुमालिसत्थेणं ॥३७॥ भनक्ति रथो रथेन, विपतति हस्ती समं गजवरेण । तुरगेन समं तुरगः पदातिः सह पदस्थेन ॥२५॥ शर-शक्ति-बाण-मुद्गर-परिघ-शिला-शैलायुधशतेषु । क्षिप्तेषु छन्नं गगनाङ्गणं सहसा ॥२६॥ सुरपतिभटैरितो रणरसोत्साहवधितरसैः । राक्षसबलस्य प्रमुखं भग्नमेवाग्रिमं स्कन्धम् ॥२७|| आलोटितं समस्तं निजबलं दृष्ट्वा परिकुपितः । अथोत्थितश्च माली शस्त्रौधज्वलत्प्रज्वलितः ॥२३॥ शर-शक्ति-खड्ग-मुद्गर-चंडक्क सदृशोपमैः प्रहरैः । भग्नं सुरेन्द्रसैन्यं मालिनरेन्द्रेण संग्रामे ॥२७॥ दृष्ट्वाऽभिमुखमायान्तं राक्षसाधिपमिन्द्रः । सूर्यस्य पर्वत इवावस्थितः शस्त्रशिखरौधः ॥३०॥ इन्द्रस्य च मालेश्चद्वयोरपि युद्धं खे समापतितम् । बलदर्पगर्वितयोः रणरसकण्डं वहमानयोः ॥३१॥ छिन्तः शरेण शरं, चक्रं चक्रेण लाघवकराग्रौ । विद्याबलेन द्वावपि युध्यतो रणे समत्सरौ ॥३२॥ गृहीत्वा तदा सरोषेण मालिनरेन्द्रेण प्रज्वलन्त्या । प्रहतो निडालदेशे इन्द्रो घोरया शक्त्या ॥३३॥ शक्तिप्रहारपीडित-इन्द्रो रक्तारविंदसमच्छायः । अस्तगिरिमस्तकस्थ: संध्यारागे दिनकर इव ॥३४॥ आमर्षवशगतेन रोषापूरितं स्फूरन्नयनेन । चक्रेण शिरः छिन्नं मालिनरेन्द्रस्येन्द्रेण ॥३५॥ अथ दृष्ट्वा सुमाली व्यपगतजीवं सहोदरं समरे । ज्ञात्वा नयविभागं सहसा भग्नः समराभिमुखः ॥३६।। मार्गेण तस्य लग्नः सोमो बलदर्पगर्वितः शूरः । स भिन्दिपालप्रहतो निहतश्च सुमालिशस्त्रेण ॥३७॥ १. रुहिरारविंदसच्छाओ-मु० । २. अशनिः । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहविज्जासाहणं-७/२५-५० मुच्छानिमीलियच्छो, जाव य सोमो चिरस्स आसत्थो । ताव य सुमालिराया, पायालपुरं समणुपत्तो ॥३८॥ रक्खसभडा पविट्ठा, पायालंकारपुरवरं तुरिया । अच्छन्ति भग्गमाणा, बीयं जम्मं व संपत्ता ॥३९॥ आसासिओ नियत्तो, सोमो पासं गओ सुरवइस्स । रहनेउरं पविट्ठो इन्दो उग्घुट्ठजयसद्दो ॥४०॥ एवं जिणिऊण रणे, पडिसत्तुं सुरवई महारज्जं । भुञ्जन्तो च्चिय जाओ, इन्दो इन्दो त्ति लोयम्मि ॥४१॥ एत्तो सुणाहि नरवइ ! मगहाहिव ! लोयपालउप्पत्ती । होऊण एगचित्तो, जहक्कमं ते पवक्खामि ॥४२॥ मयरद्धयस्स पुत्तो, सोमो आइच्चकित्तिसंभूओ । जोईपुरस्स सामी, ठविओ सो लोगपालो त्ति ॥४३॥ मेहरहस्स य पुत्तो, वरुणो वरुणाए कुच्छिसंभूओ । मेहपुरनयरसामी, महिड्डिओ लोगपालो सो ॥४४॥ कणयावलीए पुत्तो, जाओ च्चिय सूरखेयरिन्देणं । कञ्चणपुरे महप्पा, वसइ कुबेरो महासत्तो ॥४५॥ कालग्गिखेयरसुओ, सिरिप्पभाकुच्छिसंभवो वीरो । किक्किन्धिनयरराया, कयववसाओ जमो नाम ॥४६॥ ठविओ पुव्वाए ससी, दिसाए वरुणो य तत्थ अवराए । उत्तरओ य कुबेरो, ठविओ च्चिय दक्खिणाए जमो ॥४७॥ जं जस्स हवइ नामं, पुरस्स तेणेव तस्स अणुसरिसा । विज्जाहरा निउत्ता, पुहइयले खायकित्तीया ॥४८॥ नयरम्मि असुरनामे, असुरा खाइं गया तिहुयणम्मि । जक्खपुरम्मि य जक्खा, किन्नरगीए य सरिनामा ॥४९॥ गन्धव्वपुरनिवासी, गन्धव्वा होन्ति नाम विक्खाया। तह असिणा असिणपुरे, वइसा वइसाणरपुरम्मि ॥५०॥ मूर्छानिमिलिताक्षो यावच्च सोम चिरेणास्वास्त: । तावच्च सुमालिराजा पातालपुरं समनुप्राप्तः ॥३८॥ राक्षसभटाः प्रविष्टाः पाताललंकापुरवरं त्वरिताः । आसते भग्नमाना द्वितीयं जन्मेव संप्राप्ताः ॥३९॥ आश्वासितो निवृत्तः सोमः पार्वंगतः सुरपतेः । रथनूपुरं प्रविष्ट इन्द्र उदृष्टजयशब्दः ॥४०॥ एवं जित्वा रणे प्रतिशत्रु सुरपतिर्महाराज्यम् । भुञ्जन्नेव जात इन्द्र इन्द्र इति लोके ॥४१॥ इतः श्रुणु नरपते ! मगधाधिप ! लोकपालोत्पत्तिः । भूत्वैकाग्रचित्तो यथाक्रमं ते प्रवक्ष्यामि ॥४२॥ मकरध्वजस्य पुत्रःसोम आदित्यकीतिसंभूतः । ज्योति:पुरस्य स्वामी स्थापितः स लोकपाल इति ॥४३॥ मेघरथस्य च पुत्रो वरुणो वरुणायाः कुक्षिसंभूतः । मेघपुरनगरस्वामी महर्द्धिको लोकपालः सः ॥४४|| कनकावल्यां पुत्रो जात एव सुरखेचरेन्द्रेण । कञ्चनपुरे महात्मा वसति कुबेरो महासत्त्वः ॥४५॥ कालाग्निखेचरसुतः श्रीप्रभाकुक्षिसंभवो वीरः । किष्किन्धिनगरराजा कृतव्यवसायो यमो नाम ॥४६॥ स्थापितो पूर्वायां शशी दिशि वरुणश्च तत्रापरायाम् । उत्तरतश्चकुबेर: स्थापित एव दक्षिणायां यमः ॥४७|| यद्यस्य भवति नाम पुरस्य तेनैव तस्यानुसदृशाः । विद्याधरा नियुक्ताः पृथ्वीतले ख्यातकीर्तिकाः ॥४८॥ नगरे असुरनाम्न्यसुराः ख्यातिं गतास्त्रिभुवने । यक्षपुरे च यक्षाः किन्नरगीते च सदृशनामानः ॥४९॥ गन्धर्वपुरनिवासिनो गन्धर्वा भवन्ति नाम विख्याताः । तथाऽश्चिना अश्विनीपुरे वैश्वानरा वैश्वानरपुरे ॥५०॥ १. धीरो-प्रत्य० । २. सदृशनामानः । For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ पउमचरियं अन्ने वि एवमाई, विणिओगा सक्कसंभवा या । कुव्वन्ति तियसलील, विज्जाबलगव्विया वीरा ॥५१॥ एयारिसं महन्तं, भुञ्जइ रज्जं महागुणसमिद्धं । अगणियपडिवक्खभओ, विज्जाहरसेढिसामित्तं ॥५२॥ धणयस्स समुप्पत्ती, सेणिय ! रन्नो सुणाहि एगमणो । अत्थि त्ति वोमबिन्दू, नन्दवई सुन्दरी तस्स ॥५३॥ तीए गब्भुप्पन्नाउ दोण्णि कन्नाउ रूववन्ताओ। कोसिय-केकसियाओ, अह कोउयमङ्गले नयरे ॥५४॥ जिट्ठा य तेहि दिन्ना, जक्खपुरे वीससेणरायस्स । वेसमणो त्ति कुमारो, तीए सुओ सुन्दरो जाओ ॥५५॥ सद्दाविओ य तुरियं, वेसमणो सुरवईण से दिन्ना । लङ्का भणिओ सि तुम, भुञ्जसु सुइरं सुवीसत्थो ॥५६॥ अज्जप्पभिई ठविओ, पञ्चमओ लोगपालिणो तुहयं । सव्वारिभग्गपसरं, भुञ्जसु निक्कण्टयं रज्जं ॥५७॥ नमिऊण तस्स चलणे, वेसमणो पत्थिओ बलसमग्गो । लङ्कापुरि पविट्ठो, नयरजणुग्घुटुजयसद्दो ॥५८॥ पायालंकारपुरे, पीइमईगब्भसंभवा जाया। धीरा सुमालिपुत्ता, तिण्णि वि रयणासवादीया ॥५९॥ रूवेण अणङ्गसमो, तेएण दिवायरो व्व पच्चक्खो । चन्दो व्व सोमयाए, वलणसमुद्दो व्व गम्भीरो ॥६०॥ भिच्चाण बन्धवाण य, उवयारपरो तहेव साहूणं । देवगुरुपूयणपरो, धम्मुवगरणेसु साहीणो ॥६१॥ परमहिला जणणिसमा, मन्नइ धीरो तणं व परदव्वं । लोगस्स निययकालं, अहियं परिवालणुज्जुत्तो ॥६२॥ किं भूसणेहि कीड ?, रूवं चिय होइ भूसणं निययं । कित्ती लच्छी य गुणा, कुडुम्बसहिया ठिया जस्स ॥३॥ अन्येऽप्येवमादिका विनियोगाः शकसंभवा रचिताः । कुर्वन्ति त्रिदशलीलां विद्याबलगविता वीराः ॥५१॥ एतादृड्महद्भुनक्ति राज्यं महागुणसमृद्धम् । अगणितप्रतिपक्षभयो विद्याधरश्रेणीस्वामित्वम् ॥५२॥ धनदस्य समुत्पत्तिः श्रेणिक ! राज्ञः श्रुग्वेकाग्रमनाः । अस्तीति व्योमबिन्दु नन्दवती सुन्दरी तस्य ॥५३॥ तस्या गर्भोत्पन्ने द्वे कन्ये रुपवत्यौ । कौशिकी-केकश्यावथ कौतुकमङ्गले नगरे ॥५४॥ ज्येष्ठा च तै दत्ता यक्षपुरे विश्वसेन राज्ञः । वैश्रमण इति कुमारस्तस्याः सुतः सुन्दरो जातः ॥५५॥ शब्दायितश्च त्वरितं वैश्रमणः सुरपतिना तस्मै दत्ता । लङ्का भणितोऽसि त्वं भुक्ष्व सुचिरं सुविश्वस्तः ॥५६॥ अद्यप्रभृतिः स्थापितः पञ्चमलोकपालस्त्वम् । सर्वारिभग्नप्रसरं भुझ्व निष्कण्टकं राज्यम् ।।५७।। नत्वा तस्य चरणयो वैश्रमणः प्रस्थितो बलसमग्रः । लङ्कापुरिं प्रविष्टो नगरजनोद्धृष्टजयशब्दः ॥५८॥ पातालालंकापुरे प्रीतिमतीगर्भसंभवा जाताः । धीराः सुमालिपुत्रास्त्रयोऽपि रत्नश्रवसादिकाः ॥५९॥ रुपेणाऽनङ्ग समस्तेजसा दिवाकर इव प्रत्यक्षः । चन्द्र इव सौम्यतया लवणसमुद्र इव गम्भीरः ॥६०॥ भृत्यानां बान्धवानां चोपकारपरस्तथैव साधूनाम् । देवगुरुपूजनपरो धर्मोपकरणेषु स्वाधीनः ॥६१॥ परमहिला जननीसमा मन्यते धीरस्तृणमिव परद्रवयम् । लोकस्य नित्यकालमधिकं परिपालनोद्युक्तः ॥६२॥ किं भूषणैः क्रियते ? रुपमेव भवति भूषणं निजकम् । कीत्ति लक्ष्मीश्चगुणाः कुटुम्ब सहिताः स्थिता यस्य ॥६३॥ १. धीरा-प्रत्य०। Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहविज्जासाहणं-७/५१-७६ एवं सव्वकलाऽऽगम-कुसलो रयणासवो वि चिन्तेन्तो । न लभइ खणं पि निर्दे, निययपुरीपविसणट्ठाए ॥६४॥ परिचिन्तिऊण एवं, निययं नाऊण विरियमाहप्पं । विज्जासु साहणटुं, कुसुमुज्जाणे, समणुपत्तो ॥६५॥ गह-भूय-वाणमन्तर-पिसायबहुघोररूवसद्दाले । उज्जाणमज्झयारे, झाणुवओगं समारूढो ॥६६॥ नाऊण वोमबिन्दू, विज्जा समुहागयं तमुज्जाणे । देइ पडिचारियं से, धूयं चिय केकसीनामं ॥६७॥ सा तत्थ तक्खणं चिय, कयविणया जोगिणं समल्लीणा । रक्खड़ पसन्नहियया, समन्तओ दिनदिदीया ॥६८॥ अह सो समत्तविज्जो, काऊण थुई तओ जिणिन्दाणं । पेच्छइ य समब्भासे, विज्जाहरबालियं एक्कं ॥६९॥ वरपउमपत्तनेत्ता, पउममुही पउमगब्भसमगोरी । पउमद्दहवत्थव्वा, किं होज्ज सिरी सयं चेव ? ॥७०॥ रयणासवेण कन्ना, भणिया केणेत्थ कारणेण तुमं । अच्छसि वरलायण्णे ! हरिणी विव जूहपब्भट्ठा ? ॥७१॥ आयासबिन्दुतणया, नन्दवईगब्भसंभवा कन्ना । नामेण केकसी हं, जणएण निरूविया तुझं ॥७२॥ रयणासवस्स सिद्धा, अह माणससुन्दरी महाविज्जा । दरिसेइ तक्खणं चिय, रूवं बल-विरिय-माहप्पं ॥७३॥ विज्जाबलेण सहसा, तत्थेव निवेसियं महानयरं । वरभवणसयाइण्णं, दिव्वं कुसुमन्तयं नामं ॥७४॥ पाणिग्गहणविहाणं, विहिणा काऊण तीए कन्नाए । भुञ्जइ निरन्तराए, भोगे बहुमाणसवियप्पो ॥५॥ सा अन्नया कयाई, सयणिज्जे महरिहे सुहपसुत्ता । पेच्छइ पसत्थसुमिणे, पडिबुद्धा मङ्गलरवेणं ॥७६॥ एवं सर्वकलाऽऽगमकुशलो रत्नश्रवा अपि चिन्तयन् । न लभते क्षणमपि निद्रां निजपुरीप्रवेशनार्थे ॥६४॥ परिचिन्त्यैवं निजकं ज्ञात्वा वीर्यमहात्म्यम् । विद्यानां साधनार्थं कुसुमोद्याने समनुप्राप्तः ॥६५॥ ग्रह-भूत-वानव्यंतर-पिशाच-बहुघोररुपशब्दवति । उद्यानमध्ये ध्यानोपयोगं समारुढः ॥६६॥ ज्ञात्वा व्योमबिन्दु विद्यासमूहागतस्तमुद्याने । ददाति प्रतिचारिकां तस्य दुहितरमेव केकसीनामाम् ॥६७।। सा तत्र तत्क्षणमेव कृतविनया योगिनं समालीना । रक्षति प्रसन्नहृदया समन्ततो दत्तदृष्टिका ॥६८।। अथ स समाप्तविद्यः कृत्वा स्तुतिस्ततोजिनेन्द्राणाम् । पश्यति च समभ्यासे विद्याधरबालिकामेकाम् ॥६९॥ वरपद्मपत्रनेत्रा पद्ममुखी पद्मगर्भसमगौरी । पद्मद्रहवास्तव्या किं भवेत्श्रीः स्वयमेव ? ॥७०॥ रत्नश्रवसा कन्या भणिता केनात्र कारणेन त्वम् । आस्ते वरलावण्ये ! हरिणीव युथप्रभ्रष्टा? ॥७१॥ आकाशबिन्दुतनया नन्दवती गर्भसंभवा कन्या । नाम्ना केकश्यहं जनकेन निरूपिता तुभ्यम् ॥७२॥ रत्नश्रवसः सिद्धा अथ मानससुन्दरी महाविद्या । दर्शयति तत्क्षणं चैव रुप-बल-वीर्य-माहात्म्यम् ॥७३॥ विद्याबलेन सहसा तत्रैव निवेशितं महानगरम् । वरभवनशताकीर्णं दिव्यं कुसुमान्तकं नाम ॥७४॥ पाणिग्रहणविधानं विधिना कृत्वा तस्याः कन्यायाः । भुनक्ति निरन्तरान्भोगान्बहुमानसविकल्पः ॥७५॥ साऽन्यदाकदाचित्शयने महा सुखप्रसुप्ता । पश्यति प्रशस्तस्वप्नान्प्रतिबुद्धा मङ्गलरवेण ॥७६॥ १. विज्जासमहागयं तरुज्जाणे-प्रत्य० । २. समाइण्णं-प्रत्य० । पउम. भा-१/१२ Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० पउमचरियं ईसुग्गयम्मि सूरे, सव्वालङ्कारभूसियसरीरा । गन्तूण समब्भासं, पइणो सुमिणे परिकहेइ ॥७७॥ उयरम्मि समल्लीणो, सीहो दढ-कढिणकेसरारुणिओ। अन्ने वि चन्द-सूरा, उच्छङ्गे धारिया नवरं ॥७॥ एए दगुण पहू, पडिबुद्धा तूरमङ्गलरवेणं । इच्छामि जाणिउं जे, एयत्थं मे परिकहेहि ॥७९॥ अट्ठङ्गनिमित्तधरो, सुमिणे नेमित्तिओ परिकहेइ । एए सव्वब्भुदया, सुयाण लम्भं परिकहेन्ति ॥८०॥ होहिन्ति तिण्णि पुत्ता, विक्कम-माहप्प-सत्तिसंजुत्ता । अमरिन्दरूवसरिसा, पडिसत्तुखयंकरा वीरा ॥८१॥ जो तुज्झ पढमपुत्तो, होही भद्दे ! विसालकित्तिओ । चक्कहरसरिसविभवो, सुचरियकम्माणुभावेण ॥२॥ पडिवक्खअगणियभओ, निच्चं रणकेलिकलहतल्लिच्छो । वरकूरकम्मकारी, होही नत्थेत्थ संदेहो ॥८३॥ जे पुण तस्स कणिट्ठा, दोण्णि जणा सुचरियाणुभावेणं । ते परमसम्मदिट्ठी, भविया होहिन्ति निक्खुत्तं ॥४४॥ परितुट्ठा पसयच्छी, एयं सुणिऊण सुमिणपरमत्थं । जिणचेइयाण पूर्य, अणन्नसरिसं समारुहइ ॥८५॥ अह अन्नया कयाई, तीए गब्भस्स पढमउप्पत्ती । जत्तो पभूइ जाया, तत्तो च्चिय निट्टरा वाणी ॥८६॥ अङ्गं से अइकठिणं, सूरं रणतत्तिनिब्भयं हिययं । दाउंसुराहिवस्स वि, इच्छइ आणासमारम्भं ॥८७॥ सन्ते वि दप्पणयले, निययच्छायं पलोयए खग्गे । विरड्यकरञ्जलिउडा, नवरं गुरुभत्तिमन्ता य ॥८८॥ संपत्तडोहलाए, जाओ रिउआसणाइ कम्पन्तो । बन्धवहिययाणन्दो, अच्छेरयरूवसंठाणो ॥८९॥ इषदुद्गते सूर्ये सर्वालङ्कारभूषितशरीरा । गत्वा सभ्यासं पत्युः स्वप्नान्परिकथयति ॥७७।। उदरे समालीनो सिंह दृढ-कठिन-केसरारुणः । अन्येऽपि चन्द्रसूर्यावुत्संगे धारितौ नवरम् ॥७८॥ एते दृष्ट्वा प्रभु ! प्रतिबुद्धा तूर्यमङ्गलरवेण । इच्छामि ज्ञातुं यानेतदर्थं मे परिकथय ॥७९॥ अष्टांगनिमित्तघर: स्वप्नान्नैमित्तिकः परिकथयति । एते सर्वाभ्युदयाः सुतानां लाभः परिकथयन्ति ॥८०॥ भविष्यन्ति त्रयः पुत्रा विक्रम-माहात्म्य-शक्ति संयुक्ताः । अमरेन्द्ररुपसदृशाः प्रतिशत्रुक्षयंकरा वीराः ॥८१॥ यस्तव प्रथमपुत्रो भविष्यति भद्रे ! विशालकीर्तिः । चक्रधरसदृशविभवः सुचरित्रकर्मानुभावेन ॥८२॥ प्रतिपक्षागणितभयो नित्यं रणकेलिकलहतत्परः । वरकरकर्मकारी भविष्यति नास्त्यत्र संदेहः ॥८३॥ यौ पुनस्तस्य कनिष्ठौ द्वौ जनौ सुचरित्रानुभावेन । तौ परमसम्यग्दृष्टी भविकौ भविष्यतो निश्चितम् ॥८४॥ परितुष्टा प्रसन्नाक्षी एतच्छ्रुत्वा स्वप्नपरार्थम् । जिनचैत्यानां पूजामनन्यसदृशं समारोहति ॥८५॥ अथान्यदा कदाचित्तस्या गर्भस्य प्रथमोत्पत्तिः । यतः प्रभृति जाता तत एव निष्ठुरा वाणी ॥८६॥ अङ्गं तस्या अतिकठिनं शूरं रणतृप्तिनिर्भयं हृदयम् । दातुं सुराधिपस्यापीच्छत्याज्ञासमारम्भम् ।।८७॥ सत्यपि दर्पणतले निजच्छायां प्रलोकति खड्ने । विरचितकरांजलिपूटा नवरं गुरुभक्तिमती ॥८८॥ संप्राप्तदोहदया जातो रिप्वासनादि: कम्पयन् । बान्धवहृदयानन्द आश्चर्यरुपसंस्थानः ॥८९॥ १. धीरा-प्रत्य० । २. निश्चितम् । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहविज्जासाहणं-७/७७-१०२ भूएहि दुन्दुहीओ, पहयाओ विविहतूरमीसाओ। पिउणा कओ महन्तो, विहिणा जम्मूसवो रम्मो ॥१०॥ सूयाहरम्मि तइया, सयणिज्जाओ महिम्मि पल्हत्थो । गेण्हड़ करेण हारं, बालो पसरन्तकिरणोहं ॥११॥ जो सो रक्खसवइणा, दिन्नो च्चिय मेहवाहणस्स पुरा । एयन्तरम्मि नद्धो, न य केणइ खेयरिन्देणं ॥१२॥ दट्टण तं सहारं, जणणी सव्वायरेण परितुट्टा । रयणासवस्स साहइ, पेच्छसु बालस्स माहप्पं ॥१३॥ रयणावसेण दिट्ठो, हारलयागहियनिट्टरकरग्गो । चिन्तेइ तो मणेणं, होहिइ एसो महापुरिसो ॥१४॥ नागसहस्सेणं चिय, जो सो रक्खिज्जए पयत्तेणं । सो जणणीए पिर्णद्धो, कण्ठे बालस्स वरहारो ॥१५॥ रयणकिरणेसु एत्तो, मुहाइँ नव निययवयणसरिसाइं । हारे दिट्ठाइँ फुडं, तेण कयं दहमुहो नामं ॥१६॥ एवं तु भाणुकण्णो, जाओ काले य सो वइक्वन्ते । जस्स य भाणुसरिच्छा, कण्णा वि हुगण्डसोभाए ॥१७॥ जाया ताण कणिट्ठा, चन्दणहा चन्दसोमसरिसमुही । तीए वि हु अणुयवरो, बिहीसणो चेव उप्पन्नो ॥१८॥ एवं कुमारलीलं, कीलन्तो रावणो पलोएइ । अम्बरयलम्मि विउले, वेसमणं सव्वबलसहियं ॥१९॥ को एस अगणियभओ, अम्मो वच्चइ नभेण वीसत्थो । सच्छन्दसुहविहारी, सुरवरलीलं विलम्बन्तो ? ॥१०॥ मह एस भइणिपुत्तो, वेसमणो नाम निग्गयपयावो । लङ्कापुरीए सामी, पुत्तय ! इन्दस्स अग्गभडो ॥१०१॥ तुब्भं कुलागया वि हु, पुत्तय ! लङ्गापुरी मणभिरामा । उव्वासिऊण निययं, पियामहं तो ठिओ एसो ॥१०२॥ भूतै र्दुन्दुभयः प्रहता विविधतूर्यभिषात् । पित्रा कृतो महान् विधिना जन्मोत्सवो रम्यः ॥१०॥ सूतिकागृहे तदा शयनीयान्मह्यां पर्यस्तः । गृह्णाति करेणहारं बालः प्रसरत्किरणौधम् ॥९१।। य स राक्षसपत्या दत्त एव मेघवाहनस्य पुरा । अत्रान्तरे नद्धो न च केनापि खेचरेन्द्रेण ॥९२।। दृष्ट्वा तं सहारं जननी सर्वादरेण परितुष्टा । रत्नश्रवसः कथयति पश्य बालस्य माहात्म्यम् ॥१३॥ रत्नश्रवसा दृष्टो हारलतागृहीतनिष्ठुरकराग्रः । चिन्तयति तदा मनसा भविष्यत्येष महापुरुषः ॥९४|| नागसहस्रेण य स रक्ष्यते प्रयत्नेन । स जनन्या पिनद्धः कण्ठे बालस्य वरहारः ॥१५॥ रत्नकिरणैरितो मुखानि नव निजवदनसदृशानि । हारे दृष्टानि स्फुटानि तेन कृतं दशमुखो नाम ॥९६।। एवन्तु भानुकर्णो जातः काले च स व्यतिकान्ते । यस्य च भानुसदृशौ कर्णावपि हु गण्डशोभायाम् ॥९७।। जाता तयोः कनिष्ठा चन्द्रनखा चन्द्रसौम्यसदृशमुखी । तस्या अपि ह्वनुजवरो बिभीषण एवोत्पन्नः ॥९८॥ एवं कुमारलीलं क्रीडव्रावणः प्रलोकयति । अम्बरतले विपुले वैश्रमणं सर्वबलसहितम् ॥९९।। क एषोऽगणितभयो मात: ! गच्छति नभसा विश्वस्तः । स्वच्छन्दसुखविहारी सुरवरलीलां विडम्बयन् ॥१०॥ मम एष भगिनीपुत्रो वैश्रमणो नाम निर्गतप्रतापः । लङ्कापूर्याः स्वामी पुत्रक ! इन्द्रस्याग्रभटः ॥१०१॥ तव कुलागताऽपि खलु पुत्रक ! लङ्कापुरी मनोभिरामा । उद्वास्य निजकं पितामहं ततः स्थित एषः ॥१०२।। १. सूतिगृहे । २. परिहितः । ३. परिधापितः । ४. अनुजवरः । For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ पउमचरियं एस पिया ते पुत्तय ! गुरुयमणोरहसयाइँ चन्तेन्तो ।खणमवि न लभइ निइं, तीए कए सुन्दरपुरीए ॥१०३॥ जणणिवयणाइँ एवं, सोऊण दसाणणो कउच्छाहो । विज्जासु साहणत्थं, भीमारण्णं वणं पत्तो ॥१०४॥ कव्वायसत्तभीसण-निणायपडिसद्दमुक्कबुक्कारं । सुर-सिद्ध-किन्नरा वि य, जस्स य उवरिं न वच्चन्ति ॥१०५॥ आबद्धजडामउडा, उवरि सिहामणिमऊहकयसोहा । काऊण समाढत्ता, तिण्णि वि घोरं तवोकम्मं ॥१०६॥ अट्ठक्खरा य विज्जा, सिद्धा से लक्खजावपरिपुण्णा । नामेण सव्वकामा, सा वि य सिद्धा दिणद्धेणं ॥१०७॥ जविऊण समाढत्ता, विज्जा वि हु सोलसक्खरनिबद्धा । दहकोडिसहस्साइं, जीसे मन्ताण परिवारो ॥१०८॥ जम्बुद्दीवाहिवई, तइया जक्खो अणाढिओ नामं । जुवइसहस्सपरिवुडो, कीलणहेउं वणं पत्तो ॥१०९॥ ताणं तरतरुणीणं, कीलन्तीणं सहावलीलाए । तवनिच्चलदेहाणं, दिट्ठी पत्ता कुमाराणं ॥११०॥ गन्तूण ताण पासं, भणन्ति वरकमलकोमलमुहीओ । तव-नियमसोसिाण वि पेच्छ हला ! रूवलावण्णं ॥१११॥ एए पढमवयत्था, सेयम्बरधारिणो कुमारवरा । किं कारणं महन्तं, चरन्ति घोरं तवोकम्मं ॥११२॥ उडु लहुं चिय गच्छह, गेहं कि सोसिएण देहेण ? ।अम्हेहि समं भोगे, भुञ्जह पियदरिसणा तुब्भे ॥११३॥ मम्मण-महुरुल्लावं, एवं चिय ताण उल्लवन्तीणं । वयणं न भिन्दइ मणं, सत्थं व भडं ससन्नाहं ॥११४॥ देवीण मज्झयारे, दट्टण अणाढिओ भणइ एवं । भो भो ! तुम्हेत्थ ठिया, कयरं देवं विचिन्तेह ॥११५॥ एषः पिता तव पुत्र ! गुरुकमनोरथशतानि चिन्तयन् । क्षणमपि न लभते निद्रां तस्याः कृते सुन्दरपूर्याः ॥१०३।। जननीवचनान्येवं श्रुत्वा दशाननः कृतोत्साहः । विद्यानां साधनार्थं भीमारण्यं वनं प्राप्तः ॥१०४|| क्रव्यादसत्त्वभीषणनिनादप्रतिशब्दमुक्तगर्जारवम् । सुर-सिद्ध-किन्नरा अपि च यस्य चोपरि न गच्छन्ति ॥१०५।। आबद्धजटामुकुटा उपरि शिखामणिमयूखकृतशोभाः । कृत्वा समारब्धास्त्रयोऽपि घोरं तपः कर्म ॥१०६॥ अष्टाक्षरा च विद्या सिद्धा तस्य लक्षजापपरिपूर्णा । नाम्ना सर्वकामा साऽपि च सिद्धा दिनाङ्केण ॥१०७।। जपितुं समारब्धा विद्याऽपि खलु षोडषाक्षरनिबद्धा । दशकोटिसहस्राणि यस्यां मन्त्राणां परिवारः ॥१०८।। जम्बूद्वीपाधिपतिस्तदा यक्षोऽनादृतोनाम । युवति सहस्रपरिवृत्तः क्रीडनहेतुं वनं प्राप्तः ॥१०९।। तासां वरतरुणीनां क्रीडन्तीनां स्वभावलीलया। तपोनिश्चलदेहानां दृष्टिः प्राप्ता कुमाराणाम् ॥११०॥ गत्वा तेषां पार्वे भणन्ति वरकमलकोमलमुखाः । तपोनियमशोषितानामपि पश्य हला ! रुपलावण्यम् एते प्रथमवयस्थाः श्वेताम्बरधारिणः कुमारवराः । किं कारणं महच्चरन्ति घोरं तपः कर्म ॥११२॥ उत्तिष्ठत लघ्वेव गच्छत गृहं किं शोषितेन देहेन ? । अस्माभिः समं भोगान्भुत प्रियदर्शना यूयम् ॥११३॥ मदनमधुरोल्लापमेवमेव तासामुल्लपन्तीनाम् । वचनं न भिन्दति मनः शस्त्रमिव भटं ससन्नाहम् ॥११४|| देवीनां मध्ये दृष्ट्वाऽऽनादृतो भणत्येवम् । भो भो ! यूयमत्रस्थिताः कतरं देवं विचिन्तयथ ॥११५॥ १.क्रव्याद। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहविज्जासाहणं - ७/ १०३-१२८ सुट्टु वि मग्गिज्जन्ता, झाणोवगया न देन्ति उल्लावं । रुट्ठो जक्खाहिवई, घोरुवसग्गं कुणइ तेसिं ॥ ११६॥ वेयाल-वाणमन्तर-गह-भूउब्भडकरालमुहदन्ता । भेसन्ति कुमारवरे, जक्खा विविहेहि रूवेहिं ॥११७॥ उम्मूलिऊण केई, पव्वयसिहरं सिलापरिग्गहियं । मुञ्चन्ति ताण पुरओ, पप्फोडेन्ता धरणिपट्टं ॥११८॥ केइत्थ दीहविसहर-रूवं काऊण अङ्गमङ्गेसु । वेढन्ति कुमारवरे, तह वि य खोभं न वच्चन्ति ॥ ११९ ॥ काऊ सीहरवे, दढदाढामुहललन्तजीहाले । मुञ्चन्ति सीहनायं, नक्खेहि महिं विलिहमाणा ॥१२०॥ जाहे न चाइया ते, खोभेऊणं च विविहरूवेहिं । ताहे बहलतमनिभं, मेच्छ्बलं दावियं सहसा ॥१२१॥ हय-विहय-विप्परद्धं, कुसुमन्तपुरं हढेण काऊणं । तो बन्धिऊण ठविओ, पुरओ रयणासवो तेसिं ॥१२२॥ अन्तेरं विलावं, कुणमाणं बन्धवा य दीणमुहा । खररज्जुकढिणबद्धा, ते वि य पुरओ उवट्ठविया ॥१२३॥ केसेसु कड्डिणं, माया वि य नियलसंजया सिग्धं । ठविया य ताण पुरओ, मेच्छेहि अणज्जसीलेहिं ॥ १२४॥ हा पुत्त ! परित्तायह, पल्ली हं पेसिया पुलिन्देहिं । होऊण समरसूरा, कह एवं परिहवं सहह ? ॥१२५॥ चोद्दसथणसोत्ताणं, जं पुत्ता ! पाइया मए खीरं । तं कुपुरिसेहि संपइ, एक्क्स्स वि निक्केओ न कओ ॥१२६॥ एएसु य अन्नेसु य, झाणविरोहो जया न संभूओ । खग्गेण सिरं छिन्नं, पुरओ रयणासवस्स तया ॥१२७॥ सव्विन्दियसंवरियं, चित्तं न य बाहिरं समल्लीणं । झाणं गिरिन्दसरिसं, निक्कम्पं दहमुहस्स 'ठियं ॥ १२८ ॥ सुष्ठु अपि मार्ग्यमाणा ध्यानोपगता न ददत्युल्लापम् । रुष्टो यक्षाधिपति र्घोरोपसर्गं करोति तेषाम् ॥ ११६॥ वैताल-वानव्यंतर-ग्रह- १ - भूतोद्भटकरालमुखदन्ताः । भेषयन्ति कुमारवरान् यक्षा विविधै रुपैः ॥११७॥ उन्मूलयित्वा केचित्पर्वतशिखरं शिलापरिगृहीतम् । मुञ्चन्ति तेषां पुरतः स्फोटयन्धरणीपुष्ठम् ॥११८॥ केचिद्दीर्घविषधररुपं कृत्वाङ्गमङ्गेषु । वेष्टयन्ति कुमारवरान् तथापि च क्षोभं न गच्छन्ति ॥ ११९ ॥ कृत्वा सिंहरूपान् दृढदाढामुखललित्जिह्वान् । मुञ्चन्ति सिंहनादं नखै महीं विलिखमानाः ॥१२०॥ यदा न चलितास्ते क्षोभयितुं च विविधरुपैः । तदा बहलतमोनिभं म्लेच्छबलं दर्शितं सहसा ॥१२१॥ हत-विहित-विपीडितं कुसुमान्तपुरं हठेन कृत्वा । तदा बद्ध्वा स्थापितः पुरतो रत्नश्रवास्तेषाम् ॥१२२॥ अन्तःपुरं विलापं क्रियमाणं बंधवाश्च दीनमुखाः । स्वररज्जुकठिनबद्धास्तेऽपि च पुरत उपस्थापिताः ॥ १२३॥ केशेषु कृष्ट्वा माताऽपि च निगडसंयता शीघ्रम् । स्थापिता तेषां पूरतो म्लेच्छैरनार्यशीलैः ॥ १२४॥ हा पुत्र ! परित्रायस्व पल्यामहं प्रेषिता पुलिन्दैः । भूत्वा समरशूराः कथमेतत्परिभवं सहध्वे ? ॥१२५॥ चतुर्दशस्तनस्त्रोतानां यत्पुत्राः ! पायिता मया क्षीरम् । तत्कुपुरुषैः संप्रति एकस्यापि निष्क्रयो न कृतः ॥१२६॥ एतेषुचान्येषु च र्ध्यानविरोधो यदा न संभूतः । खड्गेन शिरं द्दिन्नं पुरतो रत्न श्रवसस्तदा ॥१२७॥ सर्वेन्द्रियसंवरितं चित्तं न च बाह्यं समालीनम् । ध्यानं गिरीन्द्रसदृशं निष्कम्पं दशमुखस्य स्थितम् ॥१२८॥ १. न गच्छेति प्रत्य० । २. निष्क्रयः । For Personal & Private Use Only ९३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ पउमचरियं जइ तं करेइ झाणं, सुद्धं इह संजओ य सद्धाए । छेत्तूण कम्मबन्धं, पावइ सिद्धि न संदेहो ॥१२९॥ एत्थन्तरे सहस्सं, विज्जाणं विविहरूवधारीणं । बद्धञ्जलिमउडाणं, सिद्ध चिय दहमुहस्स तया ॥१३०॥ कस्स वि चिरस्स सिज्झइ, विज्जा अइदुक्खदेहपीडाए । कस्स वि लहुं पि सिज्झइ, सुचरियकम्माणुभावेणं ॥१३१॥ काले सुपत्तदाणं, सम्मत्तविसुद्धि-बोहिलाभं च । अन्ते समाहिमरणं, अभव्वजीवा न पावन्ति ॥१३२॥ सव्वायरेण एवं, पुण्णं कायव्वयं मणूसेणं । पुण्णेण नवरि लब्भइ, कम्मसमिद्धी अ सिद्धी य ॥१३३॥ पुव्वकयं निम्मायं, सेणिय ! कम्मप्फलं दहमुहस्स । कालम्मि असंपुण्णे सिद्धाउ महन्तविज्जाओ ॥१३४॥ एयाणं विज्जाणं, नामविभत्तिं सुणाहि एगमणो । आगाशगामिणी कामदाइणी कामगामी य ॥१३५॥ विज्जा य दण्णिवरा, जयकम्मा चेव तह य पन्नत्ती। अह भाणुमालिणी विय, अणिमा लघिमा य नायव्वा ॥१३६॥ मणथम्भणी अखोहा, विज्जा संवाहणी सुरद्धंसी । कोमारी वहकारी, सुविहाणा तह तमोरूवा ॥१३७॥ विउलाअरी य दहणी विज्जा सुहदाइणी रओरूवा । दिणरयणिकरी, वज्जोयरी य एत्तो समादिट्ठी ॥१३८॥ अजरामरा विसन्ना, जलथम्भिणि अग्गिथम्भणी चेव । गिरिदारिणी य एत्तो, विज्जा अवलोवणी चेव ॥१३९॥ अरिविद्धंसी घोरा, वीरा य भुयङ्गिणी तहा वरुणी । भुवणावज्जा य पुणो, दारुणि मयणासणी य तहा ॥१४०॥ रवितेया भयजणणी, ईसाणी तह भवे जया विजया । बन्धमि वाराही वि य, कुडिला कित्ती मुणेयव्वा ॥१४१॥ यदि तत्करोति ध्यानं शुद्धमिह संयतश्च श्रद्धया। छित्वा कर्मबन्धं प्राप्नोति सिद्धि न संदेहः ॥१२९।। अत्रान्तरे सहस्रं विद्यानां विविधरुपधारीणम् । बद्धाञ्जलिमुकुटानां सिद्धमेव दशमुखस्य तदा ॥१३०॥ कस्यापि चिरेण सिध्यति विद्या अतिदुःखदेहपीड्या । कस्यापि लध्वपि सिध्यति सुचरितकर्मानुभावेन ॥१३१॥ काले सुपात्रदानं सम्यक्त्वविशुद्धिर्बोधिलाभं च । अन्ते समाधिमरणमभव्यजीवा न प्राप्नुवन्ति ॥१३२।। सर्वादरेणैवं पुण्यं कर्तव्यं मनुष्येन । पुण्येन नवरं लभ्यते कर्मसमृद्धिश्च सिद्धिश्च ॥१३३॥ पूर्वकृतं निर्मातं श्रेणिक ! कर्मफलं दशमुखस्य । काले च संपूर्णे सिद्धा महाविद्या ॥१३४।। एतासां विद्यानां नामविभक्ति श्रुणुवेकाग्रमनाः । आकाशगामिनी, कामदायिनी, कामगामी च ॥१३५॥ विद्या च दनिवारा, जयकर्मा चैव तथा च प्रज्ञप्तिः । अथ भानमालिन्यप्यणिमालधिमा च ज्ञातव्या ॥१३६।। मनस्तम्भन्यक्षोभा विद्या संवाहणी सुरध्वंसी । कौमारी वधकारी सुविधाना तथा तमोरुपा ॥१३७।। विपुलाकरी च दहनी विद्या सुखदायिनी रजोरुपा । दिन-रजनीकरी, वज्रोदरी चेतः समादिष्टी ॥१३८॥ अजरामरा विसंज्ञा, जलस्तम्भिन्यग्निस्तम्भनी चैव । गिरिदारिणी चेतो विद्याऽवलोकनी चैव ॥१३९॥ अरि विध्वंसी घोरा वीरा च भुजङ्गिनी तथा वरुणी । भुवनावद्या च पुनर्दारुणी मदनाशनी च तथा ॥१४०॥ रवितेजा भयजननी ऐशानी तथा भवेज्जया विजया । बन्धनी वाराह्यपि च कुटिला कीर्ति तिव्या ॥१४१।। १. पद्मचरितमें 'जगत्कम्पा' है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहविज्जासाहणं - ७ / १२९-१५४ वाउब्भवाय सत्ती (न्ती) कोबेरी सङ्करी य उद्दिट्ठा। जोगेसी बलमहणी, चण्डाली वरिसिणी चेव ॥१४२॥ विज्जाउ एवमाई, सिद्धाओ तस्स बहुविहगुणाओ । थेवदिवसेसु सेणिय !, अल्लीणाओ दहमुहस्स ॥१४३॥ सव्वारुहरइविद्धी, आगासगमा य जम्भणी चेव । निद्दाणी पञ्चमिया, सिद्धा' चिय भाणुकण्णस्स ॥१४४॥ सिद्धत्था अरिदमणी, निव्वाघाया खगामिणी पमुहा । एया वि हु विज्जाओ, पत्ताउ बिभीसणेण तया ॥ १४५ ॥ अह ते समत्तनियमा, जक्खाहिवईण तत्थ तुट्टेणं । सम्माणिय- कयपूया, दिन्नासीसा तओ भणिया ॥ १४६ ॥ दहमुह ! बन्धवसहिओ, महइमहाइड्डि- सत्तसंपन्नो । पडिवक्खअपरिभूओ, जीवसु कालं अइमहन्तं ॥ १४७॥ अन्नं पिएव निसणसु, जम्बुद्दीवे समुद्दपेरन्ते । सच्छन्दसुहविहारी, हिण्डसु मज्झं पसाएओणं ॥१४८॥ कइलाससिहरसरिसोवमेसु भवणेसु संविरायन्तं । दिव्वं सयंपभपुरं, धणएण कयं दहमुहस्स ॥१४९॥ काऊण य सम्माणं, निययपुरं पत्थिओ महाजक्खो । सिग्घं च रक्खसभडा, संपत्ता सव्वपरिवारा ॥ १५० ॥ तत्तो महूसवं ते, करेन्ति अच्चन्तहरिसियमईया । बहुतूरसद्दकलयल-सिद्धवहूमङ्गलुग्गीयं ॥१५१॥ संपत्तो य सुमाली, पियामहो मालवन्तनामो य । रिक्खरया - ऽऽइच्चरया, रयणासवमाइया सव्वे ॥१५२॥ दिट्ठा कुमारसीहा, कयविणया ते गुरुं समल्लीणा । सव्वे वि य एगट्ठे, वच्चन्ति सयंपभं नरं ॥ १५३ ॥ दट्टूण केकसी वि य, पुत्ते वरहार-कुण्डलाहरणे । पुलइयरोमञ्चइया, न माइ नियगेसु अङ्गेसु ॥१५४॥ वायूद्भवा च शक्तिः कौबेरी शङ्करी चोपदिष्टा । योगेश्वरी बलमथनी चाण्डाली वर्षिणी चैव ॥ १४२ ॥ विद्या एवमादयः सिद्धास्तस्य बहुविधगुणाः । स्तोकदिवसैः श्रेणिक ! आलीना दशमुखस्य ॥१४३॥ सर्वारोह रतिवृद्ध्याकाशगमा च जृम्भीण्येव । निद्राणी पञ्चम सिद्धैव भानुकर्णस्य ॥१४४॥ सिद्धार्थाऽरिदमनी निर्व्याघाता खगामिनी प्रमुखा । एता अपि खलु विद्याः प्राप्ता बिभीषणेन तदा ॥१४५॥ अथ ते समाप्तनियमा यक्षाधिपतिना तत्र तुष्टेन । सम्मानितकृतपूजा दत्ताऽऽशिषस्ततो भणिताः ॥१४६॥ दशमुख ! बन्धवसहितो महतिमद्धिसत्त्वसंपन्नः । प्रतिपक्षापरिभूतो जीव कालमतिमहत् ॥१४७॥ अन्यदप्येव निःश्रुणु जम्बूद्वीपे समुद्रपर्यन्ते । स्वच्छन्दसुखविहारीहिण्डस्व मम प्रसादेन ॥१४८॥ कैलाशशिखरसदृशोपमेषु भवनेषु संविराजयन् । दिव्यं स्वयंप्रभपुरं धनदेवकृतं दशमुखस्य ॥१४९॥ कृत्वा च सन्मानं निजकपुरं प्रस्थितो महायक्षः । शीघ्रं च राक्षसभटा संप्राप्ताः सर्वपरिवाराः ॥ १५०॥ ततो महोत्सवं ते कुर्वन्त्यत्यन्तहर्षितमतयः । बहुतूर्यशब्दकलकलसिद्धवधूमङ्गलोद्गीतम् ॥१५१॥ संप्राप्तश्च सुमाली पितामहो माल्यवान् नाम च । ऋक्षरजा आदित्यरजा रत्नश्रवसादिकाः सर्वे ॥१५२॥ दृष्टाः कुमारसिंहाः कृतविनयास्ते गुरुं समालीनाः । सर्वेऽपि च एकत्र गच्छन्ति स्वयंप्रभं नगरम् ॥१५३॥ दृष्ट्वा केकश्यपि च पुत्रान् वरहारकुण्डलाभरणान् । पुलकितरोमाञ्चिता न माति निजकेष्वङ्गेषु ॥ १५४॥ १. विज्जा चिय प्रत्य० । For Personal & Private Use Only ९५ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ पउमचरियं पत्ता सयंपभपुरं, भवणालीविविहरयणकयसोहं । ऊसियधया-वडागं, सग्गविमाणं व ओइण्णं ॥१५५॥ मज्झट्ठियम्मि सूरे, मज्जणयविही कया कुमाराणं । पडुपह-मुरवबहुरव-जयसढुगघुट्ठगम्भीरा ॥१५६॥ ण्हाया कयबलिकम्मा, सव्वालंकारभूसियसरीरा । गुरुयणकयप्पणामा, दिन्नासीसा सुहनिविट्ठा ॥१५७॥ एवं तु संकहाए, समागयं मालिमरणमुव्वेयं । जंपन्तो य सुमाली, सहसा ओमुच्छिओ पडिओ ॥१५८॥ चन्दणजलोल्लियङ्गो, आसत्थो पुच्छिओ दहमुहेणं । केण निमित्तेण गुरू !, जेणेयं पाविओ दुक्खं ? ॥१५९॥ अह साहिउं पयत्तो, पुत्तय ! निसुणेहि दिन्नकण्ण-मणो । जह अम्ह वसण-दुक्खं, उप्पन्नं एरिसं अङ्गे॥१६०॥ लङ्कापुरीए सामी, आसि पुरा मेहवाहणो राया । तस्स इमो सुविसालो, रक्खसवंसो समुप्पन्नो ॥१६१॥ एत्थेव महावंसे, लङ्कानयरीए खेयरिन्दाणं । वोलीणाइँ कमेणं, बहुयाई सयसहस्साइं ॥१६२॥ वय तडिकेसो, तस्स सुकेसो सुओ समुप्पन्नो । तस्स वि य होइ माली, पुत्तो हं मालवन्तो य ॥१६३॥ लासि मज्झ जेट्ठो, लङ्कापुरिसामिओ विजियसत्तू । जेणेयं भरद्धं, वसीकयं पुरिससीहेणं ॥१६४॥ ली मह पुरओ, सहसारसुएण पुत्त ! इन्देणं । वहिओ संगाममुहे, रहनेउरचक्कवालपुरे ॥१६५॥ .स्स भएण पविट्ठा, अम्हे पायालपुरवरं दुग्गं । नवरंचिय सो भुञ्जइ, तं अम्ह कुलोचियं नयरं ॥१६६॥ अह अन्नया गएणं, सम्मेए वन्दिऊण जिणयन्दं । तत्थेव पुच्छिओ मे, अइसयनाणी समणसीहो ॥१६७॥ प्राप्ताः स्वयंप्रभपुरं भवनालिविविधरत्नकृतशोभम् । उच्छ्रितध्वजापताकं स्वर्गविमानमिवावतीर्णम् ॥१५५।। 'यस्थिते सूर्ये मज्जनविधिः कृता कुमाराणम् । पटुपटहमुखरबहुरवजयशब्दोघृष्टगम्भीरा ॥१५६।। स्नाताः कृतबलिकर्माणः सर्वालङ्कारभूषितशरीराः । गुरुजनकृतप्रणामा दत्ताशीषः सुखनिविष्ठाः ॥१५७।। एवन्तु संकथया समागतं मालिमरणमुद्विग्नम् । जल्पंश्च सुमाली सहसावमुच्छितः पतितः ॥१५८॥ जन्दनजलावलिप्ताङ्ग आश्वास्तः पृच्छितो पृष्टोदशमुखेन । केननिमित्तेन गुरो ! येनेदं प्राप्तो दुःखम् ॥१५९।। यतं प्रवृत्तः पुत्र ! निः श्रुणु दत्तकर्णमनाः । यथास्माकं व्यसनदुःखमुत्पन्नमेतादृशमङ्गे ॥१६०।। पाम्यासीत्पुरा मेघवाहनो राजा । तस्यायं सुविशालो राक्षसवंशः समुत्पन्नः ॥१६१।। श लङ्कानगर्यां खेचरेन्द्राणाम् । गतानि क्रमेण बहूनि शतसहस्राणि ॥१६२॥ 'शस्तस्य सुकेशः सुतः समुत्पन्नः । तस्यापि च भवति माली पुत्रोऽहं माल्यवांश्च ॥१६३॥ यो लङ्कापुरीस्वामी विजितशत्रुः । येनेदं भरतार्धं वशीकृतं पुरुषसिंहेन ॥१६४|| - सहस्रारसुतेन पुत्र ! इन्द्रेण । वधितः संग्राममुखे रथनूपुरचक्रवालपुरे ॥१६५।। पातालपुरवरं दुर्गम् । नवरमेव स भुनक्ति तदस्माकं कुलोचितं नगरम् ।।१६६।। १. वा जिनचन्द्रम् । तत्रैव पृष्टो मयाऽतिशयज्ञानी श्रमणसिंहः ॥१६७।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहविज्जासाहणं-७/१५५-१७३ कइया होही अम्हं, लङ्कानयरीसमासयनिवेसो ? । अइगरुयदारुणस्स य, वोच्छेओ वसणदुक्खस्स ? ॥१६८॥ भणियं च मुणिवरेणं, जो ते पुत्तस्स होहिई पुत्तो । सो निययपुरि सवसं, काही नत्थेत्थ संदेहो ॥१६९॥ सो अद्धभरहसामी, पयाव-बल-विरिय-सत्तसंपन्नो । पडिवक्खखयन्तकरो, होही समरुज्जयमईओ ॥१७०॥ तं एवं मुणिभणियं, जायं निस्संसयं जहुद्दिढं । रक्खसवंसस्स तुमं, होही कित्तीधुराधारो ॥१७१॥ सोऊण गुरुवएसं, तुट्ठो च्चिय दहमुहो वियसियच्छो । सिद्धाण नमोक्कारं, करेइ मउलञ्जली सिरसा ॥१७२॥ धम्मं काऊण रम्मं नरवरवसहा होन्ति विक्खायकित्ती, दूरं भुञ्जन्ति सोक्खं पवरसिरिधरा लक्खणुक्किण्णदेहा । बोहिं पावेन्ति धीरा परभवमहणी मोक्खमग्गाहिलासी, तम्हा ठावेह चित्तं ससियरविमले सासणे संजयाणं ॥१७३॥ ॥ इति पउमचरिए दहमुहविज्जासाहणो नाम सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ कदा भविष्यत्यस्माकं लङ्कानगरी समाश्रयनिवेश: ? । अतिगुरुकदारुणस्य च व्युच्छेदो व्यसनदुःखस्य ? ॥१६८|| भणितं च मुनिवरेण यस्तव पुत्रस्यभविष्यति पुत्रः । स निजपुरि स्ववशं करिष्यति नास्त्यत्र संदेहः ॥१६९।। सोऽर्धभरतस्वामी प्रताप-बल-वीर्यसंपन्नः । प्रतिपक्षक्षयान्तको भविष्यति समरोद्यतमतिकः ॥१७०॥ तदेतन्मुनिभणितं जातं निस्संशयं यथोदिष्टम् । राक्षसवंशस्य त्वं भविष्यति कीर्तिधुराधारः ॥१७१॥ श्रुत्वा गरूपदेशं तुष्ट एव दशमुखो विकसिताक्षः । सिद्धानां (सिद्धेभ्यो) नमस्कारं करोति मुकुटाञ्जलिःशिरसा ॥१७२।। धर्मं कृत्वा रम्यं नरवरवृषभा भवन्ति विख्यातकीर्तयः, दूरं भुञ्जन्ति सौख्यं प्रवरश्रीधराः लक्षणोत्कीर्णदेहाः । बोधि प्राप्नुवन्ति धीराः परभवमथनीं मोक्षमार्गाभिलाषिणः, तस्मात्स्थापय चित्तं शशीकरविमले शासने संयतानाम् ॥१७३।। ॥ इति पद्मचरित्रे दशमुखविद्यासाधनो नाम सप्तमोद्देशः समाप्तः ॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८. दहमुहपुरिपवेसो । एत्तो वेयड्डनगे, दक्खिणसेढीए सुरयसंगीए । नयरे मओ त्ति नामं, हेमवई नाम से भज्जा ॥१॥ तीए गुणाणुरूव, धूया मन्दोयरि त्ति नामेणं । नवजोव्वणसंपन्ना, मएण दिट्ठा विसालच्छी ॥२॥ चिन्तं खणेण पत्तो, सद्दावेऊण मन्तिणो सिग्धं । अह देमि कस्स कन्नं ? एयं मे पुच्छिया भणह ॥३॥ मन्तीहि समुद्दिट्टा, बहवे विज्जाहरा बलसमिद्धा । अन्नेण तओ भणियं, जोगा इन्दस्स वरकन्ना ॥४॥ अह ते मएण भणिया, नयसत्थवियारया महामन्ती । मज्झं किर परिणामो, दिज्जइ कन्ना दहमुहस्स ॥५॥ विज्जासहस्सधारी, अतुलियबलविक्कमो सुरूवो य । सुन्दरकुलसंभूओ, गुणेहि दूरं समुव्वहइ ॥६॥ मन्तीहि समणुनायं, एवं पहु ! जह तुमे समुद्दिटुं । कल्लाणसमारम्भो, कीरउ मा णे चिरावेह ॥७॥ सुभलग्गकरणजोए, कन्नं घेत्तूण सयलपरिवारो । दहवयणपुराभिमुहो, मओ पयट्टो नभयलेणं ॥८॥ गयणेण वच्चमाणो, भीमारण्णस्स मज्झयारम्मि । पेच्छइ मणाभिरामं, नगरं वरतुङ्गपायारं ॥९॥ सव्वावत्तबलाहय-सम्मेय-ऽट्ठावयाण मज्झम्मि । तं भीममहारण्णं, जत्थ पुरं सुरपुरायारं ॥१०॥ नयरस्स तस्स पासे, ओइण्णो निययवाहिणीसहिओ । पेच्छइ मओ मणोज्ज, भवणं सरयम्बुयायारं ॥११॥ ८. दशमुखपुरिप्रवेशः इतो वैताढ्यनगे दक्षिणश्रेण्यां सुरतसंगीते । नगरे मय इति नाम हेमवती नामा तस्य भार्या ॥१॥ तस्या गुणानुरुपा दुहिता मन्दोदरीति नाम्ना । नवयौवनसंपन्ना मयेन दृष्टा विशालाक्षी ॥२॥ चिन्ता क्षणेन प्राप्तः शब्दापयित्वा मन्त्रिणः शीघ्रम् । अथ दद्मिकस्य कन्यां ? एतन्मे पृष्टा भणत ॥३॥ मन्त्रिभिः समुदिष्टा बहवो विद्याधरा बलसमृद्धाः । अन्येन ततो भणितं योग्या इन्द्रस्य वरकन्या ॥४॥ अथ ते मयेन भणिता नयशास्त्रविचारणा महामन्त्रिणः । मम खलु परिणामो दीयते कन्या दशमुखस्य ॥५॥ विद्यासहस्रधारीअतुलितबलविक्रमः सुरुपश्च । सुंदरकुलसंभूतो गुणै दूंरं समुद्वहति ॥६॥ मन्त्रिभिः समनुज्ञातमेवं प्रभो ! यथा त्वया समादिष्टम् । कल्याणसमारम्भः क्रीयतां मा चिरायताम् ।।७।। शुभलग्नकरणयोगे कन्यां गृहीत्वा सकलपरिवारः । दशवदनपुराभिमुखो मयो प्रवृत्तो नभस्तलेन ॥८॥ गगनेन गच्छन् भीमारण्यस्य मध्ये । पश्यति मनोभिरामं नगरं वरतुङ्गप्राकारम् ॥९॥ सर्वावर्तबलाहकसम्मेताऽष्टापदानां मध्ये । तद्भीमारण्यं यत्र पुरं सुरपुराकारम् ॥१०॥ नगरस्य तस्य पार्श्वे अवतीर्णो निजवाहिनीसहितः । पश्यति मयो मनोज्ञं भवनं शरदम्बुदाकारम् ॥११॥ १. चेव से-मु०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुखपुरिपवेसो-८/१-२४ भवणं मओ पविट्ठो, अह पेच्छइ दारियं तहिं एक्कं । भणिया य कस्स दुहिया ?, कस्स व एयं महाभवणं ? ॥१२॥ सा भणइ मज्झ भाया, दहवयणो नामओ य चन्दणहा । खग्गस्स रक्खणट्ठा, ठविया हं चन्दहासस्स ॥१३॥ ताव च्चिय दहवयणो, मेरुं गन्तूण चेइयघराइं । संथुणिय पडिनियत्तो, तं चेव गिहं समणुपत्तो ॥१४॥ काऊणसमायारं, मयसहिया मन्तिणो दहमुहस्स । मारीचि वज्जमज्झो, गयणतडी वज्जनेत्तो य ॥१५॥ मरुदुज्जउग्गसेणे, मेहावी सारणो सुगो मन्ती । अन्ने वि एवमाई, दट्टण दसाणणं तुट्ठा ॥१६॥ काऊण विणयपणया, भणन्ति मन्ती सुणेह वयणऽम्हं । दहमुह ! एगग्गमणो, कारणमिणमो निसामेहि ॥१७॥ सुरसंगीयाहिवई, वेयड्ढे दक्खिणाए सेढीए । एसो मओ त्ति नामं, विज्जाहरपत्थिवो सूरो ॥१८॥ घेत्तूण निययधूयं, तुज्झ गुणायर ! विसिठ्ठायण्णं । भडचडगरेण सहिया, एत्थं चिय आगया सिग्धं ॥१९॥ सुणिऊण वयणमेयं, दसाणणो जिणहरं समल्लीणो । पूयं काऊण तओ, अभिवन्दइ जिणवरं तुट्ठो ॥२०॥ तत्थेव सयण-परियण-आणन्दुब्भडवरं निओगेणं । वत्तं पाणिग्गहणं, अणन्नसरिसं वसुमईए ॥२१॥ पत्तो सयंपहपुरं, तीए समं दहमुहो पुलइयङ्गो । मन्नन्तो पवरिसिरिं, समत्थभुवणागयं चेव ॥२२॥ तत्तो मओ य राया, निययपुरं पत्थिओ सपरिवारो । दुहियाविओगजणियं, सोग-पमोयं च वहमाणो ॥२३॥ जाया वरग्गमहिसी, एत्तो मन्दोयरी विसालच्छी । तीए गुणाणुरत्तो, न गणइ कालं पि वच्चन्तं ॥२४॥ भवनं मयः प्रविष्टो ऽथ पश्यति दारिकां तत्रेकाम् । भणिता च कस्य दुहिता ? कस्य वेतन्महाभवनम् ? ॥१२॥ सा भणति मम भ्राता दशवदनो नाम च चन्द्रनखा । खड्गस्य रक्षणार्थं स्थापिताऽहं चन्द्रहासस्य ॥१३॥ तावच्चेव दशवदनो मेहं गत्वा चैत्यगृहाणि । संस्तुत्य प्रतिनिर्वृत्तस्तच्चेव गृहं समनुप्राप्तः ॥१४॥ कृत्वा समाचारं मयसहिता मन्त्रिणो दशमुखस्य । मारिची वज्रमध्यो गगनतटी वज्रनेत्रश्च ॥१५।। मरुदुर्जोग्रसेना मेघावी सारणः सुगो मन्त्री । अन्येऽप्येवमादयो दृष्टवा दशाननं तुष्ठाः ॥१६॥ कृत्वा विनयप्रणता भणन्ति मन्त्रिणः श्रुणु वचनमस्माकम् । दशमुख ! एकाग्रमनाः कारणमिदं निशामय ॥१७॥ सुरसंगीताधिपति वैताढ्यदक्षिणायां श्रेण्याम् । एव मय इति नामविद्याधरपार्थिवः शूरः ॥१८॥ गृहीत्वा निजदुहितरं तव गुणाकर ! विशिष्टलावण्यम् । भटसमूहेन सहिता अत्रैवागताः शीघ्रम् ॥१९॥ श्रुत्वा वचनमेतद्दशाननो जिनगृहे समालीनः । पूजां कृत्वा ततोऽभिवन्दति जिनवरं तुष्ठः ॥२०॥ तत्रैव स्वजन-परिजनानन्दुद्भटवरं नियोगेन । वृत्तं पाणिग्रहणमनन्यसदृशं वसुमत्याम् ॥२१॥ प्राप्तः स्वयंप्रभपरं तया समं दशमखः पलकिताङ्गः । मन्यमानप्रवरश्रीं समस्तभवनागतमिव ॥२२॥ ततो मयश्चराजा निजपुरं प्रस्थितः सपरिवारः । दुहितृवियोगजनितं शोक-प्रमोदं च वहमानः ।।२३।। जाता वराग्रमहिषी ततो मन्दोदरी विशालाक्षी । तस्या गुणानुरक्तो न गणति कालमपि गच्छन्तम् ॥२४।। १. तावं चिय-मु०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पउमचरियं सो तत्थ विण्णसेउं, इच्छइ विज्जाण विरिय-माहप्पं । उच्छाहनिच्छियमणो, वावारे बहुविहे कुणइ ॥२५॥ एक्को अणेयरूवं, काऊणऽल्लियइ सव्वजुवईणं । सूरो व्व कुणइ तावं, ससि व्व जोण्हं समुव्वहइ ॥२६॥ अणलो व्व मुयइ जाला, वरिसइ मेहो व्व तक्खणुप्पन्नो । वाउ व्व चालइ गिरिं, कुणइ सुरिन्दत्तणं सहसा ॥२७॥ होइ समुद्दो व्व फुडं, मत्तगइन्दो खणेण वरतुरओ । दूरे आसन्नो च्चिय, खणेण अइंसणो होइ ॥२८॥ कुणइ महन्तं रूवं, खणेण सुहुमत्तणं पुण उवेइ । एवं लीलायन्तो, मेहवरं पव्वयं पत्तो ॥२९॥ पेच्छइ य तत्थ वाविं, निम्मलजलतणुतरङ्गकयसोहं । कुमुउप्पलसंछन्नं, महुयरगुञ्जन्तमहुरसरं ॥३०॥ तत्थ य कीलन्तीणं, पेच्छइ कन्नाण छस्सहस्साई । विज्जाहरधूयाणं, लायण्णसिरी वहन्तीणं ॥३१॥ ताहिं पि सो कुमारो, दिट्टो वरहार-मउडकयसोहो । जाणविमाणारूढो, सुरवइलील विडम्बन्तो ॥३२॥ एवं भणन्ति ताओ, जइ न हवइ एस अम्ह भत्तारो । मण-नयणनिव्वुइकरो, तो अकयत्थो इमो जम्मो ॥३३॥ सुरसुन्दरस्स दुहिया, कन्ना पउमावइ त्ति नामेण । वरपउमसरिसवयणा, सिरि व्व पउमालयनिवासी ॥३४॥ अन्ना बुहस्स दुहिया, मणवेगाकुच्छिसंभवा बाला । नामेण असोगलया, कुसुमलया चेव सोहन्ती ॥३५॥ कणयनरिन्दस्स सुया, संझदेवीए कुच्छिसंभूया। विज्जुसमसरिसवण्णा, नामं विज्जुप्पभा कन्ना ॥३६॥ एवं चिय कन्नाओ, बहुयाओ रूव-जोव्वणधराओ । मोत्तूण उदयखेड्डे, तं वरपुरिसं पलोयन्ति ॥३७॥ स तत्र जिज्ञाषितुमिच्छति विद्यानां वीर्यमाहात्म्यम् । उत्साहनिश्चितमना व्यापारान् बहुविधान् करोति ॥१२५।। एकोऽनेकरुपं कृत्वालीढति सर्वयुवतीन् । सूर्यरिव करोति तापं शशीव ज्योत्स्नां समुद्वहति ॥२६।। अनल इव मुञ्चति ज्वालां वर्षति मेघ इव तत्क्षणोत्पन्नः । वायु इव चालयति गिरिं करोति सुरेन्द्रत्वं सहसा ॥२७॥ भवति समुद्र इव स्फुटं मत्तगजेन्द्रः क्षणेन वरतुरगः । दूरे आसन्न एव क्षणेनादर्शनो भवति ॥२८॥ करोति महद्रुपं क्षणेन सुक्ष्मत्वं पुनरुपैति । एवं लीलायन् मेघवरं पर्वतं प्राप्तः ॥२९॥ पश्यति च तत्र वापी निर्मलजलतनुतरङ्गकृतशोभाम् । कुमुदोत्पलसंच्छनां मधुकरगुञ्जन्मधुरस्वराम् ॥३०॥ तत्र च क्रीडन्तीनां पश्यति कन्यानां षट्सहस्राणि । विद्याधरदुहितृणां लावण्यश्रीवहमानानाम् ॥३१॥ ताभिरपि स कुमारो दृष्टो वरहारमुकटकृतशोभः । यानविमानारुढ: सुरपतिलीलां विडम्बयन् ॥३२॥ एवं भणन्ति ता यदि न भवत्येषोऽस्माकं भर्ता । मन-नयननिर्वृत्तिकरस्तदाऽकृतार्थोऽयं जन्म ॥३३॥ सुरसुन्दरस्य दुहिता कन्या पद्मावतीति नाम्ना । वरपद्मसदृशवदना श्रीरिव पद्मालयनिवासी ॥३४॥ अन्या बुधस्य दुहिता मनोवेगाकुक्षिसंभवा बाला । नाम्नाऽशोकलता कुसुमलत्तैव शोभमानी ॥३५॥ कनक नरेन्द्रस्य सुता संध्यादेव्याः कुक्षिसंभवा । विद्युत्समसदृसवर्णा नाम विद्युत्प्रभा कन्या ॥३६।। एवमेव कन्या बहवो रुपयौवनधराः । मुक्त्वोदकक्रीडां तं वरपुरुषं प्रलोकयन्ति ॥३७॥ १. काऊणं नियइ-प्रत्य० । २. विलंबंतो-प्रत्य० । ३. उदकक्रीडाम्। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ दहमुखपुरिपवेसो-८/२५-५१ अह दहमुहेण ताओ, गन्धव्वहिहीए पवरकन्नाओ । रूव-गुणसालिणीओ, परिणीयाओ सहरिसेणं ॥३८॥ गन्तूण तुरियतुरियं, कञ्चइणा अमरसुन्दरस्स तया । सिटुं च कुमारीणं, वरकल्लाणं जहावत्तं ॥३९॥ कोवि पहु ! एस वीरो, सुन्नं पिव तिहुयणं विचिन्तेन्तो ।अगणियपडिवक्खभओ, कीलइ कन्नाण मज्झम्मि ॥४०॥ सोऊण वयणमेयं, रुट्ठो सुरसुन्दरो महाराया । रहचक्कवालसामी, सन्नद्धो कणयवुहसहिओ॥४१॥ अह निग्गओ महप्पा, तस्सुवरिं विविहवाहणसमग्गो । अम्बरतलेण वच्चइ, आउहकिरणेसु दिप्पन्तो ॥४२॥ अम्बरतलेण एन्तं, दट्ठण बलं भणन्ति कन्नाओ । दहमुह ! लहुं पलायसु, रक्खसु अहदुल्लहे पाणे ॥४३॥ सोऊण वयणमेयं, दट्ठण य परबलं समासन्ने । अह जंपइ दहवयणो, गव्वियहसियं च काऊण ॥४४॥ गरुडस्स किं व कीरइ, बहुएसु वि वायसेसु मिलिएसु ? । मयगन्धमुव्वहन्ते, किं न हणइ केसरी हत्थी ? ॥४५॥ नाऊण तस्स चित्तं, जइ एवं नाह मन्नसे गरुयं । तो अम्ह रक्खसु पहू ! नियए पिइ-भाइसंबंन्धे ॥४६॥ भणिऊण वयणमेयं, उप्पइओ नहयलं विमाणत्थो । अह ताण सवडहुत्तो, रणरसतण्हालुओ सहसा ॥४७॥ ताव य बलं समत्थं, सन्दण-वरगय-तुरङ्ग-पाइक्कं । उछरिऊण पवत्तं, दहवयणं समरमज्झम्मि ॥४८॥ मुञ्चन्ति सत्थवरिसं, तस्सुवरि खेयरा सुमच्छरिया । पव्वयवरस्स नज्जइ, धारानिवहं पओवाहा ॥४९॥ वारेऊण समत्थो, आउहनिवहं दसाणणो समरे । तो मुयइ तामसत्थ, कज्जलघणकसिणसच्छायं ॥५०॥ काऊण नट्ठचेटे, विज्जाहरपत्थिवे बलसमग्गे । जमदण्डसच्छहेहिं, अह बन्धइ नागपासेहिं ॥५१॥ अथ दशमुखेन ता गन्धर्वविधिना प्रवरकन्याः । रुपगुणशालिन्यः परिणीताः सहर्षेण ॥३८॥ गत्वा त्वरितं त्वरितं कञ्चुकीनाऽमरसुन्दरस्य तदा। शिष्टं च कुमारीणां वरकल्याणं यथावृत्तम् ॥३९॥ कोऽपि प्रभो ! एष वीर शुन्यमिव त्रिभुवनं विचिन्तयन् । अगणितप्रतिपक्षभयः क्रीडति कन्यानां मध्ये ॥४०॥ श्रुत्वा वचनमेतद्रुष्ठः सुरसुन्दरो महाराजा । रथचक्रवालस्वामी सन्नद्धः कनकव्युहसहितः ॥४१॥ अथ निर्गतो महात्मा तस्योपरि विविधवाहनसमग्रः। अम्बरतलेन गच्छत्यायधकिरणे दिप्यन ॥४२॥ अम्बरतलेनायान्तं दृष्ट्वा बलं भणन्ति कन्याः । दशमुख ! लघु पलाय रक्षातिदुर्लभान् प्राणान् ॥४३॥ श्रुत्वा वचनमेतद् दृष्ट्वा च परबलं समासन्ने । अथ जल्पति दशवदनो गर्वित हसितं च कृत्वा ॥४४॥ गरुडस्य किं वा करोति बहुष्वपि वायसेषु मिलितेषु । मदगन्धमुद्रवहमानान् किं न हन्ति केसरी हस्तिनः ॥४५॥ ज्ञात्वा तस्य चित्तं यद्येवं नाथ मन्यसे गुरुकम् । तदाऽस्माकं रक्ष प्रभो ! निजकान् पितृ-भ्रातृ सम्बन्धान् ॥४६॥ भणित्वा वचनमेतदुत्पतितो नभस्तलं विमानस्थः । अथ तेषामभिमुखो रणरसतृष्णालुः सहसा ॥४७॥ तावच्च बलं समस्तं स्यन्दनवरगजतुरगपादातिम् । उच्छल्य प्रवृत्तं दशवदनं समरमध्ये ॥४८॥ मुञ्चन्ति शस्त्रवर्षं तस्योपरि खेचराः सुमत्सराः । पर्वतवरस्य ज्ञायते धारानिवहं पयोवाहाः ॥४९॥ वारयितुं समर्थ आयुधनिवहं दशाननः समरे । तदा मुञ्चति तामसास्त्रं कज्जलघनकृष्णसच्छायम् ॥५०॥ कृत्वा नष्टचेष्टान् विद्याधरपार्थिवान् बलसमग्रान् । यमदण्डसमानैरथ बध्नाति नागपाशैः ॥५१॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पउमचरियं वयणेण नववहूणं, मुक्का विज्जाहरा सपरिवारा । पुणरवि करेन्ति तुट्ठा, कल्लाणमहसवं परमं ॥५२॥ दिवसेसु तीसे वत्ते, कल्लाणे ताण पवरकन्नाणं । विज्जाहररायाणो, गया य निययाइँ ठाणाइं ॥५३॥ एत्तो नववहुसहिओ, दसाणणो पवरइड्डिसंपन्नो । पत्तो सयंपहपुरं, सयणजणाणन्दिओ मुइओ ॥५४॥ अह कुम्भपुरे राया, नामेण महोदरो त्ति विक्खाओ । तडिमाला तस्स सुया, सुरूवनयणाए उप्पन्ना ॥५५॥ वररूवजोव्वणधरी, रविकिरणविरुद्धपङ्कयदलच्छी । विविहगुणाणुप्पत्ती, सा महिला कुम्भकण्णस्स ॥५६॥ तत्थेव कुम्भनयरे, केण वि सद्दो कओ सिणेहेणं । दद्रुण पवरकन्ने, तेणं चिय कुम्भकण्णो त्ति ॥५७॥ धम्माणुरागरत्तो, सव्वकला-ऽऽगमविसारओ धीरो। अन्नह खलेसु खाई, नीओ च्चिय मूढभावेण ॥५८॥ आहारो वि य सुइओ, सुरहिसुयन्धो मणोज्जनिष्फन्नो । कालम्मि हवइ निद्दा, धम्मासत्तस्स परिसेसं ॥५९॥ परमत्थमजाणन्ता, पुरिसा पावाणुरायबुद्धीया । निरयपहगमणदच्छा, विवरीयत्थे विकप्पेन्ति ॥६०॥ दक्खिणसेढीए ठियं, नयरं जोइप्पभं तहिं राया । वीरो विसुद्धकमलो, नन्दवई गेहिणी तस्स ॥१॥ धूया पडूयसरिसी, पत्ता य पइं बिभीसणकुमारं । जोव्वणगुणाणुरूवं, रइ व्व कामं समल्लीणा ॥६२॥ कालम्मि वच्चमाणे, जाओ मन्दोयरीए वरपुत्तो । रूवेण इन्दसरिसो, तेणं च्चिय इन्दई नामं ॥३॥ एवं कमेण बिइओ, जाओ च्चिय मेहवाहणो पुत्तो । नयणूसवो कुमारो, परिवड्डइ बन्धवाणन्दो ॥६४॥ वचनेन नववधूनां मुक्ता विद्याधरा:सपरिवाराः । पुनरपि कुर्वन्ति तुष्ठाः कल्याणमहोत्सवं परमम् ।।५२।। दिवसैस्त्रिभिर्वृत्ते कल्याणे तासां प्रवरकन्यानाम् । विद्याधरराजानो गताश्च निजकानि स्थानानि ॥५३|| इतो नववधूसहितो दशाननः प्रवरद्धिसंपन्नः । प्राप्तः स्वयंप्रभपुरे स्वजनजनानन्दितो मुदितः ॥५४॥ अथ कुम्भपुरे राजा नाम्ना महोदर इति विख्यातः । तडिन्माला तस्य सुता सुरुपनयनायामुत्पन्ना ॥५५॥ वररुपयौवनधरी रविकिरणविबुद्धपङ्कजदलाक्षी । विविधगुणानामुत्पतिः सा महिला कुम्भकर्णस्य ॥५६॥ तत्रैव कुम्भनगरे केनापि शब्द: कृतः स्नेहेन । दृष्ट्वा प्रवरकर्णौ तेनैव कुम्भकर्ण इति ॥५७।। धर्मानुरागरक्तः सर्वकलाऽऽगमनविशारदो धीरः । अन्यथा खलैः ख्याति नीत एव मूढभावेन ॥५८|| आहारोऽपि च शूचिः सुरभिगन्धो मनोज्ञनिष्पन्नः । काले भवति निंद्रा धर्मासक्तस्य परिशेषम् ॥५९॥ परमार्थमजानन्तः पुरुषाः पापानुरागबुद्धयः । नरकपथगमनदक्षा विपरितार्थे विकल्पयन्ति ॥६०॥ दक्षिणश्रेण्यां स्थितं नगरं ज्योतिष्प्रभं तत्र राजा । वीरो विशुद्धकमलो नन्दवती गृहिणी तस्य ॥६१॥ दुहिता पङ्कजसदृशी प्राप्ता च पति बिभीषणकुमारम् । यौवनगुणानुरुपं रतीव कामं समालीना ॥६२॥ काले गच्छति जातो मन्दोदर्या वरपुत्रः । रुपेणेन्द्रसदृशस्तेनैवेन्द्रजीन्नाम ॥६३।। एवं क्रमेणद्वितीयो जात एव मेघवाहन:पुत्रः । नयनोत्सवः कुमारः परिवर्धते बन्धवानन्दः ॥६४|| १. परमइड्डि-प्रत्य० । २. जणेसु-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुखपुरिपवेसो - ८/५२-७७ एवं सयंपहपुरे, रयणासवनन्दणा कुमारवरा । भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, देवा जह देवलोम्मि ॥६५॥ तू भाणुको, हढेण धणयस्स सन्तियं देसं । आणेड़ गय-तुरङ्गे, महिलारयणाइयं सव्वं ॥ ६६ ॥ नाऊण य वेसमणो, निययं चिय देसपरिहवं रुट्ठो । पेसेइ सुमालिस्स य, वयणालंकारदूयं सो ॥६७॥ गन्तूण पणमिण य, सुमालिणं दहमुहं च दूओ सो । अह साहिउं पयत्तो, जं भणियं सामिसालेण ॥ ६८ ॥ अह जंप वेसमणो, समत्थतेलोक्कपायडपयावो । जह उत्तमोकुलीणो, सुमालि ! नयपण्डिओ सि तुमं ॥ ६९ ॥ एवंविहस्स होडं, न य जुत्तं तुज्झ ववसिउं एयं । नासयसि मज्झ देसं, जेणं चिय कुम्भकण्णेणं ॥ ७० ॥ अहवा किं पम्हु ?, जं सि तया सव्वनिसियरसमक्खं । इन्देण समरमज्झे, वहियं मालिं न संभरसि ? ॥७१॥ सो हु तुम दहुरो इव, इन्दस्स रणे भयं अयाणन्तो । दाढाकण्टयविसमे, कीलसि वयणे भुयङ्गस्स ॥७२॥ मालवण न सन्ती, जाया वि हु तुज्झ अणयकारिस्स । सेसनिययाण वि वहं, कप्पसि नत्थेत्थ संदेहो ॥७३॥ जइ न निवारेसि तुमं, एयं चिय बलयं अबुद्धीयं । दढनियलसंजमियतणू, चारगिहत्थं निवारे हं ॥७४॥ पायालंकापुरं, जं चइऊण ठिओ चिरं कालं । पुणरवि धरणीविवरं, सुमालि ! किं पविसिउं महसि ? ॥ ७५ ॥ रुट्ठे मए निसायर!, इन्दे वा कोहसंगए तुज्झ । न य अत्थि समत्थे वि हु, ताणं सरणं च तेलोक्के ॥७६॥ सोऊण वयणमेयं, आरुट्ठो दहमुहो भणइ 'दूयं । को वेसमणो नाम ?, को वा वि हु भण्णइ इन्दो ? ॥७७॥ १ एवं स्वयंप्रभपुरे रत्नश्रवसो नन्दना: कुमारवराः । भुञ्जन्ति विषय सुखं देवा यथा देवलोके ॥६५॥ गत्वा भानुकर्णो बलाद्धनदस्य सत्कं देशम् । आनयति गजतुरङ्गान् महिलारत्नादिकं सर्वम् ॥६६॥ ज्ञात्वा च वैश्रमणो निजकमेव देशपरिभवं रुष्टः । प्रेषति सुमालेश्च वचनालङ्कारदूतं सः ॥६७॥ गत्वा प्रणम्य च सुमालि दशमुखं च दूतः सः । अथ कथयितुं प्रवृत्तो यद्भणितं स्वामिना ॥६८॥ अथ जल्पति वैश्रमणः समस्तत्रैलोक्यप्रगटप्रतापः । यथोत्तमकुलिनः सुमालि ! नयपण्डितोऽसि त्वम् ॥६९॥ एवंविधस्य भूत्वा न च युक्तं तव व्यवसितुमेतत् । नाशयसि मम देशं येनैव कुम्भकर्णेन ॥७०॥ अथवा किं प्रमृष्टं ? यदसि तदा सर्व निशाचरसमक्षम् । इन्द्रेण समरमध्ये वधितं मालिं न स्मरषि ? ॥७१॥ स खलु त्वं दर्दुर इवेन्द्रस्य रणे भयमजानन् । दंष्ट्राकण्टकविषमे क्रीडति वदने भुजङ्गस्य ॥७२॥ मालिवधेन न शान्ति जाताऽपि खलु तवानयकारिणः । शेषनिजकानामपि वधं कल्पसे नास्त्यत्र संदेहः ॥७३॥ यदि न निवारयषि त्वमेतदेव बालमबुद्धिकम् । दृढनिगडसंयमिततनुश्चारगृहस्थं निवारयाम्यहम् ॥७४॥ पातालालङ्कारपुरं यत् त्यक्त्वा स्थितश्चि कालम् । पुनरपि धरणीविवरं सुमाले ! किं प्रविष्टुमिच्छसि ॥७५॥ रुष्टे मयि निशाचर! इन्द्रे वा क्रोधसंगते तव । न चास्ति समक्षोऽपि खलु त्राणं शरणं च त्रैलोक्ये ॥७६॥ श्रुत्वा वचनमेतदारुष्ठो दशमुखो भणति दूतम् । को वैश्रमणो नाम ? को वापि भण्यत इन्द्रः ? ||७७|| I १. काङ्क्षसि । २. एवं प्रत्य० । For Personal & Private Use Only १०३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पउमचरियं अम्हं परंपराए, कुलागयं भुञ्जसे तुमं नयरं । वेसमम ! मुञ्चसु लहुँ, जइ इच्छसि अत्तणो जीयं ॥७८॥ सो सेणायइ काओ, सीहायइ कोल्हुओ अबुद्धीओ।भिच्चयणबन्धवारी, जो कुणइ मए समं जुज्झं ॥७९॥ रे दूवय ! वयणाई, एव भणन्तस्स उत्तमङ्गं ते । पाडेमि धरणिवटे, असिणा तालप्फलं चेव ॥४०॥ एवं भणिऊण सहसा, आयड्डइ असिवरं परमरुट्ठो । दूयस्स उच्छरन्तो, रुद्धो य बिभीसणभडेणं ॥८१॥ पाययपुरिसेण पहू ! इमेण परवयणपेसणकरेणं । दूएण मारिएण वि, सुहडाण जसो न निव्वडइ ॥८२॥ भिच्चस्स कोऽवराहो, संपइ विक्कीयनिययदेहस्स ? । वाया पवत्तइ पहू ! पिसायगहियस्स व इमस्स ॥८३॥ जाव य बिहीसणेणं, पसमिज्जइ दहमुहो पणामेणं । ताव चलणेहि घेत्तुं, दूओ अन्नेहि निच्छूढो ॥८४॥ हय-विहय-विप्परद्धो, दूओ गन्तूण निययसामिस्स । साहेइ समणुभूयं, जं चिय भणियं दहमुहेणं ॥८५॥ न य वारेइ कणिहूँ, न य सम्म कुणइ जं तुमे भणियं । नवरं चिय पडिवज्जइ, संगामं चेव दहवयणो ॥८६॥ सोऊण दूयवयणं, वेसमणो कोहपसरियामरिसो। भडचडयरेण महया, विणिगगओ समरतण्हालू ॥८७॥ रह-तुरय-गयारूढा, असि-खेडय-कणय-तोमरविहत्था । गुञ्जवरपव्वयं ते, जक्खभडा चेव संपत्ता ॥४८॥ सोऊण आगयं सो, वेसमणं दहमुहो रणपयण्डो । भाणुसवणाइएहिं, भडेहिं सहिओ विणिक्खन्तो ॥८९॥ मत्तगएसु रहेसु य, आरूढा केइ वरतुरङ्गेसु । गुञ्जवरपव्वयं ते, दहमुहसुहडा समणुपत्ता ॥१०॥ अस्मत्परंपरया कुलागतं भुनक्षि त्वं नगरम् । वैश्रमण ! मुञ्च लघु यदीच्छस्यात्मनो जीवम् ।।७८॥ स श्येनायति काकः सिंहायति शृगालोऽबुद्धिकः । भृत्यजनबान्धवारि र्य करोति मम समं युद्धम् ।।७९।। रे दूत ! वचनान्येवं भणत उत्तमाङ्गं तव । पातयामि धरणिपृष्टे ऽसिना तालफलमेव ॥८०॥ एवं भणित्वा सहसाऽऽकृष्टत्यसिवरं परमरुष्ठः । दूतस्योच्छलन् रुद्धश्च बिभीषणभटेन ॥८१॥ प्राकृतपुरुषेण प्रभो ! अमुना परवचनप्रेषणकरेण । दूतेन मारितेनाऽपि सुभटानां यशो न निवर्तते ॥८२॥ भृत्यस्य कोऽपराधः संप्रति विक्रीतनिजदेहस्य ? । वाचा प्रवर्तते प्रभो ! पिशाचगृहीतस्येवैतस्य ॥८३।। यावच्च बिभीषणेन प्रशम्यते दशमुखः प्रणामेन । तावच्चरणै र्गृहीत्वा दुतोऽन्यै निष्काषितः ॥८४॥ हत-विहत-विपीडितो दूतो गत्वा निजस्वामिने । कथयति समनुभूतं यथेव भणितं दशमुखेन ॥८५।। न च वारयति कनिष्ठं न च सम्यक्करोति यत्वया भणितम । केवलमेव प्रतिपद्यते संग्राममेव दशवदनः ।।८६।। श्रुत्वा दूतवचनं वैश्रमणः क्रोधप्रसरितामर्षः । भटसमूहेन महता विनिर्गतः समरतृष्णालुः ॥८७।। रथ-तुरग-गजारूढा असि-खड्ग-कनक-तोमर विहस्ताः । गुञ्जवरपर्वतं ते यक्षभटा एव संप्राप्ताः ॥८८।। श्रुत्वागतं स वैश्रमणं दशमुखो रणप्रचण्ड: । भानुश्रवणादिभि भटैः सहितो विनिष्क्रान्तः ॥८९॥ मत्तगजेसु रथेसु चारुढाः केचिद्वरतुरङ्गेषु । गुञ्जवरपर्वतं ते दशमुखभटाः समनुप्राप्ताः ॥१०॥ १. तए-प्रत्य० । २. गुञ्जइरिपव्वयं-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ दहमुखपुरिपवेसो-८/७८-१०३ दट्टण परबलं ते, जक्खभडा हरिसमुक्कबुक्कारा । उच्छरिऊण पवत्ता, नाणाविहपहरणसमग्गा ॥११॥ उभयबलतूरसद्दो, गयगज्जिय-तुरयहिंसियरवो य । वित्थरिऊणाऽऽढत्तो, कायरपुरिसाण भयजणणो ॥१२॥ अह ढुक्किउं पवत्ता, दोण्णि वि सेन्नेसु हरिसिया सुहडा । सन्नद्धबद्धकवया, सुणिरूवियपहरणा-ऽऽवरणा ॥१३॥ अह ताण समावडियं, जुझं गुञ्जवरपव्वयस्सुवरि । वेसमण-दहमुहाणं, दोण्हं पि उइण्णसेन्नाणं ॥१४॥ सर-झसर-सत्ति-सव्वल-करालकोन्तेसु खिप्पमाणेसु । चक्केसु पट्टिसेसु य, छन्नं गयणङ्गणं सहसा ॥१५॥ रहिया रहिएसु समं, गयमारूढा समं गयत्थेसु । जुज्झन्ति आसवारा, आसवलग्गेसु सह सुहडा ॥१६॥ खग्गेण मोग्गरेण य, चक्केण य केइ अभिमुहावडिया । पहरन्ति एक्कमेक्कं, सामियकज्जुज्जया सुहडा ॥९७। जुज्झन्ताण रणमुहे, चडक्कपहरोवमेसु पहरेसु । तक्खणमेत्तेण कयं, नच्चन्तकबन्धपेच्छणयं ॥१८॥ अह रक्खसाण सेन्नं, चक्कावत्तं व भामियं सहसा । जक्खभडेसु समत्थं, दिलु चिय दहमुहेण रणे ॥१९॥ दढचावगहियहत्थेण, तेण विसिहेसु मुच्चमाणेणं । गरुयपहाराभिहया, जह जक्खभडा कया विमुहा ॥१०॥ न य सो अस्थि रहवरो, जक्खबले गय-तुरङ्ग-पाइक्को । विसिहेसु जो न भिन्नो, दहवयणकरग्गमुक्केसु ॥१०१॥ दट्ठण समरमज्झे, एजन्तं रावणं सवडहुत्तं । तिव्वो बन्धवनेहो,जक्खनरिन्दस्स उप्पन्नो ॥१०२॥ संवेगसमावन्नो, बाहुबली जह महाहवे पुव्वं । चिन्तेऊण पवत्तो, धिरत्थु संसारवासम्मि ॥१०३॥ दृष्ट्वा परबलं ते यक्षभटा हर्षमुक्तगर्जारवाः । उच्छलितुं प्रवृत्ता नानाविधप्रहरणसमग्राः ॥९१॥ उभयबलतूर्यशब्दो गजगर्जिततुरगर्हिसितरवश्च । विस्तरितुमारब्धः कातरपुरुषाणां भयजनकः ॥९२।। अथ ढौकितुं प्रवृत्ता द्वयोरपि सैन्ययो हर्षिताः सुभटाः । सन्नद्धबद्धकवचाः सुनिरुपितप्रहरणाऽऽवरणाः ॥९३॥ अथ तेषां समापतितं युद्धं गुञ्जवरपर्वतस्योपरि । वैश्रमण-दशमुखो द्वयोरप्युदीर्णसैन्ययोः ॥१४॥ शर-झसर-शक्ति-सव्वल-करालकुन्तेषु क्षिप्यमानेषु । चक्रेषु पट्टीसेषु च छनं गगनाङ्गणं सहसा ।।९५।। रथिका रथिकैः समं गजमारुढाः समं गजस्थैः । युध्यन्त्यश्ववारा अश्वलग्नैः सह सुभटाः ॥९६॥ खड्गेन मुद्गरेण च चक्रेण च केचिदभिमुखापतिताः । प्रहरन्त्येकमेकं स्वामिकार्योद्यताः सुभटाः ।।९७।। युध्यतां रणमुखे चडक्कप्रहरोपमैः प्रहरैः । तत्क्षणमात्रेण कृतं नृत्यत्कबन्धप्रेक्षणकम् ॥९८॥ अथ राक्षसाणां सैन्यं चक्रावर्तमिव भ्रामितं सहसा । यक्षभटेषु समस्तं दृष्टमेव दशमुखेन रणे ॥९९।। दृढचापगृहीतहस्तेन तेन विशिखेषु मुच्यमानेन । गुरुकप्रहारभिहता यथा यक्षभटाः कृता विमुखाः ॥१००|| न च सोऽस्ति रथवरो यक्षबले गज-तुरङ्ग-पदाति । विशिखैर्यो न भिन्नो दशमुखकराग्रमुक्तैः ॥१०१॥ दृष्ट्वा समरमध्ये आयान्तं रावणमभिमुखम् । तीव्रो बन्धवस्नेहो यक्षनरेन्द्रस्योत्पन्नः ॥१०२॥ संवेग समापन्नो बाहुबली यथा महाहवे पूर्वम् । चिन्तयितुं प्रवृतो धिगस्तु संसारवासे ॥१०३।। १. गुञ्जयर-प्रत्य०। पउम. भा-१/१४ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ पउमचरियं अइमाणगव्विएणं, विसयविमूढेण एरिसं कज्जं । रइयं बन्धुवहत्थं, अकित्तिकरणं च लोगम्मि ॥१०४॥ भो भो दसाणण ! तुमं, मह वयणं सुणसु ताव एयमणो।मा कुणसु पावकम्मं, कएण खणभङ्गरसिरीए ॥१०५॥ अहयं तुमं च रावण !, पुत्ता एक्कोयराण बहिणीणं । न य बन्धवाण जुज्जइ, संगामो एक्कमेक्काणं ॥१०६॥ काऊण जीवघायं, विसयसुहासाए तिव्वलोहिल्ला । वच्चन्ति पुण्णरहिया, पुरिसा बहुवेयणं नरयं ॥१०७॥ भोत्तूण एगदिवसं, रज्जं संवच्छरं हवइ पावं । दोरस्स कारणटुं, नासन्ति मणी अविनाणा ॥१०८॥ तं मुयसु रागदोसं, निययं दावेहि बन्धवसिणेहं । मा विसयभोगतिसिओ, पहरसु नियएसु अङ्गेसु ॥१०९॥ सोऊण वयणमेयं, दसाणणो भणइ अइबलुम्मत्तो । धम्मसवणस्स कालो, वेसमण ! न होइ संगामे ॥११०॥ खग्गस्स हवसु मग्गे, किं वा बहुएहि भासियव्वेहिं ? ।अहवा कुणसु पणामं, न य सरणं अत्थि तुज्झऽन्नं ॥११॥ भणइ तओ वेसमणो, दसाणणं रणमुहे सवडहुत्तं । आसन्नमरणभावो, वट्टसि एयाइँ जंपन्तो ॥११२॥ बनधवनेहेण मए, निवारिओ जं सि महुरवयणेहिं । तं मुणसि अतीगाढं, भीओ जक्खाहिवो मज्झं ॥११३॥ तइ ताव बलसमुत्थं, अत्थि तुमं कढिणदप्पमाहप्पं । ता पहरसु पढमयरं, दहमुह ! मा णे चिरावेहि ॥११४॥ अह भणइ रक्खसिन्दो, संगामे पढमरिउभडस्सुवरिं । सव्वाउहकयसङ्गा, एत्तिय न वहन्ति मे हत्था ॥११५॥ रुट्ठो जक्खाहिवई, तस्सुवरिं वरिसिओ सगसएहिं । किरणपसरन्तनिवहो, नज्जइ मज्झट्ठिओ सूरो ॥११६॥ वेसमणकरविमुक्कं, सरनिवहं अद्धचन्दबाणेहिं । छिन्देऊण दहमुहो, गयणे सरमण्डवं कुणइ ॥११७॥ अतिमानगर्वितेन विषयविमूढेनेदृशं कार्यम् । रचितं बन्धुवधार्थमकीर्तिकारणं च लोके ॥१०४॥ भो भो दशानन ! त्वं मम वचनं श्रुणु तावदेकाग्रमनाः । मा कुरु पापकर्म कृतेन क्षणभङ्गश्रियाः ॥१०५।। अहं त्वं च रावण ! पुत्रा एकोदरयो भगिन्योः । न च बान्धवानां युज्यते संग्राम एकमेकस्य ॥१०६।। कृत्वा जीवघातं विषयसुखाशायास्तीव्रलोभाः । गच्छन्ति पुण्यरहिताः पुरुषा बहुवेदनं नरकम् ॥१०७॥ भुक्त्वैकदिवसं राज्यं संवत्सरं भवति पापम् । दवरकस्य कारणार्थं नाशयन्ति मणीमविज्ञानाः ॥१०८।। तं मुंच रागदोषं नित्यं ददस्व बन्धवस्नेहम् । मा विषयभोगतृषितः प्रहर निजेष्वङ्गेषु ॥१०९।। श्रुत्वा वचनमेतद्दशाननो भणत्यतिबलोन्मत्तः । धर्मश्रवणस्य कालो वैश्रमण ! न भवति संग्रामे ॥११०॥ खड्गस्य भव मार्गे किं वा बहुभि भाषितव्यैः । अथवा कुरु प्रणामं न च शरणमस्ति तवान्यत् ॥१११॥ भणति ततो वैश्रमणो दशाननं रणमुखे अभिमुखः । आसन्नमरणभावो वतस इदानीं जल्पन् ॥११२॥ बान्धवस्नेहेन मया निवारितो यदसि मधुरवचनैः । तं ज्ञानास्यतिगाढं भीतो यक्षाधिपो मतः ॥११३।। यदि तावबलसमुत्थमस्ति तव कठिनदर्पमाहात्म्यम् । तदा प्रहर प्रथमतरं दशमुख ! मा चिरायताम् ॥११४|| अथ भणति राक्षसेन्द्रः संग्रामे प्रथमरिपुभटस्योपरि। सर्वायुधकृतसङ्गौ एतावन्तौ न वहतो मम हस्तौ ॥११५।। रुष्टो यक्षाधिपतिस्तस्योपरि वर्षितः शरशतैः । किरणप्रसरन्निवहो ज्ञायते मध्यस्थितः सूर्यः ॥११६।। वैश्रमणकरविमुक्तं शरनिवहमर्धचन्द्रबाणैः । छित्वा दशमुखो गगने शरमण्डपं करोति ॥११७।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ दहमुखपुरिपवेसो-८/१०४-१३० आयण्णपूरिएहिं, सुणिसियबाणेहि धणुविमुक्केहि । चावं दुहा विरिक्कं, रहो य संचुण्णिओ नवरं ॥११८॥ अन्नं रहं विलग्गो, चावं घेत्तूण सरवरसएहिं । उक्कत्तइ दहवयणो, कवयं धणयस्स देहत्थं ॥११९॥ अह रावणेण समरे, जमदण्डसमेण भिण्डिमालेण । वच्छत्थलम्मि पहओ धणओ मुच्छं समणुपत्तो ॥१२०॥ दट्ठण तं विसन्नं, जक्खबले कलुणकन्दियपलावो । उप्पन्नो च्चिय सहसा, परितोसो रक्खसभडाणं ॥१२१॥ ताव य भिच्चेहि रणे, वेसमणो गेण्हिऊण हक्खुत्तो । सपुरिससेज्जारूढो, जक्खपुरं पाविओ सिग्धं ॥१२२॥ दहवयणो वि य समरे, भग्गं नाऊण जक्खसामन्तं । जयसद्दतूरकलयलरवेण अहिणन्दिओ सहसा ॥१२३॥ धणओ विजक्खराया.कयपरिकम्मो तिगिच्छएस पणो। ___ठविओ सब्भावरूवो, बल-विरियसमुज्जलसिरीओ ॥१२४॥ चिन्तेइ तो मणेणं, हा ! कटुं विसयरागमूढेणं । बहुवेयणावगाढं, दुक्खं चिय एरिसं पत्तं ॥१२५॥ कल्लाणबन्धवो मे, दसाणणो जेण रणमुहनिहेण । बद्धो वि मोइओ हं, सिग्धं गिहवासपासेसु ॥१२६॥ मुणियपरमत्थसारो, पव्वज्जं गेण्हिऊण वेसमणो । आराहियतवनियमो, पत्तो अयरामरं ठाणं ॥१२७॥ अह तस्स तं विचित्तं, उवणीयं धणयसन्तियं दिव्वं । मणिरयणपज्जलन्तं, पुष्फविमाणं मणभिरामं ॥१२८॥ वरमन्ति-सुय-पुरोहिय-बन्धवजणविविहपरियणाइण्णो । आरुहइ वरविमाणं, दसाणणो रिद्धिसंपन्नो ॥१२९॥ वरहार-कडय-कुण्डल-मउडालंकारभूसियसरीरो । ऊसियसियायवत्तो, चामरधुव्वन्तधयमालो ॥१३०॥ आकर्णपूरितैः सुनिशितबाणै र्धनुर्विमुक्तैः । चापं द्विधा विभक्तं रथश्च संचूर्णितो नवरम् ॥११८।। अन्यं रथं विलग्नश्चापं गृहीत्वा शरवरशतैः । उत्कर्त्यति दशवदनः कवचं धनदस्य देहस्थम् ॥११९॥ अथ रावणेन समरे यमदण्डसमेन भिन्दिमालेन । वक्षः स्थले प्रहतो धनदो मूर्छा समनुप्राप्तः ॥१२०|| दृष्ट्वा तं विषण्णं यक्षबले करुणकन्दितप्रलापः । उत्पन्न एव सहसा परितोषो राक्षसभटानाम् ॥१२१।। तावच्च भृत्यै रणे वैश्रमणो गृहीत्वोत्क्षिप्तः । सपुरुषशय्यारुढो यक्षपुरं प्रापितः शीघ्रम् ॥१२२॥ दशवदनोऽपि च समरे भग्नं ज्ञात्वा यक्षसामन्तम् । जयशब्दतूर्यकलकलरवेणाभिनन्दितः सहसा ॥१२३॥ धनदोऽपि यक्षराजा कृतपरिकर्मा चिकित्सकैः पुनः । स्थापितः स्वभावरुपो बल-वीर्य समुज्वलश्रियः ॥१२४।। चिन्तयति तदा मनसा हा ! कष्टं विषयरागमूढेन । बहुवेदनावगाढं दुःखमेवेदृशं प्राप्तम् ॥१२५।। कल्याणबन्धु मम दशाननो येन रणमुखनिभेन । बद्धोऽपि मोचितोऽहं शीघ्रं गृहवासपाशैः ॥१२६॥ मुणितपरमार्थसारः प्रवज्यां गृहीत्वा वैश्रमणः । आराधिततपोनियमः प्राप्तोऽजरामरं स्थानम् ॥१२७।। अथ तस्य तद्विचित्रमुपनीतं धनदसत्कं दिव्यम् । मणिरत्नप्रज्वलन्तं पुष्पकविमानं मनोभिरामम् ॥१२८॥ वरमन्त्रिसुतपुरोहितबन्धुजनविविधपरिजनाकीर्णः । आरोहति वरविमानं दशाननो ऋद्धिसंपन्नः ॥१२९।। वरहार-कटककुण्डलमुकुटालङ्कारभूषितशरीरः । उच्छ्रितश्वेतातपत्र श्चामरधुन्वद्ध्वजमालः ॥१३०।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पउमचरियं नामेण कुम्भयण्णो, सहोयरो तस्स गयवरारूढो । बीओ वि रहवरत्थो, बिभीसणो पङ्कयदलच्छो ॥१३१॥ सीहो सरहो य तहा, मारीई गयणविज्जुनामो य । वज्जो य वज्जमज्झो, वज्जक्खो चेव होइ बुहो ॥१३२॥ सुय सारणो सुनयणो, मओ य तह एवमाइया बहवे । विज्जाहरसामन्ता, सविभवपरिवारिया मिलिया ॥१३३॥ सो एरिसबलसहिओ, उप्पइओ उययसामलं गयणं । वच्चइ य दाहिणदिसं, लङ्कानयरीसवडहुत्तो ॥१३४॥ अह पेच्छिऊण पुहई आरामुज्जाण-काणणसमिद्धं । पुच्छइ दसाणणो चिय, विणयं काऊण य सुमालिं ॥१३५॥ दीसन्ति पव्वओवरि, सरियाकूलेसु गाम-नयरेसु । पडिया सङ्खदलनिभा, मेहा इव सरयकालम्मि ॥१३६॥ सिद्धे नमंसिऊणं, भणइ सुमाली दसाणणं सुणसु । वच्छय ! न होन्ति एए, पडिमा मेहा धरणिवढे ॥१३७॥ धवलब्भसंन्निगासा, विरड्यपायार-गोउराडोवा । दीसन्ति पुत्त ! एए, जिणालया रयणविच्छुरिया ॥१३८॥ दसमो भरहाहिवई, हरिसेणो नाम आसि चक्कहरो । तेण इमे पुहइयले, जिणालया कारिया बहवे ॥१३९॥ एयाण नमोक्कारं, करेहि दहमुह ! विसुद्धभावेणं । कलिकलुसपावरहिओ, होहिसि नत्थेत्थ संदेहो ॥१४०॥ नमिऊण चेइयहरे, पुच्छइ हरिसेणसन्तियं चरियं । केण निमित्तेण पहू ! कया इमे जिणवराययणा ? ॥१४१॥ सत्थ-ऽत्थ-नयविहिन्न, भणइ सुमाली मणोहरगिराए । दहमुह ! एगग्गमणो, सुणेहि जह जिणहरुप्पत्ती ॥१४२॥ हरिषेणचक्रिचरितम् :अत्थि भरहद्धवासे, कम्पिल्लपुरे मणोभिरमणिज्जे । सीहद्धओ त्ति नामं, राया बहुपणयसामन्तो ॥१४३॥ नाम्ना कुम्भकर्णः सहोदरस्तस्य गजवरारुढः । द्वितीयोऽपि रथवरस्थो बिभीषणः पङ्कजदलाक्षः ॥१३१॥ सिंह: शरभश्च तथा मारीची गगनविद्युन्नाम च । वज्रश्च वज्रमध्यो वज्रयक्ष एव भवति बुधः ॥१३२।। शुक: सारणः सुनयनो मयश्च तथैवमादिका बहवः । विद्याधरसामन्तः स्वविभवपरिवारिता मिलिताः ।।१३३।। स एतादृशबलसहितो उत्पतित उदकश्यामलं गगनम् । गच्छति च दक्षिणदिशां लङ्कानगर्याभिमुखः ॥१३४॥ अथ दृष्ट्वा पृथिवीमारामुद्यानकाननसमृद्धम् । पृच्छति दशानन एव विनयं कृत्वा च सुमालिम् ॥१३५।। दृश्यन्ते पर्वतोपरि सरिताकुलेषु गामनगरेषु । पतिताः शङ्खदलनिभा मेघा इव शरदकाले ॥१३६।। सिद्धान्नत्वा भणति सुमाली दशानन श्रुणु । वत्स ! न भवन्त्येते पतिता मेघा धरणीपट्टे ॥१३७॥ धवलगर्भसन्निकर्षा विरचितप्राकारगोपूराटोपाः । दृश्यन्ते पुत्र ! एते जिनालया रत्नविच्छूरिताः ॥१३८।। दशमो भरताधिपति हरिषेणो नामासीच्चक्रधरः । तेनेमा पृथिवीतले जिनालयाः कारिता बहवः ॥१३९॥ एतान्नमस्कारं कुरु दशमुख ! विशुद्धभावेन । कलिकालुष्यपापरहितो भविष्यसि नास्त्यत्र संदेहः ॥१४०।। नत्वा चैत्यगृहान् पृच्छति हरिषेण सत्कं चरितम् । केन निमित्तेन प्रभो ! कृता इमे जिनवरायतनाः ? ॥१४१।। शास्त्रार्थनयविधिज्ञो भणति सुमाली मनोहरगिरा । दशमुख ! एकाग्रमनाः श्रुणु यथा जिनगृहोत्पत्तिः ॥१४२॥ हरिषेणचक्रीचरितम् - अस्ति भरतार्धवर्षे काम्पिल्यपूरे मनोऽभिरमणीये । सिंहध्वज इति नाम राजा बहुप्रणतसामन्तः ॥१४३।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ दहमुखपुरिपवेसो-८/१३१-१५५ तस्साऽऽसि महादेवी, वप्पा नामेण रूवगुणकलिया । तीए सुओ कुमारो, हरिसेणो लक्खणोवेओ ॥१४४॥ अह अन्नया कयाई, वप्पाए जिणरहो रयणचित्तो । काराविओ य नयरे, चेइहरे धम्मसीलाए ॥१४५॥ अन्ना वि तस्स महिला, लच्छी नामेण रूवसंपन्ना । मिच्छत्तमोहियमई, पडिणीया जिणवरमयम्मि ॥१४६॥ साभणइ एस पढमो, बम्भरहो भमउ नयरमज्झम्मि। अट्ठाहियमहिमाए, परिहिण्डउ जिणरहो पच्छा ॥१४७॥ सुणिऊण वयणमेयं, वज्जेण व ताडिया सिरे वप्पा । अह सा कुणइ पइन्नं, दुक्खमहासोगसंतत्ता ॥१४८॥ जइ पढमजिणरहो वि हु, भमिही नये सुसङ्घपरिकिण्णो । ता होही आहारो, नियमा पुण अणसणं मज्झ ॥१४९॥ कमलदलसरिसनयणं,रोवन्ती पेच्छिऊण हरिसेणो।पुच्छइ ससंभमहियओ,अम्मो !किं रुयसि दुक्खत्ता?॥१५०॥ जिणवररहाइभमणं, परिकहियं तस्स एव जणणीए । चिन्तेऊण पवत्तो, सोगमहासंकडे पडिओ ॥१५१॥ माया पिया य दोण्णि वि, लोगम्मि महागुरू इमे भणिया। न य ताण जणविरुद्धं, करेमि पीडा सुथेवं पि ॥१५२॥ न य दद्वृण समत्थो, जणणी बहुदुक्ख-सोगसंतत्ता । मोत्तूण निययभवणं, रण्णं पविसामि जणरहियं ॥१५३॥ अह निग्गओ पुराओ, रयणीए जणपसुत्तसमयम्मि । पविसरड़ महारण्णं, घणतरुवर-सावयाइण्णं ॥१५४॥ तत्थ परिहिण्डमाणो, दिट्ठो च्चिय तावसेहि हरिसेणो । दिन्नासणोवविट्ठो, फल-मूलाई कयाहारो ॥१५५॥ तस्यासीन्महादेवी वप्रा नाम्ना रुपगुणकलिता । तस्यां सुतः कुमारो हरिषेणो लक्षणोपेतः ॥१४४॥ अथान्यदा कदाचिद्वप्रया जिनरथो रत्नचित्रः । कारितश्च नगरे चैत्यगृहे धर्मशीलया ॥१४५॥ अन्याऽपि तस्य महिला लक्ष्मी नाम्ना रुपसंपन्ना । मिथ्यात्वमोहितमतिः प्रत्यनिका जिनवरमते ॥१४६।। सा भणत्येष प्रथमो बह्मरथो भ्रमतु नगरमध्ये । अष्टाह्निकामहिम्ना परिहिण्डतु जिनरथः पश्चात् ॥१४७॥ श्रुत्वा वचनमेतद्वजेणेव ताडिता शिरे वप्रा । अथ सा करोति प्रतिज्ञां दुःखमहाशोकसंतप्ता ॥१४८।। यदि प्रथमजिनरथोऽपि खलु भ्रमिष्यति नगरे सुरसङ्घपरिकीर्णः । तदा भविष्यत्याहारो नियमा पुनरनशनं मम ॥१४९॥ कमलदलसदृशनयनां रुदन्तीं दृष्ट्वा हरिषेणः । पृच्छति ससंभ्रममहृदयो मात ! कथं रोदिसि दुःखार्ता ? ॥१५०॥ जिनवररथादिभ्रमणं परिकथितं तस्यैव जनन्या । चिन्तयितुं प्रवृत्तः शोकमहासंकटे पतितः ॥१५१॥ माता पिता च द्वावपि लोके महागुरू इमौ भणितौ। न च तयो जनविरुद्धं करेमि पीडां सुस्तोकामपि ॥१५२॥ न च दृष्टुं समर्थो जननीं बहुदुःखशोकसंतप्ताम् । त्यक्त्वा निजभवनमरण्यं प्रविशामि जनरहितम् ॥१५३॥ अथ निर्गतः पुराद्रजन्यां जनप्रसुप्तसमये । प्रविशति महारण्यं धनतरुवरश्वापकाकीर्णम् ॥१५४|| तत्र परिहिण्डमानो दृष्ट एव तापसैर्हरिषेणः । दत्तासनोपविष्ठः फलमूलादेः कृताहारः ॥१५५॥ १. नंदीसरमहिमाए-मु० । २. जणणि बहुदुक्खसोगसंतत्तं-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पउमचरियं चम्पापुरीए राया, तइया जणमेजओ पहियकित्ती । कालनरिन्देण सो, रुद्धो च्चिय साहणसमग्गो ॥१५६॥ जणमेजओ वि राया, नयराओ निग्गओ बलसमिद्धो । अह जुज्झिउं पवत्तो, कालेण समं सवडहुत्तो ॥१५७॥ जाव य वट्टइ जुझं, ताव सुरुङ्गाए पुव्वरड्याए । भज्जा से नागवई, दुहियाए समं गया रण्णं ॥१५८॥ तं चिय तावसनिलयं, क्गगवई पुव्वमेव संपत्ता । चिटुइ दुहियाए समं, कालक्खेवं विहारन्ती ॥१५९॥ दट्ठण य हरिसेणं, कन्ना सा ललियजोव्वणापुण्णा । पुलयन्ती न य तिप्पइ, विद्धा कसुमाउहसरेहिं ॥१६०॥ जणणीए सा कुमारी, भणिया संभरसु पुव्ववयणाई । चक्कहरस्स वरतणू, होहिसि महिला तुमं बाले ! ॥१६१॥ तं पेच्छिऊण सो वि हु, हरिसेणो मयणबाणभिन्नङ्गो । चिन्तेइ इमा मुद्धा, होही य कया महं धरिणी ? ॥१६२॥ नेहाणुरागरत्तं, कन्नं नाऊण तावसगणेहिं । निद्धाडिओ कुमारो, हरिसेणो आसमपयाओ ॥१६३॥ हरिसेणो वि हु तीए, कन्नाए रूव-जोव्वण- गुणोहं । सरमाणो च्चिय निर्दे, न लहइ रतिंदियं चेव ॥१६४॥ न य आसणे न सयणे, न य गामे न य पुरे मणभिरामे । न य उज्जाणवरहरे, लहइ धिइं तीए विरहम्मि ॥१६५॥ एवं विचिन्तयन्तो हरिसेणो जइ लभामि तं कन्नं । तो सयलभरहवासं, भुत्तं चिय नत्थि संदेहो ॥१६६॥ गामेसु पट्टणेसु य, सरियाकूलेसु पव्वयग्गेसु । जिणवरघराइँ तो हं, सिग्धं चिय कारइस्सामि ॥१६७॥ तच्चित्त तग्गयमणो, गामाऽऽगर-नगरमण्डियं वसुहं । परिहिण्डन्तो कमसो, सिन्धुणदं पाविओ नयरं ॥१६८॥ चम्पापूर्या राजा तदा जनमेजयः प्रथितकीर्तिः । कालनरेन्द्रेण स रुद्ध एव साधनसमग्रः ॥१५६।। जनमेजयोऽपि राजा नगरानिर्गतो बलसमृद्धः । अथ योद्धं प्रवृत्तः कालेन सममभिमुखः ॥१५७।। यावच्च वर्तते युद्धं तावत्सुरङ्गया पूर्वरचितया । भार्या तस्य नागवती दुहित्रा समं गतारण्यम् ॥१५८।। तदेव तापसनिलयं नागवती पूर्वमेव संप्राप्ता । तिष्ठति दुहितायाः समं कालक्षेपं विधारयन्ती ॥१५९।। दृष्ट्वा च हरिषेण कन्या सा ललितयौवनपूर्णा । पुलकयन्ती न च तृप्यति विद्धा कुसुमायुधशरैः ॥१६०॥ जनन्या सा कुमारी भणिता स्मर पूर्ववचनानि । चक्रधरस्य वरतनू भविष्यषि महिला त्वं बाले ! ॥१६१॥ तां दृष्ट्वा सोऽपि खलु हरिषेण मदनबाणभिन्नाङ्गः । चिन्तयतीमा मुग्धा भविष्यति च कदा मम गृहिणी ? ॥१६२।। स्नेहानुरागरक्तां कन्यां ज्ञात्वा तापसगणैः । निष्काषितः कुमारो हरिषेण आश्रमपदात् ॥१६३॥ हरिषेणोऽपि खलु तस्याः कन्यायाः रुप-यौवन-गुणौधम् । स्मर्यमाण एव निद्रां न लभते रात्रिंदिवा एव ॥१६४|| न चासने न शयने न च ग्रामे न च पुरे मनोभिरामे । न चोद्याने वरगृहे लभते धृति तस्या विरहे ॥१६५।। एवं विचिन्तयन्हरिषेणो यदि लभे तां कन्याम् । तदा सकलभरतवर्षं भुक्तमेव नास्ति संदेहः ॥१६६।। ग्रामेषु पट्टनेषु च सरित्कुलेषु पर्वताग्रेषु । जिनवरगृहाणि तदाहं शीघ्रमेव कारयिष्यामि ॥१६७।। तच्चित्तस्तद्गतमनाः, ग्रामाऽऽकरनगरमण्डितां वसुधाम् । परिभ्रमन्क्रमशः सिन्धुनदं प्राप्तो नगरम् ॥१६८।। १. कया य मह-प्रत्य० । २. गुणेहिं-मु० । ३. ऽऽगरविविहमंडियं-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुखपुरिपवेसो-८/१५६-१८१ १११ तइया उ निग्गयाओ, उज्जाणव रम्मि नयरजुवईओ । पेच्छन्ति वरकुमारं, हरिसेणं अणिमिसच्छीओ ॥१६९॥ ताव य गओ वि रुट्ठो, पहाविओ अभिमुहो वरतणूणं । पगलन्तदाणसलिलो, सललियघोलन्तभमरउलो ॥१७०॥ दट्टण य तं एन्तं, मत्तमहागयवरं गुलुगुलेन्तं । भयविहलविम्भलाओ, पलयन्तिऽह सयलजुवईओ ॥१७१॥ दट्टण य हरिसेणो, जुवइजणं गयभएण विलवन्तं । कलुणहियओ महप्पा, तस्स सयासं समल्लीणो ॥१७२॥ नाऊण गयं खुहियं, नयरजणो धाविओ दवदवद्गए । अह पेच्छिउं पवत्तो, राया वि हु भवणसिहरत्थो॥१७३॥ तो भणइ कुञ्जरवरं, किं ते जुवईसु तुज्झ अवरद्धं ? । ए ! एहि सवडहुत्तो, मज्झ तुमं मा चिरावेहि ॥१७४॥ मोत्तूण जुवइवग्गं,हत्थी चलचवलगमणपरिहत्थो । अह तस्स सवडहुत्तो, पहाविओ आयरुप्पिच्छो ॥१७५॥ परियरदढोवगूढो, हरिसेणो विज्जुविलसिएण तओ । दन्ते दाऊण पयं, चडिओ हंसो व्व लीलाए ॥१७॥ मण-नयणमोहणेहिं, बहुविहकरणेहि सत्थदिठेहिं । चलचलणपीणपेलण-करयलअप्फालणेहिं च ॥१७७॥ बलदप्पभग्गपसरं, काऊण खलन्तसिढिलपयगमणं । गेण्हइ गयं महप्पा, नागं पिव निव्विसं काउं॥१७८॥ कण्णे घेत्तूण तओ, आरूढो गयवरं अतिमहन्तं । भणइ य सुहोवएसं, जह पुण एयं न कारेसि ॥१७९॥ अह पुरवरं पविट्ठो, नर-नारिसएस तत्थ दीसन्तो । पत्तो नरिन्दभवणं, कसमाउहरूवसंठाणो ॥१८०॥ पासायतलत्थो चिय, राया दट्टण गयवरारूढं । चिन्तेइ कोवि एसो, उत्तमपुरिसो न संदेहो ॥१८१॥ तदा तु निर्गता उद्यानवरे नगरयुवतयः । पश्यन्ति वरकुमारं हरिषेणमनिमिषाक्ष्यः ॥१६९॥ तावच्च गजोऽपि रुष्टः प्रधावितोऽभिमुखो वरतनूनाम् । प्रगलद्दानसलिलः सललितधुर्णभ्रमरकुलः ॥१७०॥ दृष्ट्वा च तमायान्तं मत्तमहागजवरं गुलगुलन्तम् । भयविकलविह्वलाः पलायन्त्यथ सकलयुवतयः ॥१७१।। दृष्ट्वा च हरिषेणो युवतिजनं गजभयेन विलपन्तम् । करुणहृदयो महात्मा तस्य सकाशं समालीनः ॥१७२।। ज्ञात्वा गजं क्षुब्धं नगरजनो धावितो द्रुतं-द्रुतम् । अथ दृष्ट्वा प्रवृतो राजाऽपि खलु भवनशिखरस्थः ॥१७३।। तदा भणति कुञ्जरवरं किं ते युवतिभिस्तवापराद्धम् । ए ! एहि अभिमुखो मम त्वं मा चिरायताम् ॥१७४। त्यक्त्वा युवतिवर्गं हस्ती चलचपलगमनदक्षः । अथ तस्याभिमुखः प्रघावित आकारोत्प्रेक्ष्यः ॥१७५॥ परिकरदृढोपगुढो हरिषेणो विद्युद्विलसितेन तदा । दन्ते दत्वा पादमारुढो हंस इव लीलया ॥१७६।। मनो-नयनमोहनै र्बहुविधकरणैः शास्त्रदृष्टैः । चलचरणपीनप्रेरणकरतलास्फालनैश्च ॥१७७|| बलदर्पभग्नप्रसरं कृत्वा स्खलच्छिथिलपदगमनम् । गृह्णाति गजं महात्मा नागमिव निर्विषं कृत्वा ।१७८।। कर्णे गृहीत्वा तत आरुढो गजवरमतिमहान्तम् । भणति च शुभोपदेशं यथा पुनरेतन्न करिष्यसि ॥१७९॥ अथ पुरवरं प्रविष्टो नर-नारीशतैस्तत्र दर्शयन् । प्राप्तो नरेन्द्रभवनं कुसुमायुधरुपसंस्थानः ॥१८०॥ प्रासादतलस्थ एव राजा दृष्ट्वा गजवरारूढम् । चिन्तयति कोऽप्ये उत्तमपुरुषो न संदेहः ॥१८१।। १. वणम्मि-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ 1 तो नरवइणा दिन्नं, सयमेगं तस्स वरकुमारीणं । वीवाहमङ्गलं सो, कुणइ पहिट्ठो महिड्डीओ ॥१८२॥ तेहि समं विसयसुहं, भुञ्जन्तो सुरवरो व्व सुरलोए । तत्थऽच्छइ हरिसेणो, तह वि य मयणावली सरइ ॥१८३॥ अह तत्थ रयणिसमए, सयणिज्जे महरिहे सुहपसुत्तो । हरिओ वेगवईए, विज्जाहरवरजुवाणीए ॥१८४॥ निद्दाखयम्मि दिट्ठा, महिला तो बन्धिऊण घणमुट्ठि । आयामिय सो पुच्छइ, किं व निमित्तं मए हरसि ? ॥१८५॥ सा भणइ सुणसु नरवर !, नयरं सूरोदयं ति नामेणं । विज्जाहरांण राया, इन्दधणू तत्थ परिवस ॥१८६॥ भज्जा से सिरिकन्ता, जयचन्दा तीए कुच्छिसंभूया । सा पुरिसवेसिणी पहु ! अवमन्नइ पिउ' मयं निच्चं ॥१८७॥ जो जो पडम्मि लिहिओ, तीए मए दरिसिओ नरवरिन्दो । सयलम्मि भरहवासे, न कोइ मणवल्लहो जाओ ॥ १८८ ॥ अह तुज्झ निययरूवं, पडए लिहिऊण दरिसियं तीए । मयणसरपूरियङ्गी, सहसा आयल्लयं पत्ता ॥ १८९॥ एएण सह विसिट्ठे, जड़ न य भुञ्जामि कामभोगे हं । मरणिज्जं होहि सही, नियमो पुण अन्नपुरिसस्स ॥ १९०॥ ती पुरओ पइण्णा, आरुहिया दुक्करा मए सामि ! । जइ तं नाऽऽणेमि लहुं, तो जलणसिहं पविस्से हं ॥१९१॥ तुज्झ पसाएण पहू !, करेमि जीयस्स पालणं एहि । पूरेमि च्चिय सहसा, महापइन्ना अविग्घेणं ॥ १९२॥ सूरोदयम्म नगरे, नेऊण निवेइओ नरिन्दस्स । वत्तं पाणिग्गहणं, कन्नाए समं कुमारस्स ॥१९३॥ संपुण्णवरपइन्ना, वेगवई पूइया य विहवेणं । उण्णयमाणा य पुणो, जाया जसभाइणी लोए ॥१९४॥ मेहुणदुवे, रुट्ठा सोऊण तीए कल्लाणं । विज्जाहराऽइचण्डा, गङ्गाहर-महिहरा नामं ॥ १९५॥ तदा नरपतिना दत्तं शतमेकं तस्य वरकुमारीणाम् । विवाहमङ्गलं स करोति प्रहृष्टो महद्धिकः ॥१८२॥ ताभिः समं विषयसुखं भुञ्जन् सुरवर इव सुरलोके । तत्र वसति हरिषेणस्तथापि च मदनावलीं स्मरति ॥१८३॥ अथ तत्र रजनी समये शयनीये महार्हे सुखप्रसुप्तः । हृतो वेगवत्या विद्याधरवरयुवत्या ॥१८४॥ निंद्राक्षये दृष्टा महिला तदा बध्वा घनमुष्टिम् । आगमिकः स पृच्छति किं वा निमित्तं मां हरसि ? ॥१८५॥ सा भणति श्रुणु नरवर ! नगरं सूर्योदयमिति नाम्ना । सा पुरुषद्वेषिणी प्रभो ! अवमन्यते पितरं नित्यम् ॥१८७॥ यो यः पटे लिखितस्तस्या मया दर्शितो नरवरेन्द्रः । सकले भरतवर्षे नैकोऽपि मनोवल्लभो जातः ॥१८८॥ पउमचरियं अथ तव निजरुपं पटे लिखित्वा दर्शितं तया । मदनशरपूरिताङ्गी सहसाऽऽकुलतां प्राप्ताः ॥ १८९ ॥ एतेन सह विशिष्टान् यदि न भुनग्मि कामभोगानहम् । मरणीयं भविष्यति सखी, नियमो पुनरन्यपुरुषस्य ॥ १९०॥ तस्याः पुरतः प्रतिज्ञाऽऽरुहिता दुष्करा मया स्वामिन् । यदि तं नाऽऽनयामि लघुं तदाज्वलनशिखं प्रविश्याम्यहम् ॥१९१॥ तव प्रसादेन प्रभो ! करोमि जीवस्य पालनमिदानीम् । पूरयाम्येव सहसा महाप्रतिज्ञाऽविघ्नेन ॥१९२॥ सूर्योदये नगरे नीत्वा निवेदितो नरेन्द्रस्य । वृत्तं पाणिग्रहणं कन्यया समं कुमारस्य ॥१९३॥ संपूर्णवरप्रतिज्ञा वेगवती पूजिता च विभवेन । उन्नतमाना च पुनर्जाता यशोभागिनी लोके ॥ १९४ ॥ तस्याः मैथुनकद्वौ रुष्टौ श्रुत्वा तस्याः कल्याणम् । विद्याधरावतिचण्डौ गङ्गाधर - महीधरौ नाम ॥ १९५॥ २. यियरं निच्चं प्रत्य० । २. तीसे प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुखपुरिपवेसो - ८/१८२ - २०९ भडचडगरेण महया, हय-गयसन्नद्ध - बद्धधयचिन्धा । जुज्झस्स कारणट्टं, पत्ता सूरोदयं नयरं ॥१९६॥ सोऊणय हरिसेणो, सत्तुभडे आगए बलसमिद्धे । विज्जाहरेहि सहिओ, विणिग्गओ अहिमुहो तुरियं ॥१९७॥ आवडियं चिय जुज्झं, बहुपहरपडन्ततूरसद्दालं । विवडन्तगय-तुरङ्गं, नच्चन्तकबन्धपेच्छणयं ॥१९८॥ न य हत्थी न य जोहो, न य तुरओ अत्थि जो परबलम्मि । हरिसेणेण रणमुहे, जो य न विद्धो वरसरेहिं ॥ १९९॥ दट्ठूण निययसेन्नं, भयविहलविसंथुलं समरमज्झे । भग्गा पलाइया ते, गङ्गाहर-महिहरा दो वि ॥ २००॥ पुण्णोदयम्म जाओ, चोहसरयणाहिवो भरहनाहो । दसमो य चक्कवट्टी, हरिसेणो नाम विक्खाओ ॥ २०१ ॥ भुञ्जन्तोच्चि सयलं, रज्जं चिन्तेइ तग्गयमणो । मयणावलीए रहिओ, मन्नइ सुन्नं व तइलोक्कं ॥ २०२ ॥ तावसकुलासमपयं, हरिसेणो सह बलेण संपत्तो । दिट्ठो य वणयरेहिं, कुसुमफलाउण्णहत्थेहिं ॥२०३॥ जणमेजण दिन्ना, भयं धरन्तेण सा पवरकन्ना । नागवईए वि तओ, वीवाहविही कओ रम्मो ॥२०४॥ मयणावलीए सहिओ, बत्तीससहस्सपत्थिवाइण्णो । पत्तो कम्पिल्लपुरं, थुव्वन्तो मङ्गलसएहिं ॥ २०५ ॥ दिट्ठा य निययजणणी, रइयं चिय चलणवन्दणं तीए । वप्पा दट्ठूण सुयं, न माइ नियएसु अङ्गेसु ॥२०६॥ दिणयरसरिसावयवा, कम्पिल्लपुरे कया रयणचित्ता । हरिसेणेण जिणरहा, वप्पाए भामिया बहवे ॥२०७॥ समणाण सावयाण य, जाया वि हु संपया परमरिद्धी । जिणसासणे पवन्नो, लोगो धम्मुज्जमईओ ॥२०८॥ तेण इमे धरणियले, जिणालया कारिया धवलतुङ्गा । बहुगाम-नगर- पट्टण - नइसंगम-पव्वयग्गेसु ॥२०९॥ भटसमूहेन महता हय-गज सन्नद्ध-बद्ध ध्वजचिह्नौ । युद्धस्य कारणार्थं प्राप्तौ सूर्योदयं नगरम् ॥१९६॥ श्रुत्वा च हरिषेणः शत्रूभटानागतान्बलसमृद्धान् । विद्याधरैः सहितो विनिर्गतो ऽभिमुखस्त्वरितम् ॥१९७॥ आपतितमेव युद्धं बहुप्रहरपतत्तूर्यशब्दालम् । विपतद्गज-तुरङ्गं नृत्यत्कबन्धप्रेक्षणकम् ॥१९८॥ न च हस्ती न च योधो न च तुरगोऽस्ति यः परबले । हरिषेणेन रणमुखे यश्च न विद्धो वरशरैः ॥१९९॥ दृष्ट्वा निजसैन्यं भयविह्वलविसंस्थुलं समरमध्ये । भग्नौ पलायितौ तौ गङ्गाधर - महिधरौ द्वावपि ॥२००॥ पुण्योदये जात श्चतुर्दशरत्नाधिपो भरतनाथः । दशमश्चचक्रवर्ती हरिषेणो नाम विख्यातः ॥२०१॥ भुञ्जन्नेव सकलं राज्यं चिन्तयति तदेकाग्रमनाः स । मदनावल्या रहितो मन्यते शून्यमिव त्रैलोक्यम् ॥२०२॥ तापसकुलाश्रमपदं हरिषेणः सहबलेन संप्राप्तः । दृष्टश्च वनचरैः कुसुमफलापूर्णहस्तैः ॥२०३॥ जनमेजयेन दत्ता भयं धारयता सा प्रवरकन्या । नागवत्याऽपि ततो विवाहविधिः कृतो रम्यः ॥२०४॥ मदनावल्याः सहितो द्वात्रिंशत्सहस्रपार्थिवाकीर्णः । प्राप्तः काम्पिल्यपुरं स्तुवन्मङ्गलशतैः ॥२०५॥ दृष्टा च निज जननी रचितमेव चरणवन्दनं तस्याः । वप्रा दृष्ट्वा सुतं न माति निजकेष्वङ्गेषु ॥ २०६॥ दिनकरसदृशावयवाः काम्पिल्यपुरे कृतारत्नखचिताः । हरिषेणेन जिनरथा वप्रया भ्रामिता बहवः ||२०७|| श्रमणानां श्रावकानां च जाता अपि खलु संपत्परमर्द्धिः । जिनशासनं प्रपन्नो लोको धर्मोद्योतमतिः ॥२०८॥ तेनेमे धरणितले जिनालयाः कारिता धवलोतुङ्गाः । बहुग्राम नगर-पट्टन नदीसंगम - पर्वताग्रेषु ॥ २०९॥ पउम भा-१/१५ For Personal & Private Use Only ११३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पउमचरियं रज्जं काऊण चिरं, भोत्तूण सुरयसंगमे भोए । पडिवन्नो जिणदिक्खं, मलरहिओ सिवसुहं पत्तो ॥२१०॥ भुवनालङ्कारहस्ती एयं हरिसेणकहं, सोऊण दसाणणो परमतुट्ठो । सिद्धाण नमोक्कारं, काऊण य पत्थिओ सहसा ॥२११॥ अवइण्णो दहवयणो, सिग्धं सम्मेयपव्वयनियम्बं । अह सुणइ गुरुगभीरं, सदं पसरन्तवित्थारं ॥२१२॥ परिपुच्छइ दहवयणो, सद्दो कस्सेस ? पस्सह ? कहिं वा? । सामियं ! गयस्स सद्दो, एसो भणियं पहत्थेणं ॥२१३॥ अह गयवरं पहत्थो, दावेइ दसाणणस्स रणम्मि । घणनिवहनीलनिद्धं, अञ्जणकुलसेलसच्छायं ॥२१४॥ सत्तुस्सेहं नवहत्थ आययं दस य परियरा पुण्णं । सुपइट्ठियसव्वङ्ग, महुपिङ्गललोयणं तुङ्गं ॥२१५॥ घण-पीण-वियडकुम्भं, दीहकरं पउमवण्णसमतालुं । सियदन्त पिङ्गलनखं, गण्डयलुब्भिन्नमयलेहं ॥२१६॥ दट्टण गयवरं सो, पुष्फविमाणाउ तुरियवेगेणं । अवइण्णो दहवयणो, तस्स समीवं समल्लीणो ॥२१७॥ काऊण सङ्घसदं, घोरं उत्तासणं वणयराणं । आयाड़ मत्तगयं ए ! एहि महं सवडहुत्तो ॥२१८॥ सोऊण सङ्घसई, दगुण दसाणणं समासन्ने । मणपवणतुरियवेग, संपत्तो अभिमुहो हत्थी ॥२१९॥ अह मुयइ उत्तरिज्जं, गयपुरओ सललियं धरणिपढे । तस्स परिहत्थदच्छो, दन्तच्छोहं कुणइ हत्थी ॥२२०॥ जाव य मही निसण्णो, दन्तग्गविदारियं कुणइ वत्थं । ताव रयणासवसुओ, करेहि कुम्भत्थलं हणइ ॥२२१॥ राज्यं कृत्वा चिरं भुक्त्वा सुरतसंगमे भोगान् । प्रतिपन्नो जिनदीक्षां मलरहितः शिवसुखं प्राप्तः ॥२१०॥ भुवनालङ्कारहस्ती - एतां हरिषेणकथां श्रुत्वा दशाननः परमतुष्टः । सिद्धेभ्यो नमस्कारं कृत्वा च प्रस्थितः सहसा ।।२११।। अवतीर्णो दशवदनो शीघ्रं सम्मेतपर्वतनितम्बम् । अथ श्रुणोति गुरुगम्भीरं शब्दं प्रसरद्विस्तारम् ॥२१२॥ परिपृच्छति दशवदनः शब्दःकस्यैष? पश्यथ ? कुतो वा? । स्वामिन् ! गजस्यशब्द एष भणितं प्रहस्तेन ॥२१३॥ अथ गजवरं प्रहस्तो दर्शयति दशाननस्यारण्ये । घननिवहनीलस्निग्धमञ्जनकुलशैलसच्छायम् ।।२१४।। सप्तोच्छेधं नवहस्तायतं दश च परिकरा पूर्णम् । सुप्रतिषठितसर्वाङ्गं मधुपिङ्गललोचनं तुङ्गम् ॥२१५।। धन-पीन-विकटकुम्भं दीर्घकरं पद्मवनसमतालुम् । श्वेतदन्तं पिङ्गलनखं गण्डतलोद्भिन्नमदरेखम् ॥२१६।। दृष्ट्वा गजवरं स पुष्पकविमानात्त्वरितवेगेन । अवतीर्णो दशवदनस्तस्य समीपं समालीनः ॥२१७।। कृत्वा शङ्खशब्दं घोरमुत्रासनं वनचराणाम् । आकारयति मन्तगजं ए ! एहि ममाभिमुखः ।।२१८।। श्रुत्वा शङ्खशब्दं दृष्ट्वा दशाननं समासन्ने । मनपवनत्वरितवेगः संप्राप्तोऽभिमुखो हस्ती ॥२१९।। अह मुञ्चत्युत्तरियं गजपुरतः सललितं धरणिपुष्टे । तस्य प्रतिक्रियादक्षो दन्तक्षोभं करोति हस्ती ॥२२०।। यावच्च महीं निषण्णो दन्ताग्रविदारितं करोति वस्त्रम् । तावद्रत्नश्रवःसुतः करैः कुम्भस्थलं हन्ति ।।२२१।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुखपुरिपवेसो-८/२१०-२३६ ११५ पविसरइ गत्तविवरं, पुणरवि पासेसु मग्गओ पुरओ । चलवलयमोहणेहिं, चक्कारूढो व्व परिभमइ ॥ २२२ ॥ ववगयदप्पुच्छाहं, हथि काऊण दसमुहो रण्णे । उप्पइऊण सललियं, गयस्स खंधं समारूढो ॥२२३॥ गयवरगहणनिमित्तं, खेयरवसहेहि परमपीईए । पडुपडहतूरपउरो कओ पमोओ अइमहन्तो ॥ २२४ ॥ त्वरिन्दं भुवणालंकारनामधेयं सो । चिन्तेइ मणेण महं सिद्धं चिय तिहुयणं सयलं ॥ २२५॥ वसिऊण तत्थ रयणी, पडिबुद्धो दहमुहो सुहासीणो | अत्थाणमण्डवत्थो, भडसहिओ गयकहासत्तो ॥ २२६॥ ताव य नहङ्गणेणं, समागओ खेवरो पवणवेगो । पहरणजज्जरियतणू, तं चेव सभं समल्लीणो ॥ २२७॥ काऊण सिरपणामं, उवविट्ठो दहमुहस्स आसन्ने । अह साहिउं पयत्तो, पायालपुराउ निग्गमणं ॥ २२८ ॥ रिक्खरया -ऽऽइच्चरया, कुलकमपरिवाडियागयं नयरं । पत्ता य गहणहेडं, किक्विन्धि जमभडस्सुवरिं ॥ २२९ ॥ सऊण परबलं सो समागयं निग्गओ जमो सिग्धं । अह जुज्झिउं पवत्तो, समच्छरो वाणरेहिसमं ॥ २३० ॥ बहुभडजीयन्तयरे, महाहवे एरिसे समावडिए । गहिओ च्चिय रिक्खरओ, आइच्चरएण समसहिओ ॥२३१॥ काराविया य निरया, जमेण वेयरणिमाइया बहवे । हण-दहण - पयण - मारण- छिन्दण - भिज्जकम्पन्ता ॥२३२॥ एयं ते परिकहियं, वाणरकेऊण सन्तियं वयणं । ताण पहु ! दुक्खमोक्खं, करेहि परिवालणं सिग्घं ॥ २३५॥ वणभङ्गसमादेसं, दाऊणं तस्स दूयपुरिसस्स । रयणासवस्सपुत्तो, किक्विन्धि तो गओ सिग्घं ॥२३६॥ प्रविशति गर्त्ताविवरं पुनरपि पार्श्वयोषु मार्गतः पुरतः । चलवलयमोहनै श्चक्रारुढ इव परिभ्रमति ॥२२२॥ त्यक्तदर्पोत्साहं हस्तिनं कृत्वा दशमुखोऽरण्ये । उत्पत्य सललितं गजस्य स्कन्धं समारुढः ॥२२३॥ गजवरग्रहणनिमित्तं खेचरवृषभैः परमप्रीत्या । पटुपटहतूर्यप्रचूरः कृतः प्रमोदोऽतिमहान् ॥२२४॥ गृहीत्वा गजवरेन्द्रं भुवनालङ्कारनामधेयं सः । चिन्तयति मनसा मम सिद्धमेव त्रिभुवनं सकलम् ॥२२५॥ सत्वा तत्र रजनीं प्रतिबुद्धो दशमुखः सुखासीनः । आस्थानमण्डपस्थो भटसहितो गजकथासक्तः ॥ २२६॥ तावच्च नभोङ्गणेन समागतः खेचरः पवनवेगः । प्रहरणजर्जरितनूस्तामेव सभां समालीनः ॥२२७॥ कृत्वा शिरःप्रणाममुपविष्टो दशमुखस्यासन्ने । अथ कथयितुं प्रवृत्तः पातालपुरान्निर्गमनम् ॥२२८॥ ऋक्षरजा - आदित्यरजसः कुलक्रमपरिपाट्यागतं नगरम् । प्राप्ताश्च ग्रहणहेतुं किष्किन्ध यमभटस्योपरि ॥२२९॥ श्रुत्वा परबलं स समागतं निर्गतो यमः शीघ्रम् । अथ योद्धुं प्रवृत्तः समत्सरो वानरैः समम् ॥२३०॥ बहुभटजीवितान्तकरे महाहवे एतादृशे समापततिते । गृहीत एव ऋक्षरजा आदित्यरजसा समसहितः ॥२३१॥ कारितश्च नारका यमेन वैतरण्यादिका बहवेः । हन - दहन - पतन - मारण- छिन्दन-भुञ्जनकर्मान्ताः ॥२३२॥ समरे विनिर्जिता ये वानरसुभटाः समस्तपरिवाराः । ते तत्र दुःखमरणं नरकेषु कृताः कृतान्तेन ॥२३३॥ दृष्ट्वा यमस्य चरितं तदाहं सर्वादरेण त्वरन् । अत्राऽऽगतो नराधिप ! ऋक्षरजा - आदित्यरजसोः भृत्यः ॥२३४॥ एतत्तुभ्यं परिकथितं वानरकेतोः सत्कं वचनम् । तेषां प्रभो ! दुःखमोक्षं कुरु परिपालनं शीघ्रम् ॥ २३५॥ व्रणभङ्गसमादेशं दत्वा तस्य दूतपुरुषस्य । रत्नश्रवसः पुत्रः किष्किन्ध तदा गतः शीघ्रम् ॥ २३६॥ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पउमचरियं विद्धंसिया य नरया, उच्छिन्ना नरयवालया तुरियं । गन्तुं कहेन्ति सव्वं, जमस्स तो दहमुहागमणं ॥२३७॥ सोऊण रावणं सो, समागयं निग्गओ जमो सिग्धं । रह-गय-तुरङ्गसहिओ, भडचडयरनिवहमज्झत्थो ॥२३८॥ पढमं चिय आवडिओ, आडोवो नाम जमभडो तुरियं । पत्तो अग्गिमखन्धं, बिहीसणो तस्स संगामे ॥२३९॥ मुञ्चइ आडोवभडो, आउहसत्थं बिहीसणस्सुवरिं । रयणासवस्स पुत्तो, सरेहि सव्वं निवारेड् ॥२४०॥ सुनिसियबाणेहि रणे, बलपरिमुक्केहि तेण आडोवो । अवसारिओ य दूरं, कुगओ विव मत्तहत्थीणं ॥२४१॥ दट्ठण पलयन्तं, आडोवं उठ्ठिओ जमो कुद्धो । चउरङ्गबलसमग्गो, रक्खससेन्नस्स आवडिओ ॥२४२॥ रुद्धो रहो रहेणं, आलग्गो गयवरो सह गएणं । तुरएण सह तुरङ्गो, पाइक्को सह पयत्थेणं ॥२४३॥ जाव य खणन्तरेक्वं, ताव य सुहडेहि सत्थपहरेहिं । गय-तुरएहिं भूमी, रुद्धा पवडन्त-पडिएहिं ॥२४४॥ एयारिसम्मि जुज्झे, वट्टन्ते सुहडजीयविच्छड्डे। अह पेल्लिऊण सेन्नं, दहमुहहुत्तो जमो पत्तो ॥२४५॥ दट्टण समासन्ने, एज्जन्तं जमभडं समावडिओ । रयणासवस्स पुत्तो, तेण समं जुज्झिउं पत्तो ॥२४६॥ तो जुज्झिऊण सुइरं, चडक्कसरिसोवमेहि पहरेहिं । विरहो कओ कयन्तो, सरवरघायाहओ रुट्ठो ॥२४७॥ मुच्छानिमीलियच्छो, घेत्तूण सएण परियणसमग्गो । नीओ इन्दसयासं, रहनेउरचक्कवालपुरं ॥२४८॥ पडिबुद्धो कयविणओ, भणइ सुरिन्दं पहू ! निसामेहि । जं तं किक्किन्धिपुरे, जमलीलाविलसियं रइयं ॥२४९॥ रूसह फुडं व तूसह, अहवा वि य जीवणं हरह सव्वं । अन्नं च कुणह दण्डं, न करेमि जमत्तणं अहयं ॥२५०॥ विद्वंसिताश्च नरका उच्छिन्ना नरकपालास्त्वरितम् । गत्वा कथयति सर्वं यमस्य तदा दशमुखागमनम् ।।२३७।। श्रुत्वा रावणं स समागतं निर्गतो यमः शीघ्रम् । रथ-गज-तुरङ्गसहितो भटसमूहनिवहमध्यस्थः ।।२३८।। प्रथममेवापतित आटोपो नाम यमभटस्त्वरितम् । प्राप्तोऽग्रिमस्कन्धं बिभीषणस्तस्य संग्रामे ॥२३९।। मुञ्चत्याटोपभट आयुधशस्त्रं बिभीषणस्योपरि । रत्नश्रवसः पुत्रः शरैः सर्वं निवारयति ॥२४०॥ सुनिशितबाणै रणे बलपरिमुक्तैस्तेनाटोपः । अपसारितश्च दूरं कुगज इव मत्तहस्तिना ॥२४१॥ दृष्ट्वा पलायन्तमाटोपमुत्थितो यमः कुद्धः । चतुरङ्गबलसमग्रो राक्षससैन्यस्यापतितः ॥२४२।। रुद्धो रथो रथेनालग्नो गजवर: सह गजेन । तुरगेण सह तुरङ्गः पादाति सह पदस्थेन ॥२४३॥ यावच्च क्षणान्तरैकं तावच्च सुभटैः शस्त्रप्रहारैः । गजतुरगैर्भूमी रुद्धा प्रपतत्पतितैः ॥२४४।। एतादृशे युद्धे वर्तमाने सुभटजीवनिवहे । अथ पीडयित्वा सैन्यं दशमुखाभिमुखो यमः प्राप्तः ॥२४५।। दृष्ट्वा समासन्ने आयान्तं यमभटं समापतितः । रत्नश्रवसः पुत्रस्तेन समकं योद्धं प्राप्तः ॥२४६॥ तदा युद्ध्वा सुचिरं चडक्कसदृशोपमैः प्रहरैः । विरहः कृतः कृतान्तः शरवरघाताहतो रुष्ठः ॥२४७।। मूर्छानिमिलिताक्षो गृहीत्वा स्वेन परिजनसमग्रः । नीत इन्द्र सकाशं रथनुपूरचक्रवालपूरम् ॥२४८॥ प्रतिबुद्धः कृतविनयो भणति सुरेन्द्रं प्रभो ! निशामय । यत्तत्किष्किधिपूरे यमलीलाविलसितं रचितम् ॥२४९॥ रोषः स्फुटं वा तोषोऽथवापि च जीवनं हर सर्वम् । अन्यत्कुरु दण्डं न करोमि यमत्वमहम् ॥२५०।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुखपुरिपवेसो-८/२३७-२६३ ११७ समणलोपालो, जेण जिओ साहिओ य मत्तगओ । अहमवि तेण रणमुहे, विमुहो च्चिय सरवरेहि कओ ॥ २५९ ॥ एयं जमस्स वयणं, सुणिऊण सुराहिवो रणारम्भं । कुव्वन्तो च्चिय सव्वं, मन्तीहि निवारिओ सिग्घं ॥२५२॥ भणिओ इन्देण जमो, वच्च तुमं पुरवरं सुरग्गीयं । अच्छसु वीसत्थमणो, मोत्तूण भयं रिउभडाणं ॥ २५३ ॥ इन्दो वि निययभवणे, सव्वसिरी - जुवइसहगओ भोए । भुञ्जन्तो परमगुणे, न गणइ कालं पि वच्चन्तं ॥ २५४ ॥ अह रावणो वि पत्तो, आइच्चरयस्स देहि किक्किन्धी । रिक्खरयस्स वि दिन्नं, रिक्खपुरं महुगिरिस्सुवरिं ॥ २५५ ॥ रिक्खरया - ऽऽइच्चरया, ,ठविऊण कुलागएसु नयरेसु । पुप्फविमाणारूढो, उप्पइओ दहमुहो गयणं ॥ २५६॥ वच्चइ लङ्काभिमुहो, खेयरभडचडगरेण महएणं । पेच्छन्तो लवणजलं, उम्मिसहस्साउलं भीमं ॥ २५७॥ भीम-झस-मयर-कच्छह-अन्नोन्नावडियविलुलियावत्तं । आवत्तविद्दुमाहय - निल्लूरियदलियसङ्घउलं ॥२५८॥ सङ्घउलसिप्पिसंपुड-विहडियपेरन्तचच्चियतरङ्गं । सतरङ्गमारुयाहय - सरियामुहभरियकूलयलं ॥ २५९ ॥ कूलयलहंससारस-कलमलभरजणियरुद्धतडमग्गं । तडमग्गरयणबहुविह-किरणुज्जोवियदुरुप्पयरं ॥ २६० ॥ पयरन्तविसयमोत्तिय-धवलियघणफेणपुञ्जपुञ्जइयं । पुञ्जइयदिव्वपायव - कुसुमसमाइण्णदिण्णच्चं ॥२६१॥ दिण्णच्चणं व रेहड़, महल्लहलन्तवी संघट्टं । संघट्टजलाऊरिय, सव्वत्तो गुलगुलायन्तं ॥२६२॥ एयारिस समुहं, नियमाणो जोयणाइँ बहुयाइं । बोलेऊणं पेच्छइ, लङ्कानयरिं तिकूडत्थं ॥२६३॥ वैश्रमणलोकपालो येन जितः साधितश्च मत्तगजः । अहमपि तेन राणमुखे विमुख एव शरवरैः कृतः || २५१ ।। एतद्यमस्य वचनं श्रुत्वा सुराधिपो रणारम्भम् । कुर्वन्नेव सर्वं मन्त्रिभि र्निवारितः शीघ्रम् ॥२५२॥ भणित इन्द्रेण यमो गच्छस्त्वं पुरवरं सुरोद्गीतम् । आसस्व विश्वस्तमना मुक्त्वा भयं रिपुभटानाम् ॥२५३॥ इन्द्रोऽपि निजभवने सर्वश्रीयुवतिसहगतो भोगान् । भुञ्जन्परमगुणान्न गणति कालमपि गच्छन्तम् ॥२५४॥ अथ रावणोऽपि प्राप्त आदित्यरजसे ददाति किष्किन्धम् । ऋक्षरजसोऽपि दत्तं ऋक्षपुरं मधुगिरेरुपरि ॥२५५॥ ऋक्षरजा-आदित्यरजसौ स्थापयित्वा कुलागतेषु नगरेषु । पुष्पकविमानारुढ उत्पतितो दशमुखो गगनम् ॥ २५६॥ गच्छति लङ्काभिमुखः खेचरभटसमूहेन महता । पश्यन्लवणजलमुर्मिसहस्राकुलं भीमम् ॥२५७॥ भीममत्स्य-मगर-कच्छपान्योन्यापतितविलुलितावर्तम् । आवर्तविद्रुमाहत- छिन्नदलितशङ्खकुलम् ॥२५८॥ शङ्खकुलसीपसंपूट-विघटितप्रसरच्चर्चिततरङ्गम् । सतरङ्गमारुताहतसरितामुखभृतकूलतलम् ॥२५९॥ कूलतलहंससारसकलमलभरजनितरुद्धतटमार्गम् । तटमार्गरत्नबहुविधकिरणोद्योतितदूरोत्प्रसरम् ॥२६०॥ प्रसरद्विषयमौक्तिकधवलितधनफेनपुञ्जपिञ्जरितम् । पिञ्जरितदिव्यपादपकुसुमसमाकीर्णदत्तार्चम् ॥२६१॥ दत्तार्चनमिव राजते महद्धलत्वीचीसंघट्टम् । संघट्टजलापूरितं सर्वतो गुलगुलायन्तम् ॥२६२॥ एतादृशं समुद्रं नीयमानो योजनानि बहूनि । लङ्घ्य पश्यति लङ्कानगरीं त्रिकुटस्थाम् ॥२६३॥ १. घट्टंत जला - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सा माणुसोत्तरेण व पायारवरेण संपरिक्खित्ता । वरकञ्चणामएणं, हुयवहमिव पज्जलन्तेणं ॥२६४॥ तुङ्गेहि देउलेहिय, नाणामणि- रयणभित्तिकलिएहिं । गयणमिव मिलिउकामा, ससिकन्तमिणालधवलेहिं ॥ २६५ ॥ पायार-तोरणेसु य, अविरलउसवियवेजयन्तीहिं । वाहरइ व वोलन्ते, पवणाहयपल्लवकरेहिं ॥२६६॥ पुक्खरिणि दीहियासु य, आरामुज्जाण-काणण-वणेहिं । पासाय- सभा-चेइय- घरेहि अहिययररमणिज्जा ॥ २६७॥ पउमचरियं अगरुय-तुरुक्क-चन्दण-कप्पूरा-ऽगरुसुगन्धगन्धेणं । वासेइ समन्ताओ, दिसाउ उवभोग नीएणं ॥२६८॥ वच्चन्ता वि हु तुरियं, देवा दट्ठूण तं महानयरिं । अच्चन्तयरमणिज्जं, सहसा मोत्तुं न चाएन्ति ॥ २६९॥ किं जंपिएण बहुणा ?, सा नयरी सयलजीवलोगम्मि । विक्खाया गुणकलिया, इन्दस्सऽमरावई चेव ॥ २७० ॥ दट्ठूण समासन्ने, समागयं दहमुहं बलसमग्गं । सव्वो वि नायरजणो, विणिग्गओ अभिमुो सिग्घं ॥२७१॥ केइत्थ खेयरभडा, हय-गय- रहवर - विमाणमारूढा । खर- करभ - केसरीसु य, संपेल्लुप्पेल्ल कुणमाणा ॥ २७२॥ वरहार-कडय-केउर-कडिसुत्तय-मउड - कुण्डलाभरणा । कुङ्कुमकयङ्गराया, चीणंसुयपट्टपरिहाणा ॥२७३॥ मारीई सुय-सारण - हत्थ - पहत्था य तिसिर - धूमक्खा । कुम्भ- निसुम्भ- बिहीसण, अन्ने य सुसेणमाईया ॥ २७४॥ एहि य अन्नेहिय, भडेहि परिवारिओ समन्तेणं । अइरेहइ दहवयणो इन्दो इव लोगपालेहिं ॥ २७५ ॥ नायरवहूहि सिग्घं, दहमुहदरिसणमणाहि अइरेयं । संसारिडं गवक्खा, रुद्धा चिय वयणकमलेहिं ॥२७६५। सा मानुषोत्तरेणेव प्राकारवरेण संपरिक्षिप्ता । वरकाञ्चनमयेन हूतवहमिव प्रज्वलन्ती ॥ २६४॥ तुङ्गैर्देवकुलैश्च नानामणिरत्नभीत्तिकलितैः । गगनमिव मिलितुकामा शशिकान्तमृणालधवलैः ॥२६५॥ प्राकारतोरणैश्चाविरलावच्छादितवैजयन्तिभिः । व्याहरतीव चलन्ती पवनाहतपल्लवकरैः || २६६ || पुष्करिणी दीर्घिकाभिश्चारामुद्यानकाननवनैः । प्रासादसभाचैत्यगृहैरधिकतररमणीया ॥२६७॥ अगुरुतुरुक्क-चन्दनकर्पूरागरुसुगन्धगन्धेन । वासति समन्ततो दिश उपभोगनीतेन ||२६८॥ गच्छन्तोऽपि खलु त्वरितं देवा दृष्ट्वा तां महानगरीम् । अत्यन्तरमणीयां सहसा मोक्तुं न पारयन्ति ॥ २६९॥ किं जल्पितेन बहुना ? सा नगरी सकलजीवलोके । विख्याता गुणकलितेन्द्रस्यामरावतीव ॥२७०॥ दृष्ट्वा समासन्ने समागतं दशमुखं बलसमग्रम् । सर्वोऽपि नागरजनो विनिर्गतोऽभिमुखः शीघ्रम् ॥२७१॥ केचित्खेचरभटा हय-गज- रथवर - विमानारूढाः । खर- करभ - केसरीषु च संप्रेरोत्प्रेरंक्रीयमाणाः ॥ २७२॥ वरहार-कटक-केयूर-कटिसूत्र - मुकुट-कुण्डलाभरणाः । कुंकुमकृताङ्गरागाश्चीनांशुकपट्टपरिधानाः ॥२७३॥ मारिची - शुक - सारण - हस्त - प्रहस्ताश्च त्रिशिर- धूमाक्षौ । कुम्भ निशुम्भ- विभीषणा अन्ये च सुसेनादयः ॥ २७४॥ एतैश्चान्यैश्च भटैः परिवारितः समन्ततः । अतिराजति दशवदन इन्द्र इव लोकपालैः ॥ २७५॥ नागरवधूभिः शीघ्रं दशमुखदर्शनमनाभिरतिरेकम् । संसृत्य गवाक्षा रुद्धा एव वदनकमलैः ॥२७६॥ १. भोगजणिएणं - मु० । For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ दहमुखपुरिपवेसो-८/२६४-२८६ अन्ना अन्नं पेल्लइ, करेण मा ठाहि मग्गओ तुरियं । ताए वि सा भणिज्जइ, कि मज्झ न कोउयं बहिणे? ॥२७७॥ मा थणहरेण पेल्लसु, दहमुहदरिसणमणाऽसि अइचवले ! तीए वि य सा भणिया, मा रुम्भ गवक्खयं एयं ॥२७८॥ भणइ सही ! धम्मिल्लं, अवसारसु मज्झ नयणमग्गाओ। तीए वि य सा भणिया, न य पेच्छसि अन्तरं विउलं ॥२७९॥ नायरवहूहि एवं, दसाणणं तत्थ पेच्छमाणीहिं । हलबोलमुहलसद्दा, भवणगवक्खा कया सव्वे ॥२८०॥ बहुतूरनिणाएणं, कयकोउयमङ्गलो विमाणत्थो । लङ्कापुरी पविट्ठो, दहवयणो इन्दसमविभवो ॥२८१॥ पुरनारि-वहुजणेणं, दिन्नासीसो थुईहि थुव्वन्तो । पइसनिययभवणं, थम्भसहस्साउलं तुझं ॥२८२॥ कणयमयभित्तिचित्तं, मरगयलम्बन्तमोत्तिओऊलं । मन्दाणिलपरिघुम्मिर-धवलपडागाचलकरग्गं ॥२८३॥ सेसा वि य सामन्ता, अहिट्ठिया अत्तणो सगेहेसु । देवा व देवलोगे, भुञ्जन्ति जहिच्छिए भोगे ॥२८४॥ गुरु-बन्धु-सयण-परियण-सुयसहिओ पीवराए लच्छीए । भुञ्जइ लङ्कानयरी, दहवयणो पणयसामन्तो ॥२८५॥ विविहसंपयजायमहत्तया, पणयसत्तुगणा भयवेम्भला । सुकयकम्मफलोययसंगमे, विमलकित्ति दिसासु वियम्भिया ॥२८६॥ ॥ इय पउमचरिए दहमुहपुरिपवेसो नाम अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥ अन्या अन्यान्प्रेरति करेण मास्था मार्गात्त्वरितम् । ताभिरपि सा भण्यते किं मम न कौतुकं भगिनि ! ? ॥२७७|| मा स्तनभारेण प्रेरय दशमुखदर्शनमनाऽस्यतिचपले । तथापि च सा भणिता मा रूणद्धि गवाक्षमेतत् ॥२७८।। भणति सखि ! धम्मिलमपसारय मम नयनमार्गात् । तथापि च सा भणिता न च पश्यस्यन्तरं विपुलम् ।।२७९।। नागरवधुभिरेवं दशाननं तत्र पश्यन्तीभिः । हलबोलमुखरशब्दा भवनगवाक्षाः कृताः सर्वे ॥२८०॥ बहूतूर्यनिनादेन कृतकौतुकमङ्गलो विमानस्थः । लङ्कापुरिं प्रविष्टो दशवदन इन्द्र समविभवः ।।२८१॥ पुरनारि-वधुजनेन दत्तार्शीः स्तुतिभिः स्तुवन् । प्रतिसरति निजभवनं स्तम्भसहस्राकुलं तुङ्गम् ॥२८२॥ कनकमयभित्तिचित्रं मरकतलम्बन्मौक्तिकाकुलम् । मन्दानिलपरिधुर्णद्धवलपताकाचलकराग्रम् ।।२८३।। शेषा इपि च सामन्ता अधिष्ठिता आत्मनः स्वगृहेषु । देवा इव देवलोके भुञ्जन्ति यथेच्छया भोगान् ॥२८४।। गुरुबन्धु स्वजन-परिजन-सुतसहित: पीवरया लक्ष्म्या। भुनक्ति लङ्कानगरी दशवदनः प्रणतसामन्तः ॥२८५॥ विविधसंपज्जातमहत्तया प्रणतशत्रुगणा भयविह्वला । सुकृतकर्मकालोदयसंगमे विमलकीति दिक्षु विजृम्भिता ॥२८६।। ॥ इति पद्मचरिते दशमुखपुरिप्रवेशोनामाष्टमोद्देशः समाप्तः ॥ १. महव्वया-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. वालिणिव्वाणगमणाहियारो बालसुग्रीव 1 एत्थन्तरम्मि सेणिय !, आइच्चरयस्स इन्दमालीए । गब्भम्मि समुप्पन्नो, बाली बलविरियसंपन्नो ॥१॥ रूवेण परमरूवो, विज्जाण कलाण गुणसयावासो । सम्मत्तभावियमई, अणन्नसरिसो वसुमईए ॥२॥ चउसागरपेरन्तं, जम्बुद्दीवं पयाहिणं काउं । नमिऊण जिणहराई, किक्विन्धिपुरं पुणो एइ ॥ ३ ॥ जाओ अणुक्रमेणं, सुग्गीवो तस्सऽणुत्तरो भाया । अन्ना वि निययबहिणी, सिरिप्पभा चेव उप्पन्ना ॥४॥ रिक्खपुरे वि य तइया, रिक्खरयसुया महन्तगुणकलिया । नल-नीलनामधेया, हरिकन्ताए समुप्पन्ना ॥५॥ आइचरओ वि तया, असासयं जाणिऊण मणुयत्तं । वाली ठवेइ रज्जे, जुवरज्जे चेव सुग्गीवं ॥६॥ हय-गय-रह- जुवईओ विच्छड्डेऊण बन्धवसिणेहं । पव्वइओ खायजसो, पासे मुणिविगयमोहस्स ॥७॥ देहे वि निरावेक्खो, काऊण तवं अणेयवरिसाई । कम्मट्ठनिट्ठियट्ठो, अव्वाबाहं समणुपत्तो ॥ ८ ॥ एत्तो रज्जवरसिरी, वालिनरिन्दस्स भुञ्जमाणस्स । वच्चन्ति मास- वरिसा, दियह व्व सुहावगाढस्स ॥९॥ एत्थन्तरम्मि अह सा, सहोयरी रावणस्स चन्दणहा । खरदूसणेण सहसा, दिट्ठा मेघप्पभसणं ॥१०॥ ९. वालिनिर्वाणगमनाधिकारः । वालिसुग्रीवौ अत्रान्तरे श्रेणिक ! आदित्यरजस इन्द्रमाल्याः । गर्भे समुत्पन्नो वाली बलवीर्यसंपन्नः ॥ १ ॥ रुपेण परमरुपो विद्यानां कलानां गुणशतावासः । सम्यक्त्व भावितमतिरनन्यसदृशो वसुमत्याम् ॥२॥ चतुः सागरपर्यन्तं जम्बुद्वीपं प्रदक्षिणां कृत्वा । नत्वा जिनगृहाणि किष्किन्धपुरं पुनरायाति ॥३॥ dish सुग्रीवस्तस्यानुत्तरो भ्राता । अन्याऽपि निजभगिनी श्रीप्रभोत्पन्ना ॥४॥ ऋक्षपुरेऽपि च ऋक्षरजसः सुतौ महदुणकलितौ । नल-नीलनामधेयौ हरिकान्तायां समुत्पन्नौ ॥५॥ आदित्यरजा अपि तदाशाश्वतं ज्ञात्वा मनुष्यत्वम् । वालीं स्थापयति राज्ये युवराज एव सुग्रीवम् ||६|| हय- गज-रथ-युवती विमुच्य बान्धवस्नेहम् । प्रव्रजितः ख्यातयशाः पार्श्वे मुनिविगतमोहस्य ॥७॥ देहेऽपि निरपेक्षः कृत्वा तपोऽनेकवर्षाणि । कर्माष्टकनिष्ठितार्थोऽव्याबाधं समनुप्राप्तः ||८|| इतो राज्यवरश्रियं वालिनरेन्द्रस्य भुञ्जतः । व्रजन्ति मास-वर्षा दिवसमिवं सुखावगाढस्य ॥९॥ अत्रान्तरे ऽथ सहोदरी रावणस्य चन्द्रनखा । खरदूषणेन सहसा दृष्टा मेघप्रभसुतेन ॥ १० ॥ १. सिरिं- प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालिणिव्वाणगमणाहियारो -९/१-२३ जाव च्चिय दहवयणो, विवरोक्खो आवलीए धूयाए। तणुकञ्चकारणत्थं, वीवाहविहीनिओगेणं ॥११॥ ताव खरदूसणेणं, अणुरागसमोत्थरन्तहियएणं । विज्जाबलेण हरिया, चन्दणहा चन्दसरिसमुही ॥१२॥ किं कुव्वन्तिह सूरा, सामन्ता भाणुक्कमाईया ? । जत्थ रिउछिद्दघाई, अदिट्ठपुव्वो हरइ कन्नं ॥१३॥ अह रावणो वि तइया, वत्तं सुणिऊ आगओ रुट्ठो । घेत्तूण चन्दहासं, तस्स वहत्थं अह पयट्टो ॥१४॥ चलणेसु पणमिऊणं, ताव य मन्दोयरी भणइ कन्तं । अन्नस्स होइ अरिहा, कन्ना लोगट्टिई एसा ॥१५॥ विज्जाहराण सामिय !, भिच्चाणं तस्स चोद्दस सहस्सा । बलदप्पगव्वियाणं, रणकण्डू उव्वहन्ताणं ॥ १६ ॥ जुज्झम्म समावडिए, अवस्स दुट्ठो तुमे निहन्तव्वो । भत्तारम्मि विवन्ने, होही विधवा विगयसोहा ॥१७॥ आइच्चरयस्स सुयं, चन्दोयरखेयरं विहाडेउं । तुज्झ कुलवंसनिलए, पायालपुरे परिव्वसइ ॥१८॥ सत्तुभडाण रणमुहे, भयमुव्वेयं न जामि निमिसं पि । तुज्झ वयणेण सुन्दरि !, नवरि ठिओ सासयसहावो ॥१९॥ अह अन्नया कयाई, चन्दोयरपत्थिवम्मि कालगए। महिला तस्सऽणुराहा, सयणविहूणा भमइ रणे ॥२०॥ अह गुरुरखीणङ्गी मणिकन्तमहीहरस्स कडयम्मि । सा दरायं पसूया, नामेण विराहियकुमारं ॥२१॥ गब्भट्ठियस्स जस्स उ, कओ विरोहो सया रिउजणेणं । तेणं विराहिओ सो, भण्णइ धणभोगपरिहीणो ॥२२॥ परिवड्डिओ कुमारी, जाओ बल - रूव - जोव्वणापुण्णो । परिभमइ सयलवसुहं, अइसय रम्मेसुदेसेसु ॥२३॥ यावदेव दशवदनो विपरोक्ष आवलीकाया दुहितुः । तनुकञ्चककारणार्थं विवाहविधिनियोगेन ॥११॥ तावत्खरदूषणेनानुरागसमवस्तरद्धृदयेन । विद्याबलेन हृता चन्द्रनखा चन्द्रसदृशमुखी ॥१२॥ किं कुर्वन्तीह सुराः सामन्ता भानुकर्णादिकाः । यत्र रिपुछिद्रघातिरदृष्टपूर्वो हरति कन्याम् ॥१३॥ अथ रावणोऽपि तदा वृत्तं श्रुत्वाऽऽगतो रुष्टः । गृहीत्वा चन्द्रहासं तस्य वधार्थंमथ प्रवृत्तः ||१४|| चरणयोः प्रणम्य तावच्च मन्दोदरी भणति कान्तम् । अन्यस्य भवत्यर्हा कन्या लोकस्थितिरेषा ॥ १५ ॥ विद्याधराणां स्वामिन्! भृत्यानां तस्य चतुर्दशसहस्राणाम् । बलदर्पगर्वितानां रणकण्डूरुद्वहताम् ॥१६॥ युद्धे समापतिते अवश्यं दुष्टस्त्वया निहन्तव्यः । भर्तरि मृते भविष्यति विधवा विगतशोभा ||१७|| आदित्यरजसः सुतं चन्द्रोदरखेचरं विघाट्य । तव कुलवंशनिलये पातालपुरे परिवसति ॥ १८ ॥ शत्रुभटानां रणमुखे भयमुद्वेगं न यामि निमेषमपि । तव वचनेन सुन्दरि ! नवरं स्थितः शाश्वतस्वभावः ॥ १९॥ अथान्यदा कदाचिच्चन्द्रोदरपार्थिवे कालगते । महिला तस्यानुराधा-स्वजनविहिना भ्रमत्यरण्ये ||२०|| अथ गुरुभारक्षीणाङ्गी मणिकान्तमहीधरस्य कटके । सा दारकं प्रसूता नाम्ना विराधितकुमारम् ॥२१॥ गर्भस्थितस्य यस्य तु कृतो विरोधः सदा रिपुजनेन । तेन विराधितः स भण्यते धनभोगपरिहीणः ॥ २२॥ परिवर्धितः कुमारो जातो बल-रूप-यौवनपूर्णः । परिभ्रमति सकलवसुधामतिशय रम्येषुदेशेषु ||२३|| पउम भा-१/१६ १२१ For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पउमचरियं रावणस्य बालिना सह युद्धम् - अह रावणेण तइया, वालिनरिन्दस्स पेसिओ दूओ। गन्तूणं किक्किन्धि, वालिसहं पत्थिओ सहसा ॥२४॥ काऊण सिरपणामं, दूओ अह भणइ वाणराहिवई । निसुणेहि मज्झ वयणं, जं भणियं निययसामीणं ॥२५॥ उत्तमकुलसंभूओ, उत्तमविरिओ सि विणयसंपन्नो । उत्तमपीईए तुमं, भणइ लहुं एहि दहवयणो ॥२६॥ रिक्खरया-ऽऽइच्चरया, किक्किन्धिमहापुरे निययरज्जे । ठविया मए सणाहा, जिणिऊण जमं रणमुहम्मि ॥२७॥ अन्नं पि एव भणियं, कुणह पणामं सिरीए जइ कज्जं । एवं च निययबहिणी, सिरिप्पभं देहि मे सिग्धं ॥२८॥ अह भणइ पवङ्गनाहो, मज्झ सिरं मउड-कुण्डलाडोवं । मोत्तूण जिणवरिन्दं, न पडइ चलणेसु अन्नस्स ॥२९॥ वालिवयणावसाणे, दूओ पडिभणइ निट्ठरं वयणं । तस्स पणामेण विणा, न य जीयं न य तुमे रज्जं ॥३०॥ दूयवयणेण रुट्ठो, वग्घविलम्बी भडो भणइ एवं । किं सो गहेण गहिओ, उल्लड्डइ दसाणणो एवं ? ॥३१॥ रे दूय ! किं न याणसि, वालिं बलदप्पगव्वियं धीरं ? । पुहईयलम्मि सयले जस्स जसो भमइ निस्सङ्को ॥३२॥ दूएण वि पडिभणिओ, वग्घविलम्बी सुनिट्ठरं वयणं । भण्डह विलम्बगूढं, अहव पणामं कुणह गन्तुं ॥३३॥ दुव्वयणदूमियङ्गो, वग्घविलम्बी असिं नियच्छेउं । पहरन्तो च्चिय रुद्धो, दूयस्स सयं हरिवईणं ॥३४॥ किं मारिएण कीरड्, इमेण दूएण पेसियारेणं ? । जो पयवयणुल्लावी, नवरं पडिसद्दओ एसो ॥३५॥ रावणस्य वालिना सह युद्धम्अथ रावणेन तदा वालिनरेन्द्राय प्रेषितो दूतः । गत्वा किष्किन्धि बालिसभां प्रस्थितः सहसा ॥२४॥ • कृत्वा शिरः प्रणामं दूतोऽथ भणति वानराधिपतिम् । निशृणु मम वचनं यद्भणितं निजकस्वामिना ॥२५॥ उत्तमकुलसंभूत उत्तमवीर्योऽसि विनयसंपन्नः । उत्तमप्रीत्या त्वां भणति लध्वेहि दशवदनः ।।२६।। ऋक्षरजआदित्यरजसौ किष्किन्धिमहापुरे निजराज्ये । स्थापितौ मया सनाथौ जित्वा यमं रणमुखे ॥२७॥ अन्यदप्येवं भणितं कुरुत प्रणामं श्रिया यदि कार्यम् । एवं च निजभगिनीं श्रीप्रभां देहि मे शीघ्रम् ॥२८॥ अथ भणति प्लवङ्गनाथो मम शिरो मुकुट-कुण्डलाटोपम् । मुक्त्वा जिनवरेन्द्रं न पतति चरणयोरन्यस्य ॥२९॥ वालिवचनावसाने दूतः प्रतिभणति निष्ठुरं वचनम् । तस्य प्रणामेन विना न च जीवं न च तव राज्यम् ॥३०॥ दूतवचनेन रुष्टो व्याघ्रविलम्बी भटो भणत्येवम् । किं स ग्रहेण गृहीत उल्लपति दशानन एवम् ॥३१॥ रे दूत किं न जानासि वालिं बलदर्पगर्वितं धीरम् ? । पृथिवीतले सकले यस्य यशो भ्रमति निःशङ्कम् ॥३२॥ दूतेनापि प्रतिभणितो व्याघ्रविलम्बी सुनिष्ठुरं वचनम् । भाण्डय विलम्बगूढमथवा प्रणामं कुरु गत्वा ॥३३॥ दूतवचनदूनाङ्गो व्याघ्रविलम्ब्यसि नियम्य । प्रहरनेव रुद्धो दूतस्य स्वयं हरिपतिना ॥३४|| किं मारितेन कीयत अनेन दूतेन प्रेषितकारेण ? । यः परवचनोल्लापी नवरं प्रतिशब्द एषः ॥३५॥ Jain Education Intomational For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालिणिव्वाणगमणाहियारो-९/२४-४९ १२३ फरुसवणेहि गाढं, जाहे निब्भच्छिओ गओ दूओ । सव्वं जहाणुभूयं, रक्खसनाहस्स साहइ ॥३६॥ सोऊण वालिवयणं, सन्नद्धो दहमुहो सह बलेणं । अह निग्गओ तुरन्तो, तस्सुवरिं अम्बरतलेणं ॥३७॥ रक्खसतूरस्स रवं, वाली सोऊण अभिमुहो चलिओ । कइसुहडसमाइण्णो, रणरसतण्हालुओ वीरो ॥३८॥ कोवग्गिसंपलित्तो, वाली मंतीहि उवसमं नीओ । बहुभडजीयन्तकरं, मा कुणह अकारणे जुझं ॥३९॥ अह भणइ वाणरिन्दो, संगामे रावणं बलसमग्गं । करयलघायाभिहयं, करेमि सयलं कुलं चुण्णं ॥४०॥ काऊण पावकम्म, एरिसयं भोगकारणहाए । नरय-तिरिएसु दुक्खं, भोत्तव्वं दीहकालम्मि ॥४१॥ पुव्वं मए पइन्ना, आरूढा साहुसन्नियासम्मि । मोत्तूण जिणवरिन्दं, अन्नस्स थुई न कायव्वा ॥४२॥ न करेमि समयभङ्गं, न य जीवविराहणं महाजुज्झं । गिण्हामि जिणुद्दिटुं, पव्वज्जं सङ्गपरिहीणं ॥४३॥ सद्दावेऊण तओ, सुग्गीवं भणइ वच्छ ! निसुणेहि । तस्स करेहि पणामं, मा वा रज्जे मए ठविओ ॥४५॥ ठविऊण कुलाधारं, सुग्गीवं उज्झिऊण गिहवासं । निक्खन्तो च्चिय वाली, पासे मुणिगयणचन्दस्स ॥४६॥ सुद्धक्कभावनिरओ, संजम-तव-नियमगहियपरमत्थो । अन्नोन्नजोगजुत्तो, कम्मक्खयनिज्जरहाए ॥४७॥ चारित्त-नाण-दसण-निम्मलसम्मत्तमोहपरिमुक्को । विहरड़ मुणिवरसहिओ, गामा-ऽऽगरमण्डियं वसुहं ॥४८॥ भुञ्जइ पाणनिमित्तं, पाणे धारेइ धम्मकरणत्थं । धम्मो मोक्खस्स कए, अज्जेइ सया अपरितन्तो ॥४९॥ परुषवचनै गाढं यदा निर्भत्सितो गतो दूतः । सर्वं यथानुभूतं राक्षसनाथस्य कथयति ॥३६॥ श्रुत्वा वालिवचनं सन्नद्धो दशमुखः सह बलेन । अथ निर्गतस्त्वरितस्तस्योपर्यम्बरतलेन ॥३७॥ राक्षसतूर्यस्य खं वाली श्रुत्वाभिमुखश्चलितः । कपिसुभटसमाकीर्णो रणरसतृष्णालुर्वीरः ॥३८॥ कोपाग्निसंप्रदीप्तो वाली मन्त्रिभिरुपशमं नीतः । बहुभटजीवान्तकरं मा कुरुताकारणे युद्धम् ॥३९॥ अथ भणति वानरेन्द्रः संग्रामे रावणं बलसमग्रम् । करतलघाताभिहतं करोमि सकलं कुलं चूर्णम् ॥४०॥ कृत्वा पापकर्मैतादृशं भोगकारणार्थे । नरक-तिर्यक्षु दुःखं भोक्तव्यं दीर्घकालम् ॥४१॥ पूर्वं मया प्रतिज्ञाऽऽरुढा साधुसमीपे । मुक्त्वा जिनवरेन्द्रमन्यस्य स्तुतिर्न कर्तव्या ॥४२।। न करोमि समयभङ्गं न च जीवविराधनं महायुद्धम् । गृह्णामि जिनोद्दीष्टां प्रव्रज्यां सङ्गपरिहीणाम् ॥४३॥ वरनारिस्तनतटोपरि यौ हस्तावालिङ्गनोद्योतौ मम । तौ न कुरुत एतावदन्यस्य शिरोऽञ्जलिप्रणामम् ॥४४|| शब्दायित्वा ततः सुग्रीवं भणति वत्स ! निश्रुणु । तस्य कुरु प्रणामं मा वा मया राज्ये स्थापितः ॥४५॥ स्थाप्य कुलाधारं सुग्रीवमुज्झित्वा गृहवासम् । निष्क्रान्त एव वाली पार्वे मुनिगगनचन्द्रस्य ॥४६|| शुद्धैकभावनिरतः संयम-तपो-नियमगृहीतपरमार्थः । अन्योन्ययोगयुक्तः कर्मक्षयनिर्जरार्थे ।।४७|| चारित्रज्ञानदर्शन-निर्मलसम्यक्त्व-मोहपरिमुक्तः । विहरति मुनिवरसहितो ग्रामाऽऽकरमण्डितां वसुधाम् ॥४८।। भुङ्क्ते प्राणनिमित्तं प्राणान्धारयति धर्मकरणार्थम् । धर्मो मोक्षस्य कृतेऽर्जयति सदाऽपरितन्त्र ॥४९॥ १. सबल इमं चुण्णं-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पउमचरियं सुग्गीवो वि हु कन्नं, सिरिप्पभं देइ रक्खसिन्दस्स । किक्किन्धिमहानयरे, करेइ रज्जं गुणसमिद्धं ॥५०॥ विज्जाहरमणुयाणं, कन्नाओ रूवजोव्वणधरीओ।अक्कमिय विक्कमेणं, परिणेइ दसाणणो ताओ ॥५१॥ निच्चालोए नयरे, निच्चालोयस्स खेयरिन्दस्स । रयणावलि त्ति दुहिया, सिरिदेवीगब्भसंभूया ॥५२॥ तीए विवाहहेडं, पुप्फविमाणट्ठियस्स गयणयले । वच्चन्तस्स निरुद्धं, जाणं अट्ठावयस्सुवरिं ॥५३॥ दट्ठण अवच्चन्तं, पुष्फविमाणं तओ परमरुट्ठो । पुच्छइ रक्खसनाहो, मारीइ ! किमेरिसं जायं? ॥५४॥ अह साहिउँ पयत्तो, मारीई को वि नाह ! मुणिवसहो । तप्पइ तवं सुघोरं, सूराभिमुहो महासत्तो ॥५५॥ रावणस्य अष्टापदे अवतरणम्एयस्स पभावेणं, जाणविमाणं न जाइ परहुत्तं । अवयरह नमोक्कार, करेह मुणि पावमहणस्स ॥५६॥ ओयारियं विमाणं, पेच्छइ कविलासपव्वयं रम्मं । दूरुन्नयसिहरोहं, मेहं पिव सामलयारं ॥५७॥ घणनिवह-तरुणतरुवर-कुसुमालिनिलीणगुमुगुमायारं । निज्झरवहन्तनिम्मल-सलिलोहप्फुसियवरकडयं ॥५८॥ कडयतडकिन्नरोरग-गन्धव्वुग्गीयमहुरनिग्धोसं । मय-महिस-सरह-केसरि-वराह-रुरु-गयउलाइण्णं ॥५९॥ सिहरकरनियरनिग्गय-नाणाविहरयणमणहरालोयं । जिणभवणकणयनिम्मिय-उब्भासेन्तं दस दिसाओ ॥६०॥ अवइण्णो दहवयणो, अह पेच्छइ साहवं तहिं वाली । जाणपइट्ठियभावं, आयावन्तं सिलापट्टे ॥६१॥ सुग्रीवोऽपि हु कन्यां श्रीप्रभां ददाति राक्षसेन्द्राय । किष्किन्धिमहानगरे करोति राज्यं गुणसमृद्धम् ॥५०॥ विद्याधरमनुष्याणां कन्या रुपयौवनधारिण्याः । आक्रम्य विक्रमेन परिणयति दशाननस्ताः ॥५१॥ नित्यालोकेनगरे नित्यालोकस्य खेचरेन्द्रस्य । रत्नावलीति दुहिता श्रीदेवीगर्भसम्भूता ॥५२॥ तस्या विवाहहेतुं पुष्पकविमानस्थितस्य गगनतले । व्रजतो निरुद्धं यानमष्टापदस्योपरि ॥५३॥ दृष्टवाऽव्रजच्छन्तं पुष्पकविमानं ततः परमरुष्टः । पृच्छति राक्षसनाथो मारीचि ! किमिदृशं जातम् ॥५४॥ अथ कथयितुं प्रवृत्तो मारीची कोऽपि नाथ ! मुनिवृषभः । तपते तप:सुघोरं सूर्याभिमुखो महासत्त्वः ॥५५॥ रावणस्य अष्टापदेऽवतरणम्एतस्य प्रभावेन यान-विमानं न याति पराभूतम् । अवतरत नमस्कारं कुरुत मुनये पापमथनाय ॥५६॥ अवतारितं विमानं पश्यति कैलाशपर्वतं रम्यम् । दूरोन्नतशिखरौघं मेघमिव श्यामलाकारम् ॥५७।। धननिवहतरुणतरुवरकुसुमालिनिलीनगुमगुमाकारम् । निर्जरवहन्निर्मलसलिलौघस्पर्शितवरकटकम् ॥५८॥ कटकतटकिन्नरोरग-गान्धर्वोद्गीतमधुर निर्घोषम् । मृग-महिष-शरभ-केसरि-वराह-रुरु-गजकुलाकीर्णम् ।।५९।। शिखरकरनिकरनिर्गतनानाविधरत्नमनोहरालोकम् । जिनभवनकनकनिर्मितोद्भासन्तं दशदिशः ॥६०॥ अवतीर्णो दशवदनोऽथ पश्यति साधुं तत्र वालिम् । ध्यानप्रतिष्ठितभावमातापयन्तं शिलापृष्टे ॥६१॥ १. वालि-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वालिणिव्वाणगमणाहियारो-९/५०-७४ १२५ वित्थिण्णविउलवच्छं, तवसिरिभरियं पलम्बभुयजुयलं । अचलियझाणारूढं, मेरुं पिव निच्चलं धीरं ॥१२॥ संभरिय पुव्ववेरं, भिउडिं काऊण फरुसवयणेहिं । अह भणिऊण पवत्तो, दहवयणो मुणिवरं सहसा ॥६३॥ अइसुन्दरं कयं ते, तवचरणंमुणिवरेण होऊणं । पुव्वावराहजणिए, जेण विमाणं निरुद्धं मे ॥६४॥ कत्तो पव्वज्जा ते ?, कत्तो तवसंजमो सुचिण्णो वि? । जं वहसि राग-दोसं, तेण विहत्थं तुमे सव्वं ॥६५॥ फेडेमि गारवं ते, एयं चिय पव्वयं तुमे समयं । उम्मूलिऊण सयलं, घत्तामि लहुं सलिलनाहे ॥६६॥ काऊण घोररूवं, रुट्ठो संभरिय सव्वविज्जाओ। अह पव्वयस्स हेट्ठा, भूमी भेत्तुं चिय पविट्ठो ॥६७॥ हक्खुविऊण पयत्तो, भुयासु सव्वायरेण उप्पिच्छो । रोसाणलरत्तच्छो, खरमुहररवं पकुव्वन्तो ॥६८॥ आकम्पियमहिवेढं, विहडियदढसन्धिबन्धणामूलं । अह पव्वयं सिरोवरि, भुयासु दूरं समुद्धरइ ॥६९॥ लम्बन्तदीहविसहर-भीउद्दुयविविहसावय-विहङ्गं । तडपडणखुभियनिज्झर-चलन्तघणसिहरसंघायं ॥७०॥ खरपवणरेणुपसरिय-गयणयलोच्छड्यदसदिसायक्कं । जायं तम-ऽन्धयारं, तहियं अट्ठावउद्धरणे ॥७१॥ उव्वेल्ला सलिलनिही, विवरीयं चिय वहन्ति सरियाओ। निग्घायपडन्तरवं, उक्का-ऽसणिगब्भिणं भुवणं ॥७२॥ विज्जाहरा वि भीया, असि-खेडय-कप्प-तोमरविहत्था । किं किं ? ति उल्लवन्ता, उप्पइया नहयलं तुरिया ॥७३॥ परमावहीए भगवं, वाली नाऊण गिरिवरुद्धरणं । अणुकम्पं पडिवन्नो, भरहकयाणं जिणहराणं ॥७४॥ विस्तीर्णविपुलवक्षसं तप:श्रीभृतं प्रलम्बभुजयुगलम् । अचलितध्यानारूढं मेरुमिव निश्चलं धीरम् ।।६२।। स्मारितं पूर्ववैरं भृकुटि कृत्वा परुषवचनैः । अथ भणितुं प्रवृत्तो दशवदनो मुनिवरं सहसा ॥६३॥ अतिसुन्दरं कृतं त्वया तपश्चरणं मुनिवरेण भूत्वा । पूर्वापराधजनितेन येन विमानं निरुद्धं मे ॥६४॥ कुतः प्रव्रज्या ते ? कृतस्तपः संयमः सुचीर्णोऽपि ? । यद्वहसि रागद्वेषं तेन विहस्तं तव सर्वम् ।।६५।। स्फोटयामि गारवं तवैतच्चैव पर्वतं त्वया समकम् । उन्मूल्य सकलं क्षिपामि लघु सलिलनाथे ॥६६॥ कृत्वा घोररुपं रुष्ट स्मारित सर्वविद्यः । अथ पर्वतस्याधोभूमि भित्वैव प्रविष्टः ॥६७।। उत्क्षिप्तुं प्रवृत्तो भूजाभ्यां सर्वादरेण कुपितः । रोषानलरक्ताक्षः खरमुखररवं प्रकुर्वन् ॥६८।। आकम्पितमहीपीठं विघटितदृढसन्धिबन्धनामूलम् । अथ पर्वतं शिरस उपरि भुजाभ्यां दूरं समुद्धरति ॥६९।। लम्बमानदीर्घविषधराभ्युपद्रुतविविधश्वापद-विहङ्गम् । तटपतनक्षुभितनिर्झरचलत्यनशिखरसंघातम् ॥७०॥ खरपवनरेणुप्रसृतगगनतलोच्छादितदशदिक्चक्रम् । जातं तमोऽन्धकारं तदानीमष्टापदोद्धरणे ॥७१॥ उद्वेलाः सलिलनिधयो विपरितमेव वहन्ति सरितः । निर्घातपतद्रवमुल्काऽशनिगर्भिणं भुवनम् ॥७२॥ विद्याधरा अपि भीता असि-खेटक-कल्प-तोमर विहस्ताः । किमित्युल्लपन्त उत्पतिता नभस्तलं त्वरिताः ॥७३।। 'परमावधिना भगवान् वाली ज्ञात्वा गिरिवरोद्धरणम् । अनुकम्पां प्रतिपन्नो भरतकृतानां जिनगृहाणाम् ॥७४॥ १. इत: परमावरितिति कथं लिखितमेतदाचार्यस्याभिप्रायो न ज्ञायते । परमावध्यानन्तरमन्तमूर्हतेनैव केवलज्ञानं भवतीति श्रुतेः । तच्चात्यन्ताप्रमत्तस्यैव क्षपकश्रेणौ गतस्य, अत्रोऽत्र परमावधेखस्था बाले नै सङ्गतिमञ्चति । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पउमचरियं एयाण रक्खणटुं, करेमि न य जीवियव्वयनिमित्तं । मोत्तूण राग-दोसं, पवयणवच्छल्लभावेण ॥७५॥ एव मुणिऊण तेणं, चलणडेण पीलियं सिहरं । जह दहमुहो निविट्ठो, गुरुभरभारोणयसरीरो ॥६॥ विहडन्तमउडमोत्तिय-नमियसिरो गाढसिढिलसव्वङ्गो । पगलन्ततक्खणुप्पन्नसेयसंघायजलनिवहो ॥७७॥ ववगयजीयासेणं, रओ कओ जेण तत्थ अइघोरो । तेणं चिय जियलोए, विक्खाओ रावणो नामं ॥७८॥ सोऊण मुहरवं तं, मूढा सन्नज्झिऊण रणसूरा । किं किं ? ति उल्लवन्ता, भमन्ति पासेसु चलवेगा ॥७९॥ मुणितवगुणेण सहसा, दुन्दुहिसदो नहे पवित्थरिओ । पडिया य कुसुमवुट्ठी, सुरमुक्का गयणमग्गाओ ॥८॥ जाहे अणायरेणं, सिढिलो अङ्गट्टओ कओ सिग्धं । मोत्तूण पव्वयवरं, विणिग्गओ दहमुहो ताहे ॥८१॥ सिग्धं गओ पणाम, दसाणणो मुणिवरं खमावेउं । थोऊण समाढत्तो, तव-नियमबलं पसंसन्तो ॥४२॥ मोत्तूण जिणवरिन्दं, अन्नस्स न पणमिओ तुमं जं से । तस्सेयं बलमउलं, दिदं चिय पायडं अम्हे ॥४३॥ रूवेण य सीलेण य, बलमाहप्पेण धीरपुरिस ! तुमे । सरिसो न होइ अन्नो, सयले वि य माणुसे लोए ॥८४॥ अवकारिस्स मह तुमे, दत्तं चिय जीवियं न संदेहो । तह वि य खलो अलज्जो, विसयविरागं न गच्छामि॥८५॥ धन्ना ते सप्पुरिसा, जे तरुणत्ते गया विरागत्तं । मोत्तूण सन्तविहवं, निस्सङ्गा चेव पव्वइया ॥८६॥ एवं थोऊण मुणी, दसाणणो जिणहरं समल्लीणो । निययजुवईहि सहिओ, रएइ पूयं अहमहन्तं ॥८७॥ एतेषां रक्षणार्थं करोमि न च जीवितव्यनिमित्तम् । मुक्त्वा रागद्वेषं प्रवचनवात्सल्यभावेन ॥५॥ एवं ज्ञात्वा तेन चरणाङ्गुष्टेन पीडितं शिखरम् । यथा दशमुखो निविष्टो गुरुभरभारावनतशरीरः ॥७५।। विघटन्मुकुट-मौक्तिकनतशिरा गाढशिथिलसर्वांगः । प्रगलत्तत्क्षणोत्पन्नस्वेदसंघातजलनिवहः ॥७६।। व्यपगतजीविताशेन रवो कृतो येन तत्रातिघोरः । तेनैव जीवलोके विख्यातो रावणो नाम ॥७८।। श्रुत्वा मुखरवं तं मूढा संन्ना रणशूराः । किकिमित्युल्लपन्तो भ्रमन्ति पार्वेषु चलद्वेगाः ।।७९।। मुनितपोगुणेन सहसा दुन्दुभिशब्दो नभसि प्रविस्तरितः । पतिता च कुसुमवृष्टिः सुरमुक्ता गगनमार्गात् ॥८॥ यदाऽनादरेण शिथीलोऽगुष्टः कृतः शीघ्रम् । मुक्त्वा पर्वतवरं विनिर्गतो दशमुखस्तदा ॥८१।। शीघ्रं गतः प्रणामं दशाननो मनिवरं क्षमयित्वा । स्तोतुं समारब्धस्तपोनियमबलं प्रशंसन् ॥८२॥ मुक्त्वा जिनवरेन्द्रमन्यस्य न प्रणमितस्त्वं यत्तव । तस्येदं बलमतुलं दृष्टमेव प्रकटमस्माभिः ।।८३॥ रुपेण च शीलेन च बलमाहात्म्येन धीरपुरुष ! त्वया । सदृशो न भवत्यन्य: सकले ऽपि च मनुष्ये लोके ॥८४|| अपकारिणे मह्यं त्वया दत्तमेव जीवितं न संदेहः । तथाऽपि च खलो ऽलज्जो विषयविरागं न गच्छामि ॥८५।। धन्यास्ते सत्पुरुषा ये तरुणत्वे गता विरागताम् । मुक्त्वा सद्विभवं निसङ्गा एव प्रव्रजिताः ॥८६॥ एवं स्तुत्वा मुनि दशाननो जिनगृहं समालीनः । निजयुवतिभिस्सहितो रचयति पूजामतिमहतीम् ॥८६॥ तदा चन्द्रहासासिनोत्कर्त्य निजबाहुं सः । स्नायुमयतन्त्रिनिवहं वादयति सविभ्रमं वीणाम् ॥८८॥ १. मुणिं दहवयणो-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ वालिणिव्वाणगमणाहियारो-९/७५-९९ तो चन्दहासअसिणा, उक्कत्तेण निययबाहं सो । हारुमयतन्तिनिवहं, वाए सविब्भमं वीणं ॥४८॥ थोऊण समाढत्तो, पुण्णपवित्तक्खरेहि जिण यन्दं । सत्तसरसंपउत्तं, गीयं च निवेसियं विहिणा ॥८९॥ अष्टापदस्थजिनस्तुति:मोहन्धयारतिमिरं, जेणेयं नासियं चिरपरूढं । केवलकरेसु दूरं, नमामि तं उसभजिणभाj ॥१०॥ अजियं पि संभवजिणं, नमामि अभिनन्दणं सुमइनाहं । पउमप्पहं सुपासं, पणओ हं ससिपभं भयवं ॥११॥ थोसामि पुष्फदन्तं, दन्तं जेणिन्दियारिसंघायं । सिवमग्गदेसणयरं, सीयलसामि पणमिओ हं ॥१२॥ सेयंसजिणवरिन्दं, इन्दसमाणन्दियं च वसुपुज्जं । विमलं अणन्त धम्मं, अणन्नमणसो पणिवयामि ॥१३॥ सन्ति कुन्थु अरजिणं, मल्लिं मुणिसुव्वयं नमि नेमि । पणमामि पास वीरं भवनिग्गमकारणट्ठाए ॥१४॥ जे य भविस्सन्ति जिणा, अणगारा गणहरा तवसमिद्धा । ते वि हु नमामि सव्वे, वाया-मण-कायजोएसु ॥१५॥ गायन्तस्स जिणथुइं, धरणो नाऊण अवहिविसएण । अह निग्गओ तुरन्तो, अट्ठावयपव्वयं पत्तो ॥१६॥ काऊण महापूयं, वन्दित्ता जिणवरं पयत्तेणं । अह पेच्छइ दहवयणं, गायन्तं पङ्कयदलच्छं ॥१७॥ तो भणइ नागराया, सुपुरिस ! अइसाहसं ववसियं ते । जिणभत्तिरायमउलं, मरूं पिव निच्चलं हिययं ॥१८॥ तुट्ठो तुहं दसाणण, जिणभत्तिपरायणस्स होऊणं । वत्थु मणस्स इटुं, जं मग्गसि तं पणामेमि ॥१९॥ स्तोत्तुं समारब्धः पुण्यपवित्राक्षरैर्जिनचन्द्रम् । सप्तस्वरसंप्रयुक्तं गीतं च निवेसितं विधिना ॥८९॥ अष्टापदस्थजिनस्तुतिः - मोहान्धकारतिमिरं येनतेन्नाशितं चिरप्ररूढम् । केवलकरैर्दूरं नमामि ते ऋषभजिनभानुम् ॥१०॥ अजितमपि संभवजिनं नमाम्यभिनन्दनं सुमतिनाथम् । पद्मप्रभं सुपार्वं प्रणतोऽहं शशिप्रभं भगवन्तम् ॥९१॥ स्तवीमि पुष्पदन्तं दन्तं येनेन्द्रियारिसंघातम् । शिवमार्गदेशनाकरं शीतलस्वामिनं प्रणमितोऽहम् ॥९२।। श्रेयांसजिनवरेन्द्रमिन्द्रसमानन्दितञ्च वासुपूज्यम् । विमलमनन्तं धर्ममनन्यमनसः प्रणिपतामि ॥९३॥ शान्ति कुंथुमरजिनं मल्लिं मुनिसुव्रतं नमि नेमिम् । प्रणमामि पार्वं वीरं भवनिर्गमनकारणार्थे ॥१४॥ ये च भविष्यन्ति जिना अणगारा गणधरास्तपः समृद्धाः । तानपि हु नमामि सर्वान् वाचा-मन:-काययोगैः ।।१५।। गायतो जिनस्तुतिं धरणो ज्ञात्वाऽवधिविषयेन । अथ निर्गतस्त्वरिदष्टापदपर्वतं प्राप्तः ॥९६॥ कृत्वा महापूजां वन्दित्वा जिनवरं प्रयत्नेन । अथ प्रेक्षते दशवदनं गायन्तं पङ्कजदलाक्षम् ॥९७|| तदा भणति नागराजा सुपुरुष ! अति साहसं व्यवसितं त्वया । जिनभक्तिरागमतुलं मेरुमिव निश्चलं हृदयम् ।।९८।। तुष्टस्तव दशानन ! जिनभक्तिपरायणस्य भूत्वा । वस्तु मनस इष्टं यन्मार्गयसि तत्प्रददामि अर्पयामि ॥९९।। १. जिणइंदं-प्रत्य० । २. जेणं चिय नासियं-प्रत्य० । ३. सयाणंदियं-मु०। ४. तुट्ठो य तुह-प्रत्य० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ पउमचरियं लङ्काहिवेण सुणिउं, धरणो फणमणिीमऊहदिप्पन्तो । भणिओ किं न यलद्धं, जिणवन्दणभत्तिराएण? ॥१०॥ अहियय परितुट्टो, धरणिन्दो भणइ गिण्हसु पसत्था । सत्ती अमोहविजया, जा कुणइ वसे सुरगणा वि ॥१०१॥ अह रावणेण सत्ती, गहिया अहिउञ्जिऊं सिरपणामं । धरणो वि जिणवरिन्दं, थोऊण गओ निययठाणं ॥१०२॥ अट्ठावयसेलोवरि, मासं गमिऊण तत्थ दहवयणो । अणुचरिउं पच्छित्तं, वालिमुणिन्दं खमावेइ ॥१०३॥ जिणहरपयाहिणं सो, काऊण दसाणणो तिपरिवारं । पत्तो निययपुरवरं, थुव्वन्तो मङ्गलसएसु ॥१०४॥ झाणाणलेण कम्म, दहिऊण पुराकयं निरवसेसं । अक्खयमयलमणहरं, वाली सिवसासयं पत्तो ॥१०५॥ ____ एवंविहं वालिविचेट्ठियं जे, दिणाणि सव्वाणि सुणेन्ति तुट्ठा । काऊण कम्मक्खयदुक्खमोक्खं, ते जन्ति ठाणं विमलं कमेणं ॥१०६॥ ॥ इय पउमचरिए वालिनिव्वाणगमणो नाम नवमो उद्देसो समत्तो ॥ लङ्काधिपेन श्रुत्वा धरण: फणामणिमयूखदीप्यमानः । भणितः किं न च लब्धं जिनवन्दनभक्तिरागेन ? ॥१००॥ अधिकतरं परितुष्टो धरणेन्द्रो भणति गृहाण प्रशस्ता । शक्तिरमोघविजया या करोति वशे सुरगणानपि ।।१०१॥ अथ रावणेन शक्ति गृहीताऽभियुज्य शिरः प्रणामम् । धरणोऽपि जिनवरेन्द्रं स्तुत्वा गतो निजस्थानम् ।।१०२।। अष्टापदशैलोपरिमासं गमयित्वा तत्र दशवदनः । अनुचर्य प्रायश्चित्तं वालिमुनीन्द्रं क्षामयति ॥१०३।। जिनगृहप्रदक्षिणां स कृत्वा दशाननस्त्रिवारम् । प्राप्तो निजकपुरवरं स्तुवन्मङ्गलशतैः ॥१०४।। ध्यानानलेन कर्म दग्ध्वा पुराकृतं निरवशेषम् । अक्षयमचलमनोहरं वाली शिवशाश्वतं प्राप्तः ॥१०५।। एवंविधं वालिविचेष्टितं ये दिनानि सर्वाणि शृण्वन्ति तुष्टाः । कृत्वा कर्मक्षयदुःखमोक्षं ते यान्ति स्थानं विमलं क्रमेण ॥१०६।। ॥ इति पद्मचरित्रे वालिनिर्वाणगमनो नाम नवम उद्देशः समाप्तः ॥ १. मंगलसएहि-प्रत्य०। For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. दहमुहसुग्गीवपत्थाण- सहस्सकिरणअणरण्णपव्वज्जाविहाणं एयं ते परिकहियं, मगहाहिव ! जं पुरा समणुवत्तं । निसुणेहि एगमणसो, भणामि जं अन्नसंबन्धं ॥१॥ जलणसिहखेयरसुया, जोइपुरे सिरिमईए देवीए । ताराहिवसरिसमुही, तारा नामेण वरकन्ना ॥२॥ चक्कङ्कखेयसुओ, पेच्छइ सो अन्नया परिभमन्तो । नामेण साहसगई, दुट्ठो अहिलसइ परिणेउं ॥३॥ मयणसरसल्लियङ्गो, चिन्तेन्तो तीए दंसणोवायं । पेसेइ निययदूए, उवरोवरि मग्गणट्ठा ॥४॥ सुग्गीवो वि कइवरो, तं कन्नं मग्गिऊण आढत्तो । चिन्तेइ जलहियओ, जलणसिहो कस्स देमि ? त्ति ॥५॥ जलसिण मुणिवरो, विणयं काउण पुच्छिओ भयवं ! । कस्सेसा वरकन्ना, होही महिला ? परिकहि ॥६॥ अह भणइ मुणिवरिन्दो, चक्कङ्कसुओ न चेव परमाऊ । होही चिराउसो पुण, सुग्गीवो वाणराहिवई ॥७॥ दीवं वसहं च गयं, परमनिमित्ताइँ विन्नसेऊणं । सुग्गीवस्स वरतणू दत्ता कयमङ्गलविहाणा ॥८॥ परिणेऊण सुतारा, सुग्गीवो उत्तमं विसयसोक्खं । भुञ्जइ पसन्नहियओ, इन्दो इव देवलोम्मि ॥९॥ एवं कमेण तीए, पुत्ता जाया सुरूवलायण्णा । पढमो य अङ्गयभडो, बीओ य भवे जयाणन्दो ॥१०॥ नय मुयइ साहसगई, अणुबन्धं तीए कारणट्ठाए । चिन्तेइ उवायसए, दुक्खियमणसो विगयलज्जो ॥११॥ १०. दशमुखसुग्रीवप्रस्थानसहस्त्रकिरणानरण्यप्रव्रज्याविधानम् एतत्तुभ्यं परिकथितं मगधाधिप ! यत्पुरा समनुवृत्तम् । निशृण्वेकाग्रमनाः भणामि यदन्यसम्बन्धम् ॥१॥ ज्वलनसिंहखेचरसुता ज्योतिः पुरे श्रीमत्या देव्याः । ताराधिपसदृशमुखी तारा नाम्ना वरकन्या ॥२॥ चक्राङ्कखेचरसुतः पश्यति सोऽन्यदा परिभ्रमन् । नाम्ना साहसगतिर्दुष्टोऽभिलषति परिणेतुम् ॥३॥ मदनशरशल्यिताङ्गश्चिन्तयंस्तस्या दर्शनोपायम् । प्रेषयति निजदूतानुपरोपरि मार्गणार्थे ||४|| सुग्रीवोsपि कपिवरस्तां कन्यां मार्गयितुमारब्धः । चिन्तयति यमलहृदयो ज्वलनसिंहः कस्य ददामीति ॥५॥ ज्वलनसिंहेन मुनिवरो विनयं कृत्वा पृष्टो भगवन् । कस्येषा वरकन्या भविष्यति महिला ? परिकथय ||६|| अथ भणति मुनिवरेन्द्र श्चक्राङ्गसुतो नैव परमायुः । भविष्यति चिरायुः पुनः सुग्रीवो वानराधिपतिः ||७|| दीपं वृषभं च गजं परमनिमित्तानि विज्ञाय । सुग्रीवाय वरतनुर्दत्ता कृतमङ्गलविधाना ॥८॥ परिणय्य सुतारां सुग्रीव उत्तमं विषयसुखम् । भुनक्ति प्रसन्नहृदय इन्द्र इव देवलोके ॥९॥ एवं क्रमेण तस्याः पुत्रौ जातौ सुरुपलावण्यौ । प्रथमश्चाङ्गदभटो द्वितीयश्च भवेज्जयानन्दः ॥१०॥ न च मुञ्चति साहसगतिरनुबन्धं तस्यां कारणार्थाय । चिन्तयत्युपायशतान् दुःखितमना विगतलज्जः ॥११॥ १. तुट्ठो - प्रत्य० । पउम भा-१/१७ For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० पउमचरियं कइयाऽरविन्दसरिसं, तीए मुहं विप्फुरन्तबिम्बोटुं । चुम्बीहामि कयत्थो ? पाडलकुसुमं महुयरो व्व ॥१२॥ चिन्तावरेण एवं, संभरिया तत्थ अइबला विज्जा । रूवपरित्तणकरी, साहेइ हिमालयगुहाए ॥१३॥ रावणदिग्विजयः एत्थन्तरे पुरीए, दहवयणो निग्गओ बलुम्मत्तो । दीवन्तरवत्थव्वे, जिणइ तओ खेयरे सव्वे ॥१४॥ संझायार सुवेलो, कञ्चणपुण्णो अओहणो चेव । पल्हाय-हंसदीवाइया उ सव्वे कया सवसा ॥१५॥ एवं चिय दहवयणो, पायालंकारपुरवरसमीवे । आवासिओ सुमणसो, पभूयसामन्तखन्धारो ॥१६॥ खरदूसणो वि एत्तो, सुणिऊण दसाणणं पुरवराओ । अह निग्गओ तुरन्तो पेच्छइ रयणग्धदाणेणं ॥१७॥ तेण वि ससंभमं सो, गाढं सम्माण-दाणविहवेणं । पडिपूइओ सिणेहं, समयं चिय चन्दणक्खाए ॥१८॥ चोद्दस साहस्सीओ, मणरूववियारयाण जोहाणं । दावेइ तक्खणं चिय, रक्खसनाहस्स परितुट्ठो ॥१९॥ विज्जाहरो हिडिम्बो, हेहय डिम्बो य वियड तिजडो य । हय माकोडो सुजडो, उक्को किक्किन्धिनामो य ॥२०॥ तिउमारमुहो य हेमो, बालो कोलावसुन्दरो चेव । एए अन्ने वि बहू, विज्जाहरपत्थिवा सूरा ॥२१॥ अक्खोहिणीसहस्सं, जायं सुहडाण कुलपसूयाणं । बलदप्पगव्वियाणं, रणरसकण्डू वहन्ताणं ॥२२॥ कुम्भ निसुम्भ बिहीसण इन्दइ अह मेहवाहणाईया । साहीणा सयलभडा, कयाइ पासं न मुञ्चन्ति ॥२३॥ कदाऽरविंदसदृशं तस्या मुखं विस्फुरद्विम्बौष्ठम् । चुम्बयिष्यामि कृतार्थः ? पाटलकुसुमं मधुकर इव ॥१२॥ चिन्तापरेणैव संस्मृता तत्रातिबला विद्या । रुपपरिवर्तनकरी साधयति हिमालयगुहायाम् ॥१३॥ रावणदिग्विजयःअत्रान्तरे पुराद् दशवदनो निर्गतो बलोन्मत्तः । द्वीपान्तरवास्तव्यान् जयति ततः खेचरान् सर्वान् ॥१४॥ सन्ध्याकारः सुवेलः कांचनपूर्णोऽयोधन एव । प्रह्लाद-हंसद्वीपादयास्तु सर्वे कृताः स्ववशाः ॥१५॥ एवमेव दशवदनः पाताललङ्कापुरवरसमीपे । आवासितः सुमनाः प्रभुतसामन्तस्कन्धावारः ॥१६।। खरदूषणोऽपीतः श्रुत्वा दशाननं पुरवरात् । अथ निर्गतस्त्वरमाणः पश्यति रत्नार्घ्यदानेन ॥१७॥ तेनाऽपि ससंभ्रमं स गाढं सन्मानदानविभवेन । प्रतिपूजितः स्नेह, सममेव चन्द्रनखया ॥१८॥ चतुर्दश सहस्राणां मनोरुपविकुर्वितानां योद्धानाम् । दापयति तत्क्षणमेव राक्षसनाथस्य परितुष्टः ॥१९॥ विद्याधरो हिडिम्बो हैहयडिम्बश्च विकटस्त्रिजटश्च । हयोमाकोटः सुजट उत्क: किष्किन्धिनामा च ॥२०॥ त्रिपुरामुखश्च हेमो बाल: कोलो वसुन्धरश्च । एते अन्येऽपि बहवो विद्याधर पार्थिवाः शूराः ॥२१॥ अक्षोहिणीसहस्रं ज्ञातं सुभटानां कुलप्रसूतानाम् । बलदर्पगर्वितानां रणरसकन्डू वहताम् ॥२२॥ कुम्भो निशुम्भो बिभीषण इन्द्रजीदथ मेघवाहनादयः । स्वाधीनाः सकलभटाः कदापि पाश्र्वं न मुञ्चन्ति ॥२३।। १. गोवालसुंदरो-प्रत्य०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहसुग्गीवपत्थाण-सहस्सकिरणअणरणपव्वज्जाविहाणं-१०/१२-३४ उप्पन्ना रयणवरा, बहुगुणसंघायधारिणो दिव्वा । देवसहस्सेणं चिय, रक्खिज्जइ एक्कमेक्केणं ॥२४॥ इन्द्रोपरि प्रस्थानम् - सियछत्त-चामरुद्धय-धय-विजयपडाय-वेजयन्तीहिं । पुप्फविमाणारूढो, इन्दस्सुवरिं अह पयट्टो ॥२५॥ गय-रह-विमाण-वाहण-वग्गन्ततुरङ्ग-चडुलपाइक्कं । चलियं दसाणणबलं, उच्छायन्तं गयणमग्गं ॥२६॥ वच्चन्तस्स कमेणं, अत्थं चिय दिणयरो समल्लीणो । विज्झइरिपबरसिहरे, सिबिरनिवेसो को तत्थ ॥२७॥ विज्जाबलेण ओ, सयणा-ऽऽसणविविहपरियणावासो । गमिऊण तत्थ रत्ति, मङ्गलतूरेहि पडिबुद्धो ॥२८॥ आहरणभूसियङ्गो, अह पुणरवि उज्जओ य गयणेणं । वच्चन्तो च्चिय पेच्छइ, विमलजलं नम्मयं विउलं ॥२९॥ कत्थइ सललियपवहा, कत्थइ वरसरविमुक्कसमवेगा। कंत्थइ वियडावत्ता, कल्लोलुच्छलियजलनिवहा ॥३०॥ कत्थइ मयरकराहय-दूरसमुच्छलियमच्छविच्छोहा । कत्थइ तरङ्गरङ्गन्तफेण परिवड्डियावयवा ॥३१॥ कत्थइ पवणाघुम्मिय-तरुकुसुमखिरन्तपिञ्जरतरङ्गा । कत्थइ उभयतडट्ठिय-सारसकलहंसनिग्घोसा ॥३२॥ जलक्रीडाएयारिसगुणकलियं , पवरनई दहमुहो समोइण्णो । अह मज्जिउं पवत्तो, विमलजले, पवरलीलाए ॥३३॥ ताव य उत्तरपासे, नईए माहेसरे महानयरे । राया सहस्सकिरणो, पढमयरं सलिलरइसत्तो ॥३४॥ उत्पन्ना रत्नवरा बहुगुणसंघातधारिणो दिव्याः । देवसहस्रेणैव रक्ष्यत एकमेकेन ॥२४॥ इन्द्रोपरि प्रस्थानम् - श्वेतछत्रचामरोद्धतध्वजविजयपताकावैजयन्तिभिः । पुष्पकविमानारुढ इन्द्रस्योपर्यथ प्रवृत्तः ॥२५॥ गज-रथ-विमान-वाहन-वल्गत्तुरङ्गचटुलपदातिम् । चलितं दशाननबलमुच्छादयद् गगनमार्गम् ॥२६॥ व्रजः क्रमेणास्तमेव दिनकरः समालीनः । विध्यगिरिप्रवरशिखरे शिबिरनिवेशः कृतस्तत्र ॥२७॥ विद्याबलेन रचितः शयनाऽऽसनविविधपरिजनावासः । गमयित्वा तत्र रात्रि मङ्गलतूयः प्रतिबुद्धः ॥२८॥ आभरणभूषिताङ्गोऽथ पुनरप्युद्यतश्च गगनेन । वज्रन्नेव पश्यति विमलजलां नर्मदां विपूलाम् ॥२९॥ कुत्रचित्सललितप्रवाहा कुत्रचिद्वरसरोविमुक्तसमवेगा। कुत्रचिद्विकटावर्ता कल्लोलोच्छलितजलनिवहा ॥३०॥ कुत्रचिन्मकरकराहतदूरसमुच्छलितमत्स्यविक्षोभा । कुत्रचित्तरङ्गरङ्गत्फेण परिवर्धितावयवा ॥३१॥ कुत्रचित्पवनापूर्णिततरुकुसुमक्षरत्पिञ्जरतरङ्गा । कुत्रचिदुभयतटस्थितसारसकलहंसनि?षा ॥३२॥ जलक्रीडाएतादृशगुणकलितां प्रवरनदीं दशमुखः समवतीर्णः । अथ मज्जितुं प्रवृत्तो विमलजले प्रवरलीलया ॥३३।। तावच्चोत्तरपार्वे नद्या माहेश्वरे महानगरे । राजा सहस्रकिरणः प्रथमतरं सलिलरतिसक्तः ॥३४॥ १. अन्नावासुज्जओ-मु० । २. विमलजला नम्मया विउला-मु० । ३. सुसलिलपवहा-मुं० । ४. कलिया पवरनई-मु० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जुवइसहस्सेण समं, कीलइ नइउदयमज्झयारम्मि । उभयतडट्ठियसाहण-सामन्तुग्घुट्ठजसो ॥३५॥ विविहजलजन्तविरइय-निरुद्धजलभरियकूलतीराए । सोहन्ति रमन्तीओ, सहस्सकिरणस्स महिलाओ ॥३६॥ एक्का तत्थ वरतणू, थणजुगलं अंसुएण छायन्ती । अवहरियउत्तरिज्जा, सहस त्ति जले अह निबुड्डा ॥३७॥ ईसामिसे कुविया, उदयं घेत्तूण कोमलकरेसु । कन्तस्स हरिसियमणा, घत्तइ वच्छत्थलाभोए ॥३८॥ इन्दीवरदलनयणा, घेत्तुं इन्दीवरं हणइ अन्ना । अन्नाए सा वि तुरियं आहम्मइ सहसवत्तेहिं ॥३९॥ अन्ना दट्ठूण उरे, नहक्खयं बालचन्दसंठाणं । अवहरियउत्तरिज्जा, छाएइ थणे करयलेणं ॥४०॥ काएत्थ पणयकुविया, मोणं परिगिण्हिऊण वरजुवई । तोसं पुण उवणीया, दइएण सिरप्पणामेणं ॥ ४१ ॥ जाव पसाएइ पिया, एक्का रोसं गया तओ अन्ना । कहकह वि कोवभङ्गो, कओ नरिन्देण जुवईणं ॥४२॥ वत्थायड्ढण-पेल्लण-करपरिहत्थुच्छलन्तसलिलाओ । वञ्चण-वलण-निबुड्डुण-सएसु कीलन्ति जुवईओ ॥४३॥ अङ्गपरिभोगलग्गं, कुङ्कुमधोवन्तपिञ्जरारुणियं । जायं खणेण सलिलं, जुवईहि तर्हि रमन्तीहिं ॥४४॥ एवं रमिऊण निवो, जलजन्तविसज्जिए कए उदए । वियडे नईपुलिणे, लीलाकयभूसणनिओगो ॥४५॥ तावच्चिय दहवयणो ण्हाउत्तिण्णो सियम्बरनियत्थो . ठावेइ कणयपीढे, पडिमाओ जिणवरिन्दाणं ॥ ४६ ॥ वरवालुयापुलीणे, धरियवियाणय- पडायरमणिज्जे । काऊण महापूयं, संथुणइ जिणिन्दपडिमाओ ॥४७॥ तस्स थुणन्तस्स तओ, नइपूरसमोत्थया हिया पूया । रुट्ठो लङ्काहिवई, भणइह किं एरिसं जायं ? ॥४८॥ युवतिसहस्रेण समं क्रीडति नद्युदकमध्ये । उभयतटस्थितसाधनसामन्तोद्धृष्टजयशब्दः ॥३५॥ विविधजलयन्त्रविरचितनिरुद्धजलभृतकुलतीरायाम् । शोभन्ते रमन्त्यः सहस्रकिरणस्य महिलाः ॥३६॥ एका तत्र वरतनुः स्तनयुगलमंशुकेन छादयन्ती । अपहरितोत्तरिया सहसेति जलेऽथ निमग्ना ||३७|| इर्ष्यामिषेण कुपिता उदकं गृहीत्वा कोमलकराभ्याम् । कान्तस्य हर्षितमनाः क्षिपति वक्षः स्थलाभोगे ||३८|| इन्दिवरदलनयना गृहीत्वा इन्दिवरं हन्ति अन्याम् । अन्यायाः साऽपि त्वरितमाहन्ति सहस्रपत्रै : ||३९|| अन्या दृष्ट्वोरसि नखक्षतं बालचन्द्रसंस्थानम् । अपहरितोत्तरिया छादयति स्तनौ करतलेन ||४०|| काचित्प्रणयकुपिता मौनं परिगृह्य वरयुवतिः । तोषं पुनरूपनीता दयितेन शिरः प्रणामेन ॥ ४१ ॥ यावत्प्रसादयति प्रियामेकां रोषं गता ततोऽन्या । कथंकथमपि कोपभङ्गः कृतो नरेन्द्रेण युवतीनाम् ॥४२॥ वस्त्राकर्षण-प्रेरण-करपरिहस्तोच्छलत्सलिला: । वञ्चन-वलन - निमञ्जनशतैः क्रीडन्ति युवतयः ॥४३॥ अङ्गपरिभोगलग्नं कुङ्कुमधावत्पिञ्जरारुणितम् । जातं क्षणेन सलिलं युवतिभिस्तत्र रममाणाभिः ॥४४॥ एवं रन्त्वा नृपो जलयन्त्रविसर्जिते कृते उदके । विकटे नदीपुलिने लीलाकृतभूषणनियोगः ॥४५॥ तावच्चेव दशवदन स्नातोत्तीर्णः श्वेताम्बरपरिहितः । स्थापयति कनकपीठे प्रतिमां जिनवरेन्द्राणाम् ॥४६॥ वरवालुकापुलिने धृतवियातनपताकारमणीये । कृत्वा महापूजां संस्तौति जिनेन्द्रप्रतिमाम् ॥४७॥ तस्य स्वतस्तदा नदीपूर समवस्तृता हृता पूजा । रुष्टो लङ्काधिपति र्भणतीह किमेतादृशं जातम् ? ॥४८॥ १. ईसावसेण - मु० । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दहमुहसुग्गीवपत्थाण- सहस्सकिरणअणरण्णपव्वज्जाविहाणं- १०/३५-६१ एवं अयालसलिलं, भणइ गवेसेह पेसिया पुरिसा । गन्तूण पडिनियत्ता, जं दिट्टं तं निवेदेन्ति ॥४९॥ नाह को विपुरिसो, जुवइसमग्गो नईए पुलिणत्थो । अच्छि लीलायन्तो, सुरो व्व मन्दाइणीसलिले ॥५०॥ तेणेयं नइसलिलं, रुद्धं जलजन्तसंपओगेणं । रमिऊण पुणो मुक्कं, वहइ पहू उब्भावत्तं ॥५१॥ बहुतूरजयालोयण - सद्दं सोऊण परमरुट्टेणं । वीसज्जिया य सुहडा, तस्स वहत्था बलसमग्गा ॥ ५२ ॥ तो पेसिऊण सुहडे, पुणरवि पूया करित्तु पडिमाणं । संथुणइ एगमणसो, दहवयणो मङ्गलसएहिं ॥ ५३ ॥ दशमुखस्य सहस्त्रकिरणेन सह युद्धम् 1 सन्नद्धबद्धकवया, विज्जाहरपत्थिवा गयणमग्गे । दट्ठूण सहसकिरणो, ओइण्णो नइपुलीणाओ ॥५४॥ सोऊण कलयलरखं, माहेसरनयरसन्तिया सुहडा । सन्नज्झिऊण तुरियं, सहस्सकिरणं समल्लीणा ॥५५ ॥ अह जुज्झि पवत्ता, निसायरा भूमिगोयरेहि समं । चक्का - ऽसि सत्ति- तोमर - मोग्गरनिवहं विमुञ्चन्ता ॥ ५६ ॥ रहय-गय-तुरङ्गदप्पिय-अन्नोन्नावडियचडुलपाइक्का । जुज्झन्त सवडहुत्ता, नामं गोत्तं च सावेन्ता ॥५७॥ रक्खसभडेहि भग्गं, निययं दट्ठूण साहणं समरे । रुट्ठो सहस्सकिरणो, आउहनिवहेण पज्जलिओ ॥५८॥ वाहेइ रहवरं सो, रक्खससेन्नस्स अहिमुहं तुरीयं । मुञ्चन्तो सरवरिसं, धारानिवहं व नवमेो ॥५९॥ गरुयपहाराभिहयं, निवडन्तगइन्द-तुरय- पाइकं । विज्जाहराण सेन्नं, जोयणमेत्तं समोसरियं ॥६०॥ पडिहारेणऽक्खाए, निययबले समरदूमियसरीरो । आरूढो दहवयणो, भुवणालङ्कारमत्तगयं ॥६९॥ एतदकालसलिलं भणति गवेषयत प्रेषिताः पुरुषाः । गत्वा प्रतिनिवृत्ता यद् दृष्टं तन्निवेदयति ॥४९॥ अथ नाथ कोऽपि पुरुषः युवति समग्रो नद्याः पुलिनस्थः । आस्ते लीलायन् सुर इव मन्दाकिनी सलिले ॥५०॥ तेनेदं नदीसलिलं रुद्धं जलयन्त्र संप्रयोगेन । रन्त्वा पुन र्मुक्तं वहति प्रभो ! उद्भटावर्तम् ॥५१॥ बहुतूर्यजयालोकनशब्दं श्रुत्वा परमरुष्टेन । विसर्जिताश्च सुभटास्तस्य वधार्था बलसमग्राः ॥५२॥ तदा प्रेष्य सुभटान् पुनरपि पूजां कृत्वा प्रतिमानाम् । संस्तौत्येकाग्रमना दशवदनो मङ्गलशतैः ॥५३॥ दशमुखस्य सहस्त्रकिरणेन सह युद्धम् सन्नद्धबद्धकवचान् विद्याधरपार्थिवान् गगनमार्गे । दृष्ट्वा सहस्रकिरणोऽवतीर्णे नदीपुलिनात् ॥५४॥ श्रुत्वा कलकलरवं माहेश्वरनगरसत्काः सुभटाः । सन्नह्य त्वरितं सहस्रकिरणं समालीनाः ॥५५॥ अथ योद्धुं प्रवृत्ता निशाचरा भूमिगोचरैः समम् । चक्रासिशक्तितोमरमुद्गरनिवहं विमुञ्चन्तः ॥५६॥ रथगजतुरङ्गदर्पितान्योन्यापतितचटुलपदातयः । युद्धयन्ते संमुखा नाम गोत्रं च श्रावयन्तः ॥५७॥ राक्षसभटैर्भग्नं निजकं दृष्टवा साधनं समरे । रुष्टः सहस्रकिरण आयुधनिवहेन प्रज्वलितः ॥५८॥ वाहयति रथवरं स राक्षससैन्यस्याभिमुखं त्वरितम् । मुञ्चन्शरवर्षाधारानिवहमिव नवमेघः ॥५९॥ गुरुकप्रहाराभिहतं निपतद्गजेन्द्रतुरगपदातिम् । विद्याधराणां सैन्यं योजनमात्रं समपसृतम् ॥६०॥ प्रातिहार्येणाख्याते निजकबले समरदवितशरीरः । आरुढो दशवदनो भुवनालङ्कारमत्तगजम् ॥६१॥ १३३ For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ एवं दट्ठूण रणे, दसाणणं आउहाणि मुञ्चन्तं । बहुसमरलद्धविजओ, सहसकिरणो ठिओ पुरओ ॥६२॥ दो पि समावडिए, जुज्झे वहुसत्थघायसंपाए । विरहो सहस्सकिरणो, कओ खणद्धेण संगामे ॥ ६३ ॥ मोत्तू रहवरं सो, आरूढो गयवरं गिरिसरिच्छं । मुञ्चइ सुनिसियबाणे, दहमुहसन्नहरभेयकरे ॥६४॥ सिक्खाहि ताव रावण !, धणुवेयं निययपुरवरिं गन्तुं । ताहे मए समाणं, जुज्झसु ता अवहिओ होउं ॥ ६५ ॥ रत्तारुणसव्वङ्गो, दहवयणो कड्डिऊण सरनिवहं । मुञ्चइ चलग्गहत्थो, सहस्सकिरणस्स देहम्मि ॥ ६६ ॥ जावय सहस्सकिरणो, पहारवसवेम्भलो जणियमोहो । ताव य रक्खसवइणा, गहिओ रणमज्झयारम्मि ॥६७॥ अबन्धिऊण नीओ, निययावासं सविब्भममणेहिं । विज्जाहरेहिं दिट्ठो, सहस्सकिरणो महासत्तो ॥ ६८ ॥ तावच्चिय दिवसयरो, अत्थाओ विगयकिरणसंघाओ । गयणं समोत्थरन्तो, बहलतमो वडिओ सहसा ॥६९॥ ससियरजोण्हाधवले, रणभग्गुच्छाहजणियकम्मन्ते । अक्खयदेहाणं चिय, निद्दाए सुहं गया रयणी ॥७०॥ अह उग्गमम्मि सूरे, सामन्तत्थाणिमज्झयारत्थो । अच्छइ लङ्काहिवई, ताव च्चिय मुणिवरो पत्तो ॥ ७१ ॥ दट्ठूण समणसीहं, सिग्घं अब्भुट्ठिओ कयपणामो । दिन्नासणोवविट्ठो, साहू तवलच्छिसंपन्नो ॥७२॥ ओणमियउत्तिमङ्गो, पुच्छ्इ लङ्काहिवो मुणिवरिन्दं । केणेव कारणेणं, भयवं ! जेणाऽऽगओ एत्थं ? ॥७३॥ भइ ओ मुणिवसह, कुल-बल - विरियाइवण्णणं काउं । माहेसरनयरवई, राया हं आसि 'सयबाहू | पुत्तं सहस्सकिरणं, रज्जे ठविऊण जायसंवेगो । मोक्खत्थं पव्वइओ, जिणवरधम्मुज्जयमईओ ॥७५॥ बद्धं सहस्सकिरणं, सोऊणमिहागओ तुह सगासं । मुञ्चसु इमं सुयं मे रावण ! मा कुणसु वक्खेवं ॥७६॥ ॥७४॥ एवं दृष्ट्वा रणे दशाननमायुधानि मुञ्चन्तम् । बहुसमरलब्धविजयः सहस्राकिरणः स्थितः पुरतः ॥६२॥ द्वयोरपि समापतितयोर्युद्धे बहुशस्त्रघातसंपाते । विरथः सहस्रकिरणः कृत क्षणार्धेन संग्रामे ॥६३॥ मुक्त्या रथवरं स आरुढो गजवरं गिरिसदृशम् । मुञ्चति सुनिवाशितबाणान्दशमुखसन्नाहभेदकरान् ॥६४॥ शिक्षस्वस्तावद्रावण ! धनुर्वेदं निजपुरवरिं गत्वा । तदा मया समानं युद्धस्व ततोऽवहितो भूत्वा ॥६५॥ रक्तारुणसर्वाङ्गो दशवदनः कृष्ट्वा शरनिवहम् । मुञ्चति चलदग्रहस्तः सहस्रकिरणस्य देहे ॥६६॥ यावच्च सहस्रकिरणः प्रहारवशविह्वलो जनितमोहः । तावच्च राक्षसपतिना गृहीतो रणमध्ये ॥६७॥ अथ बद्ध्वा नीतो निजावासं सविभ्रममनोभिः । विद्याधरै दृष्टः सहस्रकिरणो महासत्त्वः ||६८|| तावदेव दिनकरोऽस्तो विगतकिरणसंघातः । गगनं समवस्तरन् बहलतमो वर्धितः सहसा ॥६९॥ शशिकरज्योत्सनाधवले रणभग्नोत्साहजनितकर्मान्ते । अक्षयदेहानामेव निद्रया सुखं गता रजनी ॥७०॥ अथोद्गते सूर्ये सामन्तास्थानिकामध्यस्थः । आस्ते लङ्काधिपतिस्तावदेव मुनिवरः प्राप्तः ॥ ७१ ॥ दृष्ट्वा श्रमणसिहं शीघ्रमब्भ्युत्थितः कृतप्रणामः । दत्तासनोपविष्टः साधुस्तपोलक्ष्मीसंपन्नः ॥७२॥ अवनामितोत्तमाङ्गः पृच्छति लङ्काधिपो मुनिवरेन्द्रम् । केनैव कारणेन भगवन् ! येनागतोऽत्र ? ॥७३॥ भणति ततो मुनिवृषभ: कुल-बल-वीर्यादिवर्णनं कृत्वा । माहेश्वरनगरपती राजाऽहमासीत् शतबाहुः ॥७४॥ पुत्रं सहस्रकिरणं राज्ये स्थापयित्वा जात संवेगः । मोक्षार्थं प्रव्रजितो जिनवरधर्मोद्यतमतिः ॥७५॥ बद्धं सहस्रकिरणं श्रुत्वेहागतस्तव सकाशम् । मुञ्चेमं सुतं मे रावण ! माकुरु व्याक्षेपम् ॥७६॥ पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ दहमुहसुग्गीवपत्थाण-सहस्सकिरणअणरणपव्वज्जाविहाणं-१०/६२-८८ तो भणइ रक्खसिन्दो, पूया पडिमाण विरड्या महई । सा नइपूरेण हिया, एयस्स विचेट्ठियगुणेहिं ॥७७॥ पूयाहरणनिमित्ते, बद्धो य विमाणिओ इमो सुहडो । तुज्झ वयणेण साहव ! मुच्चइ नत्थेत्थ संदेहो ॥७॥ दहमुहवयणेण तओ, सहस्सकिरणो खणेण परिमुक्को ।अह पेच्छइ मुणिवसभं, पणमइ य पयाहिणं काउं॥७९॥ भणिओ य रावणेणं, अज्जपभूई तुमं महं भाया । मन्दोदरीए भइणी, सयंपभा ते पणामेमि ॥८०॥ तो भणइ सहसकिरणो, न य मच्चू कोइ जाणइ विवेगं । सरए व घणायारो, नासइ देहो न संदेहो ॥८१॥ जइ नाम हवइ सारो, इमेसु भोगेसु अइदुरन्तेसु । तो न य गहिया होन्ती, पव्वज्जा मज्झ ताएणं ॥८२॥ ठविऊण निययरज्जे, पुत्तं आपुच्छिऊण दहवयणं । निस्सङ्गो पव्वइओ, सहस्सकिरणो पिउसयासे ॥८३॥ संभरियं चिय वयणं, जंतं अणरण्णमित्तसामक्खं । भणियं अईयकाले, तं एयं परिफुडं जायं ॥८४॥ जइया हं पढमयरं, परिगिण्हीहामि जिणवरं दिक्खं । तइया तुज्झ नराहिव, वत्ता दाहामि निक्खुत्तं ॥८५॥ संपेसिओ य पुरिसो, साकेयपुराहिवस्स गन्तूणं । साहइ जिणवरविहियं, सहस्सकिरणस्स पव्वज्जं ॥८६॥ सुणिऊण पवरदिखं, सहस्सकिरणस्स जणियसंवेगो । अणरण्णो पव्वइओ, पुत्तं ठविऊण रज्जम्मि ॥८७॥ एवं सहस्सकिरणस्स विचेट्ठियं जे, बीयं सुणन्ति अणरणनराहिवस्स। ते उत्तमेसु भवणेसु सुहोवगाढा, देवा भवन्ति विमलोयरकन्तिजुत्ता ॥८८॥ ॥इय पउमचरिए दहमुह-सुग्गीवपत्थाण-सहस्सकिरण-अणरण्णपव्वज्जाविहाणो नाम दसमो उद्देसओ समत्तो॥ तदा भणति राक्षसेन्द्रः पूजा प्रतिमानां विरचिता महती । सा नदीपूरेण हता एतस्य विचेष्टितगुणैः ॥७७।। पूजाहरणनिमित्ते बद्धश्च विमानितोऽयं सुभटः । तव वचनेन साधो ! मुञ्च्यते नास्त्यत्र संदेहः ॥७॥ दशमुखवचनेन तदा सहस्रकिरणः क्षणेन परिमुक्तः । अथ प्रेक्षते मुनिवृषभं प्रणमति च प्रदक्षिणां कृत्वा ॥७९॥ भणितश्चरावणेनाद्यप्रभृतिस्त्वं मम भ्राता । मन्दोदर्याभगिनी स्वयंप्रभा तुभ्यं प्रददामि ।।८०।। तदा भणति सहस्रकिरणो न च मृत्यु कोऽपि जानाति विवेकम् । शरदीव घनाकारो नश्यति देही न संदेहः ॥८१॥ यदि नाम भवति सार इमेषु भोगेष्वतिदुरन्तेषु । तदा न च गृहीता भवेत् प्रव्रज्या मम तातेन ॥८२॥ स्थापयित्वा निजकराज्ये पुत्रमापृच्छय दशवदनम् । निःसङ्गः प्रव्रजितः सहस्रकिरणः पितृसकाशे ॥८३|| स्मृतमेव वचनं यत्तदनरण्यमित्रसमक्षम् । भणितमतीतकाले तदेतत्परिस्फुटं जातम् ॥८॥ यदाहं प्रथमतरं परिग्रहीष्यामि जिनवरदिक्षाम् । तदा तुभ्यं नराधिप! वार्ता दास्यामि निश्चयेन ॥८५।। संप्रेषितश्च पुरुषः साकेतपुराधिपस्य गत्वा । कथयति जिनवरविहितां, सहस्त्रकिरणस्य प्रवज्यां ।। ८६ ॥ श्रुत्वा प्रवरदिक्षां सहस्त्रकिरणस्य जनितसंवेगः । अनरण्यः प्रव्रजितः पुत्रं स्थापयित्वा राज्ये ॥८७॥ एवं सहस्रकिरणस्य विचेष्टितं ये द्वितीयं श्रुण्वन्त्यनरण्यनराधिपस्य । ते उत्तमेषु भवनेषु सुखोपगाढा देवा भवन्ति विमलोदारकान्तियुक्ताः ॥८८।। ॥ इति पद्म चरित्रे दशमुखसुग्रीवप्रस्थान-सहस्रकिरणानरण्यप्रव्रज्याविधानो नाम दशम उद्देशः समाप्तः॥ १. यरभत्तिजुत्ता-प्रत्य०। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११. मस्यजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो अह रावणो नरिन्दो, जे जे पुहईयलम्मि विक्खाया । ते ते जिणिऊण वसे, ठवेइ विज्जाबलसमग्गो ॥१॥ सव्वे काऊण वसे, महिवाले विविहदेससंभूए । रह-गय-तुरङ्ग-वाहण-पभूयजोहाउलाडोवे ॥२॥ कारेड जिणहराणं, समारणं जुण्ण-भग्ग-पडियाणं । पूया य बहुवियप्पा, विरएइ जिणिन्दपडिमाणं ॥३॥ जिणवरपडिकुट्ठा पुण, विद्धंसइ पूयई य समणवरे । एवं परिहिण्डमाणो, पुव्वदिसि पत्थिओ नवरं ॥४॥ अह पत्तो नरवसहो, तेण सुओ रायपुरवरे नयरे । लोइयसत्थत्थरओ, उवउत्तो जन्नकम्मन्ते ॥५॥ यज्ञोत्पत्तिः - सुणिऊण जन्नवयणं, पुच्छड़ मगहाहिवो मुणिपसत्थं । जन्नस्स समुप्पत्ती, कहेह भयवं ! परिफुडं मे ॥६॥ अह भाणिउं पयत्तो, अणयारो सुमहुराए वाणीए ।आसि अओज्झाहिवई, इक्खागुकुलुब्भवो राया ॥७॥ नामेण महासत्तो, अजिओ भज्जा य तस्स सुरकन्ता । पुत्तो य वसुकुमारो, गुरुसेवाउज्जयमईओ ॥८॥ खीरकयम्बो त्ति गुरू, सत्थिमई हवइ तस्स वरमहिला । पुत्तो वि हु पबओ, नारयविप्पो हवइ सीसो ॥९॥ अह अन्नया कयाई, सत्थं आरएणयं वणुद्देसे । कुणइ तओ अज्झयणं, सीससमग्गो उवज्झाओ ॥१०॥ ११. मस्यज्ञविध्वंसन-जनपदानुरागाधिकारः । अथ रावणो नरेन्द्रो ये ये पृथिवीतले विख्याताः । तांस्तान्नित्वा वशे स्थापयति विद्याबलसमग्रः ॥१॥ सर्वान्कृत्वा वशे महिपालान्विविधदेशसम्भूतान् । रथ-गज-तुरङ्ग-वाहनप्रभूतयोधाकुलाटोपान् ॥२॥ कारयति जिनगृहाणां समारचनं जीर्ण-भग्न-पतितानाम् । पूजां च बहुविधां विरचयति जिनेन्द्रप्रतिमानाम् ॥३॥ जिनवरप्रतिकृष्टाः पुनर्विध्वंसते पूजयति च श्रमणवरान् । एवं परिहिण्डमानः पूर्वदिशं प्रस्थितो नवरम् ॥४॥ अथे तो नरवृषभस्तेन श्रुतो राजपुरवरे नगरे । लौकिकशास्त्रार्थरत उपयुक्तो यज्ञकर्मणि ॥५॥ यज्ञोत्पत्ति:श्रुत्वा यज्ञवचनं पृच्छति मगधाधिपो मुनिप्रशस्तम् । यज्ञस्य समुत्पत्तिः कथय भगवन् ! परिस्फुटं मम ॥६॥ अथ भणितुं प्रवृतोऽणगार: सुमधुरया वाण्या । आसीदयोध्याधिपतिरिक्ष्वाकुकुलसमुद्भवो राजा ॥७॥ नाम्ना महासत्त्वोऽजितो भार्या च तस्य सुरकान्ता । पुत्रश्च वसुकुमारो गुरुसेवोद्यतमतिः ॥८॥ क्षीरकदम्ब इति गुरुः स्वस्तिमती भवति तस्य वरमहिला । पुत्रोऽपि हु पर्वतको नारदविप्रो भवति शिष्यः ॥९॥ अथान्यदा कदाचित् शास्त्रमारण्यकं वनोद्देशे । करोति ततोऽध्ययनं, शिष्यसमग्र उपाध्यायः ॥१०॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ मस्यजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो-११/१-२३ अह बम्भणस्स परओ, आगासत्थेण तेह साहूणं । जीवाण दयट्ठाए, भणियं अणुकम्पजुत्तेणं ॥११॥ चउसु वि जीवेसु सया एक्को वि हु नरयगामिओ भणिओ। सुणिऊण उवज्झाओ, खीरकयम्बो तओ भीओ ॥१२॥ वीसज्जिया सहाया, निययघरं तो लहुं समल्लीणा । भणिओ सत्थिमईए, पुत्त ! पिया ते न एत्थाऽऽओ ॥१३॥ तेणं तीए सिटुं, एही ताओ अवस्स दिवसन्ते । तदसणूसुयमणा, अच्छइ मग्गं पलोयन्ती ॥१४॥ अत्थमिओ च्चिय सूरो, तह वि घरं नागओ उवज्झाओ । सोगभरपीडियङ्गी, सत्थिमई मुच्छिया पडिया ॥१५॥ आसत्था भणइ तओ, हा ! कटुं मन्दभागधेज्जाए। किं मारिओ सि दइओ !, एगागी कं दिसं पत्तो ? ॥१६॥ किं सव्वसङ्गरहिओ, पव्वइओ तिव्वजायसंवेगो ? । एवं विलवन्तीए, निसा गया दुक्खियमणाए ॥१७॥ अरुणुग्गमे पयट्टो, पव्वयओ गुरुगवेसणट्ठाए । पेच्छइ नईतडत्थं, पियरं समणाण मज्झम्मि ॥१८॥ निग्गन्थं पव्वइयं, दट्टण गुरुं कहेइ जणणीए । सुणिऊण अइविसण्णा, सत्थिमई दुक्खिया जाया ॥१९॥ अह नारओ वि तइया, गुरुपत्तिं दुक्खियं सुणेऊणं । आगन्तूण पणामं, करेइ संथावणं तीए ॥२०॥ तइया जियारिराया, पव्वइओ वसुसुयं ठविय रज्जे । आगासनिम्मलयरं, फलिहमयं आसणं दिव्वं ॥२१॥ पव्वयर-नारयाणं, तच्चत्थनिरूवणी कहा जाया। अह नारएण भणियं, दविहो धम्मो जिणक्खाओ ॥२२॥ पढममहिंसा सच्चं, अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च । सव्वपरिग्गहविरई, महव्वया होन्ति पञ्च इमे ॥२३॥ अथ ब्राह्मणस्य पुरत आकाशस्थेन तेन साधुना । जीवानां दयार्थे भणितमनुकम्पायुक्तेन ॥११॥ चतुर्ध्वपि जीवेषु सदैकोऽपि हु नरकगामी भणितः । श्रुत्वोपाध्यायः क्षीरकदम्बकस्तदा भीतः ॥१२॥ विसजिताः सहाया निजगहं तदा लघ समालीनाः । भणितो स्वस्तिमत्या पत्र ! पिता तव नात्राऽऽगत: तेन तस्याः शिष्टमेष्यति तातोऽवश्यं दिवसान्ते । तदर्शनोत्सुकमना आस्ते मार्ग प्रलोकमाना ॥१४|| अस्तमित एव सूर्यस्तथापि गृहं नागत उपाध्यायः । शोकभरपीडिताङ्गी स्वस्तिमती मूच्छिता पतिता ॥१५॥ आस्वस्ता भणति ततो हा ! कष्टं मन्दभागधेयायाः । किं मारितोऽस्ति दयित एकाकी कां दिशं प्राप्तः ॥१६।। किं सर्वसङ्गरहितः प्रव्रजितस्तीव्रजातसंवेग: ? । एवं विलपन्त्या निशा गता दुःखितमनसः ॥१७॥ अरुणोद्गमे प्रवृत्तः पर्वतको गुरुगवेषणार्थे । प्रेक्षते नदीतटस्थं पितरं श्रमणानां मध्ये ॥१८॥ निग्रंथं प्रव्रजितं दृष्ट्वा गुरुं कथयति जनन्यै । श्रुत्वातिविषण्णा स्वस्तिमती दुःखिता जाता ॥१९॥ अथ नारदोऽपि तदा गुरुपनि दुःखितां श्रुत्वा । आगत्य प्रणामं करोति संस्थापनं तस्याः ॥२०॥ तदा जितारिराजा प्रव्रजितो वसुसुतं स्थापयित्वा राज्ये । आकाशनिर्मलतरं स्फटिकमयमासनं दिव्यम् ॥२१॥ पर्वतक-नारदयोस्तत्त्वार्थनिरुपिणी कथा जाता । अथ नारदेन भणितं द्विविधो धर्मो जिनाख्यातः ॥२२॥ प्रथममहिंसा सत्यमदत्तपरिवर्जनञ्च बह्म च । सर्वपरिग्रहविरति महाव्रता भवन्ति पञ्च इमे ॥२३॥ १. रावणस्स-प्रत्य० । २. पिईए-मु० । पउम. भा-१/१८ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ पउमचरियं सेसा अणुव्वयधरा, गिहिधम्मपरा हवन्ति जे मणुया। पुत्ताइभेयजुत्ता, अतिहिविभागे य जन्ने य ॥२४॥ एत्तो अजेसु जन्नो, कायव्वो नारओ भणइ एवं । ते पुण अजा अविज्जा, जवाइयंकूरपरिमुक्का ॥२५॥ तो पव्वएण भणियं, वुच्चन्ति अजा पसून संदेहो । ते मारिऊण कीरइ, जन्नो एसा भवइ दिक्खा ॥२६॥ तो नारएण भणिओ, पव्यओ मा तुमं अलियवादी । होऊण जासि नरयं, दुक्खसहस्साण आवासं ॥२७॥ भणइ तओ पव्वयओ, अत्थि वसू अम्ह एत्थ मज्झत्थो । एगगुरुगहियविज्जो, तस्स य वयणं पमाणं मे ॥२८॥ अह पव्वएण य लहुं, माया वीसज्जिया वसुसयासं । भणइ पहु ! पक्खवायं, पुत्तस्स महं करेज्जासि ॥२९॥ अह उग्गयम्मि सूरे, पव्यओ नारओ य जणसहिया । पत्ता नरिन्दभवणं, जत्थऽच्छइ वसुमहाराया ॥३०॥ भणिओ य नारएणं, वसुराया सच्चवाइणो तुम्हे । जं गुरुजणोवइटुं, तं चिय वयणं भणेज्जाहि ॥३१॥ जइ वीहिया अविज्जा, वुच्चन्ति अजा पसू गुरुवइट्ठा । एयाणं एक्कयरं, भणाहि सच्चेण सत्तो सि ॥३२॥ अह भणइ वसुनरिन्दो, तच्चत्थं पव्वएण उल्लवियं । अलियं नारयवयणं, न कयाइ सुयं गुरुसयासे ॥३३॥ एवं च भणियमेत्ते, फलिहामयआसणेण समसहिओ।धरणिं वसू पविट्ठो, असच्चवाई सहामाझे ॥३४॥ पुढवी जा सत्तमिया, महातमा घोरवेयणाउत्ता । तत्थेव य उववन्नो, हिंसावयणालियपलावी ॥३५॥ धिद्धि ! त्ति अलियवाई, पव्वयय-वसू जणेण उग्घुटुं । पत्तो च्चिय सम्माणं, तत्थेव य नारओ विउलं ॥३६॥ शेषा अणुव्रतधरा गृहिधर्मपरा भवन्ति ये मनुष्याः । पुत्रादिभेदयुक्ता अतिथिविभागे च यज्ञे च ॥२४॥ इतोऽजैर्यज्ञः कर्तव्यो नारदो भणत्येव । ते पुनरजा अविद्या जवाद्यंकुरपरिमुक्ताः ॥२५॥ तदा पर्वतेन भणितमच्यन्त अजाः पशवो न संदेहः । तान मारयित्वा क्रीयते यज्ञ एषा भवति दीक्षा ॥२६॥ तदा नारदेन भणितः पर्वतको मा त्वमलिकवादी । भूत्वा यासि नरकं दुःखसहस्राणामावासम् ॥२७॥ भणति ततः पर्वतकोऽस्ति वसुरस्माकमत्र मध्यस्थः । एकगुरुगृहीतविद्यस्तस्य च वचनं प्रमाणं मे ॥२८॥ अथ पर्वतेन च लघु माता विसर्जिता वसुसकाशम् । भणति प्रभो ! पक्षपातं पुत्रस्य मम कुरु ॥२९॥ अथोद्गते सूर्ये पर्वतको नारदश्च जनसहितौ । प्राप्तौ नरेन्द्रभवनं यत्राऽस्ते वसुमहाराजा ॥३०॥ भणितश्च नारदेन वसुराजन् सत्यवादी त्वम् । यद्गुरूजनोपदिष्टं तदेव वचनं भण ॥३१॥ यदि व्रीहिका अविद्या उच्यन्ते अजा पशवो गुरुपदिष्टाः । एतयोरेकतरं भण सत्येन सत्योऽसि ॥३२॥ अथ भणति वसुनरेन्द्रस्तथ्यार्थं पर्वतकेनोल्लपितम् । अलिकं नारदवचनं न कदाचित्श्रुतं गुरुसकाशे ॥३३॥ एवं च भणितमात्रे स्फटिकमयासनेन समसहितः । धरणिं वसुःप्रविष्टोऽसत्यवादी सभामध्ये ॥२४॥ पृथिवी या सप्तमिका महातमा घोरवेदनायुक्ता । तत्रैव चोत्पन्नो हिंसावचनालिकप्रलापी ॥३५॥ धिग्धिगित्यलिकवादिनौ पर्वतक-वसू जनेनोद्दष्टम् । प्राप्त एव सन्मानं तत्रैव च नारदो विपुलम् ॥३६॥ १. सुत्ताइ-प्रत्य०। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्यजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो - ११ / २४-४८ पावो वि हु पव्वयओ, जणधिक्कारेण दूमियसरीरो । काऊण कुच्छियतवं, मरिऊणं रक्खसो जाओ ॥३७॥ सरिऊण पुव्वजम्मं, जणवयधिक्कारदूसहं वयणं । वेरपडिउञ्चणत्थे, बम्भणरूवं तओ कुइ ॥३८॥ बहुकण्ठसुत्तधारी, छत्त- कमण्डलु-गणित्तियाहत्थो । चिन्तेइ अलियसत्थं, हिंसाधम्मेण संजुत्तं ॥३९॥ सोऊण तं कुसत्थं, पडिबुद्धा तावसा य विप्पा य । तस्स वयणेण जन्नं, करेन्ति बहुजन्तुसंबाहं ॥४०॥ गोमेहनामधेए, जन्ने पायाविया सुरा हवइ । भणड़ अगम्मागमेणं, कायव्वं नत्थि दोसो त्थ ॥४१॥ पितिमेह-माइमेहे, रायसुए आसमेह - पसुमे । एएसु मारियव्वा, सएसु नामेसु जे जीवा ॥४२॥ जीवा मारेयव्वा, आसवपाणं च होइ कायव्वं । मंसं च खाइयव्वं जन्नस्स विही हवइ एसा ॥४३॥ एवं विमोहयन्तो, भणइ जणं रक्खसो महापावो । तिविहं च परिग्गहिओ, तस्सुवएसो अभविएहिं ॥४४॥ हिंसाजन्नं तु इमं, सेणिय ! जे परिहरन्ति भवियजणा । ते जन्ति देवलोगं, जिणवरधम्मुज्जयमईया ॥४५॥ ताव च्चिय दहवयणो, रायपुरं पत्थिओ जणसमिद्धं । मरुओ त्ति नाम राया, जत्थऽच्छइ जन्नवाडत्थो ॥४६॥ जन्नारम्भं सुणिऊण बम्भणा तत्थ आगया बहवे । पसवो य विविहरूवा, बद्धा अच्छन्ति दीणमुहा ॥४७॥ गयणेण वच्चमाणो, पेच्छइ तं नारओ जणसमूहं । परमकुतूहलभावो, तं चिय नयरं समोइण्णो ॥ ४८ ॥ पापोऽपि हु पर्वतको जनधिक्कारेण दवितशरीरः । कृत्वा कुत्सिततपो मृत्वा राक्षसो जातः ||३७|| स्मृत्वा पूर्वजन्म जनपदधिक्कारदुःसहं वचनम् । वैरप्रत्युञ्चनार्थे ब्राह्मणरूपं ततः करोति ॥३८॥ बहुकण्ठसूत्रधारीछत्रकमण्डलुरुद्राक्षमालाहस्तः । चिन्तयत्यलिकशास्त्रं हिंसाधर्मेण संयुक्तम् ॥३९॥ श्रुत्वा तत्कुशास्त्रं प्रतिबुद्धास्तापसाश्च विप्राश्च । तस्य वचनेन यज्ञं कुर्वन्ति बहुजन्तुसंबाधम् ॥४०॥ गोमेघनामधेये यज्ञे पायिता सूरा भवति । भणत्यगम्यगमनं कर्तव्यं नास्ति दोषोऽत्र ॥४१॥ पितृमेघ-मातृमेघौ राजसूयो अश्वमेघ - पशूमेघौ । एतेषु मारयितव्या स्वेषु नामसु ये जीवाः ॥४२॥ जीवा मारयितव्या आसवपानं च भवति कर्तव्यम् । मांसं च खादितव्यं यज्ञस्य विधिर्भवत्येषः ॥४३॥ एवं विमुह्यन् भणति जनं राक्षसो महापापः । त्रिविधं च परिगृहीतस्तस्योपदेशोऽभव्यैः ॥४४॥ हिंसायज्ञं त्वमेनं श्रेणिक ! ये परिहरन्ति भविकजनाः । ते यान्ति देवलोकं जिनवरधर्मोद्यतमतयः ॥ ४५ ॥ तावदेव दशवदनो राजपुरं प्रस्थितो जनसमृद्धम् । मरुदिति नाम राजा यत्राऽऽस्ते यज्ञवाटस्थः ॥४६॥ यज्ञारम्भं श्रुत्वा ब्राह्मणास्तत्राऽऽगता बहवः । पशवश्च विविधरुपा बद्धा आसते दीनमुखाः ॥४७॥ गगनेन व्रजन् प्रेक्षते तं नारदो जनसमूहम् । परमकुतूहल भावस्तदेव नगरं समवतीर्णः ॥४८॥ १. जणधिक्कारेण दूसहं - मु० । २. गम्मं - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only १३९ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० पउमचरियं नारदस्वरूपम् - पुच्छड् मगहाहिवई, भयवं ! को नारओ ? सुओ कस्स ? । के व गुणा से अहिया ? कहेहि मे कोउयं गुरुयं ॥४९॥ भणइ तओ गणनाहो, विप्पो नामेण अत्थि बम्भरुई । महिला से वरकुम्मी, सा गुरुभारा समणुजाया ॥५०॥ कालन्तरेण केणइ, विहरन्ता साहवो तमुद्देसं । पत्ता तावसनिलयं, तेहि य परिवारिया तुरियं ॥५१॥ दिन्नासणोवविठ्ठा, साहू पेच्छन्ति तत्थ बम्भरुई । महिला य तस्स कुम्मी, गुरुभारा पीणथणजुयला ॥५२॥ अह साहवेण भणियं, संसारसहावजाणियच्छेणं । हा ! कटुं कह जीवा, नच्चाविज्जन्ति कम्मेसु ? ॥५३॥ चइऊण बन्धवजणं, गिहवासं चेव धम्मबुद्धीए । गहिओ तावसधम्मो, तह वि य सङ्गं न छड्डेइ ॥५४॥ जह छड्डिऊण भत्तं, पुणरविलोगो न भुञ्जइ अभक्खं । तह छड्डिऊण कम्मं, न करेन्ति जई अकरणिज्जं ॥५५॥ चइऊण महिलियं जो, पुणरवि सेवेइ लिङ्गरूवेणं । सो पावमोहियमई, दीहं अज्जेइ संसारं ॥५६॥ सोऊण समणवयणं, पडिबुद्धो तक्खणेण बम्भरुई । जिणदिक्खं पडिवन्नो, सव्वं सङ्गं पयहिणं ॥५७॥ कुम्मी वि सुणिय धम्मं, मोत्तूण कुदिट्ठिजिणसुइमईया । अह दारयं पसूया, दसमे मासे अरण्णम्मि ॥५८॥ संभरिय साहुवयणं, असासयं जाणिऊण मणुयत्तं । संवेगसमावन्ना, कुम्मी चिन्तेइ हियएणं ॥५९॥ रण्णे समुद्दमज्झे, जलणे गिरिसिहर-कन्दरत्थं वा । रक्खन्ति पयत्तेणं, पुरिसं निययाइँ कम्माई ॥६०॥ नारदस्वस्पम् - पृच्छति मगधाधिपति भगवन् । को नारद: ? सुतः कस्य ? । के वा गुणा तस्याधिकाः ? कथय मे कौतुकं गुरुकम् ॥४९॥ भणति ततो गणनाथो विप्रो नाम्नाऽस्ति ब्रह्मरुचिः । महिलातस्य वरकूर्मी सा गुर्विणी समनुजाता ॥५०॥ कालान्तरेण केचिद्विहरन्तः साधवस्तमुद्देशम् । प्राप्तास्तापसनिलयं तैश्च परिवारितास्त्वरितम् ।।५१|| दत्ताऽऽसनोपविष्टाः साधवः पश्यन्ति तत्र ब्रह्मरुचिम् । महिलां च तस्यकूर्मी गुरुभारां पीनस्तनयुगलाम् ।।५२।। अथ साधुना भणितं संसारस्वभावज्ञापिताच्छेन । हा ! कष्टं कथं जीवा नर्त्यन्ते कर्मभिः ॥५३॥ त्यक्त्वा बन्धुजनं गृहवासमेव धर्मबुद्ध्या । गृहीतस्तापसधर्मस्तथापि च सङ्गं न छर्दयति (मुञ्चति) ॥५४|| यथा मुक्त्वा भक्तं पुनरपि लोको न भुङ्क्ते अभक्ष्यम् । तथा मुक्त्वा कर्म न कुर्वन्ति यद्यकरणीयम् ॥५५।। त्यक्त्वा महिलां यः पुनरपि सेवते लिङ्गरुपेण । स पापमोहितमति र्दीर्घमर्जयति संसारम् ॥५६॥ श्रुत्वा श्रमणवचनं प्रतिबुद्धस्तत्क्षणेन ब्रह्मरुचिः । जिनदीक्षां प्रतिपन्नः सर्वं सङ्गं प्रहाय ॥५७॥ कूर्म्यपि श्रुत्वा धर्मं त्यक्त्वा कुदृष्टिं जिनसुचिमत्या । अथ दारकं प्रसूता दशमे मासे ऽरण्ये ॥५८|| स्मृत्वा साधुवचनमशाश्वतं ज्ञात्वा मनुष्यत्वम् । संवेगसमापन्ना कूर्मी चिन्तयति हृदयेन ॥५९॥ अरण्ये समुद्रमध्ये ज्वलने गिरिशिखरकन्दरस्थं वा । रक्षन्ति प्रयत्नेन पुरुषं निजकानि कर्माणि ॥६०॥ १. पावेइ-प्रत्य०। For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ मस्यजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो-११/४९-७४ गहियाउहेहि जइ वि हु, रक्खिज्जइ पञ्जरोयरत्थो वि । तह वि हु मरइ निरुत्तं, पुरिसो संपत्थिए काले ॥१॥ एवं सा परमत्थं, मुणिऊण विमुच्च बालयं रणे । आणत्था लोगपुरं, गन्तुं अज्जाए पासम्मि ॥६२॥ अह इन्दमालिणीए, पव्वइया तिव्वजायसंवेगा । काऊण समाढत्ता, तवचरणं तग्गयमईया ॥३॥ अह सो वि तत्थ बालो, आगासत्थेहि जम्भयगणेहिं । दट्टण य अवहरिओ, पुत्तो इव पालिओ नेउं ॥६४॥ सत्थाणि सिक्खवेलं, दिन्ना आगासगामिणी विज्जा । संपुण्णजोव्वणो सो, जाओ जिणसासणुज्जुत्तो ॥६५॥ दट्टण निययजणणी, परिणाया अङ्गमङ्गचिन्धेहिं । तुट्ठो लएइ धम्मं, उत्तमचारित्त-सम्मत्तं ॥६६॥ कन्दप्प-कुक्कुयरई, निच्चं गन्धव्व-कलहतल्लिच्छो । पुज्जो य नरवईणं, हिण्डइ पुहवी जहिच्छाए ॥६७॥ देवेहि रक्खिओ जं, देवगई देवविब्भमुल्लावो । देवरिसि त्ति पयासो, जाओ च्चिय नारओ लोए ॥६८॥ गयणेण वच्चमाणो, जणनिवहं पेच्छिऊण अवइण्णो । भणइय मरुयनरिन्दं, किं कज्जं ते समाढत्तं ? ॥६९॥ पसवो य बहुवियप्पा, बद्धा अच्छन्ति केण कज्जेणं? । केणेव कारणेणं, इहागया बम्भणा बहवे ? ॥७०॥ संवत्तएण भणिओ, विप्पेणं किं न याणसे जन्नं । मरुयनरिन्देण कयं, परलोगटे महाधम्मं ? ॥७१॥ जो चउमुहेण पुव्वं, उवइट्ठो वेयसत्थनिष्फण्णो । जन्नो महागुणो वि हु, कायव्वो तीसु वण्णेसु ॥७२॥ काऊण वेदिमझे, मन्तेसु पसू हवन्ति हन्तव्वा । देवा य तप्पियव्वा, सोमाईया पयेत्तेणं ॥७३॥ एसो धुवो त्ति धम्मो, जोएण य पायडो कओ लोए । इन्दिय-मणाभिरामं, देइ फलं देवलोगम्मि ॥७४॥ गृहीतायुधै यद्यपि हु रक्ष्यते पञ्जरोदरस्थोऽपि । तथापि हु म्रियते निश्चयं पुरुषः संप्रस्थिते काले ॥६१॥ एवं सा परमार्थं ज्ञात्वा विमुञ्च्य बालकमरण्ये । आज्ञास्था लोकपुरं गत्वाऽऽर्यायाः पार्वे ॥६२॥ अथेन्द्रमालिन्या प्रव्रजिता तीव्रजातसंवेगा । कर्तुं समारब्धा तपश्चरणं तद्गतमतिका ॥६३॥ अथ सोऽपि तत्र बाल आकाशस्थै जृम्भकगणैः । दृष्ट्वा चापहृतः पुत्र इव पालितो नीत्वा ॥६४|| शास्त्राणि शिक्षयित्वा दत्ता ऽऽकाशगामिनी विद्या । संपूर्णयौवनः स जातो जिनशासनोद्यतः ॥६५॥ दृष्ट्वा निजजननीं परिज्ञाताङ्गमङ्गचिह्नः । तृष्टो लाति धर्ममृत्तमचारित्रसम्यक्त्वम् ॥६६॥ कन्दर्प-कौकुच्यरति नित्यं गांधर्वकलहतत्परः । पूज्यश्च नरपतीनां हिण्डति पृथिवीं यथेच्छया ॥६७।। देवै रक्षितो यद् देवगति देवविभ्रमुल्लापः । देवर्षिरिति प्रकाशो जात एव नारदो लोके ॥६८॥ गगनेन व्रजन् जननिवहं प्रेक्ष्यावर्तीर्णः । भणति च मरुन्नरेन्द्रं किं कार्यं त्वया समारब्धम् ? ॥६९॥ पशवश्चबहुविकल्पा बद्धा उपासते केन कार्येण ? । केनैव कारणेनेहागता ब्राह्मणा बहवः ? ॥७०॥ संवर्तकेन भणितो विप्रेण किं न जानासि यज्ञम् । मरुन्नरेन्द्रेण कृतं परलोकार्थे महाधर्मम् ? ॥७१॥ यश्चतुर्मुखेन पूर्वमपदिष्टो वेदशास्त्रनिष्पन्नः । यज्ञो महागुणोऽपि हु कर्तव्यस्त्रिभि वर्णैः ॥७२॥ कृत्वा वेदिमध्ये मन्त्रैः पशवो भवन्ति हन्तव्याः । देवाश्च तर्पितव्याः सोमादिकाः प्रयतेन ॥७३॥ एष ध्रुव इति धर्मो योगेन च प्रकटः कृतो लोके । इन्द्रियमनोभिरामं ददाति फलं देवलोके ॥७४।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ आर्षवेदसम्मत्ता यज्ञा: सुणिऊण वयणमेय, भाइ तओ नारओ मइपगब्भो । आरिसवेयाणुमयं, कहेमि जन्नं निसामेहि ॥ ७५ ॥ वेइसरीरल्लीणो, मणजलणो नाणघयसुपज्जलिओ । कम्मतरुसमुप्पन्नं, मलसमिहासंचयं डहइ ॥ ७६ ॥ कोहो माणो माया, लोभो रागो य दोस मोहो य । पसवा हवन्ति एए, हन्तव्वा इन्दिएहि समं ॥७७॥ सच्चं खमा अहिंसा, दायव्वा दक्खिणा सुपज्जत्ता । दंसण चरित्त-संजम - बम्भाईया इमे देवा ॥ ७८ ॥ सो जिहि भणिओ, जन्नो तच्चत्थवेयनिद्दिट्ठो । जोगविसेसेण कओ, देइ फलंपरमनिव्वाणं ॥७९॥ जे 'पुण करेन्ति जन्नं, अणारिंस अलियवेयनिप्फण्णं । मारेऊण पसुगणे, रुहिर-वसा - मंसरसलोला ॥८०॥ ते पावकम्मकारी, वाहा विव निद्दया निरणुकम्पा । मरिऊण जन्ति निरयं, अज्जेन्ति य दीहसंसारं ॥ ८१ ॥ नए भणिया, सव्वे वि य बम्भणा परमरुट्ठा। पहणेऊण पयत्ता, दढमुट्ठि-करप्पहारेहिं ॥८२॥ नारओ वि विप्पे, भुयबल - अइचडुलपण्हिपहरेहिं । वारेइ पययमणसो, संसयपरमं समणुपत्तो ॥ ८३ ॥ बहवेहि वेढिऊणं, गहिओ कर-चरण- अङ्गमङ्गेसु । पक्खी व पञ्जरत्थो, अवसीयइ नारओ धणियं ॥८४॥ एयन्तरम्मि पत्तो, दूओ दहवयणसन्तिओ तत्थ । अह पेच्छइ हम्मन्तं, विप्पेहि य नारयं दीणं ॥ ८५ ॥ गहियं विप्पेहि तर्हि, दट्ठूणं नारयं पभूएहिं । गन्तुं कहेइ दूओ, जन्ननिओगं दहमुहस्स ॥८६॥ जस्स सासं सामिय !, विसज्जिओ हं तए नरिन्दस्स । तस्स बहुबम्भणेहिं, हम्मन्तो नारओ दिट्ठो ॥८७॥ आर्षवेदसम्मत्ता यज्ञाः श्रुत्वा वचनमेतद्भणति ततो नारदो मतिप्रागल्भ्यः । आर्षवेदानुमतं कथयामि यज्ञं निशामयत ॥७५॥ वेदिशरीरलीनो मनोज्वलनो ज्ञानघृतसुप्रज्वलितः । कर्मतरुसमुत्पन्नं मलसमिधसंचयं दहति ॥७६॥ क्रोधो मानो माया लोभोरागश्च द्वेष-मोहश्च । पशवो भवन्त्येते हन्तव्या इन्द्रियैः समम् ॥७७॥ सत्यं क्षमाऽहिंसा दातव्या दक्षिणा सुपर्याप्ता । दर्शन - चारित्र - संयम - ब्रह्मादिका इमे देवाः ॥७८॥ एष जिनैर्भणितो यज्ञस्तथ्यार्थवेदनिर्दिष्टः । योगविशेषेण कृतो ददाति फलं परमनिर्वाणम् ॥७९॥ ये पुनः कुर्वन्ति यज्ञमनादृशमलिकवेदनिष्पन्नम् । मारयित्वा पशुगणान् रुधिर-वसा - मांसरसलोलाः ॥८०॥ ते पापकर्मकारिणो व्याधा इव निर्दया निरनुकम्पाः । मृत्वा यान्ति नरकमर्जयन्ति च दीर्घसंसारम् ॥८१॥ यन्नारदेन भणिताः सर्वेऽपि च ब्राह्मणाः परमरुष्टाः । प्रहन्तुं प्रवृत्ता दृढमुष्टिकरप्रहारैः ॥८२॥ तान्नारदोऽपि विप्रान्भुजबलातिचटुलपाष्णिप्रहारैः । वारयति प्रयतमनाः संशयपरमं समनुप्राप्तः ॥८३॥ बहुभिर्वेष्टयित्वा गृहीतः कर चरणाङ्गमङ्गैः । पक्षीव पञ्जरस्थोऽवसीदति नारदोऽत्यन्तम् ॥८४॥ अत्रान्तरे प्राप्तो दूतो दशवदनसत्कस्तत्र । अथ पश्यति हन्यमानं विप्रैश्च नारदं दीनम् ॥८५॥ गृहीतं विप्रैस्तत्र दृष्ट्वा नारदं प्रभुतैः । गत्वा कथयति दूतो यज्ञनियोगं दशमुखस्य ॥ ८६ ॥ यस्य सकाशं स्वामिन् ! विसर्जितोऽहं त्वया नरेन्द्रस्य । तस्य बहुब्राह्मणै हन्यमानो नारदो दृष्टः ||८७॥ - पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ मस्यजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो-११/७५-१०० तत्थाऽऽउलं नरिन्दं, नाऊण भउद्दुयं सरीरोहं । एत्थागओ नराहिव, तुझं जाणावणट्ठाए ॥८८॥ रुट्ठो लङ्काहिवई, सुहडे पेसेइ साहणसमग्गे । गन्तूण तेहि सहसा, परिमुक्को नारओ विप्पो ॥८९॥ हणिऊण बम्भणगणे, भग्गो जन्नो य मेल्लिया पसवो । भणिया य सुत्तकण्ठा, जह पुण एयं न कारेह ॥१०॥ अह नारओ वि एत्तो, बम्भणकरकढिणगाहपरिमुक्को । उप्पइऊणं सहसा, पेच्छइ लङ्काहिवं तुट्ठो ॥११॥ कल्लाणं होउ तुमं, विउलं मा हणसु बम्भणे पावे । पियजीविए वराए, भमन्तु पुहई जहिच्छाए ॥१२॥ तापसविप्रयोस्त्पत्ति:निसुणेहि ताव सुपुरिस !, उप्पत्ती तावसाण एगमणो । उसभजिणस्स भगवओ, पव्वज्जादेसयालम्मि ॥१३॥ चत्तारि सहस्साई, विमुक्कसंगाण नरवरिन्दाणं । घेत्तूण जिणसयासे, पव्वज्जा पडिनियत्ताई ॥१४॥ तण्हा-छुहाकिलन्ता, आरण्णं पविसिऊण दीणमुहा । तरुवरफलासणा ते, तावसपासण्डिणो जाया ॥१५॥ एवं ते पुहइतले, मोहेन्ता जणवयं कुसत्थेसु । जाया तावसविप्पा, विज्जं पिव वडिया बहवे ॥१६॥ तित्थयरेसु वि न कयं, धम्मेक्कमणं जणं निरवसेसं । किं पुण दसाणण तुमे, कीरइ जिणसासणमतीयं ? ॥१७॥ सुणिऊण पगयमेयं, उसभजिणं पणमिऊण दहवयणो । वारेइ सुत्तकण्ठे, हम्मन्ते रक्खसभडेहिं ॥१८॥ मरुओ वि नरवरिन्दो, अञ्जलिमउलं करेवि नियसीसे । पणमइ लङ्काहिवई, भिच्चो हं तुज्झ साहीणो ॥१९॥ कणयप्पभा कुमारी, दिन्ना मरुएण रक्खसिन्दस्स । परिणीया चन्दमुही, जोव्वण-लायण्णपडिपुण्णा ॥१००॥ तत्राऽऽकुलं नरेन्द्रं ज्ञात्वा भयोपद्रुतं शरीरौघम् । अत्रागतो नराधिप ! तुभ्यं ज्ञापनार्थे ।।८८॥ रुष्टो लङ्काधिपतिः सुभटान् प्रेषयति साधनसमग्रान् । गत्वा तैः सहसा परिमुक्तो नारदो विप्रः ॥८९।। हत्वा ब्राह्मणगणान् भग्नो यज्ञश्च मोचिताः पशवः । भणिताश्च सूत्रकण्ठा यथा पुनरेतन्न कुरुत ॥९०॥ अथ नारदोऽपीतो ब्राह्मणकरकठिनग्राहपरिमुक्तः । उत्पत्य सहसा पश्यति लङ्काधिपं तुष्टः ॥११॥ कल्याणं भवतु तव विपुलं मा हण ब्राह्मणान् पापान् । प्रियजीवितान् वराकान् भ्रमन्तु पृथिव्यां यथेच्छया ॥९२॥ तापसविप्रयोस्पत्तिः - निश्रुणु तावत्सुपुरुष ! उत्पतिस्तापसानामेकाग्रमनाः । ऋषभजिनस्य भगवतः प्रव्रज्यादेशकाले ॥९३॥ चत्वारि सहस्राणि विमुक्तसङ्गाना नरवरेन्द्रणाम् । गृहीत्वा जिनसकाशे प्रव्रज्या प्रतिनिवृत्तानि ॥९॥ तृष्णा-क्षुधाकलान्ता अरण्यं प्रविश्य दीनमुखाः । तरुवरफलाशनास्ते तापसपाखण्डिनो जाताः ॥१५॥ एवं ते पृथ्वीतले मुह्यन्तो जनपदं कुशास्त्रैः । जातास्तापसविप्रा विद्यामिव वर्धिता बहवः ॥९६।। तीर्थकरैरपि न कृतं धर्मैकमनसं जनं निरवशेषम् । किं पुन र्दशानन ! त्वया क्रीयते जिनशासनमतिकम् ? ॥९७॥ श्रुत्वा प्रकटमेतद् ऋषभजिनं प्रणम्य दशवदनः । वारयति सूत्रकण्ठान् हन्यमानान् राक्षसभटैः ॥९८।। मरुदपि नरवरेन्द्रोऽञ्जलिमुकुलं करोति निजशिर्षे । प्रणमति लङ्काधिपति भृत्योऽहं तव स्वाधीनः ॥९९।। कनकप्रभाकुमारी दत्ता मरुता राक्षसेन्द्राय । परिणीता चन्द्रमुखी यौवन-लावण्यप्रतिपूर्णा ॥१००॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ रममाणस्स रइगुणे, तीए संवच्छरस्स उप्पन्ना । दुहिया विचित्तरूवा, कयचित्ता नाम नामेणं ॥१०१॥ पुहईलम्मि सुहडा, जे सूरा दप्पिया बलसमिद्धा । ते ते ठावेइ वसे, दसाणणो अत्तणो सव्वे ॥१०२॥ जनपदानुरागवर्णनम् - गणेण वच्चमाणो, गामा-ऽऽगर-नगर-पट्टणसमिद्धं । पेच्छइ य मज्झदेसं, काणण-वणमण्डियं रम्मं ॥१०३॥ अवइण्णो दहवयणो, नयरब्भासे ठिओ जणवएणं । नर-नारीहि सहरिसं, पेच्छिज्जइ कोउहल्लेणं ॥ १०४॥ मरगयमऊहसामो, वियसियवरकमलसरिसमुहसोहो । वित्थिण्णविउलवच्छो, पीणुन्नयदीहबाहुजुओ ॥ १०५॥ करयलसुगज्झमज्झो, सीहकडी हत्थिहत्थसरिसोरू । कुम्मवरचारुचरणो, बत्तीससुलक्खणसमग्गो ॥१०६॥ सिरिवच्छभूसियङ्गो, सव्वालङ्कारसुकयनेवच्छो । इन्दो व्व महिड्डीओ, दिट्ठो लोएण दहवयणो ॥१०७॥ तं मत्तूण पुरवरं, अन्नं सं गओ सह बलेणं । तत्थ वि नरिन्द-पुर- जणवएण अहिणन्दिओ मुइओ ॥१०८॥ जं जं वच्चइ देसं, सो सो वि य सग्गसन्निहो होइ । धण-धन्न - रयणपुण्णो, दुब्भिक्ख - भयाइपरिमुको ॥१०९॥ पुण्णेण परिग्गहिया, ते देसा पुव्वजम्मसुकएणं । सिरि-कित्ति - लच्छिनिलओ, दहवयणो जेसु संचरइ ॥११०॥ प्रावृट्कालः ववगयसिसिर-निदाहे, गङ्गातीरट्ठियस्स रमणिज्जे । गज्जन्तमेहमुहलो, संपत्तो पाउसो कालो ॥१११॥ रममाणस्य रतिगुणेन तया संवच्छरस्योत्पन्ना । दुहिता विचित्ररुपा कृतचिता नामा नाम्ना ॥ १०१ ॥ पृथिवीतले सुभटा ये शूरा दर्पिता बलसमृद्धाः । तांस्तान्स्थापयति वशे दशानन आत्मनः सर्वान् ॥१०२॥ जनपदानुरागवर्णनम् – गगनेन व्रजन् ग्रामाऽऽकर-नगर-पट्टनसमृद्धम् । पश्यति च मध्यदेशं काननवनमण्डितं रम्यम् ॥१०३॥ अवतीर्णो दशवदनो नगराभ्यासे स्थितो जनपदेन । नर-नारीभिः सहर्षं दृश्यते कौतूहलेन ॥ १०४॥ मरकतमयूखश्यामो विकसितवरकमलसदृशमुखशोभः । विस्तीर्णविपुलवक्षाः पीनोन्नतदीर्घबाहुयुगः ॥१०५॥ करतलसुग्राह्यमध्यः सिंहकटिर्हस्तिहस्तसदृशोरुः । कुर्मवरचारुचरणो द्वात्रिंशत्सुलक्षणसमग्रः ॥१०६॥ श्रीवत्सभूषिताङ्गः सर्वालङ्कारसुकृतनेपथ्यः । इन्द्र इव महद्धिको दृष्टो लोकेन दशवदनः ॥ १०७॥ तं मुक्त्वा पुरवरमन्यं देशं गतः सहबलेन । तत्रापि नरेन्द्र-पुर- जनपदेनाभिनन्दितो मुदितः ॥ १०८॥ य यं गच्छति देशं स सोऽपि च स्वर्गसन्निभो भवति । धन-धान्यरत्नपूर्णो दुर्भिक्षभयादि परिमुक्तः ||१०९|| पुण्येन परिगृहीतास्ते देशाः पूर्वजन्मसुकृतेन । श्री-कीर्तित-लक्ष्मी निलयो दशवदनो येषु संचरति ॥११०॥ प्रावृट् कालः व्यपगतशिशिरनिदाधे गङ्गातीरस्थितस्य रमणीये । गर्जन्मेघमुखरः संप्राप्तः प्रावृट्कालः ॥ १११ ॥ पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्यजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो-११/१०१-१२१ १४५ धवलबलायाधयवड-विज्जुलयाकणयबन्धकच्छा य । इन्दाउहकयभूसा, झरन्तनवसलिलदाणोहा ॥११२॥ अञ्जणगिरिसच्छाया, घणहत्थी पाहुडं व सुरवइणा । संपेसिया पभूया, रक्खसनाहस्स अइगुरुया ॥११३॥ अन्धारियं समत्थं. गयणं रवियरपणद्रगहचक्कं । तडयडसमद्रियरवं, धारासरभिन्नभवणयलं ॥११४॥ धारासरभिन्नङ्गो, कन्ता सरिऊण मुच्छिओ पहिओ। पुणरवि आससिओ च्चिय, तीए सुहसंगमासाए ॥११५॥ अहिणवकयम्बगन्धं, अग्याएऊण मूढमणहियया । जे अमुणियपरमत्था, भमन्ति तत्थेव पहियगणा ॥११६॥ दहुर-मऊर-जलहर-सद्दो वप्पीहयाण एयत्थं । पारद्धं पिव तालं, वारणलीलासहावेणं ॥११७॥ सुट्ट वि उक्ट्टलया, पहिया जलफलिहरुद्धपयमग्गा । कन्तासमागममणा, पंखारहिया विसूरेन्ति ॥११८॥ हरियतणसामलङ्गी, महिविलया सलिलवत्थपरिहाणी । वरकुडयकुसुमदन्ती, हसइ व्व दसाणणागमणे ॥११९॥ एवं सुहेण गमिओ, पाउसकालो महन्तघववन्द्रो । पणयारिपक्खजणवय-सएसु अहिणन्दमाणस्स ॥१२०॥ एवं पुण्णफलोदएण पुरिसा पावन्ति तुझं सिरिं, कित्तीछन्नसमत्थमेइणितला भग्गारिपक्खासया । दिव्वाणं रयणाण होन्ति निलया लोगस्स पुज्जा नरा, पच्छा ते विमलाणुभावचरिया पावन्ति सिद्धालयं ॥१२१॥ ॥ इय पउमचरिए मस्यजन्नविद्धंसणो जणवयाणुरायो नाम एक्कारसमो उद्देसो समत्तो ॥ धवलबलाकाध्वजपटविद्युल्लताकनकबन्धकक्षा च । इन्द्रायुधकृतभूषा झरन्नवसलिलदानौघा ॥११२॥ अञ्जनगिरिसच्छाया घनहस्ती प्राभृतमिव सुरपतिना । संप्रेषिता प्राभृता राक्षसनाथस्याति गुरुकाः ॥१३।। अन्धारितं समस्तं गगनं रविकरप्रनष्टग्रहचक्रम् । तडतडसमुत्थितरवं धाराशरोभिन्नभुवनतलम् ॥११४।। धाराशरोभिन्नाङ्गः कान्तां स्मृत्वा मूच्छितः पथिकः । पुनरप्याश्वासित एव तस्याः सुखसंगमाशया ॥११५|| अभिनवकदम्बगन्धमाध्राय मूढमनोहृदयाः । येऽमुणितपरमार्था भ्रमन्ति तत्रैव पथिकगणाः ॥११६।। दुर्दूर-मयूर-जलधरशब्दो चातकानामेतदर्थम् । पारद्धमिव तालं वारणलीलास्वभावेन ॥११७।। सुष्ठ्वप्युत्कण्ठलताः पथिका जलपरिखारुद्धपदमार्गाः । कान्तासमागममनसः पक्ष्मरहिताः खिद्यन्ते ॥११८।। हरिततृणश्यामलाङ्गी महिवनिता सलिलवस्त्रपरिधानी । वरकुटजकुसुमदन्ती हसतीव दशाननागमने ॥११९।। एवं सुखेन गमितः प्रावृटकालो महत्घनवृन्दः । प्रणतारिपक्षजनपदशतैरभिनन्दमानस्य ॥१२०॥ एवं पुण्यफलोदयेन पुरुषाः प्राप्नुवन्ति तुझं श्रियम् । कीर्तिछन्नसमस्त मेदिनीतला भग्नारिपक्षाशयाः । दिव्यानां रत्नानां भवन्ति निलया लोकस्य पूज्या नराः । पश्चात्ते विमलानुभावचरिताः प्राप्नुवन्ति सिद्धालयम् ॥१२१।। ॥इति पद्मचरित्रे मस्यज्ञविध्वंसनो जनपदानुरागो नामैकादशोद्देशः समाप्तः ॥ पउम. भा-१/१९ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. वेयड्डगमण-इन्दबंधण - लंकापवेसणाहियारो रावणपुत्रीमनोरमायाः परिणयनम् तो लङ्काहिवई, समयं मन्तीहि संपहारेइ । कस्स इमा दायव्वा, दुहिया मे जोव्वणापुण्णा ॥१॥ मन्तीहि वि सो भणिओ, महुराहिवई विसुद्धकुलवंसो । हरिवाहणो त्ति नामं, तस्स य पुत्तो महुकुमारो ॥२॥ सो लक्खणोववेओ, जोव्वण-बल-विरिय-सत्तिसंपन्नो । तस्सेसा वरकन्ना, दिज्जइ एवं मणो अहं ॥३॥ अह भणइ रक्खसिन्दो, हरिवाहणनन्दणो महुकुमारो । सूरो विणयगुणधरो, लोगस्स य वल्लहो अहियं ॥४॥ हरिवाहणो वि पुत्तं, घेत्तूण दसाणणं समल्लीणो । परितुट्ठो नरवसभो, दडुं तं सुन्दरायारं ॥ ५ ॥ हरिवाहणस्स मन्ती, भणइ तओ इय पहु ! निसामेहि। एयस्स सूलरयणं, दिन्नं असुरेण तुट्टेणं ॥६॥ अह जोयणाण संखा, दोण्णि सहस्साणि दोण्णि य सयाणि । गन्तूण सूलरयणं, पुणरवि य तहिं समल्लियइ ॥७॥ दिन्ना वरकल्लाणी, मणोरमा तस्स महुनरिन्दस्स । वत्तं पाणिग्गहणं, अणन्नसरिसं वसुमईए ॥८॥ मधुकुमारपूर्वभवः शूलरत्नोत्पत्तिश्चः एयन्तरम्मि पुच्छ्इ, गणनाहं सेणिओ कयपणामो । दिन्नं तिसूलरयणं, केण निमित्तेण असुरेणं ? ॥९॥ १२. वैताढ्यगमन-इन्द्रबन्धन - लङ्काप्रवेशाधिकारः : रावणपुत्रीमनोरमायाः परिणयनम् इतो लङ्काधिपतिः समकं मन्त्रिभिः संप्रधारयति । कस्येमा दातव्या दुहिता मम यौवना पूर्णा ॥१॥ मन्त्रिभिरपि स भणितो मथुराधिपति विशुद्धकुलवंशः । हरिवाहन इति नाम तस्य च पुत्रो मधुकुमारः ॥२॥ स लक्षणोपतो यौवनबल-वीर्य शक्तिसंपन्नः । तस्येषा वरकन्या दीयते एवं मनोऽस्माकम् ॥३॥ अथ भणति राक्षसेन्द्रो हरिवाहननन्दनो मधुकुमारः । शूरो विनयगुणधरो लोकस्य च वल्लभोऽधिकम् ॥४॥ हरिवाहनोऽपि पुत्रं गृहीत्वा दशाननं समालीनः । परितुष्टो नरवृषभो दृष्ट्वा तं सुन्दराकारम् ॥५॥ हरिवाहनस्य मन्त्री भणति तत एवं प्रभो ! निशामय । एतस्य शूलरत्नं दत्तमसुरेण तुष्टेन ॥६॥ अथ योजनानां संख्या द्वे सहस्राणि द्वे च शतानि । गत्वा शूलरत्नं पुनरपि च तत्र समालीनाति ॥७॥ दत्ता वरकल्याणी मनोरमा तस्य मधुनरेन्द्रस्य । वृत्तं पाणिग्रहणमनन्यसदृशं वसुमत्याम् ॥८॥ मधुकुमारपूर्वभवः शूलरत्नोत्पत्तिश्चः एतदन्तरे पृच्छति गणनाथं श्रेणिकः कृतप्रणामः । दत्तं त्रिशूलरत्नं केन निमित्तेनासुरेण ? ||९|| : For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ वेयड्डगमण-इन्दबंधण-लंकापवेसणाहियारो-१२/१-२३ तो भणइ इन्दभूई, उप्पत्ती सुणसु सूलरयणस्स । धायइसण्डेरवए, सयदारपुरे दुवे मित्ता ॥१०॥ एक्को त्थ हवइ पभवो, सुमित्तनामो तओ भवे बीओ। एगगुरुसन्नियासे, सिक्खन्ति कलागमं सयलं ॥११॥ जाओ रज्जाहिवई, तत्थ सुमित्तो गुणेहि पडिपुण्णो । पभवो वि तेण मित्तो, अप्पसरिच्छो कओ ताहे ॥१२॥ अह अन्नया कयाई, रण्णं तुरएण पेसिओ सिग्छ । गहिओ सुमित्तराया, भिल्लेहि अणज्जसीलेहिं ॥१३॥ मेच्छाहिवेण दिन्ना, वणमाला तत्थ नरवरिन्दस्स । परिणेऊण नियतो, सयदारपुरं अह पविट्ठो ॥१४॥ दद्रुण मित्तभज्जं, पभवो कुसुमाउहस्स बाणेहिं । विद्धो असत्थदेहो, खणेण आयल्लयं पतो ॥१५॥ दुक्खभरपीडियङ्ग, पभवं दट्टण पुच्छइ सुमितो । दुक्खस्स समुप्पत्ती, कहेहि जा ते पणासेमि ॥१६॥ अह भणइ तत्थ पभवो, वेज्जनरिन्दाण मित्तपुरिसाणं । आहावणओ य लोए, एयाण फुडं कहेयव्वं ॥१७॥ नमिऊण तस्स चलणे, पभवो परिकहइ दुक्खउप्पत्ती । दट्टण तुज्झ महिलं, सामिय आयल्लयं पत्तो ॥१८॥ सुणिऊण वयणमेयं, भणइ समित्तो निसास वणमालं । वच्च तमं वीसत्था, पभवसयासं पसन्नमही ॥१९॥ गामसहस्सं सुन्दरि, देमि तुम जइ करेहि मित्तहियं । जइ तं नेचछसि भद्दे ! घोरं ते निग्गरं काहं ॥२०॥ भणिऊण एवमेयं, वणमाला पत्थिया समपओसे । पत्ता पभवागारं, तेण य सा पुच्छिया सहसा ॥२१॥ कासि तुमं वरसुन्दरि ! केण व कज्जेण आगया एत्थं ? । तीए वि तस्स सिटुं, निययं वीवाहमाईयं ॥२२॥ वट्टइ जावुल्लावो, ताणं तावाऽऽगओ तहिं राया । पच्छन्नरूवधारी, चिट्ठइ भवणन्तरनिलुक्को ॥२३॥ तदाभणतीन्द्रभूतिरुत्पत्तिः श्रुणु शूलरत्नस्य । घातकीखण्डैरवते शतद्वारपुरे द्वे मित्रे ॥१०॥ एकोऽथ भवति प्रभवः सुमित्रनामा ततो भवेद्वितीयः । एकगुरुसन्निकर्षे शिक्षेते कलागमं सकलम् ॥११॥ जातो राज्याधिपतिस्तत्र सुमित्रो गुणैः प्रतिपूर्णः । प्रभवोऽपि तेन मित्र आत्मसदृशः कृतस्तदा ॥१२॥ अथान्यदा कदाचिदरण्यं तुरगेण प्रेषितः शीघ्रम् । गृहीतः सुमित्रराजा भिल्लैरनार्यशीलैः ॥१३।। म्लेच्छाधिपेन दत्ता वनमाला तत्र नरवरेन्द्रस्य । परिणीय निवृत्तः शतद्वारपुरमथ प्रविष्टः ॥१४॥ दृष्ट्वा मित्रभार्यां प्रभवो कुसुमायुधस्य बाणैः । विद्धोऽस्वस्थदेहः क्षणेनाकुलतां प्राप्तः ॥१५॥ दुःखभरपीडिताङ्गं प्रभवं दृष्ट्वा पृच्छति सुमित्रः । दुःखस्य समुत्पत्तिः कथय या तव प्रणश्यामि ।।१६।। अथ भणति तत्र प्रभवो वैद्यनरेन्द्राणां मित्रपुरुषाणाम् । आख्यानकश्च लोके एतेषां स्फूटं कथयितव्यम् ॥१७॥ नत्वा तस्य चरणयोः प्रभवः परिकथयति दु:खोत्पत्तिः । दृष्ट्वा तव महिलां स्वामिन् ! आकुलतां प्राप्तः ।।१८।। , श्रुत्वा वचनमेतद्भणति सुमित्रो निशि वनमालाम् । व्रजस्त्वं विश्वस्ता प्रभवसकाशं प्रसन्नमुखी ॥१९।। ग्रामसहस्रं सुन्दरि ! दामि तुभ्यं यदि करिष्यसि मित्रहितम् । यदि तं नेच्छसि भद्रे ! घोरं तव निग्रहं करिष्यामि ।।२०।। भणित्वा एवमेतद्वनमाला प्रस्थिता समप्रदोषे । प्राप्ता प्रभवागारं तेन च सा पृष्टा सहसा ॥२१॥ काऽसि त्वं वरसुन्दरि ! केन वा कार्येणागतात्र ? । तयाऽपि तस्य शिष्टं निजकं विवाहादिकम् ॥२२॥ वर्तते यावदुल्लापस्तयोरतावदागतस्तत्र राजा । प्रच्छन्नरुपधारी तिष्ठति भवनानन्तरनिलीनः ॥२३॥ Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ पउमचरियं तो जाणिऊण पभवो, वणमाला पेसिया सुमित्तेणं । संवेगसमावन्नो, पडिवहहुत्तं विसज्जेइ ॥२४॥ हा ! कटुंचिय पावो, सुमित्तमहिलाहिलासकयहियओ । नूणं वज्जसरीरो, हिमं व जो हं न य विलीणो ॥२५॥ किं वा जीवेण महं, अयसकलंकुब्भडेण लोयम्मि ? । खग्गेण निययसीसं, लुणामि सिग्धं अचारित्तो ॥२६॥ आयड्डिऊण खग्गं, नीलुप्पलसन्निहं कयं कण्ठे। परिणायचेट्ठिएणं, सहसा धरिओ सुमित्तेणं ॥२७॥ रागेण व दोसेण व, जे पुरिसा अप्पयं विवायन्ति । ते पावमोहियमई, भमन्ति संसारकन्तारे ॥२८॥ खग्गं कराउ हरियं, सो य सुमित्तेण उवसमं नीओ । दोण्णि वि करेन्ति रज्जं, अवियण्हमणा बहुं कालं ॥२९॥ अह अन्नया कयाई, पव्वज्जं गिण्हिऊण कालगओ। ईसाणकप्पवासी, सुमित्तराया समुप्पन्नो ॥३०॥ चइऊण विमाणाओ, माहविदेवीए गब्भसंभूओ । हरिवाहणस्स पुत्तो, जाओ एसो महुकुमारो ॥३१॥ मिच्छत्तमोहियमई, पभवो मरिऊण भमिय संसारे। विस्सावसुस्स पुत्तो, जोइमईए सिही जाओ ॥३२॥ काऊण समणधम्म, सणियाणं तत्थ चेव कालगओ। जाओ भवणाहिवई, चमरकुमारो महिड्डीओ ॥३३॥ अवहिविसएण मित्तं नाऊण पुराकयं च उवयारं । महुरायस्स य गन्तुं, तिसूलरयणं पणामेइ ॥३४॥ एयं ते परिकहियं, चरियं महुपत्थिवस्स निस्सेसं । जो पढइ सुणइ सेणिय ! सो पुण्णफलं समज्जेइ ॥३५॥ लङ्काहिवो वि पुहई, जिणिऊणऽट्ठारसेसु वरिसेसु । जिणचेइयपूयत्थं, अट्ठावयपव्वयं पत्तो ॥३६॥ तदा ज्ञात्वा प्रभवो वनमाला प्रेषिता सुमित्रेण । संवेगसमापन्नः प्रतिपथाभिमुखं विसर्जयति ॥२४॥ हा ! कष्टमेव पापः सुमित्रमहिलाभिलाषकृतहृदयः । नूनं वज्रशरीरो हिममिव योऽहं न च विलीनः ।।२५।। किं वा जीवेन ममायशः कलङ्कोद्भटेन लोके ? । खड्गेन निजशीर्षं लुनामि शीघ्रमचारित्रः ॥२६॥ आकृष्य खड्गं नीलोत्पलसन्निभं कृतं कण्ठे। परिज्ञातचेष्टितेन सहसा धृतः सुमित्रेण ॥२७॥ रागेण वा द्वेषेण वा ये पुरुषा आत्मानं व्यापादयन्ति । ते पापमोहितमतयो भ्रमन्ति संसारकान्तारे ॥२८॥ खड्गकराद्धृतं स च सुमित्रेणोपशमं नीतः । द्वावपि कुरुतो राज्यमविघ्नमनसौ बहुकालम् ॥२९।। अथान्यदा कदाचित्प्रव्रज्यां गृहीत्वा कालगतः । ईशानकल्पवासी सुमित्रराजा समुत्पन्नः ॥३०॥ च्युत्वा विमानान्माधविदेव्या गर्भसंभूतः । हरिवाहनस्य पुत्रो जात एष मधुकुमारः ॥३१॥ मिथ्यात्वमोहितमतिः प्रभवो मृत्वा भ्रान्त्वा संसारे । विश्वावसोः पुत्रो ज्योतिमत्यां शिखी जातः ॥३२॥ कृत्वा श्रमणधर्मं सनिदानं तत्रैव कालगतः । जातो भवनाधिपतिश्चमरकुमारो महद्धिकः ॥३३॥ अवधिविषयेन मित्रं ज्ञात्वा पुराकृतं चोपकारम् । मधुराज्ञश्च गत्वा त्रिशूलरत्नमर्ययति ॥३४॥ एतत्ते परिकथितं चरित्रं मधुपार्थिवस्य निःशेषम् । यः पठति श्रुणोति श्रेणिक ! स पुण्यफलं समर्जयति ॥३५॥ लङ्काधिपोऽपि पृथिवीं जित्वाऽष्टादशसु वर्षेषु । जिनचैत्यपूजार्थमष्टापदपर्वतं प्राप्तः ॥३६॥ १. वरकुमारो-प्रत्य० । २. पुहई-प्रत्य० । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ वेयड्डगमण-इन्दबंधण-लंकापवेसणाहियारो -१२/२४-५० काऊण जिणहराणं, पूर्य कुसुमेहि जलय-थलएहिं । वन्दइ पहट्ठमणसो, दहवयणो पत्थिवसमग्गो ॥३७॥ एत्थन्तरम्मि जो सो, ठविओ इन्देण लोगयालत्ते । नलकुब्बरो त्ति नामं, दुल्लङ्घपुरे परिव्वसइ ॥३८॥ नाऊण रावणं सो, अट्ठावयपव्वए समल्लीणं । पेसेइ तस्स दूयं, रुट्ठो नलकुब्बरो राया ॥३९॥ संपत्तो च्चिय दूओ, ट्ठिो लङ्काहिवो सभामज्झे । रइओ य सिरपणामो, उवविट्ठो आसणे भणइ ॥४०॥ नलकुब्बरेण दूओ, विसज्जिओ तुज्झ देव ! पासम्मि । सो भणइ एह पेच्छह, दुल्लङ्घपुरिं रिवुदुलझं ॥४१॥ भणिओ य रावणेणं, जाव अहं नन्दणे जिणहराई । वन्दणनिमितहेउं, गन्तूण लहुं नियत्तामि ॥४२॥ ताव तुमं वीसत्थो अच्छसु वरकामिणीसु कीलन्तो । रे दूय ! भणसु गन्तुं, दुल्लङ्घपुराहिवं एवं ॥४३॥ मण-पवणचारुवेगो, दूओ गन्तूण सामिसालस्स । जं रावणेण भणियं, तं सव्वं साहइ फुडत्थं ॥४४॥ अह तेण अग्गिपउरो, पायारो जोयणा सयं रइओ । जन्ताणि बहुविहाणि य, रिउभडजीयन्तनासाणि ॥४५॥ गन्तूण नन्दणवणं, वन्दित्ता चेइयाणि भावेणं । पुणरवि य पडिनियत्तो, दहवयणो निययआवासं ॥४६॥ सन्नद्ध-बद्ध-कवया, पहत्थपमुहा भडा बलसमग्गा । पेसेइ गहणहेडं, दुल्लङ्घपुरिं दहग्गीवो ॥४७॥ पत्ता पेच्छन्ति पुरिं, समन्तओ जलणतुङ्गपायारं । जन्तेसु अइदुलर्छ, भयजणणं सत्तुसुहडाणं ॥४८॥ अह वेढियं समत्थं, अल्लीणा रक्खसा कउच्छाहा । हम्मन्ति वेरिएणं, बहुविहविज्जापओगेहिं ॥४९॥ मारिज्जन्तेहि तओ, रक्खससुहडेहि पेसिओ पुरिसो । गन्तूण सामियं सो, भणइ पहू मे निसामेहि ॥५०॥ कृत्वा जिनगृहाणां पूजां कुसुमैर्जल-स्थलजैः । वन्दते प्रहृष्टमना दशवदनः पार्थिवसमग्रः ॥३७॥ अत्रान्तरे योस स्थापित इन्द्रेण लोकपालत्वे । नलकुबेर इति नाम दुर्लधपूरे परिवसति ॥३८॥ ज्ञात्वा रावणं सोऽष्टापदपर्वते समालीनम् । प्रेषयति तस्य दूतं रुष्टो नलकुबेरो राजा ॥३९॥ संप्राप्त एव दूतो दृष्टो लङ्काधिपः सभामध्ये । रचितश्च शिरः प्रणाम उपविष्ट आसने भणति ॥४०॥ नलकुबेरेण दूतो विसर्जितस्तव देव ! पार्श्वे । स भणत्येत पश्यत दुलङ्घपुरि रिपुदुर्लंघ्याम् ॥४१॥ भणितश्च रावणेन यावदहं नन्दने जिनगृहाणि । वन्दननिमित्तहेतु गत्वा लघु निवर्तयामि ॥४२॥ तावत्त्वं विश्वस्त आस्स्व वरकामिनिभिः क्रीडन् । रे दूत ! भण गत्वा दुलङ्घपुराधिपमेवम् ॥४३।। मनःपवनचारुवेगो दूतो गत्वा स्वामिनः । यद्रावणेन भणितं तत्सर्वं कथयति स्फुटार्थम् ॥४४।। अथ तेनाग्निप्रचुरः प्राकारो योजनानां शतं रचितः । यंत्राणि बहुविधानि च रिपुभटजीवनाशानि ॥४५॥ गत्वा नन्दनवनं वन्दित्वा चैत्यानि भावेन । पुनरपि च प्रतिनिवृत्तो दशवदनो निजकावासम् ।।४६।। सन्नद्ध-बद्ध-कवचाः प्रहस्तप्रमुखा भटा बलसमग्राः । प्रेषयति ग्रहणहेतु दुर्लङ्घपुर्रि दशग्रीवः ॥४७।। प्राप्ताः पश्यन्ति पुरि समन्ततो ज्वलनोत्तुङ्गप्राकारा । यन्त्रैरतिदुर्लङ्घयां भयजनकां शत्रुसुभटानाम् ॥४८।। अथ वेष्टितं समस्तमालीना राक्षसाः कृतोत्साहाः । हन्यन्ते वैरिणा बहुविधविद्याप्रयोगैः ॥४९॥ मार्यमाणैस्ततो राक्षससुभटैः प्रेषितः पुरुषः । गत्वा स्वामिनं स भणति प्रभो ! मां निशामय ॥५०॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० पउमचरियं डज्झन्ति अल्लियन्ता, सव्वत्तो धगधगेन्तजलणेणं । मारिज्ज्ति पहुत्ता, जन्तेसु करालवयणेसु ॥५१॥ रावणस्य नलकूबरेण सह युद्धम्:सोऊण इमं वयणं, लङ्काहिवमन्तिणो मइपगब्भा । निययबलरक्खणद्वे, जाव उवायं विचिन्तेन्ति ॥५२॥ ताव य उवरम्भाए, दूई नलकुब्बरस्स महिलाए । संपेसिया य पत्ता, दहमुहनेहाणुरत्ताए ॥५३॥ काऊण सिरपणामं, एगन्ते भणइ रावणं दूई । जेण निमित्तेण पहू !, विसज्जिया तं निसामेहि ॥५४॥ नलकुब्बरस्स महिला, उवरम्भा, नाम त्थि विक्खाया । ताए विसज्जिया वि हु, नामेणं चित्तमाला हं ॥५५॥ सा तुज्झ दरिसणुस्सुय-हियया चिन्तेइ पेमसंबद्धा । निब्भरगुणाणुरत्ता, कुणसु पसायं दरिसणेणं ॥५६॥ ठविण दो वि कण्णे, रयणासवनन्दणो भणइ एवं । वेसं परमहिलं पिय, न रूवमन्तं पि पेच्छेमि ॥५७॥ इह-परलोयविरुद्धं, परदारं वज्जियव्वयं निच्चं । उच्चिट्ठभोयणं पिव, नरेण दढसीलजुत्तेणं ॥५८॥ नाऊण दूइकज्जं, भणिओ मन्तीहि तत्थ कुसलेहिं । अलियमवि भासियव्वं, अप्पहियं परिगणन्तेहिं ॥५९॥ तुट्ठा कयाइ महिला, सामिय ! भेयं कहेज्ज नयरस्स । सम्माणदिन्नपसरा, सब्भावपरायणा होइ ॥६०॥ भणिऊण एवमेयं, दूई वि विसज्जिया दहमुहेणं । गन्तूण सामिणीए, साहइ संदेसयं सव्वं ॥६१॥ सुणिऊण य उवरम्भा, वयणं दूईए निग्गया तुरिया । पत्ता दसाणणहरं, तत्थ पविट्ठा सुहासीणा ॥६२॥ दह्यन्त आलीयन्त सर्वतो धग्धगज्ज्वलनेन । म्रियन्ते प्रहुता यन्त्रेषु करालवदनेषु ॥५१॥ रावणस्य नलकुबेरेण सह युद्धम् - श्रुत्वेदं वचनं लङ्काधिपमन्त्रिणो मतिप्रगल्भाः । निजबलरक्षणार्थे यावदुपायं विचिन्तयन्ति ॥५२।। तावच्चोपरम्भया दूती नलकुबेरस्य महिलया। संप्रेषिता च प्राप्ता दशमुखस्नेहानुरक्तया ॥५३॥ कृत्वा शिरःप्रणाममेकान्ते भणति रावणं दूती । येन निमित्तेन प्रभो ! विसर्जिता तं निशामय ॥५४॥ नलकुबेरस्य महिलोपरम्भानामास्ति विख्याता । तया विसर्जिताऽपि हु नाम्ना चित्रमालाऽहम् ॥५५॥ सा तव दर्शनोत्सुकहृदया चिन्तयति प्रेमसंबद्धम् । निर्भरगुणानुरक्ता कुरु प्रसादं दर्शनेन ॥५६॥ स्थगित्वा द्वेऽपि कर्णे रत्न श्रवोनन्दनो भणत्येवम् । वेश्यां परमहिलामपि न रुपवतीमपि पश्यामि ॥५७।। इह-परलोकविरुद्धं परदारं वर्जितव्यं नित्यम् । उच्छिष्टभोजनमिव नरेण दृढशीलयुक्तेन ॥५८॥ जात्वा दतीकार्य भणितो मन्त्रिभिस्तत्र कशलैः । अलिकमपि भाषितव्यमात्महितं परिगणदिः ॥५९॥ तुष्टा कदाचिन्महिला स्वामिन् ! भेद कथयेन्नगरस्य । सन्मानदत्त प्रसरा सद्भावपरायणा भवति ॥६०॥ भणित्वेवमेतद् दूत्यपि विसर्जिता दशमुखेन । गत्वा स्वामिन्याः कथयति संदेशकं सर्वम् ।।६१॥ श्रुत्वा चोपरम्भा वचनं दूत्या निर्गता त्वरिता । प्राप्ता दशाननगृहं तत्र प्रविष्टा सुखासीना ॥६२॥ १. वेसा परमहिला विव न रूवमंता वि पत्थेमि-मु० । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयड्डुगमण - इन्दबंधण- लंकापवेसणाहियारो - १२/५१-७४ भणिया य दहमुहेणं, भद्दे किं एत्थ रइसुहं रण्णे ? । न य होइ माणियव्वं, दुल्लङ्घपुरं पमोत्तूणं ॥६३॥ सोऊणं उवरम्भा, तं वयणं महुर-मम्मणुल्लावं । देइ मयणाउरा सा, विज्जा आसालिया तस्स ॥६४॥ तं पाविऊण विज्जं, दहवयणो सव्वबलसमूहेणं । दुल्लङ्घपुरनिवेसं, गन्तूणं हणइ पायारं ॥ ६५ ॥ सोऊण रावणं सो, समागयं नासियं च पायारं । अहिमाणेण य राया, विणिग्गओ कुब्बरो सहसा ॥ ६६ ॥ अह जुज्झिउं पवत्तो, समयं चिय रक्खसेहि संगामे । सर-सत्ति - कोन्त - तोमर उभओक्खिप्पन्तसंघाए ॥६७॥ अह दारुणम्मि जुज्झे, वट्टन्ते सुहडजीवनासयरे । गहिओ बिहीसणेणं, नलकुब्बरपत्थिवा समरे ॥६८॥ लङ्काहिवेण भणिया, उवरम्भा मह तुमं गुरू भद्दे ! । जो देसि बलसमिद्धं, विज्जं आसालियं नाम ॥६९॥ उत्तमकुलसंभूया, जाया वि य सुन्दरीए गब्भम्मि । कासद्धयस्स दुहिया, सीलं रक्खन्तिया होहि ॥७०॥ अज्ज वि तुज्झ पिययमो, जीवइ भद्दे ! सुरूव-लायण्णो । एएण सह विसिट्ठे, भुञ्जसु भोए चिरं कालं ॥ ७१ ॥ संपूण मुक्क, राया नलकुब्बरो दहमुहेणं । अमुणियदोसविभाओ, भुञ्जइ भोगे समं तीए ॥७२॥ रावणस्य इन्द्रेण समं युद्धम् - जिणिऊण समरमज्झे, दुल्लङ्घपुराहिवं सह बलेणं । पत्तो वेयड्डगिरिं, दहवयणो इन्दविसम्म ॥ ७३ ॥ सुणिऊण तत्थ इन्दो, समागयं रावणं समासन्ने । रिवुयणकज्जारम्भं, पुच्छइ पियरं सहस्सारं ॥७४॥ भणिता च दशमुखेन भद्रे किमत्र रतिसुखमरण्ये । न च भवति मानयितव्यं दुर्लङ्घपुरं प्रमुच्य ॥६३॥ श्रुत्वोपरम्भा तं वचनं मधुर - मन्मनोल्लापम् । ददाति मदनातुरा सा विद्याऽऽशालिका तस्य ॥६४॥ तां प्राप्य विद्यां दशवदनः सर्वबलसमूहेण । दुर्लङ्घपुरनिवेशं गत्वा हन्ति प्राकारम् ॥६५॥ श्रुत्वा रावणं स समागतं नष्टं च प्राकारम् । अभिमानेन च राजा विनर्गतः कुबेरः सहसा ||६६ ॥ अथ योद्धुं प्रवृत्तः समकमेव राक्षसैः संग्रामे । शर-शक्ति- कुन्त- तोमरो भयोत्क्षिपत्संघाते ॥६७॥ अथ दारुणे युद्धे वर्तमाने सुभटजीवनाशकरे। गृहीतो बिभीषणेन नलकुबेर पार्थिवः समरे ॥ ६८ ॥ लङ्काधिपेन भणितोपरम्भा मम त्वं गुरुभद्रे ! । यददासि बलसमृद्धां विद्यामाशालिकां नाम ॥६९॥ उत्तमकुलसंभूता जाताऽपि च सुन्दर्या गर्भे । कासध्वजस्थ दुहिता शीलं रक्षन्तीका भव ॥७०॥ अद्यापि तव प्रियतमो जीवतिभद्रे ! सुरुप - लावण्यः । एतेन सह विशिष्टान् भुधि भोगांश्चिरकालम् ॥७१॥ संपूजयित्वा मुक्तो राजा नलकुबेरो दशमुखेन । अमुणितदोषविभागो भुनक्ति भोगान् समं तया ॥७२॥ रावणस्येन्द्रेण समं युद्धम् - 1 जित्वा समरमध्ये दुर्लङ्घपुराधिपं सह बलेन । प्राप्तो वैताढ्यगिरिं दशवदन इन्द्र विषये ॥७३॥ श्रुत्वा तत्रेन्द्रः समागतं रावणं समासन्ने । रिपुजनकार्यारम्भं पृच्छति पितरं सहस्रारम् ॥७४॥ १. कोन्त - मोग्गर उभओ-मु० । For Personal & Private Use Only १५१ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ तो भइ सहस्सारो, पुत्तय एसो बलेण संपन्नो । विज्जासहस्सधारी, एएण समं वरं सन्धी ॥७५॥ दव्वेण साहणेण व, जाव या सत्तू समो व अहिओ वा । नाऊण देस -यालं, ताव य सन्धी करेयव्वा ॥ ७६ ॥ पुव्वपुरिसेहि भणियं, बलिएहि समं न कीरइ विवाओ । होइ महायासयरो, तं पुण कज्जं न साहेइ ॥७७॥৷ तं चेव जाणमाणो, पुत्तय ! मा मुज्झ निययकज्जम्मि । एयस्स देहि कन्नं, जइ इच्छसि अत्तणो रज्जं ॥७७॥ सुणिऊण वयणमेयं, इन्दो दढरोसपरिगयसरीरो । अह भाणिउं पवत्तो, सद्देण नहं व फोडेन्तो ॥ ७९ ॥ वज्झस्स य दायव्वा, कन्ना कह ताय ! भासियं दीणं ? । माणुन्नयगरुयाणं, न होइ एयारिसं कम्मं ॥८०॥ छज्जइ मरणं पि रणे, उत्तमपुरिसाण धीरहिययाणं । न य परपणामजणियं, रज्जं पि कहेइ निव्वाणं ॥८१॥ एवं भणिऊण सक्को, सिग्धं सन्नामण्डवं लीणो । सन्नज्झिउं पयत्तो, समयं चिय लोगपालेहिं ॥८२॥ अन्नो रहं विलग्गइ, ऊसियधयदण्डमण्डणाडोवं । अन्नो चलन्तचमरं, लङ्घइ तुरयं फुरुफुरेन्तं ॥८३॥ सन्नाह-सिरत्ताणं, अन्नो वाहरइ लहु पराणेह । धणु-सत्ति-खग्ग- सव्वल - अन्नोन्नाहव्वणारावं ॥८४॥ सन्नज्झिऊण इन्दो, समयं चिय लोगपालचक्केणं । एरावणमारूढो, विणिग्गओ निययनयराओ ॥ ८५ ॥ पडुपडह-भेरिपउरं, काहल - वरसङ्खगहिरसद्दालं । रसिऊण समाढत्तं तूरं घणसद्दनिग्घोसं ॥८६॥ सोऊण तूरसहं, रक्खससेन्नं पि आयरुप्पित्थं । सन्नज्झिउं पयत्तं, हय-गय-रह- तुरय- पाइकं ॥८७॥ सर-सत्ति - चक्क तोमर - असि- मोगगरगहियपहरणावरणं । तक्खणमेत्तेण कयं, रणपरिहत्थं तओ सव्वं ॥ ८८ ॥ तदा भणति सहस्रारः पुत्रैष बलेन संपन्नः । विद्यासहस्त्रधारी एतेन समं वरं सन्धिः ॥७५॥ द्रव्येन साधनेन वा यावच्च शत्रुः समोवाऽधिको वा । ज्ञात्वा देशकालं तावच्च सन्धिः कर्त्तव्या ॥७६॥ पूर्वपुरुषैर्भणितं बलिकैः समं न क्रियते विवादः । भवति महायासकरस्तत्पुनः कार्यं न साधयति ॥७७॥ तदेव जानन्पुत्र ! मा मुह्य निजकार्ये । एतस्मै देहि कन्या यदीच्छस्यात्मनो राज्यम् ॥७८॥ श्रुत्वा वचनमेवमिन्द्रो दृढरोषपरिगतशरीरः । अथ भणितुं प्रवृत्तः शब्देन नभो वा स्फोटयन् ॥७६॥ वध्यस्य च दातव्या कन्या कथं तात ! भाषितं दीनम् ? | मानोन्नतगुरुकाणां न भवत्येतादृशं कर्म ॥८०॥ राजते मरणमपि रण उत्तमपुरुषाणां धीरहृदयानाम् । न च परप्रणामजनितराज्यमपि करोति निर्वाणम् ॥८१॥ एवं भणित्वा शक्रः शीघ्रं सन्नाहमण्डपं लीनः । संनद्धुं प्रवृतः समयमेव लोकपालैः ॥८२॥ अन्यो रथं विलगत्युच्छ्रितध्वजदण्डमण्डनाटोपम् । अन्यश्चलच्चामरं लङ्घते तुरगं स्फुरन्तम् ॥८३॥ सन्नह - शिरस्त्राणमन्यो व्याहरति लघु पराणयत । धनुः शक्ति-खड्ग- सर्वलान्योन्याह्वनारावम् ॥८४॥ सन्नह्येन्द्रः समकमेव लोकपालचक्रेण । ऐरवणमारुढो विनिर्गतो निजनगरात् ॥८५॥ पटु-पटहभेरीप्रचुरं काहल-वरशङ्खगभीरशब्दवत् । रसित्वा समारब्धं तूर्यं घनशब्दनिर्घोषम् ॥८६॥ श्रुत्वा तूर्यशब्दं राक्षससैन्यमप्याकारत्रस्तम् । संनद्धुं प्रवृत्तं हय- गज-रथ-तुरग - पदातिम् ॥८७॥ शर-शक्ति-चक्र-तोमर-ऽसि - मुद्गर-गृहीतप्रहरणावरणम् । तत्क्षणमात्रेण कृतं रणपरिपूर्णं ततः सर्वम् ॥८८॥ १. य सत्तुरस होइ सममहिओ मु० । २. वयणं प्रत्य० । ३. मंडलाडोवं प्रत्य० । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेयड्डगमण-इन्दबंधण-लंकापवेसणाहियारो -१२/७५-१०३ १५३ विसमाहयतूरवं, तुरङ्गवग्गन्त-चडुलपाइक्कं । रक्खसबलं महन्तं, अब्भिट्ट इन्दसुहडाणं ॥८९॥ सुरवइभडेहि एत्तो, फलिहसिलाकुन्तसत्तिपहरेहिं । रक्खसबलस्स पमुहं, भग्गं विवडन्तगय-तुरयं ॥१०॥ दट्ठण निययसेन्नं, भज्जन्तं सुरभडेहि संगामे । सव्वाउहकयजोगा, आवडिया रक्खसा ताणं ॥११॥ वज्जो य वज्जवेगो, हत्थ-पहत्थो तहेव मारीई । सुयर-सारणो य जढरो, गयणुज्जलमाइया सुहडा ॥१२॥ सन्नद्ध-बद्ध-कवया, दढरोसुज्जलियदप्पमाहप्पा । तह जुज्झिउं पवत्ता, जह इन्दबलं समोसरियं ॥१३॥ दट्ठण सेन्नपमुहं, भज्जन्तं रक्खसेहि संगामे । इन्दसुहडा वि ताणं, समुट्ठिया सहरिसुच्छाहा ॥१४॥ घणमाली तडिपिङ्गो, जलियक्खो अद्दिपञ्जरो चेव । जलहरमाई एए, जुज्झन्ति समं निसियरेहिं ॥१५॥ हय-जाण-वहियजोहं, दट्ठण कइद्धओ महिन्दसुओ । उद्धाइओ य सहसा, पसन्नकित्ती रणपयण्डो ॥१६॥ अह मालवन्तपुत्तो, सिरिमाली सरसयाइं मुञ्चन्तो । पविसरइ सुराणीए, रणे जह वणदवो दित्तो ॥१७॥ सिहि-केसरिदण्डो वि य, उग्गो कणयप्पभाइया सुहडा । जुज्झन्ति तेहि समयं, सिरिमालि-पसन्नकित्तीहिं ॥९८॥ सिरिमालीण रणमुहे, एयाण भडाए अद्धयन्देहिं । छिन्नाइं पडन्ति महिं, सिराइँ जह पङ्कयाइं व ॥१९॥ दट्ठण मारिया ते, भिच्चा सयमेव उठ्ठिओ इन्दो । धरिओ य अल्लियन्तो, पुत्तेण तओ जयन्तेणं ॥१०॥ अच्छ पहू ! वीसत्थे, जावेए रणमुहे विवाडेमि । नक्खेण जं विलुप्पइ, तत्थ य परसूण किं कज्जं? ॥१०१॥ सिरिमालि-जयन्ताणं, आवडियं दारुणं महाजुझं । विविहाउहसंघट्ट, उट्ठन्तफुलिङ्गजालोहं ॥१०२॥ सिरिमालीण सहरिसं, चावं आयड्डिऊण कणएणं । विरहो कओ जयन्तो, मुच्छावसवेम्भलो जाओ ॥१०३॥ विषमाहततूर्यरवं तुरङ्गवलाच्चटूलपदातिम् । राक्षसबलं महत् संगतमिन्द्रसुभटानाम् ॥८९॥ सुरपतिभटैरितः स्फटिकशिलाकुन्तशक्तिप्रहरैः । राक्षसबलस्य प्रमुखं भिन्नं विपतद्गजतुरगम् ॥९०।। दृष्ट्वा निजसैन्यं भज्यमानं सुरभटैः संग्रामे । सर्वायुधकृतयोगा आपतिता राक्षसास्तेषाम् ॥९१।। वज्रश्चवज्रवेगो हस्त-प्रहस्तौस्तथैव मारीची। शुक-सारणौ च जठरो गगनोज्वलादिकाः सुभटाः ॥१२॥ सन्नद्ध-बद्ध-कवचा दृढरोषोज्वलितमाहात्म्याः । तथा योद्धं प्रवृत्ता यथेन्द्रबलं समपसृतम् ॥९३।। दृष्ट्वा सैन्यप्रमुखं भज्यमानं राक्षसैः संग्रामे । इन्द्रसुभटा अपि तेषां समुत्थिता सहर्षोत्साहाः ॥९४|| धनमाली तडित्पिगो जलिताक्षोऽद्रीपञ्जरश्चैव । जलधरादय एते युध्यन्ते समं निशाचरैः ॥१५॥ हय-यान-वाहितयोधं दृष्ट्वा कपिध्वजो महेन्द्रसुतः । उद्धावितश्च सहसा प्रसन्नकीर्ती रणप्रचण्डः ।।९६।। अथ माल्यवत् पुत्रः श्रीमाली शरशतानि मुञ्चन् । प्रविसरति सरानीके ऽरण्ये यथा वनदवो दिप्तः ॥९७|| शिखि-केसरिदण्डोऽपि चोग्रः कनकप्रभादिकाः सुभटाः । युध्यन्ते ताभ्यां समं श्रीमालि-प्रसन्नकीर्तिभ्याम् ॥९८।। श्रीमालिना रणमुखे एतेषां भटानामर्धचन्द्रैः । छिन्नानि पतन्ति महीं शिर्षाणि यथा पङ्कजानीव ॥१९॥ दृष्ट्वा मारितास्ते भृत्याः स्वयमेवोत्थित इन्द्रः । धृतश्चालीयन् पुत्रेण ततो जयन्तेन ॥१००।। आस्स्व प्रभो ! विश्वस्तो यावदेते रणमुखे व्यापादयामि । नखेन यद्विलूप्यते तत्र च परशुना किं कार्यम् ? ॥१०१॥ श्रीमालि-जयन्तयोरापतितं दारुणं महायुद्धम् । विविधायुधसंघट्टमुत्तिष्टत्स्फुर्लिज्वालौघम् ॥१०२।। श्रीमालिना सहर्ष चापमाकृष्य कनकेन । विरथः कृतो जयन्तो मुर्छावशविह्वलो जातः ॥१०३॥ पउम. भा-१/२० Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पउमचरियं आसासिऊण समरे, तत्थ जयन्तेण परमरुटेणं । पहओ थणन्तरोवरि, सिरिमालि गयप्पहारेणं ॥१०४॥ दट्ठण विगयजीयं, सिरिमालिं इन्दई रणमुहम्मि । वाहेऊण रहवरं, अभिमुहिहूओ जयन्तस्स ॥१०५॥ रावणपुत्तेण रणे, सुरिन्दपुत्तो सरेहि निब्भिन्नो । रुहिरारुणियसरीरो, गिरि व्व सह गेरुयालिद्धो ॥१०६॥ दट्टण तं जयन्तं, पुत्तं सरघायरुहिरविच्छष्टुं । उद्धाइओ य सहसा, इन्दो एरावणारूढो ॥१०७॥ ढक्कारवेण महया, वियडघडा-रह-तुरङ्ग-पाइक्कं । वेढेइ इन्दसेन्नं, समन्तओ इन्दइकुमारं ॥१०८॥ आलोइऊण पुत्तं वेढिज्जन्तं रणे सुरबलेणं । लङ्काहिवो पयट्टो, इन्दाभिमुहो रहवरत्थो ॥१०९॥ इन्दस्स लोगपाला, आवडिया रक्खसा य रणसूरा । मुञ्चन्ता सरवरिसं, परोप्परं दारुणामरिसा ॥११०॥ असि-कणय-चक्क-तोमर-मोग्गर-करवाल-कोन्त-सुलेहिं । पहरन्ति एक्कमेक्वं, अदिन्नपट्ठी रणे सुहडा ॥१११॥ हण हण हण त्ति कत्थइ, कत्थइ खणखण खणन्ति खग्गाइं । तडतडतडत्ति कत्थइ, सद्दो सरभिन्नदेहाणं ॥११२॥ हत्थी हत्थीण समं, आलग्गो रहवरो सह रहेणं । तुरएण सह तुरङ्गो, पाइक्को सह पयत्थेणं ॥११३॥ सीसगहिएक्कमेक्का, सामियसम्माणलद्धमाहप्पा । जुज्झन्ति समरसूरा, कायरपुरिसा पलायन्ति ॥११४॥ जुज्झन्ताण सहरिसं, अन्नोन्नावडियसत्थघायग्गी । पज्जलइ सव्वओ च्चिय, जणयन्तो सुहडसंतावं ॥११५॥ पडुपडह-भेरि-काहल-गयगज्जिय-तुरयहिंसियरवेणं । न सुणेन्ति एक्कमेक्कं, उल्लावं कण्णवडियं पि ॥११६॥ खग्ग-सर-सत्ति-मोर-पहया लोलन्ति केइ महिवट्टे । पडिउट्ठियं करेन्ता, अवरे हिण्डन्ति वरजोहा ॥११७॥ आश्वास्य समरे तत्र जयन्तेन परमरुष्टेन । प्रहतः स्तनान्तरोपरि श्रीमाली गदा प्रहरेण ॥१०४।। दृष्ट्वा विगतजीवं श्रीमालीनमिन्द्रनिद्रामुखे । वाहयित्वा रथवरमभिमुखीभूतो जयन्तस्य ॥१०५।। रावणपुत्रेण रणे सुरेन्द्रपुत्र शरै निर्भिन्नः । रुधिरारुणितशरीरो गिरिरिव यथा गेरुकालिप्तः ॥१०६।। दृष्ट्वा तं जयन्तं पुत्रं शरघातरुधिरविक्षोभम् । उद्धावितश्च सहसा इन्द्र ऐरावणारुढः ॥१०७|| ढक्कारवेण महता विकटघटारथतुरङ्गपदातिकम् । वेष्टयतीन्द्रसैन्यं समन्तत इन्द्रजित्कुमारम् ॥१०८।। आलोक्य पुत्रं वेष्ट्यमानं रणे सुरबलेन । लङ्काधिपः प्रवृत्तः इन्द्राभिमुखो रथवरस्थः ॥१०९॥ इन्द्रस्य लोकपाला आपतिता राक्षसाश्च रणशूराः । मुञ्चन्तः शरवर्षां परस्परं दारुणामर्षाः ॥११०॥ असि-कनक-चक्र-तोमर-मुद्गर-करवाल-कुन्त-शूलैः । प्रहरन्ति एकमेकमदत्तपृष्ठा रणे सुभटाः ॥१११॥ हण हण हणेति कुत्रचित्कुत्रचित्खन खन खनन्ति खड्गानि । तड तड तडेति कुत्रचित्शब्दः शरभिन्नदेहानाम् ॥११२।। हस्ती हस्तिना सममालग्नो रथवरः सहरथेन । तुरगेण सह तुरङ्गः पदाति सह पदस्थेन ॥११३।। शीर्षगृहीतैकैकाः स्वामिसन्मानलब्धमाहात्म्याः । युध्यन्ते समरशूराः कातरपुरुषाः पलायन्ते ॥११४॥ युध्यमानानां सहर्षमन्योन्यापतितशस्त्रघाताग्निः । प्रज्वलति सर्वत एव जनयन्सुभटसंतापम् ॥११५।। पटु-पटह-भेरि-काहल-गजगर्जितं-तुरगर्हिसितरवेण । न श्रुण्वन्त्येकमेकमुल्लापं कर्णपतितमपि ॥११६।। खड्ग-शर-शक्ति-तोमरप्रहताः लोलन्ति केचिन्महीपीठे। प्रत्युत्थितं कुर्वन्तोऽपरे हिण्डन्ते वरयोधाः ॥११७।। For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ वेयड्डगमण-इन्दबंधण-लंकापवेसणाहियारो-१२/१०४-१३२ तक्खणमेत्तुक्कत्तिय-निवडियसिररुहिरदिन्नचच्चिक्का । विसमाहयतूररवे, नच्चन्ति कबन्धसंघाया ॥११८॥ एयारिसम्मि जुज्झे, निवडन्ते सुहडसत्थसंघाए । लङ्काहिवेण भणिओ, अह एत्तो सारही सुमई ॥११९॥ वाहेहि रहवरं मे, तुरियं इन्दस्स अहिमुहं समरे । किं मारिएहि कीरइ, अन्नेहि अतुल्लविरिएहि ? ॥१२०॥ गुण-रूवअसामन्नं, इन्दत्तं जं इमेण आढत्तं । फेडेमि सव्वमेयं, गव्वं विज्जबलुप्पन्नं ॥१२१॥ एवभणिएण सिग्धं, सारहिणा धय-वडायकयसोहो । मण-पवणसरिसवेगो, इन्दाभिमुहो रहो छूढो ॥१२२॥ दद्रुण रावणं ते, एज्जन्तं सुरभडा भउव्विग्गा । अह नासिउं पयत्ता, लङ्घन्ता चेव अन्नोन्नं ॥१२३॥ भग्गं दट्ठण बलं, इन्दो एरावणट्ठिओ कुद्धो । मुञ्चन्तो सरवरिसं, रक्खसनाहस्स अल्लीणो ॥१२४॥ तं रावणो वि एन्तं, सरवरिसं निययबाणपहरेहिं । सिग्धं दुहा विरिक्वं, करेड़ धणुवेयचलहत्थो ॥१२५॥ घेत्तूण तो सरोसं, अग्गेयं पहरणं सुरिन्देणं । लङ्काहिवस्स उवरिं, विसज्जियं जलणपज्जलियं ॥१२६॥ आरोलियं समत्थं, घणतावुम्हवियरकखसाणीयं । अह रावणेण सिग्धं, वारुणसत्थेण विज्झवियं ॥१२७॥ इन्देण पुणरवि लहुँ, विसज्जियं तामसं महासत्थं । तं रावणो वि सिग्धं, उज्जोयत्येण नासेइ ॥१२८॥ जमदण्डसरिसरूवा, नायसरा फणमणीसु पज्जलिया । लङ्काहिवेण मुक्का, सयलं बन्धन्ति सुरसेन्नं ॥१२९॥ दट्ठण निययसेन्नं, बद्धं नाएहिं विगयसुहचेहँ । गरुडत्थेण सुरवई, भुयङ्गपासे पणासेइ ॥१३०॥ लङ्काहिवो सुरिन्दं, दट्टणं नागपासपरिमुक्कं । आरुहइ तक्खणं चिय, भुवणालङ्कारमत्तगयं ॥१३१॥ सक्को वि गयवरिन्दे, चडिओ एरावणे गिरिसरिच्छे । जुज्झइ दसाणणेणं, समयं हत्थी वि हत्थीणं ॥१३२॥ तत्क्षणमात्रोत्कत्तित-निपतितशीर्षरुधिरदत्तचर्चिकाः । विषमाहततूर्यरवे नृत्यन्ति कबन्धसंघाताः ॥११८॥ एतादृशे युद्धे निपतति सुभटशस्त्रसंघाते । लङ्काधिपेन भणितो ऽथेतः सारथिः सुमतिः ॥११९॥ वाहय रथवरं मे त्वरितमिन्द्रस्याभिमुखं समरे । किं मारितैः क्रियते अन्यैरतुल्यवीर्यैः ॥१२०॥ गुणरुपासामान्यमिन्द्रत्वं यदेतेनारब्धम् । स्फेटयामि सर्वमेतद्गर्वं विद्याबलोत्पन्नम् ॥१२१।। एवं भणितेन शीघ्रं सारथिना ध्वजपताककृतशोभः । मनःपवनसदृशवेग इन्द्राभिमुखो रथः क्षिप्तः ॥१२२।। दृष्ट्वा रावणं तत आयान्तं सुरभटा भयोद्विग्नाः । अथ नष्टुं प्रवृत्ता लङ्घमाना एवान्योन्यम् ॥१२३|| भग्नं दृष्ट्वा बलमिन्द्र ऐरावणस्थितः क्रुद्धः । मुञ्चन्शरवर्षां राक्षसनाथस्यालीनः ॥१२४।। तं रावणोऽप्यायान्तं शरवर्षां निजबाणप्रहारैः । शीघ्रं द्विधा विरक्तं करोति धनुर्वेदचलद्धस्तः ।।१२५।। गृहीत्वा तदा सरोषमाग्नेयं प्रहरणं सुरेन्द्रेण । लङ्काधिपस्योपरि विसर्जितं ज्वलनप्रज्वलितम् ॥१२६।। पुञ्जितं समस्तं घनतापोष्मापितराक्षसानीकम् । अथ रावणेन शीघ्रं वारुणशस्त्रेण विध्यापितम् ॥१२७।। इन्द्रेण पुनरपि लघु विसर्जितं तामसं महाशस्त्रम् । रावणोऽपि शीघ्रमुद्योतास्त्रेण नश्यति ॥१२८।। यमदण्डसदृशरुपा नागशराणि फणमणिभिः प्रज्वलितानि । लङ्काधिपेन मुक्तानि सकलं बध्नन्ति सुरसैन्यम् ॥१२९।। दृष्ट्वा निजकसैन्यं बद्धं नागैर्विगतसुखचेष्टम् । गरुडास्त्रेन सुरपतिर्भुजङ्गपाशान् प्रणश्यति ॥१३०।। लङ्काधिपः सुरेन्द्रं दृष्ट्वा नागपाशपरिमुक्तम् । आरोहति तत्क्षणमेव भुवनालङ्कारमत्तगजम् ।।१३१॥ शक्रोऽपि गजवरेन्द्रमारुढ ऐरावणे गिरिसदृशेम् । युध्यते दशाननेन समकं हस्त्यपि हस्तिना ॥१३२॥ Jain Education Intemalional For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ 'चेव ॥१३३॥ आवडिया कढिणदप्पमाहप्पा । उत्तुङ्गमुसलदन्ता, उप्पाइयपव्वया दोणि वि महागइन्दा, दोfor वि छुहन्ति धाए, दन्तेसु करेसु पुरिसगत्तेसु । गज्जेन्ति गुलुगुलेन्ति य, मेहा इव पाउसे काले ॥१३४॥ पगलन्तदाणसलिला, महुयरगुञ्जन्तबद्धपरिवेढा । चवलपरिहत्थदच्छा, जुज्झन्ति रणे महाहत्थी ॥१३५॥ जय जुज्झन्ति गया, ताव च्चिय दहमुहेण सुरनाहो । अभिलङ्घिऊण गहिओ, हत्थारोहं विवाडेउं ॥ १३६ ॥ दिव्वंसएण बद्धो, निययगइन्दं च वलइउं सिग्घं । ववगयदप्पुच्छाहो, चन्दो इव राहुगहणम्मि ॥१३७॥ घेण पुणो मुक्को, इन्दसुओ इन्दईण संगामे । किं वा तुसेसु कीरड़, तन्दुलसारम्मि संगहिए ? ॥१३८॥ एत्तो इन्दस्स बलं, सव्वं गयवर - तुरङ्ग पाइक्कं । भग्गं पलायमाणं, वेयड्डगिरिं समणुपत्तं ॥१३९॥ घेत् सुराहिवई, दसाणणो निययसाहणसमग्गो । लङ्काहिमुहो चलिओ, छायन्तो अम्बरं विउलं ॥१४०॥ दट्ठूण समासन्ने, लङ्कापुरिजणवओ परियणो य । आगन्तूण अभिमुहो, अहिणन्दइ मङ्गलसएसु ॥१४१॥ ऊसियसियायवत्तो, सुललियधुव्वन्तचामराजुयलो । लङ्कापुरिं पविट्ठो, देवावसहिं व देविन्दो ॥१४२॥ संपत्तो निययघरं, नाणाविहमणिमऊहपज्जलियं । जयसद्दुग्घुगुरवो, पुप्फविमाणाउ अवइण्णो ॥१४३॥ सन्नद्ध-बद्ध-कवया जिणिऊण सत्तू, आणामिया य बहवे वरभूमिपाला । पुव्वज्जिएण विमलेण सुहोदएण, लङ्काहिवो रमइ तत्थ सुहावगाढो ॥१४४॥ ॥ इइ पउमचरिए वेयड्डगमण- इंदबन्धण- लङ्कापवेसणो नाम बारसमो उद्देसओ समत्तो ॥ द्वावपि महागजेन्द्रावापतितौ कठिनदर्पमाहात्म्यौ । उत्तुङ्गमुसलदन्तावुत्पादितपर्वताविव ॥१३३॥ द्वावपि क्षिपतः घातान् दन्तैषु करयोः पुरुषगात्रेषु । गर्जतो गुडगुडतश्च मेघा इव प्रावृषि काले ॥१३४॥ प्रगलद्दानसलिलौ मधुकरगुञ्जद्धद्धपरिवेष्टौ । चपलदक्षदन्तौ युध्येते रणे महाहस्तिनौ ॥ १३५ ॥ यावच्च युध्येते तावदेव दशमुखेन सुरनाथः । अभिलङ्घ्य गृहीतो हस्त्यारोहं व्यापाद्य ॥१३६॥ दिव्यांशुकेन बद्धो निजगजेन्द्रं च वालयित्वा शीघ्रम् । व्यपगतदर्पोत्साह श्चन्द्र इव राहुग्रहणे ॥१३७॥ गृहीत्वा पुनर्मुक्त इन्द्रसुत इन्द्रजिता संग्रामे । किं वा तुषैः क्रियते तन्दुलसारे संगृहीते ? ॥ १३८ ॥ इत इन्द्रस्य बलं सर्वं गजवर - तुरङ्ग - पदातिकम् । भग्नं पलायमानं वैताढ्यगिरिं समनुप्राप्तम् ॥१३९॥ गृहीत्वा सुराधिपतिं दशाननो निजकसाधनसमग्रः । लङ्काभिमुखश्चलितश्छादयन्नम्बरं विपुलम् ॥१४०॥ दृष्ट्वा समासन्ने लङ्कापुरिंजनपदः परिजनश्च । आगत्याभिमुखोऽभिनन्दति मङ्गलशतैः ॥ १४१ ॥ उच्छ्रितश्वेतातपत्रः सुललितधुन्वचामरयुगलः । लङ्कापुरिं प्रविष्टो देववसतिं इव देवेन्द्रः ॥१४२॥ संप्राप्तो निजकगृहं नानाविधमणिमयूखप्रज्वलितम् । जयशब्दोद्धृष्टरवः पुष्पकविमानादवतीर्णः ॥१४३॥ सन्नद्ध-बद्ध-कवचा जित्वा शत्रूनानामिताश्च बहवो वरभूमिपालाः । पूर्वार्जितेन विमलेन शुभोदयेन लङ्काधिपो रमते तत्र सुखावगाढः ॥१४४॥ ॥ इति पद्मचरित्रे वैताढ्यगमन - इन्द्रबन्धन - लंकाप्रवेशनो नाम द्वादशोद्देशः समाप्त ॥ पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. इन्दनिव्वाणगमणाहियारो तो इन्दस्स भडा, पुरओ काऊण तं सहस्सारं । पत्ता रावणभवणं, पडिहारनिवेइओ दिट्ठो ॥१॥ काऊण सिरपणामं, उवविट्ठो आसणे समासन्ने । तो भणइ सहस्सारो, दहवयणं आयरतरेणं ॥२॥ जो तुझ पुरिसयारो, निव्वडिओ विक्कमो पयावो य । मुञ्चसु न किंचि कज्जं, इमेण इन्देण रुद्धेणं ॥ ३ ॥ भइ ओ दहवयणो, जइ मह लङ्काए कज्जवकयारं । फेडेहि अपरितन्तो, दियहे दियहे निययकालं ॥४॥ संमज्जिवलित्ता, काऊण मही इमाए नयरीए । कुसुमेहि अच्चियव्वा, सुरहिसुगन्धेहि दिव्वेहिं ॥५ ॥ एयारिसे निओगे, अज्जपभूइं महं जइ करेहि । मुञ्चामि तओ इन्दं, कत्तो पुण अन्नभेदेणं ? ॥६॥ रावण भणिओ, सलोगपालो तओ सहस्सारो । इन्दस्स मोयणट्टे, अह इच्छइ सव्वमेयं तु ॥७॥ लङ्काहिवेण मुक्को, इन्दो वरदाण-माण- विभवेणं । सम्माणिऊण भणिओ, अज्जपभूइं महं भाया ॥८॥ भुञ्जसु वेयढगिरिं, रहनेउपरचक्कवालनयरत्थो । इन्दिय - मणाभिरामं, अणुहवसु सुहं जहिच्छाए ॥९॥ भणिऊण एवमेयं, सहस्सारो सुरवईण संजुत्तो । पत्तो सलोगपालो, रहनेउरचक्कवालपुरं ॥१०॥ निययभवणं पविट्ठो, सक्को विज्जाहरेहि थुव्वन्तो । सेसा वि लोगपाला, सपुराइँ गया सपरिवारा ॥११॥ १३. इन्द्रनिर्वाणगमनाधिकारः इत इन्द्रस्य भटाः पुरतः कृत्वा तं सहस्रारम् । प्राप्ता रावणभवनं प्रतिहारनिवेदितो दृष्टः ॥ १ ॥ कृत्वा शिरः प्रणाममुपविष्ट आसने समासन्ने । तदा भणति सहस्रारो दशवदनमादरतरेण ॥२॥ यस्तव पुरुषकारो निर्वर्तितो विक्रमः प्रतापश्च । मुञ्च न किंचित्कार्यमनेनेन्द्रेण रुद्धेन ॥३॥ भणति ततो दशवदनो यदि मम लङ्काया कचवरम् । स्फेटयत्यपरितान्तो दिवसे दिवसे नित्यकालम् ॥४॥ संमर्जितोपलिप्ता कृत्वा महीमस्यां नगर्याम् । कुसुमैरचितव्या सुरभिसुगन्धै दिव्यैः ॥५॥ एतादृशान्नियोगानद्यप्रभृति मम यदि करिष्यति । मुञ्चामि तत इन्द्रं कुतः पुनरन्यभेदेन ? ॥६॥ यद्रावणेन भणितः सलोकपालस्ततः सहस्रारः । इन्द्रस्य मोचनार्थेऽथेच्छति सर्वमेतत्तु ॥७॥ लङ्काधिपेन मुक्त इन्द्र वरदान - मान - विभवेन । सन्मान्य भणितोऽद्यप्रभृतिर्मम भ्राता ॥८॥ भुङ्क्ष्व वैताढ्यगिरिं रथनूपूरचक्रवालनगरस्थ: । इन्द्रियमनोऽभिराममनुभवसुखं यथेच्छया ॥९॥ भणित्वेवमेतत्सहस्रारः सुरपतिना संयुक्तः । प्राप्तः सलोकपालो रथनूपूरचक्रवालपुरम् ॥१०॥ निजभवने प्रविष्टः शक्रो विद्याधरैः स्तुवन् । शेषा अपि लोकपालाः स्वपुराणि गताः सपरिवाराः ॥११॥ For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पउमचरियं इन्द्रस्य वैराग्यम् - इन्दो उव्विग्गमणो, न य भवणे आसणे धिई कुणइ । न य कुसुमवरुज्जाणे, पउमसरे नेव रमणिज्जे ॥१२॥ कन्तासु न दइ मणं, इन्दो चिन्तावरो जिणाययणं । गन्तूण पणमिऊण य, अच्छइ भङ्गं विचिन्तेन्तो ॥१३॥ धिद्धी ! अहो ! अकज्जं, कीरइ खेयराण रिद्धीए । विज्जु व्व चञ्चलाए, इन्दाउहलेहसरिसाए ? ॥१४॥ ताओ च्चिय विज्जाओ, ते य भडा ते य गय-तुरङ्गा य । तिणसरिसं व भुयबलं, जायं पुण्णावसाणम्मि ॥१५॥ वेरियनिहेण मज्झं, जाओ लङ्काहिवो परमबन्धू । निस्सारसुहासत्तो, जेणं पडिबोहिओ इहइं ॥१६॥ इन्दिय-मणाभिरामं, सव्वं सुहसंगम पयहिऊण । गिण्हामि पावम हणी, पव्वज्जा जिणवरमयम्मि ॥१७॥ एयम्मि देसयाले, साहू निव्वाणसंगमो नामं । तं चेव जिणायतणं, अवइण्णो गयणमग्गाओ ॥१८॥ दट्ठण मुणिवरिन्दं, सक्को अब्भुट्ठिओ सपरितोसो । ओणमियउत्तमङ्गो, वन्दइ परमेण भावेण ॥१९॥ साहू वि जहायारं, काऊण जिणिन्दचन्दपडिमाणं । दिन्नासणोवविट्ठो, तवतेयसिरीए दिप्पन्तो ॥२०॥ इन्द्रस्य पूर्वभवचरितम् - पुणरवि नमिऊण मुणी, पुच्छइ सक्को परण विणएणं । सामिय ! कहेहि मज्झं, पुव्वभवं जं जहावत्तं ॥२१॥ अह साहिउं पवत्तो, साहू तं पुव्वजम्मसंबन्धं । कह वि भमन्तेण तुमे, लद्धा वि हु माणुसी जाई ॥२२॥ नयरे सिहिपरिनामे.दालिहकलम्मि तत्थ उप्पन्ना। दहिया अलक्खणगणा.वाहीसयपीडियसरीरा ॥२३॥ इन्द्रस्य वैराग्यम्इन्द्र उद्विग्नमना न भवन आसने धृतिं करोति । न च कुसुमवरोद्याने पद्मसरसि नैवरमणीये ॥१२॥ कान्तासु न ददाति मन इन्द्रश्चिन्तापरो जिनायतनम् । गत्वा प्रणम्य चह आस्ते भङ्गं विचिन्तयन् ॥१३॥ धिगहो ! अकार्यं किं क्रियते खेचराणां ऋद्धया। विद्युदिव चञ्चलयेन्द्रायुधलेखासदृश्या? ॥१४॥ तावदेव विद्यास्तेभटास्ते च गज-तुरङ्गाश्च । तृणसदृशमिव भुजबलं जातं पुण्यावसाने ॥१५॥ वैरिनिभेन मम जातो लङ्काधिपः परमबन्धुः । निःसारसुखाशक्तो येन प्रतिबोधित इह ॥१६॥ इन्द्रिय-मनोऽभिराम सर्वं सुखसंगम प्रहाय । गृह्णामि पापमथनीं प्रव्रज्यां जिनवरमते॥१७॥ एतस्मिन् देशकाले साधुनिर्वाणसंगमो नामा । तमेव जिनायतनमवतीर्णो गगनमार्गात् ॥१८॥ दृष्ट्वा मुनिवरेन्द्रं शक्रोऽभ्युत्थितः स परितोषः । अवनतोत्तमाङ्गो वन्दते परमेण भावेन ॥१९॥ साधुरपि यथाऽऽचारं कृत्वा जिनेन्द्रचन्द्रप्रतिमानाम् । दत्तासनोपविष्टस्तपस्तेज:श्रिया दीप्यमानः ॥२०॥ इन्द्रस्य पूर्वभवचरित्रम् - पुनरपि नत्वा मुनिं पृच्छति शक्रः परेण विनयेन । स्वामिन् ! कथय मम पूर्वभवं यद्यथावृत्तम् ॥२१॥ अथ कथयितुं प्रवृत्तः साधुस्तं पूर्वजन्मसम्बन्धम् । कथमपि भ्राम्यता त्वया लब्धाऽपि हु मानुषी जातिः ॥२२॥ नगरे शिखीपुरिनाम्नि दारिद्रकुले तत्रोत्पन्ना । दुहिताऽलक्षणगुणा व्याधिशतपीडितशरीरा ॥२३॥ १. महणि पव्वज्ज-प्रत्य० । २. मुणि-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्दनिव्वाणगमणाहियारो - १३/१२-३८ १५९ माया पिया यती कालगया दो वि कम्मजोएणं । कह कह वि जीविया सा, लोगुच्छिद्वेण भत्तेणं ॥ २४ ॥ फुडियकर- पायजुयला, लुक्खसरीरा कुवत्थपरिहाणा । परिभमइ दुक्खियमणा, भेसिज्जन्ती जणवणं ॥ २५ ॥ कम्मपरिनिज्जराए, कालं काऊण तत्थ उववन्ना । किंपुरिसस्स महिलिया, नामेणं खीरधार त्ति ॥२६॥ तत्तो चुया समाणी, रयणपुरे धारिणीए गब्भम्मि । गोमुहकुडम्बियसुओ, सहस्सभाओ समुप्पन्नो ॥२७॥ सम्मत्तं पडिवन्नो, सहस्सभाओ अणुव्वयसमग्गो । कालं काऊण तओ, सुक्कविमाणे समुप्पन्नो ॥ २८ ॥ चविऊण विमाणाओ, पुव्विल्ले रयणसंचए नयरे । गुणवल्लीए पुत्तो, जाओ च्चिय मणिरएण तओ ॥ २९ ॥ अह नन्दिवद्धणो सो, रज्जं काऊण जिणवरेण समं । पव्वइओ करिय तवं, गेवेज्जं उत्तमं पत्तो ॥ ३०॥ अहमिन्दपवरसोक्खं, भोत्तूण चुओ इहं भरहवासे । मणसुन्दरीए जाओ, सहसारसुओ तुमं इन्दो ॥३१॥ इन्दत्तं पडिवन्नो, मणाभिलासेण गब्भसमयम्मि । इह चक्कवालयनरे, जाओ विज्जाहराहिवई ॥३२॥ किं परितप्पसि दीहं, जह संगामे विणिज्जिओ अहयं ? । एयनिमित्तेण तुमं, कम्मकलङ्काउ मुच्चिहिसि ॥३३॥ किं न सरसि जं पुव्वं, कीलन्तेण वि य दुण्णएण कयं । तं सव्वं फुडवियडं, कहेमि निसुणेहि एगमणो ॥ ३४ ॥ नयरे अरिंजयपुरे, जलणसिहो नाम खेयराहिवई । महिला से वेगवई, दुहिया वि य होइ आहल्ला ॥३५॥ ती सयंवर, मिलिया विज्जाहरा बहुवियप्पा । बल- रिद्धिसमुदएणं, तुमं पि पत्तो तहिं चेव ॥ ३६ ॥ चन्दावत्तरुत्तम - सामी आणन्दमालिणो नामं । गहिओ सयंवराए, परभवकम्माणुभावेणं ॥३७॥ परिणेऊण नरिन्दो, तं कन्नं रूव-जोव्वणापुण्णं । रइसागरोवगाढो, भुञ्जइ भोगे सुरवरो व्व ॥३८॥ T माता पिता च तस्याः कालगतौ द्वावपि कर्मयोगेन । कथंकथमपि जीविता सा लोकोच्छिष्टेन भक्तेन ॥२४॥ स्फुटित कर - पादयुगला रुक्षशरीरा कुवस्त्रपरिधाना । परिभ्रमति दुःखितमना भेषयमाणी जनपदेन ॥२५॥ कर्मपरिनिर्जरया कालं कृत्वा तत्रोत्पन्ना । किंपुरुषस्य महिला नाम्ना क्षीरधारेति ||२६|| ततश्च्युता सती रत्नपुरे धारिण्या गर्भे । गोमुखकुटुम्बिसुतः सहस्रभानुः समुत्पन्नः ||२७|| सम्यक्त्वं प्रतिपन्नः सहस्रभानुरणुव्रतसमग्रः । कालं कृत्वा ततः शुक्रविमाने समुत्पन्नः ॥२८॥ च्युत्वा विमानात्पूर्वे रत्नसञ्चये नगरे। गुणवल्याः पुत्रो जात एव मणिरत्नेन ततः ॥२९॥ अथ नन्दिवर्धनः स राज्यं कृत्वा जिनवरेण समम् । प्रव्रजितः कृत्वा तपो ग्रैवेयकमुत्तमं प्राप्तः ||३०|| अहमिन्द्रप्रवरसुखं भुक्त्वा च्युत इह भरतवर्षे । मनः सुन्दर्या जातः सहस्रारसुतस्त्वमिन्द्रः ॥३१॥ इन्द्रत्वं प्रतिपन्नो मनोऽभिलाषेण गर्भसमये । इह चक्रवालनगरे जातो विद्याधराधिपतिः ॥३२॥ किं परितप्यसे दीर्घं यथा संग्रामे विनिर्जितोऽहम् ? । एतन्निमित्तेन त्वं कर्मकलङ्कान्मोक्ष्यसि ||३३|| किं न स्मरसि यत्पूर्वं क्रीडताऽपि च दुर्नयेन कृतम् । तत्सर्वं स्फुटविकटं कथयामि निश्रुण्वेकाग्रमनाः ||३४|| नगरे अरिंजयपुरे ज्वलनसिंहो नाम खेचराधिपतिः । महिला तस्य वेगवती दुहिताऽपि च भवत्यहल्या ||३५|| तस्याः स्वयंवरार्थे मिलिता विद्याधरा बहुविकल्पाः । बल- ऋद्धिसमुदायेन त्वमपि प्राप्तस्तत्रैव ॥३६॥ चन्द्रावर्त्तेपुरोत्तमस्वाम्यानन्दमाली नाम । गृहीतः स्वयंवरया परभवकर्मानुभावेन ||३७|| परिणय्य नरेन्द्रस्तां कन्यां रुपयौवनापूर्णाम् । रतिसागरावगाढो भुनक्ति भोगान् सुरवर इव ||३८|| I For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पउमचरियं तत्तो पभूइ तुहयं, ईसावसरोसपसरियसरीरो । न य छड्डुसि अणुबन्धं, तस्सुवरिं नन्दिमालिस्स ॥३९॥ अह अन्नया कयाई, संजमकम्मोदएण पडिबुद्धो । निक्खमइ नन्दिमाली, चइऊण परिग्गहा-ऽऽरम्भं ॥४०॥ विहरन्तो संपत्तो, नदीए हंसावलीए तीरम्मि । समणसहिओ महप्पा, दिट्ठो य तुमे भमन्तेण ॥४१॥ ओलक्खिओ य साहू, झाणत्थो पव्वए रहावत्ते । सरियं ते जं वत्तं, आहल्लाकारणं सव्वं ॥४२॥ रुटेण तुमे बद्धो, समणो सव्वेसु चेव अङ्गेसु । तह वि न कम्पइ समणो, मेरू विव वायगुञ्जाहिं ॥४३॥ समणस्स निययभाया, साहू कल्लाणगुणधरो नामं । दट्ठण य उवसग्गं, रुट्ठो पडिमं समाणेइ ॥४४॥ कोवाणलेण सिग्धं, डहिऊण निरूविओ समाणेणं । सव्वसिरीए महरिसी, उवसमिओ तुज्झ महिलाए ॥४५॥ सम्मत्तभावियमई, तं महिलं पेच्छिउँ दयावन्नो । समणो पसन्नमणसो, जाओ च्चिय तक्खणं चेव ॥४६॥ निम्ममनिरहङ्कारं, जो निन्दइ साहवं दढचरित्तं । आहणइ सवइ मूढो, सो पावइ दीहसंसारं ॥४७॥ एवं नाऊण तुमे, पुण्णस्स पराभवस्स य विसेसं । धम्मेण नवरि छिज्जइ, एयं दुक्खासयं सव्वं ॥४८॥ सुणिऊण निययचरियं, सक्को संवेगजायसब्भावो । पणमइ मुणी निसण्णो, पुणो पुणो मुणियपरमत्थो ॥४९॥ दाऊणं उवएसं, साहू संपत्थिओ निययठाणं । इन्दो वि सयलरज्जे, ठवेई पुत्तं विरियदत्तं ॥५०॥ आपुच्छिऊण सक्को, माया-पिय-सयण-महिलियाओ य । गिण्हइ जिणोवइटुं, पव्वज्जं दुक्खमोक्खढे ५१॥ अन्नोन्नजोगकरणेहि तवोविहाणं, काऊण कम्मकलुसस्स य सव्वनासं । उप्पन्ननाणविमलामलसुद्धभावो, इन्दो सिवं उवगओ परिनिट्ठियट्ठो ॥५२॥ ॥ इय पउमचरिए इन्दनिव्वाणगमणो नाम तेरसमो उद्देसओ समत्तो ॥ ततः प्रभृति त्वमिर्ध्यारोषप्रसरितशरीरः । न च मुञ्चस्यनुबन्धं तस्योपरि नन्दिमालिनः ॥३९॥ अथान्यदा कदाचित्संयमकर्मोदयेन प्रतिबद्धः । निष्क्रमति नन्दीमाली त्यक्त्वा परिग्रहाऽऽरम्भम ॥४०॥ विहरन्संप्राप्तो नद्या हंसावल्यास्तीरे। श्रमणसहितो महात्मा दृष्टश्च त्वया भ्राम्यता ॥४१॥ उपलक्षितश्च साधुानस्थः पर्वते रथावर्ते । स्मतं तव यद्तमहल्याकारणं सर्वम ॥४२॥ रुष्टेन त्वया बद्धः श्रमणः सर्वेषु चैवाङ्गेषु । तथाऽपि न कम्पते श्रमणो मेरुरिव गुञ्जावातैः ॥४३॥ श्रमणस्य निजभ्राता साधुः कल्याणगुणधरो नाम । दृष्ट्वा चोपसर्ग रुष्टः प्रतिमां समानयति ॥४४॥ कोपानलेन शीघ्रं दग्द्धं निरुपितः सन् । सर्वश्रिया महर्षिरुपशामितस्तव महिलया ॥४५॥ सम्यक्त्वभावितमतिस्तां महिलां दृष्ट्वा दयापन्नः । श्रमणः प्रसन्नमना जात एव तत्क्षणमेव ॥४६॥ निर्ममनिरहंकारं यो निन्दति साधुं दृढचारित्रम् । आहन्ति शपति मूढः स प्राप्नोति दीर्घसंसारम् ॥४७॥ एवं ज्ञात्वा त्वया पुण्यस्य पराभवस्य च विशेषम् । धर्मेण किन्तु छिद्यते एतद्दुःखासयं सर्वम् ॥४८।। श्रुत्वा निजचरित्रं शक्रः संवेगजातसद्भावः । प्रणमति मुनि निषण्णः पुनः पुन तिपरमार्थः ॥४९।। दत्वोपदेशं साधुः संप्रस्थितो निजस्थानम् । इन्द्रोऽपि सकलराज्ये स्थापयति पुत्रं वीर्यदत्तम् ॥५०॥ आपृच्छय शक्रो माता-पिता-स्वजन-महिलाश्च । गृह्णाति जिनोपदिष्टां प्रव्रज्यां दुःखमोक्षणार्थे ॥५१॥ अन्योन्ययोगकरणैस्तपोविधानं कृत्वा कर्मकालुष्यस्य च सर्वनाशम् । उत्पन्नज्ञानविमलामलशुद्धभाव इन्द्रः शिवमुयगतः परिनिष्ठितार्थः ॥५२॥ ॥ इति पद्मचरित्र इन्द्रनिर्वाणगमनो नाम त्रयोदशोद्देशः समाप्तः ॥ Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. अणंतविरियधम्मकहणाहियारो अह सो सुरिन्दनाहो, मेरुं गन्तूण चेइयहराई । थोऊण पडिनियत्तो, आगच्छइ निययलीलाए ॥१॥ घणगुरुगभीरसरिसं, सद्दं सोऊण रावणो खुहिओ । पेच्छइ य पलोयन्तो, कुंकुमवण्णं दिसाचक्कं ॥२॥ परिपुच्छ्इ मारीई, कस्सेसो मेहसरिसनिग्घोसो ? । किं वा इमं समत्थं, भुवणं रत्तारुणच्छायं ? ॥३॥ भाइ तओ मारीई, सुवण्णतुङ्गे अणन्तविरियस्स । लोगा- लोगपगासं, उप्पन्नं केवलं नाणं ॥४॥ जन्ता साहुमूलं, देवाणं एस तूरनिग्घोसो । मणिमउडकिरणपसरिय-रएण भुवणं पि विच्छुरियं ॥५॥ सुणिऊण तस्स वयणं, अवइण्णो रावणो जणियतोसो । वन्दइ मुणिवरवसहं, तिक्खुत्त' पाहणं काउं ॥६॥ ताव च्चिय पढमयरं, देवा अभिवन्दिऊण उवविट्ठा | बीओ सुराहिवो इव, तत्थाऽऽसीणो दहमुहो वि ॥७॥ देव- मणुसु एत्तो, खयरवसहेसु आसणत्थेसु । सीसेण तत्थ समणो, जीवहियं पुच्छिओ धम्मं ॥८ ॥ तो फुड - वियपयत्थं निम्मल-निउणं सहावमहुरगिरं । कहिऊण समाढत्तो, बन्धं मोक्खं च मुणिवस ॥ ९ ॥ अट्ठविहकम्मबद्धो, जीवो परिभमड़ दीहसंसारं । दुक्खाणि अणुहवन्तो, उदएणं वेयणिज्जस्स ॥१०॥ जइ कह वि माणुसत्तं, लभइ य परिनिज्जराए कम्माणं । तह वि य न कुणइ धम्मं, रस-फरिसवसाणुगो जीवो ॥११॥ १४. अनंतवीर्य धर्मकथनाधिकारः अथ स सुरेन्द्रनाथो मेरुं गत्वा चैत्यगृहाणि । स्तुत्वा प्रतिनिवृत्त आगच्छति निजलीलया ॥१॥ घनगुरुगम्भीरसदृशं शब्दं श्रुत्वा रावणः क्षुभितः । पश्यति च प्रलोकयन्कुङ्कुमवर्णं दिक्क्क्रम् ॥२॥ परिपृच्छति मारीचि कस्यैष मेघसदृशनिर्घोषः । किं वेदं समस्तं भुवनं रक्तारुणच्छायम् ? ॥३॥ भणति ततो मारीचिः सुवर्णोतुङ्गेऽनन्तवीर्यस्य । लोकालोकप्रकाशमुत्पन्नं केवलं ज्ञानम् ॥४॥ यातां साधुमूलं देवानामेष तूर्यनिर्घोषः । मणिमुकुटकिरणप्रसरितरजसा भुवनमपि विच्छुरितम् ॥५॥ श्रुत्वा तस्य वचनमवतीर्णो रावणो जनिततोषः । वन्दते मुनिवरवृषभं त्रिः कृत्वा प्रदक्षिणं कृत्वा ||६|| तावदेव प्रथमतरं देवा अभिवन्द्योपविष्टाः । द्वितीयसुराधिप इव तत्रासीनो दशमुखोऽपि ||७|| देव-मनुजेष्वितः खेचरवृषभेष्वासनस्थेषु । शिष्येणं तत्र श्रमणो जीवहितं पृष्टो धर्मम् ॥८॥ तदा स्फुट-विकटपदार्थं निर्मल-निपुणं स्वभावमधुरगिरम् । कथयितुं समारब्धो बन्धमोक्षं च मुनिवृषभः ॥९॥ अष्टविधकर्मबद्धो जीव परिभ्रमति दीर्घसंसारम् । दुःखान्यनुभवन्नुदयेन वेदनीयस्य ॥१०॥ यदि कथमपि मानुष्यत्वं लभते च परिनिर्जरया कर्माणाम् । तथापि न करोति धर्मं रस - स्पर्शवशानुगो जीवः ॥ ११ ॥ १. त्रिवारा । पउम भा-१/२१ For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पउमचरियं रत्ता दुट्ठा मूढा, जे एत्थ कुणन्ति पावयं कम्मं । ते जन्ति नरयलोयं, बहुवेयणसंकुलं घोरं ॥१२॥ वच्चन्ति महारम्भा, महाहिगरणा परिग्गहमहन्ता । तिव्वकसायपरिणया, ते वि य नरयं पवज्जन्ति ॥१३॥ नरक गतिःमाया-पिइ-गुरु-भाया-भगिणी-पत्ती-सुयं च घाएन्ति । ते चण्डकैम्मकारी, वच्चन्ति मया महानरयं ॥१४॥ मंसरसलुद्धगा वि य, वाउरिया वाह-मच्छबन्धा य । आलीविया वि चोरा, गामा-ऽऽगर-देसघाया य ॥१५॥ जे विय मारेन्ति पस. परोहिया होमकारणज्जत्ता । गम्माहिवई वि नरा, ते वि य नरगोवगा होन्ति ॥१६॥ सीह-ऽच्छभल्ल-चित्तय-तन्तुय-तिमि-मयर-सुंसुमारा य । वच्चन्ति ते वि नरयं, जीवाहारा महापावा ॥१७॥ पाडिप्पवग-बलाया, गिद्धा कुरुला य वझुला चेव । उरगा महोरगा वि य, सव्वे ते नरयपहगामी ॥१८॥ एए उ महारम्भा, भणामि एत्तो महाहिगरणेण य । जे नरवईण मन्ती, दूया आएसदाया य ॥१९॥ ईसत्थउवज्झाया, विसजोगपउञ्जणा अलियवादी । मरिऊण जन्ति निरयं, नरिन्दनेमित्तिया जे य ॥२०॥ अन्ने वि एवमाई, वायाए अज्जिणन्ति जे पावं । ते सव्वे अहिगरणा, हवन्ति नरओवगा मणुया ॥२१॥ चक्कहरा य नरिन्दा, मण्डलिया रटुसामिणो जे य । अन्ने वि एवमाई, बहवे नरओवगा होन्ति ॥२२॥ मण-वयण-कायगुत्तं, निरहंकारं जिइन्दियं धीरं । समणं च जो दुगुच्छड, सो वि य नरयं समज्जेड़ ॥२३॥ रक्ता द्विष्टा मूढा येऽत्र कुर्वन्ति पापकं कर्म । ते यान्ति नरकलोकं बहुवेदनासंकुलं घोरम् ॥१२॥ व्रजन्ति महारम्भा महाधिकरणाः परिग्रहमहान्तः । तीव्रकषायपरिणतास्तेऽपि च नरकं प्रपद्यन्ते ।।१३।। नरकगतिः माता-पिता-गुरु-भ्राता-भगिनी-पत्नी-सुतं च घातयन्ति । ते चण्डकर्मकारीणो व्रजन्ति मृता महानरकम् ॥१४।। मांसरसलुब्धका अपि च वागुरिका व्याघमत्स्यबन्धाश्च । आदीपिका अपि चौरा ग्रामाऽऽकरदेशघाताश्च ।।१५।। येऽपि च मारयन्ति पशुन् पुरोहिता होमकरणुद्युक्ताः । गुल्माधिपतयोऽपि नरास्तेऽपि च नरकोपगा भवन्ति ॥१६।। सिंहःभल्ल चित्रक-तन्तुक-तिमि-मगर सुंसुमाराश्च । गच्छन्ति तेऽपि नरकं जीवाहरा महापापा ॥१७|| पारिप्लवक-बलाका-गीध-कुललाश्च वञ्जुला एव । उरगा-महोरगा अपि च सर्वे ते नरकपथगामिनः ॥१८॥ एते तु महारम्भा भणामीतो महाधिकरणेन च । जे नरपतयो मन्त्रिणो दूता आदेशदाताश्च ॥१९॥ इष्वस्त्रोपाध्याया विषयोगप्रयाजना अलिकवादिनः । मृत्वा यान्ति नरकं नरेन्द्रनैमेत्तिका ये च ॥२०॥ अन्येऽप्येवमादयो वाचाऽर्जयन्ति ये पापम् । ते सर्वेऽधिकरणा भवन्ति नरकोपगा मनुष्याः ।।२१।। चक्रधराश्चनरेन्द्रा माण्डलिका राष्ट्रस्वामिनो ये च । अन्येऽप्येवमादयो बहवो नरकोपगा भवन्ति ॥२२॥ मनोवचन-कायगुप्तं, निरहंकारं जितेन्द्रियं धीरम् । श्रमणं च यो जुगुप्सति सोऽपि च नरकं समर्जयति ॥२३॥ १. मृताः । २. वागुरिकाः । ३. परिप्लवा: - चपलजातीया हंसाः, कुलला-रक्तचरणहंसाः, वञ्जुलाः खञ्जनाः पक्षिविशेषाः । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणतविरियधम्म कहणाहियारो - १४/१२-३४ एवंविहाय जीवा, नरए वहुवेयणा समुप्पन्ना । छिज्जन्ति य भिज्जन्ति य, करवत्त - ऽसिपत्त-जन्तेसु ॥२४॥ सीय वग्घे य, पक्खीसु य लोहतुण्डमाईसु । खज्जन्ति आरसन्ता, पावा पावन्ति दुक्खाई ॥२५॥ तिर्यग्गति: पुण निडीकुडिला, कूडतुला - कूडमाणववहारी । रसभेदिणो य पावा, जे य ठिया करिसणाईसु ॥२६॥ अन्ने वि एवमाई, इन्दियवसगा विमुक्कधम्मपुरा । अट्टज्झाणेण मया, ते वि य गच्छन्ति तिरियगई ॥२७॥ निच्चं भयहुयमणा, असण- तिसा - वेयणापरिग्गहिया । अणुहोन्ति तिरियजीवा, तिक्खं दुक्खं निययकालं ॥२८॥ मनुष्यगतिः गो-महिसि - उट्ट - पसुया, तणचारी एवमाईया बहवे । मरिऊण होन्ति मणुया, मन्दकसाया नरा जे य ॥२९॥ आरिय - अणारिय विय, कुलेसु अहमुत्तमेसु उववन्ना । अप्पाउया य दीहाउया य जीवा सकम्मेसु ॥३०॥ एत्थ अन्ध-बहिरा, मूया खुज्जा य वामणा पंगू । धणवन्ता गुणवन्ता, केइ दरिद्देण अभिभूया ॥३१॥ लोभमहागहगहिया, केई पविसन्ति रणमुहं सूरा । अवरे य सायरवरे, वीईसंघट्टकल्लोले ॥३२॥ एत्थ अडविमज्झे, सत्थाहा पविसरन्ति बीहणयं । अन्ने वि करिसणाईवावारसएस संजुत्ता ॥३३॥ देवगतिः एवं मयईए, सव्वत्तो जाणिऊण दुक्खाइं । सहरागसंजमा वि य, करेन्ति धम्मं बहुवियप्पं ॥३४॥ एवंविधाश्च जीवा नरके बहुवेदना समुत्पन्नाः । छिद्यन्ते च भिद्यन्ते च करपत्रासिपत्रयन्त्रैः ॥२४॥ सिंहैश्च व्याघ्रैश्च पक्षिभिश्चायस्तुण्डादिभिः । खाद्यन्त आरटन्तः पापाः प्राप्नुवन्ति दुःखानि ॥२५॥ तिर्यग्गतिः ये पुन र्निकृतिकुटिलाः कूटतुलाकुटमानव्यवहारिणः । रसभेदिनश्च पापा ये च स्थिताः कर्षणादिभिः ॥२६॥ अन्येऽप्येवमादय इन्द्रियवशगा विमुक्तधर्मधुराः । आर्तध्यानेन मृतास्तेऽपि च गच्छन्ति तिर्यग्गतिम् ॥२७॥ नित्यं भयपीडितमनसोऽसन - तृषा - वेदनापरिगृहीताः । अनुभवन्ति तिर्यज्जीवास्तीक्ष्णं दुःखं नित्यकालम् ॥ २८॥ मनुष्यगति: गो-महिष्युष्ट्रपशवस्तृणचारिण एवमादयो बहवः । मृत्वा भवन्ति मनुष्या मन्दकषाया नरा ये च ॥२९॥ आर्यानार्या अपि च कुलेष्वधमोत्तमेषूत्पन्नाः । अल्पायुष्काश्च दीर्घायुष्काश्च जीवाः स्वकर्मभिः ||३०|| केचिदन्धबधिरा मूकाः कुब्जाश्च वामनाः पङ्गव: । धनवन्तो गुणवन्तः केऽपि दरिद्रेणाभिभूताः ॥३१॥ लोभमहाग्रहगृहीता केऽपि प्रविशन्ति रणमुखं शूराः । अपरे च सागरवरे वीचीसंघट्टकल्लोले ॥३२॥ केऽत्राटवीमध्ये सार्थवाहाः प्रविशन्ति भयानके । अन्येऽपि कर्षणदिव्यापारशतैः संयुक्ताः ||३३|| देवगतिः एवं मनुष्यगत्यां सर्वतो ज्ञात्वा दुःखानि । सरागसंयमा अपि च कुर्वन्ति धर्मं बहुविकल्पम् ॥३४॥ १६३ For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पउमचरियं पञ्चाणुव्वयजुत्ता, केएत्थ अकामनिज्जराए य । एवंविहा मणुस्सा, मरिऊण लहन्तिदेवत्तं ॥३५॥ केएत्थ भवणवासी, वन्तर-जोइसिय-कप्पवासी य । जोगविसेसेण पुणो, हवन्ति अहमुत्तमा देवा ॥३६॥ एवं चउप्पयारे, संसारे संसरन्ति कम्मवसा । जीवा मोहपरिणया, तं सिवसोक्खं अपावेन्ता ॥३७॥ सुपात्रकुपात्रं दानं, तत्प्रकाराः फलं चःदाणेण वि लभइ नरो, सुमाणुसुत्तं तहेव देवत्तं । जं देइ संजयाणं, चारित्तविसुद्धसीलाणं ॥३८॥ जे नाण-संजमरया, अणन्नदिट्ठी जिइन्दिया धीरा । ते नाम होन्ति पत्तं, समणा सव्वुत्तमा लोए ॥३९॥ सुह-दुक्खेसु य समया, जेसिं माणे तहेव अवमाणे । लाभा-ऽलाभे य समा, ते पत्तं साहवो भणिया ॥४०॥ भावेण य जं दिन्नं, फासुयदाणोसहं मुणिवराणं । तं इन्दियाभिरामं, विउलं पुण्णफलं होइ ॥४१॥ मिच्छदिट्ठीण पुणो, जं दिज्जइ राग-दोसमूढाणं । आरम्भपरिणयाणं, तं चिय अफलं हवइ दाणं ॥४२॥ कूएक्करसजलेणं, अहिसित्ता पायवा बहुवियप्पा । तित्तं च महुर-कडुया, हवन्ति निययाणुभावेणं ॥४३॥ एवमिह भत्तमेयं, सुसीलवन्ताण सीलरहियाणं । दिन्नं अन्नम्मि भवे, सुहमसुहफलावहं होइ ॥४४॥ अप्पसरिसाण दाणं, जं दिज्जइ कामभोगतिसियाणं । तं न हु फलं पयच्छइ, धणियं पि हु उज्जमन्ताणं ॥४५॥ हा ! कट्ठ चिय लोओ, कहयं वेयारिओ कुलिङ्गीहिं । कुग्गन्थकत्थएहि, उम्मग्गपलोट्टजीवेहिं ? ॥४६॥ उवइटुंचिय मंसं, जागं काऊण भुञ्जह न दोसो । इन्दियवसाणुगेहिं, परलोगनियत्तचित्तेहिं ॥४७॥ पञ्चाणुव्रतयुक्ताः केचिदकामनिर्जरया च । एवंविधा मनुष्या मृत्वा लभन्ते देवत्वम् ।।३५।। केचिद्भवनवासिनो व्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पवासिनश्च । योगविशेषेण पुनर्भवन्त्यघमोत्तमा देवाः ॥३६।। एवं चतुःप्रकारे संसारे संसरन्ति कर्मवशाः । जीवा मोहपरिणतास्तं शिवसुखमप्राप्नुवन्तः ॥३७॥ सुपात्रकुपात्रं दानं, तत्प्रकाराः, फलं चदानेनाऽपि लभते नरः सुमनुष्यत्वं तथैव देवत्वम् । यो ददाति संयतेभ्यश्चारित्रविशुद्धशीलेभ्यः ॥३८॥ ये ज्ञानसंयमरता अनन्यदृष्टयो जितेन्द्रया धीराः । ते नाम भवन्ति पात्रं श्रमणा सर्वोत्तमा लोके ॥३९।। सुख-दुःखेषु च समका येषां माने तथापमाने । लाभाऽलाभे च समा ते पात्रं साधवो भणिताः ॥४०॥ भावेन च यद्दत्तं प्रासुकदानौषधं मुनिवरेभ्यः । तदिन्द्रियाभिरामं विपुलं पुण्यफलं भवति ॥४१॥ मिथ्यादृष्टिभ्यः पुन र्यद्दीयते राग-द्वेषमूढेभ्यः । आरम्भपरिणतेभ्यस्तदेवाफलं भवति दानम् ॥४२॥ कूपैकरसजलनाभिषिक्ताः पादपा बहुविकल्पाः । तिक्तं च मधुर-कटुका भवन्ति निजकानुभावेन ॥४३॥ एवमिह भक्तमेतत्सुशीलवद्भयः शीलरहितेभ्यः । दत्तमन्यस्मिन्भवे शुभमशुभफलावहं भवति ॥४४॥ आत्मसदृशेभ्यो दानं यद्दीयते कामभोगतृषितेभ्यः । तं न हु फलं प्रयच्छत्यत्यन्तमपि हूद्यमताम् ॥४५॥ हा ! कष्टमेव लोकः कथकं वितारितः कुलिङ्गिभिः । कुग्रन्थकथयद्भिन्मार्गपर्यस्तजीवैः ? ॥४६॥ उपदिष्टमेव मांसं यागं कृत्वा भुङ्ग्ध्वं न दोषः । इन्द्रियवशानुगैः परलोकनिवृत्तचित्तैः ॥४७॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतविरियधम्मकहणाहियारो-१४/३५-६० १६५ काऊण धम्मबुद्धी, जे मंसं देन्ति जे य खायन्ति । उभओ वि जन्ति नरयं, तिव्वमहावेयणं घोरं ॥४८॥ जइ वि हु तवं महन्तं, कुणइ य तित्थाभिसवणं सयलं । मंसं च जो न भुञ्जइ, तं तेण समं न य भवेज्जा ॥४९॥ गो-इत्थि-भूमिदाणं, सुवण्णदाणं च जे पउञ्जन्ति । ते पावकम्मगरुया, भमन्ति संसारकन्तारे ॥५०॥ बन्धण-ताडण-दमणं, तु होइ गाईण दारुणं दुक्खं । हल-कुलिएसु य पुहई, दारिज्जइ जन्तुसंघाया ॥५१॥ जो वि ह देइ कुमारी, सो वि हु रागं करेड़ गिद्धि च । रागेण होइ मोहो, मोहेण वि दुग्गईगमणं ॥५२॥ हेमं भयावहं पुण, आरम्भ-परिग्गहस्स आमूलं । तम्हा वज्जेन्त मुणी, चत्तारि इमाणि दाणाणि ॥५३॥ नाणं अभयपयाणं, फासुयदाणं च भेसजं चेव । एए हवन्ति दाणा, उवइट्ठा वीयरागेहिं ॥५४॥ नाणेण दिव्वनाणी, दीहाऊ होइ अभयदाणेणं । आहारेण य भोगं, पावइ दाया न संदेहो ॥५५॥ लहइ य दिव्वसरीरं, साहूणं भेसजस्स दायारो । निरुवहयंगोवङ्गो, उत्तमभोगं च अणुहवइ ॥५६॥ जह वड्डइ वडबीयं, पुहइयले पायवो हवइ तुङ्गो । तह मुणिवराण दाणं, दिन्नं विउलं हवइ पुण्णं ॥५७॥ जह खेत्तम्मि सुकिटे, सुबहुत्तं अब्भुयं हवइ बीयं । तह संजयाण दाणं, महन्तपुण्णावहं होइ ॥५८॥ जह ऊसरम्मि बीयं, खित्तं न य तस्स होइ परिवुड्डी । तह मिच्छत्तमइलिए, पत्ते अफलं हवइ दाणं ॥५९॥ सद्धा सत्ती भत्ती, विन्नाणेण य हवेज्ज जं दिन्नं । तं दाणं विहिदिन्नं, पुण्णफलं होइ नायव्वं ॥६०॥ कृत्वा धर्मबुद्धि र्ये मांसं ददति ये च खादन्ति । उभयोऽपि यान्ति नरकं तीव्रमहावेदनं घोरम् ॥४८॥ यद्यपि हु तपोमहत्करोति च तीर्थाभिसेवनं सकलम् । मासं च यो न भुडक्ते तत्तेन समं च भवेत् ॥४६॥ गो-स्त्री-भूमिदानं सुवर्णदानं च जे प्रयोजयन्ति । ते पापकर्मगुरुका भ्रमन्ति संसारकान्तारे ॥५०॥ बन्धन-ताडन-दमनं तु भवति गवां दारुणं दुःखम् । हलकुलियैश्च पृथिवी दार्यते जन्तुसंघातम् ॥५१।। योऽपि हु ददाति कुमारी सोऽपि हु रागं करोति गृद्धिं च । रागेण भवति मोहो मोहेनापि दुर्गतिगमनम् ॥५२॥ हेम भयावहं पुनरारम्भ-परिग्रहस्यामूलम् । तस्माद्वर्जयति मुनिश्चत्वारीमानि दानानि ॥५३।। ज्ञानमभयप्रदानं प्रासुकदानं च भेषजमेव । एते भवन्ति दाना उपदिष्टा वीतरागैः ॥५४॥ ज्ञानेन दिव्यज्ञानी दीर्घायु भवत्यभयदानेन । आहारेण च भोग प्राप्नोति दाता न संदेहः ॥५५।। लभतच दिव्यशरीरं साधुभ्या भेषजस्य दाता । निरुपहताङ्गोपाङ्गमुत्तमभोगं चानुभवति ॥५६।। यथा वर्धते वटबीजं पृथिवीतले पादपो भवति तुङ्गः । तथा मुनिवरेभ्यो दानं दत्तं विपुलं भवति पुण्यम् ॥५७|| यथा क्षेत्रे सुकृष्टे सुबहुत्वमद्भुतं भवति बीजम् । तथा संयतेभ्यो दानं महत्पुण्यावहं भवति ।।५८|| यथोषरे बीजं क्षिप्तं न च तस्य भवति परिवृद्धिः । तथा मिथ्यात्वमलिने पात्रे ऽफलं भवति दानम् ॥५९॥ श्रद्धा शक्ति भक्ति विज्ञानेन च भवेद्यद्दत्तम् । तदानं विधिदत्तं पुण्यफलं भवति ज्ञातव्यम् ।।६०॥ १. अनुयोगद्वारेषु कुलिसस्थाने कुलियाशब्दो दृश्यते-"जण्णं हल-कुलियादीहिं खेत्ताई उवक्कामिज्जन्ति" सूत्र "अधोनिबद्धतिर्यक्तीक्ष्णलोहपट्टिकं मयिकाल्लघुतरं काष्ठं तृणादिच्छेदार्थं यत् क्षेत्रे वाह्यते तद् मरुमण्डलादिप्रसिद्ध कुलिकमुच्यते । २. श्रद्धया शक्त्या भक्त्या । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ विविहाउहगहियकरा सव्वे देवा कसायसंजुत्ता । कामरइरागवसगा, निच्चं कयमण्डणाभरणा ॥ ६१ ॥ जे एवमाइ देवा, न हु ते दाणस्स होन्ति नेयारा । सयमेव जे न तिण्णा, कह ते तारेन्ति अन्नजणं ? ॥६२॥ जइ पङ्गुलेण पङ्गू, निज्जइ देसन्तरं सखन्धेणं । तह एएसु वि धम्मो, देवेसु न एत्थ संदेहो ॥६३॥ जे य पुण वीयरागा, तित्थयरा सव्वदोसपरिमुक्का । ते होन्ति नवरि लोए, उत्तमदाणस्स नेयारा ॥६४॥ जे जिणवराण धम्मं, करेन्ति पडिमाण तिण्णसङ्गाणं । पूयासु य उज्जुत्ता, ते होन्ति सुरा महिड्डीया ॥ ६५ ॥ धयवडय पट्टयं वा, धूवं दीवं च जे जिणाययणे । देन्ति नरा सोममणा, ते वि य देवत्तणमुवेन्ति ॥६६॥ एवंविहं तु दाणं, दाऊण नरा परंपरसुहाई । भोत्तूण देवमणुयत्तणम्मि पच्छा सिवं जन्ति ॥६७॥ सुणिऊण भाणुकण्णो, दाणं सयवित्थरं कयपणामो । पुच्छइ अणन्तविरियं, सामिय धम्मं परिकहि ॥ ६८ ॥ तो भइ अन्तबल, दुविहो धम्मो जिणेहि उवइट्ठो । 'सायार निरायारो, सो वि हु बहुपज्जवो होइ ॥ ६९॥ श्रमणधर्म : हिंसा - ऽलिय- चोरिक्का - मेहुन्न परिग्गहस्सय नियत्ती । एयाइं पञ्च महव्वयाणि समणाण भणियाणि ॥ ७० ॥ इरिया भासा तह एसणा य आयाणमेव निक्खेवो । उच्चाराई समिई, पञ्चमिया होइ नायव्वा ॥ ७१ ॥ मणगुत्ती वयगुत्ती, तहेव कायस्स जा हवइ गुत्ती । एयाउ मुणिवरेणं, निययमिह धारियव्वाओ ॥७२॥ विविधायुधगृहीतकराः सर्वे देवाः कषायसंयुक्ताः । कामरतिरागवशगा नित्यं कृतमण्डनाभरणाः ॥६१॥ य एवमादयो देवा न हु ते दानस्य भवन्ति नेतारः । स्वयमेव ये न तीर्णाः कथं ते तारयन्त्यन्यजनम् ॥६३॥ यदि पङ्गुलेन पङ्गुर्नीयते देशान्तरं स्वस्कन्धेन । तथैतष्वपि धर्मो देवेषु नात्र संदेहः ॥६३॥ ये च पुनर्वीतरागास्तीर्थकराः सर्वदोषपरिमुक्ताः । ते भवन्ति नवरं लोक उत्तमदानस्य नेतारः ॥६४॥ ये जिनवराणां धर्मं कुर्वन्ति प्रतिमानां तीर्णसङ्गानाम् । पूजासु चोद्युक्तास्ते भवन्ति सुरा महर्द्धिकाः ॥६५॥ ध्वजपटं पताकं वा धूपं दीपं च ये जिनायतने । ददति नराः सोम्यमनसस्तेऽपि च देवत्त्वमुपयान्ति ॥६६॥ एवंविधं तु दानं दत्वा नरा परंपरसुखानि । भुक्त्वा देव-मनुष्यत्वे पश्चाच्छिवं यान्ति ॥६७॥ श्रुत्वा भानुकर्णो दानं सविस्तरं कृतप्रणामः । पृच्छत्यनन्तवीर्यं स्वामिन् ! धर्मं परिकथय ॥६८॥ ततो भणत्यनन्तबलो द्विविधो धर्मो जिनैरुपदिष्टः । साकारो निराकारः सोऽपि हु बहुपर्यायो भवति ॥ ६९ ॥ श्रमणधर्म : हिंसाऽलिक-चौर्य-मैथुन-परिग्रहस्य च निवृत्तिः । एतानि पञ्चमहाव्रतानि श्रमणानां भणितानि ॥७०॥ इर्या भाषा तथैषणा चादानमेव निक्षेपः । उच्चारादिः समितिः पञ्चमी भवति ज्ञातव्या ॥ ७१ ॥ मनोगुप्तिर्वचोगुप्तिस्तथैव कायस्य या भवति गुप्तिः । एता मुनिवरेण नित्यमिह धारयितव्या ॥७२॥ १. सागारः निरगारः । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ अणंतविरियधम्मकहणाहियारो-१४/६१-८६ कोहो माणो माया, लोभो रागो य दोससंजुत्तो । एए निरम्भियव्वा, देहे मलीणा महासत्तू ॥७३॥ । अणसणमूणोयरिया, वित्तीसंखेव कायपरिपीडा । रसपरिचागो य तहा, विवित्तसयणासणं चेव ॥७४॥ पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं चिय उस्सग्गो, तवो य अन्भिन्तरो एसो ॥७५॥ एसो बारसभेओ, होइ तवो जिणवरेहि उवइट्ठो । कम्मट्ठनिज्जरटुं, करेन्ति समणा समियपावा ॥७६॥ देहे वि निरवयक्खा, निरहंकारा जिइन्दिया धीरा । बारसअणुपेक्खासु य, निययं भावेन्ति अप्पाणं ॥७७॥ वासी-चम्दणसरिसा, मन्नन्ति सुहं तहेव दुक्खं वा । जत्थत्थमियनिवासी, सीहा इव निब्भया समणा ॥७८॥ धरणी विव सव्वसहा, पवणो इव सव्वसङ्गपरिमुक्का । गयणं व निम्मलमणा, गम्भीरा सायरं चेव ॥७९॥ सोमा निसायरं पिव, तेएण दिवायरं व दिप्पन्ता । मेरु व्व धीरगरुया, विहगा इव सङ्गपरिहीणा ॥८०॥ अट्ठारस य सहस्सा, सीलङ्गाणं धरेन्ति सप्पुरिसा । चिन्तेन्ता परमपयं, विहरन्ति अणाउला समणा ॥८१॥ उप्पन्नरिद्धि-विहवा, जिणवरधम्मेण साहवो धीरा । तवसिरिविहूसियङ्गा, अब्भुयकम्माणि कुव्वन्ति ॥८२॥ केएत्थ दियसनाहं, नित्तेयं तक्खणेण कुव्वन्ति । उच्छाइऊणचन्दं, केई मेह व्व वरिसन्ति ॥८३॥ चालेन्ति मन्दरगिरिं, नभेण वच्चन्ति पवणसमवेगा । चलणरएण मुणिवरा, पसमेन्ति अणेयवाहीओ ॥८४॥ महु-खीर-सप्पिसविणो, अमयस्सविणो य कोट्ठबुद्धी य । केई पयाणुसारी, अवरे संभिन्नसोया य ॥८५॥ एवंविहा य समणा, कालं काऊण निययजोगेणं । ठाणाई देवलोए, पावेन्ति सिवालयं केइ ॥८६॥ क्रोधो मानो माया लोभो रागश्च द्वेषसंयुक्तः । एते निरुम्भितव्या देहे लीना महाशत्रवः ।।७३|| अनशनमूनोदरी वृत्तिसंक्षेपः कायपरिपीडा । रसपरित्यागश्च तथा विविक्तशय्यासनमेव ॥७४॥ प्रायश्चित्तं विनयो वैयावृत्त्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं चैवोत्सर्गस्तपश्चाभ्यन्तर एषः ।।७५॥ एष द्वादशभेदो भवति तपो जिनवरैरुपदिष्टम् । कर्माष्टनिर्जरार्थं कुर्वन्ति श्रमणाः समितपापाः ॥७६।। देहेऽपि निरपेक्षा निरहंकारा जितेन्द्रिया धीराः । द्वादशानुप्रेक्षाभिश्च नित्यं भावयन्त्यात्मानम् ॥७७।। वासी-चन्दन सदृशा मन्यन्ते सुखं तथैव दु:खं वा । यथास्तमितनिवासिनः सिंहा इव निर्भयाः श्रमणाः ॥७८|| धरणीव सर्वंसहा: पवन इव सर्वसङ्गपरिमुक्ताः । गगनमिव निर्मलमनसो गम्भीराः सागरमिव ॥७९॥ सौम्या निशाकरमिव तेजसा दिवाकरमिव दीप्यमानाः । मेरुरिव धीरगुरुका विहगा इव सङ्गपरिहीणाः ॥८०॥ अष्टादश च सहस्रं शीलाङ्गानां धरन्ति सत्पुरुषाः । चिन्तयन्तः परमपदं विहरन्त्यनाकूलाः श्रमणाः ।।८१।। उत्पन्नद्धिविभवा जिनवरधर्मेण साधवो धीराः । तपः श्रीविभूषिताङ्गा अद्भूतकर्माणि कुर्वन्ति ॥८२॥ केचिदिवसनाथं निस्तेजं तत्क्षणेन कुर्वन्ति । उच्छाल्य चन्द्रं केऽपि मेघ इव वर्षन्ति ॥८३।। चालयन्ति मन्दरगिरि नभसा गच्छन्ति पवनसमवेगाः । चरणरजसा मुनिवराः प्रशमयन्त्यनेकव्याधीन् ।।८४।। मधु-क्षीर-सर्पिःस्रविणोऽमृतस्रविणश्च कोष्टबुद्ध्यश्च । केऽपि पदानुसारिणोऽपरे संभिन्नस्रोताश्च ॥८५।। एवंविधाश्च श्रमणाः कालं कृत्वा निजकयोगेन । स्थानानि देवलोके प्राप्नुवन्ति शिवालयं केऽपि ॥८६।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पउमचरियं उववन्ना कयपुण्णा, सोहम्माईसु वरविमाणेसु । केई हवन्ति इन्दा, सामाणिय अङ्गरक्खा य ॥८७॥ एवं बहुप्पयारा, अहमुत्तम-मज्झिमा सुरा भणिया । अवरे वि य अहमिन्दा, केइत्थ सिवालयं पत्ता ॥४८॥ देवविमानानि देवाः सत्सौख्यं चअह तत्थ देवलोए, बहुभत्तिविचित्तकन्तिकलियाई । देवाण विमाणाई, सूरं पिव पज्जलन्ताई ॥८९॥ वज्जेन्दनील-मरगय-वेरुलियविचित्तभत्तिरम्माइं । दढवियडपेढनिग्गय-थम्भसहस्सोहनिवहाई ॥१०॥ गय-वसह-सरह-केसरि-वराह-रुरु-चमरकोट्टिमतलाइं । मिउपवणबलाघुम्मिय-नच्चन्तधयग्गहत्थाई ॥११॥ गोसीससरसचन्दण-कालागरुसुरहिधूवगन्धाइं । जलथलयकुसुमबहुविह-कयच्चणाई विमाणाइं ॥१२॥ गन्धव्वगीय-वाइय-वीणा-वरवंसमहुरसद्दाइं । एयारिसेसु देवा, भुञ्जन्ति महन्तसक्खाइं ॥१३॥ रयणमिव निरुवलेवा, मंस-ऽट्ठिविवज्जिया अणोवङ्गा । देवा अगब्भजाया, अणिमिसनयणा सभावेणं ॥१४॥ समचउरंसट्ठाणा, मणिमउड-विचित्तकुण्डलाभरणा । अमरवहूमज्झगया, रमन्ति रइसागरोगाढा ॥१५॥ तत्थ य सुरवहुयाओ, वियसियवरपउमसरिसवयणाओ।नयण-दसणा-ऽहरा-ऽमलथणजुयलुब्भिन्नसोहाओ ॥१६॥ रत्तासोगसमुज्जल-कोमलकर-चरण-पिहुलसोणीओ । छन्दाणुवत्तणीओ, सहावमिउ-मणहरगिराओ ॥१७॥ एयारिसासु समयं, देवीसु मणोहरं विसयसोक्खं । भुञ्जन्ति निययकालं, देवा धम्माणुभावेणं ॥१८॥ जे वि य ते अहमिन्दा, गेविज्जाईसु वरविमाणेसु । उवसन्तमोहणिज्जा, सोक्खमणन्तं अणुहवन्ति ॥१९॥ उत्पन्नाः कृतपुण्याः सौधर्मादिषु वरविमानेषु । केऽपि भवन्तीद्रा सामानिका अङ्गरक्षाश्च ॥८७|| एवं बहुप्रकारा अधमोत्तममध्यमाः सुरा भणिता । अपरेऽपि चाहमिन्द्राः केचित् शिवालयं प्राप्ताः ॥८८।। देवविमानानि देवाः तत्सौख्यं चअथ तत्र देवलोके बहुभक्तिविचित्रकान्तिकलितानि । देवानां विमानानि सूर्यमिव प्रज्वलन्ति ॥८९।। वजेन्द्रनील-मरकत-वैडूर्यविचित्रभक्तिरम्याणि । दृढविकटपीठनिर्गतस्तम्भसहस्रौघनिवहानि ॥९०॥ गज-वृषभ-शरभ-केसरि-वराह-रुरु-चमरकुट्टिमतलानि । मृदुपवनबलाघुर्णित नृत्यद्ध्वजाग्रहस्तानि ॥९१॥ गोशीर्षसरसचन्दनकालागरुसुरभिधूपगन्धानि । जलस्थलकुसुमबहुविधकृतार्चनानि विमानानि ॥९२।। गान्धर्वगीतवादितवीणा-वरवंशमधुरशब्दानि । एतादृशेषु देवा भुञ्जन्ति महासौख्यानि ॥९३|| रत्नमिव निरुपलेपा मांसास्थिविवर्जिता अनोपाङ्गाः । देवा अगर्भजाता अनिमेषनयनाः स्वभावेन ॥१४॥ समचतुरस्त्रसंस्थाना, मणिमुकुटविचित्रकुण्डलाभरणाः । अमरवधुमध्यगता रमन्ते रतिसागरावगाढाः ॥९५।। तत्र च सुरवध्वो विकसितवरपद्मसदृशवदनाः । नयनदशनाधरामलस्तनयुगलोद्भिन्नशोभाः ॥१६॥ रक्ताशोकसमुज्वलकोमलकरचरणपृथुलश्रोण्यः । छन्दानुवतिन्यः स्वभावमृदुमनोहरगिरः ॥९७।। एतादृशाभिः समकं देविभिर्मनोहरं विषयसुखम् । भुञ्जन्ति नित्यकालं देवा धर्मानुभावेन ॥९८॥ येऽपि च त अहमिन्द्रा ग्रैवेयकादिषु वरविमानेषु । उपशान्तमोहनीयाः सुखमनन्तमनुभवन्ति ॥९९।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतविरियधम्मकहणाहियारो -१४/८७-१११ सिद्धालयपि पत्ता, समणा जे सव्वसङ्गउम्मुक्का । ते तत्थ अणन्तसुहं, अणन्तकालं अणुहवन्ति ॥१००॥ सयलम्म वि तेलोक्के, जं होइ नरा-उमराण विसयसुहं । तं सिद्धाण न अग्घइ, अणन्तकोडीण भागपि ॥ १०१ ॥ देवा माणुसाण य, जं सोक्खं होइ सयलजियलोए । तं सव्वं धम्मफलं, जिणवरवसहेहि परिकहियं ॥ १०२ ॥ देवत्तं इन्दत्तं, अहमिन्दत्तं च जं च सिद्धत्तं । तं सव्वं मणुयभवे, जीवा धम्मेण पावेन्ति ॥ १०३ ॥ पक्खिणाण गरुडो, राया सीहो य सव्व पसवाणं । तह माणुसो भवाणं, गुणेहि दूरं समुव्वहइ ॥१०४॥ गुण महतो, मणुयभवे जो न होइ अन्नत्तो । जं जाइ इओ मोक्खं, जीवो कम्मक्खयं काउं ॥ १०५ ॥ जह सागरम्मि नट्टं, रयणं न य पेच्छए गवेसन्तो । तह धम्मेण विरहिओ, जीवो न य लहइ मणुयभवं ॥ १०६॥ एवं केवलिविहियं, धम्मं सोऊण परमसद्धाए । अह भणइ भाणुकण्णो, अणन्तविरियं पणमिऊणं ॥ १०७॥ अज्जविन वीयरागो, भयवं ! भोगभिलासिणो अहयं । उग्गं तवोविहाणं, असमत्थो समणधम्मम्मि ॥ १०८ ॥ तो भणइ अणन्तबलो, गिहत्थधम्मं सुणाहि एगमणो । काऊण जं विमुच्चसि, कमेण संसारवासाओ ॥१०९॥ साया निरायारो, दुविहो धम्मो जिणेहि उवइट्ठो । समणाण निरायारो, होइ गिहत्थाण सागारो ॥११०॥ श्रावकधर्मः कहिओ ते पढमयरं, धम्मो साहूण महरिसीणं तु । एत्तो सावयधम्मं, सुणाहि सायारचारितं ॥१११॥ | सिद्धालयेऽपि प्राप्ताः श्रमणा य सर्वसङ्गोन्मुक्ताः । ते तत्रानन्तसुखमनन्तकालमनुभवन्ति ॥१००॥ सकलेऽपि त्रैलोक्ये यद्भवति नरामरणां विषयसुखम् । तत्सिद्धानां नार्हत्यनन्तकोटिनां भागेऽपि ॥ १०१ ॥ देवानां मनुष्याणां च यत्सुखं भवति सकलजीवलोके । तत्सर्वं धर्मफलं जिनवरवृषभैः परिकथितम् ॥१०२॥ देवत्वमिन्द्रत्वमहमिन्द्रत्वं च यच्च सिद्धत्वम् । तत्सर्वं मनुष्यभवे जीवा धर्मेण प्राप्नुवन्ति ॥ १०३ ॥ यथा पक्षीणां गरुडो राजा सिंहश्च सर्व पशूनाम् । तथा मनुष्यो भवानां गुणैदूरं समुद्वहति ॥१०४॥ कोगुणो महान्मनुष्यभवेयो न भवत्यन्यत्र । यद्यातीतो मोक्षं जीवः कर्मक्षयं कृत्वा ॥१०५॥ यथा सागरे नष्टं रत्नं न पश्यति गवेषयन् । तथा धर्मेण विरहितो जीवो न च लभते मनुष्यभवम् ॥१०६॥ एवं केवलिविहितं धर्मं श्रुत्वा परमश्रद्धया । अथ भणति भानुकर्णोऽनन्तवीर्यं प्रणम्य ॥१०७॥ अद्यापि न वीतरागो भगवन् ! भोगाभिलाष्यहम् । उग्रं तपोविधानमसमर्थो श्रमधर्मे ॥ १०८ ॥ तदा भणन्यनन्तबलो गृहस्थधर्मं श्रुण्वेकाग्रमनाः । कृत्वा यद्विमुञ्चसि क्रमेण संसारवासात् ॥१०९॥ साकारो-निराकारो द्विविधो धर्मो जिनैरुपदिष्टः । श्रमणानां निराकारो भवति गृहस्थानां साकारः ॥ ११०॥ श्रावकधर्मः कथितस्ते प्रथमतरं धर्मं साधूनां महर्षीणां तु । इतः श्रावकधर्मं श्रुणु साकारचारित्रम् ॥१११॥ - १. पक्षिणाम् । २. सागारः निरगारः । पउम भा-१/२२ १६९ For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अह पउमचरियं पञ्च य अणुव्वयाई, तिण्णेव गुणव्वयाइ भणियाइं । सिक्खावयाणि एत्तो, चत्तारि जिणोवइट्ठाणि ॥११२॥ थूलयरं पाणिवहं, मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवित्ती, संतोसवयं च पञ्चमयं ॥११३॥ दिसिविदिसाण य नियमो, अणत्थदण्डस्स वज्जणं चेव । उवभोगपरिमाणं, तिण्णेव गुणव्वया एए ॥११४॥ सामाइयं च उववासपोसहो अतिहिसंविभागो य । अन्ते समाहिमरणं, सिक्खासु वयाइं चत्तारि ॥११५॥ राईभोयणविरई, महु-मंस-सुराविवज्जणं भणियं । पूया-सीलविहाणं, एसो धम्मो गिहत्थाणं ॥११६॥ एवं सावयधम्म, काऊण नरा विसुद्धसम्मत्ता । मरिऊण जन्ति सग्गं, सोहम्माईसु कप्पेसु ॥११७॥ देवत्ताओ मणुया, होन्ति पुणो सुरवरा महिड्डीया । सत्तऽ४ भवे गन्तुं, सिद्धि पावेन्ति धुयकम्मा ॥११८॥ लहिऊण मणुसत्तं, जो धम्मं जिणवराण सद्दहइ । सो वि हुन दीहकालं, परिहिण्डइ नरय-तिरिएसु ॥११९॥ जो पुण सम्मद्दिट्टी, जिणपूया-विणय-वन्दणाभिरओ।सो वि य कमेण पावइ, निव्वाणमणुत्तरं सोक्खं ॥१२०॥ निस्सङ्कियाइएसु, गुणेसु सहिया य सावया परमा । अभिगयजीवा-ऽजीवा, ते होन्ति महिड्डिया देवा ॥१२१॥ जो कुणइ ससत्तीए, अहमुत्तम-मज्झिमं नरो धम्मं । सो लहइ तारिसाइं, ठाणाई देवलोगम्मि ॥१२२॥ भणड मणिवरिन्दो. एत्तो तव-संजमं बहवियप्पं । जंकाऊण मणसा.अक्खयसोक्खं अणहवन्ति ॥१२३॥ थेवो थेवो व वरं कायव्वो नाणसंगहो निययं । सरियाओ किं न पेच्छह, बिन्दूहि समुद्दभूयाओ ? ॥१२४॥ एकं पि अह मुहुत्तं, परिवज्जइ जो चउव्विहाहारं । मासेण तस्स जायइ, उववासफलं तु सुरलोए ॥१२५॥ पञ्च चाणुव्रतानि त्रिण्येवगुणव्रतानि भणितानि । शिक्षाव्रतानीतश्चत्वारि जिनोपदिष्टानि ॥११२॥ स्थूलतरं प्राणिवधं मृषावादमदत्तदानं च । परयुवतीनां निवृत्तिः संतोषव्रतं च पञ्चम ॥११३।। दिग्विदिशोश्च नियमो ऽनर्थदण्डस्य वर्जनं चैव । उपभोगपरिमाणं त्रीण्येव गुणव्रतान्येतानि ॥११४॥ सामायिकं चोपवासपौषधोऽतिथिसंविभागश्च । अन्ते समाधिमरणं शिक्षासु व्रतानि चत्वारि ॥११५।। रात्रिभोजनविरति मधुमांससुराविवर्जनं भणितम् । पूजा-शीलविधानमेष धर्मो गृहस्थानाम् ॥११६।। एवं श्रावकधर्मं कृत्वा नरा विशुद्धसम्यक्त्वाः । मृत्वा यान्ति स्वर्गं सौधर्मादिषु कल्पेषु ।।११७।। देवत्वान्मनुष्या भवन्ति पुनः सुरवरा महद्धिकाः । सप्ताष्टभवान्गत्वा सिद्धि प्राप्नुवन्ति धूतकर्माणः ॥११८॥ लब्ध्वा मानुष्यत्वं यो धर्मं जिनवराणां श्रद्धाति । सोऽपि हु न दीर्घकालं परिहिण्डते नरक-तिर्यक्षु ॥११९|| यः पुन सम्यग्दृष्टि जिनपूजाविनयवन्दनाभिरतः । सोऽपि च क्रमेण प्राप्नोति निर्वाणमनुत्तरं सुखम् ॥१२०|| निःशङ्कितादिषु गुणेषु सहिताश्च श्रावकाः परमाः । अभिगतजीवाऽजीवास्ते भवन्ति महद्धिका देवाः ॥१२१।। य करोति स्वशक्त्याऽधमोत्तममध्यमं नरो धर्मम् । स लभते तादृशानि स्थानानि देवलोके ॥१२२॥ अथ भणति मुनिवरेन्द्र इतस्तपः संयमं बहुविकल्पम् । यत्कृत्वा मनुष्या अक्षयसुखमनुभवन्ति ।।१२२॥ स्तोक: स्तोकोऽपि वरं कर्तव्यो ज्ञानसंग्रहो नित्यम् । सरितः किं न पश्यथ बिन्दुभिः समुद्रभूताः ? ॥१२३।। एकमप्यथ मुहूर्तं परिवर्त्यति यश्चतुर्विधमाहारम् । मासेन तस्य जायत उपवासफलं तु सुरलोके ॥१२५।। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतविरियधम्मकहणाहियारो-१४/११२-१३७ ।। १७१ दसवरिससहस्साऊ, भुञ्जइ जो अन्नदेवयासत्तो । पलिओवमकोडी पुण, होइ ठिई जिणवरतवेणं ॥१२६॥ तत्तो चुओ समाणो, मणुयभवे लहइ उत्तमं भोगं । जह तावसदुहियाए, लद्धं रण्णे वसन्तीए ॥१२७॥ भुञ्जइ अणन्तरेणं, दोण्णि य वेलाउ जो निओगेणं । सो पावइ उववासा, अट्ठावीसं तु मासेणं ॥१२८॥ सो तस्स फलं विउलं, भुञ्जइ सुरजुवइनिवहमज्झगओ। सिरि-कित्ति-लच्छिनिलओ, दिव्वामलविरड्याभरणो ॥१२९॥ अणुभविय विसयसोक्खं, आयाओ माणुसम्मि लोगम्मि । उत्तमवंसुब्भूओ, रमणि य रइसागरोगाढो ॥१३०॥ एवं मुहुत्तवुड्डी, उववासे छट्ठमट्ठमादीए । जो कुणइ जहाथामं, तस्स फलं तारिसं भणियं ॥१३१॥ सो तस्स फलं विउलं, सुरलोए भुञ्जिउं सुचिरकालं । लहिऊण माणुसत्तं, बहुजणसयसामिओ होइ ॥१३२॥ रात्रिभोजनविरतिस्तत्फलं च :जो कुणइ अणथमियं, पुरिसो जिणभत्तिभावियमईओ । सो वरविमाणवासी, रमइ चिरं सुरवहूसहिओ ॥१३३॥ अणथन्ते दिवसयरे, जो चयइ चउव्विहं पि आहारं । सो जगजगेन्तसोहे, वसइ विमाणे चिरं कालं ॥१३४॥ तत्तो चुओ समाणो, उप्पन्नोएत्थ माणुसे लोए । बहुनयर-खेड-कब्बड-रह-गयवरसामिओ होइ ॥१३५॥ पुणरवि जिणवरविहिए, धम्मे काऊण दढयरं चित्तं । आराहियतव-नियमो, कमेण सिवसासयं लहइ ॥१३६॥ जे पुण रयणीसु नरा, भुञ्जन्ति असंजया वयविहूणा । ते नरय-तिरियवासे, हिण्डन्ति अणन्तयं कालं ॥१३७॥ दशवर्षसहस्रायु (नक्ति योऽन्यदेवतासक्तः । पल्योपमकोटी पुन र्भवति स्थितिर्जिनवरतपसा ॥१२६।। ततश्च्युतः सन् मनुष्यभवे लभत उत्तमं भोगम् । यथा तापसदुहित्रा लब्धमरण्ये वसन्त्या ॥१२७।। भुङ्क्तेऽनन्तरेणं द्वे च वेले यो नियोगेन । स प्राप्नोत्युपवासा अष्टाविंशतिस्तु मासेन ॥१२८॥ स तस्य फलं विपुलं भुनक्ति सुरयुवतिनिवहमध्यगतः । श्री-कीति-लक्ष्मीनिलयो दिव्यामलविरचिताभरणः ॥१२९।। अनुभूय विषयसुखमायातो मनुष्ये लोके । उत्तमवंशोद्भूतो रमते च रतिसागरावगाढः ॥१३०॥ एवं मुहूर्तवृद्धिरुपवासे षष्टाष्टमादयः । यः करोति यथास्थामं तस्य फलं तादृशं भणितम् ॥१३१।। स तस्य फलं विपुलं सुरलोके भुक्त्वा सुचिरकालम् । लब्ध्वा मनुष्यत्वं बहुजनशतस्वामी भवति ॥१३२॥ रात्रिभोजनविरतिस्तत्फलं च - यः करोत्यनस्तमितं पुरुषो जिनभक्तिभावितमतिः । स वरविमानवासी रमते चिरं सुरवधुसहितः ॥१३३।। अनस्ते दिवाकरे यस्त्यजति चतुर्विधमप्याहारम् । स झगझगच्छोभे वसति विमाने चिरंकालम् ॥१३४॥ ततश्च्युतस्सन्नुत्पन्नोऽत्र मनुष्ये लोके । बहु नगर खेट-कर्वट-रथ-गजवरस्वामी भवति ॥१३५।। पुनरपि जिनवरविहिते धर्मे कृत्वा दृढतरचितम् । आराधिततपोनियमः क्रमेण शिवशाश्वतं लभते ॥१३६।। ये पुना रजन्यां नरा भुञ्जतेऽसंयता व्रतविहीनाः । ते नरक-तिर्यग्वासे हिण्डन्तेऽनन्तं कालम् ॥१३७।। १. अनस्तमितं रात्रिभोजनविरतिरित्यर्थः । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पउमचरियं अणुहविऊण य दुक्खं, जइ कह वि लहन्ति माणुसं जम्मं । तत्थ वि होन्ति अणाहा, जे निसिभत्तं न वज्जेन्ति ॥१३८॥ महिला य जा न रत्ति, भुञ्जइ आहार-खाण-पाणविहिं । जिणधम्मभावियमई, सा वि य देवत्तणं लहइ ॥१३९॥ तत्थ विमाणम्मि चिरं, विसयसुहं भुञ्जिउं चुयसमाणी । आयाइ माणुसत्ते, उत्तममहिला सुरूवा य ॥१४०॥ तीए हवइ पकामं, कञ्चण-मणि-रयण-रुप्पय-पवालं । धण-धनं च बहुविहं, जीए न भुत्तं वियालम्मि ॥१४१॥ सेज्जाहि सुहनिसण्णा, विज्जिज्जइ चामरेहि विलयाहिं । आभरणभूसियङ्गी, जा निसिभत्तं विवज्जेइ ॥१४२॥ चक्कहर-वासुदेवाण होन्ति महिलाउललियरूवाओ। भुञ्जन्ति विसयसोक्खं, जाओ विवज्जेन्ति निसिभत्तं ॥१४३॥ जाओ पुण महिलाओ, रत्तिं जेमन्ति धम्मरहियाओ । ताओ वि हु दुक्खाइँ, अणुहोन्ति बहुप्पयाराई ॥१४४॥ हीणकुलसंभवाओ, धण-धन्न-सुवण्ण-रूवरहियाओ।जायन्ति महिलियाओ, जाओ भुञ्जन्ति निसिभत्तं ॥१४५॥ दारिद्द-दूहवाओ, निच्चं कर-चरणफुट्टकेसीओ। होन्ति इह महिलियाओ, जाओ भुञ्जन्ति निसिभत्तं ॥१४६॥ जइ वि हु किंचि निओगं, करेन्ति अन्नाणधम्मसद्धाए । तह वि यतं अप्पफलं, होइ य निसिभोयणरयाणं ॥१४७॥ तम्हा वज्जेह इमं, निसिभत्तं जीवघायणं जं च । अलियं अदत्तदाणं, परदारं तह य महुमंसं ॥१४८॥ परिहरइ अन्नदिट्ठी, जिणसासणउज्जया सया होह । तो सव्वसङ्गमुक्का, कमेण मोक्खं पि पाविहह ॥१४९॥ रयणाइँ रयणदीवे, जह कोइ नरो लएइ लाहत्थी । तह मणुयभवे गिण्हइ, धम्मत्थी नियमरयणाइं ॥१५०॥ अनुभूय च दुःखं यदि कथमपि लभन्ते मानुष्यं जन्म । तत्रापि भवन्त्यनाथा ये निशिभक्तं न वर्जयन्ति ।।१३८।। महिला च या न रात्रिं भुङ्क्त आहार-खान-पानविधिम् । जिनधर्मभावितमतिः साऽपि च देवत्वं लभते ॥१३९।। तत्र विमाने चिरं विषयसुखं भुक्त्वा च्युता सती । आयाति मानुष्यत्व उत्तममहिला सुरुपा च ॥१४०॥ तस्या भवति प्रकामं काञ्चनमणि-रत्न-रुप्यक-प्रवालम् । धन-धान्यं च बहुविधं यया न भुक्तं विकाले ॥१४१॥ शय्याया सुखनिषण्णा विज्यते चामरैर्वनिताभिः । आभरणभूषिताङ्गी या निशिभक्तं विवर्जयति ॥१४२।। चक्रधरवासुदेवानां भवन्ति महिला ललितरुपाः । भुञ्जन्ति विषयसुखं या विवर्जयन्ति निशिभक्तम् ।।१४३।। याः पुनर्महिला रात्रिं भुञ्जते धर्मरहिताः । ता अपि हु दुःखान्यनुभवन्ति बहुप्रकाराणि ॥१४४॥ हीनकुलसंभवा धन-धान्य-सुवर्ण-रुप्यरहिताः । जायन्ते महिला या भुञ्जते निशिभक्तम् ॥१४५।। दारिद्र-दुर्भगा नित्यं कर-चरणस्फूटकेश्यः । भवतीह महिला या भुञ्जते निशिभक्तम् ॥१४६।। यद्यपि हु किंचिन्नियोगं कुर्वन्त्यज्ञानधर्मश्रद्धया । तथापि च तमल्पफलं भवति च निशिभोजनरतानाम् ॥१४७॥ तस्माद्वर्जयेदं निशिभक्तं जीवघातनं यच्च । अलिकमदत्तदानं परदारं तथा च मधुमांसम् ॥१४८॥ परिहरतान्यदृष्टिं जिन शासनोद्यताः सदा भवत । ततस्सर्वसङ्गमुक्ताः क्रमेण मोक्षमपि प्राप्तुत ॥१४९।। रत्नानि रत्नद्वीपे यथा कोऽपि नरो लभते लाभार्थी । तथा मनुष्यभवे गृह्णाति धर्मार्थी नियमरत्नानि ॥१५०॥ १. रूप्यरहिताः । २. दुर्भगाः । Jain Education Intematonal For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणंतविरियधम्मकहणाहियारो-१४/१३८-१५८ १७३ भणिओ धम्मरवेणं, मुणिणा लंकाहिवो जिणमयम्मि । एक्कं पि गिण्ह नियम, रयणद्दीवे जहा रयणं ॥१५१॥ सुणिऊण वयणमेयं, दसाणणो भणइ केवलि नमिउं। भयवं ! असमत्थोऽहं, दुक्करचरिया मुणिवराणं ॥१५२॥ जइ वि हु सुरूववन्ता, परिमहिला तो विहं न पत्थेमि । नियया वि अप्पसण्णा, विलया एयं वयं मज्झ ॥१५३॥ अह सो वि भाणुकण्णो, गेण्हइ नियमं मुणिं पणमिऊणं । अज्जप्पभिई य मए, जिणाभिसेओ करेयव्वो ॥१५४॥ पूया य बहुवियप्पा, थुई य सूरुग्गमाइ कायव्वा । एसो अभिग्गहो मे, जावज्जीवं परिग्गहिओ ॥१५५॥ अन्ने वि बहुवियप्पा, नियमा परिगेण्हिउं ससत्तीए । साहुं नमिऊण गया, निययट्ठाणाइँ सुरमणुया ॥१५६॥ अह रावणो वि एत्तो, मुणिवसहं पममिऊण उप्पइओ । सुरवरसमाणविभवो, लंकानयरिं समणुपत्तो ॥१५७॥ __ एवं तु कम्मस्स खओवएसे, गेण्हन्ति जीवा गुरुभासियत्थं । काऊण तिव्वं विमलं च धम्मं, सिद्धालयं जन्ति विसुद्धभावा ॥१५८॥ ॥ इय पउमचरिए अणन्तविरियधम्मकहणो नाम चउद्दसमो उद्देसओ समत्तो ॥ भणितो धर्मरवेन मुनिना लङ्काधिपो जिनमते । एकमपि गृहाण नियमं रत्नद्वीपे यथा रत्नम् ॥१५१॥ श्रुत्वा वचनमेतद्दशाननो भणति केवलिं नत्वा । भगवन्नसमर्थोहं दुष्करचर्या मुनिवराणाम् ॥१५२॥ यद्यपि हु सुरुपवती परमहिला तदाप्यहं न प्रार्थये । निजकाऽप्यप्रसन्ना वनितैतव्रतं मम ॥१५३।। अथ सोऽपि भानुकर्णो गृह्णाति नियमं मुनिं प्रणम्य । अद्यप्रभृतिश्च मया जिनाभिषेक: कर्तव्यः ॥१५४।। पूजा च बहुविकल्पा स्तुतिश्च सूर्योद्गमादि: कर्तव्या । एषोऽभिग्रह मे यावज्जीवं परिगृहीतः ॥१५५।। अन्येऽपि बहुविकल्पा नियमा परिगृह्य स्वशक्त्या । साधुं नत्वा गता निज स्थानानि सुरमनुजाः ॥१५६।। अथ रावणोऽपीतो मुनिवृषभं प्रणम्योत्पतितः । सुरवरसमानविभवो लङ्कानगरि समनुप्राप्तः ॥१५७।। एवं तु कर्मणः क्षयोपदेशे गृह्णन्ति जीवा गुरुभाषितार्थम् । कृत्वा तीव्र विमलं च धर्मं सिद्धालयं यान्ति विशुद्धभावाः ॥१५८।। ॥ इति पद्मचरित्रेऽन्तन्तवीर्यधर्मकथनो नाम चतुर्दशोद्देशः समाप्तः ॥ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५. अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो | तस्स मुणिस्स सयासे, हणुमन्त-बिहीसणेहि सम्मत्तं । गहियं अणन्नसरिसं, काऊण सुनिम्मलं हिययं ॥१॥ तह वि य दूरेण ठियं, हणुमन्तस्स य विसुद्धसम्मत्तं । अन्नाणमारुएणं, न चलिज्जइ मन्दरो चेव ॥२॥ सुणिऊण वयणमेयं, परिपुच्छइ गणहरं मगहराया। भयवं ! को हणुमन्तो, कस्स सुओ कत्थ वत्थव्वो ॥३॥ हनुमन्तचरित्रम्अह भासिउं पयत्तो, गणाहिवो अत्थि भारहे वासे । वेयड्ढो नाम गिरी, उभओ सेढीसु अइरम्भो ॥४॥ तत्थाऽऽइच्चपुरवरं, अत्थि वरुज्जाण-काणणसमिद्धं । पल्हाओ नाम निवो, त भुञ्जइ खेयरो सूरो ॥५॥ महिला से कित्तिमई, पुत्तो पवणंजओ त्ति नामेणं । जो सयलजीवलोए, गुणेहि दूर समुव्वहइ ॥६॥ दद्रुण तं कुमारं, जोव्वण-लायण्ण-कन्तिपडिपुण्णं । चिन्ता कुणइ नरवई, कुल-वंसुच्छेयपरिभीओ ॥७॥ अञ्जनासुन्दरीचरितम् - तावऽच्छउ संबन्धो, सेणिय ! पवणंजयस्स जो भणिओ। तस्स महिलाए एत्तो, सुणसुप्पत्ती पवक्खामि ॥८॥ भारहवरिसन्ते खलु, दाहिणपासम्मि सायरासन्ने । दन्ती नाम महिहरो, ऊसियवरसिहरसंघाओ ॥९॥ ।। १५. अंजनासुंदरीवीवाहविधानाधिकार ) तस्य मुनेः सकाशे हनुमद्विभीषणाभ्यां सम्यक्त्वम् । गृहीतमनन्यसदृशं कृत्वा सुनिर्मलं हृदयम् ॥१॥ तथापि च दूरेण स्थितं हनुमतश्च विशुद्धस्सम्यक्त्वम् । अज्ञानमारुतेन न चाल्यते मन्दर इव ॥२॥ श्रुत्वा वचनमेतत्परिपृच्छति गणधरं मगधराजा । भगवन् को हनुमान् कस्य सुतः कुत्र वास्तव्यः ? ॥३॥ हनुमन्तचरित्रम् - अथ भाषितुं प्रवृत्तो गणाधिपोऽस्ति भरते वर्षे । वैताढ्यो नाम गिरिरुभयश्रेणिभ्यामतिरम्यः ॥४॥ तत्राऽऽदित्यपुरवरमस्ति वरोद्यान-काननसमृद्धम् । प्रह्लादो नाम नृपस्तं भुनक्ति खेचरः शूरः ॥५॥ महिला तस्य कीतिमती पुत्रः पवनंजय इति नाम्ना । यः सकलजीवलोके गुणैरत्यन्तं समुद्वहति ॥६॥ दृष्ट्वा तं कुमारं यौवन-लावण्यकान्ति-प्रतिपूर्णम् । चिन्तां करोति नरपतिः कुलवंशोच्छेदपरिभीतः ॥७॥ अञ्जनासुन्दरी चरित्रम् - तावदास्तां सम्बन्धः श्रेणिक ! पवनंजयस्य यो भणितः । तस्य महिलाया इतः श्रुणूत्पत्तिः प्रवक्ष्यामि ॥८॥ भारतवर्षान्ते खलु दक्षिणपाइँ सागरासन्ने । दन्तीनामा महीधर उच्छ्रितवरशिखरसंघातः ।।९।। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only wwwjainelibrary.org Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो-१५/१-२३ तत्थ पुरं विक्खायं, महिन्दनयरं कयं महिन्दणं । वरभवण-तुङ्गतोरण-अट्टालय-वियडपायारं ॥१०॥ अह हिययसुन्दरीए, महिन्दभज्जाए पवरपुत्ताणं । जयं सयं कमेणं, अरिन्दमाई सुरूवाणं ॥११॥ भइणी ताण कणिट्ठा, वरअञ्जणसुन्दरि त्ति नामेणं । रूवाणि रूविणीणं, हाऊण व होज्ज निम्मविया ॥१२॥ मा अत्रया कयाई.कीलन्ती तेन्दण्ण वरभवणे नवजोव्वणचिञ्चइया. सहसा दिदा महिन्देणं ॥१३॥ सद्दाविया य मन्ती, कयविणया आसणेसु उवविट्ठा । भणिया य साहह फुडं, कस्स इमा देमि कन्ना हं ॥१४॥ मइसायरेण भणिओ, महिन्दविज्जाहरो पणमिऊणं । लङ्काहिवस्स दिज्जइ, एस कुमारी गुणब्भहिया ॥१५॥ अहवा दिज्जइ कन्ना, दहमुहपुत्ताण रूवमन्ताणं । घणवाहणिन्दईणं, विज्जा-बलगव्वियमईणं ॥१६॥ सुणिऊण वयणमेयं, सुमई तो भणइ परिफुडुल्लावो । न य रावणस्स कन्ना, दिज्जइ सोऽणेयजुवइपई ॥१७॥ जइ इन्दइस्स दिज्जइ, तो रूसइ मेहवाहणो नियमा। घणवाहणस्स दिन्ना, तो कुप्पइ इन्दइकुमारो ॥१८॥ गणियाहेउं जुझं, जायं सिरिसेणरायपुत्ताणं । पिइ-माइदुक्खजणयं, किं न सुयं जं पुरा वत्तं ? ॥१९॥ सुमईण तत्थ भणियं, वेयड्डे दक्खिणिल्लसेढीए । कणयपुरं अत्थि तहि, हरिणाहो खेयराहिवई ॥२०॥ सुमणा तस्स वरतणू, पुत्तो विज्जुप्पहो त्ति नामेणं । रूव-गुण-जोव्वणेणं, अइसयभूओ तिहुयणम्मि ॥२१॥ तस्सेसा वरकन्ना, दिज्जइ मा एत्थ संसयं कुणह । अणुसरिसजोव्वणाणं, अचिरा वि हु होउ संजोओ ॥२२॥ धुणिऊण उत्तिमङ्गं, मन्ती सन्देहपारओ भणइ । भविओ सिवपहगामी, होही विज्जुप्पहकुमारो ॥२३॥ तत्र पुरं विख्यातं महेन्द्रनगरं कृतं महेन्द्रेण । वरभवनोत्तुङ्गतोरणाट्टालयविकटप्राकारम् ॥१०॥ अथ हृदयसुन्दर्या महेन्द्रभार्यया प्रवरपुत्राणाम् । जातं शतं क्रमेणारिन्दमादयः सुरुपाणाम् ।।११।। भगिनी तेषा कनिष्ठा वराञ्जनासुन्दरीति नाम्ना । रुपाणि रुपिणीनां हात्वेव भवेन्निर्मापिता ॥१२॥ साऽन्यदा कदाचित्क्रीडन्ती तेन्दुकेन वरभवने । नवयौवनमण्डिता सहसा दृष्टा महेन्द्रेण ॥१३॥ शब्दायिताश्च मन्त्रिणः कृतविनया आसनेषूपविष्टाः । भणिताश्च कथयत स्फूट कस्मा इमा ददामि कन्याऽहम् ॥१४॥ मतिसागरेण भणितो महेन्द्रविद्याधरः प्रणम्य । लङ्काधिपाय दीयते एषाकुमारी गुणाभ्यधिका ॥१५॥ अथवा दीयते कन्या दशमुखपुत्राभ्यां रूपवद्भ्याम् । घनवाहनेन्द्रजिद्भ्यां विद्याबलगर्वितमतिभ्याम् ॥१६॥ यदीन्द्रजिते दीयते तदा रुष्यते मेघवाहनो नियमा। धनवाहनाय दत्ता तदा कुप्यत इन्द्रजित्कुमारः ॥१८॥ गणिकाहेतु युद्धं जातं श्रीषेणराजपुत्राणाम् । पितृमातृदुःखजनकं किं न श्रुतं यत्पुरा वृत्तम् ? ॥१९॥ सुमतिना तत्र भणितो वैताढ्ये दक्षिणश्रेण्याम् । कनकपुरमस्ति तत्र हरिनाथः खेचराधिपतिः ॥२०॥ सुमनास्तस्य वरतनूः पुत्रो विद्युत्प्रभ इति नाम्ना । रुप-गुण-यौवनेनातिशयभूतस्त्रिभुवने ॥२१।। तस्मा एषा वरकन्या दीयते माऽत्र शंसयं कुरुत । अनुसदृशयौवनानामचिरमपि हु भवति संयोगः ।।२२।। धूत्वोतमाङ्ग मन्त्री सन्देहपारगो भणति । भविक: शिवपथगामी भविष्यति विद्युत्प्रभकुमारः ॥२३॥ १. पत्नी। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.janeibrary.org Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अट्ठारसमे वरिसे, भोगं मोत्तूण गहियवय-नियमो । सिद्धालयं गमीही, एवाऽऽइट्टं मुणिवरेणं ॥२४॥ वरजोव्वणुज्जला वि हु, तेण विमुक्का इमा य वरकन्ना । होही ववगयसोहा, चन्देण विणा जहा रयणी ॥ २५ ॥ अह भणइ तत्थ मन्ती, निसुणह आइच्चपुरवरे राया । विज्जाहरो महप्पा पल्हाओ नाम नामेणं ॥२६॥ भज्जा से कित्तिमई, पुत्तो पवणंजओ पहियकित्ती । रूवेण जोव्वणेण य, कामस्स सिरिं विडम्बे ॥२७॥ नन्दीश्वरयात्रा एयन्तरम्मि मासो, संपत्तो फग्गुणो गुणसमिद्धो । जणयन्तो नवपल्लव, दुमाण कमलायराणं च ॥२८॥ छज्जन्ति उववणाइं, नाणाविहकुसुमरिद्धिगन्धाई । गुमगुमगुमन्तमहुयर-कोइलकोलाहलरवाई ॥२९॥ एयारिसम्मि काले, देवा नन्दीसरं परमदीवं । गन्तूण अट्ठ दियहे, करेन्ति महिमं जिणवराणं ॥३०॥ पूयाउवगरणकरा, सव्वे विज्जाहरा समुदएणं । पत्ता वेयड्ढगिरिं, पणमन्ति जिणालए तुट्टा ॥३१॥ तत्थ महिन्दो वि गओ, पूया काऊण सिद्धपडिमाणं । थुइमङ्गलेहि नमिउं, उवविट्ठो समसिलावट्टे ॥३२॥ पल्हाओ वि नरवई, भत्तीरागेण चोइओ सन्तो । गन्तूण पययमणसो, संथुणइ जिणालए सव्वे ॥३३॥ अञ्जनायाः पवनञ्जयेन सह सम्बन्धः अह सो समत्तनियमो, दिट्ठो अब्भुट्ठिओ महिन्देणं । कयविणय - पीइपमुहा, दो वि जणा तत्थ उवविट्ठा ॥३४॥ अष्टादशमे वर्षे भोगं मुक्त्वा गृहीतव्रतनियमः । सिद्धालयं गमिष्यति एवाऽऽदिष्टं मुनिवरेण ||२४|| वरयौवनोज्वलाऽपि हु तेन विमुक्तेमा च वरकन्या । भविष्यति व्यपगतशोभा चन्द्रेण विना यथा रजनी ||२५|| अथ भणति तत्र मन्त्री निश्रुणुताऽऽदित्य पुरवरे राजा । विद्याधरो महात्मा प्रह्लादो नाम नाम्ना ||२६|| भार्या तस्य कीर्तिमती पुत्र: पवनंजय प्रथितकीर्तितः । रुपेण यौवनेन च कामस्यश्रियं विडम्बयति ||२७|| नन्दीश्वरयात्रा पउमचरियं - एतदन्तरे मासः संप्राप्तः फाल्गुनो गुणसमृद्धः । जनयन्नवपल्लवं द्रुमाणां कमलाकराणं च ॥२८॥ राजन्त उपवनानि नानाविधकुसुमर्द्धिगन्धानि । गुमगुमगुमन्मधुकरकोकिलकोलाहलरवाणि ॥२९॥ एतादृशे काले देवा नन्दीश्वरं परमद्वीपम् । गत्वाष्ट दिवसानां कुर्वन्ति महिमाजिनवराणाम् ॥३०॥ पूजोपकरणकराः सर्वे विद्याधराः समुदायेन । प्राप्ता वैताढ्यगिरिं प्रणमन्ति जिनालयांस्तुष्टाः ||३१|| तत्र महेन्द्रोऽपि गतः पूजां कृत्वा सिद्धप्रतिमानाम् । स्तुतिमङ्गलैर्नत्वोपविष्टः समशिलापृष्ठे ॥३२॥ प्रह्लादोऽपि नरपति भक्तिरागेण चोदितस्सन् । गत्वा प्रयतमनाः संस्तौति जिनालयान् सर्वान् ||३३|| अञ्जनायाः पवनञ्जयेन सहसम्बन्धः अथ स समाप्तनियमो दृष्टोऽभ्युत्थितो महेन्द्रेण । कृतविनयप्रीतिमुखौ द्वावपि जनौ तत्रोपविष्टौ ॥३४॥ For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो - १५ / २४-४७ पल्हाएण महिन्दो, तत्थ सरीराइ पुच्छिओ कुसलं । भणिओ य महिन्देणं, कत्तो कुसलं अपुण्णस्स ? ॥३५॥ दुहिया पढमवयत्था, अत्थि महं रूव-जोव्वण-गुणोहा। तीए य वरं सरिसं, न लभामि य दुक्खओ अहयं ॥३६॥ पुणरवि महिन्दराया, पल्हायं भणइ महुरवायाए । मन्तीहि मज्झ सिहं, तुज्झ सुओ अत्थि पवणगई ॥३७॥ तस्स कुमारी सुपुरिस ! दिन्ना य मए करेह कल्लाणं । परिचिन्तिया य बहुसो, पूरेहिं मणोरहे सव्वे ॥३८॥ अह भणइ तत्थ वयणं, पल्हाओ सच्चमेव एयं तु । गाढऽम्हि परिग्गहिओ, महिन्द ! तुज्झाणुराणं ॥ ३९॥ दोहं पि अणुमणं, माणसवरसरतडे निओगेणं । गन्तूण य कायव्वो, वीवाहो तइयदियहम्मि ॥४०॥ एवं कमेण दोणि वि, निययद्वाणाइँ तत्थ गन्तूणं । हय-गय-परियणसहिया, संपत्ता माणसं तुरिया ॥ ४१ ॥ उभयबलसन्निवेसा, विज्जाहर-सयण-परियणापुण्णा । सोहन्ति तत्थ वियडा, अहिट्टिया रिद्धिसंपन्ना ॥ ४२ ॥ दश कामवेगा: T दिवसेसु तीसु होही, वीवाहो एव गुरुजणाइटुं । कन्नाए दरिसणमणो, न सहइ पवणंजओ गमिउं ॥ ४३ ॥ मयणोरगावरद्धो, उदरट्ठियवेयणापरिग्गहिओ । दोसं गुणं न पेच्छइ, न य जाणइ जाणियव्वं ति ॥४४॥ सत्य हवन्ति वेगा, भुयङ्गदट्ठस्स गारुडे भणिया । दस य पुणो सविसेसा, हवन्ति मयणाहिदट्ठस्स ॥४५ ॥ पढमम्मि हवइ चिन्ता, वेगे बीयम्मि इच्छे दहुं । तइए दीहुस्सासो, हवइ चउत्थम्मि जरगहिओ ॥४६॥ पञ्चमवेगे डज्झइ, छट्टे भत्तं विसोवमं होइ । सत्तमयम्मि यपलवइ, अट्ठमवेगम्मि उग्गाइ ॥४७॥ प्रह्लादेन महेन्द्रस्तत्र शरीरादीन् पृष्टः कुशलम् । भणितश्च महेन्द्रेण कुतः कुशलमपुण्यस्य ? ॥३५॥ दुहिता प्रथमवयस्थाऽस्ति मम रुप - यौवन - गुणौघा । तस्याश्च वरं सदृशं न लभे च दुःखितोऽहम् ॥३६॥ पुनरपि महेन्द्रराजा प्रह्लादं भणति मधुरवाचा । मन्त्रिभिर्मम शिष्टं तव सुतोऽस्ति पवनगतिः ||३७|| तस्य कुमारी सुपुरष ! दत्ता च मया कुरुत कल्याणम् । परिचिन्तिताश्च बहुशः पूरय मनोरथान् सर्वान् ॥३८॥ अथ भणति तत्र वचनं प्रह्लादः सत्यमेवैतत्तु । गाढमस्मि परिगृहीतो महेन्द्र ! तवानुरागेण ॥३९॥ द्वयोरपि अनुमतेन मानसवरसरस्तटे नियोगेन । गत्वा च कर्तव्यो वीवाहस्तृतीयदिवसे ||४|| एवं क्रमेण द्वावपि निजस्थानानि तत्र गत्वा । हय-गज - परिजनसहितौ संप्राप्तौ मानसं त्वरितौ ॥ ४१ ॥ उभयबलसन्निवेशा, विद्याधर स्वजनपरिजनापूर्णाः । शोभन्ते तत्र विकटा अधिष्ठिता ऋद्धिसंपन्नाः ॥४२॥ दश कामवेगा: दिवसैस्त्रिभि र्भविष्यति विवाह एवं गुरुजनादिष्टम् । कन्याया दर्शनमना न सहते पवनञ्जयो गन्तुम् ॥४३॥ मदनोरगापरुद्ध उदरस्थितवेदनापरिगृहीतः । दोषं गुणं न पश्यति न च जानाति ज्ञातव्यमिति ॥४४॥ सप्त च भवन्ति वेगा भुजङ्गदष्टस्य गारुडे भणिता । दश च पुनः सविशेषा भवन्ति मदनाहिदष्टस्य ॥४५॥ प्रथमे भवति चिन्ता वेगे द्वितीये इच्छति द्रष्टुम् । तृतीये दीर्घोच्छवासो भवति चतुर्थे ज्वरगृहीतः ॥४६॥ पञ्चमवेगे दहति षष्टे भक्तं विषोपमं भवति । सप्तमे चप्रलपति अष्टमवेगे उद्गाति ॥४७॥ पउम भा-१/२३ For Personal & Private Use Only १७७ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ पउमचरियं नवमे मुच्छाविहलो, दसमे पुण मरइ चेव अकयत्थो । एवं विहा उ वेगा, कहिया मयणाहिदट्ठस्स ॥४८॥ एवं कामभुयङ्गम-दट्ठो पवणञ्जओ विगयहासो । विरहविसघायणढे, तं कन्नाओसहिं महइ ॥४९॥ वरभवणगओ वि धिइं, न लहइ सयणा-ऽऽसणे महरिहम्मि । उज्जाण-काणण-वणे, पउमसरे नेव रमणिज्जे ॥५०॥ चिन्तेइ तग्गयमणो, कइया तं वरतणुं नियच्छे हैं । निययङ्कम्मि निविलु, फुसमाणो अङ्गमङ्गाइं ? ॥५१॥ निज्झाइऊण बहुयं, छायापुरिसो व्व निययपासत्थो । पवणंजएण मित्तो, भणिओ च्चिय पहसिओ नाम ॥५२॥ अन्नस्स कस्स व जए, मित्तं मोत्तूण कारणं गरुयं । समपिज्जइ सुह-दुक्खं ?, जं भण्णसि तं निसामेहि ॥५३॥ जइ तं महिन्दतणयं, अज्ज न पेच्छामि तत्थ गन्तूणं । तो विगयजीविओ हं, होहामि न एत्थ संदेहो ॥५४॥ जो एवं चिय दियहं. पहसिय ! न सहामि दरिसणविओगं । दिवसाणि तिणि सो हं.कहय गमिस्सामि अकयत्थो? ॥५॥ तं चिय कुणसु उवायं, जेण अहं अज्ज तीए मुहयन्दं । पेच्छामि तत्थ गन्तुं, पहसिय ! मा णे चिरावेहि ॥५६॥ भणिओ य पहसिएणं, सामिय ! मा एव कायरो होह । दावेमि अज्ज तुझं, अञ्जणवरसुन्दरिं कन्नं ॥५७॥ जाव च्चिय उल्लावो, वट्टइ दोण्हं पि ताण एयन्ते । ताव समोसरियकरो, दिवसयरो चेव अत्थाओ ॥५८॥ पवनञ्जयेन अञ्जनाया दर्शनं तद्विरागश्चअन्धारिए समत्थे, मित्तो पवणंजएणआणत्तो । उद्वेहि ठाहि पुरओ, वच्चामो जत्थ सा कन्ना ॥५९॥ उप्पइया गयणयले, दोण्णि वि वच्चन्ति पवणपरिहत्था । वड्डन्तघणसिणेहा, संपत्ता अञ्जणाभवणं ॥६०॥ नवमे मूर्छाविह्वलो दशमे म्रियत एवाकृतार्थ । एवं विधास्तु वेगा: कथिता मदनाहिदष्टस्य ॥४८॥ एवं कामभुजङ्गमदष्टः पवनञ्जयो विगतहास्यः । विरहविषघातनार्थे तां कन्यौषधि काक्षते ॥४९॥ वरभवनगतोऽपि धृतिं न लभते शयनाऽऽसने महार्हे । उद्यानकाननवने पद्मसरसि नैव रमणीये ॥५०॥ चिन्तयति तद्गतमनाः कदा तां वरतनूं पश्याम्यहम् । निजाङ्के निविष्टां स्पृशन्नङ्गमङ्गानि? ॥५१॥ निर्ध्याय बहुकं छायापुरुष इव निजकपार्श्वस्थः । पवनञ्जयेन मित्रं भणित एव प्रहसितो नाम ॥५२॥ अन्यस्य कस्य वा जगति मित्रं मुक्त्वा कारणं महत् । समर्प्यते सुख दुःखं ? यद्भण्यते तन्निशामय ॥५३।। यदि तां महेन्द्रतनयामद्य न पश्यामि तत्र गत्वा । ततो विगतजीवितोऽहं भविष्यामि नात्र संदेहः ॥५४॥ य एकमेव दिवसं प्रहसित ! न सहे दर्शनवियोगम् । दिवसान्त्रिन् सोऽहं कथं च गमिष्याम्यकृतार्थः ॥५५॥ त्वमेव कुरुष्वोपायं येनाहमद्य तस्या मुखचन्द्रम् । पश्यामि तत्र गत्वा प्रहसित ! मा चिरायस्व ॥५६॥ भणितश्च प्रहसितेन स्वामिन् ! मा एवं कातरो भव । दर्शयाम्यद्य त्वामञ्जनासुन्दरी कन्याम् ॥५७|| यावदेवोल्लापो वर्तते द्वयोरपि तयोरेकान्ते । तावत्समवसृतकरी दिवाकर एवास्तमायातः ॥५८॥ पवनञ्जयेन अञ्जनाया दर्शनं तद्विरागश्च - अन्धकारिते समस्ते मित्रं पवनञ्जयेनाज्ञाप्तम् । उत्तिष्ठ तिष्ठ पुरतो व्रजावो यत्र सा कन्या ॥५९॥ उत्पतितौ गगनतले द्वावपि व्रजतः पवनदक्षौ । वर्धमानघनस्नेही संप्राप्तावञ्जनाभवनम् ॥६०।। १. एकान्ते । २. अस्तमायातः अस्तङ्गत इत्यर्थः । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो-१५/४८-७४ सत्तमतलं पविट्ठा, उवविठ्ठा आसणेसु दिव्वेसु । पेच्छन्ति तं वरतणुं, कोमुइससिसयलमुहसोहं ॥६१॥ पीणुन्नयथणजुयला, तणुमज्झा वियड-पीवरनियम्बा । रत्तासोगसमुज्ज-कर-चरणालत्तयच्छाया ॥६२॥ रूवेण जोव्वणेण य, जंपिय-हसिएण गइ-सहावेण । देवाण वि हरइ मणं, किं पुण एसा मणुस्साणं? ॥६३॥ तं दट्ठण वरतणू, पवणगई विम्हिओ विचिन्तेइ । किं होज्ज पयावइणा, रूवपडाया कया एसा ? ॥६४॥ अञ्जनासख्युल्लापा:एयन्तरम्मि सहिया, वसन्ततिलय त्ति नामओ भणइ । धन्ना सि तुम बाले !, जा दिन्ना पवणवेगस्स ॥६५॥ एयस्स पवरकित्ती, गेहं गेहेण भमइ जियलोए । अणिवारियगइपसर, पदुट्ठमहिल व्व निस्सङ्का ॥६६॥ भणिया वसन्ततिलया, सहियाए तत्थ मीसकेसीए । पुरिसाण गुणविसेसे, उत्तम-अहमे न लक्खेसि ॥६७॥ विज्जुप्पभं पमोत्तुं, चरिमसरीरं गुणायरं धीरं । पवणंजयं पसंससि, वसन्ततिलए ! परममूढे ! ॥६८॥ भणिया य मिस्सकेसी, वसन्ततिलयाए सो हु अप्पाऊ । तेण विहूणा बाला, होही पब्भट्टलायण्णा ॥६९॥ अह भणइ मीसकेसी, वरंखु विज्जुप्पभेण सह पेम्मं । एक्कं पि होउ दियहं, न दीहकालं कुपुरिसेणं ॥७०॥ सोऊण वयणमेयं, पवणगई रोसपसरियामरिसो । जुवईण मारणट्ठा, आयड्डइ असिवरं सहसा ॥७१॥ पहसिय ! बालराए इमं, वयणं अणुमन्नियं निरुत्तेणं । जेणेव जंपमाणी, न निसिद्धा अत्तणो सहिया ॥७२॥ एयाण असिवरेणं, सिराइँ छिन्दामि दोण्ह वि जणीणं । हिययस्स वल्लहयरो, वरेउ विज्जुप्पहो इहइं ॥७३॥ दट्टण समुग्गिण्णं, खग्गं जुवईण मारणट्ठाए । वारेइ पवणवेगं, मित्तो महुरेहि वयणेहिं ॥७४॥ सप्तमतलं प्रविष्टावुपविष्टावासनयो दिव्ययोः । पश्यतस्तां वरतनूं कौमुदीशशिसकलमुखशोभाम् ॥६१॥ पीनोन्नतस्तनयुगला तनुमध्या विकटपीवरनितम्बा । रक्ताशोकसमोज्वलकरचरणालक्तकछाया ॥६२॥ रुपेण यौवनेन च जल्पितहसितेन गति स्वभावेन । देवानामपि हरति मनः किं पुनरेषा मनुष्याणाम् ? ॥६३|| तां दृष्ट्वा वरतनूं पवनगति विस्मितो विचिन्तयति । किं भवेत् प्रजापतिना रुपपताका कृता एषा ? ॥६४|| अञ्जनासख्युल्लापाः - अत्रान्तरे सखी वसन्ततिलकेति नामतो भणति । धन्याऽसि त्वं बाले या दत्ता पवनवेगस्य ॥६५।। एतस्य प्रवरकीति र्गृहं गृहेण भ्रमति जीवलोके । अनिवारितगतिप्रसरा प्रदुष्टमहिलेव निःशङ्का ॥६६।। भणिता वसन्ततिलका सख्या तत्र मीश्रकेश्या । पुरुषाणां गुणविशेषानुत्तमाधमान्न लक्ष्यसि ॥६७॥ विद्युत्प्रभं प्रमुच्य चरमशरीरं गुणाकारं धीरम् । पवनञ्जयं प्रशंससि वसंततिलके ! परममूढे ! ॥६८|| भणिता च मिश्रकेशी वसन्ततिलकया स हु अल्पायुः । तेन विहीना बाला भविष्यति प्रभ्रष्टलावण्या ॥६९।। अथ भणति मिश्रकेशी वरं खलु विद्युत्प्रभेण समं प्रेमम् । एकमपि भवतु दिवसं न दीर्घकालं कुपुरूषेण ७०|| श्रुत्वा वचनमेतत्पवनगती रोषप्रसरितामर्षः । युवती मारणार्थमाकृषत्यसिवरं सहसा ॥७१।। प्रहसित ! बालाया इदं वचनमनुमतं निरुत्तरया । येनैव जल्पती न निषिद्धाऽऽत्मनः सखी ॥७२॥ एतयोरसिवरेण शिरसि छिनद्मि द्वयोरपि जन्योः । हृदयस्य वल्लभतरो वरतु विद्युत्प्रभ इह ॥७३॥ दृष्ट्वा समुद्गीर्णं खड्गं युवत्यो मारणार्थे । वारयति पवनवेगं मित्रं मधुरैर्वचनैः ॥७४॥ For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० वरसुहडजीयनासं, खग्गं गयकुम्भदारणसमत्थं । बहुदोसाण वि धीरा, महिलाण इमं न वाहेन्ति ॥७५॥ उत्तमकलसंभूओ, उत्तमचरिएहि उत्तमो सि तुमं । मा कुणसु पणइणिवहं, तम्हा कोवं परिच्चयसु ॥७६॥ महुरक्खरेहि एवं, उवसमिओ पहसिएण पवणगई । निग्गन्तूण घराओ, निययावासं समल्लीणो ॥७७॥ सयणम्मि सुहनिसण्णो, महिलावेरग्गमुवगओ भणइ । मा वीसम्भह निययं, विलयाणं अन्नहिययाणं ॥ ७८ ॥ मुक्खं चेव कुमित्तं, सत्तुं भिच्चत्तणं समल्लीणं । महिला य परायत्ता, लद्धूण कओ सुहं होइ ? ॥७९॥ एवं कमेण रयणी, वोलीणा आहयं विबुहतूरं । बन्दिजणेण सहरिसं, पाहाउयमङ्गलं घुटुं ॥८०॥ बुद्धेण भणिओ, मित्तो पवणंजएण तूरन्तो । दावेहि गमणसङ्खु, निययपुरं जेण वच्चामो ॥८१॥ दिन्नो य गमणसङ्ग्रो, मुहमारुयचवल- तुङ्गसद्दालो । सोऊण तं समत्थं, पडिबुद्धं साहणं तुरियं ॥८२॥ तावच्चिय दिवसयरो, उदिओ मिउकिरणमण्डलाडोवो । विहसन्तो वरकमले मउलावेन्तो उ कुमुयाई ॥८३॥ हय-गय-रहपरिहत्थो, चलिओ पवणंजओ सपुरहुत्तो । ऊसियसियायवत्तो, धयवडधुव्वन्तकयसोहो ॥८४॥ सोऊण तस्स गमणं, बाला चिन्तेइ अकयपुण्णा हं । अन्नावराहजणिए, चयइ ममं जेण हियइट्ठो ॥८५॥ नूणं मे अन्नभवे, पावं अइदारुणं समणुचिण्णं । दाऊण य अत्थनिही, नयणविणासो कओ पच्छा ॥८६॥ एयाणि य अन्नाणि य, जाव य सा अञ्जणा विचिन्तेइ । ताव अणुमग्गलग्गा, पवणस्स महिन्द- पल्हाया ॥८७॥ तुरिय-चवलेहि गन्तुं दिट्ठो पवणंजओ समालत्तो । भणिओ य किं अकज्जे, गमणारम्भो तुमे रइओ ? ॥८८॥ पल्हायनरवईणं, भणिओ मा पुत्त ! जाहि अकयत्थो । किं वा अकज्जरुट्ठो, लोए दावेहि लहुयत्तं ? ॥८९॥ वरसुभटजीवनाशं खड्गं गजकुम्भदारणसमर्थम् । बहुदोषानामपि धीरा महिलानामिदं न वाहयन्ति ॥७५॥ उत्तमकुलसंभूत उत्तमचरित्रैरुत्तमोऽसि त्वम् । मा कुरु प्रणयिणीवधं तस्मात्कोपं परित्यज ॥७६॥ मधुराक्षरैरेवमुपशामितः प्रहसितेन पवनगतिः । निर्गत्य गृहान्निजकावासं समालीनः ॥७७॥ शयने सुखनिषण्णो महिलावैराग्यमुपागतो भणति । मा विश्रम्भय नित्यं वनितानामन्यहृदयानाम् ॥७८॥ मूर्खमेव कुमित्रं शत्रुं भृत्यत्वं समालीनम् । महिला च परायत्ता लब्ध्वा कः सुखं भवति ? ॥७९॥ एवं क्रमेण रजनी व्यतिताऽऽहतं विबुधतूर्यम् । बन्दिजनेन सहर्षं प्राभातिकमङ्गलं घृष्टम् ॥८०॥ प्रतिबुद्धेन च भणितं मित्रं पवनञ्जयेन त्वरितम् । दापय गमनशङ्खं निजपुरं येन गच्छावः ॥ ८१ ॥ दत्तश्च गमनशङ्खो मुखमारुतचपलातुङ्गशब्दवान् । श्रुत्वा तं समस्तं प्रतिबुद्धं साधनं त्वरितम् ॥८२॥ तावदेव दिवसकर उदितो मृदुकिरणमण्डलाटोपः । विकसन् वरकमलानि मुकुलयंस्तु कुमुदानि ॥८३॥ हयगजरथपरिपूर्णश्चलितः पवनञ्जयः स्वपुराभिमुखः । उच्छ्रितश्वेतातपत्रो ध्वजपटधुन्वानकृतशोभः ॥८४॥ श्रुत्वा तस्य गमनं बाला चिन्तयत्यकृतपुण्याऽहम् । अन्यापराधजनिते त्यजति मां येन हृदयेष्टः ॥८५॥ नूनं मयान्यभवे पापमतिदारुणं समनुचीर्णम् । दत्वा चार्थनिधिं र्नयनविनाशः कृत पश्चात् ॥८६॥ एतानिचान्यानि च यावच्च साऽञ्जना विचिन्तयति । तावदनुमार्गलग्नौ पवनस्य महेन्द्र - प्रह्लादौ ॥८७॥ त्वरित-चपलैर्गत्वा दृष्टः पवनञ्जयः समालपितः । भणितश्च किमकार्ये गमनारम्भस्त्वया रचितः ? ॥८८॥ प्रह्लादनरपतिना भणितो मा पुत्र ! याहि अकृतार्थः । किं वाऽकार्यरुष्टो लोके दर्शयसि लघुत्वम् ॥८९॥ पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो - १५ / ७५-१०० जं होइ गरहणिज्जं, उवहासं जं च नरयगइगमणं । उत्तिमपुरिसेण जए, तं चिय कम्मं न कायव्वं ॥ ९० ॥ सुणिऊण वयणमेयं, पवणगई तो मणेण चिन्तेइ । एयं अलङ्घणिज्जं, कायव्वं गुरुजणाइटुं ॥९१॥ अहवा पाणिग्गहणं, काऊणं तं इहं समुज्झे । जेण महं अन्नस्स य, न होइ इट्ठा निययकालं ॥९२॥ पवनञ्जयेन अञ्जनायाः परिणयनम् पल्हाय-महिन्देहिं, अणेयउवएससयसहस्साइं । दाऊण कुमारवरो, नियत्तिओ बुद्धिमन्तेहिं ॥ ९३ ॥ पवणंजये नियत्ते, दोसु वि सन्नेसु होइ आणन्दो । बहुखाण - पाण- भोयण-सएसु लोओ समाद्धो ॥९४॥ सव्वममि सुपडिउत्ते, सुतिहि सुनक्खत्त-करण - लग्गम्मि । वत्तं पाणिग्गहणं, कन्नाए समं कुमारस्स ॥ ९५ ॥ वत्तम्मिय वारिज्जे, उभओ सम्माणदाणकयविभवा । तत्थेव मासमेगं, अच्छन्ति महिन्द - पल्हाया ॥ ९६ ॥ अह ते अवियण्हमणा अन्नोन्नाभासणाइ काऊणं । विज्जाहररायाणो, निययपुराई समणुपत्ता ॥९७॥ हय-गय-रहपरिकिण्णो, ऊसियधय-विजय- वेजयन्तीहिं । पवणंजओ पविट्ठो, सपुरं चिय अञ्जणासहिओ ॥ ९८ ॥ दिन्नं से वरभवणं, मणिकोट्टिम - सालिभञ्जियाकलियं । अह सा महिन्दतणया, तत्थ पविट्ठा गमइ कालं ॥ ९९ ॥ परभवजणियं जं दुक्कयं सुक्कयं वा, उवणमहइ लोए सोक्ख- दुक्खावहं तं । चउगइभयभीया जायसंवेगसड्डा, विमलहिययभावा होह धम्मेक्वचित्ता ॥ १०० ॥ ॥ इय पउमचरिए अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो नाम पञ्चदसो उद्देसओ समत्तो ॥ यद्भवति गर्हणीयमुपहासं यच्च नरकगतिगमनम् । उत्तमपुरुषेण जगति तदेव कर्म न कर्त्तव्यम् ॥ ९० ॥ श्रुत्वावचनमेतत् पवनगतिस्तदा मनसा चिन्तयति । एतदलङ्घनीयकर्तव्यं गुरुजनादिष्टम् ॥९१॥ अथवा पाणिग्रहणं कृत्वा तामिह समुज्झाम्यहम् । येन ममान्यस्य च न भवतीष्टा नित्यकालम् ॥९२॥ पवनञ्जयेन अञ्जनायाः परिणयनम् प्रह्लाद-महेन्द्राभ्यामनेकोपदेशशतसहस्राणि । दत्वा कुमारवरो निवत्तितो बुद्धिमद्भयाम् ॥९३॥ पवनञ्जये निवृते द्वयोरपि सैन्ययोर्भवत्यानन्दः । बहुखान-पान - भोजनशतैर्लोकः समारब्धः ||९४|| सर्वे सुप्रत्युक्ते सुतिथि- सुनक्षत्र - करणलग्ने । वृतं पाणिग्रहणं कन्ययाः समं कुमारस्य ॥ ९५|| वृत्ते च वीवाहे उभयौ सन्मानदानकृतविभवौः । तत्रेव मासमेकमासाते महेन्द्र - प्रह्लादौ ॥ ९६ ॥ अथ तावविभक्तमनसावन्योन्याभाषणादि कृत्वा । विद्याधरराजानौ निजपुराणि समनुप्राप्तौ ॥९७॥ हय-गज-रथपरिकीर्णोच्छ्रितध्वज - विजय - वैजयन्तिभिः । पवनञ्जयः प्रविष्टः स्वपुरमेवाञ्जनासहितः ॥९८॥ दत्तं तस्यै वरभवनं मणिकुट्टिमशालिभञ्जिककलितम् । अथ सा महेन्द्रतनया तत्र प्रविष्टा गमयति कालम् ॥९९॥ परभवजनितं यद्दुष्कृतं सुकृतं वोपनमतीह लोके सुख-दु:खावहं तत् । चतुर्गतिभयभीता जातसंवेगश्रद्धा विमलहृदयभावा भवन्तु धर्मैकचित्तः ॥१००॥ ।। इति पद्मचरितेऽञ्जनासुन्दरीवीवाहविधानो नाम पञ्चदशोद्देशः समाप्तः ॥ १. वीवाहे । १८१ For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. पवणंजय-अंजणासुंदरीभोगविहाणाहियारो अञ्जनायास्त्यागः परिदेवनं चसरिऊण मिस्सकेसी-वयणं पवणंजएण रुटेणं । चत्ता महिन्दतणया, दुक्खियमणसा अकयदोसा ॥१॥ विरहाणलतवियङ्गी, न लभइ विदाणलोयणा निदं । वामकरधरियवयणा, वाउकुमारं विचिन्तेन्ती ॥२॥ उक्कण्ठिय त्ति गाढं, नयणजलासित्तमलिणथणजुयला । हरिणी व वाहभीया, अच्छि मग्गं पलोयन्ती ॥३॥ अइतणुइयसव्वङ्गी, कडिसुत्तय-कडयसिढिलियाभरणा । भारेण अंसुयस्स य, जाइ महन्तं परमखेयं ॥४॥ ववगयदप्पुच्छाहा, दुक्खं धारेइ अङ्गमङ्गाइँ । एमेव सुन्नहियया, पलवइ अन्नन्नवयणाई ॥५॥ पासायतलत्था चिय, मोहं गच्छइ पुणो पुणो बाला । नवरं आसासिज्जइ, सीयलपवणेण फुसियङ्गी ॥६॥ मिउ-महुर-मम्मणाए, जंपइ वायाए दीणवयणाई । अइतणुओ वि महायस!, तुज्झऽवराहो मए न कओ ॥७॥ मुञ्चसु कोवारम्भं, पसियसु मा एव निगुरो होहि । पणिवइयवच्छला किल, होन्ति मणुस्सा महिलियाणं ॥८॥ एयाणि य अन्नाणि य, जंपन्ती तत्थ दीणवयणाई। अह सा महेन्दतणया, गमेइ कालं चिय बहुत्तं ॥९॥ ॥ १६. पवनञ्जयाञ्जनासुन्दरीभोगविधानाधिकारः ॥ अञ्जनायास्त्यागः परिदेवनं च - स्मृत्वा मिश्रकेशीवचनं पवनञ्जयेन रुष्टेन । त्यक्ता महेन्द्रतनया दुःखितमना अकृतदोषा ॥१॥ विरहानलतप्तताङ्गी न लभते विद्राणलोचना निद्राम् । वामकरधृतवदना वायुकुमारं विचिन्तयन्ती ॥२॥ उत्कण्ठितेति गाढं नयनजलासिक्तमलिनस्तनयुगला । हरिणीव व्याघ्रभीता आस्ते मार्ग प्रलोकयन्ती ॥३॥ अतितनूकृतसर्वाङ्गी कटिसूत्रकटकशिथीलाभरणा । भारेणांशुकस्य च याति महत्परमखेदम् ।।४॥ व्यपगतदर्पोत्साहा दु:खं धारयत्यङ्गमङ्गानि । एवमेव शून्यहृदया प्रलपत्यन्योन्यवचनानि ॥५॥ प्रासादतलस्थैव मोहं गच्छति पुनः पुन र्बाला । नवरमाआश्वस्यते शीतलपवनेन स्पर्शिताङ्गी ॥६॥ मृदु-मधुर मन्मनया जल्पति वाचा दीनवचनानि । अतितनुकोऽपि महायशः ! तवापराधो मयान कृतः ॥७॥ मुञ्च कोपारम्भं प्रसीद मैव निष्ठुरो भव । प्रणिपतितवत्सला किल भवन्ति मनुष्या महिलानाम् ।।८।। एतानि चान्यानि च जल्पन्ती तत्र दीनवचनानि । अथ सा महेन्द्रतनया गमयति कालमेव बहुत्वम् ॥९॥ १. स्वस्वामिनं पवनञ्जयम् इत्यर्थः । Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ पवणंजयअंजणासुन्दरीभोगविहाणाहियारो-१६/१-२२ रावणस्य वसगेन सह विरोधःएत्थन्तरे विरोहो, जाओ अइदारुणो रणारम्भो । रावण-वरुणाण तओ, दोण्ह वि पुण दप्पियबलाणं ॥१०॥ लङ्काहिवेण दूओ, वरुणस्स य पेसिओ अइतुरन्तो । गन्तूण पणमिऊण य, कयासणो भणइ वयणाई ॥११॥ विज्जाहराण सामी, वरुण ! तुम भणइ रावणो रुट्ठो । कुणह पणामं व फुडं, अह ठाहि रणे सवडहुत्तो ॥१२॥ हसिऊण भणइ वरुणो, दूयाहम ! को सि रावणो नाम ? । न य तस्स सिरपणाम, करेमि आणापमाणं वा ॥१३॥ न य सो वेसमणो हं, नेय जमो न य सहस्सकिरणो वा । जो दिव्वसत्थभीओ, कुणइ पणामं तुहं दीणो ॥१४॥ वरुणेणं उवलद्धो, दूओ जं एव फरुसवयणेहिं । तो रावणस्स गन्तुं, कहेइ सव्वं जहाभणियं ॥१५॥ सोऊण दूयवयणं, रुट्ठो लङ्काहिवो भणइ एवं । दिव्वत्थेहि विणा मए, अवस्स वरुणो जिणेयव्वो ॥१६॥ एत्थन्तरे पयट्टो, दसाणणो सयलबलकयाडोवो । संपत्तो वरुणपुरं, मणि-कणयविचित्तपायारं ॥१७॥ सोऊण रावणं सो समागयं पुत्तबलसमाउत्तो । रणपरिहत्थुच्छाहो, विणिग्गओ अभिमुहो वरुणो ॥१८॥ राईवपुण्डरीया, पुत्ता बत्तीसइं सहस्साई । सन्नद्ध-बद्ध-कवया, अब्भिट्टा रक्खसभडाणं ॥१९॥ अन्नोन्नसत्थभज्जन्त-संकुलं हुयवहुट्ठियफुलिङ्गं । अइदारुणं पवत्तं, जुझं विवडन्तवरसुहडं ॥२०॥ रह-गय-तुरङ्ग-जोहा, समरे जुज्झन्ति अभिमुहावडिया । सर-सत्ति-खग्ग-तोमर-चक्काउह-मोग्गरकरग्गा ॥२१॥ रक्खसभडेहि भग्गं, वरुणबलं विवडियाऽऽस-गय-जोहं । दट्टण पलायन्तं, जलकन्तो अभिमुहीहूओ ॥२२॥ रावणस्य वस्गेण सह विरोधः - अत्रान्तरे विरोधो जातोऽतिदारुणो रणारम्भः । रावण-वरुणयोस्ततो द्वयोरपि पुनर्पितबलयोः ॥१०॥ लङ्काधिपेन दूतो वरुणस्य च प्रेषितोऽतित्वरमाणः । गत्वा प्रणम्य च कृतासनो भणति वचनानि ॥११॥ विद्याधराणां स्वामी, वरुण ! त्वां भणति रावणो रुष्टः । कुरु प्रणामं वा स्फुटमथ तिष्ठ रणे अभिमुखः ॥१२॥ हसित्वा भणति वरुणो दूताधम ! कोऽस्ति रावणो नामा । न च तस्य शिरःप्रणामं करोम्याज्ञाप्रमाणं वा ॥१३॥ न च स वैश्रमणोऽहं नैव यमो न च सहस्रकिरणो वा । यो दिव्यशस्त्रभीत: करोति प्रणामं त्वां दीनः ॥१४॥ वरुणेनोपलब्धो दूतो यदेव परुषवचनैः । तदा रावणस्य गत्वा कथयति सर्वं यथाभणितम् ॥१५॥ श्रुत्वा दुतवचनं रुष्टो लङ्काधिपो भणत्येवम् । दिव्यास्त्रै विना मयाऽवश्यं वरुणो जेतव्यः ॥१६॥ अत्रान्तरे प्रवृतो दशाननः सकलबलकृताटोपः । संप्राप्तो वरुणपुरं मणिकनकविचित्रप्राकारम् ।।१७।। श्रुत्वा रावणं स समागतं पुत्रबलसमायुतः । रणपरिपूर्णोत्साहो विनिर्गतो ऽभिमुखो वरुणः ॥१८॥ राजीवपुण्डरिकाः पुत्रा द्वात्रिंशत्सहस्राणि । सन्नद्ध-बद्ध-कवचाः प्रवृतं युद्धं विपतद्वरसुभटम् ॥२०॥ रथगजतुरङ्गयोधाः समरे युध्यन्तेऽभिमुखापतिताः । शर-शक्ति खड्ग तोमर चक्रायुधमुद्गरकराग्राः ॥२१॥ राक्षसभटैर्भग्नं वरुणबलं विपतिताश्वगजयोधम् । दृष्ट्वा पलायन्तं जलकान्तोऽभिमुखीभूतः ॥२२॥ १. वरुण इत्यर्थः। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ पउमचरियं वरुणेण बलं भग्गं, ओसरियं पेच्छिऊण दहवयणो । अब्भिडइ रोसपसरिय-सरोहनिवहं विमुञ्चन्तो ॥२३॥ वरुणस्स रावणस्स य, वट्टन्ते दारुणे महाजुज्झे । ताव य वरुणसुतेहिं, गहिओ खरदूसणो समरे ॥२४॥ दट्टण दूसणं सो, गहियं मन्तीहि रावणो भणिओ । जुज्झन्तेण पहु ! तुमे, अवस्स मारिज्जए कुमरो ॥२५॥ काऊण संपहारं, समयं मन्तीहि रक्खसाहिवई । खरदूसणजीयत्थे, रणमज्झाओ समोसरिओ ॥२६॥ पायालपुरवरं सो, पत्तो मेलेइ सव्वसामन्ते । पल्हायखेयरस्स वि, सिग्धं पुरिसं विसज्जेइ ॥२७॥ पवनञ्जयस्य रणार्थं निस्सरणम् - गन्तूण पणमिऊण य, पल्हायनिवस्स कहइ संबन्धं । रावण-वरुणाण रणं, दूसणगहणं जहावत्तं ॥२८॥ पडियागओ महप्पा, पायालपुरट्ठिओ ससामन्तो । मेलेइ रक्खसवई, अहमवि वीसज्जिओ तुज्झं ॥२९॥ सोऊण वयणमेयं, पल्हाओ तक्खणे गमणसज्जो । पवणंजएण घरिओ, अच्छ तुमंताय वीसत्थो ॥३०॥ सन्तेण मए सामिय !, किस तुमं कुणसि गमणआरम्भं ? ।आलिङ्गणफलमेयं, देमि अहं तुज्झ साहीणं ॥३१॥ भणिओ य नरवईणं बालो सि तुमं अदिट्ठसंगामो । अच्छसु पुत्त ! घरगओ कीलन्तो निययकीलाए ॥३२॥ मा ताय ! एव जंपसु, बालो त्ति अहं अदिट्ठरणकज्जो। किं वा मत्तवणगए, सीहकिसोरो न घाएइ ? ॥३३॥ पल्हायनरवईणं, ताहे वीसज्जिओ पवणवेगो । भणिओ य पत्थिवजयं, पुत्तय ! पावन्तओ होहि ॥३४॥ तातस्स सिरपणाम, काउं आपुच्छिऊण से जणणिं । आहरणभूसियङ्गो, विणिग्गओ सो सभवणाओ ॥३५॥ वरुणेन बलं भग्नमपसारितं दृष्ट्वा दशवदनः । संगच्छते रोषप्रसरितशरौघनिवहं विमुञ्चन् ।।२३।। वरुणस्य रावणस्य च वर्तमाने दारुणे महायुद्धे । तावच्च वरुणसुतै गृहीतः खरदूषणः समरे ।।२४। दृष्ट्वा दूषणं स गृहीतं मन्त्रिभी रावणो भणितः । युध्यमानेन त्वया प्रभोऽवश्यं म्रियते कुमारः ॥२५॥ कृत्वा संप्रहारं समकं मन्त्रिभी राक्षसाधिपतिः । खरदूषणजीवितार्थे रणमध्यात् समपसृतः ॥२६॥ पातालपुरवरं स प्राप्तो मेलयति सर्वसामन्तान् । प्रह्लादखेचरस्यापि शीघ्रं पुरुषं विसर्जयति ॥२७॥ पवनञ्जयस्य रणार्थं निस्सरणम् - गत्वा प्रणम्य च प्रह्लादनृपस्य कथयति सम्बन्धम् । रावण-वरुणयो रणं दूषणग्रहणं यथावृत्तम् ॥२८॥ प्रत्यागतो महात्मा पातालपुरस्थितः ससामन्तः । मेलयति राक्षसपतिरहमपि विसर्जितस्तव ।।२९।। श्रुत्वा वचनमेतत्प्रह्लादस्तत्क्षणे गमनसज्जः । पवनञ्जयेन धृत आस्स्व त्वं तात ! विश्वस्तः ॥३०॥ सति मयि स्वामिन् ! कस्मात्त्वं करोषि गमनारम्भम् । आलिङ्गनफलमेतद्ददाम्यहं तव स्वाधीनः ॥३२॥ भणितश्च नरपतिना बालोऽसित्वमदृष्टसंग्रामः । आस्स्व पुत्र ! गृहगतः कीडन्निजक्रीडया ॥३२।। मा तात ! एवं जल्प बाल इत्यहमदृष्टरणकार्यः । किं वा मतवनगजान् सिंहकिशोरो न हन्ति ॥३३॥ प्रह्लादनरपतिना ततो विसर्जितः पवनवेगः । भणितश्च पार्थिवो जयं पुत्र ! प्राप्तवान्भव ॥३४॥ तातस्य शिरः प्रणामं कृत्वाऽऽपृच्छय तस्य जननीम् । आभरणभूषिताङ्गो विनिर्गतः स स्वभवनात् ॥३५॥ Jain Education Interational For Personal Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ पवणंजयअंजणासुन्दरीभोगविहाणाहियारो-१६/२३-४७ सहसा पुरम्मि जाओ, उल्लोल्लो निग्गओ पवणवेगो । सोऊण अञ्जणा वि य, तं सदं निग्गया तुरियं ॥३६॥ अइपसरन्तसिणेहा, थम्भल्लीणा पइं पलोयन्ती । वरसालिभञ्जिया इव, दिट्ठा बाला जणवएणं ॥३७॥ पेच्छइ य तं कुमारं, महिन्दतणया नरिन्दमग्गम्मि । पुलयन्ती न य तिप्पइ, कुवलयदलसरिसनयणेहिं ॥३८॥ पवणंजएण वि तओ, पासायतलट्ठिया पलोयन्ती । दूरं उव्वियणिज्जा, उक्का इव अञ्जणा दिट्ठा ॥३९॥ तं पेच्छिऊण रुट्ठो, पवणगई रोसपसरियसरीरो । भणइ य अहो ! अलज्जा, जा मज्झ उवट्ठिया पुरओ ॥४०॥ रइऊण अञ्जलिउडं, चलणपणामं च तस्स काऊण । भणइ उवालम्भन्ती, दूरपवासो तुमं सामी ! ॥४१॥ वच्चन्तेण परिजणो, सव्वो संभासिओ तुमे सामि ! । न य अन्नमणगएण वि, आलत्ता हं अकयपुण्णा ॥४२॥ जयं मरणं पि तुमे, आयत्तं मज्झ संदेहो । जइ वि हु जासि पवासं, तह वि य अम्हे सरेज्जासु ॥४३॥ एवं पलवन्तीए, पवणगई । निग्गन्तूण पुराओ, उवढिओ माणससरम्मि ॥४४॥ विज्जाबलेण रइओ, तत्थ निवेसो ऽऽसणाईओ। ताव च्चिय अत्थगिरिं, कमेण सूरो समल्लीणो ॥४५॥ सन्ध्यावर्णनम्, पवनञ्जयेन अञ्जनायाः स्मरणम् च - अह सो संझासमए, भवण-गवक्खन्तरेण पवणगई । पेच्छइ सरं सुरम्मं, निम्मलवरसलिलसंपुण्णं ॥४६॥ मच्छेसु कच्छभेसु य, सारस-हंसेसु पयलियतरङ्गं । गुमुगुमुगुमेन्तभमरं, सहस्सपत्तेसु संछन्नं ॥४७॥ सहसा पूरे जात उल्लोलो निर्गतः पवनवेगः । श्रुत्वाऽञ्जनाऽपि च तं शब्दं निर्गता त्वरितम् ॥३६।। अतिप्रसरत्स्नेहा स्तम्भलीना पतिं प्रलोकयन्ती । वरशालिभञ्जिकेव दृष्टा बाला जनपदेन ॥३७॥ पश्यति च तं कुमारं महेन्द्रतनया नरेन्द्रमार्गे । पश्यन्ती न च तृप्यति कुवलयदलसदृशनयनाभ्याम् ॥३८॥ पवनञ्जयेनापि ततःप्रासादतलस्थिता प्रलोकयन्ती। दरमद्वेजनीयोल्केवाञ्जना दष्टा ॥३९॥ तां दृष्ट्वा रुष्टःपवनगती रोषप्रसृतशरीरः । भणति चाहो अलज्जा या ममोपस्थिता पुरतः ॥४०॥ रचयित्वाऽञ्जलिपूटं चरणप्रणामं च तस्य कृत्वा । भणत्युपालम्भन्ती दूरप्रवासस्तव स्वामिन् ! ॥४१॥ व्रजता परिजनः सर्वः संभाषितस्त्वया स्वामिन् ! | न चान्यमनोगतेनाप्यालापिताहमकृतपुण्या ॥४२॥ जीवितं मरणमपि तवाधीनं मम नात्र संदेहः । यद्यपि हु यासि प्रवासं तथापि चास्मान्स्मार्यताम् ॥४३।। एवं प्रलपन्त्या पवनगति मत्तहस्ती समारुढः । निर्गत्य पुरादुपस्थितो मानससरसि ॥४४॥ विद्याबलेन रचितस्तत्र निवेश: गृहाऽऽसनादिकः । तावदेवास्तगिरि क्रमेण सूर्यः समालीनः ॥४५॥ सन्ध्यावर्णनम् पवनञ्जयेन अञ्जनायाः स्मरणं च - अथ स संध्यासमये भवनगवाक्षान्तरेण पवनगतिः । पश्यति सर: सुरम्यं निर्मलवरसलिलासंपूर्णम् ॥४६।। मत्स्यैः कच्छपैश्च सारसहंसैः प्रचलिततरङ्गम् । गुमुगुमुगमभ्रमरं सहस्रपत्रैः सच्छन्नम् ॥४७॥ १. उल्लापः। पउम. भा-१/२४ Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ अइदारुणप्पयावो, लोए काऊण दीहरज्जं सो। अत्थाओ दिवसयरो, अवसाणे नरवई चेव ॥ ४८ ॥ दियहम्मि वियसियाई, निययं भमरउलछड्डियदलाई । मउलेन्ति कुवलयाई, दिणयरविरहम्मि दुहियाई ॥ ४९ ॥ अह ते हंसाईया, सउणा लीलाइउं सरवरम्मि । दद्धुं संझासमयं गया य निययाइँ ठाणाई ॥५०॥ तत्थेक्का चक्काई, दिट्ठा पवणंजएण कुव्वन्ती । अहयं समाउलमणा, अहिणवविरहग्गितवियङ्गी ॥५१॥ उद्धाइ चलइ वेवइ, विहुणइ पक्खावलिं वियम्भन्ती । तडपायवे विलग्गड़, पुणरवि सलिलं समल्लियइ ॥५२॥ विहडेइ पउमसण्डं, दइययसङ्काए चञ्चपहरेहिं । उप्पयइ गयणमग्गं, सहसा पडिसद्दयं सोउं ॥ ५३ ॥ गरुयपियविरहदुहियं, चक्विं दट्ठूण तग्गयमणेणं । पवणंजएण सरिया, महिन्दतणया चिरपमुक्का ॥५४॥ भणिऊण समाढतो, हा ! कट्टं जा मए अकज्जेणं । मूढेण पावगुरुणा, चत्ता वरिसाणि बावीसं ॥५५ ॥ जह एसा चक्काई, गाढ पियविरहदुक्खिया जाया । तह सा मज्झ पिययमा, सुदीणवयणा गमइ कालं ॥५६॥ जइ नाम अकण्णसुहं, भणियं सहियाए तीए पावाए। तो किं मए विमुक्का, पसयच्छी दोसपरिहीणा ? ॥५७॥ परिचिन्तिऊण एवं, वाउकुमारेण पहसिओ भणिओ । दट्ठूण चक्कवाई, सरिया मे अञ्जणा भज्जा ॥५८॥ एन्ते मए दिट्ठा, पासायतलट्ठिया पलोयन्ती । ववगयसिरि- सोहग्गा, हिमेण पहया कमलिणि व्व ॥५९॥ तं चिय करेहि सुपुरिस !, अज्ज उवायं अकालहीणम्मि । जेण चिरविरह दुहिया, पेच्छामि अहञ्जणा बाला ॥६०॥ पउमचरियं अतिदारुणप्रतापो लोके कृत्वा दीर्घराज्यं स । अस्तो दिवसकरोऽवसाने नरपतिरिव ॥४८॥ दिवसे विकसितानि नित्यं भ्रमरकुलछर्दितदलानि । मुकुलयन्ति कुवलयानि दिनकरविरहे दुःखितानि ॥४९॥ अथ ते हंसादिकाः शकुना लीलायित्वा सरोवरे । दृष्ट्वा संध्यासमयं गताश्च निजकानि स्थानानि ॥५०॥ तत्रैका चक्रवाकी दृष्टा पवनञ्जयेन कुर्वन्ती । अधिकं समाकुलमना अभिनवविरहाग्नितप्ताङ्गी ॥५१॥ उद्धावति चलति वेपते विधुनाति पक्षावलीं विजृम्भमाणा । तटपादपे विलग्नाति पुनरपि सलिलं समालीनाति ॥५२॥ विघटयति पद्मखण्डं दयितशङ्कया चञ्चप्रहारैः । उत्पतति गगनमार्गं सहसा प्रतिशब्दं श्रुत्वा ॥५३॥ गुरुकप्रियविरहदुःखितां चक्रीं दृष्ट्वा तद्गतमनसा । पवनञ्जयेन स्मृता महेन्द्रतनया चिरप्रमुक्ता ॥५४॥ भणितुं समारब्धो हा कष्टं या मयाऽकार्येण । मूढेन पापगुरुणा त्यक्ता वर्षाणि द्वाविंशतिः ॥५५॥ यथैषा चक्रवाकी गाढं प्रियविरहदुःखिताजाता । तथा सा मम प्रियतमा सुदीनवदना गमयति कालम् ॥५६॥ यदिनामाकर्णसुखं भणितं सख्या तया पापया । तदा किं मया विमुक्ता प्रसादाक्षी दोषपरिहीण ? ॥५७॥ परिचिन्त्यैवं वायुकुमारेण प्रहसितो भणितः । दृष्ट्वा चक्रवाक स्मृता मया ऽञ्जना भार्या ॥५८॥ अयाता मयादृष्टा प्रासादतलस्थिता प्रलोकयन्ती । व्यपगत श्रीसौभाग्या हिमेन प्रहता कमलिनीव ॥ ५९॥ तमेव कुरु सुपुरुष ! अद्योपायमकालहीने । येन चिरविरहदुःखितां पश्याम्यथाञ्जनां बालाम् ॥६०॥ १. दुहियं पेच्छामि अञ्जणं बलं - प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवणंजयअंजणासुन्दरीभोगविहाणाहियारो-१६/४८-७३ । १८७ परिमुणियकज्जनिहसो, पवणगई भणइ पहसिओ मित्तो। मोत्तूण तत्थ गमणं, अनोवायं न पेच्छामि ॥६१॥ पवणंजएण तुरियं, सद्दावेऊण मोग्गरामच्चो । ठविओ य सेन्नरक्खो, भणिओ मेरुं अहं जामि ॥६२॥ चन्दणकुसुमविहत्था, दोण्णि वि गयणङ्गणेण वच्चन्ता । रयणीए तुरियचवला, संपत्ता अञ्जणाभवणं ॥६३॥ तो पहसिओ ठवेडं, घरस्स अग्गीवए पवणवेगं । अब्भिन्तरं पविट्ठो, दिट्ठो बालाए सहस त्ति ॥६४॥ भणिओ य भो ! तुम को?, केण व कज्जेण आगओ एत्थं ? ।तो पणमिऊण साहइ, मित्तो हंपवणवेगस्स ॥६५॥ सो तुज्झपिओ सुन्दरि!, इहागओ तेण पेसिओ तुरियं । नामेण पहसिओ हं, मा सामिणि ! संसयं कुणसु ॥६६॥ सोऊण सुमिणसरिसं, बाला पवणञ्जयस्स आगमणं । भणइ य किं हससि तुमं?, पहसिय ! हसिया कयन्तेणं ॥१७॥ अहवा को तुह दोसो ?, दोसो च्चिय मज्झ पुव्वकम्माणं । जा हं पियपरिभूया, परिभूया सव्वलोएणं ॥६८॥ भणिया य पहसिएणं, सामिणि ! मा एव दुक्खिया होहि।सो तुज्झ हिययइट्ठो, एत्थं चिय आगओ भवणे ॥६९॥ कच्छन्तरट्ठिओ सो, वसन्तमालाए कयपणामाए । पवणंजओ कुमारो, पवेसिओ वासभवणम्मि ॥७०॥ अब्भुट्ठिया य सहसा, दइयं दट्ठण अञ्जणा बाला । ओणमियउत्तमङ्गा, तस्स य चलणञ्जली कुणइ ॥७१॥ पवणञ्जओविट्ठो, कुसुमपडोच्छड्रयणपल्लङ्के । हरिसवसुब्भिन्नङ्गी, तस्स ठिया अञ्जणा पासे ॥७२॥ कच्छन्तरम्मि बीए, वसन्तमाला समं पहसिएणं । अच्छइ विणोयमुहला, कहासु विविहासु जंपन्ती ॥७३॥ परिज्ञातकार्यनिकषः पवनगति भणति प्रहसितो मित्रम् । मुक्तत्वा तत्र गमनमन्योपायं न पश्यामि ॥६॥ पवनञ्जयेन त्वरितं शब्दयित्वा मुद्गारामात्यः । स्थापितश्च सैन्य रक्षको भणितो मेरुमहं यामि ॥६२॥ चन्दनकुसुमविहस्तौ द्वावपि गगनाङ्गनेन व्रजन्तौ । रजन्यां त्वरितचपलौ संप्राप्तावञ्जनाभवनम् ॥६३॥ तदा प्रहसितः स्थापयित्वा गृहस्याग्रीमे पवनवेगम् । अभ्यन्तरं प्रविष्टो दृष्टो बालया सहसेति ॥६४|| भणितश्च भो ! त्वं कः ? केन वाकार्येणागतोऽत्र ? । तदा प्रणम्य कथयति मित्रमहं पवनवेगस्य ॥६५।। स तव प्रियः सुन्दरि ! इहागतस्तेन प्रेषितस्त्वरितम् । नाम्ना प्रहसितो ऽहं मा स्वामिनि ! संशयं कुरुष्व ॥६६।। श्रुत्वा स्वप्नसदृशं बाला पवनञ्जयस्यागमनम् । भणति च किं हससि त्वं? प्रहसित ! हसिता कृतान्तेन ॥६७|| अथवा कस्तव दोषः ? दोष एव मम पूर्वकर्माणाम् । याऽहं प्रियपरिभूता, परिभूता सर्वलोकेन ॥६८॥ भणिता च प्रहसितेन स्वामिनि ! मैवं दुःखिता भव । स तव हृदयेष्टोऽत्रैवागतो भवने ॥६९।। कक्षान्तरस्थितः स वसन्तमालया कृतप्रणामया। पवनञ्जयः कुमारः प्रवेशितो वासभवने ॥७०॥ अभ्युत्थिता च सहसा दयितं दृष्ट्वाऽञ्जना बाला । अवनामित्तोतमाङ्गा तस्य च चरणाञ्जलिं करोति ॥७१॥ पवनञ्जय उपविष्टः कुसुमपटाच्छादितरत्नपल्यथे। हर्षवशोद्भिन्नाङ्गी तस्य स्थिताऽञ्जना पार्श्वे ॥७२॥ कक्षान्तरे द्वितीये वसन्तमाला समं प्रहसितेन । आस्ते विनोदमूखरा कथाभिर्विविधाभि जल्पन्ती ॥७३॥ १. गृहस्य मध्यप्रदेशे यत्राञ्जनाऽऽस्ते। २. पिययमो इह समागओ-प्रत्य०। For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ पवनञ्जयाञ्जनयोः मीलनम् - - तो भइ पवणवेगो, जं सि तुमं सासिया अकज्जेणं । तं मे खमाहि सुन्दरि !, अवराहसहस्ससंघायं ॥७४॥ भाइ य महिन्दतणया, नाह ! तुमं नत्थि कोइ अवराहो । सुमरिय मणोरहफलं, संपइ नेहं वहेज्जासु ॥७५॥ तो भइ पवणवेगो, सुन्दरि ! पम्हुससु सव्वअवराहे । होहि सुपसन्नहियया, एस पणामो कओ तुज्झं ॥७६॥ आलिङ्गिया सनेहं कुवलयदलसरिसकोमलसरीरा । वयणं पियस्स अणिमिस - नयणेहि व पियइ अणुरायं ॥७७॥ घणनेहनिब्भराणं, दोण्ह वि अणुरायलद्धपसराणं । आवडियं चिय सुरयं, अणेगचडुकम्मविणिओगं ॥ ७८ ॥ आलिङ्गण-परिचुम्बण-रइउच्छाहणगुणेहि सुसमिद्धं । निव्ववियविरहदुक्खं, मणतुट्ठियरञ्जियजहिच्छं ॥७९॥ सुरतूस समत्ते, दोणि वि खेयालसङ्गमङ्गाई । अन्नोन्नभुयालिङ्गण-सुहेण निद्दं पवन्नाई ॥८०॥ एवं कमेण ताणं, सुरयसुहासायलद्धनिद्दाणं । किंचावसेससमया, ताव य रयणी खयं पत्ता ॥८१॥ रयणीमुहपडिबुद्धो, पवणगई भाइ पहसिओ मित्तो । उट्ठेहि लहुं सुपुरिस !, खन्धावारं पगच्छामो ॥८२॥ सुणिऊण मित्तवणं, सयणाओ उट्ठिओ पवणवेगो । उवगूहिऊण कन्तं, भणइ य वयणं निसामेहि ॥ ८३ ॥ अच्छ तुमं वीसत्था, मा उव्वेयस्स देहि अत्ताणं । जाव अहं दहवयणं, दट्ठूण लहुं नियत्तामि ॥८४॥ पवनञ्जयाञ्जनयोः मीलनम् - तदा भणति पवनवेगो यदसि त्वं शासिताऽकार्येण । तन्मे क्षमस्व सुन्दरि ! अपराधसहस्रसंघातम् ॥७४॥ भणति च महेन्द्रतनया नाथ ! तव नास्ति कोऽप्यपराधः । स्मृत्वा मनोहरफलं संप्रति स्नेहं वह ॥ ७५ ॥ तदा भणति पवनवेगः सुन्दरि ! विस्मर सर्वापराधान् । भव सुप्रसन्नहृदया एष प्रणामः कृतस्तव ॥७६॥ आलिङ्गिता सस्नेहं कुवलयदलसदृशकोमलशरीरा । वदनं प्रियस्यानिमेषनयनैरिव पिबत्यनुरागम् ॥७७॥ धनस्नेहनिर्भरयो द्वयोरप्यनुरागलब्धप्रसरयोः । आपतितमेव सुरतमनेकचाटुकर्मविनियोगम् ॥७८॥ आलिङ्गन-परिचुम्बन-रत्युत्साहगुणैः सुसमृद्धम् । निर्वापितविरहदुःखं मनस्तुष्टितरञ्जितयथेच्छम् ॥७९॥ सुरतोत्सवे समाप्ते द्वयोरपि खेदालसाङ्गमङ्गानि । अन्योन्यभुजालिङ्गनसुखेन निद्रां प्रपन्नानि ॥८०॥ एवं क्रमेण तयोः सुरतसुखास्वादलब्धनिद्रयोः । किंचिदवशेषसमया तावच्च रजनी क्षयं प्राप्ता ॥८१॥ रजनीमुखे प्रतिबुद्धः पवनगतिं भणति प्रहसितो मित्रम् । उत्तिष्ठ लघु सत्पुरुष ! स्कन्धावारं प्रगच्छावः ॥८२॥ श्रुत्वा मित्रवचनं शयनादुत्थितः पवनवेगः । उपगुह्य कान्तां भवति च वचनं निशामय ॥८३॥ आस्स्व त्वं विश्वस्ता मोद्वेगस्य देह्यात्मानम् । यावदहं दशवदनं दृष्ट्वा लघु निवर्तयामि ॥८४॥ १. पवणगई - प्रत्य० । पउमचरियं For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ पवणंजयअंजणासुन्दरीभोगविहाणाहियारो-१६/७४-९० तो विरहदुक्खभीया, चलणपणामं करेइ विणएणं । मम्मण-महुरुल्लावा, भणइ य पवणंजयं बाला ॥८५॥ अज्जं चिय उदुसमओ, सामिय ! गब्भो कयाइ उयरम्मि । होही वयणिज्जयरो, नियमेण तुमे परोक्खेणं ॥८६॥ तम्हा कहेहि गन्तुं, गुरूण गब्भस्स संभवं एयं । होहि बहुदीहपेही, करेहि दोसस्स परिहारं ॥८७॥ अह भणइ पवणवेगो, मह नामामुद्दियं रयणचित्तं । गेण्हसु मियङ्कवयणे !, एसा दोसं पणासिहिइ ॥८८॥ पुच्छिऊण कन्ता, वसन्तमाला य गयणमग्गेणं । निययं निवेसभवणं, पहसिय-पवणंजया पत्ता ॥८९॥ ____धम्मा-ऽधम्मविवागं, संजोग-विओग-सोग-सुहभावं । नाऊण जीवलोए, विमले जिणसासणे समुज्जमह सया ॥१०॥ ॥ इय पउमचरिए पवणंजयअञ्जणासुन्दरीभोगविहाणो नाम सोलसमो उद्देसओ समत्तो ॥ तदा विरहदुःखभीता चरणप्रणामं करोति विनयेन । मन्मनमधुरोल्लापा भवति च पवनञ्जयं बाला ॥८५॥ अद्यैव ऋतुसमयः स्वामिन् ! गर्भः कदाचिदुदरे । भविष्यति वचनीयतरो नियमेन तव परोक्षेण ॥८६॥ तस्मात्कथय गत्वा गुरुणां गर्भस्य संभवमेतत् । भव बहुदीर्घप्रेक्षी कुरु दोषस्य परिहारम् ।।८७|| अथ भणति पवनवेगो मम नामामुद्रीकां रत्नखचिताम् । गृहाण मृगांकवदने ! एषा दोषं प्रणश्यति ॥८८॥ आपृच्छय कान्तां वसन्तमालां च गगनमार्गेण । निजकनिवेशभवनं प्रहसितपवनञ्जयौ प्राप्तौ ।।८९।। धर्माऽधर्मविपाक-संयोगवियोगशोकसुखभावम् । ज्ञात्वा जीवलोके विमले जिनशासने समुद्यच्छत सदा ॥९०॥ ॥ इति पद्मचरित्रे पवनञ्जयाञ्जनासुन्दरीभोगविधानो नाम षोडशोद्देशः समाप्तः ॥ १. कंतं वसन्तमालं च-प्रत्य० । For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧. શ્રી સમસ્ત વાવ પથકે કોતાંબર મૂર્તિપૂજક જૈન સંઘ ગુરુમૂર્તિ પ્રતિષ્ઠા સ્મૃતિ શેઠશ્રી ચંદુલાલ કકલચંદ પરીખ પરિવાર, વાવ શ્રી સિદ્ધગિરિ ચાતુર્માસ આરાધના (સં. ૨૦૫૭) દરમ્યાન થયેલ જ્ઞાનખાતાની આવકમાંથી. ૨. ૩. ૪. ૫. ૬. ૭. ૮. ૧. ૨. ૫. ૬. ૧. ૧. શ્રી મોરવાડા જૈન સંઘ, મોરવાડા ૨. શ્રી ઉમરા જૈન સંધ, સુરત ૩. ૪. ૨. ૩. ૪. > છું ખં છું હસ્તે : શેઠશ્રી ધુડાલાલ પુનમચંદભાઈ હેક્કડ પરિવાર, ડીસા, બનાસકાંઠા ૬. શ્રી ધર્મોત્તેજક પાઠશાળા, શ્રી ઝીઝુવાડા જૈન સંઘ, ઝીંઝુવાડા શ્રી સુઈગામ જૈન સંઘ, સુઈગામ શ્રી વાંકડિયા વડગામ જૈન સંઘ, વાંકડિયા વડગામ શ્રી ગરાંબડી જૈન સંઘ, ગરાંબડી શ્રી રાંદેરોડ જૈન સંઘ અડાજણ પાટીયા, રાંદેરી, સુરત પ્રભુવાણી પ્રસારક શ્રી દિપા શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક જૈન સંઘ, ચંદેરી, સુરત શ્રી સીમંધરસ્વામી મહિલા મંડળ, પ્રતિષ્ઠા કોમ્પલેક્ષ, સુરત શ્રી શ્રેણીપાર્ક જૈન કો.મૂ. સંઘ, ન્યૂ હેરોડ, સુરત શ્રી શત્રુંજય ટાવર જૈન સંઘ, સુરત શ્રી ચૌમુખજી પાર્શ્વનાધ જૈન મંદિર ટ્રસ્ટ, શ્રી જૈન શ્વેતાંબર આચાર્યશ્રી ડારસૂરિ જ્ઞાન મંદિર ગ્રંથાવલી પ્રભુવાણી પ્રસાર સ્થંભ (યોજના-૧,૧૧,૧૧૧) તપાગચ્છ સંઘ ગઢસિવાના (રાજ.) શ્રીમતી તારાબેન ગગલદાસ વડેચા-ઉચોસણ શ્રી સુખસાગર અને મહાર એપાર્ટમેન્ટ સુરતની શ્રાવિકાઓ તરફથી په یه به سه به به به રૂા. રૂા. ૨,૧૧,૧૧૧ શ્રી વાવ શ્વેતાંબર મૂર્તિપૂજક જૈન સંઘ રૂા. ૧,૧૧,૧૧૧ શ્રી વાવ પથક શ્વે.મૂ. જૈન સંઘ, અમદાવાદ રૂા.૩૧,૦૦૦ ૩૧,૦૦૦ શ્રી સુઈગામ જૈન સંઘ શ્રી બેણપ જૈન સંઘ ૩૧,૦૦૦ શ્રી ઉંચોસણ જૈન સંઘ ૩૧,૦૦૦ શ્રી ભરડવા જૈન સંઘ ૩૧,૦૦૦ શ્રી અસારા જૈન સંઘ ૩૧,૦૦૦ શ્રી ગરાંબડી જૈન સંઘ ૩૧,૦૦૦ શ્રી માડકા જૈન સંઘ શું પ્રભુવાણી પ્રસાર ભક્ત (યોજના - ૧૫,૧૧૧) ૧. શ્રી દેસલપુર (કંઠી) શ્રી પાર્શ્વચંદ્રગચ્છ ૨. શ્રી ધ્રાંગધા શ્રી પાર્શ્વચંદ્રસૂરીશ્વરગચ્છ ૩. શ્રી અઠવાલાઈન્સ જૈન સંઘ, સુરત શ્રાવિકા ઉપાશ્રય રૂા. રૂા. .. .. ૨૮૨/A ૯. શ્રી ચિંતામણી પાર્શ્વનાથ જૈન સંઘ પાર્લા (ઈસ્ટ), મુંબઈ ૧૦. શ્રી આદિનાથ તપાગચ્છ શ્વે.મૂ.પૂ.જૈન સંઘ, કતારગામ, સુરત ૧૧. શ્રી કૈલાસનગર જૈન સંઘ, કૈલાસનગર, સુરત ૧૨. શ્રી ઉચોસણ જૈન સંઘ, સમુબા શ્રાવિકા આરાધના ભવન, સુરત શાનખાનેથી ૧૩. શ્રી વાવ પથક જૈન શ્વે. મૂ.પૂ. સંઘ, અમદાવાદ ૧૪. શ્રી વાવ જૈન સંઘ, વાવ, બનાસકાંઠા ૧૫. કુ. નેહલબેન કુમુદભાઈ (કટોસણ રોડ)ની દીશા પ્રસંગે થયેલ આવકમાંથી ૧૬. શ્રી આદિનાથ ગોતાંબર મૂર્તિપૂજક જૈન સંઘ, નવસારી ૧૭. શ્રી બીલડીયા પાર્શ્વનાથ જૈન દેરાસર પેઢી, ભીલડીયાજી ૧૮. શ્રી નવજીવન જૈન કો. મૂ.પૂ. સંઘ, મુંબઈ (યોજના-૬૧,૧૧૧) પ્રભુવાણી પ્રસાર અનુમોદક (યોજના - ૩૧,૧૧૧) ૪. ૫. શ્રી પુણ્યપાવન જૈન સંઘ, ઈશિતા પાર્ક, સુરત શ્રી શ્રેયસ્કર આદિનાથ જૈન સંઘ, નીઝામપુરા, વડોદરા ૭. ૮. રવિજ્હોન એપાર્ટમેન્ટ, સુરતની શ્રાવિકાઓ તરફથી અઠવાલાઈન્સ જૈન સંઘ, પાંડવબંગલો, સુરત શ્રાવિકાઓ તરફથી શ્રી આદિનાથ તપાગચ્છ ો.મૂર્તિપૂજક જૈન સંઘ, કતારગામ, સુરત ૧૦. શ્રીમતી વર્ષાબેન કાવન, પાલનપુર ૧૧. શ્રી શાંતિનિકેતન સરદારનગર જૈન સંઘ, સુરત ૧૨. શ્રી પાર્શ્વનાથ જૈન સંઘ, ન્યુ રામારોડ, વડોદરા ૯. વાવ નગરે પૂજ્ય આચાર્ય ભગવંત ૐકારસૂરિ મહારાજાની ગુરૂ મૂર્તિ પ્રતિષ્ઠા સ્મૃતિ ૧૦. રૂા. ૩૧,૦૦૦ શ્રી તીર્થગામ જૈન સંધ ૧૧. રૂા. ૩૧,૦૦૦ શ્રી કોરડા જૈન સંઘ ૧૨. રૂા. ૩૧,૦૦૦ શ્રી ઢીમા જૈન સંઘ ૩૧,૦૦૦ શ્રી માલસણ જૈન સંઘ ૩૧,૦૦૦ શ્રી મોરવાડા જૈન સંઘ ૧૫. રૂા. ૩૧,૦૦૦ ૧૩. રૂા. ૧૪. રૂા. શ્રી વર્ધમાન છે.મૂ.પૂ.જૈન સંઘ, કતારગામ દરવાજા, સુરત ૧૬. રૂા. ૧૧,૧૧૧ શ્રી વાસરડા જૈન સંઘ, સેવંતીલાલ મ. સંઘવી For Personal & Private Use Only पउमचरियं Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमचरियं (प्रपत्र) पविभाग KIRIT GRAPHICS-09898490091 Latin Education Intematonal For Personal & Private Use Only t