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है । जबकि दिगम्बर परम्परा के कुन्दकुन्द आदि कुछ आचार्य समाधिमरण को १२वें शिक्षाव्रत के रूप में अंगीकृत करते हैं अतः पउमचरियं दिगम्बर परम्परा से सम्बन्द्ध होना चाहिए । इस सन्दर्भ में मेरी मान्यता यह है कि गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों में एकरूपता का अभाव पाया जाता है" दिगम्बर परम्परा में तत्वार्थ का अनुसरण करने वाले दिगम्बर आचार्य भी समाधिमरण को शिक्षाव्रतों में परिग्रहित नहीं करते हैं । जबकि कुन्दकुन्द ने उसे शिक्षाव्रतों में परिग्रहित किया है । जब दिगम्बर परम्परा ही इस प्रश्न पर एकमत नहीं है तो फिर इस आधार पर पउमचरियं की परम्परा का निर्धारण कैसे किया जा सकता है ? साम्प्रदायिक मान्यताओं के स्थिरीकरण के पूर्व निर्ग्रन्थ परम्परा में विभिन्न धारणाओं की उपस्थिति एक सामान्य बात थी । अत: ग्रन्थ के सम्प्रदाय का निर्धारण करने में व्रतों के नाम एवं क्रम सम्बन्धी मतभेद सहायक नहीं हो सकते ।
(७) पउमचरियं में अनुदिक् का उल्लेख हुआ है । " श्वेताम्बर आगमों में अनुदिक् का उल्लेख नहीं है, जबकि दिगम्बर ग्रन्थ (यापनीय ग्रन्थ) षट्खण्डागम एवं तिलोयपण्णत्ती में इसका उल्लेख पाया जाता है ।" किन्तु मेरी दृष्टि में प्रथम तो यह भी पउमचरियं के सम्प्रदाय निर्णय के लिए महत्त्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अनुदिक् की अवधारणा से श्वेताम्बरों का भी कोई विरोध नहीं है । दूसरे जब अनुदिक् शब्द स्वयं आचारांग में उपलब्ध है" तो फिर हमारे दिगम्बर विद्वान् यह कैसे कह देते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में अनुदिक् की अवधारणा नहीं है ?
(८) पउमचरियं में दीक्षा के अवसर पर भ. ऋषभ द्वारा वस्त्रों के त्याग का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार भरत द्वारा भी दीक्षा ग्रहण करते समय वस्त्रों के त्याग का उल्लेख है ।" किन्तु यह दोनों सन्दर्भ भी पउमचरियं १५. पंच य अणुव्वयाई तिण्णेव गुणव्वयाई भणियाई । सिक्खावयाणि एत्तो चत्तारि जिणोवइट्ठाणि || थूलयरं पाणिवहं मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवित्ती संतोषसवयं च पंचमयं ॥ दिसिविदिसाण य नियमो अणत्थदंडस्स वज्जणं चेव । उपभोगपरीमाणं तिण्णेय गुणव्वया एए ॥ सामाइयं च उववास-पोसहो अतिहिसंविभागो य । अंते समाहिमरणं सिक्खासुवयाइ चत्तारि ॥ १६. पंचेवणुव्वयाइं गुणव्वयाई हवंति तह तिण्णि । सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं ॥ थूले तसकायवहे थूले मोसे अदत्तथूले य । परिहारो परमहिला परिग्गहारंभ परिमाणं ॥ दिसविदिसमाणपढमं अणत्थदण्डस्स वज्जणं विदियं । भोगोपभोगपरिमाण इयमेव गुणव्वया तिण्णि ॥ सामाइयं च पढमं बिदियं च तहेव पोसहं भणियं । तीइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते ॥ ज्ञातव्य है कि जटासिंह नन्दी ने भी वराङ्गचरित सर्ग २२ में विमलसूरि का अनुसरण किया है । १७. देखिए जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन (लेखक - डो. सागरमल जैन) भाग-२ पृ.सं. २७४ १८. पउमचरियं, १०२ / १४५
चारित्तपाहुड २२-२६
१९. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन, पृष्ठ १९ पद्मपुराण, भूमिका (पं. पन्नालाल), पृ. ३० ।
२०. जो इमाओ (दिसाओ) अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ, ओऽहं । आचारांग
१ / २ / १ / १, शीलांकटीका, पृ. १९ । (ज्ञातव्य है कि मूल पउमचरियं में केवल 'अनुदिसाई. शब्द है जो कि आचारांग में उसी रूप में है। उससे नौ अनुदिशाओं की कल्पना दिखाकर उसे श्वेताम्बर आगमों में अनुपस्थित कहना उचित नहीं है ।)
२१. देखिए, पउमचरियं ३ / १३५-३६
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- पउमचरियं १४ / ११२ - ११५
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