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________________ 19 अर्थात् दुसमा नामक आरे के पाँच सौ तीस वर्ष और वीर का निर्वाण होने पर यह चरित्र लिखा गया । यदि हम लेखक के इस कथन को प्रामाणिक माने तो इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् ६० के लगभग माननी होगी। महावीर का निर्वाण दुसम नामक आरे के प्रारम्भ होने लगभग ३ वर्ष और ९ माह पूर्व हो चुका था अतः इसमें चार वर्ष और जौडना होगे । मतान्तर से भ. महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् के ४१० वर्ष पूर्व भी माना जाता है, इस सम्बन्ध में मैने अपने लेख “Date of Mahavira's Nirvana” में विस्तार से चर्चा की है । अतः उस दष्टि से पउमचरियं की रचना विक्रम संवत १२४ अर्थात विक्रम संवत की दसरी शताब्दी के पर्वार्ध में हई होगी। मेरी दृष्टि में पउमचरियं का यही रचना काल युक्ति-संगत सिद्ध होता है। क्योंकि ऐसा मानने पर लेखक के स्वयं के कथन से संगति होने के साथ-साथ उसे परवर्ती काल का मानने के सम्बन्ध में जो तर्क दिये गये है वे भी निरस्त हो जाते है । हरमन जेकोबी, स्वयं इसकी पूर्व तिथि २ री या ३ री शती मानते है, उनके मत से यह मत अधिक दूर भी नहीं है। दूसरे विक्रम की द्वितीय शताब्दी पूर्व ही शकों का आगमन हो चुका था अतः इसमें प्रयुक्त लग्नों के ग्रीक नाम तथा 'दीनार', यवन, शक आदि शब्दों की उपलब्धि में भी कोई बाधा नही रहती है। यवन शब्द ग्रीकों अर्थात् सिकन्दर आदि का सूचक है जो ईसा पूर्व भारत में आचुके थे । शकों का आगमन भी विक्रम संवत् के पूर्व हो चुका था, कालकाचार्य द्वारा शकों के भारत लाने का उल्लेख विक्रम पूर्व का है। दीनार शब्द भी शकों के आगमन के साथ ही आगया होगा । साथ ही नाईल कुल या शाखा भी इस काल मे अस्तित्व में आ चुकी थी। इसे मैनें पउमचरियं की परम्परा में सिद्ध किया है। अतः पउमचरियं को विक्रम की द्वितीय शती के पूर्वार्ध में रचित मानने में कोई बाधा नही रहती है। विमलसूरि और उनके पउमचरियं का सम्प्रदाय यहाँ क्या विमलसूरि का पउमचरियं यापनीय है ? इस प्रश्न का उत्तर भी अपेक्षित है। विमलसूरि और उनके ग्रन्थ पउमचरियं के सम्प्रदाय सम्बन्धी प्रश्न को लेकर विद्वानों में मतभेद पाया जाता है । जहाँ श्वेताम्बर और विदेशी विद्वान् पउमचरियं में उपलब्ध अन्तः साक्ष्यों के आधार पर उसे श्वेताम्बर परम्परा का बताते हैं, वहीं पउमचरियं के श्वेताम्बर परम्परा के विरोध में जानेवाले कुछ तथ्यों को उभार कर कुछ दिगम्बर विद्वान् उसे दिगम्बर या यापनीय सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं । वास्तविकता यह है कि विमलसूरि के पउमचरियं में सम्प्रदायगत मान्यताओं की दृष्टि से यद्यपि कुछ तथ्य दिगम्बर परम्परा के पक्ष में जाते है, किन्तु अधिकांश तथ्य श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं । जहाँ हमें सर्वप्रथम इन तथ्यों की समीक्षा कर लेनी होगी । प्रो. वी.एम.कुलकर्णी ने जिन तथ्यों का संकेत प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी से प्रकाशित 'पउमचरियं' की भूमिका में किया है, उन्हीं के आधार पर यहाँ हम यह चर्चा प्रस्तुत करने जा रहे हैं । १. पउमचरियं भाग-१, इण्ट्रोडक्सन पेज १८, फूटनोट नं. २ । २. वही, ३. देखें, पद्मपुराण (रविषेण), भूमिका, डॉ. गन्नालाल जैन, पृ. २२-२३ । ४. पउमचरियं, इण्ट्रोडक्सन (वी. एम. कुलकर्णी), पेज १८-२२ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education Interational
SR No.004024
Book TitlePaumchariyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParshvaratnavijay
PublisherOmkarsuri Aradhana Bhavan
Publication Year2012
Total Pages226
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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