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• पउमचरियं की दिगम्बर परम्परा के निकटता सम्बन्धी कुछ तर्क और उनके उत्तर
(१) कुछ दिगम्बर विद्वानों का कथन है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सामान्यतया किसी ग्रन्थ का प्रारम्भ-'जम्बू स्वामी के पूछने पर सुधर्मा स्वामी ने कहा', - इस प्रकार से होता है, आगमों के साथ-साथ कथा ग्रन्थों में यह पद्धति मिलती है, इसका उदाहरण संघदासगणि की वसुदेव हिण्डी है। किन्तु वसुदेवहिण्डी में जम्बूस्वामी ने प्रभवस्वामी को कहा - ऐसा भी उल्लेख हैं। जबकि दिगम्बर परम्परा के कथा ग्रन्थों में सामान्यतया श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर ने कहा - ऐसी पद्धति उपलब्ध होती है । जहाँ तक पउमचरियं का प्रश्न है उसमें निश्चित ही श्रेणिक के पूछने पर गौतम ने रामकथा कही ऐसी ही पद्धति उपलब्ध होती है। किन्तु मेरी दृष्टि में इस तथ्य को पउमचरियं के दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने का आधार नहीं माना जा सकता. क्योंकि पउमचरियं में स्त्र मुक्ति आदि ऐसे अनेक ठोस तथ्य हैं, जो श्वेताम्बर परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं । यह संभव है कि संघभेद के पूर्व उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परम्परा में दोनों ही प्रकार की पद्धतियाँ समान रूप से प्रचलित रही हों और बाद में एक पद्धति का अनसरण श्वेताम्बर आचार्यों ने किया हो और दूसरी का दिगम्बर या यापनीय आचार्यो ने किया है । यह तथ्य विमलसूरि की परम्परा के निर्धारण में बहुत अधिक सहायक इसीलिए भी नहीं होता है, कि प्राचीन काल में, श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में ग्रन्थ प्रारम्भ करने की अनेक शैलिया प्रचलित रही हैं। दिगम्बर परम्परा में विशेष रूप से यापनीयों में जम्बूस्वामी और प्रभवस्वामी से भी कथा परम्परा के चलने का उल्लेख तो स्वयं पद्मचरित में ही मिलता है । वही क्रम श्वेताम्बर ग्रन्थ वसुदेवहिण्डी में भी है। श्वेताम्बर परम्परा में भी कुछ ऐसे भी आगम ग्रन्थ हैं, जिनमें किसी श्राविका के पूछने पर श्रावक ने कहा- इससे ग्रन्थ का प्रारम्भ किया गया है । 'देविन्दत्थव' नामक प्रकीर्णक में श्रावक-श्राविका के संवाद के रूप में ही उस ग्रन्थ का समस्त विवरण प्रस्तुत किया गया है। आचारांग में शिष्य की जिज्ञासा समाधान हेतु गुरु के कथन से ही ग्रन्थ का प्रारम्भ हुआ है। उसमें जम्बू और सुधर्मा से संवाद का कोई संकेत भी नहीं है। इससे यही फलित होता है कि प्राचीनकाल में ग्रन्थ का प्रारम्भ करने की कोई एक निश्चित पद्धति नहीं थी । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवयांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प आदि अनेक ग्रन्थों में भी जम्बूस्वामी और सुधर्मास्वामी के संवादवाली पद्धति नहीं पायी जाती है । पद्धतियों कि एकरूपता और विशेष सम्प्रदाय द्वारा विशेष पद्धति का अनुसरण-यह एक परवर्ती घटना है । जबकि पउमचरियं अपेक्षाकृत एक प्राचीन रचना है ।
(२) दिगम्बर विद्वानों ने पउमचरियं में महावीर के विवाह के अनुल्लेख (पउमचरियं २/२८-२९ एवं ३/५७५८) के आधार पर उसे अपनी परम्परा के निकट बताने का प्रयास किया है। किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए ५. ति तस्सेव पभवों कहेयव्वो, तप्पभवस्य य पभवस्य त्ति । वसुदेवहिण्डी (संघदासगणि), गुजरात साहित्य अकादमी, गांधीनगर पृ. २ । ६. तह इन्दभूइकहियं, सेणियरण्णस्स नीसेसं । - पउमचरियं १, ३३ ७. वर्द्ध मानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरं । इन्द्रभूति परिप्राप्त: सुधर्म धारिणीभवम् ।।
प्रभवं क्रमत: कीर्ति तत्तोनुत्तरवाग्मिनं । लिखितं तस्य संप्राप्य सवेयेत्नोयमुद्गतः ॥ - पद्मचरित १/४१-४२ पर्व १२३-१६६ ८. देविदत्थओ (दवेन्द्रस्तव, सम्पादक-प्रो. सागरमल जैन, आगम-अहिंसा-समता-प्राकृत संस्थान उदयपुर) गाथा क्रमांक-३, ७, ११,
१३, १४ । ९. सुयं में आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं । - आचारांग (सं. मधुकर मुनि), १/१/१/१
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