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कालकी दृष्टि से भी वे इन दोनों के पूर्वज ही सिद्ध होते है । पुनः यापनीय आचार्य रविषेण और अपभ्रंश के महाकवि स्वयम्भू द्वारा उनकी कृति का पूर्णतः अनुसरण करने पर भी उनके नाम का उल्लेख नहीं करना यही सूचित करता है कि वे उन्हें अपनी परम्परा का नहीं मानते थे । अतः सिद्ध यही होता है कि विमलसूरि श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्परा के पूर्वज है । श्वेताम्बरो ने सदैव अपने पूर्वज आचार्यो को अपनी परम्परा का माना है । विमलसूरि के दिगम्बर होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, यापनीयों ने उनका अनुसरण करते हुए भी उन्हें अपनी परम्परा का नहीं माना, अन्यथा रविषेण और स्वयम्भू कहीं न कहीं उनका नाम निर्देश अवश्य करते । पुन: यापनीयों की शौरसेनी प्राकृत को न अपना कर अपना काव्य महाराष्ट्री प्राकृत में लिखना यही सिद्ध करता है कि वे यापनीय नहीं है ।
अत: विमलसूरि की परम्परा के सम्बन्ध में दो ही विकल्प है । यदि हम उनके ग्रन्थ का रचना काल वीर निर्वाण सम्वत् ५३० मानते हैं तो हमें उन्हें श्वेताम्बर और यापनीयों का पूर्वज मानना होगा । क्योंकि श्वेताम्बर दिगम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०६ वर्ष वाद और दिगम्बर श्वेताम्बरों की उत्पत्ति वीर निर्वाण के ६०९ वर्ष बाद ही मानते है । यदि हम इस काल को वीर निर्वाण सम्वत् मानते है, वे श्वेताम्बरों और यापनीयों के पूर्वज सिद्ध होगे और यदि इसे विक्रम संवत् मानते है जैसा कि कुछ विद्वानों ने माना है, तो उन्हे श्वेताम्बर आचार्य मानना होगा ।
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