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-The TFIC Team.
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श्री दशवकालिक सूत्र
aamana
हिन्दी अनुवाद
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मूल अनुवादक कविवर्य पंडित मुनिश्री नानचंदजी महाराज के
सुशिष्य लघुशतावधानी पं. मुनिश्री सौभाग्यचंद्रजी महाराज
।
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[ईस्वी. सन् १९३६
वीर संवत् २४६३]
. .
मूल्य ६ आना
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श्री हंसराज जिनागम विद्या प्रचारक फंड समिति : ग्रंथ दूसरा
प्रकाशक :
श्री वे स्थानकवासी जैन कॉन्फरन्स,
६, भांगवाडी, मुंबई २.
प्रथम आवृत्ति
***
"
ज्ञान पंचमी १६६३
मुद्रक
प्रस्तावना, टाइटल
हर्षचंद्र कपुरचंद दोशी,
श्री सुखदेव सहाय जैन कोन्फरन्स
प्रीन्टींग, प्रेस,
९, भोगवाडी मुंबई नं. २.
२०००, प्रतियां
पृष्ट १ से १९० तक
हरखचंद श्रीभोवनदास
कलापी प्रीन्टींग प्रेस,
झवेरी बझार, मुंबई २०
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समर्पण जिनकी कृपा कटाक्ष से हृदयमें वैराग्यकी उर्मियां प्रवाहित होती हैं, विचारबल जागृत होता है और त्यागी जीवन का अलौकिक शानंद पूर्णरूपसे अनुभव में आता है उन पूज्यपाद गुरुके कर कमलों में इस अनुवाद को अर्पण कर स्वयंको
कृतार्थ मानता हूं। "सौभाग्य"
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आमुख
अजमेर अधिवेशन के समय अमरेली निवासी श्रीमान सेठ हंसराजभाई लक्ष्मीचन्दजीने धार्मिक ज्ञान के प्रचार के लिये और आगमोद्धार के लिये अपनी कोन्फरन्स को १५०००) की रकम अर्पण की थी। इस फंडको योजना उसी समय 'जैन प्रकाश' में प्रगट हो गई थी ।
उस फंडमें से यह द्वितीय पुस्तक प्रकाशित की जाती है । लघुशतावधानी पं. मुनिश्री सौभग्याचन्दजी म, के अपने आगमों के सरल गुजराती भाषामें अनुवाद का प्रकाशन श्री महावीर साहित्य प्रकाशन मंदिर अहमदाबाद की तरफसे सुचारु रूपसे हो रहा है । प्रथम श्री उत्तराध्ययनजी सूत्र के हिन्दी अनुवाद के आमुख में लिखे अनुसार यह श्रीं दशवैकालिक सूत्रका हिन्दी अनुवाद श्री हंसराज ज़िनागम विद्याप्रचारक फंड समितिकी तरफसे प्रकाशित किया जाता है ।
इस हिन्दी अनुवाद को भी यथाशक्ति सरल और भाववाही बनाने का प्रयत्न किया गया है । आशा है कि जिस धर्म भावना से श्री हंसराजभाईने यह योजना की है उसका पूर्ण सदुपयोग होगा ।
सेवक
चीमनलाल चकुभाई
सहमन्त्री
श्री. अ. मा. वे. स्था. जैन कान्फरेन्स
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श्री हंसराज जिनागम विद्या प्रचारक फंड समिति ... ... ग्रंथ दूसरा
inner
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दानवीर श्रीमान् सेठ हंसराजभाई लक्ष्मीचन्द
अमरेली (काठियावाड)
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उपोद्घात
जिस समय श्री उत्तराध्ययन सूत्र की प्रथम आवृत्ति प्रकाशित हुई उसी समय श्री दशवैकालिक सूत्र का मी अनुवाद प्रकाशित करने की इच्छा थी और उसका प्रारंभ भी हो चुका था, परन्तु अनेक अनिवार्य संयोगों के कारण, प्रबळ इच्छा होने पर भी अहमदाबाद में तो पूर्ण न हुई।
__अहमदाबाद से क्यों २ विहार करते हुए आगे बढ़ते गये क्यों २ मार्ग में यथाविकाश उसका तथा 'साधक सहचरी' (जो प्रकाशित हो चुकी है) का काम होता रहा और अंत में इसकी समान्ति कठोर ग्राम्य में हुई। इस पर से इस ग्रंथ का देरी से प्रकाशित होने का कारण मालूम हो जायगा। 1 उत्तराध्ययन के समान ही श्री दशवकालिक का भी विस्तृत प्रचार हो सकेगा या नहीं इस प्रश्न का एक निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता क्योंकि श्री उत्तराध्ययन सूत्र में तो विविध कथाप्रसंग, सुन्दर ऐतिहासिक घटनाएं, तथ ईधुकारीय, चित्तसंभूतीय, स्थनेमीय आदि अनेक चेतनवंत संवादो सामान्य से सामान्य हृदय को भी अपनी तरफ
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अपूर्व रसवृत्ति जागृत विभाग है और न है
बलात् आकृष्ट कर लेते हैं और उस में एक कर देती है । दशवैकालिक में न तो ऐसे प्रथम ऐसे रोचक संवाद ही, फिर भी दशवैकालिक में एक ऐसा आकर्षक तत्त्व तो अवश्य है कि जिसकी तरफ जिज्ञासु वाचक आकृट हुए बिना नहीं रह सकते ।
आज भारतवर्ष में जितने अंश में आर्थिक समस्या की गुत्थी : उलझी हुई है उतनी ही चारित्र विषयक दुस्यो भी उलझी हुई है क्योंकि आर्थिक निर्बलता का मूल कारण यही है इस बात को आज कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता | आधुनिक युग में जितना मनुष्य वांचता या विचारता है, यदि उसका शतांश भी आचरणपरिणीत करे तो यह उसके लिये विशेष आवश्यक एवं उपयोगी होगा । यह आवश्यक तत्त्व दशवैकालिक में से मिन सकता है क्योंकि इसमें संयमी - जीवन के कठिन नियमों के साथ २ उनके पालन की प्रेरणा भी मिलती है । इस अपेक्षा से जिज्ञासु वर्ग में जितना आदर उत्तराध्ययन का हुआ है उतना ही आदर दशवैकालिक को भी मिल जायगा यह आशा अनुचित नहीं है ।
पद्धति
उत्तराध्ययन के अनुवाद में जो २ बात उन्हीं को दशवैकालिक के अनुवाद में भी मात्र अन्तर इतना ही है कि उत्तराध्ययन की संपादकीय 'टप्पणियां कुछ अधिक हैं और होत तो संभव है कि मूल गाथा के प्राशय के स्पष्टीकरण में कठिनता
यदि ऐसा न किया गया
( ६ )
ध्यान में रखी गई थीं ध्यान में रखा गया है । अपेक्षा दशवैकालिक में
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होती। ऐसा समझ कर ही जहां-तहां आवश्यक टिप्पनियां वढा दी गई हैं।
यद्यपि कुछ विद्वान मात्र भापादृष्टि से ही मूल के अनुवाद को अपना कार्यक्षेत्र मानते हैं अर्थात् शब्द के .बदले शब्द रखा देना ही उनका उद्देश्य रहता है किन्तु हमारी रायमें तो ग्रंथकर्ता का मूल आशय अथवा जिस दृष्टिसे वह कथन किया गया है इस प्रकार की तुलनात्मक विवक्षा का पत्ता जबतक वाचक को पूर्ण स्पष्टता के साथ न हो जाय तबतक अनुवादकर्म अपूर्ण ही समझना चाहिये, इतना ही नहीं, ऐसा अनुवाद अपने उद्देश्य की पूर्ति भी नहीं कर सकता। अनुवादक को चाहिये कि वह शब्दों का ध्यान रखते हुए ग्रंथकार के असली रहस्यों को भी सरल से सरल भाषा में प्रगट करे जिससे प्रत्येक वाचक ग्रंथकार के हृदय को जान सके ।
किसी भी भाषा के गद्यानुवाद की अपेक्षाः पद्यानुवाद में उक्त वस्तु की तरफ विशेष ध्यान रखना पड़ता है । यद्यपि समर्थ ज्ञानी पुरुषों के कथन में उस न्यूनता की संभावना ही नही होती जिसकी पूर्ति की आवश्यकता हो, फिर भी ज्ञानीजनों के वक्तव्य में गाम्भीर्य अवश्य होता है और यदि उस गाम्भीर्य का स्पष्ट अर्थ न समझाया जाय तो वाचक वर्ग की जिज्ञासा बहुधा अतृत ही रह जाती है और कभी २ समझफेर हो जाने का भय भी रहता है । ऐसे प्रसंगो में गम्भीर वक्तव्यों के हृदय (आन्तरिक रहस्य) को स्पष्ट एवं रोचक भाषा में व्यक्त करने में यदि अनुवादक अपनी विवेकशक्ति एवं भावना का शुभ उपयोग करे तो वह अप्रागिक तो नहीं माना जा सकता ।
(७)
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यद्यपि इत से मैं यह नहीं मानता कि ऐसा करने से . जिज्ञातु वर्ग की इच्छा को संपूर्णतः सन्तुष्ट किया जा सकेग, परंतु ऐसा तो मैं अवश्य जानता हूं कि उनकी विचारणा में संपादकीय टिप्पणियां थोड़ी बहुत उपयोगी अवश्य होगी और : इनसे कम से कम ग्रन्थकार के रहस्य को समझने में समझफेर के निये कोई स्थान न रहेगा। इस उपयोगिता को उत्तराभ्ययन के वाचकों द्वारा जानकर ही मैंने इस पुस्तक में भी उचित प्रसंगो में प्रसंगोचित छोटी बडी टिप्पणियां दी हैं।
संपादकीय टिप्पणियां मूल गाथा के अर्थ से जुदे 'टाइप में दी गई हैं । इन टिप्पणियों से कोई यह न समझे कि मूल ग्रंथ में अनुवादक की दृष्टिमें इतनी कमी रह गई है अथवा इतना लिखना और भी आवश्यक था; किन्तु वाचक यही समझे कि अनुवादक अपना मात्र अभिप्राय दे रहा है जिससे वाचक को समझने और अपना मत बांधने में यत्किचित मदद मिल सके।
दशवैकालिक सूत्र के वाचकों को इतना निर्देश करने के बाद, अब मैं उसको उन खास आवश्यक ज्ञातव्य वातों की तरफ प्रेरणा करना चाहता हूं जिनको इस पुस्तक को पढ़नेके पहिले पूर्णतः जान लेना परम आवश्यक है । इन बातों को जान लेने से इस ग्रंथ के रहस्य को समझने में बड़ा सुभीता होगा ।
(१) जैनदर्शन की अनेकांतता जैनदर्शन अनेकांतदर्शन है इसलिये उसमें आये हुए सूत्र बहुधा सापेक्ष (अपेक्षायुक्त) होते हैं । अपेक्षा अर्थात् दृष्टि
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बिंदु । मनुष्य जबतक साधकदशामें रहता है तबतक. उसके द्वारा स्खलन, दोष और पतन हो जाना सहज संभाव्य है इसी कारण ऐसे साधकों के संयमीजीवनकी रक्षा के लिये धर्मधुरंधरोंने प्रसंगों का सूक्ष्म अनुवीक्षण करके उनके अनुकूल विधेय (कर्तव्य) एवं निषेधात्मक नियमोपनियमों की रचना की है किन्तु उनमें मी भिन्न २ दृष्टिविन्दु समाये हुए हैं ।
ऐसे ही नियम वेदधर्म, बौद्धधर्म, तथा इतर धर्मों में भी पाये जाते हैं और साधकदशामें इनकी आवश्यकता भी है इस बात को समी विद्वान नि:संशय स्वीकार करेंगे ही।
अब यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि नियम तो निश्चयात्मक ही होते हैं और होने, भी चाहिये; उनमें अनेकांतता अथवा भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दुओं की क्या जरूरत है ?
इस प्रश्नका उत्तर यही है कि जन्म २ जो २ नियम बनाये गये हैं तब २ उन धर्मसंस्थापकों ने तत्कालीन संघदशा तथा साधकों की परिस्थितियों के बलाबल का विचार । करके ही उन नियमोपनियमों की सृष्टि की थी । यद्यपि साधक का ध्येय तो केवल आत्मविकास साधना ही है परन्तु उस विकास को साधने के लिये ऐसे नियमोपनियमों की मी पूर्ण आवश्यकता तो है ही।
उत्सर्ग अथवा अपवाद उनमें से जो नियम विकास. के बिलकुल समीप के हैं उन में तो किसी प्रकार का अपवाद हो ही नहीं सकता अर्थात्
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वे निश्चयात्मक है किंतु जो नियमोपनियम मूलगुगों की पुष्टि के .. लिये ही रचे गये है उन में अपवाद अवश्य हो सकते हैं। इस . प्रकार जैन दर्शन में उत्तरी तथा अपवाद ये दोनों ही मार्ग हैं। .
अपवादमार्ग की आवश्यकता आज लोकमानत का झुकाव किवर है, समाज की आज क्या परिस्थिति है, मैं किस प्रश में खड़ा हूं, आदि समस्त परिस्थितियों का विचार कर के जो नियम वाधक हों उनका विवेकपूर्वक निराकरण कर के आत्मविकास का ध्येय न भूटने का दृष्टिविंदु निरन्तर रखते हुए अपवादमार्ग का पालन करना यही अनेकान्तवाद का प्रयोजन है। ऐते अनिवार्य संयोगो में ही अपवाद मार्ग की आपत्ति होती है और इन्हीं में उनकी उत्पत्ति हो सकती है ।
जैनदर्शन की विकासश्रेणी जैनदर्शन का विकास दो विभागो में विभक्त है: (१) गृहस्य जीवन में रहते हुए विकास करनेवाला गृहस्थ सापक, और (२) त्यागाश्रमी तापक, इन दोनों वर्गों का आदर्श तो एक ही किन्तु उन दोनों के विकास साधने की गति में जितना तारतम्य है उतना ही तारतम्य उन दोनों साधकों के साधनों में भी है । अहिता, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ये सब विकास के साधन है। उनके पालन में गृहस्थ साधक के लिये मर्यादा रखी गई है क्योंकि उसको गृहस्थ धर्म को निभाते हुए साथ ही साथ मानधन ने मी. आगे बढ़ना होता है और इसी कारण सब । ऋतों में उनके लिये उतनी मर्यादा रखी गई है जितनी उत
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जीवन में सुसाध्य हो सके; किन्तु श्रमणसाधकों को तो उन गुणों का संपूर्ण पालन करना होता है । इसलिये गृहस्थ साधक के व्रतों को 'अणुव्रत' और श्रमण के व्रतों को 'महावत' कहते हैं इसी प्रकार गृहस्थसाधिका (श्राविका) तथा साध्वी के अन्तर के विषय में मी जानना चाहिये। ___यह संपूर्ण सूत्र श्रमणसाधक को लक्ष्य करके कहा गया है इसलिये इसमें श्रमणजीवन संबंधी घटनाओं का विशेष प्रमाण में निर्देश हो यह स्वाभाविक ही है | किन्तु इस संस्कृति के साथ २ गृहस्थसाधक का संबंध सुईदोरा जैसा अति निकट का है, इसका उल्लेख उपरोक्त पेरेग्राफ में हो चुका है, इस दृष्टि से यह ग्रंथ श्रावकों के लिये मी अति उपयोगी है ।
यहां पर श्रमणजीवन संबंधो कुछ आवश्यक प्रश्नों पर विचार करना अनुचित न होगा । उनमें उत्सर्ग तथा अपवाद मार्ग को स्थान है या नहीं; और है तो कहांतक और उनका हेतु क्या है ? आदि पर विचार करें ।
संयमीजीवन में अहिंसा का मन, वचन और काय से संपूर्ण पालन करने के लिये पृथ्वी, जल, अमि, वायु, वनस्पति इत्यादि सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियों का ( जबतक वे सजीव हों तबतक उनका) उपयोग करने का संपूर्ण निषेध किया गया है परन्तु यह निषेध संयम में उलटा बाधक न हो जाय इसके लिये उसी अध्ययन में उसका अपवाद भी साथ ही साथमें दिया है क्योंकि संयमी साधु कहीं काठका पुतला तो है नहीं, वह मी देहधारी मनुष्य है, उसे भी खाना, पीना, सोना, चलमा आदि
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क्रियाए करनी पड़ती हैं । इन आवश्यक मियाओं में जहां २ अनिवार्य हिंसाप्रसंग आ जाते हैं वहीं २ अपवाद मार्ग मी है ही जैते:
(१) चलने में वायुविक जावों की हिंसा होती है किन्तु इस पार की भी अपेक्षा साधु के आलस्य की वृद्धि होना संयम के लिये
और नी अधिक हानिकर है, इसी लिये शास्त्र में कहा है कि “ उपयोगपूर्वक उन क्रियाओं को करे तो पापकर्नका बंधन नहीं होता है। अर्यात् 'पापनिया' की मी अपेक्षा उपयोगहीनता' को अधिक पापला माना है। इस तरह प्रकारन्तर से उपयोग का महत्व बताकर साधु को वह उतकता रखने का निर्देश किया है जिस सतर्कता के कारण पापल्प एक मी क्रिया-भले ही वह मानतिक हो, वाचिक हो या कायिक हो-कभी हो ही नहीं सकती । साय हो साय, सतर्कता का निर्देश करके ग्रंथकार ने एक बहुत ही सूक्ष्म वात का, जो जैनधर्म को एक खास विशिष्टता है उसकी तरफ मी वाचक का ध्यान आकृट किया है । वह यह बात साधक के मन पर ठसा देना चाहते हैं कि 'कोई अमुक क्रिया स्वयमेव पापल्प नहीं है, पाप यदि कुछ है तो . वह है आत्मा की उपयोगहीनता । सतर्क आत्मा कोई भी क्रिया क्यों न करे, उसे पापका बंध नहीं होता और उपयोगरहित आत्मा कुछ मी क्यों न करे फिर मी वह पार का भागी है क्योंकि उसे खबर ही नहीं है कि वह क्या कर रही है ऐसी आमा भूल में पार ही कर सकती है । जैनधर्म में उपयोग का . महत्त्व इसी दृष्टि से है और वह बड़ा ही विलक्षण है । इसी दृष्टि से ग्रन्थकारने इस ग्रन्य में स्पष्ट कह दिया है कि 'उपयोग सहित
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आत्मा ही निष्पाप है और उपयोगहीन आत्मा ही पापपूर्ण है ।' अर्थात् पाप एवं पुण्य इन दोनों के कारणों को खोजने के लिये बाहर हट जाने की जरूरत नहीं है, वे दोनों कारण स्वय आत्मा में ही मौजूद हैं। इस प्रकार यह आत्मा ही स्वयं अपने पापपुण्यों का कर्ता एवं भोक्ता है; न कोई इसे कुछ लेता देता है और न यह किसी को कुछ देता-लेता है इत्यादि प्रकार मे ज्यों २ गहरा विचार करते जाते हैं त्यो २ नये २ आत्मानुभव स्वयं आते जाते हैं और यही इस ग्रन्थ की एक विशिष्टता है कि ग्रन्थकारने तत्त्व का बाह्य विस्तृत स्वरूप न कह कर उसको आत्मा या कर्म का ही वर्णन किया है उसके ऊपर विशद विचार श्रेणी फैलाने का काम उसने विचारक वाचकों पर ही छोड़ दिया है ।
(२) भोजनपान ग्रहण करने में भी सचित्त खानेका अपवाद नहीं हैं क्योंकि निर्जीव पानी एवं आहार की प्राप्ति दुःशक्य भले ही हो किन्तु वह अलभ्य तो अवश्य नहीं है । इसी लिये त्यागी के तक का भी सर्वथा निषेध किया जाते समय
छूने
रास्ते में यदि नदीनाला कहा गया है कि साधु,
परिस्थिति में
से
लये सचित्त आहारपनी को गया है किन्तु भिक्षा के लिये या जाय तो क्या करे ? उस यदि दूसरा और कोई मार्ग न हो तो, उनमें और भिक्षा लेकर लौट अने पर त क्षण हो पापसे निवृत्त हो । ध्य न देने की बात यह है कि उस परिस्थिति में चलने का निषेध नहीं किया क्योंकि वैसी छूट देने में ही संयम का संरक्षण है । पृथ्वी पर जगह जगह वि र कर संयमधर्म का प्रचार
जाकर पार हो जाय प्रायश्चित लेकर उस
* देखो दशवैका लक सूत्र का अध्ययन 2 1
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करने का गंभीर एवं समीचीन उद्देश्य उसी में छिपा हुआ है । साधक विचरेगा नहीं तो आत्मधर्म का उपदेश कौन देगा ? भूली हुई आत्माओं को सुमार्ग पर कौन लगायेगा ?
( ३ ) वरस द पड़ते समय आहार पानी के लिये बाहर जाने का निषेध किया गया है किन्तु वहां भी मलविसर्जन आदि कारणों के लिये छूट दी हैं क्योंकि ये क्रियाएं अनिवार्य हैं; दूसरे, उनको रोकने से संयम में ही बाधा उत्पन्न होने का डर है ।
न
(४) गृहस्थ के घर में साधु को न उतरने की जैन शास्त्रों की कही आज्ञा है किन्तु दूसरी तरफ एकाद दिनके लिये अनिवार्य प्रसंग माने पर रहने की छूट भी दी हैं और उस समय में साधु को किस प्रकार अपने धर्मकी समाल करनी चाहिये उसका वर्णन भी किया है ! ध्यान में रखने की बात यह है कि उक्त विचार अपवाद मार्ग है, कि विधेय मार्ग । विधेय मार्ग तो एक ही है और वह यह है कि साधु को' कनक एवं कामिनी के संग से सर्वथा मुक्त रहना चाहिये । इसमें श्रमसाधक के लिये लेशमात्र भी अपवाद अथवा छूट नहीं दी गई, क्योंकि अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह ये दोनों बातें संयम की बाधक एवं आत्मा की प्रत्यक्ष रू. से घातक हैं । इसी प्रकार संयमी - जीवन को बाधक अन्य समस्त क्रियाओं एवं पदार्थों का सख्त निषेध किया गयां है । सारांश यह है कि त्यागी साधक को विवेकपूर्वक संयमी जीवन को वहन करना चाहिये । संयमी जीवन में विवेकपूर्वक आचरण करा यही उसका एकमात्र कर्तव्य है ।
इस प्रकार दशवेकालिक में उल्लिखित नियमों का विवेकपूर्ण निराकरण करने के लिये मैंने यहाँ वाचकों को अति संक्षेप में अनेकान्तवाद सिद्धान्तको झांखी कराई है ।
(१४)
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आभार इस सूत्र का (गुजराती) अनुवाद करते समय डॉक्टर शूबिंग, प्रोफेसर अभ्यंकर, डॉक्टर जीवराजमाई, पूज्य श्री. अमोलक ऋषिजी महाराज, तथा उपाध्याय श्रो. आत्मारामजी महाराज के अनुवादों की यथावकाश मदद ली गई हैं और प्रोफेसर अभ्यंकर, डॉक्टर शूब्रिग तथा उपाध्यायजीकी प्रस्तावनाओंमें से उपयोगी प्रमाण मी लिये हैं, उन सबका मैं हार्दिक आभार मानता हूं।
श्री. उत्तराध्ययन के अनुवाद की अपेक्षा इस अनुवाद में मी मेरे गुरुदेव के निरीक्षण का कुछ कम भाग नहीं है । उनका आभार जड़ शब्दों में कैसे प्रदर्शन किया जा सकता है ! इसी प्रकार अन्य सज्जनों का, जिनने इस तथा अन्य पुस्तकों के प्रकाशन में बहुत कुछ परिश्रम एवं कष्ट उठाया है उन सबकी सेवा वाचकों को साभार स्मरण करते हुए मैं इसे यही समाप्त करता हूं।
संतबालं
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प्रस्तावना
जैन आगमों में दशवकालिक सूत्र मूलसूत्र तरीके माना जाता है । आगम साहित्य (श्वे० मू० तथा श्वे० स्था० के मान्य) के अंग, उपांग, मूल तथा छेद ये चार विभाग हैं । इन सबको संख्या ३१
और एकै आवश्यक सूत्र इन सबको मिलाकर कुल ३२ सत्र, सर्वमान्य हैं । उस में से मूल विभाग में दशवकालिक का समावेश होता है।
आचारांग, सूयगडांग आदि १२ सूत्रों की गणना अंग विभाग में की जाती है किन्तु उनमें से 'दृष्टिवाद' नामक एक समृद्ध एवं सुन्दर अंग सूत्र आजकल उपलब्ध नहीं है इसलिये कुल ११ हो अंग माने जाते हैं । उववाई, रायपसेणी इत्यादि की गणना उ पांग में; उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि की गणना मूल में और व्यवहार, वृहत्कल्प आदि की गणना छेद सूत्रो में की जाती है ।
__अंग एव उपांगो में जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्त के सिवाय विश्व के अन्य आवश्यक तत्त्वों, उदाहरण के लिये जीव, अजीव (कर्म) तथा उसके कार्य कारण की परंपरा एवं कर्मबंधन से मुक्त होने के उपाय आदि का भी खूब ही विस्तृत वर्णन किया गया है। मूल
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सूत्रो में केवल सारभूत तत्त्वों का वर्णन तथा संयमी जीवन संबंधी यमनियमों का उपदेश विशेष रूप में दिया गया है । छेद सूत्रों में श्रमण- जीवन संबंधी यमनियमों में जो भूल हो जाय उनके प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होने के उपायों का वर्णन किया गया है ।
दशवैकालिक में साधु - जीवन के यमनियमों का मुख्यतः वर्णन होने से, ठाणांग सत्र के चोथे ठाणे में वर्णित चार योगों में से चरणानुयोग में इसका समावेश किया जा सकता है ।
'मूल' नाम क्यों पड़ा ?
अंग, उपांग तथा छेद इन तीन विभागों के नामकरण तो उनके विषय एवं अर्थ से स्पष्ट तथा समझ में आ जाते हैं और उनके वैसे नामकरण के विषय में किसी भी पाश्चात्य अथवा पौर्वात्य विद्वान को लेशमात्र भी मतविरोध नहीं है किन्तु 'मूल सूत्र' के नामकरण में भिन्न २ विद्वानों की भिन्न २ कल्पनायें हैं |
:: शार्पेन्टियर नामक एक जर्मन विद्वान 'मूळ सूत्र' नाम पडने का कारण यह बताते हैं कि इस सूत्र में स्वयं भगवान महावीर के ही शब्द "Mahavir's own words " * का संग्रह किया गया है अर्थात् इन सूत्रों का प्रत्येक शब्द स्वयं महावीर के मुख से निकला हुआ है इसलिये इन सूत्रों का नाम 'मूल सूत्र' पड़ा |
•
• यह कथन शंकास्पद है क्योंकि इस ग्रंथ में केवल भगवान के ही
शब्दों का संग्रह है और किसी के शब्दों का नहीं, अथवा इसी शास्त्र
में भगवान के उपदेश हैं अन्य ग्रंथों में नहीं - यह नहीं कहा जा सकता
See Utt. Su. Introduction P. 79.
(१७)
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दशवैकालिक सूत्र के कई एक प्रकरण अन्य आगमों में से लिये गये । हैं और वे उद्धृत से स्पष्ट मालूम होते हैं; इसलिये उक्त मत का खंडन करते हुए डॉक्टर वाल्थर शूविंग (Dr. Walther Schubring) लिखते हैं:
" This designation seems to mean that these - four works are intended to serye tbe Jaio monks and nuns in the begining (मूल) of their career." .
अर्थात्-ये सूत्र जैन साधु तथा साध्वी को साधु जीवन के प्रारंभ में आवश्यक यमनियमादि को आराधना के लिये कहे गये हैं, ... इस लिये इनका नाम. ' मूलसूत्र । पड़ने का अनुमान होता है । ',
परन्तु इस मत परमी विद्वानों में ऐक्य नहीं है । जैन शास्त्रों के परम विद्वान् इटालियन प्रोफेसर गेरीनो (Professor Gnerinot) . का यह मत है कि ये ग्रंथ Traites Original * अर्थात् मूल ग्रंथ हैं क्योंकि इन ग्रंथों पर अनेक टीकाएं तथा. नियुक्तियां रची गई हैं। टीका ग्रंथों में, जिस ग्रंय की वह टीका होती है उसे. . सब जगह.. . 'मूल ग्रंथ ' कहा जाता हैऐसी परिपाटी है जो हमें सभी टीका ग्रंथों में दिखाई देती है। जैन धार्मिक ग्रंथों में सबसे अधिक टीकाएं : इन ग्रंथों पर हुई हैं और उन सब टोकाओं में इन्हें प्रचलित पद्धति के अनुसार 'मूल सूत्र' कहा गया है । इसलिये उनका अनुमान है कि टीकाओं की अपेक्षासे जैन आगम में इन सूत्रों को ' मूल सूत्र' कहने की प्रथा पडी होगी।
* देखो La Religion Dyaina..P..79
(१८).
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' मूल ' शब्द के जितने उपयोगी अर्थ हो सकते हैं उन से एक एक को मुख्यता देकर ही इन पाश्चात्य विद्वानों ने अपनी जुदो २ कल्पनाएं की है-ऐसा मालूम होता है। क्योंकि थोडासा हो गहरा विचार करने से उनकी कल्पनाओं का थोथापन स्पष्ट विदित हुए बिना नहीं रहता।
उनमें से पहिलो कल्पना उत्तराध्ययन को लागू हो सकती है क्योंकि भगवान महावीरने अपने अंतिम चातुर्मास में जिन ३६ विना पंछे हुए प्रों के उत्तर दिये थे उन्हीं का संग्रह इस ग्रंथ में हुआ है। परंतु यह बात दशवैकालिक सूत्र को बिलकुल लागू नहीं होती और इससे प्रथम मत का खंडन स्वयमेव हो जाता है। संभवतः दूसा मत दशवकालिक की वन्तुरचना पर से बांधा गया होगा किन्तु उसका विरोध उत्तगध्ययन सत्र की वस्तु रचना से हो जाता है क्योंकि उस में श्रमण जीवन संबंधी यमनियमों के सिवाय अनेक कथाएँ, शिक्षाप्रद दृष्टांत, मोक्षप्राप्ति के उपाय, लोकवर्णन इत्यादि जैन आगम की मूलभूत बहुत सी बातोंका वर्णन है। सारांश यह है कि उस में साधु-साधी के यमनियमादि का मुख्यतया वर्णन नहीं किया गया है इसलिये वह ग्रन्थ दशबैक लिक की वस्तुकोटि का नहीं है। इन दोनों मत-विरोधों का समन्वय करने के लिये ही संभवतः तीसरा मत ढूंढने की जरुरत पडी है किन्तु उसकी दलील भी ठोस नहीं है क्योंकि दशकालिक और उत्तराध्ययन की तरह अन्य अनेक अंगो-उपांगों पर टीकाएं रची गई है इसलिये टीक.ओं के कारण हो ये ग्रन्थ 'मूल ग्रन्थ' कहलाये, यह कहना भी सर्वथा युक्तियुक्त नहीं है।
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इस तरह प्रमाण की कसौटी पर कसने से पाश्चात्य विद्वानों के इनमतों में कुछ न कुछ दोष दृष्टिगत हुए विना नहीं रहते । विचार करने पर मालूम होता है कि पूर्वाचार्योंने इसी आध्यात्मिक अर्थ को प्रधानता देकर इन ग्रन्थों को 'मूल सूत्र' कहा है क्योंकि उनकी दृष्टि में इन दर्शन के सिद्धांत एवं जैनजीवन का रहस्य संक्षेप में यथार्थ . रीति से समझने के लिये ये मूल ग्रन्थ ही सबसे उत्तम साधन है । इन मूल ग्रन्थों में जैन सिद्धांत एवं जीवन का वर्णन अनेक उदाहरण देकर इतनी सुन्दरता से किया गया है कि इन ग्रन्थों को पढकर अपरिचित व्यक्ति भी जैन धर्म और जैन धर्मी की पहिचान कर सकता है । इसीलिये इन्हें 'मूलसत्र' कहा जाना विशेष सुसंगत जान पडता है ।
स्वयं देवैकालिक भी हमें इसी अर्थको स्वीकार करने को प्रेरणा करता है और इसी मान्यता को श्री हेमचंद्राचार्य भी पुष्ट करते हैं | उनके मत के विषय में डॉक्टर शूविंग अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं:
"From this mixture of contents it can easily be understood why tradition, as represented in Hemchandra's Parisista pervan 5, 81 H. in accordance with earlier models should ascribe the orijin of the Dasaveyaliya Sutt to an intention to Condense the essence of the sacred lore into an anthology."
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" इसमें जुदी २ वस्तुओं का समावेश होने से दंतकथा के अनुसार हेमचंद्र चार्य के परिशिष्ट पर्व ५,८१ में दशवैकालिक सत्र को 'जैनधर्मका तत्त्वबोध समझानेवाला ग्रंथ माना है ।" स्वयं डॉक्टर शूविंग ने भी आगे जाकर इसी मत को स्वीकार किया है ।
मूल संज्ञा का प्रारंभकाल
रोचक है
एक प्रश्न यह भी होता है कि क्या ये ग्रंथ प्रारंभ से ही 'मूल सूत्र ' कहलाते आये हैं ? यदि नहीं, तो कबसे इनका यह नाम पडा ? निःसंदेह यह प्रश्न पुरातत्त्व के विद्यार्थियों के लिये बडा ही और खोजका है, किन्तु हमारा उद्देश्य इतनी गहराई में उतरने का नहीं है क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टिसे यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण भले ही हो किन्तु उससे ग्रंथ के महत्त्व में कुछ भी अन्तर नहीं पडता ।
प्राप्त प्रमाणों से यही मालूम होता है कि इन ग्रंथों का 'मूल सूत्र' नाम श्री हेमचंद्राचार्य के कालमें ( ईसाको लगभग १२ वीं शताब्दि ) पडा होगा क्योंकि इसके पहिले अन्य सूत्रों में कहीं भी उन्हें मूल सूत्र नहीं कहा गया । नन्दी सूत्र में आगम ग्रंथों को केवल दो भागों में बाँटा गया है: ( १ ) अंगप्रविष्ट, और ( २ ) अंगबाह्य । अंगवाह्य के भी दो भेद हैं: (१) कालिक, और (२) उत्कालिक । उसमें दशवैकालिक सूत्र को उत्कालिक आगमों में शामिल किया है, किन्तु उसमें आदि से अन्त तक कहीं भी 'मूलसूत्र का नाम तक नहीं मिलता । इससे सिद्ध होता है कि यह संज्ञा प्रारंभ में न थी; बाद में प्रचलित हुई ओर वह अनुमानतः समय में प्रचलित हुई और वह भी इसीलिये कि इनमें जैनधर्म का खाका अत्यन्त सरलता से खींचा गया है ।
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हेमचंद्राचार्य के
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इस ग्रन्थ का कर्ता कौन ? नामकरण के विषय में इतना ऊहापोह करने के गद, दशव- . कालिक सूत्र का कर्ता कौन है ? यह प्रश्न स्वभावतः उत्पन्न होता है । कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह प्रश्न मी प्रथम प्रश्न की अपेक्षा कम महत्वपूर्ण एवं रोचक नहीं है । अाश्चर्य की बात तो यह है कि लगभग २००० वर्षों से ये ग्रन्थ अस्तित्व में है और सैंकडों वर्षों तक उत्तर एवं दक्षिण भारत में राज्य करनेवाले राजा-महाराजाओं के मान्य जैन धर्म के सिद्धांतो के प्ररूपक ग्रन्थों के सामान्य पद पर . ये अघिठित रहे हैं, फिर भी आजतक इन ग्रन्थों के मूल कर्ता के विषय में केवल परंपराओं के सिवाय, श्रृंखलाबद्ध ऐतिहासिक प्रमागा .. कुछ भी नहीं है । और न किसो जैनाचार्यने इस विषय में कुछ विशेष ऐतिहासिक प्रकाश डालने की चेष्टा हो की है।
ऐसा माना जाता है कि अन्य आगमों का संग्रह श्री सुधर्मा स्वामीने किया । इन संग्रहो में उनने स्वयं भगवान महावीर द्वारा ' कथित शब्दों का संग्रह किया था और उन उपदेशों का अपने पट्ट शिष्य जंबु स्वामी को सुनाया था । अनेक ग्रन्थों पर सुयं में आउसं तेण भगवया एवमक्खाय' यह वाक्य मिलता है जिसका अर्थ यह है कि "हे भद्र ! उन भगवान (महावीर) ने ऐसा कहा था ।" इसी तरह के वाक्यप्रयोग दशवैकालिक सूत्र में भी यत्रतत्र हुए हैं इस पर से ऐसी मान्यता चली आती है कि इस . ग्रन्थ का संकलन भी सुधर्मा स्वामीने किया है और उनने ये उपदेश जंबू स्वामी को सुनाये थे। किन्तु यह मान्यता अभी तक सर्वमान्य नहीं हो सकी अर्थात् इस ग्रन्थ के रचयिता के संबंध के मतभेद मौजुद हैं।
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नियुसिकार कहते हैं: निजूद किर सेन्जभवेण दसकालय तण ॥ भद्रबाहु नि० ॥ १२ ॥ अर्थात् शय्यंभव नामक प्राचार्य द्वारा प्रणीत यह ग्रन्थ है। हेमचंद्राचार्य ने भी इसी मत को प्रमाणभूत माना है । दशवैकालिक सूत्र की संपूर्ण रचनाशैली से भी इसी मत की पुष्टि होती है।
दशवैकालिक की रचनाशैली.. इस ग्रन्थ के प्रथम अयध्यन की पहिली गाथा में जैन धर्म का संपूर्ण रहस्य समझाया गया है। जैनदर्शन का अंतिम ध्येय संपूर्ण
आत्म स्वरुप की प्राप्ति का है। कर्मों से सर्वथा मुक्त हुए विना संपूर्ण आध्यात्मिक की प्राप्ति हो नहीं सकती और संपूर्ण मुक्ति की प्राप्ति क्रोधादि डिपुओंका संपूर्ण क्षय हुए चिना बिलकुल असंभव है। इसलिये उन रिपुओं का संहार करने के लिये " अप्पाणमव जुज्झाहि, अप्पा चेव दमेयन्यो " (आत्मा के साथ ही युद्ध करो; आत्मा का ही दमन करो) का उपदेश दिया गया है । उस युद्ध में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संयम तथा तपश्चर्या को शस्त्र बना कर गृहस्थ तथा श्रमण मार्गों के राजमार्ग द्वारा ध्येय तक पहुंचने का उपदेश दिया है। उसके बाद से ऊनी संख्याओं के अध्यायो में श्रमण चारित्र तथा चौथे अध्याय से लेकर पूरी संख्याओं के अध्यायों में मुख्यतः साधुजीवन संबंधी शिक्षाओं का धाराप्रवाह वर्णन किया है।
इस प्रकार के अस्खलित धाराप्रवाहिक शैली से यह सिद्ध होता है कि यह सूत्र अपने शिष्य को संवोधने के लिये किसी गुरुदेव ने बताया हो!
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क्या यह ग्रंथकार की स्वतंत्र कृति है ? यद्यपि इस सूत्र की रचना शय्यंभव ने बिलकुल स्वतंत्र रूपसे की हो ऐसा मालूम नहीं होता क्योंकि यदि यह उनको एक स्वतंत्र कृत होती तो एक ही बात पुन: पुन: इसमें न आने पाती परन्तु इसमें अनेक जगह एक हो बात एक ही शब्दको ही पुनः २ दुहराई गई है इससे तो यही मालूम होता है कि मानों कोई गुरु अपने प्रियजनको सरल एवं सुन्दर शब्दमें ही किसी गूढ वातको पुनः जोर देकर समझा रहा है और शिष्य मी बडे भोले भावसे उनकी शिक्षाओं का दुहराता जाता है। (देखो अध्याय ४ था) चौथे अध्याय के प्रवेशमें शय्यंभव आचार्य का अपने प्रिय शिष्य मनक को उद्देश्य (लक्ष्य) करके बोलने का निर्देश भी किया गया है। इन सब कारणों से यही सिद्ध होता है कि शय्यमव आचार्य ने इस ग्रंथ का संपादन अपने शिष्य मनक के लिये किया हो।
यह ग्रंथ उनकी कोई स्वतंत्र कृति नहीं ह किन्तु भिन्न २ आगमों में से उत्तमोत्तम अंश संग्रहीत कर इसे एक स्वतंत्र ग्रंथ का रूप दे दिया गया है । यह बात निम्नलिखित प्रमाणों से स्वयंसिद्ध हो जाती है:
प्रमाण
प्रथम अध्ययन उरग गिरि जलन सागर
नहतल तरुगण समो य जो होई। . भ्रमर मिय धरणि जल रूह रवि पवण समो अ सो समणो॥
(२४)
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उपरोक्त गाथामें अनुयोग द्वार सूत्र में वर्णित १२ उपमाओं से भ्रमर की उपमा का विशद वर्णन किया है ।
दूसरा अध्ययन यह अध्ययन बहुत कुछ अंश में उत्तराध्ययन सूत्र के २२ में अध्ययन से मिला जुलता है । उसकी बहुत सी गाथाएं इसमें भी ज्यों की त्यों रख भी गई है।
तिसरा अध्ययन इसका कुछ भाग निशीथ सूत्र आदि में से लिया हुआ मालूम होता है।
चौथा अध्ययन आचारांग सूत्र के २४ वें अध्ययन से बिलकुल मिलता जुलता है।
पांचवां अध्ययन आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध के 'पिण्डैषणा' नामक प्रथम अध्ययन का लगमग अनुवाद मात्र है । अन्तर केवल इतना ही है कि यहां उसका वर्णन विशेष सुन्दरता के साथ किया गया है।
छठा अध्ययन समवायांग सूत्र के १८ समवायों की १८ शिक्षाओं का वर्णन है।
सातवां अध्ययन आचारांग सूत्र के दूसरे अतस्कंध के भाषा नामक १३ वें अध्ययन का यह विस्तृत वर्णन है।
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आठवां अध्ययन यह ठाणांग सूत्र के आठवें अध्ययन की वस्तु है ।
नौवां अध्ययन इसमें उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन की वस्तु कुछ, जुदे स्वरूप में वर्णन की गई है।
दसवां अध्ययन यह उत्तराध्ययन सूत्र के पन्द्रहवें अध्ययन से विलकुल मिलता जुलता है और यहांतक कि बहुत सी गाथाएं भी आपसमें बिलकुल मिलती जुलती हैं यहींतक नहीं रचनाशैली में भी इसमें इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, वंशस्थ, वैतालीय इत्यादि पद्यों का उपयोग गी उसको देखादेखी ही किया गया है ।
इस ग्रंथ के अंत में दो चुलिकाएं हैं । उनकी रचना एवं प्रकार से ऐसा मालूम होता है कि वे १० अध्ययनों के संग्रह के पीछे कुछ काल बाद इस ग्रंथ में जोडी गई हैं। क्योंकि प्रथम अध्ययन के प्रथम श्लोक में आदि मंगलाचरण किया , है। सातवें अध्ययन में मध्य मंगलाचरण किया है और दसवें अध्ययन में सभ्य मंगलाचरण किया है किन्तु . .चूलिका में मंगलाचरण का नाम तक भी नहीं है किन्तु इनकी प्रथम इस अध्ययनों की भाषा से विलकुल मिलती जुलती है। इससे अनुमान होता है कि इन दोही चुलिकाओं के कर्ता भी श्री० शय्यंभय मुनि ही होंगे।
दशवैकालिक की रचना का फल. भगवान महावीर के निर्वाण के बाद उनके . पाट पर गणधर सुधर्मा स्वामी आये। उनके बाद जंबू स्वामी और जंबू स्वामी के
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वाद प्रभव स्वामी हुए । प्रभवस्वामी के उत्तराधिकारी शय्यंभव हुए और ये ही इस ग्रंथ के कर्ता हैं । उनका आचार्यकाल वीर संवत् ७५ से ९८ तक का है, यह बात निम्न लिखित पट्टावलो से सिद्ध होती है :
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तदनु श्री शस्यंभवोऽपि साधानमुक्तनिजभार्याप्रसूतमनकाख्य पुत्र हिताय श्री दशवैकालिकं कृतवान् । क्रमेण च श्री यशोभद्रं स्वपदे संस्थाप्य श्री वीरादष्टनवत्था (हम) वषैः स्वर्जगाम ।
" अर्थात् श्री शय्यंभव स्वामी ने गृहस्थावास में सगर्भा छेड़ी हुई पत्नी से उत्पन्न मनक नामक शिष्य के कल्याण के लिये दशनैकालिक की रचना की । और कुछ समय बाद अपने पद पर यशोभद्र स्वामी को स्थापित कर भ. महावीर के निर्वाण संवत् (८८) में वे कालधर्म को प्राप्त हुए। *
इससे यही सिद्ध होता है कि शय्यंभव आचार्य ने अपने पुत्र मनक के लिए ही इस ग्रन्थ की रचना की थी ।
भाषा की दृष्टि से प्राचीनता
दशवैकालिक की भाषा देखने से मालूम होता है कि यह प्राचीन ग्रन्थ है । इसमें प्रयुक्त वहुत से कियाप्रयोगों एवं शब्दों के तादृश्य
* देखो आंगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित लसूत्र की सूत्रोधिनि टीका का पुष्ठ नं० १६१ ॥
+ लोकप्रवाद तो यह है कि शय्यंभवाचार्य को ६ महिने पहिले ही मनकी मृत्यु मालूम हो गई थी । उसके प्रतिबोध के लिये थोडे ही समय में अन्य ग्रन्थों के आधार पर सरलतया भाषा में इस ग्रन्थ की रचना की थी |
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प्रयोग आचागंग एवं सूयगडांग में पाये जाते हैं। यहां केवल कुछ . विलक्षण शब्द प्रयोगों पर विचार किया जाता है ।
प्राकृत 'किच्चा ' गृह संस्कृत में 'कृत्वा' होता है किन्तु इस ग्रन्थके अन्तकी प्रथम चूलिका में 'किच्चा' के बदले इसी अर्थ में 'कट्टु' शब्द उपयुक्त हुआ है । आचागंग सूत्रकी गाथा नं. १४८ में भी इसी अर्थमें 'कड्डे' शब्दका उपयोग हुवा है । इससे यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ भी आचारांग सूत्रके समान ही प्राचीन है ।
इसी प्रकार प्राकृत 'नच्चा ' (सं. ज्ञात्वा) के अर्थ में इस ग्रन्थके आठवें अध्ययनमें ' जाणं' शब्दका प्रयोग हुआ है । सूत्रकृर्ताग सूत्र के १-१-१ में 'जाणं' का उपयोग हुआ है । *
-
• इनके सिवाय फोसई, संसेइम, खड्डय, खिसई, अत्ता, महलगं अयपिरो आदि प्रयोगों में कुछ तो आपे प्रयोग है और कुछ भी आचरांग, श्री सूयगडांग, तथा श्री उत्तराध्ययन में व्यवहृत प्राचीन भाषा के प्रयोग है ।
इस प्रकार दशवैकालिक की प्राचीनता, उपयोगिता, एवं प्रामाणिकता अनेक दृष्टिबिन्दुओं से सिद्ध होती है ।
दशवैकालिक नाम क्यों पड़ा ?
इस प्रश्नका निराकरण निर्मुक्तिकारों ने इस प्रकार किया है " वैयालियाए ठविया तम्हा दसकालियं नाम "" अर्थात् दुस अध्ययनों का उपदेश दिया गया,
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दशवैकालिक' रखा गया। इस
विकाओं ( सायंकालों) में दस इस लिये.. उनके संग्रहका नाम
* यद्यपि इसका अर्थ कहीं २ अपूर्ण वर्तमान कालके 'जानत् " के समान किया गया है किंतु उपरोक्त अर्थ ही यहां विशेष सुसंगत है ।
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थन से भी चूलिकाए पीछे से प्रक्षिप्त होने के अनुमान की पुष्टि होती है । x
इस ग्रंथ में वर्णित तख
इसके प्रथम अध्ययन में धर्म की प्रशंसा और साधु जीवन की भ्रमर के साथ तुलना बहुत ही सुन्दर शब्दों में की गई है ।
दूसरा अध्ययन मनोभावनापूर्ण एक प्राचीन दृष्टान्त के कारण बहुत ही उपयोगी है।
तीसरे अध्ययन में साधुजीवन के नियमों एवं आचरण विषयक स्पष्टीकरण है । चोथे अध्ययन में, जैनधर्म के सिद्धान्तों, दुनियांके जीवों के जीवन, और श्रमण जीवन के मूलव्रतोंका अच्छा वर्णन किया है ।
पांचवें अध्ययन में भिक्षा संबंधी समस्त क्रियाओं एवं ग्राह्यग्राह्यवस्तुओंका वर्णन किया है । इस अध्ययन में आये हुए शिक्षापद कुन्दनमें जडे हुए हीरों के समान जगमगा रहे हैं ।
छट्टे और आठवें अध्ययन में १८ स्थानोंका वर्णन कर साधुजीवन के नियमोपनियमों का विस्तृत स्पष्टीकरण किया है।
सातवें अध्ययनमें भाषाशिक्षा, नौवें अध्ययन में गुरुभक्तिका माहात्म्य और दशवें अध्ययनमें आदर्श साधु की व्याख्या बडे ही भावपूर्ण शब्दो में दी है । प्रत्येक अध्ययन वाचक के हृदयपट पर अपने २ विषय की गहरी छाप डालता है I
X चूलिकाओं के संबंध में परंपरा के अनुसार एक विचित्र सी मान्यता चली आती है किन्तु उसकी सत्यता बुद्धिगम्य न होने के कारण उसका यहां उल्लेख नहीं किया है ।
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प्रथम चूलिका में वाह्य एवं आंतरिक कठिनताओं के कारण. संयमी जीवन छोडकर गृहस्थाश्रम में पुनः जानेकी इच्छा की संभावना बताकर मात्र जैनदर्शन के सिद्धान्तों का ही नहीं किन्तु मनुष्य मात्र के हृदयमें उत्पन्न होनेवाली अच्छी बुरो, बलिष्ठ तथा निर्बल स्वाभाविक' भावनाओंका तादृश्य चित्र खींच कर सामने खडा कर दिया है । यह अध्ययन इस वातकी साक्षी दे रहा है कि इस ग्रंथके रचयिता मानस शास्त्र के बडे ही गहरे अभ्यासी थे ।
द्वितीय चूलिका में आर्य के नियमों का वर्णन किया है।
इस प्रकार दर्शवैका लिकका साद्यंत सुन्दर संकलन पूरा होता है । दशवैकालिक की विशिष्टताएं
इस ग्रथमें प्रवेश करते ही, यह हमें सीधा मोक्षका मार्ग बताता है । अर्थात् वीतराग भावकी पराकाष्ठा और उसकी प्राप्ति का मार्ग ही धर्म है ।
'वत्थु सहाम्रो धम्मो' अर्थात् वस्तु के स्वभाव को 'धर्म' कहते हैं । इसमें आत्मस्वरूप की प्राप्ति कराने वाले धर्म को सुन्दर व्याख्या दी है और साथ ही साथ उस आत्मधर्म के अधिकारी एवं उस धर्मकी साधना का अनुक्रम भो बताया है ।
जबतक मनुष्य अपनी योग्यता को प्राप्त नहीं होता अर्थात् मानवधर्मकी प्राप्ति नहीं करता तबतक उसे आत्मधर्म को साधना में सफलता नहीं मिल सकती । इस अनुपको समझाने के लिये धर्मके साथ 'वृक्षकी सुघटित उपमा देकर धर्मरूपी वृक्ष का मूल विनय को बताया है। विनय ( विशिष्ट नीति) में मानवता, सज्जनता, शिष्टता और साधुताका समावेश होता है और ये सब गुण मोक्षं धर्म की सीढियां हैं ।
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܀
वेद धर्म में भी ब्रह्म जिज्ञासु की योग्यता के चार लक्षण बताये
विवेकिनो निरालस्य शमादि गुणशालिनः । मुमुक्षोरेव हि ब्रह्मजिज्ञासा योग्यता मता ॥ ( विवेक चूडामणि )
अर्थात् विवेक, वैराग्य, शमादि ष ब्रह्मजिज्ञासु के लक्षण हैं। जब तक इतने तब तक वह साधक ब्रह्मप्राप्ति के योग्य नहीं हो सकता ।
संपत्ति और मुमुक्षत। ये चार गुणों का पूर्ण विकास न हो
बौद्ध धर्म में मी चार आर्यसत्य बता कर दुःख, समुदय, मार्ग और निरोध इन चार गुणों को जो साधक विवेक पूर्वक धारण करता है वही अंत में निर्वाण का अधिकारी होता है इस बात की पुष्टि करता है ।
इस प्रकार भारतवर्ष के ये तीन प्राचीनतम धर्म तत्त्वतः परस्पर में भिन्न २ होने पर भी एक ही मार्ग दिशा के सूचक हैं यह देख कर
ऐसे धर्म समन्वय करने वाले समन्वय के इस जमाने में मान्य न होग ?
धर्मसूक्तों को करने के लिये
बुद्धिवाद एवं सर्वधर्म कौनसा जिज्ञामु तैयार
टीकाएं
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दशवेकालिक सूत्र की निम्न लिखित टीकाएं हो चुकी हैं :इस ग्रंथ पर सबसे अधिक प्राचीन श्री भद्रबाहु स्वाभि को नियुक्ति है, उनके बाद श्री हरिभद्रसूरि की टीका और समयसुन्दर गणि की दीपिका है । ये तीनों टीकाएं बडी ही सुन्दर एवं सर्वमान्य हैं । इनके बाद सुमति सूरि की लघु टीका, श्री तिलोक सूरि की प्राकृत चूर्णि
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संस्कृत अवचूरि तथा उनके शिष्य ज्ञानसम्राट की वालावबोध गुजराती टीका हैं । इनके सिवाय संवत १६४३ में खडतरगच्छीय जिनराजसूरि. के प्रशिष्य राजहंस महोपाध्यायने भी गुजराती भाषामें एक टीका बनाई थी।
ईस्वी सन् १८९२ में डाक्टर अनस्ट ल्युमन (Dr. Ernest Leuman ) ने सबसे पहिले अपनी Journal of the German Oriental Society द्वारा इस ग्रंथकी एक आवृत्ति प्रकाशित की थी। इस के प्रकाशन के पहिले सभी प्रतियां केवल हस्तलिखित थी। किन्तु छापखाने के प्रचार के साथ २ अनेक आवृत्तियो भारतवर्ष में भी प्रकाशित होती रही हैं। उनमें विशेष उल्लेख्य संवत १९५७ में प्रकाशित राय धनपति सिंह बहादुर की पंचांगी आवृत्ति है । इस पुस्तकमें सबसे पहिले मूल गाथा, उसके नीचे श्री हरिभद्रसूरीको वृहत्ति , उसके नीचे नियुक्ति, और बादमें क्रमश: गुजराती अनुवाद, अवचूरि और दीपिका दिये गये है।
इसके बाद डॉक्टर जीवराज घेलामाईने भी इस ग्रन्थको ३-४ आवृत्तियां प्रकाशित कराई थी। सन १९३२ में डॉक्टर शूनिंगने अहमदावाद की आनंदजी कल्यागजी की पेनने की मांग पर जर्मनी में एक आवृत्त प्रकाशित की थी। इसी असे में प्रोफेसर अभ्यंकर ने जैन साहित्य के अभ्यासी कालेज के विद्यार्थियों के लिये श्री भद्रबाहु नियुक्ति सहित अंग्रेजी अनुवाद के साथ दशकालिक प्रकाशित किया । कहनेकी आवश्यकता नहीं है कि यह पुस्तक टिप्पणियों तथा नोटों से अलंकृत बहुत ही आकर्षक आकार में प्रकाशित हुई है।
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इन प्रकाशनों के सिवाय आगमोदय समिति-सुरत, जैनधर्मप्रसारक सभा-भावनगर, अजरामर जैन विद्याशाला लींबडी तथा, पूज्यश्री अमुलखत्रापिद्वारा अनुवादित और ऋषि समिति-हैद्राबादसे प्रकाशित आदि अनेक मूलके साथ २ संस्कृत तथा हिन्दी अनुवादों सहित प्रकाशन हो चुके हैं । फिरभी हिंदी संसारमें इसका विशेष प्रचार न होने के कारण उस कमी की पूर्ति के लिये श्री हंसराज जिनागम विद्याप्रवारक फंड समिति की तरफसे यह नवीन प्रकाशन किया जा रहा है।
इस ग्रंथ में भी उत्तराध्ययन सूत्रकी तरह उपयोगी टिप्पणियां देकर सूत्रका असली रहस्य सरलतासे समझा जा सके इसी दृष्टिसे अति सरल भाषा रखने और गाथाका अर्य टूटने न पावे उस अविछिन्न शैलीको निभा का यथाशक्य प्रयास किया है ___ अन्त में, यही प्रार्थना है कि इस ग्रंथमें अजानपन किंवा प्रमादसे कोई त्रुटि रह गई हो तो विद्वान सज्जन उसे हमें सूचित करने की कृपा करें जिससे आगामी संस्कार में योग्य सुधार किये जा सके।
- सन्तवाल
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अनुक्रमणिका
१ द्रुमपुष्पिका
धर्म की वास्तविक व्याख्या सामाजिक, राष्ट्रीय तथा आध्यात्मिक दृष्टियों से उस की उपयोगिता और उसका फल-भिक्षु तथा भ्रमर जीवन की तुलना-भिक्षु की भिक्षावृत्ति सामाजिक जीवन पर भाररूप न होने का कारण । २ श्रामण्यपूर्वक
वाउना एवं विकल्पों के आधीन होकर क्या साधुता की आराधना हो सकती है ? आदर्श सागी कौन ? आत्मा में बीज रूप में छिपी हुई वासनाओं से जब चित्त चचल हो उठे तब उसे रोकने के सरल एवं सफल उपाय - रथमि और राजीमती का मार्मिक प्रसंग - रथनंमि की उद्दीप्त वासना किन्तु राजीमती की निश्चलता - प्रबल प्रनोभनोंमें से रथनेमि का उद्धार • स्त्री शक्ति का ज्वलंत उदाहरण ।
३ क्षुल्लकाचार
भिक्षु के संयमी जीवन को सुरक्षित रखने के लिये महर्षियों द्वारा प्ररूपित चिकित्सापूर्ण ५२ निषेधात्मक नियमों का निदर्शन - अप. कारण किसी जीव को थोड़ा सा भी कष्ट न पहुंचे उस वृत्ति से जीवन निर्वाह करना • आहार शुद्धि • अपरिग्रह बुद्धि, शरीर सत्कार का त्याग • गृहस्थ के +थ अति परिचय बढाने का निषेध - अनुपयोगी वस्तुओं तथा क्रियाओं का त्याग ।
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४ पड्जीवनिका
( गद्य विभाग )
२१
श्रमण जीवन की भूमिका में प्रवेश करने वाले साधन की योग्यता कैसी और कितनी होनी चाहिये ! श्रमण जीवन की प्रतिज्ञा के कठिन मतों का संपूर्ण वर्णन - उन्हें प्रसन्नता पूर्वक पालने के लिये जागृत वीर साधक की प्रबल अभिलापा |
( पद्य विभाग )
काम करने पर भी पापकर्म का बंध न होने के सरल मार्ग का निर्देश - अहिंसा एवं संयम में विवेक की आवश्यकता ज्ञान से लेकर मुक्त होने तक की समस्त भूमिकाओं का क्रमपूर्वक विस्तृत वर्णन - कौनसा साधक दुर्गति अर्थवा सुगति को प्राप्त होता है - साधक के आवश्यक गुण कौन २ से हैं ?
५ पिण्डैपणा
( प्रथम उद्देशक )
४८
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भिक्षा की व्याख्या भिक्षा का अधिकारी कौन ? भिक्षाको गवेषणा करने को विधी - किस मार्ग से किस तरह आगनन किया जाय ? चलने, बोलने आदि क्रियाओं में कितना सावधान रहना चाहिये ? - कहां से भिक्षा प्राप्त की जाय ? किस प्रकार प्राप्त की नाय ? गृहस्थ के यहां जाकर किस तरह खडा होना चाहिये ? निर्दोष भिक्षा किसे कहते हैं १ कैसे दाता से भिक्षा लेनी चाहिये १ - भोजन किस तरह करना चाहिये १ प्राप्त भोजन में किस तरह सन्तुष्ट रहा जाय ?
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(३५)
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(द्वितीय उद्देशक) भिक्षा के समय ही भिक्षा के लिये जाना चाहिये • थोडी सी भी भिक्षा का असंग्रह - किसी भी भेदभाव के विना शुद्ध आचरण नियम वाले घरों से भिक्षा लेना - रसवृत्ति का त्याग । ६ धमार्थकामाध्ययन
मोक्षमार्ग का साधन क्या है ? - स्तंभ क्या है ? - श्रमणजीवन के लिए आवश्यक १८ नियमों का मार्मिक वर्णन • अहिंसा पालन किस लिये ? • सत्य तथा असत्य व्रतकी उपयोगिता कैसी और कितनी है ? - मैथुन से कौन २ से दोष पैदा होते हैं ? . ब्रह्मचर्य की आवश्यता - परिग्रह की जीवनपर्शी व्याख्या - रात्रिभोजन किस लिये वर्ण्य है १ . सूक्ष्म जीवों की दया कित जीवन में कितनी शक्य है ? - भिक्षुओं के लिये कौन २ ते पदार्थ अकल्प्य हैं ? - शरीर साकार का त्याग क्यों करना चाहिये ? ७ सुवाक्यशुद्धि
१०५ वचनशुद्ध की आवश्यकता - वाणी क्या चीज है ! वाणी के अतिव्यय से हानि - माश के व्यावहारिक प्रकार - उनमें से कौन २ सी भाषाएं वर्य हैं - और किस लिये ? कैसी सत्यवाणी बोलनी चाहिये ? - किसी को दिल न दुखे और व्यवहार भी चलता रहे तथा संयमी जीवन में बाधक न हो ऐसी विवेकपूर्ण वाणी का उध्योग। ( आचारमणिधि
१२१ सद्गुणों की सच्ची लगन किसे लगती है ? • सदाचार मार्ग की
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कठिनता - साधक भिन्न २ कठिनताओं को किस प्रकार पार करे ?
क्रोधादि आत्मरिपुत्रों को किस प्रकार जीता जाय ? - मानसिक वाचिक तथा कायिक ब्रह्मचर्य की रक्षा अभिमान कैसे दूर किये जाय ? - ज्ञानका सदुपयोग - साधुकी आदरणीय एवं त्याज्य क्रियाएं
साधु जीवन की समस्याएं और उनका निराकरण |
९ विनयसमाधि
( प्रथम उद्देशक )
विनय की व्यापक व्याख्या -- गुरुकुल में गुरुदेव के प्रति श्रमण साधक सदा भक्तिभाव खखें - अविनीत साधक अपना पतन स्वयमेव किस तरह करता है गुरुको वय किंवा ज्ञान में छोटा जानकर उन की अविनय करने का भयंकर परिणाम - ज्ञानी साधक के लिये भी गुरुभक्ति की आवश्यकता - गुरुभक्त शिष्य का विकास विनीत साधक के विशिष्ट लक्षण |
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( द्वितीय उद्देशक )
.: वृक्ष के विकास के समान अध्यात्मिक मार्ग के विकास की तुलना - धर्म से लेकर उस के अंतिम परिणाम तक का दिग्दर्शन- विनय तथा अविनय के परिणाम विनय के शत्रुओं का मार्मिक वर्णन । ( तृतीय उद्देशक )
पूज्यता की आवश्यकता है क्या ? प्रादर्श पूज्यता कौनसी है ? - पूज्यता के लिये आवश्यक गुण - विनीत साधक अपने मन, वचन और काय का कैसा उपयोग लरे ? विनीत साधक की अंतिम गति ।
( चतुर्थ उद्देशक )
समाधि की व्याख्या और उस के चार साधन - आदर्श ज्ञान,
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आदर्श विनय, आदर्श तप और आदर्श आचार की आराधना किम प्रकार की जाय ! उन की साधना में आवश्यक जागृति ।
१० भिक्षु नाम
सच्चा त्याग भाव कब पैदा होता है ?
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कनक तथा कामिनी के त्यागी साधक की जवाबदारी — यतिजीवन पालने की प्रतिज्ञाओं पर
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कैसे रहा जाय ? त्याग का संबंध वाह्य वेश से नहीं किन्तु आत्मविकास के साथ है --आदर्श भिक्षु की क्रियाएं ।
११ रतिवाक्य
( प्रथम चूलिका )
गृहस्थ जीवन की अपेक्षा साधु जीवन क्यों भिक्षु साधन परमपूज्य होने पर भी शासन के लिये बाध्य है - वासना में संस्कारों का जीवन पर असर - संयम से चलित चित्तरूपी घोडे को रोकने के १८ उपाय -संयमी जीवन से पतित साधु की भयंकर परिस्थिति उसकी भिन्न २ जीवों के साथ तुलना - पतित साधुका पश्चात्ताप-संयमी के दुःख की क्षणभंगुरता और भ्रष्ट जीवन की भयंकरता --- मन स्वच्छ रखने का उपदेश |
महत्त्वपूर्ण है ! - नियमों को पालने के
१२ विविक्त चर्या
( द्वितीय चूलिका )
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1
एकांतचर्या की व्याख्या – संसार के प्रवाह में बहते हुए जीवों की दशा - इस प्रवाह के विरुद्ध जाने का अधिकारी कौन है ?आदर्श एकचर्या तथा स्वच्छंदी एकचर्या की तुलना - आदर्श एकचर्या के आवश्यक गुण तथा नियम -- एकांतचर्या का रहस्य और उसकी योग्यता का अधिकार - मोक्षफल की प्राप्ति । I
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प्रारंभ
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तरियम पदम ठाणं, महावीरेण देखिनं। अहिंसा निउणा दिठा, सबभूएउ संजनो। तत्रेदं प्रथम स्थानं, महावीरेण देशितम् । अहिंसा निपुणा दष्टा, सर्वभूतेषु संयमः ॥
व्रतों में सर्व से श्रेष्ट, अहिंता वीरने कही। सर्व जीव दया पालो, दया का भूत संयम ।
[दश० अ० ६:६]
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द्रुम पुष्पिका
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( वृक्ष के फूल संबंधी ) १
वस्तुका का स्वभाव ही उसका धर्म है। उसके बहुत से प्रकार हो सकते हैं, जैसे- देहधर्म, मनोधर्म, आत्मधर्म । उसी तरह व्यक्तिधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, विश्वधर्म, आदि भी । यहां तो विशेष करके साधुता निवाहने के उस साधुधर्म को समझाया गया है जिसमें मुख्य रूप से नहीं तो गौणरूप में ही इतर धर्मों (व्यक्तिधर्म, समाजधर्म, राष्ट्रधर्म, - और विश्वधर्म) का समावेश होता है।
भगवान महावीर के पाट पर बैठकर उनके जिन प्रवचनों को श्री सुधर्मस्वामीने जंबूस्वामी से कहे थे उन्हीं प्रवचनों को अपने शिष्य मनक के प्रति श्री स्वयंभव स्वामीने इस प्रकार कहा था ।
गुरुदेव वाले :
[1] धर्म, यह सर्वोत्तम ( उच्च प्रकार का ) मंगल, (कल्याण) है । अहिंसा, संयम और तप — यही धर्म का स्वरूप है। ऐसे धर्म में जिसका मन सदैव लीन रहता है, उस पुरुपको देव भी नमस्कार करते हैं।
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टिप्पणी- कोई भी मनुष्य अपना कल्याण (हित) देखे बिना किसी भी शुभ कार्य का प्रारंभ नहीं करता इसलिये कल्याण की सब किसी को आबय
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दशवकालिक सूत्र
फता है। मंगल (कल्याण) के ५ प्रकार हैं : (१) शुद्ध मंगल-पुत्रादि का जन्म; (२) अशुद्ध मंगल-गृहादि नये वनवाना; (३) चमत्कारिक मंगल-विवाहादि कार्य; (४) क्षोण मंगल-धनादि की प्राप्ति और (५) सदा मंगल-धर्मपालन । इन सबमें यदि कोई सर्वोत्तम मंगल हो सकता है तो वह केवल धर्म ही है । दूसरे मंगलों में अमंगल होने को संभावना है किन्तु धर्मरूपी मंगल में अमंगल की संभावना है ही नहीं, वह सदा मंगलमय ही है और सदा मंगलमय ही रहेगा क्योंकि वह पालनेवाले को · सदैव मंगलमय रखता है इसीलिये उसे सर्वोत्तम मंगल कहा है। ___जीवों को दुर्गति में जाने से जो वचावे उसका नाम धर्म है। उस धर्म का समास इन तीनों वस्तुओं में हो जाता है :
अहिंसा-अहिंसा अर्थात् प्राणातिपात से विरति । शुद्ध प्रेम अथवा सच्चा विश्वबंधुत्व भाव तभी पैदा होता है जब हृदय में अनुकंपा-दया का स्रोत उमडने लगता है। यावन्मात्र प्राणियों पर मित्रभाव रखना,. उपयोगपूर्वक जानबूझकर किसीको दुःख पहुंचाने की इच्छा के विना जो कोई भी दैहिक, मानसिक, अथवा आत्मिक क्रिया की जाती है वह सब । वस्तुतः अहिंसक क्रिया है। इस प्रकार की अहिंसा का आराधक मात्र अहिंसक हो नहीं होता किन्तु हिंसा का प्रवल विरोधी भी होता है। - संयम-आस्रव के द्वारों से उपरति (पापकार्यों को रोकना) को कहते . है । संयम के तीन प्रकार हैं : (१) कायिक संयम, (२) वाचिक संयम, और (३) मानसिक संयम । शरीर संबंधी आवश्यकताओं को यथाशक्ति घटाते । जाना इसे कायिक, संयम कहते है। वाणी को दुष्टमार्ग से · रोककर सुमार्गः । पर लगाना यहः वाचिक संयम- है और मन को दुर्विकल्पों से.. बचाकर' सुव्यवस्थित रखना-इसे मानसिक संयम कहते हैं। संयम के १७ मेदों का ' विस्तृत वर्णन आगे किया गया है।
. .. ... .तप-वासना के निरोध · करनेको: तप : कहते हैं। गहरी से गहरी भलीन चित्तवृत्ति की शुद्धि के लिये, आंतरिक तथा वाह्य क्रियाएं करना....
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हम पुष्पिका
इसे ' तपश्चर्या ' कहते हैं । तप के १२ मेद हैं जिनका वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र में किया है ।
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अहिंसा में स्व (अपना) तथा पर ( दूसरों) दोनों का हित है इससे सभी को शांति और सुख मिलता है, इसीलिये हिंसा को धर्म कहा है । संयम से पापपूर्ण प्रवृत्तियों का विरोध होता है, तृष्णा मंद पड जाती है और ऐसे संयमी पुरुष ही राष्ट्रशांति के सच्चे उपकारी सिद्ध होते है 1 अनेक दुःखितों को उनके द्वारा आश्वासन मिलता है, असहाय एवं दीनजनों के करुणाश्रु उनके द्वारा पोंछे जाते हैं, इसीलिये संयम को धर्म कहा है । - तपश्चर्या से अन्तःकरण की विशुद्धि होती है; अन्तःकरण की विशुद्धि से ही - यावन्मात्र जीवों के ऊपर मैत्रीभाव पैदा होता है, इस मैत्रीभाव से आत्मा सब का -कल्याण करना चाहती है, किसी का अहित वह नहीं करती; करना तो दूर रहा -सोचती तक भी नहीं है, इसलिये तपश्चर्या को धर्म कहा है। इस प्रकार इन तत्त्वों द्वारा सामाजिक, राष्ट्रीय, और आध्यात्मिक तीनों दृष्टियों का समन्वय, शुद्धि एवं विकास होता है, इसलिये इन तीनों तत्त्वों की सभी क्रियाएं धर्मक्रियाएं मानी गई है। ऐसे धर्म में जिनका मन श्रोतप्रोत हो रहा है वे यदि मनुष्यों द्वारा ही नहीं किंतु देवों द्वारा भी वंद्य हो तो इसमें आश्चर्य त्या है ? ऐसे धर्मिष्ट के आसपास का वातावरण इतना निर्मल और ऐसा अलौकिक सुन्दर हो जाता है कि वह सबको मोह लेता है और देवताओं के उन्नत मस्तक भी वहां सहज हो झुक जाते हैं ।
[२] जैसे भ्रमर वृक्षों के फूलों में से मधु चूसता है ( रस पीता है) उस समय वह उन फूलों को थोडी सी भी क्षति नहीं पहुंचाता किन्तु फिर भी वह वहां से अपना पोषण ( श्राहार) प्राप्त करता है;
[३] उसी तरह पवित्र साधु संसार के रागबंधनों (ग्रंथी) से रहित होकर इस विश्वमें रहते हैं; जो फूलमें से भ्रमर की तरह इस संसार में मात्र अपनी उपयोगी सामग्री (वस्त्रपानादि) तथा
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४
दशवैकालिक सूत्र
शुद्ध-निर्दोष भित्ता (अन्नपान) और वह भी गृहस्थ के द्वारा दी गई - प्राप्त कर सन्तुष्ट रहते हैं ।
टिप्पणी- दूसरों को पीडा न देना इसका नाम अहिंसा है । दूतरों को पीडा न पहुंचने पावे इस प्रकार बहुत ही थोडे (मात्र जीवन को टिकाये रखने के लिये अनिवार्य आवश्यक वस्तुओं) में जोवननिर्वाह कर लेना इसीका दूसरा नाम संयम है और वैसा करते हुए अपनी इच्छाओं का निरोध करना इसीको तप कहते हैं । इस प्रकार साधक (साधु) जीवन में स्वाभाविक धर्मका व्यावहारिक एव निश्चय दोनों दृष्टियों से पालन स्वयमेव होता रहता है । अमर एवं राधु-इन दोनों में साधु की यही विशेषता है कि भ्रमर तो, वृक्ष के पुष्प की इच्छा हो या न हो फिर भी उसका रस चूसे बिना नहीं मानाता किन्तु निळु तो वही ग्रहण करता है जिसे गृहस्थ श्रद्धा सहित अपनी राजीखुशी से उसे देता है । और बिना दिये हुए तो वह तृय भी किसी का नहीं लेता है ।
[४] वे धर्मिष्ठ श्रमण साधक कहते हैं कि "हम अपनी भिक्षा उस तरह से प्राप्त करेंगे जिससे किसी दाता को दुःख न हो, अथवा. हम इस प्रकार से जीवन वितायेंगे कि जिस जीवन के द्वारा किसी भी प्राणी को हमारे कारण से हानि न पहुंचे " । दूसरी बात यह है कि जैसे भ्रमर अकस्मात प्राप्त हर किसी फूल पर जा बैठता है उस प्रकार ये श्रमण भी अपरिचित घरोंसे (अपने निमित्त जहां भोजन न बनाया गया हो उन्हीं घरों सें ) ही भिक्षा ग्रहण करते हैं ।
टिप्पणी- जो अन्तःकरण की शुद्धि कर यावन्मात्र प्राणियों पर समभाव रखते हुए तपश्चर्या में लीन रहता है उसे 'श्रमण' कहते हैं। श्रमण का जीवन स्वावलंबी होना चाहिये । उसकी प्रत्येक क्रिया हलकी होनी चाहिये । उसको श्रावश्यकताएं अत्यंत परिमित होनी चाहिये । सारांश यह है कि साधुजीवन' अत्यंत त्वार्थहीन एवं निष्पक्षपाती जीवन है और वह ऐसे निःसंग (निरासक्त ) भाव से ही सुरक्षित रह सकता है ।
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दुम पुष्पिका
[२भ्रमर के समान सुचतुर मुनि (जो घर एवं कुटुंब से सर्वथा)
अनासक्त तथा किसी भी प्रकार के भोजन में संतुष्ट रहने के अभ्यासी होने से दमितेन्द्रिय होते हैं, इसी कारण वे 'श्रमण' कहलाते है।
टिप्पणी-अनासक्ति, दान्तता (दमितेन्द्रियता) एवं जो कुछ भी मिल जाय उसीमें सन्तोष रखना ये तीन महान गुण साधुता के हैं। जो कोई भी मन, वचन और काय का दमन, ब्रह्मचर्य का पालन, कपायों का त्याग और तपश्चर्या द्वारा आत्मसिद्धि करता है वही सच्चा साधु है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'द्रुमपुष्पिका' नामक प्रथम अध्ययन संपूर्ण हुआ।
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श्रामण्यपूर्वक
( साधुत्व सूचक)
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इच्छा तो आकाश के समान अनन्त है ! भले ही समस्त विश्व पदार्थों से भरा हो फिर भी उनकी संख्या तो परिमित ही हैं इसलिये इच्छा की अनंतता की पूर्ति उनसे कैसे हो सकती है ! संसार की परिमित वस्तुओंसे अनंत इच्छा का गड्ढा कैसे भरा जा सकता है ?.
यही कारण है कि जहां इच्छा, तृष्णा, अथवा वासना का अस्तित्व है वहां अतृति, शोक और खेद का भी निवास रहता हैं; जहां खेद है वहां पर संकल्प-विकल्पों की परंपरा भी लगी हुई है और जहां संकल्प-विकल्पों की परंपरा लगी हुई है वहां शांति नहीं होती इसलिये शांतिरस के पिपासु साधु को अपने मनको बाह्य इच्छाओं से हटाकर अनन्तता से पूर्ण आत्मस्वरूप में ही संलग्न करना चाहिये - यही सच्चा श्रमणत्व है ।
गुरुदेव बोले :
[१] जो साधु विषयवासना किंवा दुष्ट इच्छाओं का निरोध नहीं कर सकता वह साधुत्व कैसे पाल सकता है ? क्योंकि वैसी इच्छाओं के अधीन होने से तो वह पद पद पर खेदखिन्न होकर संकल्पविकल्पों में जा फँसेगा ।
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श्रामस्य पूर्वक
टिप्पणी-वासना हो अनर्थ का मूल है । यदि उसके वेग को दबाया न गया तो साधुधर्म का लोप ही हो जायगा । संकल्पविकल्पों की वृद्धि होने से मन तदैव चंचल ही बना रहेगा और चित्त की चंचलता पद पद पर खेद उत्पन्न कर उत्तम योगी को भी पतित कर डालेगी ।
[२] वस्त्र, कस्तूरी, अगर, चंदन अथवा अन्य दूसरे सुगंधित पदार्थ, मुकुटादि अलंकार, स्त्रियां तथा पलंग आदि सुख को देनेवाली वस्तुत्रों को जो केवल परवशता के कारण नहीं भोगता है उसे साधु नहीं कहा जा सकता ।
टिप्पणी- परवशता शब्द का यहां बड़ा गंभीर अर्थ है । इस शब्द का उपयोग करके ग्रंथकारने केवल बाह्य परिस्थितियों का ही नहीं किंतु श्रात्मिक भावोंका भी बड़ी गहरी मार्मिक दृष्टि से, निर्देश किया है। परवशता से यहां यह आशय है कि बाह्य सुख साधन ही न मिलें जिससे उन्हें भांगा जा सके । आत्मिक भाव के पक्ष में इसका आशय यह है कि बाह्य पदार्थों को भोगने की इच्छा बनी हुई है और योगायोग से वे मिल भी गये हैं किन्तु कर्मोदय ऐसा विकट हुआ है कि उनको भोगा ही नहीं जा सकता । रोगादिक अथवा ऐसे हो दूसरे अनिवार्य प्रसंग भोगों को भोगने नहीं देते । ऐसी दशा में उन भोगों को नहीं भोगने पर भी उसे कोई 'आदर्श त्यागी नहीं कहेगा क्योंकि यद्यपि वहां पदार्थों का भोग नहीं है किन्तु उन पदार्थों को भोगने की लालसा का अस्तित्व तो है और यह लालसा ही तो पाप है । इसीलिये जैनधर्म में बाह्य वेश को प्रधानता नहीं दी गई । जो कुछ भी वर्णन हुआ है वह केवल आत्मा के परिणामों को लक्ष्य करके ही हुआ है, बाह्य वेश को नहीं ।
[३] किन्तु जो साधु मनोहर एवं इष्ट कामभोगों को, श्रनायास प्राप्त होने पर भी, शुभ भावनाओं से प्रेरित होकर स्वेच्छा से त्याग देता है वही 'आदर्श त्यागी ' कहलाता है ।
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दशवकालिक सूत्र
टिप्पणी-मनोरन एवं दिव्य भोगों की संपूर्ण सामग्री हो, उनके भोग सकने योग्य त्वत्य-सुन्दर शरीर भी हो, संपूर्ण स्वतंत्रता हो फिर भी वैराग्य पूर्वक उसका त्याग कर देनेवाला ही आदर्श त्यागी: कहा जा सकता है। यद्यपि भोगों के अभाव में भी त्याग की भावना का होना वडा हो कठिन है किन्तु इस गाथा में उत्तम त्याग को अपेक्षा से उपरोक्त कथन किया गया है। उत्तम त्याग वही है जो आनाकी गहरी वैराग्यता से पैदा होता है। [४] समदृष्टि से (संयम के अभिमुख दृष्टि रखकर) संयम में
विचरने पर भी कदाचित् (भोगे हुए भोगों के स्मरण से अथवा अनभुक्त भोगों को भोगने की वासना जागृत होने से) उस संयमी साधु का चित्त संयम मार्ग से चलित होने लगे तो उस समय उसको इस प्रकार चिन्तवन करना चाहिये: "विषयंभोगों की सामग्री मेरी नहीं है और मैं उनका नहीं हूं अथवा वह स्त्री मेरी नहीं है और में भी उसका नहीं हूं" । इस तरह सुविचार के अंकुश से उस पर से अपनी आसक्ति हटावे ।
टिप्पणी-वासना का वीज इतना सूक्ष्म है कि कई वार वह नष्ट हुआ सा मालूम होता है किन्तु छोटा सा वाहसंयोग मिलते ही उसमें अंकुर निकल आते हैं । स्थनेमि और राजोमतीका उतराध्ययन सूत्रमें दिया हुआ प्रसंग इस दातको पुष्टि करता है। यदि कदाचित् संयम से चित्त विचलित होता हो तो उसे स्थिर करने वाले पुष्ट विचारों एवं उपायों को जानने के लिये देखो इसी सूत्र के अंतमें दी हुई चूलिका नंदर १।।
मनोनिग्रह क्रियात्मक उपाय [श (महापुरुषोंने कहा है किः) "शरीर की सुकोमलता त्याग
कर उस समयकी ऋतु के अनुसार शीत अथवा ताप (गर्मी) की आतापना · लो अथवा अन्य कोई अनुकूल तपश्चर्या करो और इसप्रकार से कामभोगों की बांछा को लांघ जाने पर दुःख को
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श्रामण्य पूर्वक
भी पार कर सकोगे। द्वेपको काट डालो और श्रासक्तिको दूरकर दो बस ऐसा करने से ही इस संसार में सुखी हो सकते हो।
टिप्पणी-कामसे क्रोध, क्रोधसे संमोह, संमोह से रागद्वेष, और रागद्वेष से दुःख क्रमशः पैदा होते हैं। इस तरह यदि वस्तुतः देखा जाय तो मालूम होगा कि दु:ख का मूल कारण वासना है इसलिये वासना का क्षय करने की क्रियारूपी तपश्चर्या करना यही दुःखनाश का एकतम उपाय है।
__ यहां पर रथनेमि तथा राजीमती का दृष्टांत देकर उक्त सत्यको और भी स्पष्ट करते है।
रथनेमि राजीमती का दृष्टांत सोरठ देशमें अलकापुरी के समान विशाल द्वारिका नामकी एक नगरी थी। वहां विस्तीर्ण यादवकुल सहित श्रीकृष्ण राज्य करते थे। उनके पिताका नाम वसुदेव था। वसुदेव के बड़े भाई का नाम समुद्रविजय था। उन समुद्रविजय के शिवादेवी नामकी पटरानी से उत्पन्न सुपुत्रका नाम नेमिनाथ था।
नेमिनाथ जब युवा हुए तब कृष्ण महाराज की प्रबल इच्छा से उनकी सगाई उग्रसेन (जिनका दूसरा नाम भोजराज किंवा भोगराज भी था) राजा की धारणी नामकी रानी से उत्पन्न राजीमती नामकी परम सुन्दरी कन्या के साथ हुई थी।
श्रावण शुक्ला षष्ठी के शुभ मुहूर्त में बडे ठाटवाट के साथ वे कुमार नियत नियमों के अनुसार विवाह करने के लिये श्वसुर गृह की तरफ जा रहे थे। उसी समय मार्ग में पिंजरों में बंद पशुओं की पीडित पुकार उनके कानों में पड़ी। सारथी को पूंछने पर उन्हें . मालूम हुआ कि स्वयं उन्हीं के विवाह के निमित्त से उन पशुओं का वध होने वाला था।
* डॉ. हर्मन जैकोबी उसको भोजराज सिद्ध करते हैं। .
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दशवैकालिक सूत्र
यह सुनते ही उन्हें यह तथा इसी प्रकार के अन्य अनेक अनर्थ एक ही कार्यमें दीखने लगे और इस संसार के स्वाथों से उन्हें परम वैराग्य हुआ । पूर्व संस्कारों से उसको और भी वेग मिला और उनकी भावना का प्रवाह थोडी ही देर में पलट गया। वहीं से रथ लोटाकर वे अपने घर पर आये और खूब मनन करने के बाद अन्तमें उनने त्यागमार्ग अंगीकार किया। उनकी उत्कट भावना देखकर दूसरे एक हजार साधक भी उनके साथ २ योगमार्ग की प्राराधना के लिये निकल पडे ।
१०
निमित्त से प्रबल वैराग्य के सहचरियों के साथ उनने प्रवज्या
उनके बाद राजीमती भी इसी साथ साध्वी हो गईं। सात सौ धारण की।
एक समय की बात है कि रैवतक पर्वत पर नेमिनाथ भगवान को वंदना करने के लिये जाते समय मार्ग में खूब ही जलवृष्टि हुई जिससे राजीमती के सत्र वस्त्र भीग गये। वे पास ही की एक एकांत - गुफामें उन वस्त्रों को उतार कर सुखाने लगीं ।
उस समय उस गुफामें ध्यानस्थ बैठे हुए रथनेमि की दृष्टि उन 'पर पडी । रथनेमि नेमिनाथ के छोटे भाई थे और ये बालवयमें ही योगमार्गमें प्रवृत्त हुए थे । राजीमती के यौवनपूर्ण उस नयनाभिराम सौन्दर्य को देखकर रथनेमिका चित्त डोलायमान होने लगा । फिर वहां संपूर्ण एकांत भी थी इस कारण उनकी दवी हुई कामवासना जागृत होगई । वासना ने उन्हें इतना व्याकुल बना दिया कि उन्हें अपनी साधु अवस्था का भी भान न रहा । अन्तमें उस साध्वी महासतीने रथनेमिको किस प्रकार पुनः संयम मार्गपर स्थित किया उसे जानने के लिये रथनेमि - राजीमती के मनोरंजक संवाद को पढो जो उत्तराध्ययन के २२ वें अध्ययन में दिया गया है ।
* उत्तराध्ययन सूत्रका हिंदी अनुवाद - पृष्ठ नं. २२ह से देखो ।
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श्रामण्यपूर्वक
योगेश्वरी राजीमती-देवीने जिन वचनरूपी अंकुशसे रथनेमिको सुमार्ग पर चलाया उन वचनों का सारांश नीचे की गाथाओं में दिया गया है:[६] अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प प्रज्वलित अग्निमें जलकर
मर जाना पसंद करते हैं किन्तु उगले हुए विपको पुनः पीना
पसंद नहीं करते। [७] है अपयश के इच्छुक ! तुझे धिक्कार है कि तू वासनामय जीवन
के लिये वमन किये हुए भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करता है। ऐसे पतित जीवन की अपेक्षा तो तेरा मर जाना
बहुत अच्छा है। [4] मैं भोजकविष्णु की पौत्री तथा महाराज उग्रसेन की पुत्री हूं
और तू अंधकविष्णु का पौत्र तथा समुद्रविजय महाराज का पुत्र है। देख, हम दोनों कहीं गंधनकुल के सर्प जैसे न बन जाय ! हे संयमीश्वर ! निश्चल होकर संयममें स्थिर दोओ!
टिपणी-हरिभद्रसूरि के कथन के आधार पर डॉ. हमनजैकोबी अपनी टिप्पणो में लिखते हैं कि भोगराज (किंवा भोजराज) यह उग्रसेन महाराज का ही दूसरा नाम है। अंधकविष्णु यह समुद्रविजय महाराजका दूसरा नाम है। [8] हे मुनि । जिस किसी भी स्त्रीको देखकर यदि तुम इस तरह
काम मोहित हो जाया करोगे तो समुद्र के किनारे पर खडा हुआ हड नामका वृक्ष, जैसे हवा के एक ही झोके से गिर पडता है, वैसेही तुम्हारी आत्मा भी उच्च पदसे नीचे गिर
जायगी। १०] ब्रह्मचारिणी' उस साध्वी के इन आत्मस्पर्शी अंथपूर्ण वचनों को
सुनकर, जैसे अंकुशसे हाथी वशमें आजाता है वैसेही रथनेमि शीघ्र ही वश में आगये और संयम धर्ममें बराबर स्थिर हुए।
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दशवकालिक सूत्र
टिप्पणी-यहां हाथी का दृष्टांत दिया है तो स्थनेमि को हाथी, राजीमती को महावत और उनके उयदेशको अंकुश समझना चाहिये। रथनेमि का विकार क्षणमात्रमें शांत होगया। आत्मभान जागृत होने पर उन्हें अपनी इस कृति पर घोर पश्चात्ताप भी हुआ किंतु जिस तरह आकाश, वादल घिर आने से कुछ देरके लिये सूर्य ढंक जाता है किंतु थोडी ही देर बाद वह पुनः अपने प्रचंड तापसे चमकने लगता है, वैसे ही वे भी अपने संयम से दीम होने लगे। सच है, चारित्र का प्रभाव क्या नहीं करता ? [११] जिस तरह उन पुरुष शिरोमणि रथनेमिने अपने मनको विषय
भोगसे क्षणमात्र में हठा लिया वैसे ही विक्षचण तथा तत्त्वज्ञ पुरुष भी विषयभोगों से निवृत्त होकर परम पुरुषार्थ में संलग्न हो।
टिप्पणी-चित्त वंदर के समान चंचल है। मन का वेग वायु के -समान है। संयम में सतत जागृति एवं हार्दिक वैराग्य रखकला ये दोनों उसकी लगामें हैं। लगामें ढीली होने लगें तो तुरन्तही चिन्तन द्वारा उन्हें पुनः खोचें ।
मानसिक चिन्तन के साथ ही साथ यथाशक्य शारीरिक संयम को भी आवश्यकता है-इस सत्य को कभी भी भूल न जाना चाहिये।
शरीर, प्राण, और मन इन तीनों पर काबू रखने से इच्छाओं का निरोध होता है और शांति की उपासना (साधना सिद्धि) होती रहती है। ज्यों २ रागद्वेषका क्रमशः क्षय होता जाता है त्यों २ आनंद का साक्षात्कार होता जाता है।
ऐसा मैं कहता हूं:'इस तरह 'श्रामण्यपूर्वक' नामक दूसरा अध्ययन समाप्त हुआ।
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क्षुल्लकाचार
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( लघु आचार)
३
त्याग, व्यक्तिगत आध्यात्मिक विकासमें जितना सहायक होता है उतना ही समाज, राष्ट्र और विश्वको भी प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष रूपमें उपकारक होता है ।
जिस समाज में आदर्श त्याग की पूजा होती है वह समाज निःस्वार्थी, संतोषी एवं प्रशान्त अवश्य होगी। उसकी निःस्वार्थता राष्ट्रकी पीडित प्रजाको आश्वासन दे सकेगी और उसकी शांति के आंदोलन विश्वभरमें शांतिका प्रचार करेंगे ।
इसी कारण, जिस देशमें त्यागकी महत्ता है वहां सुख का सागर हिलोरे मारकर बहता है । उस सागर के शांत प्रवाहों में वैरियों के वैमनस्य लय हो जाते हैं और विरोधक शक्तियों के प्रचंड बल भी धीमे . २ शांत पड़ जाते हैं ।
•
किन्तु जिस देश की प्रजामें भोगवासना का ही प्राधान्य है उस देशमें धन होने पर भी स्वार्थ, मदांधता, राष्ट्रद्रोह, इत्यादि शांतिके शत्रुओंका राज्य छाए बिना न रहेगा जिसका परिणाम आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, कभी न कभी उस राष्ट्रकी शांति के नाश के रूपमें परिणत हुए बिना न रहेगा। सारांश यह है कि आदर्श
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दशवैकालिक
त्यागमें ही विश्वशांति का मूल है और वासनात्रों का पोपण ही विश्व की अशांति कारण है ।
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आदर्श त्याग के लिये तो त्याग ही जीवन है । उस सुन्दर जीवन में साम्प्रदायिकता का विष न मिलने पावे, अथवा जीवन कलुपित न होने पावे उसके लिये साधक दशामें त्यागी को खूब ही सावधान रहना पड़ता है । इस कारण उस सावधानता एवं व्यवस्थाको बनाये रखने के लिये ही आध्यात्मिक ददा के महान चिकित्सक महर्षि देवों ने गहरे मनोमंथन के बाद साधुता के संरक्षण के लिये सूक्ष्म से लेकर बड़े से बड़े आकार के ५२ अनाचीर्ण (निषेधात्मक ) नियम बताये हैं जिनका वर्णन इस अध्याय में बडी सुन्दर रीति से किया गया है।
गुरुदेव बोले :
[१] जिनकी आत्मा संयम में सुस्थिर हो चुकी है, जो सांसारिक वासनाओं अथवा आन्तरिक एवं बाह्य परिग्रहों से मुक्त हैं, जो अपनी तथा दूसरों की आत्माओं को कुमार्ग से बचा सकते हैं, अथवा जो छकाय ( यावन्मात्र प्राणियों ) के रक्षक हैं, और जो आंतरिक ग्रंथी ( गांठों ) से रहित हैं उन महर्पियों के लिये जो श्रनाचीर्ण ( न श्राचरने योग्य ) हैं वे इस प्रकार है :
:
टिप्पणी- स्त्री, धन, परिवार, इत्यादि बाह्य परिग्रह हैं और क्रोधादि आत्मदोष आंतरिक परिग्रह है । गाथामें आये हुए त्रायी शब्दका अर्थ
"
रक्षक 'है 1
छकायमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रस · ( चलते फिरते प्रांणी ) इस प्रकार समस्त जीवों का समास हो जाता है ।
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सुलकाचार
[२] ५२ प्रकार के अनाचीणों के नाम यथाक्रम इस प्रकार हैं:
(१) प्रौदेशिक (अपने को उद्देश करके अर्थात् खास निज के लिये बनाये हुए भोजन को यदि साँधु ग्रहण करे तो उसको यह दोष लगता है), (२) क्रीतकृत (साधुके निमित्त ही खरीद कर लाये हुए भोजन को ग्रहण करना), (३) नित्यक (हमेशा एक ही घर से, जो आमंत्रण दे जाता हो वहां
आहार लेना), (४) अमिहत (अमुक दूरीसे साधु के लिये उपाश्रयादि स्थानमें लाए गये आहार को लेना), (२) रात्रीभुक्ति (रातमें भोजन करना), (६) स्नान करना, (७) चंदन
आदि सुगंधी पदार्थों का उपयोग करना, (८) पुष्पों का उपयोग करना, (6) पंखा से हवा करना;
टिप्पणी-भोजन का निमंत्रण लेनेमें अपना निमित्त होजाने की पूरी संभावना है इसीलिये शास्त्रीय दृष्टि से उस आहार का साधुके लिये वयं कहा है। [३] (१०) संनिधि (अपने अथवा दूसरे किसी के लिये घी, गुड़,
अथवा अन्य कोई प्रकार का आहार रात्रिमें संग्रह कर रखना), (११) गृहिपात्र (गृहस्थ के पात्रों-बर्तनों में श्राहारादि करना), (१२) राजपिंड (धनिक लोग अपने लिये बलिष्ठ औषधि आदि डालकर पुष्टिकारक भोजन बनाते हैं ऐसा जानकर उस भोजन को ग्रहण करने की इच्छा करना), (१३) किमिच्छक (आपको कौनसा भोजन रुचिकर है, अथवा श्राप क्या खाना चाहते हैं, ऐसा पूंछकर बनाया गया भोजन अथवा दानशाला का भोजन ग्रहण करना), (१४) संवाहन (अस्थि, मांस, त्वचा, रोम इत्यादि को सुख देनेवाले तैल आदि का मर्दन कराना), (११) दंत प्रधावन (दांतौन करना), (१६) संप्रश्न (गृहस्थों के शरीर अथवा उनके गृहसंबंधी कुशलक्षेम समाचार पूंछना और उस वार्तालाप
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दशवैकालिक
में अत्यधिक रस लेना), (१७) देहलो कन (दर्पण अथवा अन्य ऐसे ही साधन द्वारा अपने शरीर की शोभा देखना)
टिप्पणी-दलिष्ठ (पुष्टिकारक) आहार करने से शरीर में विकारों के जागृत हो जाने की संभावना रहती है और विकारों के दढने से संयम में रुति होने का डर रहता है, इसीलिये पुष्टिकर भोजन ग्रहण करने का खास निषेध किया गया है। दानशाला का आहार लेने से दूसरे याचकों को दुःख होने की संभावना है इसीलिये उसे वर्ण्य है। [१] (1) अष्टापद (जुत्रा खेलना), (१६) नालिका (शतरंज आदि
खेल खेलना), (२०) छत्र धारण करना, (२१) चिकित्सा (हिंसा निमित्तक औषधोपचार कराना), (२२) पैरों में जूते पहिरना, (२३) अग्नि जलाना।
टिप्पणी-'नालिका' यह प्राचीन समय का एक प्रकार का खेल है किंतु यहां इत शब्दसे चौपट, गंजीफा (तारा), शतरंज आदि सभी खेलों से अराय है। ये सभी प्रकर के खेल साधु के लिये वर्ण हैं क्योंकि उनसे अनेक शेर लगने की संभावना है। [7 (२४) शव्यातरपिंड (जिस गृहस्थने रहने के लिये आश्रय दिया
हो उसी के यहां भोजन लेना), (२१) श्रासदी (संडा एवं पलंग आदि का उपयोग), (२६) गृहान्तर निपया (दो घरों के बीचमें अथवा गृहस्थ के घर बैठना, (२७) शरीर का उद्वर्तन करना (उवटन आदि लगाना)
टिप्पणी-जिस गृहस्थकी आशासे साधु उसके मकान में ठहरा हो उसके घर के अन्न जल को वयं इसलिये कहा है कि वह गृहस्य साधु को अन्वागत समझकर उसके निमित्त भोजन वनवायेगा और इस कारण से वह भोजन औदेशिक होने से दूपित हो जायगा।
आसंदी-यह हिंडोला या झूला अथवा सांगामांची जैसा गृहस्य का होता है। ऐसे स्थानों पर बैठने से प्रमादादि दोषों की संभावना है।
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कुल्लकाचार
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दो घरों के बीचमें बैठने से उन घरों के आदमी, संभव है, उसे चोर मानलें।
रोगी, अशक्त, अथवा तपस्वी साधु यदि अपने शरीर की प्रशक्ति के कारण किसी गृहस्थ के यहां बैठे तो उसे इस वातकी छूट है। उक्त कारण के सिवाय अन्य किसी भी कारण से मुनि गृहस्थ के यहां न बैठे। इसका कारण यह है कि गृहस्थ के यहां बैठने उठने से परिचय बढने की और उस बढे हुए परिचय के कारण संयमी जीवनमें विक्षेप होने की पूरी २ संभावना है। [६] (२८) वैयावत्य (गृहस्थ की सेवा करना अथवा उससे
अपनी सेवा कराना), (२६) जातीय आजीविक वृत्ति (अपना कुल अथवा जाति बताकर मिक्षा लेना), (३०) तप्तानिवृतभोजित्व (सचित्त जल का ग्रहण), (३१) आतुरस्सरण (रोग किंवा सुधा की पीडा होने पर अपने प्रिय स्वजन का नाम ले २ कर सरण करना अथवा किसी की शरण मांगना)
टिप्पणी-यहां 'सेवा' शब्दका आशय अपना शरीर दबवाना, मालिश कराना आदि क्रियाओं के कराने का है। निष्कारण ऐसी सेवाएं कराने से आलस्यादि दोषों के होने की संभावना है। वर्तन के ऊपर, मध्य और नीचेइन तीनों भागों में जो पानी खूब तपा हो उसे 'अचित्त' पानी कहते हैं। [0] (३२) सचित्त मूली, (३३) सचित्त अदरख, और . (३४) सचित्त
गन्ना, ग्रहण करना। इसी प्रकार (३५) सचित्त सूरण आदि कंदो को, (३६) सचित्त जडीबूटिओं को, (३५) सचित्त फलों को, और (३८) सचित्त बीजों को ग्रहण करना।
* कई एक वस्तुएं ऐसी हैं जिनका सामान्यरूपसे सचित्त संबंधी निणय नहीं किया जा सकता । इस संबंध में सचित्त अवित्त निर्णायक फमिटी • का नियंध मारकरस रिपोर्ट में छपा है, उसे देख ले।
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दशवकालिक सूत्र टिप्पणी-जिसमें जीव होता है उसे 'सचित्त' कहते हैं और जीवरहित 'अचित्त' कहते हैं। एक जाति में दूसरी जाति की वस्तु मिला देने से अथवा पकाने से दोनों वस्तुएं अचित्त हो जाती है। [+] (३१) खान का संचल, (४०) सैंधव नमक, (४१) सामान्य
नमक, (४२) रोम देश का नमक, (रोमक), (४३) समुद्र का नमक (४४) खारा (पांशु लवण) तथा (४५) काला नमक आदि अनेक प्रकार के नमक यदि सचित्त ग्रहण किये जाय तो
दूपित हैं। [1] (४६) धूपन (धूप देना अथवा वीडी आदि पीना), (४७) वमन
(औपधों के द्वारा उल्टी करना), () बस्तिकर्म (गुह्य स्थान द्वारा बलिष्ट औषधियों को शरीर में प्रविष्ट करना अथवा हठयोग की क्रियाएं करना), (४६) विरेचन (निष्कारण जुलाब लेना), (१०) नेत्रों की शोभा बढाने के लिये अंजन आदि लगाना, (११) दांतों को रंगीन बनाना, (१२) गात्राभ्यंग (शरीर की टीपटाप करना अथवा शरीर को सजाना)
टिप्पणी-धूपन' शब्द का अर्थ वस्त्रादिक को धूप देना भी होता है। खूब खाजाने पर उसे औषधियों द्वारा उल्टी अथवा जुलाव द्वारा निकाल डालने का प्रयत्न करना भी दूषण है इसी आशयसे वमन एवं विरेचन इन दोनों का निषेध किया है। [20] संयम में संलग्न एवं द्रव्य (उपकरण) से तथा भाव (मोधादि
कपायों) से हलके निर्मथ महर्पियों के लिये उपर्युक १२ प्रकार ' की क्रियाएं अनाचीर्ण (न आचरने योग्य) हैं। [११] उपर्युक्त अनाचार्यों से रहित; पांच प्रास्रवद्वारों के त्यागी
मन, वचन, और काय इन तीन गुप्तियों से गुप्त (संरक्षित);
क्षाय के जीरे के प्रतिपालक (रतक): पंचेन्द्रियों का. चमन करनेवाले, धीर एवं सरल स्वभाषी जो निग्रंथ मुनि होते है।
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पुलकाचार
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टिप्पणी-मिथ्यात्व (अशान), अव्रत, कपाय, प्रमाद और अशुभ योग इन ५ प्रकारों से पापों (कर्मों) का आगमन होता है इसलिये इन्हें 'आस्रव द्वार' कहते हैं। [१२] वे समाधिवंत संयमी पुरुष ग्रीष्म ऋतुमें उग्र आतापना (गर्मी
का सहना) सहते हैं। हेमंत (शीत) ऋतु में वस्त्रों को अलग कर ठंडी सहन करते हैं और वर्षाऋतु में मान अपने स्थानमें ही अंगोपांगों का संवरण (रोककर) कर बैठे रहते हैं।
टिप्पणी-साधुजन तीनों ऋतुओं में शरीर और मन को दृढ बनाने के लिये भिन्न २ प्रकार की तपश्चाएं किया करते हैं । अहिंसा, संयम, और तपकी त्रिपुटी की आराधना करना यही साधुता है और भिन्न २ ऋतुओं में कष्ट पड़ने पर भी उसका प्रतीकार न करने में ही साधुत्व की रक्षा है। [१३] परिपह (अकस्मात पाने वाले संकटों) रूपी शत्रुओं को
जीतनेवाले, मोह को दूर करनेवाले और जितेन्द्रिय (इन्द्रियों के विपयों को जीतनेवाले) महर्षि सय दुःखों का नाश करने
के लिये संयम एवं तपमें प्रवृत्त होते हैं। [१५] और उनमें से बहुत से साधु महात्मा दुष्कर तप करके और
अनेक असह्य कष्ट सहन करके उच्च प्रकार के देवलोक में जाते । है और बहुत से कर्म रूपी मल से सर्वथा मुक्त होकर सिद्ध
(सिद्ध पदवी को प्राप्त) होते हैं। [१] (जो देवगति में जाते हैं वे संयमी पुरुप पुनः मृत्युलोक में
पाकर) छकाय के प्रतिपालक होकर संयम एवं तपश्चर्या द्वारा पूर्वसंचित.समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्धिमार्ग का आराधन करते हैं और वे क्रमशः निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी-जीवनपर्यंत अपने निमित्त (कारण) से किसी को दुःख न पहुंचे कैसी जागृत वृत्ति से रहना मौर निरंतर साधना करते रहना यही भनयधर्म का शुख ध्येय है।
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दशवकालिक सूत्र
उस ध्येयको निवाहने के लिये अपरिग्रह बुद्धि, भाहार शुद्धि, गृहत्य जीवन की आसक्तिले अपनी साधुता का संरक्षण, भोजन में परिमितता और रसातति का त्याग-प्रादि सभी कायिक संयम के नियम है। मित तरह मानसिक एवं वाचिक संयम आवश्यक है उसी तरह कायिक संयम की भी आवश्यक्ता है क्योंकि कायिक संयम ही मानसिक एवं वाचिक संयन की नींव है । उसको मजवत रखने में ही सधुता रूपी मंदिर को सुरक्षा है
और साधुजीवन जितना ही अधिक स्वावलंबी एवं निःस्वार्थी बनेगा उतना ही वह गृहस्थ जीवन के लिये उपकारक है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'दुल्लकाचार' संबंधी तीसरा अध्ययन समाप्त हुआ।
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षड् जीवनिका
(समस्त विश्व के छ प्रकार के जीवों का वर्णन)
गद्य विभाग भोग की वासनामें से तीव्रता मिटकर उस तरफ की इच्छा के वेगके मंद पडजाने का नाम ही वैराग्य हैं।
वह वैराग्य दो प्रकार से पैदा होता है; (१) विलास के अतिरेक से प्राप्त हुए मानसिक एवं कायिक संकट से, और (२) उसमें (पदार्थ में अभीप्सित) इष्ट तृप्ति के अभाव का अनुभव । इन कारणों में से वह या तो स्वयं जागृत होजाता है और कभी २ उसकी जागृति में किसी प्रबल निमित्त की प्रेरणा भी मिल जाती है।
यह वैराग्यभावना विवेकबुद्धि को जागृत करती है और तब से वह साधक चलने में, उठने में, बोलने में, वैठने में, आदि छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी क्रिया में उसकी उत्पत्ति, हेतु और उसके परिणाम का गहरा चिंतन करनेका अभ्यास करने लगता है।
इस स्थिति में वह अपनी आवश्यकताओं को घटाता जाता है और आवश्यकताओं के घटने से उतका पाप भी घटने लगता है। इसी को शनपूर्वक संयम कहते हैं।
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दशवैकालिक सूत्र
उस संयम की प्राप्ति होने के बाद ही त्याग की भूमिका तैयार होती है। जब वह साधक प्रत्येक पदार्थ की उपरते अपने स्वामित्व भाव को छोड देता है और जब वह अपने जीवन को फूल जैसा हलका बना लेता है तभी उसको जैन श्रमण को योग्यता प्राप्त होती है ।
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वैसी योग्यता प्राप्त होने के बाद वह स्वयं किसी पीट, मेधावी. तमयज्ञ एवं समभावी गुरुको ढूंढ लेता है तथा श्रमणभावकी आराधना के लिये गृहस्थका स्वांग छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर लेता है और श्रमणकुल में प्रविष्ट होता है ।
श्रमणकुल में प्रविष्ट होने के पहिले गुरुदेव शिष्यके मानस (हृदय) की संपूर्ण चिकित्सा करते है और साधक की योग्यता देखकर त्यागधर्म की जवाबदारी ( उत्तरदायित्वं ) का उते भान कराते हैं । उसे श्रमणधर्मका बोध पूर्ण यथार्थ रहत्य समझाकर अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, तथा अपरिग्रह - इन पांचों महाव्रतों के संपूर्ण पालन तथा - रात्रिभोजन के सर्वथा त्याग की कठिन प्रतिज्ञायें लिवाते है । इन प्रतिज्ञाओं का उसे आजीवन पालन करना पडता है । वह आत्मार्थी साधक भी विवेकपूर्वक प्रतिज्ञाओं को स्वीकार करता है और उसके बाद अपने संयमी जीवन को निभाते हुए भी पृथ्वी से लेकर वनस्पति काय तकके स्थिर जीवों, छोटे बड़े चर जन्तुओं तथा अन्य प्राणियों की रक्षा कैसे करता है इसका सविस्तर वर्णन इस अध्ययन में किया है ।
गुरुदेव बोले :- ..
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सुधर्म स्वामीने अपने सुशिष्य जम्बूस्वामी को लक्ष्य कर यह सुना है कि षड्जीवनिका नामक गोत्रीय श्रमण तपस्वी भगवान उन प्रभुने इस लोक में उस
कहा धाः-हे आयुष्मन् जंबू ! मैंने एक अध्ययन है, उसे काश्यप महावीरने कहा है । सचमुच ही
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पडू जीवनिका
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पड्जीवनिका की प्ररूपणा की है, सुंदर प्रकार से उसकी प्रसिद्धि की है और सुन्दर रीतिसे उसको समझाया है ।
शिष्यने पूंछा:- क्या उस अध्ययन को सीखने में मेरा कल्याण है ? गुरुने कहा :- हां, उससे धर्म का बोध होता है । शिप्यने पूंछा:- हे गुरुदेव ! वह पड्जीवनिका नामका कौनसा अध्ययन है जिसका काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान महावीर प्रभुने उपदेश किया है, जिसकी प्ररूपणा एवं प्रसिद्धि की है और जिस अध्ययन का पठन करने से मेरा कल्याण होगा ? जिससे मुझे धर्मबोध होगा ऐसा वह अध्ययन कौनसा है ?
गुरुने कहा :- हे श्रायुष्मन् ! सचमुच यह वही पड्जीवनिका मामका अध्ययन है जिसका काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान महावीरने उपदेश किया है, प्ररूपित किया है और समझाया है । इस अध्ययन के सीखने से स्व कल्याण एवं धर्मबोध भी होगा । यह अध्ययन इस प्रकार है: ( श्रव छकाय के जीवों के नाम पृथकू पृथक् गिनाते हैं) (१) पृथ्वीकाय संबंधी जीव, (२) जलकाय संबंधी जीव, (३) श्रनिकाय संबंधी जीव, (४) वायुकाय संबंधी जीव, (५) वनस्पत्तिकाय संबंधी जीव और (६) सकाय संबंधी जीव ।
टिप्पणी:-जिन जीवों का दुःख प्रत्यक्ष न देखा जा सके किन्तु अनुमान से जाना जा सके और जो चलता फिरता न हो ( स्थिर रहता हो ) उनको ' स्थावर जीव ' कहते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और वनस्पति काय के जीव ' स्थावर जीव' कहे जाते हैं । जो जीव अपने सुख दुःख को प्रकट करते हैं और जिनमें चलने फिरने की शक्ति है, उन जीवों को ' त्रस जीव' कहते हैं ।
[१] पृथ्वीका में अनेक जीव होते हैं । पृथ्वीकाय की जुदी जुदी खंडकायों में भी बहुत से जीव हुआ करते हैं । पृथ्वी कायिक
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२४
दशवकालिक सूत्र
जीव को जबतक अग्निकायिक इत्यादि दूसरी (पृथ्वीकायिक के सिवाय और कोई दूसरी) जाति का शस्त्र न परिणमे (लगे) तवतक पृथ्वी सचित्त (जीवसहित) कहलाती है । पृथ्वीकायिक जीवों का नाश अग्निकायिक श्रादि जुदी जातिके
जीवों द्वारा हो जाता है। [२] पानीकी एक बूंदमें असंख्य (संख्या का वह बडा परिमाण
जो अंकों द्वारा प्रकट न किया जा सके) पृथक् २ जीव होते हैं । उनको जबतक अग्निकायिक इत्यादि दूसरी (जलकायिक जीव के सिवाय और कोई दूसरी) जाति का शस्त्र न परिणमे (लगे) तबतक जल सचित्त कहलाता है किन्तु अन्य जातीय जीवों के साथ संपर्क होते ही उनका नाश हो जाता है और कुछ काल तक वे अचित्त (जीवरहित) ही रहते हैं।
टिप्पणी-शास्त्रमें एक जाति के जीवों को दूसरी जाति के जीवों के लिये 'शहा ' कहा है । अर्थात् जिसतरह शस्त्र द्वारा मनुष्यों का नाश होता है उसी तरह परस्पर विरोधी स्वभाव के जीव एक दूसरे का ‘शस्त्र' के समान नाश करते है जैसे अग्निकायिक जीव जलकायिक जीवों के लिये शस्त्र ( अर्थात् नाशक ) हैं उसी तरह जलमायिक जीव अनिकायिक जीवों के लिये भी शस्त्र हैं । इसी दृष्टिसे ग्रंथ में ' नाश करने की क्रिया' का उल्लेख न कर स्वयं उनको गुणधर्मानुरूप 'शरू' कहा है ।
आधुनिक विज्ञानने यह सिद्ध कर दिया है कि जल की एक बूंद में बहुतसे सूक्ष्म जन्तु होते हैं । जो वात पहिले केवल अनुमान अथवा कल्पना मानी जाती थी वह आज सूक्ष्मदर्शक यंत्र (Microscope ) द्वारा प्रत्यक्ष सत्य सिद्ध हो चुकी है। [३] अग्नि की एक छोटी सी चिनगारी में अग्निकायिक असंख्य
जीव रहते हैं। उनको जबतक जलकायिक इत्यादि दूसरी
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पडूं जीवनिका
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(अग्निकायिक जीव के सिवाय और कोई दूसरी ) जाति का शस्त्र न परिणामे (लगे) तबतक श्रग्नि सचित्त कहलाती है किन्तु अन्य जातीय जीवों के साथ संपर्क होते ही उनका नाश हो जाता है और उनके जीवरहित हो जाने से अनि 'चित्त ' कहलाती है ।
[४] वायु कायमें भी पृथक् २ अनेक जीव होते है और जबतक उनका अन्य जातीय जीव के साथ संपर्क न हो तबतक वह सचित रहती हैं किन्तु वैसा संपर्क होते ही वह श्रचित्त हो जानी है ।
द्वारा हवा करने से वायुकायिक
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शस्त्र कहा गया है।
पांचों प्रकार के स्थावर
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टिप्पणी- पंखा (वीजना) आदि , जीवों का नाश होता है इसलिये उसे वायु खास ध्यान देने की बात यह है कि जीवों को पुनः पुनः 'काय' कहा गया है, जैसे पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय वायुकाय वनस्पतिकाय । काय } शब्द का वार २ अर्थ ' समूह ' होता है । उक्त पांचों प्रकारों के साथ " काय ' शब्द का । व्यवहार कर आचार्यों ने इस गूढार्थ की तरफ निर्देश किया है कि ये जीव सदैव समूह रूप मेंसंख्या में असंख्य - ही रहा करते हैं । ये असंख्य जीव एक ही साथ एक ही शरीर में जन्म धारण करते हैं और एक ही साथ मृत्यु को भी प्राप्त होते हैं । ये पांचों प्रकार के जीव, जहां कहीं भी, जिस किसी भी रूपमें रहेंगे वहां संख्या में अनेक हो होंगे । वनस्पतिकायिक जीव को छोडकर पृथ्वीकायिक आदि एक जीव का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता । वनस्पति कायके जीव दो प्रकार के होते हैं (१) प्रत्येक और ( २ ) साधारण । प्रत्येक वनस्पति में शरीरका मालिक एक ही जीव होता है किंतु साधारण वनस्पति के शरीर में असंख्य जीव होते हैं । द्वींद्रियादि जीवों में यह बात नहीं है । वे प्रत्येक जीव अपने शरीरका स्वतंत्र मालिक है उसके जीवके आधार पर रहने वाला और कोई दूसरा त्रस जीव नहीं होता ।
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दशवकालिक सूत्र
[१] वनस्पति काय में भी भिन्न भिन्न शरीरों में संख्यात, असंख्यात
और अनंत जीवों का स्वतंत्र अस्तित्व होता है और उनसे जबतक अग्नि, लवण (नमक) आदि से संपर्क न हो तबतक वह सचित्त रहती है किन्तु उनका संपर्क होने पर वह अचित्त हो जाती है।
वनस्पति के मेदः() अग्रवीजा वनस्पति-वह वनस्पति जिस के सिरे पर बीज लगता हैं, जैसे कोरंट का वृक्ष, (२) मूलबीजा वनस्पति-वह वनस्पति जिसके मूल में बीज लगता है जैले कंद आदि । (३) पर्ववीजा वनस्पति-यह वह वनस्पति है जिसकी गांठों में वीज पैदा होता है जैसे गन्ना आदि । (४) स्कंध बीजा वनस्पति-जिसके स्कंधों (जोडों) में चीजों की उत्पत्ति होती है जैसे वड, पीपल, गूलर आदि। () बीजरूहा वनस्पति-वह वनस्पति, जिसके वीजमें बीज रहता हो जैसे चौवीस प्रकार के अन्न, (६) सम्मूर्छिम वनस्पति-जो वनस्पति स्वयमेव पैदा होती है अंकुर आदि । (७) तृण आदि, (८) बेल-चंपा, चमेली, ककडी, खरबूजा, तरबूज आदि की बेलें। इत्यादि प्रकार के बीजों वाली वनस्पति में पृथक् २ अनेक जीव रहते हैं और जब तक उनको विरोधी जातिका शस्त्र न लगे तबतक वे वनस्पतियां सचिरा रहती हैं।
___ सकाय जीवों के भेदःचलते फिरते त्रस (द्वीन्द्रियादिक) जीव भी अनेक प्रकार के होते हैं। इन जीवों के उत्पन्न होने के मुख्यतया अाठ स्थान (प्रकार) हैं जिनके नाम क्रमशः ये हैं:-(१) अंडज-वे त्रसजीव, जो अंडों से पैदा होते हैं जैसे पड़ी आदिः (२) पोतज-वे त्रसजीव, जो अपने जन्म के समय चर्म की पतली चमडी से लिपटे रहते हों जैसे हाथी आदि । (३) जरायुज-वे सजीव, जो अपने जन्म के समय जरा से
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पड् जीवनका
लिपटे रहते हैं, जैसे मनुष्य, गाय, भैंस आदि; (४) रसज-रसके बिगडने से उत्पन्न होने वाले द्वीन्द्रियादिक जीव (२) स्वेदज-पसीने से उत्पन्न होनेवाले जीव; जैसे जूं खटमल श्रादि; (६) सम्मूर्छिम-वे
सजीव जो स्त्रीपुरुप के संयोग के विना ही उत्पन्न हो जाय; जैसे मक्खी; चींटी-चींटा भौंरा, आदि । (७) उद्भिज पृथ्वी को फोडकर निकलने वाले जीव, जैसे तीड, पतंग आदि । (८) श्रौपपातिक - गर्भ में रहे बिना ही जो स्थान विशेष में पैदा हो जैसे देव एवं नारकी जीव ।
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अब उनके लक्षण बताते हैं:
जो प्राणी सामने आते हों, पीछे खिसकते हों, संकुचित होते हों, विस्तृत (फूल) जाते हों, शब्दोच्चार ( बोलते) हों । भयभीत होते हों, दुःखी होते हों, भाग जाते हों, चलते फिरते हों तथा ग्रन्य क्रियाएं स्पष्ट रूपसे करते हों उन्हें सजीव समझना चाहिये ।
व उनके भेद कहते हैं: - कीडी कीडा, कुंथु श्रादि द्वीन्द्रिय जीव हैं; चींटी-चींटा यादि त्रीन्द्रिय जीव हैं, पतंग, भौंरा यादि चतुरिन्द्रिय जीव हैं और तिर्यंच योनिके समस्त पशु, नारकी, मनुष्य और देवता ये सब पंचेद्रिय जीव है ।
उपरोक्त जीव तथा समस्त परमाधार्मिक ( नरकयोनिमें नारकियों को दुख देनेवाले) देव भी पंचेन्द्रिय होते हैं और इन सब जीवों के इस छठे जीवनिकाय को 'स' नाम से निर्दिष्ट किया है ।
टिप्पणी- देव शब्दमें समस्त देवों का समास हो जाता है किन्तु ' परमाधार्मिक ' देवों का खास निर्देश करने का कारण यही है किये देव नरक निवासी होते है । नरकमें भी देव होते हैं और ये पंचेन्द्रिय होते हैं इसकी तरफ निर्देश करने के लिये ही इसका उल्लेख किया है ।
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ये समस्त प्रकार के जीव सुख ही चाहते हैं इसलिये साधु इन छहों जीवनिकायों में से किसी पर भी स्वयं दंड प्रारंभ न करे ( स्वयं इनकी विराधना न करे ); दूसरों से इनकी विराधना न करावे और जो कोई ग्रादमी इनकी विराधना करता हो तो उसका वचनों द्वारा अनुमोदन तक भी न करे ।
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ऊपर की प्रतिज्ञा का उल्लेख जब गुरुदेव ने किया तव शिष्यने कहा:- हे भगवन् ! मैं भी अपने जीवन पर्यंत मन वचन और काय इन तीन योगों से हिंसा नहीं करूंगा, दूसरों द्वारा नहीं कराऊंगा और यदि कोई करता होगा तो मैं उसकी अनुमोदना भी नहीं करूंगा ।
और हे भदंत । पूर्व काल में किये हुए इस पाप से मैं निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षी पूर्वक मैं उस पापकी निंदा करता हूं। आप के समक्ष मैं उस पापकी श्रवगणना करता हूं और श्रवसे मैं ऐसे पापकारी कर्मसे अपनी आत्माको सर्वथा निवृत्त करता हूं ।
महाव्रतों का स्वरूप
शिप्यने पूंछा:- हे गुरुदेव ! प्रथम महाव्रत में क्या करना होता है ?
गुरुने कहा :- हे भट्ट ! पहिले महाव्रत से जीव हिंसा (प्राणातिपात) से सर्वथा विरक्त होना पडता है ।
शिष्यः - हे भगवन् ! मैं सर्व प्रकार के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ ।
गुरुदेवः - जीव चार प्रकार के होते हैं: (१) सूक्ष्म ( श्रत्यंत बारीक जो दिखाई न दें, निगोदिया आदि); शरीरवाले जीव अर्थात् जो दिखाई देते हों);
(२) वादर (स्थूल (३) श्रस ( चलते
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षड् जीवनिका
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फिरते जीव); तथा (४) स्थावर (पृथ्वी से लेकर वनस्पति तक के जीव ।
इन प्राणियों का प्रतिपात ( घात) नहीं करना चाहिये, दूसरें के द्वारा कराना नहीं चाहिये और घात करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करना चाहिये ।
शिष्य :- हे गुरुदेव ! जीवनपर्यंत मैं उक्त तीन प्रकार के करणों और तीनों योगों से (अर्थात् मन, वचन और काय से) हिंसा नहीं करूंगा, नहीं कराऊंगा और हिंसा करनेवाले की अनुमोदना भी नहीं करूंगा और पूर्वकाल में मैंने जो कुछ भी हिंसा द्वारा पाप किया है उससे मैं निवृत्त होता हूं। अपनी श्रात्मा की साक्षी पूर्वक उस पापकी निंदा करता हूं; आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कामसे अपनी ग्रात्मा को सर्वथा विरक्त करता हूं । हे पूज्य ! इस प्रकार प्रथम महाव्रत के विषय में मैं प्राणातिपात ( जीवहिंसा) से सर्वथा निवृत्त होकर सावधान हुआ हूं ॥ १ ॥
शिष्यः - हे भगवन् । अव दूसरे महाव्रत में क्या करना होता है ? गुरुदेवः - हे भद्र ! दूसरे महाव्रत में मृपावाद (असत्य भापण ) का सर्वथा त्याग करना पडता है ।
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं सर्व प्रकार के मृपावाद का प्रत्याख्यान ( त्यागकी प्रतिज्ञा ) लेता हूं ।
गुरुदेवः - हे भद्र! क्रोधसे, मानसे, मायासे श्रथवा लोभसे स्वयं असत्य न बोलना चाहिये दूसरों से असत्य न बुलवाना चाहिये और असत्य बोलनेवाले की अनुमोदना भी न करनी चाहिये ।
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यंत उक्त तीन करणों (कृत, कारित और अनुमोदन ) तथा तीन योगों (मन, वचन एवं काय )
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से असत्यभापण नहीं करूंगा; दूसरों से असत्यभाषण कराऊंगा नहीं और सत्य - भाषी की अनुमोदना भी नहीं करूंगा और पूर्व कालमें मैंने जो कुछ भी असत्य भाषण द्वारा पाप किया है उससे मैं निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षीपूर्वक उस पापकी निंदा करता हूँ; आपके समक्ष मैं उसको गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कामसे अपनी आत्मा को सर्वधा विरक्त करता हूं ॥ २ ॥
शिष्यः - हे गुरुदेव ! तीसरे महाव्रत में क्या करना होता है ? गुरुदेवः - हे भट्ट ! तीसरे महाव्रत में श्रदत्तादानका सर्वथा त्याग करना पडता है ।
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं अदत्तादान (विना हक को अथवा विना दो हुई वस्तुका ग्रहण) का सर्वथा त्याग करता हूँ ।
गुरुदेवः - गांव में, नगर में, अथवा वन में किसी भी जगह थोडी हो या अधिक छोटी वस्तु हो या वडी सचित्त (पशु, मनुष्य, इत्यादि सजीव वस्तु) हो या चित्त, उसमेंसे विना दी हुई किसी भी वस्तुको स्वयं ग्रहण न करना चाहिये न दूसरों द्वारा ग्रहण कराना चाहिये और न वैसे ग्रहण करनेवाले की प्रशंसा ही करनी चाहिये ।
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यंत उक्त तीनों करणों (कृत, कारित, अनुमोदन ) तथा तीनों योगोंसे चोरी (अदतादान) नहीं करूंगा, न कभी दूसरे के द्वारा कराऊंगा और न किसी चोरी करनेवाले की अनुमोदना ही करूंगा ! तथा पूर्वकाल में तत्संबन्धी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ है उससे मैं निवृत्त होता हूं | अपनी आत्माकी साहीपूर्वक पापकी निंदा करता हूं; आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कामसे अपनी यात्मा को सर्वथा विरक्त करता हूं ॥ ३ ॥
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पड् जीवनका
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शिष्यः - हे गुरुदेव ! चौथे महाव्रत में क्या करना होता है ?
गुरुः- हे भट्ट ! चौथे महाव्रत में मैथुन ( व्यभिचार ) का सर्वथा त्याग करना पडता है |
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं मैथुनका सर्वथा त्याग करता हूं ।
गुरुः- देव संबंधी, मनुष्य संबंधी या तियंच संबंधी इन तीनों जातियों में किसी के भी साथ स्वयं मैथुन नहीं करना चाहिये, दूसरों द्वारा मैथुन सेवना कराना न चाहिये और न मैथुन सेवन की अनुमोदना ही करनी चाहिये ।
शिष्यः- हे पूज्य ! मैं जीवन पर्यन्त उक्त तीनों करणों तथा तीनों योगोंसे मैथुन सेवन नहीं करूंगा, न कभी दूसरे के द्वारा कराऊंगा और न कभी किसी मैथुनसेवी की अनुमोदना ही करूंगा तथा पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ है उससे मैं निवृत्त होता हूं। अपनी श्रात्माकी साक्षीपूर्वक उस पापकी निंदा करता हूं । श्रापके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कामसे अपनी श्रात्माको सर्वथा विरक्त करता हूं ॥ ४ ॥
टिप्पणी- साध्वी तथा साधु इन दोनों को अपनी २ जातिके अनुसार उपरोक्त प्रकार के प्रत्याख्यान कर पालने चाहिये ।
शिष्यः - हे भगवन् ! पांचवें महाव्रतमें क्या करना होता है ? गुरुः- हे भद्र ! पांचवें महाव्रतमें परिग्रह ( यावन्मात्र पदार्थों के ऊपरसे' श्रासक्ति भाव ) का त्याग करना पडता है ।
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं सर्वथा परिग्रह का त्याग करता हूं ।
कौडी श्रादि तथा
गुरुः- परिग्रह थोडा हो या बहुत ( थोडी कीमत का हो या अधिक कीमत का श्रथवा जो रत्तीसे भी हलका वजनमें भारी तथा मूल्यमें कम काष्ठादि द्रव्य), छोटा हो या बढा ( वजन थोडा किन्तु मूल्य अत्यधिक हीरा जवाहरात आदि तथा वजन
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३२.
दशवकालिक सूत्र बहुत और कीमत भी बहुत जैसे हाथी आदि), सचित्त (शिष्य श्रादि) हो या अचित्त (अजीव पदार्थ) हो, इनमें से किसी भी वस्तु का परिग्रह नहीं करना चाहिये, दूसरों द्वारा परिग्रह कराना नहीं चाहिये और परिग्रही की अनुमोदना भी नहीं करनी चाहिये।
टिप्पणी-परिग्रह में सचित्त वस्तुओंका समावेश करने का कारण यह है कि परिग्रह का त्यागी मुनि शिष्यों को उनके मातापिता को आशा विना अपने साथ नहीं रख सकता और यदि वह वैसा करे तो उससे पांचवें महाव्रत का खंडन होता है।
शिष्य:-हे पूज्य ! मैं जीवन पर्यन्त उक्त तीनों करणों एवं तीनों योगों से परिग्रह ग्रहण नहीं करूंगा, दूसरों के द्वारा ग्रहण नहीं कराऊंगा और परिग्रही की कभी अनुमोदना नहीं करूंगा । तथा पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ है उससे मैं निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षीपूर्वक उस. पापकी निंदा करता हूं। आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कार्य से मैं अपनी आत्मा को सर्वथा अलिप्त करता हूं ॥५॥
टिप्पणी-जब कभी भी साधुको दूसरी परिपक्क दीक्षा दी जाती है तब उसको उपरोक्त पांच महाव्रतों को जीवन पर्यन्त पालन की प्रतिशाएं दिलाई जाती हैं। उस पक्की दीक्षा को छैदोपस्थापना चारित्र कहते हैं । इन पांचों महाव्रतों के भेद-प्रमेद सब मिलाकर २५२ होते हैं।
शिष्यः-हे भगवन् ! छठे व्रतमें क्या करना होता है ?
गुरु-हे भद्र ! छठे व्रतमें रात्रिभोजन का सर्वथा त्याग करना पड़ता हैं।
शिप्यः-हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यन्त के लिये रात्रिभोजन का सर्वथा त्याग करता हूं।
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गुरु-श्रन्न, खाद्य, पेय, और स्वाद्य (मुखवास श्रादि) इन चारों प्रकारों के श्राहारों को रात्रिमें न खाना चाहिये, न दूसरों को खिलाना चाहिये और न रात्रिभोजन करनेवाले की अनुमोदना ही करनी चाहिये।
शिष्यः हे पूज्य! मैं जीवनपर्यन्त तीन करणों एवं तीन योगों . से रात्रिभोजन नहीं करूंगा, नहीं कराऊंगा और न रात्रिभोजन करनेवाले की प्रशंसा ही करूंगा। तथा पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे मैं निवृत्त होता हूं; अपनी आत्मा की साक्षीपूर्वक उस पाप की निंदा करता हूं; आपके समक्ष मैं उसको धिक्कारता हूं और उससे-उस पापकारी कामसे अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्त करता हूं॥६॥
टिप्पणी-वस्तुतः यदि देखा जाय तो मालूम होगा कि उपरोक्त समस्त व्रतों का संबंध शरीर की अपेक्षा आत्मवृत्ति से अधिक है। अनादि काल से चली आई हुई दुष्पत्तियां निरन्तर अभ्यासके कारण जीवन के साथ इतनी अधिक हिलमिल गई है-एकाकार हो गई है कि इन प्रतिशाओं का सर्वथा संपूर्ण पालन करने के लिये साधक को अपार धैर्य एवं सतत जागृति की आवश्यकता पड़ती है और इसी लिये उक्त पांचों व्रतों को 'महावत' कहा है । छठा व्रत मी नियम रूपसे आजीवन पालना पड़ता है और चाहे जैसा काट क्यों न आ पड़े तो भी उसका पालन मुनि करता ही है। फिर भी पूर्वोक्त पांच व्रतों के समान यह उतना कठिन नहीं है, इस लिये इसकी गणना महानत' में न कर व्रत' रूपमें ही को है।
जबतक उपरोक्त व्रतों का संबंध मात्र शरीर के साथ ही रहता है तवतक उनका पालन यथार्थ न होकर केवल दंभरूपमें ही समझना चाहिये । ऐसे दामिक पालन से यथार्थ आध्यात्मिक फल की प्राप्ति नहीं हो सकतीइस बात का प्रत्येक भिक्षुक को प्रतिक्षण ध्यान रखना चाहिये। ..
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दशवकालिक सूत्र
___ "इस तरह उक्त पांच महाव्रतों तथा छठे रात्रिभोजन त्याग रूप व्रत को अपनी आत्मा के कल्याण के लिये अंगीकार कर निर्द्वन्द भावसे विचरता हूं।" इस प्रकार शिष्यने गुरु के समीप जीवनपर्यन्त के लिये व्रत अंगीकार किये। चारित्रधर्म के इस अधिकार के बाद छकाय के जीवों की रक्षा किस प्रकार करनी चाहिये, अर्थात् जीवनपर्यंत दयाधर्म का पूर्ण रूप से किस तरह पालन किया
जाय उसकी विधिका उपदेश करते हैं।
गुरु-संयमी, पापसे विरक्त तथा नये पापकर्मोके बंध का प्रत्याख्यान लेनेवाला, चाहे साधु हो या साध्वी, उसको दिन या रातमें, एकाकी या साधु समूहमें, लोते या जगते हुए किसी भी अवस्थामें कभी भी पृथ्वी, दीवाल, शिला, ढेला, सचित्त धूलसहित शरीर किंवा सचित्त धूलसहित वस्त्र को हाथसे, पैरसे, लकडीसे, दंडेसे, उंगलीसे, लोहे की छड़ीसे, अथवा लोहेकी छड़ियों के समूहसे काटछाटना, खोदना, हिलाना (परस्पर एक दूसरे को टकराना) किंवा छेदन भेदन कराना नहीं चाहिये, न दूसरों के द्वारा वैसा कटाना, छटाना, खुदवाना, हिलवाना अथवा छेदन भेदन कराना चाहिये और न किसीको काटते, छांटते, खुदवाते, हिलाते अथवा छेदन भेदन करते देखकर उसकी प्रशंसा (अनुमोदना) ही करनी चाहिये।
शिप्या-हे भगवन् ! मैं जीवन पर्यन्त के लिये मनसे, वचनसे और कायसे स्वयं वैसा नहीं करूंगा, दूसरों से वैसा नहीं कराऊंगा और न अनुमोदन ही करूंगा। पूर्वकाल में तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे मैं अब निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षी पूर्वक उस पापकी निंदा करता हूं। आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अवसे ऐसे पापकारी कर्मसे अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्त करता हूं।
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गुरुः-सयंमी, पापसे विरक्त तथा नये पाप कमौके बंधका प्रत्याख्यान लेनेवाले साधु अथवा साध्वीको दिनमें या रातमें, एकाकी या साधु समूहमें कभी भी कुत्रा -- - तलाव के पानीको श्रोसके पानीको, बर्फ, कुहरा, पाला के पानी, अथवा हरियाली पर
पडे हुए जल · बिंदुओं को, वर्षाकि पानीको, सचित्त पानीसे सामान्य अथवा विशेष भीगे हुए शरीर अथवा वस्त्रको, जलबिन्दुओं से भरी हुई काया अथवा वस्त्रको रगडना न चाहिये, उनका स्पर्श न करना चाहिये, उनको छूंदना न चाहिये, दबाना न चाहिये, पछाडना न चाहिये, भाढना न चाहिये, सुकाना न चाहिये, तपाना न चाहिये अथवा दूसरोंके द्वारा रगडवाना, स्पर्श कराना, कुंदवाना, दववाना, पछुडवाना, झडवाना, सुकवाना अथवा तपवाना न चाहिये और यदि कोई उन्हें रगडता हो, स्पर्श करता हो, छंदता हो, दबाता हो, पछाडता हो, भाडता हो, सुकाता हो अथवा तपाता हो तो उसकी प्रशंसा न करनी चाहिये अथवा वह ठीक कर रहा है ऐसा नहीं मानना चाहिये ।
शिष्यः - हे पूज्य ! मैं जीवन पर्यन्त के लिये मनसे, वचनसे, और कायसे उक्त प्रकारकी क्रियाएं स्वयं न करूंगा, न दूसरों के द्वारा कभी कराऊंगा ही और न कभी किसीको वैसा करते देखकर अनुमोदन ही करूंगा । पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे श्रव मैं निवृत्त होता हूं, अपनी आत्माकी साक्षी पूर्वक उस पापकी निंदा करता हूं आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और श्रवसे ऐसे पापकारी कर्मसे अपनी श्रात्माको सर्वथा लिप्त
करता हूं।
गुरुः-पापसे विरक्त तथा नये पापकर्मों के बंधका प्रत्याख्यान लेनेवाले संयमी साधु अथवा साध्वीको दिनमें या रातमें, एकान्तमें या . साधु-समूहमें, सोते जागते किसी भी अवस्थामें काष्ठकी अग्नि, कोयले
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के अंगारों की अग्नि, वी श्रादि की लौंडी की अग्नि, दीप आदि की शिखाकी अग्नि, कॅडे की अग्नि, लोहे की अग्नि, उल्कापात विजली श्रादि की अग्नि आदि अनेक प्रकार की अग्निओं को वायु द्वारा अधिक बढाना या बुझाना न चाहिये। उनको परस्पर इकट्ठा कर संघटन न करना चाहिये, उसपर धूल आदि डालकर उसका भेद न करना चाहिये । उसमें ईधन लकडी डालकर उसे प्रज्वलित (वढाना) अथवा घटाना न चाहिये। उसको दूसरोंके द्वारा वायुसे न चढवावे, संघटन न करावे, धूल आदि डालकर भेद न करावे, इंघन लकडी डलवाकर उसे अधिक प्रचलित अथवा वढाने की क्रिया न करावे और न 'उसे बुमवावे ही। यदि कोई दूसरा हवा से अग्निको वढा रहा हो, 'परस्परमें संघटन (इकठ्ठी) करता हो, धूल द्वारा उसको छिन्नभिन्न करता हो, उसे सुलगाता अथवा प्रज्वलित कर रहा हो अथवा बुझाता हो तो वह ठीक कर रहा है ऐसा कभी न माने (अर्थात् उसकी अनुमोदना न करें)।
शिष्यः-हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यन्त मनसे, वचनसे, और कायसे ऐसा काम न करूंगा, कराऊंगा नहीं तथा अनुमोदन भी नहीं करूंगा। पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे अब मैं निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षीपूर्वक उस पापकी मैं निंदा करता हूं। अापके समत मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अवसे ऐसे पापकारी कर्मसे अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्स करता हूँ ॥१॥
गुरु-पापसे विरक तथा नये पापकर्मों के बंध का प्रत्याख्यान लेनेवाले संयमी साधु अथवा साध्वीको, दिन में या रातमें, एकांत या साधुसमूहमें, सोते जागते या किसी भी अवस्थामें स्वच्छ सफेद 'चंबरों से, पंखे से, ताड के पन्ने के पंखे से, पत्रे से, पत्रे के टुकडे से, वृक्ष की शाखा से अथवा शाखा के टुकडे से, मोरपंख की
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पीछी से अथवा हाथा (छोटे औघा) से, वस्त्र. से; अथवा वस्त्र के सिरे से, हाथ से या मुख से अपनी काया (शरीर) को गर्मी से बचाने के लिये अथवा बाह्य उपण पुद्गल (पदार्थ) को ठंडा करने के लिये स्वयं फूक नहीं मारनी चाहिये अथवा पंखा से वायु नहीं करनी चाहिये और न दूसरे के द्वारा फूंक मरानी चाहिये. और न किसी दूसरे को पंखे की हवा करते देखकर वह ठीक कर रहा है ऐसा मानना ही चाहिये।
- शिप्या है पूज्य ! मैं आजीवन मनसे, वचनसे और कायसे. उक्त प्रकार की क्रियाएं स्वयं न करूंगा, न दूसरों के द्वारा कभी कराऊंगा ही और न कभी किसी को वैसा करते देखकर अनुमोदन ही करूंगा। पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो, उससे अब मैं निवृत्त होता हूं। अपनी आत्मा की साक्षीपूर्वक उसः पापकी निंदा करता हूं। आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा. करता हूं.
और अवसे ऐसे पापकारी, कर्म से अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्स करता हूं ॥ १० ॥
गुरु:-पापसे विरक्त तथा नये पापकर्मों के बंध का प्रत्याख्यान, लेनेवाले संयमी साधु अथवा. साध्वीको, दिनमें या. रातमें; एकांत में या साधुसमूहमें, सोते जागते किसी भी अवस्थामें चीजोंपर अथवा बीजोपर स्थित वस्तुओं के ऊपर जो अंकुर हों उनपर, अथवा अंकुरों पर स्थित वस्तुओं पर, उगे हुए गुच्छों के ऊपर अथवाः उगे. हुए गुच्छों पर स्थित किसी वस्तु पर, कुटी पिसी किसी. सचित्त वनस्पति पर अथवा उसपर अवस्थित वस्तु पर, अथवा. जीवों. की उत्पत्ति के योग्य किसी काष्ठ पर होकर स्वयं न जाना चाहिये, न खडा होना चाहिये, न वैठना चाहिये और न लेटना. चाहिये
और न · वह कभी किसी दूसरे को उनपर चलावे, खडा करे,. बिठावे अथवा लिटावे.। और जो कोई उनपर होकर जाता हो; खडाः
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दशवकालिक सूत्र होता हो, बैठता हो, अथवा लेटता हो तो वह ठीक कर रहा है ऐसा न माने।
शिष्यः-हे पूज्य ! मैं जीवनपर्यन्त मनसे, वचनसे, और कायसे ऐसा काम कभी न करूंगा, दूसरों से कराऊंगा नहीं तथा दूसरों को वैसा करते देखकर उनकी अनुमोदना भी नहीं करूंगा। पूर्वकाल में तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे अब मैं निवृत्त . होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षीपूर्वक उस पापकी मैं निंदा करता हूं। आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अबसे ऐसे पापकारी कमसे अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्त करता हूं ॥ ११ ॥
टिप्पणी-यहां किती को यह शंका हो सकती है कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा वनस्पति जैसे सूक्ष्म जीवों को बचाने के लिये इतना अधिक भार क्यों दिया गया है ? ऐसी अहिंसा इस जीवन में शक्य भी है क्या ? इस प्रकार तो जीवित ही कैसे रहा जायगा ?
इसका उत्तर यह है कि त्यागी जीवन वस्तुत: परम जागरूक जीवन है । इसलिये ऐसे जागल्क साधक ही संपूर्ण त्याग के अधिकारी है-ऐसा जैनदर्शन मानता है । जो साधक प्रतिक्षण इतना जागृत रहेगा उसके लिये तो यह वात लेशमात्र भी असाध्य नहीं है किवा अन्य भी नहीं है। त्यागी के लिये तो वह सुताध्यही है इसीलिये तो उसके लिये ये कठिन नियम रक्खे गये हैं। गृहत्य जीवन, निसंदेह यह वात असाध्य जैसी है तभी तो उसके लिये अहिंसा की व्याख्या भी वडी ही मर्यादित रक्खी गई है और उसके लिये उतना ही त्याग कहा गया है जितना उसके लिये सुसाध्य है।
जितनी दुःखकी भावना अथवा जितना दुःखका संवेदन किसी महाप्राणी को होता है उतना ही संवेदन सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणी को भी होता हैं इसी कारण अहिंसा के संपूर्ण पालन की प्रतिक्षा करनेवाले भिक्षुक ही उसे संपूर्णता से पालते हैं और इसीलिये वे यावन्मा जीवों के रक्षक माने
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जाते हैं। ऐसे भिक्षुक जीवन के लिये ही उपरोक्त प्रकार की अहिंसा की प्रतिज्ञा का विधान किया गया है।
गुरु-संयमी, पापसे विरक्त तथा नये पापकर्मों के बंध का प्रत्याख्यान लेनेवाले साधु अथवा साध्वी को, दिनमें या रातमें, • एकांत या साधुसमूहमें, सोते जागते किसी भी अवस्थामें हाथ पर, पग पर, बांहों पर, जांघ पर, पेट पर, मस्तक पर, वस्त्र पर, भिक्षापान पर, कंवल पर, पायपोंछ पर, रजोहरण पर, गुच्छा पर, मात्रा (मूत्र) के भाजन पर, दंड पर, देहली पर, पाटिया पर, शय्या, बिस्तरे अथवा आसन पर अथवा अन्य किसी भी संयम के साधन उपकरण आदि पर अवस्थित कीटक, पतंगिया, कुंथु अथवा चींटी दिखाई पडे तो उसको सर्व प्रथम बहुत उपयोग पूर्वक उसे देखे, देखकर परिमार्जन करे और फिर बादमें उन जीवों को (दुःख न पहुंचे इस प्रकार) एकांतमें ले जाकर छोड देवे, किन्तु उनको थोडीसी भी पीडा न दे।
टिप्पणी-साधक जीवन के लिये 'प्रतिशा' अति आवश्यक एवं , आदरणीय वस्तु है। साधक जीवनमें, जहां प्रतिक्षण दृढ संकल्पबल की जरूरत होती है वहां प्रतिशा उस बल की पूर्ति करनेमें सहचरी का कार्य करती है। प्रतिज्ञा, यह निश्चल जीवन की प्राण और विकास की जननी है। मन के दुष्ट वेगको रोकनेमें वह अर्गला (चटकनी ) का काम करती है। इसी लिये प्रतिज्ञा की रस्सी पर नट की तरह लक्ष्य रखकर श्रमण साधक अपना रास्ता काटता है और प्रतिज्ञा के पालनके लिये आशा, तृष्णा, काम, मोह तथा विश्वमें बजते हुए अनेक बाजों की तरफ ध्यान न देकर वह जीवनके अंत तक अटल, अडग एवं एकलक्ष्य बना रहता है।
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दशवकालिक सूत्र
पद्यविभाग
[साधक की प्राथमिक साधना से लगाकर अन्तिम सिद्धि तक के संपूर्ण विकासक्रम को प्रत्येक भूमिका का
क्रमशः यहां वर्णन करते हैं। [5] अयत्ना ले (उपयोग रहित होकर) चलनेवाला आदमी
प्राणिभूत (तरह २ के जीवों) की हिंसा करता है और इस कारण वह जिल फापकने का बंध करता है उस कर्म का कहना फल स्वयं उसको ही भोगना पडता है।
टिप्पणी- उपयोग के यों तो कई एक अर्थ हैं और उसका बटा बाक भय है फिर भी यहां पर प्रसंगानुसार सता र्थ 'जागति रखना विशेष उचित है। जागृति अथवा सावधानता के दिन पदि ननु जाने लगे तो उनके द्वारा नाना तरह के जोवों को सिपना होजने को संभावना है, गड्डे ऋदि में पैर पड जने का डर है। इसी तरह वपर को दुःख देनेवाली अनेक बातें हो सकती हैं। प्रत्येक क्रिया के विषयमें ऐसा ही सनम्ना चहिये। [२] अयला से खडा होनेवाला मनुष्य खडे होते समय प्राणिभूत
की हिंसा करता है और उससे वह जिल पापकर्म का बंध करता है उस कर्म का कहना फल स्वयं उसको ही भोगना
पड़ता है। [३] अयत्नापूर्वक बैठनेवाला मनुष्य बैठते हुए अनेक जीवों की
हिंसा करता है और इससे वह जिस पापकर्म का बंध करता है उस कर्म का कडुना फल स्वयं उससे ही भोगना पडता है।
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पड् जीवनिका
४१
[] अयलापूर्वक लेटनेवाला मनुष्य लेटते हुए अनेक जीवों की हिंसा
करता है और इससे वह जिस पापकर्म का बंध करता है
उसका कडुना फल स्वयं उसको ही भोगना पड़ता है। [श अयलापूर्वक अप्रकाशित पात्र में भोजन करने किवा रस की
श्रासक्ति पूर्वक भोजन करने से वह भोजन करनेवाला प्राणिभूत की हिंसा करता है और इससे वह जिस पापकर्म का बंध करता है उसका कटुक फल स्वयं उसको ही भोगना
पड़ता है। [६] अयत्ना से विना विचारे यद्वातद्वा बोलनेवाला मनुष्य प्राणिभूत
की हिंसा करता है और इससे वह जिस पापकर्म का बंध करता है उसका कटुक फल स्वयं उसको ही भोगना पडता है।
टिप्पणी-अनेक क्रियाएं ऐसी है जिनमें प्रत्यक्ष रूपसे हिंसा होती दुई दिवाई नहीं देती, उदाहरण के लिये बोलने में। किसी को आप कितना भी फटक वचन क्यों न कहिये, मुननेवाले के प्राणों का व्यतिपात उससे नहीं होगा किन्तु फिर भी असत्य किंवा मर्मभेदी शब्द प्रयोग करने से सुननेवाले के मन को दुःख अवश्य पहुंचता है और इस कारण से ऐसा वचन हिंसा हो है। इस क्रिया द्वारा जिस पापकर्म का दंध होता है वह अन्तमें बड़ा ही परिताप देता है। [७] शिप्यः-हे पूज्य ! (कृपाकर आप मुझे बतायो कि) कैसे चले?
किस तरह खडे हो ? किस तरह बैठ ? किस तरह लेटें, कैसे
खांय और किस तरह बोलें जिससे पापकर्भ का बंध न हो ? 17 गुरु:-हे भद्र ! उपयोगपूर्वक चलने से, उपयोगपूर्वक खडा होने
से, उपयोगपूर्वक बैठने से, उपयोगपूर्वक लेटने से, 'उपयोगपूर्वक भोजन करने से एवं उपयोगपूर्वक बोलने से पाप बंध नहीं होता।
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उपयोग रखनेवाला अर्थात्
टिप्पणी- वस्तुतः उपयोग ही धर्म है। प्रत्येक क्रिया को जागृत भावसे करनेवाला साधक इरादापूर्वक पापकर्म नहीं करता है और उठते बैठते, चलते फिरते, खाते पीते आदि क्रियाओं में जो कुछ भी स्वाभाविक रूपमें पापकर्म हो जाता है उसका निवारण वह शीघ्र ही तपश्चर्या एवं पश्चात्ताप द्वारा कर डालता है I
४२
[8] जो यावन्मात्र प्राणियों को अपने प्राणों के समान मानता है तथा उनपर समभाव रखता है और पापास्रवों (पापके श्राग-मनों) को रोकता है ऐसा दमितेन्द्रिय संयमी को पापकर्म का बंध नहीं होता ।
टिप्पणी- समभाव, आत्मभाव, पापत्याग तथा इन्द्रिय दमन ये चार गुण पापबंध को रोकते हैं । इनसे नूतन कर्मास्रव नहीं होता इतना हो नहीं किन्तु पूर्वकृत पाप भी क्रमशः नष्ट हो जाते है ।
[१०] सबसे पहिला स्थान ज्ञान (सारासार का विवेक) का है और उसके बाद दया का स्थान है । ज्ञानपूर्वक दया पालने से ही साधु सर्वथा संयमी रह सकता है ऐसा जानकर ही संयमी पुरुष उत्तम आचरण करते हैं क्योंकि अज्ञानी जन, हमारे लिये ' क्या वस्तु गुणकारी (कल्याणकारी) अथवा क्या पापकारी ( हितकारी ) है उसे नहीं जान सकते ।
कर डाले ।
यदि
श्रहिंसा में
टिप्पणी- ऊपर की सभी गाथाओं में केवल प्राणीदया का विधान किया गया है इससे संभव है कि कोई दया का शुष्क अर्थ इसी लिये यहां सबसे पहिले ज्ञान को स्थान दिया है । विवेक नं रक्खा जायगा तो ऊपरसे दीखनेवाली अहिंसा भी परिणत हो जायगी इसलिये प्रत्येक क्रियामें विवेक का स्थान सबसे पहिले. रक्खा है।
हिंसा रूपमें
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षड् जीवनिका
४६
उत्क्रांति का क्रम [११] धर्म का यथार्थ श्रवण कर ज्ञानी साधक कल्याणकारी क्या
है तथा पापकारी क्या है इन दोनों पर विचार कर निणय
करे और उनमें से जो हितावह हो उसीको ग्रहण करे। [१२] जो जीव (चेतनतत्त्व) को भी जान नहीं सकता और अजीव
(जडतत्त्व) को भी नहीं जान सकता वह जीवाजीव को नहीं जान सकने के कारण संयम को कैसे जान सकेगा?
टिप्पणी-सबसे पहिले आत्मतत्त्व को जानना उचित है उसको जानने से अजीव तत्त्व का भी शान हो जायगा और इन दोनों तत्त्वों को यथार्थ रीतिसे जानने पर ही समस्त जगत के स्वरूप की प्रतीति हो जायगी
और वैसी प्रतीति होने पर ही सच्चे संयमको समझकर उसकी आराधना हो सकती है। [१३] जो कोई जीव तथा अजीव को जानता है वह जीवाजीव को
जानकर संयम को भी यथार्थ रीतिसे जान सकेगा। शान प्राप्ति से लेकर मुक्तदशा तक का ऋसिक विकास [१४] जीव तथा अजीव इन दोनों तत्त्वों के ज्ञान होजाने के बाद
सब जीवों की बहुत प्रकार की (नरक, तिर्यच, मनुष्य तथा
देव संबंधी) गतियों का भी ज्ञान होजाता है। [११] सब जीवों की सर्व प्रकार की गतियों के ज्ञान होजाने पर
वह साधक पुण्य, पाप, बंध तथा मोक्ष इन चारों वातों को
भी भलीभांति जान जाता है। . . टिप्पणी-पाप और दूध से क्या गति होती है ? पुण्यसे कैसा बायसुख मिलता है और कर्ममुक्तिसे कैसा आत्मिक आनंद मिलता है आदि -सभी वातें ऐसा साधक ही वरावर समझ सकता है।
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दशवेकालिक सूत्र
[ १६ ] पुण्य, पाप, बंध और मोत के स्वरूप समझमें श्राने पर
वह साधक समस्त दुःखों के मूल स्वरूप देव एवं मनुष्य आदि संबंधी भोगों से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त होता है (अर्थात् वैराग्य को प्राप्त होकर काम भोगों से निवृत्त होता है )
४४
[१७] देव, मनुष्य श्रादि संबंधी भोगों से वैराग्य हो जाने पर वह साधक आभ्यंतर एवं बाह्य संयोगों की आसक्ति का त्याग करकी तरफ कृष्ट होता है ।
टिप्पणी- आभ्यंतर संयोग अर्थात् कृष्णयादि का संयोग एवं बाह्यसयोग अर्थात् कुटुंबीजन आदि का संयोग |
[१८] श्राभ्यंतर एवं बाह्य संयोगों की श्रासक्ति छूट जाने पर वह साधक संवर ( पाप का निरोध) रूप उत्तम धर्म का स्पर्श करता है । (अर्थात् उसी दशामें ही उत्तम धर्म को ग्रहण करने की उसमें पात्रता आती है)
टिप्पणी- उत्तम धर्म अर्थात् आध्यात्मिक धर्म । इतनी सोढियां चढ चुकने के बाद ही वह आध्यात्मिक धर्म का आराधन करने के योग्य हो पाता है ।
[२०] संवर रूप उत्कृष्ट धर्म का स्पर्श होने पर ही प्रबोधि (ज्ञान) रूपी कलुषताजन्य पूर्वसंचित पापकर्म रूपी मैल दूर किया जा सकता है।
[२१] अज्ञानजन्य अनादि काल से संचित कर्मरूपी मैल दूर होने पर ही वह साधक सर्व लोकव्यापी केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की प्राप्ति करता है ।
टिप्पणी- जिस के द्वारा संसार के यावन्मात्र पदार्थों के भूत, वर्तमान एवं भविष्य इन तीनों कालों की समस्त पर्यायों का एक ही साथ संपूर्ण ज्ञान होता है उस संपूर्ण ज्ञान को जैन धर्ममें ' केवलज्ञान ' कहा है ।
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पड् जीवनिका
[२२] ऐसे सर्वलोकव्यापी केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की प्राप्ति
होने पर वह साधक जिन (रागद्वेप रहित) केवली होकर लोक एवं अलोक के स्वरूप को जान सकता है।
[२३] वह केवली जिन, लोक एवं अलोक के स्वरूप को जानकर
मन, वचन और काया के समस्त व्यापारों को रोक कर शैलेशी (आत्मा की मेरु के समान अचल, अडग निश्चल दशा) अवस्था को प्राप्त होता है।
[२४] भोगों को द्ध कर शैलेशी अवस्था प्राप्त होने के बाद ही सब
कर्मों का क्षय कर के कर्मरूपी रज (धूल) से सर्वथा रहित - होकर वह साधक सिद्धगति को प्राप्त होता है। [२५] समस्त कर्मों का क्षय कर कर्मरूपी रजसे रहित हो सिद्ध होने
पर वह स्वाभाविक रीति से इस लोक के मस्तक (अन्तिम स्थान) पर जाकर शाश्वत सिद्ध रूपमें विराजमान होता है।
टिप्पणी-आत्मा का स्वभाव ही ऊर्ध्वगमन है किन्तु कर्मों के फन्दों में फंसे रहने के कारण उसे कर्म जैसा नचाते हैं वैसा ही उसे नाचना पडता है। यही कारण है कि वह विलोम गतियों में जाता है। जब वह कर्मों से सर्वथा रहित हो जाता है तब वह स्वाभाविक गति से सीधा ऊर्ध्वगमन करता है। [२६] ऐसे साधु को जो सुख का स्वाद अर्थात् मात्र बाह्य सुख का
ही अभिलापी हो, मुझे सुख कैसे मिले इसके लिये निरंतर व्याकुल रहता हो, बहुत देर तक सोते पडे रहने के स्वभाव वाला हो और जो शारीरिक सौन्दर्य को बढाने के लिये अपने हाथ पैर आदि को सदा धोता साफ करता रहता हो ऐसे (नामधारी) साधु को सुगति मिलना बडा ही दुर्लभ है।
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दशवकालिक सूत्र टिप्पणी-अपने शरीर तथा इन्द्रियों को मुख मैले मिले इसके लिये सदैव चिन्ता रखनेवाले, मालती तथा शरीर विभूषा में रुचि रखनेवाले साधु का नन संचन में लग ही नहीं सकता क्योंकि संयम का अर्थ हो शरीर का ननत्व पटाना और आत्मनिति करना है। जो साधु सरीर को टोपयप में सतत लगा रहता है वह आत्मा को अनन्त नुन्दरता को नहीं जानता। यदि वह उसे जानता होता तो इस क्षणिक, विनाशी शरीर को सजाता ही क्यों ? उसे सजाने की चेष्टा हो क्यों करे ? इसी लिये शरीर प्रेमी साधक का विकास रुक जाता है यह स्वाभाविक ही है।
गादाने निकामशायिन् ' शब्द का प्रयोग किया है। इसके 'इन्' प्रत्यय का प्रयोग 'स्वभाववाले' के अर्थ में हुआ है। [२७] जिसमें आभ्यंतर एवं बाह्य तपश्चर्या की प्रधानता है, जो प्रकृति
ले सरल तथा क्षमा एवं संयम में अनुरक्त है और जो समभावपूर्वक २२ परिपहों को जीत लेता है ऐसे साधक के लिये सुगति प्राप्त होना सरल है।
टिप्पणी-परिपहों का विशद वर्णन श्री उत्तराभ्ययन सूत्र के दूसरे अभ्यापर्ने तथा तपश्चर्या का वर्णन ३० वें अध्ययन में दिया है जिज्ञातु उन्हें वहां पढ लेवें। [२८] जिन को तप, संयम, क्षमा, और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं ऐसे साधक
यदि अपनी पिछली अवस्थामें भी संयम मार्ग का अनुसरण करते हैं तो वे शीघ्र ही अमर भव (उच्च प्रकार के देवलोकमें जन्म) प्राप्त करते हैं। .
टिप्पणी-थोडे समय का भी उच्च संयन उच्च गति की साधना कर सन्ता है। [२६] इस प्रकार सतत यत्नावान एवं सत्यग्दृष्टि साधक अत्यन्त दुर्लभ
श्रादर्श साधुत्व को प्राप्त होकर पूर्वोक पड्जीवनिकाय की मन, वचन एवं काय इन तीनों योगों से विराधना न करे।
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पड् जीवनिका
' टिप्पणी-प्रमाद ही पाप है, अविवेक ही पाप है और उपयोग ही धर्म है विवेक ही धर्म है, बस इतना ध्यानमें रखकर जो साधक आचरण करता है वही साधक अध्यात्म मार्ग का सचा अधिकारी है और वही शान, विशन, संयम वैराग्य, त्याग, को प्राप्त होकर क्रम २ से कर्मों का नाश करता हुआ अन्तमें संपूर्ण शान एवं दर्शन की सिद्धि करता है और वही रागद्वेष से सर्वथा मुक्त अडोल योगी होकर साध्यसिद्ध, बुद्ध और भवबंधन से सर्वथा मुक्त परमात्मा हो जाता है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'षड्जीवनिका' नामक चतुर्थ अध्ययन संपूर्ण हुआ।
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पिंडैषणा
-(०)(भिक्षाकी गवेषणा)
प्रथम उद्देशक साधु की भिक्षा का अर्थ यह है कि दूसरे को लेशमात्र भी कष्ट न पहुंचा कर और केवल आत्मविकास के लिये ही प्राप्त देह साधन से भरपूर काम लेने के लिये उसको पोषण देने को जितनी
आवश्यकता हो उतनी ही अन्नादि सामग्री प्राप्त करना । साधु की भिक्षामें ये तीन गुण होने चाहिये। जिस भिक्षामें इन गुणों उद्देश्यों की पूर्ति का ध्यान नहीं होता वहां 'साधुत्व' भी नहीं होता और उस भिक्षामें सामान्य भिक्षा की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है ।
कंचन एवं कामिनी से सर्वथा विरक्त ऐसे त्यागी पुण्यात्मा पुरुष ही ऐसी आदर्श भिक्षा मांगने और पाने के अधिकारी हैं।
जिसने राष्ट्रगत, समाजगत, कुटुंबगत और व्यक्तिगत प्राप्त सभी संपत्ति, उदाहरणार्थ धन, स्त्री, पुत्र, परिवार, घर, माल मिलकत, आदि सब से ममता एवं स्वामित्व भाव को हटा कर उन सब को विश्वचरणोंमें समर्पण कर दिया है, जिसने स्वपर कल्याण के मार्गमें ही अपनी काया निछावर कर दी है ऐसे समर्थ साधु पुरुष ही इस वृत्ति से अपना जीवन बिता सकते हैं और अपना पोषणा
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पिंडेपणा
करते हुए भी दूसरों पर भार भूत नहीं होते। ऐसे महात्मा निरन्तर अपनी कल्याणसिद्धि करते हुए भी अन्य अनेक श्रेयार्थी मुमुनु जीवों के लिये महाकल्याण के निमित्त रूप बन जाते हैं। उनको देखकर हजारों लाखों भूली हुई. आत्माएं सुमार्ग पर आजाती हैं; सैंकडो हजारों आत्माएं आत्मदृष्टी बन जाती हैं, सैंकडों इस भवसागर को पार कर जाती हैं। ऐसे महापुरुषों का क्षणिक सम्मिलन भी आत्मा को क्या से क्या बना देता है !
परन्तु दूसरे को थोडा सा भी दुःख दिये विना और अन्य सूक्ष्म जीवों को भी पीडा न देते हुए परिपूर्ण विशुद्धिपूर्वक देह का पोपण करना यह बात साधु के लिये तलवार की धार पर चलने जैसी बड़ी ही कठिन कसौटी के समान है साधक उस कसौटीमें पार कैसे उतरें इसका इस अध्यायमें बडा ही सुन्दर वर्णन किया है। भिक्षार्थ जाने के लिये बाहर निकलने से लेकर भिक्षा लेकर पीछे आने
और भोजन करने तक की समस्त क्रमिक क्रियाओं का निरूपण. नीचे किया जाता है।
गुरुदेव बोले :[१] जव मिक्षा का काल प्राप्त हो तब साधु व्याकुलता रहित
(निराकुलता के साथ) और मूर्छा (लोलुपता) रहित होकर इस क्रमयोग से आहार पानी (भिता) की गवेपणा करे।
टिप्पणी-साधक नितुको प्रथम प्रहरमें स्वाध्याय, दूसरे प्रहरमें ध्यान और तीसरे प्रहरमें भंडोपकरण (संयम के उपयोगी साधनों) की प्रतिलेखना कर वर्तमान काल की परिस्थिति के अनुसार जिस गांवमें, जो समय गोचरी (भिक्षा ) का हो उसी समयमे भिक्षाचरी के लिये जाना उचित है। [२] गांव अथवा नगरमें गोचरी के निमित्त जानेवाला मुनि उद्वेग
रहित होकर श्रव्याकुल चित्त से मंद मंद (उपयोग पूर्वक), गति से चले।
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५०
दर्शकालिक सूत्र
गमन की विधि
[३] भिक्षार्थी साधु अपने घरो की चार हाथ प्रमाण पृथ्वी पर अपनी दृष्टि बराबर फैलाकर वीज, वनस्पति, प्राणी, सचित्त जल तथा तचित्त मिट्टी से बचकर श्रागे वरावर देखकर उपयोगपूर्वक चले ।
. [४] पूर्वोक्त गुणों से युक्त साधु गड्डा श्रथवा ऊंची नीची विषम जगह, वृक्ष के ठूंठों अथवा कीचड से भरी जमीन को छोड देवे तथा यदि दूसरा अच्छा मार्ग हो तो गड्ढे (नाला आदि) को पार करने के लिये उस पर लकडी, तख्ता, पापाल आदि जडे हों तो उनके ऊपर से न जाय ।
[2] क्योंकि वैसे चिपम मार्गमें जाने से यदि कदाचित वह संयमी रपट जाय, या गड्ढे में गिर पडे तो उसले त्रस तथा स्थावर जीवोंको हिंसा होनेकी संभावना है ।
[६] इसलिये सुलमाधिवंत संयमी, यदि दूसरा कोई अच्छा मार्ग हो तो ऐसे विषम मार्गले न जाय । यदि कदाचित दूसरा अच्छा मार्ग ही न हो तो उस मार्ग में बहुत ही उपयोग पूर्वक गमन करे ।
टिप्पणी- उपयोगपूर्वक चलने से गिर पडने का डर नहीं रहेगा और न गिरने से त्र स्थावर की हिंसा भी न होगी। यदि वह संभालपूर्वक नहीं चलेगा तो उसके गिर पडने और उससे पृथ्वी, जल, वनस्पति जीवों की अथवा चोटी चोट आदित्रत जीवों को हिंता के साथ २ स्वयं को भी चोट पहुंचने का डर है ।
[७] गोचरी के लिये जाते हुए मार्ग में पृथ्वी कायिक प्राणियों की रक्षा के निमित्त राख के ढेर पर धान आदि के छिलकों के ढेरपर, गोबर के ढेरपर सचित्त रजसे भरे हुए पैरों सहित संयमी पुरुष गमन न करे और न उन्हें लांघे हो ।
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पिंडेपणा
११
टिप्पणी- सचित रज की पूंजे ( साफ किये ) विना किसी वस्तु पर पग रखने से सचित्त रजके जीवों का नाश हो जाने का डर है, इसी लिये ऐसा करने का निषेध किया है ।
[ ८ ] ( जलकायिक इत्यादि जीवों की रक्षा के लिये) वरसात पड रहीं हो, कोहरा पड रहा हो, ग्रांधी आ रही हो अथवा खूब धूलउड रही हो तथा मक्खी, मच्छर, पतंगिया आदि अनेक प्रकार के जीव उड़ रहे हों ऐसे मार्ग में भी इन समयों में संयमी पुरुष को गोचरी के लिये कदापि नहीं जाना चाहिये ।
[8] (अब ब्रह्मचर्य की रक्षा के विषयमें कहते हैं कि ) संयमी पुरुष उस प्रदेशमें, गोचरी के लिये न जाय जिसमें अथवा जिसके आसपास ब्रह्मचर्य की घातक वेश्याएं रहती हों क्योंकि दमितेन्द्रिय एवं ब्रह्मचारी साधक के चित्त में इनके कारण समाधिहोने की आशंका होती है ।
टिप्पणी- वेश्या अर्थात् चारित्रहीन स्त्री । उसके घरमें तो क्या, किन्तु उसके आसपास के प्रदेशमें भी ब्रह्मचारी को नहीं जाना चाहिये क्योंकि विकार के वीज किन संयोगोंमें, किस समय अंकुरित हो उठेंगे इसका कोई नियम नहीं है, इस लिये सतत जागृत रहना ही उत्तम है ।
[१०] दूसरी बात यह भी है कि ऐसे कुस्थानों पर जाने से वहां के वातावरण का संसर्ग वारंवार होगा । उस संसर्ग से श्रनेक प्रकार के संकल्प विकल्प होंगे और उन संकल्प विकल्पों से सव व्रतोंमें पीडा ( श्राकुलता ) उत्पन्न होने की आशंका है और (दूसरों को) साधु की साधुतामें संशय हो सकता है ।
टिप्पणी - एकवार ब्रह्मचर्य का संकल्प होते ही अन्य महाव्रतों मेंशिथिलता आये विना नहीं रहती । और व्रतोंमें शिथिलता होते ही साधुता का लोप हो जाता है, क्योंकि साधुता की नींव नियमों के अडग पालन पर
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दशवकालिक सूत्र हो अवस्थित है। “कसौटी (परीक्षा अथवा प्रतिकूल) निमित्तों से घिरे रहने पर भी मैं अडग, निश्चल अथवा आत्मलक्षी रह सकता हूं" इस प्रकार का अभिमान साधक स्थितिमें बहुधा पतन का ही झारण होता है। [११] इस लिये केवल एकांत मुक्ति का इच्छुक मुनि वेश्या के
समीपस्थ प्रदेश को दुर्गति का बढानेवाला एवं दोपों की खान
समझकर वहां के गमनागमन का त्याग कर दे। [१२] जहां कुत्ते हों, तुरत की व्याई हुई (नवप्रसूता) गाय हो,
मदोन्मत्त बैल, घोडा अथवा हाथी हो अथवा जो लडकों के खेलने की जगह हो, अथवा जो कलह और युद्ध का स्थान हो ऐसे स्थानों को भी (गोचरी को जाता हुआ) साधु दूर से
ही छोड देवे। [१३] गोचरी को जाता हुआ मुनि मार्गमें अपनी दृष्टि को अति
ऊंची किंवा अनि नीची न रक्से; अभिमान अथवा दीनता धारण न करे और स्वादिष्टतर भोजन मिलने से बहुत खुश न हो और न मिलने से व्याकुल अथवा खेदखिन्न न हो। अपनी इन्द्रियों तथा मन निग्रह कर उनको समतोल रखकर
साधु विचरे। [४] हमेशा ऊंचे नीचे लामान्य.कुटुंबोंमें अभेद भाव से गोचरी
करनेवाला संयमी साधु बहुत जल्दी २ न चले और न कभी चलते २ हंसे या बोले।
टिप्पणी-गोचरी जाते हुए वार्तालाप करने अथवा हंसने से अपनी क्रियामें उपयोग न रहने से निर्दोष आहार की गवेपणा नहीं हो सकती इसी लिये उक्त दोनों वातों का निषेध किया है। [१२ गोचरी के लिये जाता हुआ मिनु गृहस्थों के घर की खिड
कियों, झरोखों, दीवालोंके जोड़ों के विभागों, दरवाजों, दो घरों
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पिंढेपणा
की संधि के विभागों अथवा जलगृह (पानी रखने के स्थान) आदि शंकापूर्ण स्थानों को दूर ही से छोड दे अर्थात् चलते २ उक्त स्थानों की तरफ दृष्टि निक्षेप न करे।
टिप्पणी-ऐसे स्थानों को साभिप्राय (इष्टि गड़ा गड़ा कर) देखने से किसी को साधु के चोर होने की शंका हो सकती है। [१६] उसी प्रकार राजाओं, गृहपतियों, अथवा चरों (पुलिसों) के
रहस्य (एकांत वार्तालाप) के क्लेशपूर्ण स्थानों को भी दूर ही से छोड दे।
टिप्पणी-उक्त प्रकार के स्थानों पर सदैव गुप्त यंत्रणाएं, पडयंत्र की युक्ति प्रयुत्तियां होती रहती हैं। ऐसे स्थानों पर साधु के जाने से किती को उस पर अनेक तरह का संदेह हो सकता है। घरवाले यह शंका करेंगे कि यह व्यक्ति साधु वेशमें हमारा भेद लेने के लिये आता है और जन साधारण उसे वहां जाते देखफर मनमें समझेंगे कि शायद इसका भी गुप्त मंत्रणाओंमें हाथ है। इसी लिये ऐसे शंकापूर्ण स्थानोंमें साधु को गोचरी के निमित्त नहीं जाना चाहिये। [१७] गोचरी के लिये गया हुआ साधु लोक निपिद्ध कुलमें प्रवेश
न करे और जिस गृहपतिने स्वयं ही उसे वहां श्राने का निषेध किया हो कि 'हमारे घर न आना' उस घरमें तथा जिस घरमें जाने से वहां के लोगों को अप्रीति होती हो ऐसे स्थानों पर भी साधु गोचरी के निमित्त न जाय किन्तु जिस
कुलमें प्रेमभक्ति हो वहीं वह भिक्षार्थी मितु प्रवेश करे। [25] गृहस्थ के घर भितार्थ गया हुआ मुनि घर के मालिक की
अाज्ञाविना किवाडों को अथवा शण आदि के परदों को अथवा वांस आदि की चिक को न उघाडे और न उन्हें एक तरफ को खिस का चे ही।
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दशवकालिक सूत्र टिप्पणी-दरवाजा बंद कर के गृहस्थ अपनी रहत्य क्रिया करते हों तो इस तरह से अचानक किवाड खोलने से उनको दुःख अथवा क्रोध हो आने की संभावना ह । ऐसे दोषों का निवारण करने के लिये ही ऐसा न करने का विधान किया गया है। यदि कदाचित दरवाजा खुला भी हो तो भी ऊपर से विवेक रखना उचित है। यह एक ऐसा नियम है जो मुनि अथवा गृहस्थ सभी को एकसरखा लागू होता है। यदि इस नियन का सर्वत्र पालन किया जाय तो 'आशा विना अंदर आने को मना है' के साइनबोर्ड दरवाजे पर न लगाने पड़े। [१६] मलमूत्र की शंका हो तो उससे निवृत्त होकर ही मुनि गोचरी
के लिये गमन करे। कदाचित् रास्तेमें आकसिक शंका लगे तो मल या मूत्र को विसर्जन करने योग्य निर्जीव जगह देखकर उसके मालिक की आज्ञा लेकर बाधा का निवारण करे।
टिप्पणी-मल एवं मूत्र की शंकाएं मार्ग में न हों उसके लिये पहिले हो से सावधान रहना चाहिये और यदि आकस्मिक हो तो उस वाधा को रोकने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये क्योंकि कुदरती हाजतों को रोकने से शरीरमें रोग होने का डर है। इस लिये ऐसा न कर किसी योग्य त्यानमें उन क्रियाओं को करना ही ठीक है। [२०] जिस घर का नीचा दरवाजा हो, जिस घरमें अंधकार व्याप्त
हो रहा हो अथवा जिसमें नीचा तहखाना हो उस घरमें मुनि मिक्षार्थ न जाय क्योंकि अंधकार व्याप्त रहने से वहां पर चलने फिरने वाले त्रस जीव दिखाई न देने से उनकी विराधना हो जाने का डर है।
टिप्पणी-यह भोजन अपने संयममें बाधा डालनेवाला है किंवा निर्दोष है इस बात का २ अंधेरे में कुछ भी पता नहीं चल सकता। फिर वहां पर गिर पडने, छोटे बडे जन्तु की विराधना हो जाने आदि अनेक दोष हो जाने का डर भी है।
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पिंडेपणा
[२१] जिस स्थान पर बीज अथवा फूल फैले हों अथवा जो स्थान हाल ही में लीपे पोते जाने के कारण गीला या भीगा हो तो ऐसे घर में भिक्षु गोचरी के निमित्त न जाय ।
टिप्पणी- वनस्पति कायिक अथवा जल कायिक जीवों को उससे थोडा सा भी कष्ट न हो इसका साधु को सदैव ध्यान रखना चाहिये ।
[२२] संयमी मुनि गृहस्थ के घर में बालक, बकरा, कुत्ता अथवा गाय का बच्चा श्रादि हो तो उसको लांघ कर अथवा उसको एक तरफ हटा कर घर में प्रवेश न करे ।
टिप्पणी- लांघने में गिर पडने का और एक तरफ हटाने में कुत्ते आदि का क्रुद्ध होकर काट खाने या चोट पहुंचाने का डर है
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[२३] गृहस्थ के घर भिक्षार्थ गया हुआ साधु (भिक्षा किंवा किसी व्यक्ति या वस्तु पर) श्रासक्तिपूर्वक दृष्टि निक्षेप न करे, इधर उधर दृष्टि न दौडावे और न किसी की तरफ आंखें फाड २ कर ही देखे । यदि कदाचित् उस घर में किसी मनुष्य को न देखे तो वहां से चुपचाप कुछ भी बोले विना पीछे लौट आवे ।
टिप्पणी - वारंवार किसी की तरफ देखनेसे, अथवा इधर उधर दृष्टि दौडानेसे गृहस्थको साधु पर शंका करने का कारण मिल सकता है इसलिये एसा न करना चाहिये ।
[२४] गोचरी के निमित्त गया हुधा साधु, जिस कुल का जैसा आचार हो वहां तक की परिमित भूमिमें ही गमन करे । नियत सीमा के बाहर गमन न करे ।
टिप्पणी-जैन मुनियों के लिये यद्यपि उच्च आचारविचार के कुलों में भिक्षा मांगने की छूट है फिर भी भिन्न २ कुल के जाति एवं धर्मगत . रीतिरिवाजों के अनुसार ही, उनके घर की नियत सीमा में रहकर भिक्षु
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दशवैकालिक सूत्र
५६
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शुद्ध भिक्षा प्राप्त करे । मर्यादा से आगे रसोई गृहमें कदाचित दाता को 'दुःख' हो, इसलिये साधु वैसा न करे ।
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[२५] जहां खडे रहने से स्नानांगार अथवा मल विसर्जन गृह (संडास अथवा टट्टी) दिखाई देते हों तो उस स्थान को छोडकर अन्य स्थान पर जाय और शुद्ध स्थान को देखकर विचक्षण साधु भिक्षा के लिये वहां खडा हो ।
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टिप्पणी- उक्त प्रकार के स्थानों में खडे रहने से स्नानागार में नहाते हुए किंवा संडासमें जाते हुए गृहस्थ को मुनिका वहां खड़ा रहना असभ्यतापूर्ण दिखाई देने और उससे मुनि की अवगणना होने की संभावना है ।
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[२६] सब इन्द्रियों से समाधिवंत मुनि पानी या मिट्टी लाने के मार्ग को तथा जहां लीलोतरी (हरियाली सचित वस्तु) फैली हो उस स्थान को छोडकर प्रासुक स्थानमें जाकर भिक्षार्थं
खडा हो ।
टिप्पणी-वैसे स्थान में खडे रहने से सूक्ष्म जीवों की हिंसा होने की संभावना है ।
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[२७] पूर्वोक्त मर्यादित स्थान में खडे हुए साधु को गृहस्थ आहार पानी लाकर व्होरावे तो उसमें से जो वस्तु श्रकल्पनीय
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(प्रा) भिक्षा हो उसको सुन्दर होने पर भी वह न ले, इतना ही नहीं उसके ग्रहण करने की इच्छा तक भी न करे और केवल कल्पनीय अन्न जल को ही ग्रहण करे ।
· टिप्पणी - श्री दर्शवैकालिक सूत्र के तीसरे अध्ययन में तथा श्री उत्तराध्ययन सूत्र के २४ वें अध्ययन में वर्णित दूषणरहित शुद्ध भिक्षा हीं साधु के लिये कल्पनीय कही है।
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[२८] गृहस्थ स्त्री. दान के लिये यदि भिक्षा लाते हुए रास्ते में
.. अन्न फैलाती हुई लावे तो
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भिक्षु भिक्षा देनेवाली उस बाई
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पिंडैषणा
को कहे कि इस प्रकार की भिक्षा लेना मुझे कल्प्य (मेरे लिये ग्रास) नहीं है।
टिप्पणी-भोजन फैलने से जमीन पर गंद की होगी और उस पर क्षुद्र जीव आ बैठे तो इस प्रकार उन पर होकर आने जाने में उनकी हिंसा हो जाने की आशंका है।
गाथामें 'गृहस्थ खी' शब्द आया है तो इससे कोई यह न समझे कि स्त्री ही दान दे। ऐसा कोई खास नियम नहीं है किन्तु गृहकार्य और उसमें भी रसोई गृह का सारा प्रबंध तो स्त्रियों के हाथों में ही होता है इस लिये सम्मान्यता को इष्टि से इस पद का यहां उपयोग किया है। [२६] अथवा भिता देनेवाली याई रास्ते में चलते फिरते शुद्र
जन्तुओं, लीलोतरी आदि को खुदती हुई भिसा लावे तो वह दाता असंयम कर रहा है ऐसा समझकर वह साधु उस मिता को ग्रहण न करे।
टिप्पणी-संयमी स्वयं सक्ष्म जीवों की हिंसा न करे मन से भी न विचारे यह तो उसका जीवनव्रत है ही किन्तु ऐसा शुद्ध अहिंसक अपने निमित्त दूसरों द्वारा हिंसा होने की भी इच्छा न करे। [३०+३१] इसी प्रकार साधु के भोजन में सचित्त में अचित्त वस्तु
मिलाकर अथवा सचित्त वस्तु पर अचित्त वस्तु रखकर अथवा सचित्त वस्तु का स्पर्श करा कर अथवा सचित्त अल को हिलाकर अथवा यदि घरमें वर्षादि का पानी भरा हुआ हो तो उसमें प्रवेश कर के, उसको बुब्ध कर के, सचित्त वस्तु को एक तरफ हटाकर, यादि दाता वाई श्रमण के लिये आहार पानी लावे तो मुनि उस दाता बहिन को कह दे कि ऐसा भोजनपान उसके लिये प्रकल्प्य (अग्राख्य) है। . . . .
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दशवैकालिक सूत्र
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[३२] यदि कोई व्यक्ति पुरा कर्म से दूषित हाथ, की अथवा पात्र ( बर्तन आदि) से आहार पानी दे तो उस दाता को वह कहे कि यह भोजन मेरे लिये कल्प्य ( ग्राह्य) नहीं है
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टिप्पणी- आहार पानी व्होराने ( देने) के पहिले सचित्त पानी से हाथ, कडछी, आदि धोकर उन्हें दूषित करने को पुरा कर्म और आहार पानी दे चुकने पर उन्हें सचित्त पानी से धोकर दूषित करने 'पश्चात् कर्म ' कहते हैं । सारांश यह है कि मुनि अपने निमित्त एक सूक्ष्म जीव को भी थोडासा भी कष्ट न दे ।
[३३+३४+३५] यदि कदाचित हाथ, कडछो, पात्र (वर्तन ) सचिस पानी से गीले हों अथवा स्निग्ध (अधिक भीजे) हों, सचित्त रज, सचित्त मिट्टी अथवा चार या हरताल, हींग, मनःशिला, जन, नमक, गेरू, पीली मिट्टी, सफेद मिट्टी ( खडिया मिट्टी), फिटकरी, अनाजका भूसा हाल का पिसा हुआ घाटा, तरबूज जैसे बडे फल के रस तथा इसी प्रकार को दूसरी सचित्त वनस्पति आदि से सने हों तो उनसे दिये जाते हुए आहार
पानी को मुनि ग्रहण न करे क्योंकि ऐसा करने से उसे
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' पश्चात् कर्म' का दोष लगता है । ( ३१ वीं गाथा की टिप्पणी देखो )
हत्तादि सने न हों फिर
टिप्पणी- कदाचित उक्त प्रकार की वस्तु से भी पीछे से ' पच्छा काम' होने की संभावना हो ऐसा आहार पानी साधु के लिये कल्प्य नहीं है यह अर्थ भी इस गाथा से निकाला जा सकता है ।
[३६] किन्तु यदि विना सने हुए स्वच्छ हस्त, बर्तन या कडछी से दाता आहार पानी दे तो मुनि उसको ग्रहण करे किन्तु वह - भी पूर्वोक्त दोषों से रहित एवं एपणीय (भिक्षुग्राहा) होना चाहिये ।
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[३७] यदि कहीं पर दो शादमी भोजन कर रहे हों और उनमें
से कोई एक श्रादमी साधु को भिक्षा का निमंत्रण दे तो मुनि उस श्राहार पानी की इच्छा न करे किन्तु दूसरे आहली के
अभिप्राय की राह देखे। [३८] यदि कहीं पर शे आदमी भोजन करते हों और वे दोनों
मुनि को आहार ग्रहण करने का निमंत्रण करें तो सुनि उस
दातव्य एपणीय श्राहार पानी को ग्रहण करे। [३६] भिक्षार्थी मुनि, गर्भवती स्त्री के लिये ही बनाये गये जुदे २
प्रकार के भोजनपानों को, भले ही वे उपयोग में आ रहे हों अथवा थानेवाले हों, उनको ग्रहण न करे किन्तु उनका उपयोग हो चुकने के बाद यदि वे बाकी पच जाय तो उनको ग्रहण कर सकता है।
टिप्पणी-गर्भवती स्त्री के निमित्त तैयार की गई वस्तु में से आहार पानी ग्रहण न करने का विधान इस लिये किया गया है क्योंकि उस भोजन 'में उस गर्भवती की इच्छा लगी रहती है इस लिये उसको ग्रहण करने से उसको इच्छाभंग होने की और इच्छामंग के भाघात से गर्भ को भी क्षति पहुंचने की संभावना है। [४०+४१] कभी ऐसा प्रसंग भी आ सकता है कि श्रमण मिनु को
भिक्षा देने के लिये पूर्णगर्भा स्त्री खडी हो। ऐसे प्रसंग में इन्द्रिय संयमी साधु को उसके द्वारा अन्नपान ग्रहण करना उचित नहीं है इस लिये साधु भिक्षा देनेवाली उस चाई को कहे कि इस प्रकार की भिक्षा ग्रहण करना मेरे लिये कल्प्य नहीं है।
टिप्पणी--जिस सी को प्रसति होने में एक महिने तक का अवकाश हो उसे पूर्णगी स्त्री कहते है। इस समय में यदि वह श्री कोई परिश्रम साध्य कार्य करेगी तो इससे गर्भस्थ बालक को हानि पहुंचने का डर है।
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[ ४२+४३] गोद के बालक या वालिका को दूध पिलाती हुई यदि कोई स्त्री उस बच्चे को रोता छोड कर भिक्षु को व्होराने के लिये आहार पानी लावे तो वह चाहार पानी संयमी पुरुषों के लिये कल्प्य (अग्राहा ) है इस लिये दान देती हुई उस बाई को श्रमण कहे कि इस प्रकार की भिक्षा मेरे लिये ग्रहण करने योग्य नहीं है ।
+
[ ४४ ] जिस श्राहार पानी में कल्प्य अथवा अकल्य की शंका होती हो उस आहार पानी को देनेवाली स्त्री को श्रमण कहे कि इस प्रकार की भिक्षा मेरे लिये ग्रहण करने योग्य नहीं है ।
टिप्पणी- कई बार ऐसा होता है कि स्वंय दाता को हो अमुक भोजन या पेय प्रातुक ( निर्जीव ) है या नहीं इसकी शंका रहती है । संयमी साधु ऐसी शंका पूर्ण भिक्षा ग्रहण न करे ।
[ ४५+ ४६ ] जो श्राहार पानी सचित्त पानी के घडे से ढंका हो, पत्थर के खरल से, बाजोठ (बाजर) से, ढेले से या मिट्टी अथवा ऐसे ही किसी दूसरे लेप से ढंका हो अथवा उस पर लाख की सील लगी हो और उसे श्रन्नपान को श्रमण को दान देने के लिये लावे तो उस श्रमण कहे कि इस प्रकार की भिक्षा मेरे लिये ग्राह्य
तोडकर उसके
बाई को
नहीं है ।
टिप्पणी-टूटी हुई सील को पुनः लगानी पडे तो इससे गृहस्थ को कष्ट तथा तत्संबंधी आरंभ में जीवहिंसा होने की आशंका है इस लिये उसे त्याज्य कहा है ।
खाद्य और स्वाद्य
[ ४७+४= ] गृहस्थों द्वारा बनाये हुए अन्न, पेय, इन चार प्रकार के भोजनों के विषय में, यदि श्रमण स्वतः अथवा दूसरों से सुने कि यह भोजन तो दूसरों को दान देने के निमित्त बनाया गया है तो वह आहार पानी संयमी साधु
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पिंडेपणा
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के लिये ग्राह्य है ऐसा जानकर वह साधु दाता को कहे कि इस प्रकार का श्राहार पानी मेरे लिये कल्प्य नहीं है ।
[ ४8 + ५०] दूसरे श्रमण श्रथवा भिखारियों के लिये बनाये गये चारों प्रकार के भोजन के विपयमें यदि भ्रमण स्वतः श्रथवा दूसरों से सुनकर यह जाने कि यह दूसरों को पुण्य (दान) करने के निमित्त बनाया गया है तो ऐसा भोजनपान साधु पुरुषों के लिये कल्पनीय है ऐसा जानकर वह साधु उस दातार से कहे कि यह श्राहारपान मुझे ग्राह्य नहीं है ।
[ २१+१२] और गृहस्थों के लिये धनाये गये चारों प्रकार के भोजनों के विषयमें यदि भ्रमण स्वतः श्रथवा दूसरों से सुनकर यह जाने कि यह भोजन तो गृहस्थ याचकों के लिये बनाया गया है तो ऐसा भोजनपान साधु पुरुषों के लिये अकल्पनीय है ऐसा जानकर वह साधु उस दातार से कहे कि यह श्राहारपान मेरे लिये प्रकल्प्य ( श्रमा) है ।
[ ५३+५४ ] गृहस्थों द्वारा बनाये गये चारों प्रकार के श्राहारों के विषय में यदि श्रमण स्वतः अथवा दूसरों से सुनकर यह जाने कि यह भोजन अन्य धर्मी साधुयों के लिये बनाया गया है तो ऐसा भोजनपान भी साधु पुरुषों के लिये अकल्पनीय है ऐसा जानकर वह साधु उस दातार से कहे कि यह श्राहारपान मेरे लिये श्रग्राह्य है ।
टिप्पणी- जैन भिक्षु की वृत्ति यावन्मात्र जीवों के प्रति, भले ही वे अपने मित्र हों अथवा शत्रु हों सब के ऊपर समान होती है। उसके संपूर्ण जीवनमें दूसरों को किंचित्मात्र भी दुःख देने की भावना का कहीं भी और कभी भी लेश भी नहीं मिलता और इसी लिये उसको भिक्षा की गवेषणा में उनी सावधानी रखनी पडती है। यदि दाता गृहस्थ अन्य किसी के निमित्त
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दशवकालिक सूत्र
वनाये गये भोजन को इसे दे देगा तो दूसरे याचको को निराश लौटना पडेगा और उनके दुःख का वह स्वयं निमित्त बन जायगा। इसी लिये ऐती तमाम भिक्षाओं को उसके लिये त्याज्य वताया है। [२५] जो अन्नपान साधु के निमित्त ही बनाया गया हो, साधु के
लिये ही खरीदकर लाया गया हो, साधु और अपने लिये अलग २ भोजन बनाया गया हो उसमें से साधु निमित्तिक भोजन अपने भोजन के साथ सम्मिश्रित हो गया हो तो ऐसा भोजन अथवा साधु के लिये सामने परोसा हुधा भोजन अथवा साधु के निमित्त घटा बदा कर किया हुआ अथवा उधार मांग कर लाया हुधा तथा मिश्र किया हुश्रा भोजनपान
भी साधु ग्रहण न करे। [१६] कदाचित किसी नवीन वस्तु को देखकर भिन्तु को शंका हो
कि इस श्राहार की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? किसके लिये यह बनाया गया है ? किसने इसे क्लाया है ? आदि शंकाओं का पूरा २ समाधान कर लेने पर यदि वह शुद्ध भिक्षा हो
तो ही संयमी उसे ग्रहण करे (अन्यथा न करे)। [५७+५८] सचित्त पुष्प, वीज अथवा सचित्त वनस्पति से जो
भोजन, पान, खाद्य तथा खाद्य आहार मिश्रण (परस्पर मिल गया) हो वह आहारपान संयमी पुरुषों के लिये प्रकल्प्य है इस लिये ऐसे मिश्र भोजन के दाता को साधु कहे कि ऐसी भिक्षा मेरे लिये ग्राह्य नहीं है।
[५४+६०] अन्न, जल, खाय तथा स्वाय इन ४ प्रकार के आहारों
में से कोई भी श्राहार यदि सचित्त जल पर रक्खा गया हो, चींटी चींटों के बिल, लील या फुग पर रक्खा गया हो तो ऐसा आहारपान संयमी पुरुषों के लिये अकल्प्य है, इस लिये
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दाता स्त्री को भिन्नु कहे कि ऐसी भिक्षा मेरे लिये ग्राह्य नहीं है।
[६१+६२] अन्न, पानी, खाद्य तथा स्वाद्य इन ४ प्रकार के श्राहारों में से यदि कोई भी श्राहार अनि पर रक्खा हो अथवा श्रनि का स्पर्श कर के दिया जाय तो ऐसा अन्नपान संयमी पुरुषों के लिये प्रकल्प्य है ऐसा जानकर भिन्नु दाता स्त्री को कहे कि ऐसी भिक्षा मेरे लिये ग्राह्य है।
[ ६३ + ६४ ] ( दाता यह जानकर कि मुनि को व्होराने में तो देर हो जायगी और इतनी देरमें कहीं आग ठंडी न पड जाय इस उद्देश्य से ) चूला में इंधन को अंदर धकेल कर अथवा बाहर खेंचकर, श्रमि को अधिक प्रज्वलित (प्रदीप्त) करके अथवा ( जल जाने के भय से) अझिको ठंडी करके, पकते हुए
न में उफाल श्राया जानकर उसमें से कुछ निकाल कर अथवा उसमें पानी डालकर शांत कर, हिलाकर अथवा चूल्हा पर से नीचे उतार कर श्राहार पान का दान करे तो ऐसा श्राहार पान भी संयमी पुरुषों के लिये कल्प्य नहीं है इस लिये भिन्नु उस दाता बाई से कहे कि ऐसी भिक्षा मेरे लिये ग्राह्य नहीं है।
टिप्पणी- अनि सजीव वस्तु होने से उसके जीवोंकी हिंसा न हो इसी उद्देश्यसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म हिंसायुक्त भोजन को भी साधु के लिये अग्राह्य बताया है ।
[ ६+६६ ] भिक्षार्थ गया हुआ साधु वर्षा ऋतुमें कीचडसे बचने के लिये रास्तेमें तख्ता, पत्थर, ईंट अथवा लांघ कर जाने के लिये जो कुछ भी अन्य पदार्थ रक्खा हो, यदि वह स्थिर न हो ( हिलता या डगमगाता हो ) तो पंचेंद्रियों का दमन करने वाला समाधिवंत साधु उस पर होकर गमन न करे क्योंकि उसकी
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दशवैकालिक सूत्र
जगह कितनी पोली अथवा गहरी है उसकी खबर न पडने से वहां संयम के भंग होजाने का डर है
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टिप्पणी-डगमगाती हुई वस्तु पर पग रखने से यदि गिर पड़ें तो शरीर को चोट लगने की और पोली जगहनें रहनेवाले जीवो की हिंसा होने की संभावना है इस लिये डगनगाती हुई वस्तु पर होकर जाने का निषेध किया है 1
[६७] यदि कोई दाता, साधु के निमित्त किसी
पदार्थ को सीटी, तख्ता या बाजो० लगाकर अथवा जीना अथवा मजले पर चढकर ऊपर से लाई हुई किसी वस्तु का दान करे ।
[ ६८ ] तो मजले पर चढते हुए कदाचित वह दाता बाई गिर पडे और उसके हाथ पैरों में चोट श्रा जाय तथा उसके पडने से वहां के पृथ्वीकायिक तथा अन्य जीवों की विराधना हो ।
[ ६६ ] इस लिये इन महादोषों की संभावना को जानकर संयमी महर्षी मजले पर से. लाई हुई भिक्षा को ग्रहण नहीं करते हैं । [७०] सुरण आदि कंद्र पिंडालु ( शलजम) आदि की गांठ, ताडफल, पत्तों का शाक, तुमडी तथा अदरख ये वस्तुएं कच्ची हों अथवा कटी या बंटी हो ( परंतु उन्हें अग्नि का संसर्ग न मिला हो) तो भिक्षु इनका ग्रहण न करे ।
टिप्पणी- कच्ची और कटी बंटी हुई उक्त वस्तुओंमें जीव रहता है इस लिये भिक्षु उनका त्याग कर दे ।
[ ७१४७२] जौ का चूर्ण (सतुया) बेर का चूर्ण, पूए अथवा ऐसे ही दूसरे पदार्थ, जो दुकान वे बहुत दिनों के हों अथवा सचित्त रज से वस्तुओं का दान करनेवाली बाई से मुनि लिये ग्राह्य नहीं हैं ।
तिलसंकरी, गुड, पर विकते हों,
युक्त हों तो इन कहे कि ये मेरे
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[७३४७४] जिसमें बहुत से बीज हों ऐसे सीताफल आदि जैसे
फल, अनिमिप नामक वृक्ष के फल, बहुत से कांटों से युक्त अगथिया का फल, टींवरू का फल, चेल का फल, गन्ने के टुकडे (गडेरी), सामलीवेल का फल इत्यादि फल कदाचित अचित्त भी हो फिर भी उनमें खाने योग्य · भाग कम और फेंक देने का भाग अधिक होने से, ऐसे फलों के दाता को
मुनि कहे कि यह मिक्षा मेरे लिये ग्राह्य नहीं है। [५] (अव अग्राह्य पेय गिनाते हैं।) उच्च (द्राक्ष आदि उत्तम पदार्थ
का) या नीच (कांजी आदि का) पानी, गुड के वर्तन का धोवन, भाटे का पानी, चावल का धोवन, यदि ये तत्काल के तैयार किये हुए हों तो भिनु उस पानी (पेय) का . त्याग कर दे।
टिप्पणी-एक अन्तर्मुहूर्त अर्थात् दो घडी या ४८ मिनिट तक पानी में किसी भी वस्तु के डालने पर भी वह सचित्त ही बना रहता है इस लिये इतना समय निकलजाने के बाद ही वह जल मितु के लिये ग्राह्य होता है। [७६] किन्तु यदि उस पानी को बने हुए बहुत देर होगई हो
(परिणत काल बीत गया हो) तो उस पानी को अपनी बुद्धि से, दृष्टि से अथवा गृहस्थ से पंछकर अथवा उससे सुनकर यदि वह पानी शंका रहित हो तो भिन्नु उसको ग्रहण करे।
टिप्पणी-धोवन और परिपक्क पानी का रंग बदल जाता है उस पर से जान लेना चाहिये कि यह जल ग्राह्य है या नहीं। । [७७] अथवा विरुद्ध प्रकृति का शस्त्र परिणमित होने (लगने) ले __. अचित्त बने हुए पानी को संयमी ग्रहण कर सकता है। किन्तु
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श्रचित्त होने पर भी यदि उसको किसी भी प्रकार की शंका
होती हो कि यह पानी मेरे लिये पथ्य
(पेय) है किंवा नहीं और जांचने के बाद
करे
तो उस पानी को चखकर जांच ही उसे ग्रहण करे ।
[७] उस समय भिन्नु दाता को कहे कि चखने के लिये थोडासा पानी मेरे हाथ पर दीजिये | हाथमें पानी लेने पर यदि साधु को मालूम पडे कि यह पानी बहुत खट्टा अथवा बिगड गया है अथवा अपनी प्यास बुझाने के लिये पर्याप्त नहीं है तो उस दाता बाई को साधु कह दे कि यह पानी अति खट्टा होने अथवा विगढ जाने से श्रथवा तृपा शांति के लिये पर्याप्त न होने से मेरे लिये कल्पनीय नहीं है ।
टिप्पणी-यदि कोई भोजन या पेय अपने शरीर के लिये अपथ्य हो तो साधु उसका ग्रहण न करे क्योंकि ऐसे प्रतिकूल भोजन से उसके शरीर में रोग होजाने की और रोगिष्ठ होने से चित्त समाधिमें हानि पहुंचने की संभावना है ।
[ ८० ] यदि कदाचित विना इच्छा के किसी दाताने उस प्रकार का पानी व्होरा को साधु स्वयं न पिये और न दूसरे लिये उसे दे ।
अथवा ध्यान न रहने से
(दिया) हो तो उस भिक्षु को पीने के
[८१] किन्तु उस जल को एकांत में ले जाकर प्रासुक (प्राणबीज रहित) स्थान देखकर यत्नापूर्वक (किसी जीव को थोडासा भी कष्ट न पहुंचे इसका ध्यान रखकर ) डाल दे और उसे डाल देने के बाद भिन्नु लौट आवे ।
[८२+८३] गोचरी के लिये गये हुए साधु को (तपश्चर्या अथवा रोगादि कारण से अपने स्थान पर पहुंचने के पहिले ही
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क्षुधा से पीडित होने से ) यदि भोजन करने की इच्छा हो तो वह शून्यगृह अथवा किसी भींत ( दीवाल) के मूल के पास जीवरहित स्थान को ढूंढे और ऊपर से ढंके हुए थवा छत्रवाले उस स्थान में मेधावी साधु उस के मालिक की प्रज्ञा प्राप्त कर अपने हाथों को साफ करने के बाद वहां हार करे ।
[=४+८+८६] उपरोक्त विधि से प्रहार करते हुए भोजन में यदि कदाचित गुठली, कंकडी, कांटा, घास का तृण अथवा काठ का टुकडा अथवा इसी तरह का और कोई दूसरा कूडा कर्कट निकले तो मुनि उसको ( वहां बैठे २ ही) हाथ से जहां तहां दूर न फेंके और न मुंह से फूंक द्वारा उछाल कर ही फेंके किन्तु उसको हाथ में रखकर एकांत में जाय और वहां निर्जीव स्थान देखकर यत्नापूर्वक उस वस्तु का त्याग करे और वहां से ईर्यापथिक क्रियासहित लौटे।
टिप्पणी- 'ईर्या' अर्थात् मार्ग । मार्गम जाते हुए जो कुछ भी दोष हुआ हो उसको निवारण करने की क्रिया को 'ईर्यापथिकी क्रिया' कहते हैं ।
[८] और यदि अपने स्थान पर पहुंचने के बाद भिक्षा ग्रहण करने की इच्छा हो तो भोजनसहित वहां आकर सब से पहिले वह स्थान निर्जीव है कि नहीं इसको ध्यानपूर्वक देखे और बाद में उसे (अपने रजोहरण से ) साफ करे ।
टिप्पणी- प्रत्येक जैन भिक्षु के पास रजोहरणं होता है । वह इतना कोमल होता है कि उससे झाडने से सूक्ष्म जीव की भी विराधना न होकर वह एक तरफ हो जाता है ।
[5] फिर बाहर से याया हुआ वह साधु उस स्थानमें प्रविष्टं होकर विनयपूर्वक गुरु के समीप श्रावे और (आहार को एक
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दशवकालिक सूत्र तरफ रखकर मार्ग संबंधी दोपों के निवारण के लिये) ईपथिकी क्रिया को प्रतिक्रमे अर्थात् कायोत्सर्ग करे ।
टिप्पणी-अपने स्थानमें प्रवेश करते हुए मुनि 'निसीही' कह कर गुरु आदि पूज्य जनों को 'मत्येण वंदामि' कह कर अभिवंदन करते हैं। [१] उस समय वह साधु आहार लेने के लिये जाते हुए अथवा ___वहां से लौटते हुए जो कुछ भी अतिचार हुए हों उन सव
को क्रमपूर्वक याद करे। Peo] इस प्रकार कायोत्सर्ग कर प्रायश्चित्त ले निवृत्त होने के बाद
सरल, बुद्धिमान तथा शांत चित्तवाला वह मुनि श्राहारपानी की प्राप्ति किस तरह हुई आदि सब बातों को व्याकुलतारहित
होकर गुरु के समक्ष निवेदन करे। [s] पहिले अथवा बाद में हुए दोपों की कदाचित उस समय
बरावर आलोचना न हुई हो तो फिर उनका प्रतिक्रमण करे
और उस समय कायोत्सर्ग कर (दहभान भूलकर) ऐसा
चितवन करे कि:[१२] अहा ! श्री जिनेश्वर देवोंने मोक्ष के साधनरूप साधुपुरुप के . शरीर को निवाहने के लिये कैसी निर्दोपवृत्ति बताई है।
टिप्पणी-ऐसी निर्दोष भिक्षावृत्ति से संयम के आधारभूत इस शरीर का भी पालन होता है और मोक्ष की साधना में भी कुछ वाधा नहीं पड़ती। [१३] (कायोत्सर्गमें उपरोक्त चिन्तवन कर) नमस्कार का उच्चारण
कर कायोत्सर्ग से निवृत्त होकर वह वादमें श्री जिनेश्वर देवों की स्तुति (स्तुति रूपलोगस्स का पाठ) करे और फिर कुछ
स्वाध्याय कर मिनु क्षणवार विश्राम ले। [४] विश्राम लेकर (निर्जरारूपी) लाभ का इच्छुक वह साधु अपने
कल्याण के लिये इस प्रकार चिन्तवन करे किः " दूसरे मुनिवर
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.पढेपणा
मुझ पर अनुग्रह कर मेरे इस आहारमें से थोडासा भी ग्रहण
करें तो मैं संसारसमुद्र से पार हो जाऊं"। [११] इस प्रकार विचार कर सब से प्रथम प्रव्रज्या (दीक्षा) वृद्ध
को, उसके बाद उस से उतरते मुनि को, इस प्रकार क्रमपूर्वक सब साधुओं को आमंत्रण करे। आमंत्रण देने पर जो कोई साधु आहार करने के इच्छुक हो उन सब के साथ बैठकर मुनि आहार करे।
टिप्पणी-सव से पहिले दीक्षा वृद्ध मुनि को आमंत्रण देने का विधान विनयधर्म की रक्षा की दृष्टि से किया गया है। [१६] यदि कोई भी साधु आहार का इच्छुक न हो तो संयमी
स्वयं अकेला ही गग द्वेप दूर कर, चौडे मुखवाले प्रकाशित वर्तन में यत्नापूर्वक तथा नीचे न फैले (गिरे) इस रीति से
आहार करे। [१७] गृहस्थ के द्वारा अपने लिये बनाया हुआ एवं विधिपूर्वक
प्राप्त किया हुआ वह भोजन तीखा, कडुत्रा, कसैला, खट्टा, मधुर अथवा नमकीन चाहे जैसा भी क्यों न हो किन्तु संयमी भिनु उसको मधु या घी की तरह से प्रारोगे (ग्रहण करे)।
टिप्पणी-इस गाथामें 'तोखा' शब्द का प्रयोग किया है इसका यह अर्थ नहीं है कि 'तोखा पदार्थ' ग्रहण करना ही चाहिये। संयमी साधु के लिये अति खट्टा, अति नमकीन और अति तीखे भोजन त्याज्य कहे गये हैं फिर भी यदि कदाचित भूलमें ऐसे पदार्थ मिक्षामें मिल जाय तो मनमें ग्लानि लाये बिना ही वह समभावपूर्वक उनको ग्रहण करे। . . शहद और घी का उदाहरण देनेका कारण यह है कि जिस प्रकार शहद एवं घी को सब कोई प्रेमपूर्वक रूचि से खाते है उसी प्रकार
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दशवकालिक सूत्र
संयमी साधु बहुए या खट्टे भोजन को भी चिपूर्वक ग्रहण करे और ननमें पुछ भी विकार न लावे। [8] प्राप्त हुआ भोजन यदि रस (धार) रहित हो अथवा पुराने
अन्न का हो, उत्तम प्रकार के शाक आदि सामग्री ले सहित हो अथवा रहित हो, स्निग्ध (धी आदि सञ्चिकण पदार्थों से सहित) हो अथवा रूखा हो, दलिया हो अथवा उडद के
चुन्नी चोकर का बना हो। [६] (और) वह भोजन चाहे थोडा मिले या अधिक मिले फिर
भी (किसी भी दशाम) साधु प्राप्त भोजन की अथवा उसके दाता की निंदा न करे परन्तु वह मुधाजीवी (कवल संयम रक्षार्थ भोजन करने का उद्देश्य रखनेवाला) साधु निर्जीव, निर्दोप, और सरलता से प्राप्त आहार को निःस्वार्थ भाव से
शांतिपूर्वक आरोगे। [१००] (महापुरुष कहते हैं कि) इस दुनियांमें किसी भी प्रकार के
वदले की आशा रक्खे विना केवल निःस्वार्थ भाव से भिक्षा देनेवाला दाता और केवल संयम के निर्वाह के लिये ही निःस्वार्थ भाव से मिक्षा ग्रहण करनेवाला साधु इन दोनों का मिलना वडा ही दुर्लभ है। निःस्वार्थी दाता और निःस्वार्थी भिनु दोनों ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी-सरल मार्ग पर गमन करना, अपने उपयोगी कार्य में हो सावधानी, जाते आते हुए मार्ग के सूक्ष्म जीवों की लक्ष्यपूर्वक रक्षा, दूसरे भिक्षुकों को किंचित मी दुःख या आघात पहुंचाये विना और दाता की प्रसन्नता भी दरावर दनी रहे ऐसी विशुद्ध भिक्षा को गवेषणा, दाता गफलत (भूल) न करे अथवा खिन्न न हो इस बात का सतत उपयोग, निर्जीव खानपानमें सतत जागृति, भिक्षावृत्ति के स्वरूप का चिन्तवन, अन्य साधकों के
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पिंडेपणा
साथ सह भोजनवृत्ति और प्राप्त भोजन को निरासक्त भाव से ग्रहण करना इन समस्त बातों के आन्तरिक रहस्य को समझकर आचरण करनेवाला साधु ही आदर्श भिन्तु है। ऐसे आदर्श भिक्षु की भिक्षावृत्ति दाता के चित्तमें संयम एवं त्याग के संस्कारों को जन्म देती है।
- ऐसी भिक्षावृत्ति से संयमी जीवन का निर्वाह करना यही तो पिण्डैपणा का रहस्य है और किसी भी प्रकार के भौतिक स्वार्थ अथवा कीर्ति को लालसा के बिना निःस्वार्थ भावसे दान करना यही दाता का कर्तव्य है और यही भाव उसे आध्यात्मिक विकासमें प्रेरित करता है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार ‘पिंडैपणा' नामक पंचम अध्ययनका प्रथम उद्देशक
समाप्त हुआ।
दूसरा उद्देशक
भिक्षा शरीर की पुष्टि अथवा जिह्वा की लोलुपता की तृप्ति के लिये नहीं है और न वह प्रमोद अथवा आलस्य बढाने के ही लिये है। भिक्षा का समीचीन एकतम उद्देश्य जीवनप्रवाह को उस हद्द तक जीवित रखने का है जब तक पूर्ण रूपसे आत्मसिद्धि न हो । भिक्षा ग्रहण करने का उद्देश्य इस शरीर को तब तक जीवित रखने का है जब तक कि संपूर्ण · कर्मक्षय न हो जाय । शरीर के अस्तित्व के विना कर्मनाश नहीं हो सकता और उस शरीर को केवलं जीवित रखने के लिये ही साधु भिक्षा ग्रहण करता है। अन्य मोजनों की अपेक्षा भिक्षा का जो महत्त्व है वह इसी दृष्टि से है। यही कारण है. कि सामान्य, जनों का भोजन. पापबंध काः कारणं होता है किन्तु वही साधु के लिये शुभकर्मास्रव कर्मनिर्जरा कर्मक्षय
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७२
दशवकालिक सूत्र का कारण है। दोनों का काम एक ही है किन्तु उन दोनों की विचारश्रेणी दूसरी ही हैं और उद्देश्य भी दूसरे ही हैं। सामान्य गृहस्थ शरीर पुष्टि के लिये भोजन करता है और साधक मुनि अध्यात्म को पुष्ट करने के लिये भोजन करता है सामान्य भोजन से मुनि की भिक्षा में यही अन्तर है।
कोई यह न समझे और कम से कम मुमुक्षु साधक तो यह कभी भी नहीं समझता कि यह शरीर केवल हाड, मांस, मजा, मल आदि का भाजन है, निसार है, इसकी क्या चिन्ता ? यदि यह सूख गया तो क्या और इसके प्रति उपेक्षा रहे तो क्या ? वस्तुनः देखा जाय तो ऐसा करना तपश्चरण. नहीं है प्रत्युत एक भयंकर जड क्रिया है। जो साधक शरीर रक्षा की तरफ उपेक्षा करता है वह अपने उद्देश्य की उपेक्षा करता है। जिस तरह दूर की यात्रा करनेवाला चतुर यात्री अपनी सवारी (घोडा, ऊंट आदि) का ध्यान रखता है, उसको खानापानी देकर व्यवस्थित रखता है ठीक वैसे ही चतुर साधक अपने शरीर रूपी सवारी को कभी भी उपेक्षा दृष्टि से नहीं देखता । जिस तरह वह यात्री घासपानी के साथ २ उसे सोने चांदी के गहने नहीं पहिनाता अथवा रेशमी या मखमली गद्दी (जीन) कसने की चिंता करता है इसी तरह साधक मुनि भी इस शरीर की खोटी टापटीप, इसको पुष्ट बनाने आदि में नहीं लग जाता। यदि ऐसा करेगा तो वह अपने उद्देश्य को भूल जायगा । उसकी आत्मसिद्धि या लक्ष्यसिद्धि कभी नहीं होगी। इसी तरह शरीर को पुष्ट करनेवाले उद्देश्य भ्रष्ट साधु का शरीर उन्मत्त घोडे की तरह उसे विषयविकारों के गड्ढे में डाल देता है।
उक दोनों वातों को भली प्रकार समझकर चतुर साधु जिस मध्यस्थवृत्ति से भिक्षावृत्ति करते हैं उसका यहां वर्णन किया जाता है।
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गुरुदेव बोले :
[१] संयमी भिक्षु संपूर्ण आहार को, भले ही वह सुगंधित (मोहक आदि) हो अथवा गंधरहित (बिलकुल सामान्य भोजन) हो, पात्र में अंतिम लेप ( अंश) लगा हो उसको भी उंगली से साफ कर के श्रारोगे किन्तु पात्रमें कुछ भी श्रंश वाकी न छोडे ।
·
टिप्पणी- अंतिम लेप ( अंश ) भी न छोडे ऐसा विधानकर इस गाथा अपरिग्रहिता तथा स्वच्छता रखने की तरफ इशारा किया है 1
७३
[२] उपाश्रयमें या स्वाध्याय करने के स्थानमें बैठे हुए साधु को गोचरी से प्राप्त भोजन अपर्याप्त होने पर (अर्थात् उससे उसकी भूख न जाय )
[३] अथवा अन्य किसी कारण से अधिक भोजन लेने की श्रावश्यकता पडे तो वह पूर्वोक्त (प्रथम उद्देशक में कही हुई) विधि तथा इस (जिसका वर्णन यागे किया जाता है उस ) विधि से अन्नपानी की गवेपणा (शोध) करे ।
[४] चतुर भिक्षु, भिक्षा मिल सके उस समय को भिक्षाकाल जानकर गोचरी के लिये निकले और जो कुछ भी अल्प या परिमित
श्राहार मिले उसे ग्रहण कर भिक्षाकाल पूर्ण होते ही अपने स्थानक पर वापिस आ जाय । अकाल ( समय के विरुद्ध कार्य ) को छोडकर यथार्थ समय में उसके अनुकूल कार्य ही करे ।
टिप्पणी- किस समय में क्या काम करना आचरण करना चाहिये आदि क्रियाओं का भिक्षु रखना चाहिये ।
चाहिये किस प्रकार
को सतत उपयोग
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दशवैकालिक सूत्र
[2] ( महापुरूप कहते हैं कि ) " हे रक्खे बिना तू किसी ग्रामादि
साधु ! यदि समय का ध्यान स्थानमें भिक्षार्थ चला जायगा और समय की अनुकूलता प्रतिकूलता न देखेगा तो तेरी आत्मा को खेद होगा और भोजन न मिलने से तू गाम की निन्दा करेगा ।"
७४
टिप्पणी-भोजन खाया जा चुकने पर गोचरी जाने से आहार नहीं मिल सकेगा और आहार न मिलने से मुनि को दुःख होगा और यह नाम कैला खराब है जहां मुनिको भोजन भी नहीं मिलता है आदि २ अनिष्ट विचार भी आने लगने की संभावना है ।
[६] इस लिये जब भिक्षा का समय हो तभी भिक्षु को भिक्षा के लिये जाना चाहिये । भिक्षा के समुचित समय पर निकलने पर भी यदि कदाचित भिक्षा न मिले तो भी मुनि को खेदखिन्न या दीनहीन होकर शोक नहीं करना चाहिये किन्तु ऐसा मनमें समझना चाहिये कि " चलो, अच्छा ही हुआ, यह स्वयमेव तपस्या होगई ।" ऐसा मान कर वह समभावपूर्वक उस दुधाजन्य कष्ट को सह ले ।
[७] जहां छोटे बडे पशुपती भोजन करने के लिये इकट्ठे हुए हों ऐसे स्थान के सामने होकर साधु न निकले किन्तु उपयोगपूर्वक उनसे बचकर किसी दूसरे मार्ग से निकल जाय । यदि कदाचित दूसरा मार्ग न हो तो वह स्वयं ( किन्तु धागे बढकर उनके भोजन लेने में
पीछे लौट श्रावे | विघ्न न डाले)
टिप्पणी- भिक्षु के सामने जाने से उन प्राणियों को भय होगा और इस कारण वे वहां से भाग या उड जांयगे और उन्हे भोजन ग्रहण - करने में अन्तराय ( विघ्न ) पडेगा ।
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पिढेपणा
[८] गृहस्थ के यहां मितार्थ गया हुआ संयमी साधु किसी भी
स्थान पर न बैठे अथवा कहीं पर खढे २ किसी के साथ गप्पसप्प (वाते) न करे।
टिप्पणी-गृहस्यों का अति परिचय अन्तमें संयमी जीवन के लिये वाधाकर हो जाता है इसी लिये महापुन्योंने प्रयोजन के योग्य हो गृहस्थों के साथ संबंध रखने की और आवश्यकता से अधिक संबंध न रखने की आशा दी है। [6] गोचरी के लिये गया हुया संयमी किसी गृहस्थ के घर की
भूगल (चिमनी), किवाड के तख्ते, और दरवाजा या किवाड का सहारा लेकर (अर्थात् उसका अवलंबन लेकर) खडा न हो।
टिप्पणी-संभव है कि उनके सहारे खडे होने से दरवाजा या किवाड आदि हिल जाय और उससे साधु के गिर पड़ने की आशंका हो। [१०+११] गोचरी के लिये गया हुआ साधु अन्य धर्मों के अनु
यायी श्रमण ब्राह्मण, कृपण या भिखारी जो गृहस्थ के द्वार पर भोजन अथवा पानी के लिये भिक्षार्थ खडा हो तो उसको लांघ कर गृहमें प्रवेश न करे और जहां पर उक्त मनुष्यों की उस पर दृष्टि पड़े ऐसे स्थान में खडा न हो, किन्तु एकांत
में (एक तरफ) जाकर खडा हो । [१२] क्योंकि वैसा करने से वे भिखारी किंवा स्वयं दाता ही
अथवा दोनों ही अप्रसन्न-चिढ होने की संभावना है और उससे अपने धर्म की हीनता दिखाई देगी।
टिप्पणी-अन्यधर्मी श्रमण, ब्राह्मण, कृपण और भिखारी ये भी स्वभावतः भिक्षा के अर्थी हैं। यदि साधु इनकी उपस्थितिमें मिक्षा के लिये जायगा तो वे अपने मनमें यों कहेंगे, कि यह कहां से यहां आगया ? हमारी मिक्षा में यह भी हिस्सेदार हो गया ! इस प्रकार उनको दुःख होना संभव है।
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दशवकालिक सूत्र
दाता भी पहिले भिक्षुकों के साथ एक नवागन्तुक भिक्षुक को आया देखकर मनमें चिढ जायगा और कहेगा, किसे २ मैं दूं? ऐसे समय में वह हलके शब्द भी कह बैठे तो आश्चर्य नहीं । एक सामान्य भिखारी जैसी दशा जैन साधु को प्राप्त हो यह जैन शासन के संयमधर्म की महत्त को बट्टा लगाने जैसी बात है। इन्हीं सब कारणों से उक्त प्रकार की आज्ञा दी गई है। [१३] किन्तु गृहपति आये हुए उन भितुओं को सिक्षा दे या न दे
और जब वे भिक्षुक लौट जाय उसके बाद ही संयमी भोजन
या पानी के लिये वहां जाय । [१४+१२] नीलोत्पल (नीला कमल), पद्म (लाल कमल), कुमुद
(चंद्र के उदित होने पर प्रफुल्लित होनेवाला सफेद कमल), मालती, मोगरा अथवा ऐसे ही किसी सुगंधित पुष्प को तोडकर कोई वाई . मिता दे तो वह भोजनपान संयमी के लिये अकल्प्य है इस लिये साधु उस दाता बाई को यों कहे कि
यह आहारपान अब मेरे लिये ग्राह्य (कल्प्य) नहीं है। [१६११७] नीलोत्पल, लाल कमल, चंद्रविकासी श्वेत कमल अथवा
मालती मोगरा आदि अन्य किसी सुगंधित पुप्प को बांटकर, तोड मरोड कर, अथवा पीस कर यदि कोई वाई भिक्षा व्होरावे (द) तो ऐसा भोजनपान साधु के लिये ग्राह्य नहीं है इस लिये भिक्षा देनेवाली बाई को साधु कहे कि हे भगिनि !
यह अन्नपान मेरे लिये कल्प्य नहीं है। [+१६] कमल का कंद, धुइयां अरई, कमल का नाल (दंड),
हरे कमल का दंड, कमल के तंतु, सरसौं का दंड, गन्ने का टुकडा ये सभी वस्तुएं यदि सचित्त हों तो तथा नई २ कौंपले (नये पत्ते); वृक्ष की, घास की अथवा अन्य वनस्पतियों की कच्ची कौंपले आदि दातव्य भोजन में हों तो साधु उनको भी ग्रहण न करे।
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पिढेपणा
[२०] और (जिनमें बीज नहीं पडा है) ऐसी कोमल मूंग, मटर, मोंठ
श्रादि की फलियों को जो सेसी भी जाचुकी हों अथवा कच्ची हों तो उनको देनेवाली बहिन को भिक्षु कहे कि यह भोजन
मुझे ग्राह्य नहीं है। [२१] अग्नि से अच्छी तरह न पके हुए कोल (बोरकूट) करेले,
नारियल, तिलपापडी, तथा निवौली (नीम का फल) आदि के
कच्चे फलों को मुनि ग्रहण न करे। [२२] (और) चावल तथा तिल का आटा, सरसों का दलिया, अपक
पानी श्रादि यदि कच्चे हों अथवा मिश्र पेय हों तो भिक्षु
उनको ग्रहण न करे। [२३] अपक्व कोठ का फल, विजौरा, पत्तेसहित मूली, मूली की
कातरी (कचरियां) आदि कच्चे अथवा शस्त्रपरिणत (अन्य स्वभाव विरोधी वस्तु द्वारा अचित्त).न किये गये हों तो उन
पदार्थों की मुनि मन से भी इच्छा न करे। [२४] इसी प्रकार फूलों का चूर्ण, चीजों का चूर्ण, बहेडे तथा
रिवरती के फल आदि यदि कच्चे हों तो सचित्त समझकर
साधु उन्हें त्याग दे। [२१ साधु हमेशा सामुदानिक (धनवान एवं निर्धन इन दोनों)
स्थलों में गोचरी करे । वह निर्धन कुल का घर जानकर उसको
लांघकर श्रीमंत के घर न जाय । . टिप्पणी-श्रीमंत हो या गरीब हो किंतु भिक्षु उन दोनों को समदृष्टि से देखे और रागरहित होकर प्रत्येक घरमें गोचरी के लिये जाय । [२६] निर्दोप भिक्षाग्रहण की गवेषणा करने में रत और श्राहार ___की मर्यादा का जानकार पंडित भितु; भोजन में अनासक्ति भाव
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दशवकालिक सूत्र
रक्खें और दीनभाव से रहित होकर भिक्षावृत्ति करे। वैसा करते हुए यदि कदाचित भिता न भी मिले तो भी खेद
खिन्न न हो। [२७] गृहस्थ के घर भिन्न २ प्रकार के मेवे, मुखवास इत्यादि
भोजन हों फिर भी यदि वह उनको दे या न दे तो भी
पंडित भितु उस पर क्रोध न करे। [२८] शय्या, आसन, वस्त्र, भोजन, पानी आदि वस्तुएं गृहस्थ के
यहां प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। फिर भी यदि वह उनको दान
न दे तो संयमी साधु उस पर कोप न करे। [२६] स्त्री, पुरुष, चालक अथवा वृद्ध जव उसको नमस्कार करते हों
उस समय वह उनके पास किसी भी तरह की याचना न करे। उसी तरह आहार न देनेवाले व्यक्ति के प्रति वह कठोर
शब्द भी न बोले। [३०] यदि कोई उसे नमस्कार न करे तो साधु उस पर कोप न .
करे और जो कोई उसे अभिवंदन करे उस पर अभिमान व्यक्त न करे। इस प्रकार जो कोई विवेकपूर्वक संयम का पालन
करता है उसका साधुत्व वराबर कायम रहता है। [३१+३२] यदि कदाचित कोई साधु सुन्दर भिक्षा प्राप्त कर "मैं
अकेला ही उसका उपयोग करूंगा। यदि मैं दूसरों को यह दिखाऊंगा तो दूसरे मुनि अथवा स्वयं प्राचार्य ही उसे ले लेंगे" आदि विचारों के वशीभूत होकर उस भिक्षा को लोभ से छिपाता है तो वह लालची तथा स्वार्थी (पेट भरू) साधु अति पाप का भागी होता है और वह अपने सन्तोष गुण का नाश करता है। ऐसा साधु कभी-भी निर्माण नहीं पा सकता।
अकेला ही
दूसरे मुनि अथवत होकर उ
श्रति पापा वह लालभूत होकर उस
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पिंडैपणा
। [३३+३४] और यदि कोई साधु भिन्न २ प्रकारका अन्नपान प्राप्त करके
उसमें से सुन्दर २ भोजन स्वयं मार्ग में ही भोगकर अवशिष्ट ठंडे एवं नीरस आहार को उपाश्रयमें लावे जिससे अन्य साधु यह जाने कि "यह बडा ही आत्मार्थी तथा रूत वृत्ति से
रहनेवाला सन्तोपी साधु है जो ऐसा रुखासुखा भोजन करता है" [३१] इस प्रकार दंभसे पूजा, कीर्ति, मान तथा सन्मान पाने की
इच्छा करता है वह अतिपाप करता है और मायारूपी शल्यको इकट्ठा करता है।
टिप्पणी-माया एवं दंभ ये दोनों ही एकांत अनर्थ के मूल कारण हैं। इनका जो कोई सेवन करता है वह उस अधर्म का संचय करता है कि जिससे वह जीवात्मा उच्च स्थितिमें होने पर भी नीच गतिमें गमन करता है। [३६] जिसके त्यागमें केवली (ज्ञानी) पुरुषों की सादी है ऐसा संयमी
भिनु अपने संयम रूपी निर्मल यशका रक्षण करते हुए, द्राक्ष के
आसव, महुए के रस अथवा अन्य किसी भी प्रकार के मादक रस को न पिये।
टिप्पणी-मितु किसी भी मादक पदार्थ का सेवन न करे क्योंकि मादक वस्तु के सेवन से आत्मजागृति का नाश होता है। [३०] "मुझे यहां कोई देख तो रहा ही नहीं है। ऐसा मानकर जो
कोई भितु एकांत में चोरी से (लुक छिपकर) उक्त प्रकारका मादक रस पीता है उस के मायाचार तथा दोपों को तो
देखो । मैं उनका वर्णन करता हूं तुम उसे सुनो।। [३८] ऐसे साधु की आसक्ति बढ़ जाती है और इस के कारण
उस के छलकपट तथा असत्यादि दोप भी बढ़ जाते हैं जिस से वह इस लोक में अपकीर्ति को तथा परलोक में अशांति को
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दशकालिक सूत्र प्राप्त होता है और साधुत्व से वंचित होकर हमेशा.असाधुता
को प्राप्त करता रहता है ।। ३] जिसप्रकार चोर अपने ही दुष्कर्मों के डर से हमेशा प्रांतचित्त रहता है उसी तरह ऐला दुर्बुद्धि भिक्षुक भी अपने ही दुष्कर्मों से अस्थिर चित्त हो जाता है। ऐसा अस्थिर चित्त मुनि अपनी मृत्यु तक भी संवर धर्म की आराधना नहीं कर सकता।
टिप्पणी-जितका चित्त भोगों में आसक्त रहता है वह कभी भी संयम में दत्तचित्त हो ही नहीं सकता। [४०] और मात्र वेशधारी ऐसा साधु अपने प्राचार्यों की अथवा
दूसरे श्रमणों की भी शाराधना नहीं कर सकता । महापुरुपों के उपदेशों का उसपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । इस कारण गृहस्थ भी उस की निंदा करते हैं क्यों कि वे सब
उस की ऐसी अलाधुता को स्पष्ट रूप से जान जाते हैं। [४] इस प्रकार दुर्गुणों का सेवन करनेवाला एवं गुणों को त्याग
देनेवाला वह साधु मरणपर्यंत संवर धर्म की आराधना नहीं करने पाता।
टिप्पणी-सद्गुणों की आराधना से ही धर्म की आराधना होती है। जिस निया से सद्गुणे की प्राप्ति अथवा वृद्धि न होती हो वह धर्न क्रिया कहे जाने के योग्य नहीं है।
[४२] जो कोई बुद्धिमान सांधक स्निग्ध तथा स्वादिष्ट एवं अति रसों
से युक्त भोजनों को छोड़ कर तपश्चर्या करता है, जो मंद (अभिमान) तथा प्रमाद से निवृत्त हो, तपस्वी बन कर विकास मार्ग में आगे बढता जाता है।
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[ ४३] उस मितु के कल्याणरूपी संयम की तरफ तो देखो जो "अनेक साधुयों द्वारा पूजा जाता है और मोक्ष के विस्तीर्ण अर्थका अधिकारी होता है । उसका गुण कथन मैं करता हूं, उसे तुम सुनो:
८१
[४४] उपरोक्त, प्रकार के सद्गुणों का इच्छुक तथा दुर्गुणों का त्यागी मितु मरण पर्यन्त हमेशा संवर धर्म का श्राराधन करता रहता है।
[४२] ऐसा श्रमण श्राचार्यों तथा अन्य साधुओं की भी आराधना (उपासना) करता है और गृहस्थ भी उस को वैसा उत्तम मितु जानकर उसकी पूजा करते हैं ।
[४६ ] जो मुनि तपका, वाणीका, रूपका तथा श्राचार भावका चोर होता है वह देवयोनि को प्राप्त होने पर भी किल्बिपी जात (निम्न कोटि) का देव होता है ।
टिप्पणी- जो वस्तुतः नप न करता हो का ढोंग करता हो, जिसकी वाणी, रूप, तथा फिर भी उनको वैसा बताने का ढोंग करता हो वह जैन शासन की
फिर भी तपत्वी कहलाने श्राचरण शास्त्रविहित न हों
दृष्टि 'चोर' ( भिक्षु ) है ।
[ ४७ ] किल्विष जाति के निम्न देवलोक में उत्पन्न हुआ देवत्व प्राप्त कर के भी 'किल कर्म से मेरी यह इस वात को जान नहीं सकता
वह साधक गति हुई '
टिप्पणी- - उच्च कोटि के देवों को ही उत्तम प्रकार के भोगसुख प्राप्त होते हैं और उन्हीं का ज्ञान इतनी निर्मल होता है कि जिससे वे बहुत से पूर्व जन्मोंका हालजान सकते है ।
[ ४८] वह किल्विषी देव वहां से चयकर ( गति करके ) सूक ( जो बोल न सके ऐसे ) बकरे की योनि में, नरक योनि में
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दशवकालिक सूत्र अथवा तिर्यंच योनि में गमन करता है जहां सम्यक्त्व (सद्बोध)
की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है । [४] इत्यादि प्रकार के दोषों को देखकर ही ज्ञातपुत्र भगवान
महावीर ने आज्ञा दी है कि बुद्धिमान साधक जहां लेशमात्र भी
मायाचार या असत्याचार होता हो उसे छोड़ दे। [१०] इस प्रकार संयमी गुरुओं के पास से भिक्षा की गवेषणा
संबंधी शुद्धि को सीखकर तथा इन्द्रियों को समाधि में रखकर तीव्र संयमी तथा गुणवान भिक्षु संयम मार्ग में विचरण करे।
टिप्पणी-निर्भयता, भिन्तु का मुद्रालेख है। सन्तोष उसका सदा का संगी भित्र है। इसलिये भिक्षा उपस्थित होते हुए भी न मिलने पर अथवा अग्राह्य होने से छोड देने पर वह दीन अथवा खेदखिन्न नहीं होता।
रसवृत्ति का त्याग, पूजा सत्कार को वांछा का त्याग और अपथ्य वस्तुओं का त्याग ये तीन भिक्षावृत्ति के स्वाभाविक गुण है। सद्गुणों के भंडारमें वृद्धि करते २ ऐसा संयमी साधु सहजानंद की लहरमें ही एकांत. मस्त रहता है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'पिण्डैषणा' नामक पांचवां अध्ययन समाप्त हुआ।
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धर्मार्थकामाध्ययन
-(०)(मोक्ष के इच्छुकों का अध्ययन)
सद्धर्म के आचरण करने का फल मोक्षप्राप्ति है । अनन्त ज्ञानी पुरुषों का यही प्रत्यक्ष अनुभव है कि कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त हुए विना किसी भी जीवात्मा को स्थिर, सत्य एवं अवाधित सुख प्राप्त नहीं हुआ, प्राप्त नहीं होता और प्राप्त होगा भी नहीं।
इसी लिये सुख के इच्छुक साधक मोक्षमार्ग के साधनभूत सद्धर्म की ही आराधना करना पसंद करते हैं। उस मोक्षमार्गमें सर्व 'प्रथम पसंदगी संपूर्ण त्याग की है। उसकी साधना करनेवाला वर्ग 'साधक' कहलाता है। त्यागी की त्यागरूपी इमारत ' के स्तंभ को ही आचार कहते हैं।
एक समय मोक्षमार्ग के प्रवल उपासक तथा जैनधर्म के उदार तत्वों को आत्मभूतकर शान्तिसागर में निमग्न रहनेवाले एक महा तपस्वी श्रमण अपने विशाल शिष्यसमुदाय सहित गांव के बाहर 'एकांत उद्यान में पधारे। उनके सत्संग का लाभ लेने के लिये अनेक ' जिज्ञासु उनके पास गये और उन परम त्यागी, शांत, दांत, तथा 'धीमान् गणिवर को अत्यन्त भावपूर्ण नमस्कार कर उनने त्याग के
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दशवकालिक सूत्र
आचार नियम संबंधी अनेकानेक प्रश्न किये। उनकी शंकाओं का जो समाधान किया गया उसका वर्णन इस अध्ययन में किया गया है।
अहिंसा का आदर्श, ब्रह्मचर्य के लाभ, मैथुन के दुष्परिणाम, ब्रह्मचर्य पालन के मानसिक चिकित्सापूर्ण उपाय, आसक्ति का मार्मिक स्पष्टीकरण आदि सब का बहुत ही सुन्दर वर्णन इस अध्ययनमें. किया गया है।
गुरुदेव बोले:[१] सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शन से संपन, संयम तथा तपश्चर्या में
रत, और आगम (शास्त्र) ज्ञान से परिपूर्ण एक प्राचार्यवर्य (अपने शिष्यसमुदाय सहित एक पवित्र ) उधान में पधारे।
टिप्पणी-उस समयमें विशेषतः मुनिवर्ग नगर के समीप के उद्यानों में उद्यानपति की आज्ञा प्राप्तकर रहा करते थे और वहीं पर धर्मप्रवचन सुनने के लिये राजा, महाराजा, राजकर्मचारी तथा नगरजन आकर उनका लाभ लेते थे और धर्माचरण करनेमें दत्तचित्त रहा करते थे। [२] ( उस समय सद्बोध सुनने के लिये पधारे हुए) राजा,
राजप्रधानों (मंत्रियों), ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा इतर वैश्यजनों ने अपने मन की चंचलता छोड़कर अत्यन्त श्रद्धा एवं विनय सहित उन महापुरुप से प्रश्न किये कि हे भगवन् ! आपका आचार तथा गोचर आदि किस प्रकारके हैं, उनका स्वरूप क्या है आदि सब बातें आप कृपाकर हम से कहो।
टिप्पणी-मन की चंचलता को छोडे विना तत्त्व का गहरा अनुशीलन' नहीं होता और न चंचल मनमें विनय तथा श्रद्धा का विकास ही होता है। विचारक दृष्टि प्राप्त करने के लिये मन की चंचलता का त्याग करने की एकतम आवश्यकता है इसी लिये उक्त गुण के अस्तित्व का विधान उन श्रोताओं में किया है। सूत्रकारने इस विशेषण का यहां उपयोग कर के
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धर्मार्थकामाध्ययन
प्रकारान्तर से इस बात का उपदेश दिया है कि मुमुक्षु एवं जिज्ञासु श्रोता को मन को निश्चल बनाये विना धर्म एवं तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती।
इस गाथामें आचार शब्द का वास्तविक आशय धर्म अथवा धर्मपालन के मूल नियमों से है और गोचर' शब्द का आशय संयमपालन के उन इतर नियमों से है जिन के द्वारा मूलव्रतों की पुष्टि होती है। [३] इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, यावन्मात्र प्राणियों के सुख के
इच्छुक, और निश्चल मन रखनेवाले ये विचक्षण महात्मा शिक्षा से युक्त होकर इस प्रकार उत्तर देने लगे:
टिप्पणी-शिक्षा के दो प्रकार है (१) आसेवना शिक्षा; और (२) ग्रहण शिक्षा । प्रथम शिक्षामें शानाभ्यास का समावेश होता है और दूसरीमें तदनुसार आचरण करने का समावेश होता है। [४] (गुरुदेव बोलेः) हे श्रोताओ ! धर्म के प्रयोजन रूपी मोक्ष के
इच्छुक निग्रंथों का अति कठिन और सामान्य जनों के लिये असाध्य माने जाने वाले संपूर्ण प्राचार तथा गोचर का मैं
संक्षेप से वर्णन करता हूं उसे तुम ध्यान पूर्वक सुनो। [२] इस लोक में जिसका पालन करना अत्यन्त कठिन है उस दुष्कर
व्रत एवं प्राचार का विधान एकान्त मोक्ष के भाजन स्वरूप एवं संयम के स्थानस्वरूप वीतराग धर्म के सिवाय अन्यत्र कहीं पर भी (किसी भी धर्म में), नहीं किया गया और न किया ही जायगा ।
टिप्पणी-जैनधर्म में श्रमण तथा गृहस्थवर्ग दोनों के लिये कठिन नियम रक्खे गये हैं उन नियमों का जितने अंशमें पालन होता जाता है उतने ही अंशमें त्याग एवं तप की स्वाभाविक आराधना होती जाती है और उसीको आत्मविकास कहते है।
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दशवकालिक सूत्र [६] पूर्व के महापुरुपोंने वाल (शारीरिक एवं मानसिक शक्ति में
अपक्व), व्यक्त (शारीरिक एवं मानसिक शक्ति में परिपक्व), अथवा वृद्ध (जराजीर्ण) अथवा रोगिष्ट के लिये भी जिन नियमों को अखंड एवं निदोप रूप से पालन करने का विधान कर उन के स्वरूपका जैसा वर्णन किया है, वह मैं अब तुम्हें कहता हूं, उसे तुम ध्यान पूर्वक सुनो।
टिप्पणी-जिन स्थानों का वर्णन नीचे किया है उनका पालन प्रत्येक साधक को भले ही वह अवस्थामें बालक हो, युवा हो, वृद्ध हो रोगिष्ठ हो या नीरोग हो, कुछ भी क्यों न हो फिर भी करना अनिवार्य हैं क्योंकि ये गुण साधुत्व के मूल हैं। इन नियमों के पालनमें किसी भी साधु के लिये कैसा भी अपवाद नहीं है। चाहे जैसे संयोगों एवं परिस्थितियों में इन नियमों का परिपूर्ण पालन करना प्रत्येक मुनि का कर्तव्य है। [७] उस प्राचार के निम्नलिखित १८ स्थान है । जो कोई अज्ञानी
साधक उन में से एक की भी विराधना करता है वह
श्रमणभाव से भ्रष्ट हो जाता है । [4] (वे १८ स्थान इस प्रकार हैं:) छ व्रतों (पंच महानत तथा
छट्ठा रात्रिभोजनत्याग) का पालन करना; पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा ब्रस इन पटकाय जीवोंपर संपूर्ण दया भाव रखना; अकल्प्य (दूपित) श्राहार पानी ग्रहण न करना; गृहस्थ के भाजन (बर्तन) में न खाना-पीना; उस के पलंग पर न बैठना; उस के आसन पर न बैठना; स्नान तथा शरीर की शोभा का त्याग करना ।
टिप्पणी-साधु को शरीर की शोभा बढाने के लिये स्नान, सुगंधित तैलादि लगाना अथवा टापटीप करना उचित नहीं है। गृहस्थ के बर्तन, पलंग, आसन अथवा अन्य साधनों को अपने उपयोगमें लाना ठीक नहीं है
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धर्मार्थकामाध्ययन
क्योंकि ऐसा करने से विलासिता एवं परतंत्रता आती है। जहां देहभान, विलास एवं परतंत्रता आजाय वहां संयम एवं स्वावलंबन का नाश हो जाता है।
1
[8] ( प्रथम स्थान का स्वरूप ) समस्त जीवों के साथ संयमपूर्वक वर्तना यही उत्तम प्रकार की अहिंसा है और भगवान महावीर ने उसे १८ स्थानों में सब से पहिला स्थान दिया है ।
टिप्पणी-संयम ही श्रहिंसा का बीज है । श्रहिंसा का उपासक संयमी न रहे तो वह अहिंसा का पालन यथोचित रीति से नहीं कर सकता मन, - वचन और काय पर ज्यों २ संयम का रंग चढता जाता है त्यों २ साधक अहिंसा में आगे २ वढता जाता है ऐसा भगवान महावीरने कहा है 1
अहिंसा का पालन कैसे किया जाय ?
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[10] संयमी साधक इस लोक में जीव हैं उनमें से किसी को मारे नहीं, दूसरों से मरावे की प्रशंसा ही करे ।
जितने भी त्रस एवं स्थावर भी जानकर या गफलत में स्वयं नहीं, और न किसी मारनेवाले
[११] ( हिंसा क्यों न करे उसका कारण बताते हैं : ) जगत के ( छोटे बडे ) समस्त जीव जीवित रहना चाहते हैं, कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता इस लिये इस भयंकर पापरूप प्राणिहिंसा को निर्बंथ पुरुष सर्वथा त्याग देते हैं ।
"
+
[१२] ( दूसरा स्थान ) संयमी अपने स्वार्थ के लिये या दूसरों के लिये, क्रोध से किंवा भय से, दूसरों को पीडा देनेवाला हिंसाकारी असत्य वचन न कहे न दूसरों द्वारा कहलावे और न किसीको असत्य भाषण करते देख उस की अनुमोदना ही करे |
टिप्पणी- वास्तव में किसी भी प्रकारका असत्य बोलना संगमी साधक के लिये त्याज्यं ही है । संयमी को कैसी भाषा बोलनी चाहिये तत्संबंधी
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दशवैकालिक सूत्र
सविस्तर वर्णन आगे के ' सुवाक्य शुद्धि' नामक ७ वें अध्ययन में आवेगा । असत्य न बोलने के साथ ही साथ साधकको असत्याचरण न करने का भी ध्यान रखना चाहिये क्यों कि इन दोनों के मूलस्वरूप चित्तवृत्ति में एक ही प्रकार का सत्य भाव छिपा रहता है । उनमें अन्तर केवल इतना हो . हैं कि एक का प्रदर्शन वाणी द्वारा होता है तो दूसरे का कार्यों द्वारा । इसलिये इन दोनों का समावेश एक ही पाप किया है ।
दम
[१३] क्यों कि इस लोक में सभी साधु पुरुषोंने मृपावाद ( श्रसत्य भाषण ) की निंदा की है । असत्यवादी पुरुष का कोई भी जीव विश्वास नहीं करता इस लिये असत्य का सर्वथा त्याग करना ही उचित है ।
[ १४+१५ ] ( नीसरा स्थान ) सजीव अथवा अजीव वस्तु को थोडे किंवा अधिक प्रमाण में, यहां तक कि दांत कुरेदने के एक तिनके जैसी वस्तु को भी, उस के मालिक की श्राज्ञा विना संयमी पुरुष स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों द्वारा ग्रहण नहीं कराते और न श्रदत्त ग्रहण करनेवाले की कभी अनुमोदना ही करते हैं ।
टिप्पणी- 'संयमी पुरुष' इसका आशय यहां अचौर्य महाव्रतधारी पुरुषसे है क्योंकि ऐसा पुरुष ही कुछ भी परिग्रह नहीं रखता । इसने तो अपनी मालिको की भी सर्व वस्तुओं- परिग्रहों को विश्व के चरणों में समर्पण कर दी होती हैं, इसी लिये वह सामान्य से सामान्य वस्तुको भी मालिक की आशा के विना ग्रहण नहीं कर सकता । संयमी गृहस्थ इस प्रकार का संपूर्ण त्याग नहीं कर सकता इसलिये उसके लिये अनधिकार किवा हक्करहित वस्तु के ग्रहण करने की मनाई को है । इसीको अचौर्यानुव्रत कहते है । प्राप्त वस्तु में भी संयम रखना और अपरिग्रह ( निर्ममत्व ) भावकी वृद्धि करना इन दोनोंका समावेश गृहस्थ साधक के पंचम व्रत में होता है ।
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धर्मार्थकामाध्ययन
८६
[१६] (चौथा स्थान) संयम के भंग करनेवाले स्थानों से दूर
रहनेवाले (अर्थात् चारित्रधर्म में सावधान) मुनिजन साधारण जनसमूहों के लिये अत्यन्त दुःसाध्य, प्रमाद का कारणभूत एवं महा भयंकर अब्रह्मचर्य का कभी भी सेवन ।
नहीं करते हैं। [१७] क्योंकि यह अब्राह्मचर्य ही अधर्नका मूल है । मैथुन ही महा
दोपों का भाजन है इसलिये मैथुन संसर्ग को निग्रंथ पुरुष त्याग देते हैं।
टिप्पणी-महापुरुप नामचर्यव्रत को सर्व व्रतों में समुद्र के समान प्रधान' मानते हैं क्योंकि अन्य व्रतोंका पालन अपेक्षाकृत सरल है । ब्रह्मचर्यका पालन हो अत्यन्त कठिन एवं दुःसाध्य है । सारांश यह है कि ब्रह्मचर्य के भंग से अन्यव्रतों का भंग और उसके पालन से अन्य व्रतों का पालन सुगमता से हो सकता है। [१८] (पांचवां स्थान) जो साधुपुरुष ज्ञातपुत्र (भगवान महावीर.)
के वचनों में अनुरक्त रहते हैं वे वलवण (सिका हुआ नमक), श्राचार श्रादिका सामान्य नमक, तेल, घी, गुड आदि अथवा इसी प्रकार की अन्य कोई भी खाद्य सामग्री का रात तक संग्रह (संचय) नहीं कर रखते हैं, इतना ही नहीं संचय कर
रखने की इच्छा तक भी नहीं करते हैं । [१६] क्योंकि इस प्रकारका संचय करना भी एक या दूसरे प्रकार का
लोभ ही तो है अर्थात् इस प्रकार की संचय भावनासे लोभकी वृद्धि होती है इसलिये मैं संग्रह की इच्छा रखनेवाले साधु को साधु नहीं मानता हूं किन्तु वह एक अवती सामान्य गृहस्थ ही है ।
टिप्पणी-सच पूछिये तो ऐसा परिग्रही साधु गृहस्थ को भी उपमा के योग्य नहीं है क्योंकि गृहस्थ तो त्याग न कर सफने के कारण अपने आपको.
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पूर्ण संयमी नहीं बताता, किन्तु ऐसा साधु तो अपने आपको 'साधु' पूर्ण संयमी-कहलवाता है । भावों की दृष्टि से विचार करने पर हमें मालूम होता है कि गृहस्थ के उस थोडेसे त्यागमें भी पूर्णश्रद्धा-सम्यक्व-को भावना छिपी हुई है तभी तो वह भगवान के कहे हुए मार्ग पर पूर्ण श्रद्धान रखकर अपनी शक्त्यनुसार उसका पालन करता है; किन्तु एक साधु तो त्याग को चरम सीमा पर पहुंच कर भी उस पदस्थ के योग्य त्याग के विरुद्ध परिग्रह इकट्ठा करने लगता है तो यह उसके लिये अतिचार नहीं किन्तु अनाचार है और स्वेच्छापूर्वक अनाचार के मूल में अश्रद्धा-मिथ्यात्व-भाव छिपा हुआ है । इसलिये आचार्योंने ऐसे मिथ्यात्वी साधु की अपेक्षा सम्यक्त्वी (सम्यग्दृष्टि) श्रावक को ऊंचा (श्रेष्ठ ) बताया है । [२०+२१] ( यहां कोई यह शंका करे कि साधु वस्त्र, पान इत्यादि
वस्तुएं अपने पास रखते हैं तो क्या ये वस्तुएं संग्रह या परिग्रह नहीं हैं ? उसका समाधान इस गाथा में किया जाता हैं :) संयमी पुरुप संयम के निर्वाह के लिये जो कुछ भी वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपुंछन, रजोहरण आदि संयम के उपकरण धारण करता अथवा पहिनता है उसको जगत के जीवों के परम रक्षक ज्ञातपुत्र भगवान महावीर देव ने परिग्रह नहीं बताया, किन्तु उस में संयम धर्म कहा है । यदि साधु उन वस्त्रादि उपकरणों में ममत्व भाव (मूछी भाव) करेगा तो ही वे उसके लिये परिग्रह है ऐसा ऋपीश्वर भगवान ने कहा है ।
टिप्पणी-संयम के साधनों को निरासक्त भाव से भोगना इस में धर्म है क्योंकि ये संयम की रक्षा, वृद्धि एवं निर्वाह के कारण है किन्तु जब ये साधन ही साधन न रहकर उल्टे बंधनरूप हो जाते हैं तभी वे त्याज्य हो जाते हैं । इसीलिये, यदि सच पूंछा जाय तो संयम न तो, वस्त्र, धारण करने में है और न वन त्याग में, किन्तु भावना में हैं। इसी रहस्य को यहां समझाया है । वस्त्र तथा समस्त साधनोंका त्यागी भी यदि आसक्त है
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अर्थात त्यागभाव का उसमें विकास नहीं हुआ है तो वह तात्त्विक दृष्टि से संयमी (साधु ) नहीं है।
जैन धर्म का त्याग आत्मा से अधिक संबंध रखता है। केवल वाण त्याग को शास्त्रकारों ने मुख्यता नहीं दी है । यदि एसी मुख्यता दी जायगी तो वस्तुत: उसका कोई महत्त्व ही न रहेगा क्योंकि ऐसा मानने से संसार के समस्त पशु, रास्ते में नंगे पडे रहनेवाले मितुक आदि सभी परम संयमी कहलाने लगेंगे क्योंकि उनके पास वाह्य रूप में तो किसी भी प्रकार का परिग्रह है ही नहीं । फिर वे साधु क्यों नहीं ? इसलिये अन्त में यही मानना पडेगा कि त्याग तो वही सच्चा है जो आत्मा के अन्तस्तल में से गहरे वैराग्य के प्रतिफल खरूप पैदा हुआ हो । इसी त्याग को जैन धर्म में ' त्याग' कहा है। [२२] इसलिये सब वस्तुओं ( वस्त्र, पात्र श्रादि उपधि) तथा
संयम के उपकरणों के संरक्षण करने में अथवा उनको रखने में ज्ञानी पुरुप ममत्व नहीं करते हैं। और तो क्या, अपने शरीर पर भी वे ममत्व नहीं रखते ।
टिप्पणी-संयमी पुरुष देहभान को भूल जाने की क्रियाएं सदा करते हैं । जिस शरीर का संबंध जन्म से लेकर मरणपर्यंत है और जो अशानजन्य काँसे
आत्मा के साथ एक रुप हो गया है ऐसे शरीर पर भी जो ममत्वभाव नहीं रखता है अथवा देहभान भूल जाने की चेष्टा करता रहता है ऐसा चरम वैराग्यवान साधु वस्त्र, पात्र, कंवल आदि पर कैसे मोह कर सकता है ? और यदि इन वस्तुओं पर उसको मोह हो तो उसे संयमी कैसे कहा जाय ? [२३] (कट्टा व्रत) सभी ज्ञानी-पुरुषों ने कहा है कि अहो! साधु
पुरुषों के लिये कैसा यह नित्य तप है कि जो जीवनपर्यन्त संयम निर्वाह के लिये उन्हें मिक्षावृत्ति करनी होती है और एक भक्त अर्थात् केवल दिवस में ही आहार ग्रहण कर रहना
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दशवैकालिक, सूत्र होता है, और रात्रि में उनको श्राहार ग्रहण का सर्वथा त्याग करना होता है।
टिप्पणी-चार प्रहरों का एक भक्त होता है । 'एक भक्त ' शब्द का 'एकवार भोजन करना ' भी अर्थ हो सकता है किन्तु यहां उसका प्राशय रात्रि भोजन त्याग से ही है। [२४] (रात्रिभोजन के दोप बताते हैं:) धरती पर ऐसे त्रस एवं
सूक्ष्म स्थावर जीव सदैव व्याप्त रहते हैं जो रात्रिको अंधेरे में दिखाई नहीं देते तो उस समय आहार की शुद्ध गवेपणा किस प्रकार हो सकती है।
टिप्पणी-रात्रिको आहार करने से अनेक सूक्ष्म जीवों की हिंसा हो सकती है तथा भोजन के साथ २ जीव जन्तुओं के पेट में चले जाने से रोग हो जाने की संभावना है । तीसरा कारण यह भी है कि रात्रिभोजन करने के बाद तुरन्त हो सो जाने से उसका यथोचित पाचन भी नहीं होता । इस प्रकार रात्रिभोजन करने से शारीरिक एवं धार्मिक इन दोनों दृष्टियों से अनेक हानियां होती है । इसीलिये साधु के लिये रात्रिभोजन सर्वथा निषिद्ध कहा गया है ।' गृहस्थों को भी इसका त्याग करना योग्य है क्योंकि इन दोषों की उत्पत्ति में उसके पदस्थ के कारण कोई भिन्नता नही होती। [२५] और पानी से भीगी पृथ्वी हो, अथवा पृथ्वी पर वीज फैले
हों अथवा चींटी, कुंथु आदि बहुत से सूक्ष्म जीव मार्ग में हों इन सबको दिनमें तो देखकर इनकी हिंसा से बचा जा सकता है किन्तु रात्रि को कुछ भी दिखाई न देने से इनकी हिंसा से कैसे बचा जा सकता है ?.(इनकी हिंसा हो जाने
की पूर्ण संभावना है) [२६] इत्यादि प्रकार के अनेकानेक दोषों की संभावना जानकर ही
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ने फरमाया है कि निर्ग्रन्थ (संसार
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की ग्रंथि से रहित) साधु पुरुष रात्रि में किसी भी प्रकार का
श्राहार एवं पेय (प्रवाही पीने योग्य पदार्थ) का सेवन न करे। [२७] (सातवां स्थान ) सुलमाधिवंत संयमी पुरुप मन, वचन और
काय से पृथ्वीकाय के जीवों को नहीं मारता, दूसरों द्वारा नहीं मरवाता और न किसी मारनेवाले की प्रशंसा ही करता है।
टिप्पणी-साधु पुरुष जव संयम अंगीकार करते हैं उस समय तीन करण (कृत, कारित एवं अनुमोदना ) और तीन योगों (मन, वचन और काय) से हिंसा के प्रत्याख्यान लेते हैं। पहिले नत के ३४३=EXE=८१ मेद; दूसरे व्रत के ३४३=x=३६ मेद; तीसरे व्रत के ३४३%६x६=५४ मेद: चौथे व्रत के ३४३%D8x३=२७ मेद; पांचवें व्रत के ३४३-६x६:५४ मेद; और छठे व्रत के ३६ भेद होते हैं । इसका सविस्तर वर्णन इसी ग्रंथके चौधे अध्ययन में किया गया है। [२८] क्योंकि पृथ्वीकाय की हिंसा करनेवाला पृथ्वी के श्राश्रय में रहने
वाले दृष्टिसे दीखने और न दीखनेवाले भिन्न २ प्रकार के
अनेक त्रस एवं स्थावर जीवों की भी हिंसा कर डालता है। [२६] यह दोप दुर्गति का कारण है ऐसा जानकर पृथ्वीकाय के
समारंभ (सचित्त पृथ्वी की हिंसा करनेवाले कार्य) को साधु पुरुप जीवनपर्यन्त के लिये त्याग दे। .
टिप्पणी-केवल साधु पुरुषों के लिये ही ऐसे कठिन मत के पालने की आशा दी है क्योंकि गृहस्थजीवन तो एक ऐसा जीवन है. जहां इन सामान्य पापों को किये बिना कोई काम ही नहीं हो सकता। फिर भी गृहस्थ को भी सब जगह सावधानी एवं विवेक रखना चाहिये । [३०] (आठवां स्थान ) सुसमाधिवंत संयमी पुरुष मन, वचन और
कायसे जलकायके जीवों की हिंसा नहीं करता, दूसरों से हिंसा
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नहीं कराता और न दूसरों को वैसी हिंसा करते देखकर उसकी अनुमोदना ही करता है ।
[३१] क्योंकि जलकाय जीवों की हिंसा करनेवाला जलके श्राश्रय रहनेवाले दृश्य एवं दृश्य भिन्न २ प्रकार के अनेक त्रस एवं स्थावर जीवों की भी हिंसा कर डालता है ।
टिप्पणी- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति सरीखे सूक्ष्म जीवों की संपूर्ण अहिंसा का पालन करना गृहस्थ जीवन में सुलभ नहीं है इसलिये गृहस्थ श्रावक के प्रथम व्रतमें सुसाध्य केवल त्रस जीवों की हिंसा का हो त्याग कराया है और उसमें भी अपना कर्तव्य बजाते समय एवं अनेक प्रसंगो में खास अपवाद नियमों का भी विधान किया है किन्तु उनसे पृथ्वी, जल आदि जीवों का गृहस्थ मनमाना दुरुपयोग या नाश करे ऐसी छूट नहीं दी गई । सातवें व्रत में गृहस्थ को खास तौरपर चेताया गया है कि वह आवश्यकता से अधिक किसी भी पदार्थ का उपयोग न करे और छोटे वडे प्रत्येक कार्यमें जीवरक्षा की सावधानता एवं विवेक रखखे । *
[३२] यह पाप दुर्गति का कारण है ऐसा जानकर जलकाय के समारंभ को साधुपुरुष जीवनपर्यन्त के लिये त्याग दे ।
टिप्पणी- जैन सूत्रों में 'आरंभ' एवं ' समारंभ' के अर्थ 'हिंसक
• क्रिया करना' और 'हिंसक क्रिया के साधन जुटाना ' हैं ।
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[३३] ( नौवां स्थान ) साधु पुरुष श्रभि सुलगाने की कभी भी इच्छा न करे क्योंकि वह पापकारी है और लोहे के अस्त्रशस्त्रों की भी पेक्षा अधिक एवं प्रति तीक्ष्ण शस्त्र है और उसको सह लेना अत्यंत दुष्कर है ।
[३४] और भी (अग्नि) पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण इन चारों दिशाओं तथा ईशान, नैऋत्य, वायव्य एवं श्राग्नेय इन चारों * विशेष सविस्तर वर्णन जानने के लिये श्रावक प्रतिक्रमण विधि देखो ।
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विदिशाओं तथा ऊपर और नीचे इन दसों दिशाओं में प्रत्येक वस्तु को जलाकर भस्म कर डालती है ।
[३५] श्रग्नि प्राणिमात्र का नाशक (
शस्त्र ) है - इसमें लेशमात्र की शंका नहीं है, इसलिये संयमी पुरुष प्रकाश किंवा ताप लेने के लिये कभी भी अग्निकाय का प्रारंभ न करे ।
[३६] क्योंकि यह पाप दुर्गति का कारण है ऐसा जानकर साधु पुरुप अनिकाय के समारंभ को जीवनपर्यन्त के लिये त्याग कर देते हैं ।
[३७] ( दसवां स्थान ) ज्ञानी साधु पुरुष वायुकाय के प्रारंभ (हिंसा) को भी अनिकाय के प्रारंभ के समान ही पापकारी - दूपित मानते हैं इसलिये पटुकाय जीवों के रक्षक साधु को वायु का घारंभ न करना चाहिये ।
[३८] इसलिये ताडपत्र के पंखासे, सामान्य वीजना से अथवा वृक्षकी शाखा को हिलाकर संयमी पुरुष अपने ऊपर हवा नहीं करते हैं, दूसरों से अपने ऊपर हवा कराते नहीं हैं और दूसरों को वैसा करते देखकर उसकी अनुमोदना भी नहीं करते हैं ।
[३६] और संयमी पुरुष अपने पास के वस्त्रों, पात्रों, कंबल, रजोहरण आदि ( संयम के साधनों ) के द्वारा भी वायु की उदीरणा (वायु उत्पन्न होने की क्रिया ) नहीं करते हैं किन्तु उनको उपयोग पूर्वक संयम की रक्षा करने के लिये ही धारण करते हैं।
[४०] क्योंकि यह दोप दुर्गति का कारण है पुरुष जीवन पर्यंत के लिये वायुकाय के कर दे ।
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ऐसा जानकर साधु समारंभ का त्याग
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[४] (ग्यारहवां स्थान) सुसमाधिवंत संयमी पुरुष मन, वचन और
काय से वनस्पति को हिला नहीं करते, दूसरों द्वारा हिला नहीं करते और न वैसे किसी हिंलक की प्रशंसा ही
करते हैं। [१२] क्योंकि वनस्पति की हिंसा करने वाला दह मनुष्य वनस्पति के
श्राश्रय में रहने वाले दृश्य एवं अदृश्य अनेक प्रकार के जीवों
की भी हिंसा कर डालता है। [४३] इसलिये यह दोष दुर्गति का कारण है ऐसा जानकर साधु
पुरुष जीवन पर्यंत के लिये वनस्पतिकाय ३ श्रारंभ का
त्याग कर दे। [४४] (वारहवां स्थान) सुलमाधिवंत पुरुप मन, वचन और काय
से ब्रल जीवों की हिंसा नहीं करता, हिला कराता नहीं और इन जीवों की हिंसा करनेवाले की प्रशंसा भी नहीं करता।
टिप्पणी-त्रसकाय अर्थात् चलने फिरने वाले जीव । इनमें द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक का समावेश होता है। कृमि, चींटी, भौंरा, पशु एवं मनुष्य इत्यादि सभी त जीव कहलाते हैं। [४श क्योंकि बलजीवों की हिंसा करने वाला उन ब्रसकाय जीवों के
आधार पर रहते हुए अन्य दृश्य एवं अदृश्य अनेक प्रकार के
जीवों की भी हिला कर डालता है। [४६] और यह दोप दुर्गति का कारण है ऐला जावझर लाधु पुरुप
जीवन पर्यंत के लिये सज्ञाय के जीवों की हिंसा का त्याग कर दे।
टिप्पणी-ऊपर जिन वारह स्थानों का वर्णन किया है वे साधु के 'मूलगुण ' कहलाते हैं। अब आगे ६ उत्तर गुणों का वर्णन करते हैं। 'भूलगुणों को पुष्ट करने वाले गुण को ' उत्तर गुण' कहते हैं।
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[४०] (तेरहवां स्थान) थाहार, शय्या, वस्त्र, तथा पात्र इन चार
प्रकारो में से किसी भी प्रकार की वस्तु को, जो साधु पुरुप के लिये प्रकल्प्य (अग्राह्य ) हो उसको भितु कभी भी ग्रहण न करे अर्थात् इनमें से जो कोई भी वस्तु अकल्प्य हो उसे त्याग कर संयमी अपने संयम पालनमें दत्तचित्त रहे।
टिप्पणी-श्रीमान् परिभद्रसूरिजीने दो प्रकार के अकल्य माने है। (१) शिला स्थापनाकल्प अर्थात् पिंडनियुक्ति तथा आहारादि की एपणाविधि नाने विना आहार ग्रहण करना और उसमें दोष होने की संभावना होने से उसे अकल्ल्य कहा है; तथा (२) स्थापनाफल्प-इनका वर्णन निमलिखित गाथाओं में दिया गया है। ऐसी वस्तुओं को साधु पुरुष कभी भी ग्रहण न करे। [८] थाहार, शय्या, वत्र एवं पान इन चार वस्तुओं में से संयमी
साधु के लिये जो २ वस्तु प्रकल्प्य हों उन्हें ग्रहण करने की साधु कभी भी इच्छा तक न करे किन्तु जो कोई कल्प्य हों
उन्हें ही वह ग्रहण करे। [४] जो कोई साधु (१) नियाग (नित्यक ) पिंड (अर्थात् नित्य
प्रति एक ही घर से आहार लेना) अधवा 'ममायंति (अर्थात् जो कोई ममत्व भाव से आमंत्रण दे वहीं श्राहार लेना), (२) भितु के लिये ही खरीद कर लाया हुआ थाहार लेना, (३) साधु के निमित्त ही बनाया गया श्राहार ग्रहण करना, (४) दूर २ से श्राकर साधु को याहार दें ऐसे श्राहार को ग्रहण करना-इन प्रकार के दृपित श्राहार पानी को जो साधु ग्रहण करता है वह भिनु (परोत रीति से) जीवहिंसा का अनुमोदन करता है ऐसा भगवान् महावीर ने फरमाया है।
टिप्पणी-अपने निमित्त से किसी जीवको हिंसा न हो तथा किसी को दुःख न हो उस प्रकार से आहार प्राप्त कर संयमी जीवन का निर्वाह करना, यदी भिक्षुओं का धर्म है।
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[२०] इसलिये संयम में स्थिर चित्तवाला धर्मजीबी निग्रंथ पुरुप क्रीत,
ओद्देशिक, शाहृत श्रादि दोपों से युक्त आहार पानी ग्रहण नहीं करता।
टिप्पणी-इतका सविस्तर वर्णन जानने के लिये इसी ग्रंथ का तीसरा अध्ययन देखो। [१] (चौदहवां स्थान) गृहस्थ के कांसा श्रादि धातुओं के प्यालों,,
दूसरे वर्तनों (गिलास, लोटा, थाली आदि) अथवा मिट्टी के वर्तन में आहार करनेवाला मितु अपने संयम से भ्रष्ट हो
जाता है। [१२] (क्योंकि गृहस्य के वर्तनों में जीमने से) उसके वर्तनों को
यदि धोना पड़े तो ठंडे सचित्त पानी की हिंसा होगी और उसको दूर फेंकने से अन्य बहुत से जीवों की हिंला होगी, इसीलिये तीर्थकरादि देवोंने वैला करनेमें असंयम कहा है।
टिप्पणी-ऊपर पर से देखने से तो यहां ऐता मालून होता है कि पदि ऐसी सामान्य बातले भी साधुके संयम का लोप हो जाया करें तो संचमी पैले जीवित रह सकता है ? परन्तु इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करने पर मालूम हो जायगा कि सामान्य दोसती हुई खलना भी क्रमशः थोडी २ देर बाद दूसरी अनेक भूलों को जन्म देती रहती है और अन्तने परिणाम रतना भयंकर आता है कि संवन से भ्रष्ट होने का मौका आ पडता है। इसीलिये साधु के लिये सामान्य जैसी भूलों से सतत जागृत रहने का विधान किया है।
गृहस्थों के वर्तनों में भोजन करने से संयमी में इतर दोषों के भी पैदा होजाने की संभावना है इसीलिये अपने ही काठ, मिट्टी के पात्रों में भोजन करने का संयमी के लिये विधान किया गया है।
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[२३] फिर गृहस्थ के वर्तनों में भोजन करने से पश्चालम तथा
पुराकर्म ये दोनों दोप लगने की भी संभावना है। इसलिये साधुओं के लिये उनमें भोजन करना योग्य नहीं है ऐसा विचार कर निग्रंथ पुरुप गृहस्थ के वर्तनों में भोजन नहीं करते हैं।
टिप्पणी-पुराकर्म तथा पश्चात्कर्म का खुलासा इसीग्रंथ के पांचवें अध्ययन में प्रथम उद्देशक की ३२ वी तथा ३५ वी गाथामें किया है।
[१४] (पन्द्रहवां स्थान) सन की चारपाई, निवार का पलंग, लन
की रस्सियों से बने हुए मचान तथा वेंत की आराम कुरसी श्रादि श्रासन पर बैठना या लोना (लेटना) साधु पुरुप के
लिये अनाचीर्ण (अयोग्य) है। [२५] इसलिये तीर्थकरकी आज्ञा का पाराधक निग्रंथ मुनि उक्त प्रकार
की चारपाई, पलंग, मचान अथवा वेंत की कुरसी पर नहीं वैठता है क्योंकि वहां पर रहे हुए सूक्ष्म जीवों का प्रतिलेखन वरावर नहीं हो सकता और साधु जीवन में विलासिता भा जाने
की आशंका है। [२६] उक्त प्रकार के आसनों के कोनों में नीचे या आसपास अंधेरा
रहा करता है इस कारण उस अंधेरे में रहने वाले जीव वरावर न दीखने से उनपर बैठते हुए उनकी हिंसा होजाने की आशंका है। इसलिये महापुरुषोंने इस प्रकार के मचान तथा
पलंग आदि पर बैठने का त्याग करने की आज्ञा दी है। [१७] (सोलहवां स्थान) गोचरी के निमित्त गृहस्थ के घर बैठना
योग्य नहीं है क्योंकि ऐसा करने में निम्नलिखित दोप लगने की संभावना है और अज्ञान की प्राप्ति होती है। .
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__ दशवकालिक सूत्र । गृहस्थ के घर बैठने से लगनेवाले दोप श्] ब्रह्मचर्य व्रत के पालने में विपत्ति (तति) आने की संभावना
है। वहां प्राणीनों का वध होने से साधु का संयम दूपित हो सकता है। यदि उसी समय अन्य कोई भिखारी मितार्थ श्रावे तो उसको श्राघात होने की संभावना है और इससे उस गृहस्थ का कोप भाजन बन जाने का डर भी है।
टिप्पणी-गृहत्य लियों के प्रति परिचय से कदाचिर ब्रह्मचर्य भंग हो जाने का डर है। गृहत्य लो, परिचय होने से रागी दन कार उत मिनु के निमित्त खानपान बनाये जिसने जीवों की विराधना होने का डर है और घर के मालिक को भी नुनि के चरित्र पर संदेह होने से क्रोध करने का प्रवत्तर आ सकता है। इत्यादि दोष परंपराओं पर विचार करके हो महर्षियोंने भिन्नु को गृहस्थ के घर जाकर बैठने की ननाई की है। [१६] गृहस्य के घर जाकर बैठने से ब्रह्मचर्य का यथार्थ पालन
(रतण) नहीं हो सकता और गृहस्थ स्त्री के साथ अतिपरिचय होने से दूसरों को अपने चरित्र पर शंका करने का मौका मिल सकता है। इसलिये ऐसी कुशीलता (दुराचार) को बढाने वाले स्थान को संयमी दूर ही से छोड दे (अर्थात् मुनि. गृहस्थों के यहां जाकर न बैठे)।
टिप्पणी-गृहत्यों के यहां शारीरिक कारण विना दैठना अथवा कथावार्ता आदि कहना ये सब बातें संपन को घातक है इसलिये इनका त्याग करना उत्रित है। [६०] किन्तु रोगिष्ठ, तपस्वी अथवा जरावस्था से पीडित इनमें से
किसी भी प्रकार का साधु गृहस्थ के घर कारणवश बैठे तो वह करप्य है।
टिप्पणी-रोग, तपश्चर्या तथा बुढापा शरीर को शिथिल बना देते है। इसलिये गोचरी के निमित्त गया हुआ ऐसा साधु थक कर हाँफने लो या
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थफ जाय तो गृहस्थ के यहां उनकी आशा ले कर विवेकपूर्वक अपनी थकावट दूर करने के लिये वहां बैठ सकता है। यह एक अपवाद मार्ग है। इसका एक या दूसरे प्रकार से लाभ लेकर कोई अनर्थ म कर बैठे इसको सब साधुओं को संभाल रखनी चाहिये। [६१] (सत्रहवां स्थान ) रोगिष्ठ किंवा निरोगी कोई भी भिक्षु यदि
स्नान की प्रार्थना करे (अर्थात् स्नान करना चाहे) तो इससे अपने आचार (संयम धर्म) का उल्लंघन होता है और उससे
अपने व्रतमें क्षति आती है ऐसा वह माने । [१२] क्योंकि क्षारभूमि अथवा दूसरे किसी भी प्रकार की वैसी भूमि
पर असंख्य अतिसूक्ष्म प्राणी व्याप्त रहते हैं इसलिये यदि भिन्नु मर्म पानी से भी स्नान करेगा तो उन (जीवों की)
विराधना हुए विना न रहेगी। [६३] इस कारण ठंडे अथवा गर्म (सजीव अथवा निर्जीव) किसी
प्रकार के पानी से देहभान से सर्वथा दूर रहनेवाला साधु सान नहीं करता और जीवन पर्यन्त इस कठिन व्रत का पालन करता है।
टिप्पणी-लान से जिस प्रकार शरीर शुद्धि होती है उसी प्रकार सौंदर्य वृद्धि भी होती है और इसी दृष्टिबिंदु से सिर्फ त्यागी के लिये इसे निषिद्ध कहा है।
यद्यपि वैद्यक के नियमों के अनुसार त्यागी फ लिये मी देहशुद्धि की भावश्यकता तो है ही किन्तु वह शुद्धि तो सूर्य की किरणों आदि से भी हो सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि साधु पुरुष का आहार, विहार और निहारादि क्रियाओं के नियम ही कुछ ऐसे हैं कि जिनसे स्वभावतः उनका शरीर स्वच्छ रहता है। इस के साथ ही साथ वह ब्रह्मचर्य अादि ब्रतों का भी पालन करता है इस कारण उसका शरीर भी अशुध
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नहीं होता है। परंतु यदि कदाचित् शरीर को शुध्धि हो तो जैन सूत्रोंने त्यागो को सबसे पहिले उस अशुध्धि को दूर करने की छूट दी है और जब तक शुध्धि न हो जाय तब तक स्वाध्यायादि कोई भी धार्मिक क्रिया न करने का खास भारपूर्वक आग्रह किया है। (विशेष विस्तृत वर्णन के लिये छेद सूत्र को देखो)
इस के ऊपर से मान करना किस घष्टिते, किस के लिये, और कित स्थिति त्याज्य है उसका सुश पुरुष को फिवेकपूर्वक विचार करना उचित है। सूत्रकारने उसका ६६ वी गाथामें समाधान भी किया है। [१४] (अहारहवां स्थान ) संयमी पुरुप मान, सुगंधी चन्दन, लोध्र
कुंकुम, पद्मकेशर आदि सुगंधित पदार्थों को कभी भी अपने
शरीर पर न लगावे और न उनका मर्दन नादि ही करे। [६] प्रमाणोपेतवस्तवाले (यथाविधि प्रमाणपूर्वक वस्त्र रखनेवाले)
स्थविरकल्पी अथवानग्न जिनकल्पी अवस्थावाले, द्रव्य से तथा भाव से मुंडित (केशलोच करनेवाले ), दीर्घ रोम तथा नख रखनेवाले तथा मैथुन से सर्वथा विरक्त ऐसे संयमी के लिये विभूषा सजावट या शृंगार की क्या जरूरत है ?
टिप्पणी-सारांश यह है कि देहभान से सर्वधा दूर और सांसारिक पदार्थों के मोह से विरक्त त्यागी को अपने शरीर को सजाने की कोई भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि शरीर शृंगार भिक्षु के लिये भूषण नहीं किन्तु एक बडा दूषण है। [६६] (यदि साधु अपने शरीर की सजावट करे तो) विभूषा के
निमित्त से मितु ऐसे चीकने कर्मों का बंध करता है कि जिनके कारण वह दुस्तर भयंकर संसाररूपी सागर में गिरता है।
टिप्पणी-स्नान हो, चन्दनविलेपन हो अथवा वस हो कुछ भी किया क्यों न हो, किन्तु जब वह शरीरविभूषा के निमित्त की या पहनी जाती
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है तब वह साधक के लिये उल्टी बाधक हो जाती है और इसीलिये वह त्याज्य है। [६७] क्योंकि ज्ञानीजन विभूपासंबंधी संकल्प विकल्प करनेवाले मनको
बहुत ही गाड कर्मबंध का कारण मानते हैं और इसीलिये सूक्ष्म जीवों की रक्षा करने वाले साधु पुरुषोंने उसका मन से भी कमी सेवन (चिन्तवन) नहीं किया।
टिप्पणी-शरीर की टापटीप में जिस का चित्त संलग्न रहता है ऐसा पुरुष तत्संबंधी अनेक प्रकार के दोप कर डालता है और उसका चित्त सदा भ्रांत रहता है। [१८] मोह रहित, वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रूपमें, देखनेवाला तथा
संयम, ऋजुता तथा तपमें रक्त साधुपुरुप अपनी आत्माकी दुष्ट प्रकृति को खपा देते (क्षय कर देते ) हैं। वे निग्रंथ मुनि पूर्व संचित पापों के बंधों को भी क्षय कर देते हैं और नये
पापबंध नहीं करते हैं। -[६६] सर्वदा उपशांत, ममत्वरहित, अपरिग्रही, आध्यात्मिक विद्या का
अनुसरण करने वाले, यशस्वी, तथा प्रत्येक छोटे वडे जीवों का अात्मवत् रक्षण करने वाले साधक शरदऋतु के निर्मल चंद्रमा के समान कर्ममल से सर्वथा रहित होकर सिद्धगति को प्राप्त होते हैं अथवा स्वल्पकर्म अवशिष्ट रहने पर उच्च प्रकार के देवलोक में उत्तम जाति के देव होते हैं।।
टिप्पणी-आचार धर्म के व्रत त्यागी जीवन के अनिवार्य नियम हैं इन नियमों में अपवादों को लेशमात्र भी जगह नहीं है क्योंकि उसपर ही तो त्यागी जीवन की रक्षा का आधार है।
आचार के इन १८ स्थानों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, 'अपरिग्रह ये ५ महाव्रत है और ये मूलगुण हैं। मूलगुण ये इसलिये हैं
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दशकालिक सूत्र क्योंकि समस्त प्रकारों के त्याग के मूल ये हैं। इनके सिवाय १३ गुण और हैं और ये सव इन मूलगुलों को परिपुष्ट बनाते हैं। इसलिये भिक्षुको चाहिये कि वह अपने मूलगुणों की रक्षामें सदैव जागृत रहे।
रात्रिभोजन शारीरिक एवं धार्मिक दोनों दृष्टियों से त्याज्य है। अहिंसा की संपूर्ण आराधना के लिये ६ प्रकार के जीवों का शान करने के समान हो उनको रक्षापूर्ण प्राचार रखा जरूरी है। और इतनी ही आवश्यकता शरीर सौंदर्य तथा गृहत्यसंसर्ग इत्यादि के त्याग की है।
पतन के निमित्तों से दूर रहकर मात्र साधुजोवन की साधना में तल्लीन रहने के लिये ही, साधु के नियमों का विधान हुआ है। कोई भी साधक इन निवमों को पराधीनता का चिन्ह समझ कर छोड़ देने की भूल न करे
और न इनकी तरफ वेदरकार ही देने क्योंकि नियमों की पराधीनता साधक जन के लिये उपयोगी ही नहीं किंतु कार्यसाधक भी है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'धर्मार्थकाम' नामक छठा अध्ययन समाप्त हुआ।
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सुवाक्यशुद्धि
-(0)(भाषा संबंधी विशुद्धि)
निस प्रकार साधक के लिये कायिक संयम अनिवार्य एवं आवश्यक है उसी प्रकार साधक के लिये वचनशुद्धि की मी पूर्ण आवश्यकता है।
वाणी अन्तःकरण के भावों को व्यक्त करनेका एक साधन है और इतनी ही इसकी उपयोगिता है । इसलिये निष्कारण वाणी के उपयोग को वाचामता अर्थात् वाणी का दुरुपयोग कहा है । यही कारण है कि विशेष कारण के विना सजन पुरुष बहुत कम बोलते हैं यहां तक कि वे बहुधा मौन से ही रहते हैं। __जो कोई भी वाणी का दुरुपयोग करता है वह अपनी शक्ति का दुर्व्यय करता है, इतना ही नहीं, उतनी ही उसकी वाणी की शक्ति भी नष्ट होती जाती है । इसका फल यह होता है कि सामने के आदमी पर अभीष्ट असर नहीं पडता, साथ ही साथ उसमें असत्य अथवा कठोरता आने का भी डर रहता है।
इसलिये वाणी कैसी और कहां वोलना उचित है यह विषय साधक के दृष्टिबिंदुसे अतीव उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है और इसका. वर्णन इस अध्ययन में विस्तार के साथ किया गया है ।
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दशवकालिक सूत्र
गुरुदेव वाले:[1] प्रज्ञाशन सिचु चार प्रकार की भाषाओं के बलों को भली
भांति जानकर उनमें से दो प्रकार की नापा द्वारा विनय सीखे
यात् दो प्रकार की भाषा का विवेकपूर्वक उपयोग करे किन्तु बाक्षी की ने प्रकार की मापात्रों का तो सर्वथा उपयोग न करे। ...
टिप्पणी-मामा के चार प्रकार हैं : (१) सत्य, (२) अत्य, (३) निस, और (४) व्यवहारिक। इनमें से पहिली और अन्तिन इन दो माताओं को भिनु विन्यपूर्वक बोले और क्लस्य तथा मिस भाषाओं का साया त्याग कर दे। नय और व्यवहारिक नाम भी फार और हिंता रहित हो तो ही दोले, अन्यथा नहीं। [२] (अब सत्य भापा भी किस प्रकार की बोलनी चाहिये इसका
स्पष्टीकरण करते हैं:) बुद्धिमान मिड अवतन्य (न बोलने योन्य) सत्य हो तो उसे न बोले (जैसे बाजार में जाते हुए कोई कसाई पूंचे कि तुमने नेरी गाय देखी है तो इसके उत्तर में गाय को उधर से जाते हुए देखनेवाला उत्तर दाता यह न कहे कि "हां, देखी है, वह इधर ले गई है, आदि। क्योंकि उसका परिणाम हिंसानय ही होगा, इसलिये ऐती सत्यभाषा भी महापित कही गई है।) इसी प्रकार मिन्न नापा यांत् कह नापा जो थोडी सत्य हो और थोडी असत्य, मृपा भाषा (असत्य नापण) इन दोनों को तीर्थंकरोंने
त्याज्य कहीं हैं इसलिये वाक्यमी साधु इन दोनोंको न बोले । [३] बुद्धिमान भिनु असल्यामृपा (यवहारिक) भापा तथा सत्य
भाषाओं को भी पापरहित, अकर्कश (कोमल) तथा संदेह रहित ('नरो वा कुंजरो वा' के समान संदिग्ध भाषा नहीं) रूपसे ही विचारपूर्वक बोले ।
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सुवास्यशुद्धि
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टिप्पणी-कठोर भाषाका परिणाम बहुत ही वैर तथा मनोमालिन्य वढानेवाला होता है। वाणी भाव को व्यक्त करने का अनुपम साधन हैं . इसलिये आचरण शुद्धि के लिये जितनी भावशुद्धि की आवश्यकता है उतनी
ही वचनशुद्धि की भी आवश्यकता है। साधक को भी संसार में ही प्रवृत्ति करनी होती है और जीभद्वारा अपने मनोगत भाव व्यक्त करने के लिये भाषा का व्यवहार करना पड़ता है। ऐसी भाषा उपयोगिता तथा सर्वव्यापकता की दृष्टिसे भीजी हुई होनी चाहिये, इतना ही नहीं किन्तु साधु के मुख से झरती हुई वाणी मोठी एवं कर्तव्यसूचक भी होनी चाहिये। [1] (मिश्रभापा के दोप बताते हैं) बुद्धिमान सिन्तु मात्र हिंसक
तथा परपीडाकारी भाषा न बोले, इतना ही नहीं किन्तु. सत्यामृपा (मिश्र) भापा भी न बोले क्योंकि ऐसी भापा भी शाश्वत अर्थ (अर्थात् शुद्ध प्राशय) में बाधा डालती है।
टिप्पणी-थोडा सत्य और थोडा असत्य मिलो हुई भाषा को 'मिश्र' भाषा कहते हैं। ऐसी मिश्र भाषा बोलना भी उचित नहीं है क्योंकि मिश्र भाषा में सत्य का कुछ अंश होने से भोली जनता अधिक प्रमाण में धोखा खा जाती है। इसके सिवाय वह अपनी आत्मा को भी धोखा देती है। इसलिये सत्यार्थी साधक के लिये ऐसी भाषा ऐहिक एवं 'पारलौकिक दोनों हितों में बाधक है। [श अज्ञात भाव से भी जो साधक असत्य होने पर भी सत्य जैसी
लगनेवाली भाषा बोलता है वह पापकर्म का बन्ध करता है। तो फिर जो जानबूझ कर असत्य बोलता है उसके पाप का तो पूंछना ही क्या है ?
टिप्पणी-जैसे किसी पुरुष ने स्त्रीका रूप धारण किया हो तो यदि कोई उसे स्त्री कहे तो तात्त्विक दृष्टिसे तो यह झूठ ही है तो फिर जो. कोई सरासर झूठ बोले उसके पाप का क्या ठिकाना है?
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दशवैकालिक सूत्र पाप का आधार प्रवृत्ति पर भी है। जैसी प्रवृत्ति होगी वैता ही उसका फल होगा। जैसे विष पिनेवाले को नृत्यु स्वयं हो जाती है, अर्थात् नृत्यु को वुलाना नहीं पडता उसी तरह पापकर्म का दुष्परिणाम स्वयमेव होता रहता है। . अंतर केवल इतना ही है कि यदि वह पाप आसक्तिपूर्वक न हुआ हो तो उसफा पश्चात्तापादि द्वारा निवारण हो सकता है और यदि वह आसक्तिपूर्वक किया गया होगा तो उसके भयंकर परिणाम को भोगे विना छुटकारा हो ही नहीं सकता। [६४७] (निश्चयात्मक भाषा भी नहीं बोलनी चाहिये इसका विधान
कहते हैं) "मैं जरूर जाता हूं अथवा जाऊंगा, हम कहेंगे ही, हमारा यह काम होकर ही रहेगा अथवा ऐसा अवश्य होगा ही, मैं अमुक काम कर ही डालूंगा अथवा अमुक श्रादमी उसे अवश्य कर ही डालेगा" श्रादि निश्चयात्मक वाक्य भिक्षु न बोले क्योंकि वर्तमान एवं भविष्य के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
टिप्पणी-अनिश्चयात्मक वस्तु को निश्चयात्मक कहने से अनेक दोषों के होने की संभावना है। साधु की जिम्मेदारी जन सामान्य की अपेक्षा बहुत अधिक होने से उसके वचनों पर विश्वास रखकर कोई कुछ कार्य कर न बैठे जित से पीछे पछताने का अवसर आवे इसीलिये साधु पुरुष को कभी भी निश्चयात्मक वाणी नहीं कहनी चाहिये। अनेक वस्तुएं निश्चित होने पर भी यदि मुनि को उसको निश्चितता की खर न हो तो वह उसको भी निश्चित रूपसे न बोले । सारांश यह है कि साधु बहुत उपयोगपूर्वक अपने पर की जवावदारी का ध्यान रखते हुए भाषा का प्रयोग करे। [=] भितु भूतकाल, भविष्यकाल अथवा वर्तमानकाल संबंधी जिस
किसी बात को न जानता हो उसके विषयमें ' ऐसा ही होगा अथवा ऐसा ही है" आदि प्रकार के निश्चयात्मक वाक्यप्रयोग न करे।
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सुवायशुद्धि [1] और भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमानकाल के किसी काम के
विषयमें यदि किंचित् भी शंका हो (अर्थात् जिस कार्य का निश्चय न हो) उसके संबंधौ ‘ यह ऐसा ही है। इस प्रकार
का निश्चयात्मक वाक्यप्रयोग न करे। [२०] परन्तु भूत, भविष्य तथा वर्तमानकाल में जो वस्तु (कार्य) . संशयरहित और दोपरहित हो उसी के विषयमें 'यह ऐसा ही
है' इत्यादि प्रकार का निश्चयात्मक वाक्य कहे । (अर्थात् परिमित
भापा द्वारा उस सत्य बात को प्रकट करे) [११] जिन शब्दों से दूसरे जीवों को दुःख हो ऐसे हिंसक एवं
कठोर शब्दों को, भले ही वे सत्य ही क्यों न हों फिर भी साधक अपने मुंह से न कहे क्योंकि ऐसी वाणी से पापाव
होता है। [१२] काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और
चोर को चोर श्रादि वाक्य प्रयोग, यदि सत्य भी हों तो भी, चाक्संयमी साधु न बोले ।
टिप्पणी-क्योंकि ऐसी सच्ची बात कहने से सुननेवाले को दुःख होता है और दूसरों को दुःख देना भी एक प्रकार की हिंसा हो तो है। इसलिये जब तक निदोप सत्य भाषा बोली जा सके तहां तक ऐसी दूषित भाषा का उपयोग करना ठीक नहीं है। [१३] आचार एवं भाव को गुण दोपों को समझनेवाला विवेकी साधु
इस प्रकार के अथवा अन्य किसी दूसरे प्रकार के सुनने वाले
को कष्टप्रद अथवा उसको चुभनेवाले शप्रयोग न करे । [१४] बुद्धिमान भितु; रे मूर्ख, रे लंपट (वेश्या) रे कुतिया, रे
दुराचारी, रे कंगाल ! रे अभागी! श्रादि २ संवोधन किसी स्त्री के प्रति न कहे।
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दशवैकालिक सूत्र
हे माता ! हे मौसी ! हे
[१५] और हे दादी ! हे बडी दाढ़ी ! बुआ ! हे भानजी ! हे बेटी ! हे नातिनी !
टिप्पणी - भले ही गृहस्थाश्रम में रहते हुए ये संबंध रहे हों फिर भी साधुने तो उन संबंधों को एकवार छोड दिया है इसलिये त्यागी होद से उसके लिये उन संबंधों को पुनः याद करना ठीक नहीं है। दूसरा कारण यह भी है कि ऐसा करने से मोह बढ़ता है ।
[ १६ ] इसी तरह घरे फलानी ( कोई भी अमुक ), अरे सखी ! अरी लड़की ! आदि २ सामान्य तथा श्ररी नौकरनी ! श्ररी शेठाणी, अरे गोमिनी (गाय की मालकिन ), रे मूर्ख, रे लंपट, रे दुराचारी यहां था ! इत्यादि प्रकार के अपमान जनक शब्दों से किसीको न बुलावे और न किसी को उस तरह से
संबोधे ही ।
टिप्पणी-ऐसे अपमान जनक एवं अविवेकी शब्द बोलने से सुनने वाले को दुःख पहुंचता है इसलिये ऐसी वाणी संयमी पुरुष के लिये त्याज्य है । चाहिये ? ) किसी
[१७] ( श्रावश्यकता होने पर किस तरह बोलना स्त्री के साथ वार्तालाप करने का प्रसंग आने पर मधुर भाषामें उसका नाम लेकर और ( यदि नाम न श्राता हो तो ) योग्यतानुसार उसके गोत्र को नामका संबोधन करके एकवार अथवा (श्रावश्यकता होने पर) अनेक बार सिनु उससे वोले ।
टिप्पणी - वार्तालाप का प्रसंग आने पर सामने के दूसरे व्यक्ति की लघुता व्यक्त न होती हो ऐसी रीतिले विवेकपूर्वक हो संयमी पुरुष बोले ।
[ १८x१६] इसी तरह पुरुष के साथ वार्तालाप करने का प्रलंग श्राने पर हे बप्पा, हे बाबा, हे पिता, हे काका (चाचा), हे मामा, हे भानजे, हे पुत्र, हे पौत्र थादि मोहजनक संबन्धसूचक विशेषणों का अथवा श्ररे फलाने, हे स्वामी ! हे गोमिक ! हे
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सुवाक्यशुद्धि
मूर्ख ! हे लंपट ! हे दुराचारी ! आदि कर्कश, संवोधनों का
प्रयोग साधु न करे। [२०] परन्तु दूसरे की योग्यतानुसार उसका नाम लेकर अथवा उसके
गोत्रानुसार नामका संबोधन करके आवश्यकतानुसार एकवार
या अनेकवार बोले। [२१] इस तरह मनुष्यों के सिवाय इतर पंचेंद्रिय प्राणियों में से
जब तक उसके नर या मादा होने का निश्चय न हो तव तक वह पशु अमुक जातिका है, वस इतना ही कहे किन्तु यह नर
है या मादा ऐसा कुछ भी न बोले । [२२४२३] इसी तरह मनुष्य, पशु, पती.या सांप (रेंगनेवाले कीट
कादि) को यह मोटा है, इसके शरीरमें मांस बहुत है इस लिये वध करने योग्य है अथवा पकाने योग्य है श्रादि प्रकार के पापी वचन साधु न बोले। किन्तु यदि उसके संबंधमे बोलना ही पड़े तो यदि वह वृद्ध हो तो उसे वृद्ध अथवा जैसा हो वैसा सुन्दर है, पुष्ट है, नीरोग है, प्रौढ शरीरका है प्रादि निर्दोप वचन ही बोले
(किन्तु सावद्य वचन न वोले।) [२४] इसी तरह बुद्धिमान मितु गायों को देखकर ये दुहने योग्य
हैं' तथा छोटे बछडों को देखकर 'ये नाथने योग्य हैं। अथवा घोडों को देखकर ये रथमें जोडने योग्य हैं इत्यादि प्रकार की
सावध भाषा न बोले। [२५] परन्तु यदि कदाचित् उनके विषयमें बोलना ही पडे तो भिन्तु यों
कहें कि यह बैल तरुण है, यह गाय दुधार है अथवा यह बैल छोटा या बडा है अथवा यह घोडा रथमें चल सकता है।
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दशवकालिक सूत्र
टिप्पणी-जिस वचनके निमित्तसे अन्य प्राणियोंको दुःख न पहुंचे वैसी दोष रहित भाषा ही साधु वोले । [२६४२७] तथा उद्यान, पर्वत या वनमें गया हुया अथवा वहां
जाकर निवास करनेवाला बुद्धिमान साधु वहां के बडे २ वृतों को देखकर इस तरह के शब्द न बोले कि "मे इन, वृक्षों के काष्ट महेल के योग्य स्तंभों, घरों के योग्य तोरणों, पाटीया (स्लीपर), शहतीर, जहाज, अथवा नावों आदि बनाने के
योग्य हैं। [२] तथा यह वृक्ष बाजोठ, कठोठी, हल की मूठ, खेतमें अनके ढेरों
पर ढंकने के लकडी के ढक्कन, धानीकी लाट, गाडीके पहिये या उसके मध्य की नाभि अथवा चरखे की लाट अथवा सुनार
की एरण बनाने के योग्य हैं। [२१] अथवा बैठने के श्रासन के लिये, सोने के पलंग के लिये,
घरकी नसैनी (सीढी) आदि के लिये उपयुक्त हैं-इत्यादि प्रकार की हिंसाकारी भाषा बुद्धिमान भिन्नु कभी न बोले ।
टिप्पणी-ऐसा बोलनेसे कहीं कोई उस वृक्ष को काट कर उक्त सामान बना डाले तो वह भिन्नु उक्त हिंसामें निमित्त माना नायगा। ३०४३१] इस लिये उद्यान, पर्वत तथा वनमें गया हुआ बुद्धिमान
मितु वहां के बडे २ वृक्षों को देखकर यदि अनिवार्य आवश्यकता आ पडे तो ही यों कहे; "ये अशोकादि वृक्ष उत्तम जातिके हैं, ये नारियलके वृक्ष बहुत बड़े हैं, ये प्रामके वृक्ष चर्तृलाकार हैं, बड़ आदि वृह अच्छे विस्तृत हैं, तथा ये सब शाखा, प्रति
शाखाओं से व्याप्त, रमणीय एवं दर्शनीय इत्यादि इत्यादि हैं।" [३२४३३] और आम आदि फल हों तो वे पक गये हैं। अथवा पाल
आदिमें देकर पकाने योग्य हैं अथवा वे कुछ समय बाद खाने
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योग्य हो जायगे, अथवा अभी खाने योग्य है, बादमें सड जायगे, अथवा अभी इन्हें काटकर खाना चाहिये इत्यादि प्रकार की सावद्य भापा साधु न बोले किन्तु खास आवश्यकता होने पर यों कहे कि "इस श्रामवृनमें बहुत से फल लगे हैं जिनके बोझसे वृत भुक कर नन हो गये हैं। इस बार फल बहुत अधिक आये हैं, अथवा ये फल अतिशय सुन्दर हैं इत्यादि प्रकार
की निरवद्य भाषा ही बोले। [३४] और अन्नकी बेलों या फलियों को, बालोंको अथवा सेंगा
फलियों के संबंध, यदि कुछ कहने का अवसर प्रावे तो बुद्धिमान साधु यों न कहे कि पक गई हैं इनकी छाल हरी हैं, यह पापडी पक गई हैं और लूनने योग्य हैं, अथवा ये
सेकने योग्य हैं। अथवा इन अन्नों को भिगोकर खाना चाहिये। [३२] परन्तु बुद्धिमान साधु यदि आवश्यकता था पडे तो यों
कहे कि “यहां वनस्पति खूब उगी हैं, बहुत अंकुर फूट निकले हैं, इनमें मोर, वाल आदि निकल आये हैं, इन वृक्षोंकी छाल इतनी मजबूत है कि जिसपर पालेका कोई असर नहीं पड़ेगा, इनके गर्भ में दाना श्रागया है अथवा दाना बाहर निकल आया हैं, इस अन्नके गर्भमें दाना नहीं पडा है अथवा चावल की वालोंमें दाना पड गया है" इस प्रकार की निरवद्य भापा
ही बोले। T३६] यदि किसीके यहां दावत हुई हो तो उसे देखकर "यह
सुन्दर बनी है या सुन्दर बनाने योग्य है, अथवा किसी चोर को देखकर "यह चोर मारने-पीटने योग्य है" तथा नदियों को देखकर 'ये सुन्दर किनारेवाली हैं। इनमें तैरने या क्रीडा करने से बड़ा मजा आयेगा, इत्यादि प्रकार की सावध भाषा न वोले।
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दशवकालिक सूत्र
[३०] यदि कदाचित् उनके विषयमें बोलना ही पडे तो दावत को
दावत कहे, चोरके विषयमें 'धन के लिये इसने चोरी की होगी। तथा नदियों के विषय में इनके किनारे समान हैं
इस प्रकार की परिमित भाषा ही साधु बोले । [३८] तथा नदियों को जलपूर्ण देखकर “इन नदियों को तैर कर
ही पार किया जा सकता है, इन्हें नावद्वारा पार करना चाहिये अथवा इनका पानी पीने योग्य है" इत्यादि प्रकार की सावध
भाषा साधु न बोले। [२६] परन्तु यदि कदाचित इनके विषयमें बोलना ही पडे तो बुद्धि
मान साधु नदियों के विपयमें ये नदियां अगाध जलवाली हैं, जलकी कल्लोलों से इनका पानी खूब उछल रहा है और बहुत
वित्तारने इनका जल वह रहा है श्रादि २ निर्दोप भाषा ही बोले । [४०] और यदि किसीने किसी भी प्रकार की दूसरे के प्रति पापकारी
क्रिया की हो अथवा करनेवाला हो उसे देखकर या जानकर बुद्धिमान लाधु ऐसा कभी न कहे कि "उसने यह ठीक किया
है या वह ठीक कर रहा है”। [४] और यदि कोइ पाप क्रिया हो रही हो तो "यह वडा ही
अच्छा हो रहा है अथवा भोजन बना रहा हो उसे अच्छी तरह बना हुआ बताना; अमुक शाक अच्छा कटा है, कृपण के धन-हरण हो जाने पर 'चलो, अच्छा हुआ', अमुक पापी मरगया हो तो अच्छा हुआ' यह मकान सुन्दर बना है, तथा यह कन्या उपवर (विवाद योग्य) हो गइ है इत्यादि प्रकार
के पापकारी वाक्य बुद्धिमान मुनि न कहे। [१२] किन्तु यदि उनके विपयनें बोलना ही पड़े तो साधु; बने हुए
भोजनों के विषय, 'यह भोजन प्रयत्न से बना है', करे हुए.
[१६] और हो रहा है अमा, अमुक शाकाहा हुआ', अा है, तथा
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सुवाक्यशुद्धि
शाकके विपयमें 'यत्नाचार पूर्वक करा हुआ शाक' कन्या को देखकर 'संभाल पूर्वक लालनपालन की हुई तथा साध्वी होने के योग्य कन्या' शृंगारों के विषयोंमे ये कर्मबंध के कारण हैं। तथा धायल को देखकर 'अति घायल' यादि २ अनवद्य वाक्य
प्रयोग ही साधु करे। [४३] यदि कभी किसी गृहस्थके साथ वर्तालाप करने का प्रसंग
श्राजाय तो उस समय 'यह वस्तु तो सर्वोत्कृष्ट है, प्रति मूल्यवान है, अनुपम है, अन्यत्र मिल ही नहीं सकती ऐसा अनुपम अलभ्य यह है, यह वस्तु बेचने योग्य नहीं है, किंवा स्वच्छ नहीं है, यह वस्तु अवर्णनीय है, अनीतिकर है आदि २ प्रकारके सदोप वाक्य-प्रयोग साधु न करे।
टिप्पणी-बहुत बार ऐसा होता है कि हमें वस्तुके गुणदोपोंका यथार्थ शान नहीं होता जिसके कारण हम थोडेसे मूल्यको वस्तुको भी बहु मूल्य या अमूल्य बता देनेकी भूलकर बैठते हैं। इससे अपना तो अशान प्रकट होता
और वस्तुको यथार्थ कीमत भी शात नहीं होती इसलिये साधु किसी भी वस्तुको आकस्मिक प्रशंसा या अप्रशंसा न करे। सारांश यह है कि साधुको बहुत हो मितभापी होना चाहिये। जहां अनिवार्य आवश्यकता हो वहीं, और वह भी वडे विवेक के साथ नपेतुले शव हो वोले। [४] "मैं तुम्हारी ये समाचार उससे कह दूंगा, 'अथवा तुम मेरा
यह सन्देश अमुक भादमी से कहना" श्रादि प्रकार की वातें साधु न कहे किन्तु प्रत्येक स्थल (प्रसंग) में पूर्ण विचार करके ही बुद्धिमान साधु बोले।
टिप्पणी-कई बार ऐसे प्रसंग आते हैं कि गृहस्थजन साधुओंको अमुक संदेश अमुक व्यक्ति से कहने की प्रार्थना करते हैं तो उस समय 'हां में उनसे कह दूंगा' ऐसा कहना उचित नहीं क्योंकि एकके मुखसे निकली हुई
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भाषा दूसरे के नुसते उन्हीं राहोंमें नहीं निकलती-शो कुछ न कुछ हेरफेर हो ही जाता है । इसी दृष्टिसे ऐसे व्यवहारमें साधुको न पडने के लिये है
कहा गया
1
[ ४५] 'तुमने अमुक माल खरीद कर लिया यह अच्छा किया, अमुक वस्तु बेच डाला ' यह ठीक किया, यह माल खरीदने योग्य है अथवा खरीदने योग्य नही है इस वस्तुके सौदे में आगे जाकर लाभ होगा इसलिये इसे खरीद लो, इस सौदे में लाभ नहीं है इसलिये इसे बेच डालो' इत्यादि प्रकारके व्यापारीके लिये उपयुक्त वाक्य भी संयमी पुरुष कभी न वोले ।
टिप्पणी- इस व्यवहारमें आलिक एवं बाह्य दोनों प्रकारोंसे पतन होता है। जब साधु इस तरह का वाक्य प्रयोग करता है तब उसके संयनको दूषण लगता है और बाह्य दृष्टिले भी ऐसे साधुके प्रति लोगोंको अप्रीति होती है । दूसरी बात यह भी है कि कुछ बातें उसने झूठी भी हो गृहत्यको लाभके बदले हानि हो सकती है। इसी प्रकार के अन्य अनेक दोष इसमें छिपे हुए हैं इसीलिये महापुरषोंने साधुको भविष्य-विद्या सीखनेकी मना की है क्योंकि ऐसा शाख पात्रताके विना बहुधा हानिकर्ता ही सिद्ध होता है ।
सकती है इससे
[४६] कदाचित् कोई गृहस्थ अल्पमूल्य या बहुमूलय वस्तुके विषय में पूछना चाहे तो मुनि उसके संयम धर्ममें बाधा न पहुंचे इस प्रकारका प्रदूषित वचन ही वोले ।
[ ४७ ] और धीरमुनि किसी भी गृहस्थ को 'बैठो, आओ, ऐसा करो, लेट जाओ, खडे हो जाओ' इत्यादि २ प्रकार के बचन न बोले ।
टिप्पणी- गृहस्थके साथ अतिपरिचय में न आने के लिये ही यह बात कही गई है क्योंकि संयमी के लिये 'असंयमियों का अतिसंसर्ग हानिकर्ता होता है।
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सुवाक्यशुदि
[४८] इस लोकमें बहुत से केवल नाममात्र के साधु होते हैं। उनका
वेश तो साधुका होता है किन्तु उनमें साधु के गुण नहीं होते ऐसे असाधुको साधु न कहे किन्तु साधुताका धारक ही साधु है ऐसा कहे।
टिप्पणी-वस्तुतः साधुपदकी जवाबदारी बहुत बडी है। किसी व्यक्तिमें साधुत्व के गुण न होने पर भी यदी साधु उसे साधु कहे तो जनता उसके वचनों पर विश्वास रख कर भ्रममें पट जायगो इतना ही नहीं, उसको देखकर जनता के मन पर साधुत्वके प्रति अरुचि भी पैदा हो सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि ऐसे कुसाधुकी सगंतिसे इस साधुके चरित्र पर अवांछनीय असर पड़ेगा और यह असंभव नहीं कि उसके बहुतसे दुर्गुण उसमें जांय | इत्यादि अनेक कारणोंसे ऐसा विधान किया गया है।
__ सच्चे साधुका स्वरूप [४] सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन से संपन्न तथा संयम एवं तपश्चर्या
में अनुरक्त तथा ऐसे अन्य गुणों से सहित संयति को ही साधु कहते हैं।
टिप्पणी-सचा विवेक, सची समझ, इंद्रियों तथा मनका संयम तथा सच्ची तपश्चर्या इन चारों गुणोंकी समन्वयता, अधिकता, को ही साधुता कहते है। साधुता की ऐसी सुवास जहां है वहीं साधुत्व है। [१०] देवों, मनुष्यों, अथवा पशुओं के पारस्परिक युद्ध या द्वन्द्व जहां
चालू होतो 'अमुक पक्षकी जीत हो' अथवा 'अमुक की जीत होनी चाहिये, अथवा अमुक पक्षकी जीत नहीं,. अथवा अमुक पतको हारना पडेगा अादि प्रकार के वाक्य मिनु न बोले। .
टिप्पणी-इस प्रकार बोलने से उनमें से एक पक्षके हृदयको आधात पहुंचने की संभावना है।
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दशवकालिक सूत्र
57 "वायु, वृष्टि, ठंड या गर्म हवा, उपदव की शांति, सुकाल,
त्या देवी उपसर्ग की शांति इत्यादि बातें कब होंगी अथवा ऐसी हो या ऐसी न हों" इत्यादि प्रचारकी संयम धर्मको दूपित करनेवाली भविष्यवाणी मिचु न कहे और न इस तरह का कोई प्राचाए ही रे।
टिप्पणी-ऐसा करने दूसरे लोगों को दुःख होने की संभावना है। उत्त दुःखका निमित्त होना साधुके लिये योग्य नहीं है। १२] उसी प्रकार वादल, प्रकाश, या राजा जैसे मानव को यह
देव है' मेसा न कहे; किन्तु मेवको देखकर साधु, अदि भावश्यकता हो तो "यह मेघ बहता प्राता है, ऊंचा घिरता श्राता है, पानी से भरा है, अथवा यह वरस रहा है" इत्यादि प्रकारके भपित वाक्य ही कहे।
टिप्पणी-उन समय में वादत, आकाश या आशएवर्गको सामान्य जनता 'देव' मानती थी और उनमें कोई विशिष्ट अनुतता भरी दुई मानतो थी। इस प्रकारको मुकी अद्भुतता नानने से इं बहनों एवं अमानव आदि दोषोंकी वृद्धि होना स्वाभाविक है इस लिये जैन 'शासन के महापुरसाने व्यक्तिपूजा एवं वस्तुपूजा का विरोध कर केवल गुणपूजाफ. ही नहत्त्व बताया है। [१३] अनिवार्य आवश्यकता होने पर प्रकाशको अंतरिक्ष अथवा गुखों
(एक प्रकार के देवों) के श्रानेजानेका गुप्त भार्ग कहे अथवा किसी ऋद्धिनान या बुद्धिमान मनुष्यको देखकर वह ऋद्धिशाली या बुद्धिमान मनुष्य है क्त इतना ही कहे।
टिप्पणी-किलोकी मूंकी प्रशंसा किंवा मूग अद्भुतता वा न ले। १२४] और साधु क्रोध, लोभ, भय या हात्य के वशीभूत होकर
पापकारी, निश्चयकाली, दूसरों को दुःखानेदाला वाक्य हंसी या मजाकमें भी किसी से न कहे।
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सुवाक्यशुद्धि
[२] इस प्रकार मुनि वाक्यशुद्धि और वाक्य की सुन्दरता को सम
मकर सदैव दूपित वाणीसे दूर रहे। इस कथनका जो कोई साधु विवेकपूर्वक चिन्तन करके परिमित एवं अदूपित वाक्य बोलता है वही साधु सत्पुरुपोंमें श्रादरणीय होता है।
टिप्पणी-मैं जो कुछ बोल रहा हूं उसका क्या परिणाम आयगा, इस पर खूब विचार कर लेनेके बाद ही जो कोई बोलता है उसकी वाणी में स्वच्छता एवं सफलता दोनों रहती हैं। [२६] भापा के गुणदोपों को भली प्रकार जानकर, विचार (मनन)
करके उसमें से बुरी भापाको सदैव के लिये त्याग करनेवाला पक्राय जीवोंका यथार्थ संयम पालन करनेवाला, साधुत्व पालन में सदैव तत्पर, ज्ञानी साधक परहितकारी एवं मधुर भापा ही
वोले। [१७] और इस प्रकार दूपित एवं श्रदूषित वाक्य की कसौटी करके
बोलनेवाला, समस्त इंद्रियोंको अपने वशमें रखनेवाला, समाधिवंत, क्रोध, मान, माया और लोभसे रहित अनासक्त भिक्षु अपने संयम द्वारा नवीन कर्मीको श्राते हुए रोकता है और पूर्वसंचित पाप कर्म रूपीमलको भी दूर करता है और अपने शुद्ध आचरण द्वारा दोनों लोकों को सिद्ध करता है।
टिप्पणी-इस लोक में अपने सुन्दर संयमसे सत्पुरुषोंमें मान्य बनता है और अपने आदर्श त्याग तपश्चर्या के प्रभावसे परलोकमें उत्तम देवयोनि अथवा सिद्ध गतिको प्राप्त होता है।
आवश्यकता के विना न बोलना, बोलना ही पडे तो विचारपूर्वक बोलना, असत्य न बोलना, सत्य ही बोलना, किन्तु वह सत्य दूसरे को दुःखप्रद एवं कर्णक्ट न हों, सुननेवाले को उस समय अथवा बादमें पीडा न हो ऐसा विवेकपूर्ण वचन ही बोलना चाहिये।
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१२०
दशवकालिक सूत्र
इल वाक्यशुद्धि की
इस वाक्यशुद्धि की जितनी आवश्यकता मुनिको है उतनी ही नहीं किन्तु उससे भी बहुत अधिक जरूरत गृहस्थ साधकों को है क्योंकि वाणीकी शुद्धि पर ही क्रियाशुद्धिका बहुत बडा आधार है इतना ही नहीं किंतु क्रोधादि षड्डिपुओं को वशीभूत करने के लिये भी मृदु, स्वल्प, सत्य तथा स्पष्ट वाणी की जरूरत है।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'सुवाक्यशुद्धि' नामक सातवां अध्ययन समाप्त हुआ।
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आचारप्रणिधि
( सदाचारका भंडार )
सद्गुणों को सब कोई चाहता है । सजन होनेकी सभीकी इच्छा हुआ करती है किन्तु सद्गुणोंकी शोधकर साधना करनेकी तीव्र इच्छा, तीव्र तमन्ना किसी विरले मनुष्यमें ही पाई जाती है
1
सद्गुण प्राप्तिका मार्ग सरल नहीं है और वह सरलता से प्राप्त होने योग्य भी नहीं है। इसका मार्ग तो दुर्लभ एवं दुःशकय ही है ।
मानसिक वृत्ति दुराग्रहों, हठाग्रहों एवं मान्यताओं को बदलना, उनको मन, वाणी एवं कायाका संयमकर त्यागमार्ग के विकट पंथकी तरफ मोड देना यह कार्य मृत्युके मुखमें पडे हुए मनुष्य के संकट से भी अधिक संकटाकीर्ण है ।
इस सद्वर्तनकी आराधना करनेवाले साधकको शक्ति होने पर भी प्रतिपल क्षमा रखनी पडती है । ज्ञान, बल, अधिकार एवं उच्च गुण होने पर भी सामान्य जनोंके प्रति भी समानता एवं नम्रताका व्यवहार करना पडता है। चैरीको वल्लभ मानना पडता है, दूसरों के दुर्गुणों की उपेक्षा करनी पडती है । सैंकडों सेवकों के होने पर भी स्वावलंबी एवं संयभी बनना पडता है। सैकडों प्रलोभनों के सरल मार्गकी तरफ:
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दशवकालिक सूत्र
दृष्टि न डालकर त्यागकी तंग एवं गहरी गलीमें होकर जाना पडता है।
इन सब कष्टोंको उत्साह एवं नेहपूर्ण हृदय से सहनकर उमंग सहित जो ध्येयमार्ग में बढता जाता है वही उग्र साधक सद्गुणोंके संग्रह को सुरक्षित रख सकता है, पचा सकता है और उसके सारका रसास्वाद कर सकता है ऐसे सदाचारी साधुको कहां २ और किस तरह जागृत रहना होता है उसका मानसिक, कायिक तथा वाचिक संयम के तीनों अंगों की भिन्न २ दृष्टिविन्दुओं से की हुई विचार परंपरा इस अध्ययनमें वर्णित है जो साधक जीवन के लिये अमृत के समान प्राणदायी है।
गुरुदेव बोले[२] सदाचार के भंडार स्वरूप साधुत्वको प्राप्त कर भिक्षुको क्या
करना चाहिये वह मैं तुमको कहता हूं। हे भिक्षुओ! तुम
उसे ध्यानपूर्वक सुनो। [२] पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, हरियाली घास, सामान्य वनस्पति,
वृत, वीज तथा चलने फिरनेवाले जो इतर प्राणी हैं वे सब जीव हैं ऐसा महर्पि (सर्वज्ञ प्रभु) ने कहा है।
टिप्पणी-इस विश्व में बहुत से जीवजन्तु इतने सूक्ष्म होते हैं जो आंखसे दिखाई नहीं देते, फिरभी उनकी वृद्धि, हानि, भावना, इत्यादि के द्वारा यह जाना जा सकता है कि वे जीव हैं। आधुनिक वैशानिक अन्वेषणों द्वारा यह बात भलीभांति सिद्ध कर दिखाई गई है कि वृक्ष भी हमारी तरह से सुख, दुःख, शोक, प्रेम इत्यादि वातोंका अनुभव करते हैं। यावन्मात्र जीव भले ही वे छोटे हों या बडे, जीवित रहना चाहते है, और सभी सुख चाहते हैं, दुःखसे डरते हैं। इसलिये प्रत्येक सुखैपी मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह दूसरे जीवोंकी रक्षा करे और अपना आचरण इस तरह का रखना 'जिससे दूसरोंको सुख पहुंचे।
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श्राचारप्रणिधि
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[३] उन जीवों के प्रति सदैव अहिंसक वृत्तिसे रहना चाहिये । जो कोइ मन, वचन र कायसे श्रहिंसक रहता है वही साधक आदर्श संयमी है ।
टिप्पणी-ज्यों २ इच्छाएं और आवश्यकताएं घटती जाती हैं त्यो २ हिंसा भी घटती जाती है और ज्यों २ हिंसा घटती है त्यों २ अनुकंपा (दया) भाव बढता जाता है। इसलिये सच्चा संयमी ही सच्चा अहिंसक कहलाने का दावा कर सकता है । जो अहिंसक है वह न्यूनाधिक रूपमें हिंसक होगा ही, फिर चाहे उसकी हिंसा स्थूल जीवोंकी हो या सूक्ष्म जीवों की प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, वह स्वयं करता हो अथवा दूसरों के द्वारा कराता हो, कुछ. न कुछ भाग इसका उसमें है अवश्य ।
[४] ( जैन साधु प्रत्येक जीवकी श्रहिंसाका पालन किस तरह करे उसका वर्णन करते हैं) समाधिवंत संयमी पृथ्वी, भींत ( दीवाल ), सचित्तशिला या मिट्टी के ढेले को स्वयं न तोडे " और न खोदे ही, दूसरों द्वारा तुडवाचे नहीं और न खुदवाने ही, और यदि कोई व्यक्ति उनको तोड या खोद रहा हो तो. उसकी अनुमोदना भी न करे । इस प्रकार तीन करणों (कृत, कारित, अनुमोदन) से तथा मन, वचन और काय इन तीन योगोंसे संयमी हिंसा न करे ।
[२] और सजीव पृथ्वीपर या सजीव धूलसे सने हुए श्रासनपर न बैठे किन्तु बैठनेको यदि आवश्यकता ही हो तो मालिक की श्राज्ञा प्राप्त कर उसका संमार्जन ( झाड पोंछ ) कर बादमें उसपर बैठे 1
टिप्पणी - संमार्जन करने की झड जाय और उससे सूक्ष्म जीवों की साधु रजोहरण नामक उपकरण (संयमका
आवश्यकता
इसलिये है कि सजीव धूल
क्रिया के लिये जैन -
रक्षा हो। इस साधन ) सदैव अपने पास रखते हैं ।
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दशवैकालिक सूत्र
[६] संयमी भिनु ठंडा पानी, पालेका पानी, सचित्त वर्फका पानी न पिये किन्तु अग्निसे खूब तपाये हुए तथा धोवन का निर्जीव पानी ही ग्रहण करे और उपयोग में ले ।
१२४
टिप्पणी-चौघे अध्यायमें पहिले यह कहा जा चुका है कि पानी में उसके प्रकृतिविरुद्ध पदार्थ को मिल जाने से वह निर्जीव (प्रासुक) हो जाता है । इस कारण यदि ठंडे पानी में गुड, आटा अथवा ऐसी हीं कोई दूसरी चीज पडी हो तो वह ठंडा पानी भी ( अमुक मुद्दत बीतने पर ) प्रासुक हो जाता है। ऐसा प्रासुक पानी यदि अपनी प्रकृति के अनुकूल हों किन्तु अग्नि तथा न हो तो भी, भिक्षु उसको ग्रहण कर सकता है 1
[७] संयमी मुनि उसका शरीर कारणवशात् सचित्त जलसे भीग गया हो तो उसे वस्त्रसे न पोंछे और न अपने हाथोंसे देह को मले किन्तु जलकायिक जीवोंकी रक्षामें दत्तचित्त होकर अपने शरीर को स्पर्श भी न करे ।
टिप्पणी-मलशंका दूर करने (टट्टी जाने) के लिये नगर बाहर जाते समय यदि कदाचित वरसात पडने से मुनिका शरीर भीग जाय तो उस समय साधु क्या करे उसका समाधान उक्त गाथामें किया गया है | अन्यथा वरसाद पडते समय उपर्युक्त कारण सिवाय मुनिको स्थानकके बाहर जाना निषिद्ध है ।
[7] मुनि जलते हुए अंगारे को, श्रागको अथवा चिनगारी को, जलते हुए काष्ठ धादि को सुलगावे नहीं, हिलावे नहीं और बुझावे भी नहीं ।
[1] और ताड़के वीजने से, पंखेसे, वृक्षकी शाखा हिलाकर अथवा वस्त्र आदि अन्य वस्तु हिलाकर अपने शरीर पर दवा न करे अथवा गर्म श्राहारादि वस्तुओं को ठंडी करने के लिये उनपर हवा न करे ।
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श्राचारप्रणिधि
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[१०] संयमी मितुः घास, वृत्त, फल किंवा किसी भी वनस्पति को
जड़ (मूल) को न काटे तथा भिन्न २ प्रकार के बीजों अथवा
वैसी ही कच्ची वनस्पति को खानेका विचार तक भी न करे। [११] मुनि लतागुल्मों अथवा वृतोंके मुंडके बीडमें खडा न रहे और
वीज, हरी वनस्पति, पानी, कठफूला जैसी वनस्पतियां तथा
वील या फूल पर कभी न बैठे। [१२] यावन्मात्र प्राणियों की हिंसासे विरक्त मितु मन, बचन अथवा
कायसे त्रस जीवों की हिंसा न करे। परन्तु इस विश्वमें (छोटे बडे जीवों के) जीवनों में कैसी विचित्रता (भिन्नता) है उसे विवेकपूर्वक देखकर संयममय आचरण करे।
टिप्पणी-बहुत बार ऐसा होता है कि सूक्ष्म जीवोंकी दया पालनेवाला आदमी बडे जीवोंको दुःख न पहुंचने की स्पष्ट वातको भी भूल जाता है। छोटी वस्तुको रक्षाको चिन्तामें बडी वस्तुको रक्षाका ध्यान प्राय नहीं रहा करता। इस लिये यहां पर त्रसजीवों की हिंसा न करने की खास आशा दी है। [१३] (अव अत्यंत सूक्ष्म जीवोंकी दया पालने को आज्ञा देते हैं)
प्रत्येक जीवके प्रति दयाभाव रखनेवाला संयमी साधु निम्नलिखित आठ प्रकार के सूक्ष्म जीवोंको विवेकपूर्वक देखकर, उनका
संपूर्ण बचाव (रक्षण) करके ही बैठे, उठे अथवा लेटे। [१४] ये आठ प्रकार के सूक्ष्म जीव कौनसे हैं ? इस प्रकार के प्रश्न
का विचक्षण एवं मेधावी गुरु इस प्रकार उत्तर देते हैं:[१] (१) स्नेह सूक्ष्म-श्रोस, कुटरे आदिका सूक्ष्म जल आदि (२)
पुप्प सूक्ष्म-बहुत छोटे फूल आदि (३) प्राणी सूक्ष्म-सूक्ष्म कुंथु श्रादि जीव, (४) उत्तिंग सूक्ष्म-चींटी, दीमक के घर, (५) सूक्ष्म-नीलफूल आदि, (६) बीज सूक्ष्म-बीज, आदि (७) हरित
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दशवैकालिक सूत्र सूक्ष्म-हटे अंकुर श्रादि, (6) अंड सूक्ष्म-चींटी, मक्खी आदि
के सूक्ष्म अंडे। [१६] समस्त इंद्रियों को वशीभूत रखनेवाला संयमी मितु उपर्युक
आठ प्रकार के सूक्ष्म प्राणियों के स्वरूप को भलीभांति जानकर अपना व्यवहार ऐसा उपयोगपूर्ण रक्खे जिससे उन जीवोंको
कुछ भी पीडा न हो। [१७] संयमी मिनु नित्य उपयोगपूर्वक (स्वस्थ चित्त रखकर एकाग्रता
पूर्वक) पात्र, कंवल, शय्यास्थान, उच्चार भूमि, विछौना अथवा आसनका प्रतिलेखन करे।
टिप्पणी-आंखसे जीव जन्तुओंको बरावर उपयोगपूर्वक देखे और यदि जीव हो तो उनको क्षति पहुंचाये विना एक तरफ हटादे। इस क्रियाको प्रतिलेखन क्रिया कहते हैं । इसका सविस्तर वर्णन उत्तराध्ययन के २६ में अध्ययनमें किया गया है। [१८] संयमी भिक्षु मल, मूत्र, वल्गम, छिनक (नाकका मल),
अथवा शरीर का मैल यदि कहीं फेंकना या डालना हो तो उन्हें जीवरहित स्थानमें खूब देखभालकर डाले।
टिप्पणी-जिस स्थान पर मल आदि डाला जाता है उसे उच्चार भूमि कहते हैं। वह स्थान भी विशुद्ध तथा जीवरहित है या नहीं यह भलीभांति देख संभाल कर ही वहां मलशुद्धि करनी उचित है । गृहस्थश्रम में भी इस प्रकार की शुद्धि की वडी आवश्यकता है। [१] भोजन अथवा पानी के लिये गृहस्थ के घर गया हुआ साधु
यना (सावधानी) पूर्वक खडा रहे और मयादापूर्वक ही वोले। वहां पर पड़े हुए भिन्न २ पदार्थों की तरफ (किंवा रूपवती स्त्रियोंकी तरफ अपना मन) न दौडाचे ।
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प्राचारप्रणिधि
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[२०] (गृहस्थके यहां भिक्षार्थ जाता हुआ) भिनु बहुत कुछ बुरा
भला सुनता है, आंखोंसे बहुत कुछ भलावुरा देखता है किन्तु देखी हुई किंवा सुनी हुई वातोंको दूसरोंसे कहना उसके लिये.
योग्य नहीं है। [२१] अच्छी-बुरी सुनी हुई किंवा देखी हुई घटना दूसरोंसे कहने पर
यदि किसीका चित्त सुमित हो अथवा किसीको दुःख हो तो' ऐसी बात भिक्षु कभी न बोले तथा किसी भी प्रकार से
गृहस्थोचित (मुनिके लिये अयोग्य) व्यवहार • कभी न करे। [२२] कोई पूंछे अथवा न पूंछे तो भी भिक्षु कभी भी भिक्षाके संबंध
में यह सरस है किंवा अमुक पदार्थ रसहीन है। यह गाम अच्छा है या बुरा है। अमुक दाताने दिया और अमुकने नहीं
दिया इत्यादि प्रकारके वचन कभी न बोले। [२३] मिनु भोजनमें कभी भी प्रासक न बने और गरीव तथा धन
वान दोनों प्रकार के दाताओं के यहां समभावपूर्वक भिक्षार्थ जाकर दातार के अवगुणों को न कहते हुए मौनभावसे जो कुछ भी मिल जाय उसीमें संतुष्ट रहे किन्तु अपने निमित्त खरीद कर लाई हुई, तैयार की हुई किंवा ली गई तथा
सचित्त भिक्षा कभी भी ग्रहण न करे। [२४] संयमी पुरुप थोडेसे भी श्राहार का संग्रह न करे और यावन्मात्र
जीवोंका रक्षक वह साधु निःस्वार्थ तथा अप्रतिवद्धता (अनासक्त
भाव) से संयमी जीवन व्यतीत करे। [२२] कठिन व्रतोंका पालक, अल्प इच्छावाला, संतोपी जीवन विताने
वाला साधक जिनेश्वरों के सौम्य तथा विश्ववल्लभ शासन को प्राप्त कर कभी आसुरत्व (क्रोध) न करे।
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दशवकालिक सूत्र टिप्पणी-संयम, संतोष एवं इच्छानिरोध इन तीन गुणोंका जिस किसीमें विकास हो जाता है वही जैन है। ऐसा साधक जिनशासन की प्राप्त होकर विरुद्ध प्रसंग आने पर भी क्रोध न करे। क्योंकि क्रोध करने से जैनत्व दूषित होता है और आसुरी भाव पैदा होता है। आतुरी प्रकृतिको छिन्न कर दैवी प्रकृति को प्राप्त होना यह भी धर्मश्रवण के भनेक फलोंमें से एक फल है। [२६] समनती साधु सुन्दर, मनोहर, रागपूर्ण शब्दों को सुनकर उधर
रागाकृष्ट न हो अथवा भयंकर एवं कठोर शब्दों को सुनकर उनकी तरफ द्वेषभाव न वतावे किन्तु दोनों परिस्थितियों में समभाव धारण करे।
टिप्पणी-रागके स्थानमें राग और द्वेषके स्थान, द्वेष, दोनों विषयपरिस्थतियोंमें समभाव रखनेवाला हो श्रमण कहलाता है और ऐसी वृत्तिके उपासक को हो जैन साधक कहते हैं। [२५] मिनु साधक भूख, प्यास, ठंडी, गर्मी, कुशय्या, अरुचिकारक
प्रसंग, सिंह श्रादि पशु किंवा मनुष्य देवकृत भयप्रसंग श्रा जाय अथवा इस तरह के अन्य परिषह (आकस्मिक आये हुए संकट) श्रा पडें तो उन्हें समभावसे सह लें क्योंकि देहका दुःख यह तो आत्माके लिये महासुखका निमित्त है। टिप्पणी-इन्द्रियोंके संयममें ऊपरसे देखने से दुःख मालूम होता है और उनके असंयममें सुख मालूम होता है परन्तु वस्तुतः देखा जाय तो इनका परिणाम केवल दुःख का ही देनेवाला है। इन्द्रियों का ऐसा स्वभाव होने से संयम दुःखल्प मालूम पडता है किंतु उसका परिणाम एकांत सुखरूप ही है। संयमी पुरुष यदि गृहस्थाश्रममें भी हो तो संयमद्वारा संतोष एवं अहिंसा के गुणोंकी वृद्धि कर सुखी होता है। [२८] संयमी सूर्यास्त होने के बाद और सूर्योदय होने के पहिले
किसी भी प्रकारके आहार की मनसे भी इच्छा न करे।
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आचारप्रणिधि
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टिप्पणी-रात्रिभोजन का निषेध वौद्ध तथा प्राचीनं वेद धर्ममें भी है। - वैधक तथा शरीररचना की दृष्टिसे भो रात्रिभोजन वर्ण्य है। [२६] संयमी गुस्सासे शब्दोंकी भर्त्सना न करे तथा अचपल (चप
लता रहित), परिमित श्राहार करनेवाला, अल्पभापी (थोडा बोलनेवाला) तथा भोजन करनेमें दमितेन्द्रिय (इन्द्रियोंको दमन करनेवाला) बने। यदि कदाचित् दाता थोडा आहार दे तो उस
थोडे आहार को प्राप्त कर दाताकी निंदा न करे। [३०] साधु किसी भी व्यक्तिका न तो तिरस्कार ही करे और न
श्रात्मप्रशंसा ही करे। शास्त्रज्ञान अथवा अन्य गुण, तपश्चर्या द्वारा उच्च रिद्धिसिद्धि अथवा उत्तम ज्ञानकी प्राप्ति होने पर वह उनका
अभिमान न करे। [३१] ज्ञात अथवा अज्ञात भावसे यदि कभी कोई अधार्मिक क्रिया
(धर्मिष्ठ साधक के अयोग्य आचरण) हो जाय तो साधु उसको छुपाने की चेष्टा न करे किंतु प्रायश्चित्त द्वारा अपनी आत्मासे उस पापको दूर कर निर्मल बने और भविष्यमें वैसी भूल फिर कभी न होने पावे उसके लिये सावधान रहे।
टिप्पणी-यावन्मात्र साधकोंसे भूल हो सकती है। भूल कर बैठना मनुष्य 'मात्रका स्वभाव है, भले ही वह मुनि हो या हो श्रावक। किंतु भूलको भूल मानलेना यही सज्जन का लक्षण है। छोटी 'बडी कैसी भी भल क्यों न हो, उसके निवारण के लिये तत्क्षण प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये। वैसी भल फिर कभी न होने पावे यही प्रायश्चित्त की सच्ची कसौटी है। वारंवार प्रायश्चित्त लेने पर भी यदि भूल होती रहा करे तो समझ लेना चाहिये कि यातो शुद्ध प्रायश्चित्त नहीं हुआ अथवा वह प्रायश्चित ही उस भल के योग्य नहीं है, अर्थात् भूल बडी है और प्रायश्चित्त छोटा है। [३२] जितेन्द्रिय, अनासक्त · तथा शुद्ध अन्तःकरणवाला साधकसे यदि
भूलसे अंनाचार का सेवन हो गया हो तो उसे छुपा न रक्खें
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१.३०
दशवैकालिक सूत्र
किंतु हितैषी गुरुजनों के समक्ष उसे प्रकट कर उसका प्रायश्चित्त ले और सदैव निष्पापकी कोशिश करता रहे।
[३३] और अपने प्राचार्य ( गुरुदेव ) महात्माका वचन शिरोधार्य कर उसे कार्यद्वारा पूर्ण करे ।
टिप्पणी- इस श्लोक में विनयिताका लक्षण बताया है । बहुतसे साधक महापुरुषों की आशाको वचनों द्वारा स्वीकार तो लेते है किंतु उसे आचरण में नहीं उतारते तो इससे यथार्थ लाभ कैसे हो सकता है ? इसी लिये आम्लाको वाणी और आचरण दोनोंने लानेका विधान किया है ।
[३४] ( प्रत्यक्षसिद्ध भोगोंको क्यों छोड़ देना चाहिये इसका उत्तर ) मनुष्य जीवनका श्रायुष्य बहुत छोटा (परिमित ) है और प्राप्त जीवन क्षणभंगुर है; मात्र श्रात्मसंसिद्धि (विकास) का मार्ग ही नित्य है ऐसा समझकर साधकको भोगोंसे निवृत्त हो जाना चाहिये ।
टिप्पणी-जव जीवन ही अनित्य है वहां लोगोंकी अनित्यता तो प्रत्यक्षसिद्ध ही है । अनित्यतामें आनन्द नहीं मिलता इसलिये तत्त्व साधक असते स्वयमेव विरत हो जाते हैं ।
[३५] इसलिये सत्यके शोधक साधकको अपना मनोबल, शारीरिक शक्ति, आरोग्य और श्रद्धाको क्षेत्र, काल के अनुसार योग्य रीति से धर्मर्मे संलग्न करना उचित है ।
टिप्पणी- सिंहनीका दूध बलिष्ठ है, अमृत बडी उत्तम वस्तु है किंतु यदि उनको रखनेके योग्य पात्र ही न हो तो उस दूधका क्या उपयोग है ? कुपात्रमें रखने से वह स्वयं खराव हो जाता है इतना ही नहीं प्रत्युत उस पात्रको भी खराब करता है । इसी तरह त्याग, प्रतिज्ञा, नियम ये सभी उत्तम गुण हैं फिर भी यदि उनके धारक पात्रकी योग्यायोग्यताका विचार न किया जाय
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प्राचारप्रणिधि
तो वे उत्तम गुण और वह अयोग्य धारक दोनों निंदित होते हैं। इसलिये प्रत्येक कार्य करनेके पहिले उपरोक्त वस्तुस्थितियोंका विचार एवं विवेक बनाये रखने के लिये महापुरुष सावधान करते हैं। [३६] (बहुत से साधक स्वयं शक्तिमान एवं साधनसंपन्न होने पर
भी धर्मरुचि प्राप्त नहीं कर सकते, उनको लक्ष्य करके महापुरुप कहते हैं कि) हे भव्य! जबतक बुढापे ने तुझे आकर नहीं घेरा, जबतक तेरे शरीरमें रोग की बाधा नहीं है, जबतक तेरी समस्त इन्द्रियों तथा अंग जर्जरित नहीं हुए हैं तबतक तुझे धर्मका आचरण जरूर २ करते रहना चाहिये।
टिप्पणी-शरीर धर्मसाधनका परम साधन है। यदि यह स्वस्थ होगा तो ही सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, संयम, इत्यादि गुणोंका पालन भलीभांति हो सकता है। बाल्यावस्थामें यह साधन परिपक्व नहीं होता और वृद्धावस्थामें अतिशय 'निर्बल होता है इस कारण इन दोनों अवस्थाओंमें इसके द्वारा धर्मध्यान नहीं हो पाता, इसलिये ग्रंथकार चेताते है कि पुरुषो! जवतक तुम तरुण एवं युवान हो अर्थात् तुम्हारा शरीर धर्मसाधन के योग्य है तबतक धर्मध्यान कर लो क्योंकि बादमें यह अमूल्य अवसर' फिर नहीं मिलेगा। [३५] (धर्मक्रिया करने से क्या लाभ है!) श्रात्महितका इच्छुक
साधक पापकी वृद्धि करनेवाले क्रोध, मान,,, माया और लोम
इन चार कपायों को एकदम छोड दें। ..
. टिप्पणी-जैन शासन यह मानता है कि धर्मक्रियामा परिणाम साक्षात् . "आत्मा पर पड़ता है अर्थात् आत्मनिष्ठाकी परीक्षा उसके बाय चिह्नोंसे नहीं 'किन्तु उसके आन्तरिक गुणोंसे होती है। 'जितने अंशमें दोपोंका नाश होता है उतने ही अंशोंमें गुणोंको वृद्धि होती है इसलिये यहां · पर सर्व दोपों के मूल स्वरूप ये चार दुर्गुण (कपायें) बताई गई हैं और प्रत्येक साधकको उन्हें दूर करनेका उपदेश दिया है।
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दशवैकालिक सूत्र
[३८] क्रोधले प्रीतिका नाश होता है, मानते विनयगुण नष्ट हो जाता है, माया से मित्रताका और लोभ सर्व गुणोंका नाश करता है ।
टिप्पणी-जीवन्ते यदि कुछ अमृता निवास है तो वह न । विनत्र जीवनको रसिकता हैं, मित्रभाव यह जीवनका एक नोठा
है।
दन, विज्ञान और जीवन इन तीनों गुणों के नष्ट होने इस जीवनने हुन्दरता कहां रहो ? इन गुएकि विना तो सारा चेतन हो जहद हो जाता है। इसलिये इन दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करने के लिये प्रतिक्षरा सावधान रहना यही साधकका धर्म है और मनुष्य जीवनका परम कर्तव्य है ।
[३१] इसलिये साधक उपशम (समा) से क्रोधका नाश करे, मृदुता से अभिमान को जीते, सरल स्वभावले मायाचारको जीते और संतोष से लोभको जीते ।
टिप्पणी-तहनशीलता एक ऐसा कुछ है जिससे
दोनोंका क्रोष दूर हो जाता है । मृदुता अभिमान को तरल समाव होता है वहां (नायाचार) द भर भी ठहर नहीं सकता और ज्यो २ सन्तोष दत्ता जाता है, त्यो २ लोभका नारा होता है इसलिये से अधिक नाहाल्य तन्वोपका है । इन व्यवहारमें भी देखते हैं कि एक. इच्छाके जागृत होते हो चारों दोष बिना बुलाये हो वहाँ दौड़े चले आई और सन्तोष के आते ही वे सब वहां से भाग कते है । सारांश वह है कि सन्तोष हो दुगुका मूल और पतनका प्रदल निमित्त है। [४०] ( क्रोधादि ) कपायों से क्या हानि होती है ? क्रोध एवं मान कृपायोंको वशमें न रखनेसे तथा माया एवं लोभको बढ़ाने से ये चारों काली कपायें पुनर्जन्मरूपी वृत्तों के मूलोंको (जड़ों को ). हमेशा सिंचन करती रहती हैं ।
1
धरना तथा दूसरे
गला देती है, जहां
टिप्पणी-" किं दुःखमूलं भव एव साथी" दुखका मूल कारण क्या? इतका उत्तर दिला संसार । बल-नरोकी परंपरा को हो तो संसार कहते
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भाचारप्रणिधि
है। सारांश यह है कि दुःखोंके कारणीभूत कषायोंको जीते बिना संसार से मुक्ति किसी तरह नहीं मिल सकती। [१] (मितु साधक के विशिष्ट नियम) अपने से अधिक उत्तम
चारित्रवान् अर्थात् चारित्रवृद्ध अथवा ज्ञानवृद्ध गुरुजनों की विनय करे। अपने उच्च चारित्र को निश्चल रक्खे । संकट के समयमें भी वह अपने प्रणका त्याग न करे और कछुएकी तरह अपने समस्त अंगोपांगों (इंद्रियादिवर्ग) को वशमें रखकर तप एवं संयम की तरफ ही अपने पुरुषार्थ को लगाये रहे।
टिप्पणी-विनय करने से उन विशिष्ट महापुरुषों के गुणोंकी प्राप्ति होती है। उच्च चारित्रको निभाने से आत्मशक्ति तथा संकल्पबल वढते है। [४२] तथा ऐसा साधक निद्राका प्रेमी न बने । हंसी-मजाक करना
त्याग कर दे, किसीकी गुप्त बातोंमें रस न ले किन्तु (अपनी निवृत्ति के) समय को अभ्यास एवं चिन्तन में लगा रहे।
टिप्पणी-अधिक सोनेवाला साधक आलसी हो जाता है। निद्राका हेतु श्रम दूर करनेका ही है, आलस्य बढानेका नहीं। इसलिये यदि यह साधन के बदले शौकको वात हो जायगी तो इससे उसके संयममें हानि ही होगी। इसी तरह हंसी-मजाक की आदत से अपनी गंभीरताका नाश होता है, हृदय इतना छोटा हो जाता है कि उसमें छोटे बड़े किसी गुणका विकास हो ही नहीं सकता इसलिये मुनिके लिये हास्यको बडा दोष बताया है। किसीको गुप्त बात सुनने से निंदा, दुष्टभाव तथा पापकी तरफ अभिरुचि बढती है। इन्हीं कारणों से उक्त दोपोंको त्यागने का उपदेश दिया गया है। [४३] (यदि कदाचित् ध्यानमें मन न लगे तब क्या करना चाहिये)
श्रालस्यका सर्वथा त्याग करके तथा मन, वचन तथा काय इन तीनोंको एकाग्र करके इन तीनों के योगको निश्चल रूपसे (दस प्रकार के) श्रमणधर्ममें लगावे । सर्व प्रकारों से श्रमणधर्म में संलम योगी परम अर्थको प्राप्त होता है।
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दशवैकालिक सूत्र
टिप्पणी- सहिष्णुता, निलभता, कोमलता, निरभिमानिता, सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य, त्याग तथा तप ये १० यतिधर्म कहलाते हैं। साधुका कर्तव्य है कि जब जब इनमें से किसी भी धर्मकी कसौटी का समय आवे तत्र २ उसमें सतत अडोल रहे । ये दश धर्म ही सच्चे श्रमधर्म हैं और इन्हीं धर्मों के द्वारा हो परमार्थ (मोक्ष) को सिद्धि होती है ।
[ ४४ ] साधकको इस लोक तथा परलोक इन दोनों में कल्याणकारी, सद्गति देनेवाले बहुश्रुत ज्ञानी पुरुषकी उपासना करनी चाहिये और उसके सत्संग से अपनी शंकाओंका समाधान करके यथार्थ अर्थका निश्चय करना चाहिये ।
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टिप्पणी- - इस लोकमें शानदान मिलने से अपना हित होता है और उस ज्ञानके प्रभावसे चरित्र उत्तम बनता है इसीलिये गुरुको इस लोक तथा परलोक दोनोंका हितकारी बताया है क्योंकि ऐसे ज्ञानी पुरुषके निमित्त से ही अन्तःकरण की अशुध्धि निकल कर वह विशुध्धि होती है जिसके द्वारा श्रात्मसाक्षात्कार हो सकता है । आत्मसाक्षात्कार ही जीवोंका परम अभीष्ट लक्ष्य है और ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई दिव्यगति किंवा उत्तमगति भी उस साधकको आत्मविकास के मार्ग में अधिकाधिक अग्रसर करती है ।
[ ४ x ४६ ] ( ज्ञानी पुरुषके समीप किस तरह बैठना चाहिये तत्संबंधी कायविनयका विधान ) जितेन्द्रिय मुनि अपने हाथ, पैर, तथा शरीर को यथावस्थित (विनयपूर्वक) रखकर अपनी चपल इन्द्रियों को - वशमें रक्खे और गुरुके शरीर से चिपट कर, अथवा गुरुकी जांघ से जांघ श्रडाकर न बैठे किन्तु विनयपूर्वक मध्यम रीति से गुरुजनों पास बैठे
1
टिप्पणी- जिस आसनले बैठने से गुरुको अथवा इतरजनोंको विघ्नं होता हो अथवा अविनय होता हो उस श्रासन से कदापि न बैठे ।
[ ४७ ] . ( वचन - विनय का विधान ) संयमी साधक बिना पूछे उत्तर न दे, दूसरों के बोलने के बीचमें बात काटकर न बोले, पीठ पीछे
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'श्राचारप्रणिधि
किसीकी निंदा न करे तथा बोलनेमें मायाचार एवं असत्यको
विलकुल न आने दे। FE और जिस भापाके बोलने से दूसरे को अविश्वास पैदा हो
अथवा दूसरे जन क्रुद्ध हो जाय, जिससे किसीका अहित होता
हो ऐसी भाषा साधु न बोले । [६] किन्तु श्रात्मार्थी साधक, जिस वस्तुको जैसी देखी हो वैसी ही
परिमित, संदेह रहित, पूर्ण, स्पष्ट, एवं अनुभवयुक्त वाणीमें वोले । यह वाणी भी वाचालता एवं परदुःखकारी भावसे रहित
होनी चाहिये। [१०] साधुत्व के प्राचार एवं ज्ञानका धारक तथा दृष्टिवादका पाठी
ज्ञानी भी वाणीके यथार्थ उच्चारण करनेमें भूल कर सकता है। ऐसी परिस्थितिमें साधक मुनि उच्चारण संबंधी भूल करते देखकर किसीकी हंसी मश्करी न करे।
टिप्पणी-आचारांग सूत्रम अंमणके आचारों का वर्णन है तथा भगवती सत्रमें श्रामण्य भन्यशनका वर्णन है। ये दोनों ग्रंथराज तथा दृष्टिवाद नामक सूत्र (यह ग्रंथ आजकल उपलब्ध नहीं है) जैन सूत्रोंमें अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है। इन तीनों ग्रंथराजों के पाठी भी शद्रों के ठीक २ उच्चारण करने में भूल कर बैठते हैं तो उस समय “आप सरीखे विद्वान इतना भी नहीं जानते, आप भी भूलकर वैठे" इस प्रकारकी उनकी अपमानजनक हंसी'मश्करी मुनि न करे। क्योंकि मनुष्य मात्र से भूल हो जाना संभव है। यदि
अनिवार्य आवश्यकता ही आ जाय तो नम्रता के साथ उस भूलको सुधारने के 'लिये प्रयत्न करे किन्तु ऐसा कोई शद्वं न कहे या ऐसी चेष्टा न करे जिससे उस शानीको दुःख या अपमान होनेका बोध हो। [१०] मुनि यदि नक्षत्र-विचार, ज्योतिप, स्वमविद्या, वशीकरण विद्या,
शुकन शास्त्र, 'मंत्रविद्या अथवा वैद्यचिकित्सा श्रादि संबंधी जा
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दशवकालिक सूत्र
कारी रखता हो तो वह उसको गृहस्थजनों से न कहे क्यों कि
उसके ऐसा करने से अनेक अनर्थ होने की संभावना है। [१२] (मुनि कैसे स्थानोंमें रहे उसका वर्णन करते हैं) गृहस्थों द्वारा
अपने निमित्त बनाये गये स्थानों, शय्या, तथा श्रासनको मुनि उपयोगमें ला सकता है परन्तु वह स्थान स्त्री, पशु (तथा नपुंसक) से रहित होना चाहिये तथा मूत्रादि शरीर बाधाओं को
दूर किया जा सके ऐसे स्थानसे युक्त होना चाहिये। [१३] उस स्थानमें साधु एकाकी (संगीसाथी न हो) हो तब वह
स्त्रियों के साथ वार्तालाप अथवा गप्पेसप्पें न मारे। वहां रहते हुए किसी गृहस्थ के साथ प्रति परिचय न करे किन्तु यथाशक्य साधुजनों के साथ ही परिचय रक्खे।
टिप्पणी-एकांतमें एकाकी वी के साथ वार्तालाप करने से दूसरों को शंका होनेका डर है और गृहस्थके साथ अति परिचय करने से रागवंधन को संभावना है, इसीलिये साधुको लियों अथवा पुरुषों के साथ केवल व्यवहारोपयुक्त संबंध ही रखना चाहिये। [१५] जैसे मुर्गीक बच्चे को विल्लीका सदैव भय लगा रहता है उसी
तरह ब्रह्मचारी साधक को स्त्री के शरीर से भय रहता है।
टिप्पणी-यह कथन ऊपर २ से तो एकांतवाची जैसा मालूम होता है किन्तु वारीक दृष्टिले विचार करने से इसकी वास्तविकता अक्षरशः विदित हो जाती है। 'स्त्री शरीरका भय रक्खो' इसका आशय भी यही है कि स्त्रीपरिचय न करो। ली जातिके प्रति पुरुषको अथवा पुरुष जातिके प्रति त्रियों को घृणा पैदा करनेका आशय यहां नहीं है। किन्तु वस्तुस्वरूपको प्रकट करने तथा ब्रह्मचर्य के साधक या साधिका को किस हद तक जागृत रहना चाहिये वही ग्रंथकार यहां बताना चाहते हैं। . [२] शृंगारपूर्ण चित्रोंसे सजित दीवालको (उन चित्रों पर एक टक
दृष्टि लगाकर) न देखे किंवा तत्संबंधी चिन्तन न करे। साधू
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श्राचारप्रणिधि
सुसजित स्त्री को उसके हावभावपूर्ण विलासमें देखने या मनसे सोचने की कोशिश न करे। यदि कदाचित् अकस्मात दृष्टि उघर पड जाय तो सूर्यकी तरफ पडी हुई निगाह की तरह उसको तत्क्षण ही उधर से हटाले।
टिप्पणी-सूर्यकी तरफ एक क्षणके लिये भी दृष्टि नहीं जमती । हम उधर देखना भी चाहे तो भी नहीं देख सकते। इसी तरह ब्रह्मचारी की दृष्टिका यह स्वभाव हो जाना चाहिये कि वह इरादापूर्वक कामिनियों के लावण्य, रूप, हावभावपूर्ण चेष्टानोंको देखनेका प्रयत्न न करे । यदि कदाचित अनिच्छापूर्वक वे दिखाई दे जाय तो उनके द्वारा विकारी भावना तो जागृत नहीं होनी चाहिये। साध्वी स्त्री को भी पुरुषों के प्रति यही भाव रखना चाहिये। [२६] ब्रह्मचारी साधकको, जिसके हाथ या पैर कट गये हों, नाक
या कान कट गये हों अथवा विकृत हो गये हों अथवा जो सौ वर्षकी जर्जरित बेडोल बुढिया हो गई हो श्रादि किसी भी प्रकारकी स्त्री क्यों न हो उसको सर्वथा त्याग देना ही उचित है।
टिप्पणी-ब्रह्मचर्य पालनेवाले पुरुषको स्त्री के साथ अथवा स्त्रीको पुरुष के साथ २ रहनेका तो सर्वथा त्याग कर ही देना चाहिये। एकांतनिवास भी वासना का एक बड़ा भारी उत्तेजक निमित्त है। विकार रूपी राक्षस वय,. वर्ण, या सौन्दर्य का विचार करनेके लिये रुक नहीं सकता क्योंकि वह अविवेकी, कुटिल एवं सर्वभक्षी होता है। [१७] श्रात्मस्वरूप के शोधकके लिये शोभा (शरीर सौंदर्य), स्त्रियोंका
संसर्ग तथा रसपूर्ण स्वादिष्ट भोजन ये सभी वस्तुएं तालपुट विपके समान परम अहितकारी हैं।
टिप्पणी-रसनेन्द्रियका अननेन्द्रियके साथ अति गाढ संबंध होनेसे अत्यधिक चरचरे, तीखे, अथवा अति रसपूर्ण मिष्टान्न भोजन विकार-भाव पैदा करते.
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दशर्वकालिक सूत्र हैं। शरीर सौंदर्य तथा उसकी टापटीप उसमें और भी उत्तेजना पैदा कर देती है। यदि इसमें कहीं खीका संसर्ग और वह भी कहीं एकांत . में मिल जाय तो फिर क्या कहना है ? इस प्रवाहमें महासमर्थ मनस्वी भी वह जाते हैं। जिन तरह विषपान करके भी अमर बने रहने के दृांत कचित् ही दिखाई देते हैं उसी तरह इन तीनों विषय परिस्थतियों को निरन्तर सेवन करनेवाला पतित न हो यह आकाशकुसुम जैसी कठिन वात है। [१८] स्त्रियोके अंगप्रत्यंग, आकार, मीठे शब्द (भालाप) तथा सौम्य
निरीक्षण (कटात) ये सब कामराग (मनोविकार) को बढाने के ही निमित्त हैं, इसलिये सुज्ञ साधक उनका चिन्तन न करे। टिप्पणी-विषयभावना अथवा विकार दृष्टिसे स्त्रियों के अंगोपांग देखना
यह भी महा भयंकर दोष । [१६] यावन्मात्र पुद्गलोंके परिणामको अनित्यस्वभावी जानकर सुज्ञ
साधक मनोज्ञ विपयों (भिन्न २ प्रकारकी मनोक्ष वस्तुओं) में
श्रासक्ति न रखे तथा अमनोज्ञ पदार्थों पर द्वेप न करे। [६०] सुज्ञ मुनि पौद्गलिक (जड़) पदार्थों के परिणमनको यथार्थरूप
से जानकर तृप्णा (लालच) से रहित होकर तथा अपनी आत्मा को शांत रखकर संयमधर्ममें विचरे।
टिप्पणी-पदार्थमात्रका परिवर्तन होना स्वभाव है। जो वस्तु आज सुंदर 'दिखाई देती है वही कल असुन्दर और असुन्दर सुन्दर दिखाई देने लगती है। पदार्थमात्र के इन दोनों पक्षोंको देखकर उसके तिरस्कार या प्रलोभनमें न 'पडकर साधुको समभावपूर्वक ही रहना चाहिये। [६] पूर्ण श्रद्धा तथा वैराग्यभावसे अपने घरको छोडकर उत्तम त्याग
को प्राप्त करनेवाला मिनु उसी श्रद्धा तथा दृढ वैराग्यसे महापुरुषों द्वारा बताये गये उत्तम गुणोंमें रक्त रहकर संयमधर्मका पालन करे।
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श्राचारप्रणिधि
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टिप्पणी-उत्तम गुणोंमें, मूलगुणों तथा उत्तर गुणों दोनोंका समावेश होता है। इनका विस्तृत वर्णन छठे अध्यायमें किया है। [६२] ऐसा साधु संयम, योग, तप, तथा स्वाध्याययोगका सतत
अधिष्ठान करता रहता है और वैसे ज्ञान, संयम तथा तपश्चर्या के प्रभावसे शस्त्रोंसे सजित सेनापतिकी तरह अपना तथा दूसरे का उद्धार करनेमें समर्थ होता है।
टिप्पणी-जो साधु अपने दोपोंको दूर कर आत्महित साधन नहीं कर सका वह कभी भी लोकहित साधनेका दावा नहीं कर सकता क्योंकि जो अयं शुद्ध होगा वही तो दूसरोंको शुद्ध कर सकेगा और वहीं समर्थ पुरुष वस्तुतः जगतका हित भी कर सकता है।
यहां पर सद्विधा, संयम तथा तपको शस्त्रोंसे, साधकको शरवीरसे, दोषों को शत्रुसे तथा सद्गुणों को अपनी सेनासे उपमा दी है। ऐसा शूरवीर पुरुष शत्रुओंको संहार कर अपना तथा सद्गुणोंका रक्षण कर सकता है। [१३] स्वाध्याय तथा सुध्यानमें रक्त, स्व तथा पर जीवोंका रक्षक,
तपश्चर्या में लीन तथा निप्पापी साधकके पूर्वकालीन पापकर्म भी,.
अग्निद्वारा चांदीके मैलकी तरह भस्म हो जाते हैं। [६] पूर्वकथित (क्षमा-दयादि) गुणोंका धारक, संकटोंको समभावपूर्वक
सहन करनेवाला, श्रुत विद्याको धारण करनेवाला, जितेन्द्रिय, ममत्वभावसे रहित तथा अपरिग्रही साधु कर्मरूपी आवरणों से दूर होने पर निरभ्र नीलाकाशमें चन्द्रमा की तरह अपनी आत्मज्योतिसे जगमगा उठता है (अर्थात् कर्ममलसे रहित होकर श्रात्मस्वरूपमय हो जाता है।
टिप्पणी-सतत उपयोगपूर्वक जागृत दशा, गृहस्थजीवन के योग्य कार्यों का सर्वथा त्याग, आसक्ति, मद, माया, छलकपट, लोभ, तथा कदाग्रहोंका त्याग ही त्याग हैं और इसी त्यागमय जीवनसे जीना यही त्यागी जीवनका परम
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दशवैकालिक सूत्र
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चेतनवंत लक्ष्यविन्दु है । इस साधना के मार्ग में विद्याका दुरुपयोग तथा बलका संसर्ग कांटेके समान अहितकर हैं । उनको निर्मूल कर सत्संग तथा सदाचार का सेवन कर मुझ साधक सद्वर्तनके लिये सदैव उद्यमवंत रहे ।
ऐसा मैं कहता हूं:
इस प्रकार 'आचारप्रणिधि' नामक आठवां अध्ययन समाप्त हुआ ।
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विनयसमधि
प्रथम उद्देश
विशिष्टनीति या विशिष्ट कर्तव्यका ही दूसरा नाम विनय हैं।
साधक जीवन के दो प्रकार के कर्तव्योंमें सामान्य की अपेक्षा विशिष्ट कर्तव्य की तरफ अधिक लक्ष्य देना चाहिये, क्योंकि सामान्य कर्तव्य गौण हुआ करता है और विशिष्ट कर्तव्य ही मुख्य होता है। मुख्य धर्मोंके पोषण के लिये ही सामान्य धर्मोंकी योजना की जाती है। मुख्य धर्मकी हानि कर सामान्य धर्मकी रक्षा करना निष्प्राण देह की रक्षा करनेके समान व्यर्थ है।
गृहस्थके विशिष्ट कर्तव्य, साधकके विशिष्ट कर्तव्य तथा भिक्षुश्रमण के विशिष्ट कर्तव्य ये तीनों ही भिन्न २ होते हैं
__इस अध्ययनमें प्रत्येक श्रेणीके जिज्ञासुओं के जीवनस्पर्शी विषयोंका वर्णन किया गया है। परन्तु उनमें भी गुरुकुल के श्रमण साधकों के अपने गुरुदेव के प्रति क्या क्या कर्तव्य हैं इस बात पर विशेष भार दिया गया है। ___ शास्त्रकारोंने साधकके लिये उपकारक गुरुको परमात्मा के समान बहुत ऊंची उपमा दी हैं। गुरुदेव, साधकके जीवन विकासके रास्ते के जानकार सहचारी हैं और वे उसकी नावके पतवार के समान हैं।
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दशवकालिक सूत्र
इसलिये उनकी शिक्षाको अस्वीकार करना अथवा उसकी अवगणना करना मानों आपत्ति तथा पतनको आमंत्रण देनेके समान विचारशून्य अयोग्य कार्य है।
गुरुदेव वाले:[२] जो साधक अमिमानसे, क्रोधसे, मायाचारसे, अथवा प्रमाद से
गुरुदेव (साधु समुदाय के प्राचार्य) के पास विनय (विशिष्ट कर्तव्य) नहीं करता है वह अहंकार के कारण सचमुच अपने पतनको ही बुलाता है और जिस तरह वांसका फल वांसको ही नाश करता है उसी तरह उसको प्राप्त शक्ति उसी के नाशकी.
तरफ खींच ले जाती है। [२] और जो कोई साधक अपने गुरुको मंद अथवा थोडी उमरका
जानकर अथवा उनको थोडा ज्ञान है ऐसा 'मानकर उनकी अवगणना करता है, 'अथवा ' उनको कटुवचन कहता है वह सचमुच कुमार्गमें जाकर अन्तमें अपने गुरुको भी बदनाम
करता है। . [३] बहुत से गुरु (वयोवृद्ध होने पर भी) प्रकृति से ही बुद्धिर्मे
मंद होते हैं। बहुत से वयमें छोटे होने पर भी अभ्यास एवं 'बुद्धिमें बहुत आगे बढे हुए होते हैं। भले ही ये ज्ञानमें भागे
पीछे हों किन्तु वे सब साधुजनों के आचारसे भरपूर तथा 'चारित्रके गुणों में ही तल्लीन रहनेवाले तपस्वी पुरुष हैं। इस लिये उनका अपमान करना ठीक नहीं 'क्योंकि उनका अपमान अग्निकी तरह अपने सद्गुणोंको भस कर देता है। ...
टिप्पणी क्षमा, दया, इत्यादि सदगुणोंके धारक गुरु स्वयं किसीका भी अकल्याण करनेकी इच्छा नहीं करते किन्तु ऐसे महापुरुषोंका अपमान. करनेसे स्वभावत: उसी अपमान करनेवालेका ही नुकसान होता है क्योंकि चारित्र
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विनयसमाधि
१४३ सांधन करने के लिये आवश्यक अंकुश दूर हो जानेसे उसके पतनकी हो अधिक संभावना रहती है। [४] यदि कोई मूर्ख मनुष्य सांपको छोटा जानकर उससे छेड़छाड़
करे तो उसका उस सर्पद्वारा अहित ही होगा। इसी तरह नो कोई अज्ञानी अपने श्राचार्यका अपमान करता है वह अपने
अज्ञानसे अपनी जन्ममरणकी परंपराको बढाता है। २ क्रुद्ध हुधा दृष्टिविप सर्प प्राणनाशसे अधिक और क्या मुकसान
कर सकेगा! (अर्थात् मृत्युसे अधिक और कुछ नहीं कर सकता) कन्तु जो मूर्ख अपने प्राचार्यों को प्रसन्न करता है वह साधक गुरुको श्रासातना करनेसे अज्ञानता को प्राप्त होकर मुक्तिमार्ग से बहुत दूर हो जाता है।
टिप्पणी-यह पूर्णोपमाका श्लोक नहीं है इसलिये सांपकी पूर्ण उपमा आचार्यों पर पटित नहीं होती। यह तो एक दृष्टांत है और दृष्टांत दान्त्यि के केवल एक अंशको ही लागू होता है। सारांश यह है कि सांप अपने वैरीसे बदला लेने की भरसक कोशिश करता है किन्तु आचार्यका तो वैरी ही कोई नहीं होता; यदि कोई वैरी होगया तो भी वे वदला लेनेकी कल्पना तक भी नहीं करेंगे। किन्तु ऐसा अविवेकी साधक स्वयं अपने ही दोपसे दुःखी होता है, उसमें गुरुका कोई दोष नहीं है। गुरुको अपमान को दृष्टिविष सर्पसे उपमा दी है। रष्टिविप सर्प उसे कहते हैं कि जिसे देखते ही (काठनेकी तो बात ही क्या है!) विप चढजाय और मृत्यु हो जाय । गुरुका अपमान साधकके लिये इस विपसे भी अधिक भयंकर है क्योंकि वह विप तो एक ही वार मृत्यु लाता है किंतु गुरुकी अप्रसन्नता तो जन्म-मरण के चक्रोंमें ही घुमाया करती है क्योंकि ऐसा आदमी मोक्षमार्गसे बहुत दूर हो जाता है। [६] जो कोई साधक गुरुका अपमान करके आत्मविकास साधनेकी
इच्छा करता है वह मानो जीनेकी प्राशासे अग्निमें प्रवेश करता ११
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दशवैकालिक सूत्र
अथवा अमर होनेकी
है। दृष्टिविष सर्पको क्रुद्ध करता है श्राशासे विष खाता है!
टिप्पणी-जिस तरह जीनेको इच्छावाला व्यक्ति उक्त तीनों प्रकारके कार्योंसे दूर रहता है उसी तरह आत्माविकासका इच्छुक साधक गुरुके अपमान से दूर रहे।
कदाचित् (विद्या या मंत्रवल से) अग्नि भी न जलावे, क्रुद्ध दृष्टिविप सर्प न भी काटे, हलाहल विप भी घात न करे किन्तु गुरुका तिरस्कार कभी भी व्यर्थ नहीं जाता है (अर्थात् सद्गुरुका तिरस्कार करनेवाला साधक संयमसे भ्रष्ट हुए विना नहीं रहता।)
टिप्पणी-गुरुजनोंका तिरस्कार मोक्षका प्रतिबंधक शत्रु है, इसमें लेश मात्र भी अपवादको स्थान नहीं है। इसलिये आत्मार्थी साधकको उपकारी गुरुओं के प्रति सदैव विनीत रहना चाहिये। 14] यदि कोई मूर्ख अपने माथेसे पर्वतको चुर २ करनेकी इच्छा करे
(तो पर्वतके बदले अपना ही सिर चुर २ कर लेगा) सुप्त सिंहको उसके पास जाके जगाये, भालेकी नोंक पर लात मारे (भालेका तो कुछ न बिगडेगा, किन्तु पेर के टुकडे २ हो जायंगे) तो जिस प्रकार दुःखी होता है उसी प्रकार गुरुजनों के
तिरस्कार करनेवालोंकी दुःखद स्थिति होती है। [+] मान लिया कि (वासुदेव सरिखा पुरुष) अपनी अपरिमित
शक्तिसे किसी मस्तक द्वारा पर्वतको चूर २ कर दे, कुछ सिंह भी कंदाचित् भक्षण न करे और भालेकी नोंक भी कदाचित् पैरको न भेदे तो भी गुरुदेवका किया हुन्ना तिरस्कार अथवा अवगणना साधकके मोदमार्गमें बाधा उत्पन्न किये बिना नहीं रहती।
को जुर २ करने की इच्छा कर
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[१०] श्राचार्यदेवों की अप्रसन्नताले अज्ञानकी प्राप्ति होती है और
उसको मोक्षमार्गमें अन्तराय होता है इसलिये अबाधित सुखके इच्छुक साधकको गुरुकृपा संपादन करने में ही लीन रहना चाहिये।
टिप्पणी-गद्वेषका संपूर्ण क्षय होने पर ही संपूर्ण शान (केवल शान) पैदा होता है। ऐसी उन्य स्थिति पाने पर मी गुरुकी विनय करनेका विधान करे शासकारोने विनयका अपार माहात्म्यको बताया है और विनय हो को आत्मविकार की रीढीका पहिला डंडा बताया है। [9] जिस प्रकार अग्निहोनी ब्राह्मणं भिन्न २ प्रकार के घी, मधु,
इत्यादि पर यों की आहुतियों तथा चेदमंत्रों द्वारा अभिषिक्त होमाग्निको नमस्कार करता है उसी तरह अनंत ज्ञानी और
धर्मीष्ठ शिष्य भी अपने गुरुकी विनयपूर्वक भक्ति करे। . [१२] शिप्यका कर्तव्य है कि जिस गुरुसे वह धर्मशास्त्र के गूढ . रहस्य
सीखा हो उस गुरुकी विनय सदैव करता रहे । उसको दोनों हाथ जोडकर प्रणाम करे। वधनसे उनका सत्कार करे और कार्यसे उनकी सेवा करे। इसी प्रकार मन, वचन और कायसे गुरुकी विनय करता रहे।
[१३] अधर्म के प्रति लज्जा (अंरुचिभाव), दया, संयम और ब्रह्मचर्य
ये ४ गुणं श्रात्महितैषी के लिये आत्मविशुद्धिके ही स्थान हैं (क्योंकि इससे कर्म रूपी मेंल दूर होता है) इसलिये "मेरे उपकारी गुरु सतत जो शिक्षा देते हैं. वह मेरो हितं करनेवाली है इसलिये ऐसे गुस्की हमेशां सेवा करते रहना मेरा कर्तव्य हे" ऐसी भावना उत्तम प्रकारके साधकको हमेशा रहनी चाहीये।
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दशवेकालिक सूत्र
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[१४] जिस प्रकार रात्रीके व्यतीत होने पर प्रकाशमान सूर्य संपूर्ण भारतक्षेत्रमें प्रकाश करता हे इसी प्रकार आचार्यदेव श्रपने ज्ञान, चारित्र तथा बुद्धियुक्त उपदेश द्वारा जीवादि पदार्थोंको प्रकाशित करते हैं और वे देवों में इन्द्र के समान साधुनों में शोभित होते हैं।
[१२] जिस प्रकार ज्योत्स्ना (चंदनी) से युक्त शरदपूणिमाका चंद्र भी ग्रह, नक्षत्र, तथा तारागणों के परिवारसे युक्त, बादलोंसे रहित नीलाकाशमें अत्यंत मनोहरतासे प्रकाशित होता है उसी तरह गणको धारण करने वाले श्राचार्य भी सत्यधर्मरूपी निर्मल श्राकाशर्मे अपने साधुगणके परिवार सहित शोभित होते हैं 1
टिप्पणी- यहां 'गण' शब्दका प्रयोग साधु गणमें महत्ता बतानेके लिये केवल आचार्य के लिये प्रयुक्त हुआ है ।
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[१६] सद्धर्मका इच्छुक और उनके द्वारा अनुत्तर ( सर्वश्रेष्ठ ) सुखकी प्राप्तिका इच्छुक भिक्षु, ज्ञान, दर्शन तथा शुद्ध चारित्र के महाभंडारस्वरूप शांति, शील तथा बुद्धिसे युक्त समाधिवंत श्राचार्य महपियोंको अपनी विनय एवं भक्तिसे प्रसन्न कर लेता है और उनकी कृपा प्राप्त करता है ।
[१७] बुद्धिमान साधक उपर्युक्त सुभाषितोंको सुनकर श्रप्रमत्त होकर अपने श्राचार्यदेवकी सेवा करता है और उनके द्वारा सज्ज्ञान, सच्चारित्र इत्यादि अनेक गुणोंकी आराधना कर उत्तम सिद्धगतिको प्राप्त होता है ।
टिप्पणी- ब्रह्मचर्य, संयम, गुरुभक्ति, विवेक, मैत्री तथा समभाव ये छ सद्गुण प्रत्येक मोक्षार्थी श्रमणके सहचर हैं क्योकि उन्नतिकी सीढी के ये ही ढंढे हैं इस बातको मुक्तिका अभिलाषी साधक कभी न भूले ।
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विनयसमाधि
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ऐसा मैं कहता हूँ
( इस प्रकार सुधर्मस्वामीने जम्बूस्वामीको कहा था ) " विनय समाधि' नामक अध्ययनका प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ ।
इस प्रकार
दूसरा उद्देशक
जिस तरह वृक्षमें सर्व प्रथम नड, उसके बाद तना, फिर शाखा प्रतिशाखा, पुष्प, फल तथा रस इस प्रकार क्रमशः वृद्धि होती है उसी तरह अध्यात्म विकासक्रमकी भी क्रमानुसार ऐसी ही श्रेणियां हैं ।
यदि कोई मूल रहित वृक्ष अथवा नींव सिवायका घर बनाना चाहे तो वह निश्चयसे वैसा वृक्ष उगा नहीं सकता ( फलकी तो बातही क्या है ? ) अथवा वैसा घर वह बांध नहीं सकता। इसी प्रकार जो कोई साधक विनय रूपी मूलका यथार्थ सेवन किये बिना धर्मवृत चोता है वह साधक मुक्ति रूपी सफलता कभी नहीं प्राप्त कर सकता ।
गुरुदेव वोले :
[१] जिस प्रकार मूलसे वृत्तका तना, तनेमें से शाखा, शाखा से प्रतिशाखाएं, शाखा - प्रतिशाखाओं में से पसे उत्पन्न होते हैं और यादमें उस वृक्षमें फूल, फल और मीठा रस क्रमशः पैदा होते हैं ।
[२] उसी प्रकार धर्मरूपी वृक्षका मूल विनय है और उसका अंतिम परिणाम ( अर्थात् रस ) मोक्ष है । उस विनयरूपी मूलद्वारा विनयवानं शिष्य इस लोकमें कीति धौर ज्ञानको प्राप्त होता है' और महापुरुषों द्वारा परम प्रशंसा प्राप्त करता है और क्रमशः अपना श्रात्मविकास करते हुए अन्तमें निःश्रेयस (परम कल्याण ) रूपी मोत को भी प्राप्त होता है ।
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दर्शवैकालिक सूत्र
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टिप्पणी- जिस वृक्षका फल मोक्ष हो वह वृक्ष कितना महत्त्वशाली होगा, यह बात आसानीसे समजमें आ जाती है । और इसीलिये उस धर्मका वर्णन इस ग्रंथके पहिले अध्ययनमें संक्षेपसे किया है। यहां धर्मको वृक्षको उपमा देने' का हेतु यह है कि धर्मकी भूमिकाओं का भी वृक्ष जैसा क्रम होता है । क्रम सिवाय अथवा क्रमके विपरीत यदि किसी वस्तुका व्यवहार किया जाय तो उससे लाभ होने के बदले हाबि ही होती है क्योंकि वस्तुका एक के बाद दूसरी पर्याय होना उसका स्वभाव है इस लिये तदनुकुल ही व्यवहार होना चाहिये इस सूक्ष्म वातका निर्देष करने के लिये ही यह ष्टांत दिया है । वस्तुतः जितना माहात्म्य सद्धर्मका है उतना ही यहां पर विनयका अर्थ - विशिष्ट नीति अर्थात् सज्जनका कर्तव्य है । दया, प्रेम विवेक, संयम, परोपकार, परसेवा आदि सब गुण सज्जनके कर्तव्य ही हैं। इन कर्तव्यों को करनेवाला ही विनीत हो सकता है । विनय से हो महापुरुषोंकी कृपा प्राप्त होती है और विश्वमें सुयशकी सुगंध प्रसरती है; इसीसे सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है और तो क्या, आत्मदर्शन होकर साक्षात् मों की भी प्राप्ति इसीसे होती है 1
माहात्म्य विनयका है
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यह विनय ही सद्धर्मरूपी कल्पवृक्षका मूल है, धैर्य उसका कंद है, शान तना है, शुभभाव - जिससे उसे पोषण मिलता है, उसकी त्वचा है, पूर्ण अनुकंपा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं त्याग ये उसकी शाखाएं हैं, उत्तम भावना उसकी प्रतिशाखाएं हैं; धर्मध्यान तथा शुक्र ध्यान उसके पल्लव हैं; निर्विषयिता, निलोंभिता तथा क्षमादि गुण उसके पत्ते हैं; वासनादि पापोंके क्षय तथा देहाध्यासके. त्यागको उसका पुष्प, मोक्ष फल और मुक्त दशामें प्राप्त निराबाध सुखको उसका मधुर रस समझना चाहिये ।
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[३] जो धात्मा क्रोधी, अज्ञानी (मूर्ख), अहंकारी, सदैव कटुभाषी, मायावी, धूर्त होता है उसे श्रविनीत समझना चाहिये और वह पानीके प्रबल प्रवाहमें काष्ठकी तरह सदैव इस संसार - प्रवाह में तैरता रहता है ।
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विनयसमधि
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टिप्पणी-क्रोध, मूर्खता, अमिमान, कुवचन, माया, तथा शठता आदि सव सज्जनता के शत्रु हैं। ये दुर्गुण सच्चे विनयभावको उत्पन्न ही नहीं होने देते और इसलिये वैसा जीवात्मा लोक तथा परलोक में प्रवाहमें पडे हुए काष्ठकी तरह पराधीन बनकर दुःख, खेद, छेश, शोक, वैर, विरोधर्म ही पडा २ सडता रहता है। उसे कभी भी शांतिका श्वास लेनेका अवकाश ही नहीं मिलता।
[५] कोई उपकारी महापुरुष जव सुन्दर शिक्षा देकर उसको विनय
मार्ग पर लानेकी प्रेरणा करते हैं तब मूर्ख मनुष्य उनपर उल्टा क्रोध कर उस शिक्षाका तिरस्कार करता है। उसका यह कार्य
वस्तुतः स्वयं श्राती हुई स्वर्गीय लक्ष्मीको लकडीसे रोकने जैसा है। [१] उदाहरणके लिये, वे हाथी और घोडे जो (अपनी अवनीतताके
कारण) प्रधान सेनापतिकी आज्ञाके आधीन नहीं हुए वे (फौज में भर्ती न होकर) केवल बोझा ढोनेके काममें लगाये जाकर
दुःख भोगते हुए दिखाई देते हैं। [६] और उसी सेनापतिकी आज्ञा के श्राधीन रहनेवाले हाथी और
घोडे महा यश एवं समृद्धिको प्राप्त होकर अत्यंत दुर्लभ सुखोंको भोगते हुए देखे जाते हैं।
टिप्पणी-फौजमें वही हाथी, घोडे लिये जाते है जो फौजी कायदोंको जानते हैं और सेनापतिकी आशानुसार युद्ध संबंधी सभी क्रियाएं करते हैं। ऐसे घोडों तथा हाथियोंका अत्यधिक लालनपालन किया जाता है और उन्हें उत्तमसे उत्तम खुराक तथा आराम दिया जाता है। दशहरा आदि त्यौहारोंक अवसर पर उन्हें सुवर्ण तथा चांदीके गहनोंसे सजाया जाता है तथा उनपर रेशमी भूलें डाली जाती हैं। उनकी सेवामें अनेक चाकर लगे रहते है। किन्तु जो हाथी घोडे अपनी उइंडताके कारण फौजी नियमों को नहीं सीख पाते ,
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दशवकालिक सूत्र
उनको दिनरात दोन्स टो। २ का भोगते हुए हम सब देखने है, फिर भी उनका कुछ भी कदर नहीं होता। उन पर तो कान करते हुए मो हंर हो पड़ते हैं ! अविनीत तया विनीत होनेके फलका यह छत बहुत उत्तम हैं। इसी तरह विनीत भला तथा भविनीत भालाके विपर्ने मौ सनम्ना चाहिये। [ex.] ऊपर के दृष्टांत के अनुसार, इस संसारमें भी जो नरनारी
विनयसे रहते हैं उनपर खूब ही मार पडनेसे उनमें से बहुवों की तो इन्द्रियां भंग हो जाती है अथवा सदाके लिये घायल
(विकलांग) हो जाते हैं। [6] परन्तु जो नरनारी विनय की आराधना करते हैं वे इस लोकमें
महा यशस्वी होकर महा संपत्तिको प्राप्त करते हैं और तरह २
के सुख भोगते हुए दिखाई देते हैं। [१०] (देवयोनिनें भी अविनयी जीवोंकी क्या गति होती है उसे
बताते हैं) अविनीत जीव देव, यक्ष, भवनवासी देव होने पर भी अविनयता के कारण ऊंची पदवी न पाकर उन्हें केवल बडे देवोंकी नौकरी ही करनी पड़ती है और इससे वे दुःखी देखे
जाते हैं। . [१] किन्तु जो जीव सुविनीत होते हैं वे देव, यह, भुवनवासी देव
होकर उनमें भी महा यशस्वी तथा महा संपत्तिवान देव होते हैं और अलौकिक सुख भोगते हैं।
टिप्पणी-सुख और दुःखका अनुभव आत्मविशुद्धि पर निर्भर है और भानविशुद्धिका आधार तद्धनको आराधना पर है। दाह्य संपत्तिकी प्राप्ति भले हो पूर्व शुभ बनके उददसे हो किन्तु उतले मिलनेवाला सुख या दुःख तो भात्मशुद्धि जयवा भालाकी मलिनता पर ही निर्भर है इस लिये पानशुद्धि करना यह जोवनका मुख्य ध्येय है। ऐसा महापुरुषोंने कहा है। बहुतले धनी मनुष्य भी संचारमें घोर नट और सनान भोगते हुए देखे जाते है और कोई
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विनयसमाधि
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२ निर्धन होने पर भी सुखी एवं सम्मानित दिखाई देते हैं । इसमें उनकी आत्मशुद्धिकी होनाधिकता ही कारण है ।
[१२] जो साधक अपने गुरु तथा विद्यागुरुकी सेवा करते हैं और उनकी आज्ञानुसार आचरण करते हैं उनका ज्ञान, प्रतिदिन पानी से सींचे हुए पौदेकी तरह, हमेशा बढता जाता है ।
टिप्पणी-सत्पुरूषों की प्रत्येक क्रियामें सद्बोधका भंडार भरा रहता है । उनके आसपासका वातावरण ही इतना पवित्र होता है कि जिज्ञासु एवं सत्य- शोधक साधक जीवनकी अगम्य गुत्थियोंको सहज हो में सुलझा लेता है ।
[ १३४१४ ] ( गुरुकी विनयकी क्या आवश्यकता है ? ) गृहस्थ लोग अपनी आजीविका के लिये अथवा दूसरों (रिश्तेदारों आदि) के भरणपोषण के लिये केवल लौकिक सुखोपभोगके लिये कलाके आचार्यों से उस कलाको सीखते हैं और फिर उनके पास अनेक राजपुत्र, श्रीमंतों के पुत्र श्रादि बहुतसे लड़के उस विद्याको सीखने के लिये आकर वध, बंधन, मार, तथा अन्य दारुण कष्ट सहते हैं ।
[ [ १२x१६ ] ऐसी केवल बाह्य जीवनके भरणपोषणकी शिक्षाके लिये भी उक्त राजकुमार तथा श्रीमंतों के पुत्र उपर्युक्त प्रकार के कष्ट सहन करते हैं तथा उन कलाचार्यकी सेवा करते हैं, और प्रसन्नतापूर्वक उसके आज्ञाधीन रहते हैं तो फिर जो मोतका परम पिपासु मुमु साधक है वह सच्चा ज्ञान प्राप्त करनेके लिये क्या क्या न करेगा ? इसीलिये महापुरुषोंने कहा है कि उपकारी गुरु जो कुछ भी हितकारी वचन कहें उसका भिक्षु कभी भी उल्लंघन न करे ।
टिप्पणी- जैन दर्शनमें गुरुआशाका बहुत ही अधिक माहात्म्य बताया है - यहां तक कि गुरुआशा पालनमें ही सब धर्म बता दियां है। साथ ही साथ
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इस बात पर भी बटा हो जोर दिया है कि गुरु भी आदर्श गुरु होना चाहिये निःस्वार्थता, शुद्ध चारित्र और परमार्थबुद्धि ये गुरुके विशिष्ट गुण हैं। [२७] (गुरुकी अधिक विनय कैसे की जाय) साधक. मि अपनी
शव्या, आसन, एवं स्थान गुरुको अपेक्षा नीचा रक्खे। चलते समय भी वह गुरुले भागे आगे न चले और नीचे मुखकर गुरुदेवके पदकमलों को वंदन करे तथा हाथ जोडकर नमस्कार
करे। [८] यदि कदाचित् अपना शरीर अथवा वस्त्र आदि गुरुजीके शरीरसे
छू जाय तो उसी समय साधु 'मुझसे यह अपराध हुआ, कृपया तमा कीजिये, अब ऐसी भूल न होगी, इस प्रकार बोले और
वादमें ऐसा ही प्राचरण करे। [१] जिस तरह गरियार बैल चाबुक पड़ने पर ही रथको खींचता
है उसी तरह जो दुष्टबुद्धि अविनीत शिष्य होता है वह गुरुके
वारंवार कहने पर ही उनकी श्राज्ञाका पालन करता है। [२०x२] किंतु धीर साधुको तो, गुरु चाहे एक वार कहें या अनेक
वार, परन्तु उसी समय अपनी शय्या या श्रासन पर बैठे २ • प्रत्युत्तर न देना चाहिये और उसी समय खडे होकर अत्यन्त
नम्रताके साथ उसका उत्तर देना चाहिये और वह बुद्धिमान शिष्य अपनी तकरणाशक्तिसे अन्य, क्षेत्र, काल तथा भावसे. गुरुश्रीके अभिप्राय तथा सेवाके उपचारोंको जान कर उन २ उपायों को तत्क्षण ही समयानुसार करने में लग जाय ।
टिप्पणी-इस गाथामें विवेक तथा व्यवस्था करने का विधान करके प्रकारान्तरले विनयमें अंधश्रद्धा एवं अविवेक को विलकुल स्थान नहीं है इस वातका निर्देश किया है।
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[२२] अविनीत के सभी सद्गुण नष्ट हो जाते हैं और विनीत को
सद्गुणोंकी प्राप्ति होती है ये दो बातें जिस मनुप्यने जाम ली
वही सच्चा ज्ञान प्राप्त करनेका अधिकारी है। [२३] जो साधक संयमी बनकर भी बहु क्रोधी, अपने स्वार्थ एवं
सुखका आतुर, चुगलखोर, तावेदार, अधर्मी, अविनयी, मूर्ख, पेट, केवल नाम मात्रका साधु होता है वह मोतका कभी भी
अधिकारी नहीं हो सकता। [२४] किन्तु जो गुरुजनों के आज्ञाधीन, धर्म तथा ज्ञानके असली रहस्य
के जानकार और विनयपालन में पंडित होते हैं वे इस दुस्तर संसारसागरको सरलतासे पारकर-समस्त कर्मोंका क्षय करके अन्तमें मोक्ष गतिको प्राप्त होते हैं, प्राप्त होंगे और प्राप्त हुए हैं।
टिप्पणी-क्रोध, स्वच्छंद, माया, शठता, और मदांधता ये पांच दुर्गुण विनयके कट्टर शत्रु है। इनको त्याग कर तथा उपर्युक्त सद्गुणोंकी आराधना कर साधक भवसागरके प्रवाहमें न वहते हुए अपनी ली हुई प्रतिशा पर इद रहे।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार ‘विनय समाधि' नामक अध्ययनका दूसरा उद्देशक समाप्त हुआ।
तीसरा उद्देशक
जो पूज्यता सद्गुणों के बिना ही प्राप्त हो जाती है उससे अपना और दूसरों दोनोंका ही अनिष्ट होता है। उससे उन दोनोंका विकास रुक जता है और अन्तमें दोनोंको पश्चात्ताप करना पडता है। .
ऐसी पूज्यताका प्रभाव वहीं तक रहता है जहां तक कि प्रजा.
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जड, मूर्ख, तथा अदूरदर्शी वनी रहती है किन्तु प्रजामें ज्ञान, गुणग्राहकता तथा विवेकबुद्धि आते ही उस पूज्यताका रंग उड जाता है और वह पामरता के रूपमें पलट जाती है । इस लिये महर्षियोंने ऐसी क्षणिक पूज्यता को प्राप्त करनेका लेशमात्र भी निर्देश नहीं किया । इस उद्देश में जिन गुणों से पूज्यता प्राप्त होती है उनका वर्णन किया है ।
गुरुदेव बोले :
[1] जिस प्रकार अग्निहोत्री ब्राह्मण निकी सुश्रूषा करने में निरन्तर सावधान रहता है उसी प्रकार शिष्यको घपने गुरुकी सेवा करने में सावधान रहना चाहिये क्योंकि श्राचार्यकी दृष्टि और इशारों से ही उनके मनोभावको जानकर जो शिष्य उनकी इच्छात्रोंकी पूर्ति करता है वही पूजनीय होता है ।
' [२] जो शिष्य सदाचार की श्राराधनाके लिये विनय करता है, उनकी सेवा करते हुए गुरु श्राज्ञा सुनते ही उसका पालन करता हैं और गुरुकी किंचिन्मात्र भी अवगणना नहीं करता, वही साधक पूजनीय होता है ।
[३] वो साधक अपनेसे उमरमें छोटे किन्तु ज्ञान अथवा संयममें वृद्ध की विनय करता है, गुणीजनोंके सामने नन्नभावसे रहता है तथा सदैव सत्यवादी, विनयी एवं गुरुका श्राज्ञापालक होता है वही पूजनीय होता है ।
'[४] जो भिन्तु संयमयात्राके निर्वाह के लिये हमेशा सामुदानिक, विशुद्ध, तथा अज्ञात घरोंमें गोचरी करता है और श्राहार न मिलने पर खेद तथा मिलने पर बढाई नहीं करता है वही पूजनीय होता है । [2] संथारा, शय्यास्थान, श्रासन तथा श्राहारपानी सुन्दर अथवा बहुत विक प्रमाण मिलने पर भी जो थोडेकी ही इच्छा रखता है
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और उसमें भी केवल आवश्यकतानुसार ही ग्रहण करके सन्तुष्ट रहता है और यदि कदाचित् कुछ न मिले तो भी जो पूर्ण
सन्तुष्ट ही बना रहता है वही पूजनीय होता है। [६] किसी उदार गृहस्थसे धन प्रादिकी प्राप्तिकी प्राशासे लोहेकी.
कीलोंपर चलना अथवा सो जाना सरल है किन्तु कानोंमें वाणों. की तरह लगनेवाले कठोर वचन रूपी कांटोंको विना किसी सार्थ के सहन करना अतिशय अशक्य है। फिरभी उनको जो कोई
सह लेता है वही वस्तुतः पूजनीय है। [0] (कठोर वाणी लोहेके बाणोंसे भी अधिक दुःखद होती है) लोहे
के कांटे तो मुहूर्त (दो घडी) भर ही दुःख देते हैं और उन्हें श्रासानीसे शरीरमें से निकाल कर फेंका भी जा सकता है किन्तु. कठोर बचनों के प्रहार हृदयके इतने आरपार हो जाते हैं कि उनको निकाल लेना आसान काम नहीं है और वे इतने गाढ वैर बांधनेवाले होते हैं कि उनसे अनेक अत्याचार और दुष्कर्म हो जाते हैं जिनका भयंकर परिणाम अनेक जन्मों तक नीची गतिमें उत्पन्न हो २ कर भोगना पड़ता है।
टिप्पणी-अनुभवी पुरुषोंका यह कैसा अनुभवामृत है। एक कठोर वचन के परिणाममें करोड़ों आदमियोंका संहार होता है। एक कठोर बचनका ही यह परिणाम है कि इस पृथ्वीपर खूनकी नदियां वहने लगती हैं और धर्मकर्म सब ताकमें रख दिये जाते है ! एक कठोर वचनका ही यह परिणाम है कि. पविप्रता, वैभव, और उन्नतिके शिखर पर पहुंची हुई व्यक्तियोंका पतन हो जाता है । महाभारत आदि ग्रंथ इसी बातके तो साक्षी हैं ! आज भी कठोर वचन के दुष्परिणाम किसीसे छिपे नहीं है इसीलिये वचनशुद्धि पर इतना अधिक. जोर डाला गया है। [-] कठोर वचनके प्रहार कानमें पड़ते ही चित्तमें एक ऐसा विचित्र
प्रकारका विकार. (जिसे वैमनस्य कहते हैं) उत्पन्न कर देते हैं परन्तु.
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उन कठोर वचनोंको भी मोतमार्गका जो शूरवीर तथा जितेन्द्रिय पथिक सहिष्णुताको अपना धर्म मानकर प्रेमपूर्वक सहन कर लेता है वही वस्तुतः पूजनीय है।
टिप्पणी-क्षमा वीर पुरुषका भूषण है। जिसमें शक्ति होती है वही सहन कर सकता है। कायर कदाचित् कठोर वचनको कापसे सहन कर लेगा किन्तु उसका मन तो कुदता ही रहेगा। आज भी अपने शिर पर नंगी नलवारका वार सहनेवाले और मैदाने जंगमें बढ़ २ कर हाथ दतानेवाले हजारों लाखों हो शरीर मिल जायगे, उपाय किये बिना हो आपत्तियों को सहजाने वाले साधक भी सैकडों मिल जायगे किन्तु विना कारण कठोर शब्दोंकी वर्षाको तो कोई विरला वीर ही सह सकता है! [] जो साधु किसी भी मनुष्य की पीठ पीछे निंदा नहीं करता. सामने
वैर विरोधको बढानेवाली भाषा नहीं वोलता और जो निश्चयात्मक तथा अप्रिय भाषा नहीं बोलता वही वस्तुतः पूजनीय है।
टिप्पणी-निंदाके समान एक भी विष नहीं है । जिस मनुष्यकी निंदा 'की जाती है वह कदाचित् दूषित भी हो तो उसके दोषोंको प्रकट करनेसे
वे घटने के बदले उल्टे बढ़ते ही जाते है और निंदक स्वयं वैसा ही दुष्ट बनने लगता है इस तरह सुननेवाला, सुनानेवाला और खुद निदित ये तीनों ही विषाक्त वातावरण पैदा करते हैं। इसीलिये इस दुर्गुणको शालोंमें त्याज्य कहा है। [१०] जो साधक अलोलुपी, अकौतुकी (जादूगरी प्रादिसे रहित) मंत्र,
जंत्र, इन्द्रजाल आदि नहीं करनेवाला, निष्कपट, निश्छल, दैन्यभावसे रहित, जो स्वयमेव अपनी प्रशंसा नहीं करता और न दूसरोंसे अपनी खुशामदकी इच्छा ही करता है वही वस्तुतः
पूज्य है। व] "हे प्रात्मन् ! साधुत्वं एवं असाधुत्वकी सच्ची कसौटी गुण एवं
अवगुण हैं (अर्थात् गुणोंसे साधुत्व तथा अवगुणोंसे असाधुत्व
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होता है) इसलिये तू साधुगुणोंको ग्रहण कर और असाधुगुणों (अवगुणों) को छोड दे। इस तरह अपनी ही प्रारमा द्वारा अपनी आत्माको समझाकर जो राग द्वेष के निमित्तोंमें लेमभाव धारण कर सकता है वही वस्तुतः पूजनीय है।
टिप्पणी-सद्गुणों की साधना ही साधुता है अन्यचिहोंमें नहीं ऐसी विचारण जिस साधुमें निरन्तर हुआ करती है वही साधुत्वकी आराधना कर अपने दोषोंको दूर कर सकता है। [१२] अपनेसे वढा हो या छोटा हो. स्त्री हो या पुरुप, साधक से
या गृहस्थ, जो किसीकी भी निंदा या तिरस्कार नहीं करता
तथा अहंकार एवं क्रोधको छोड़ देता है वही सचमुच पूजनीय है। [१३] गृहस्थ जिस तरह अपनी कन्या के लिये योग्य वर देखकर उसे
विवाह देता है उसी तरह शिष्यों द्वारा पूजित गुरुदेव भी यलपूर्वक ज्ञानादि सद्गुणोंकी प्राप्ति करा कर साधकको उच्च श्रेणीमें रख देते हैं। ऐसे उपकारी एवं सम्मान्य महापुरुषोंकी जो जितेन्द्रिय, सत्यप्रेमी, तपस्वी साधक पूजा करता है वही वस्तुतः
पूजनीय है। [१४] सद्गुणोंके सागरके समान उन उपकारी गुरुत्रोंके सुभापितोंको
सुनकर जो बुद्धिमान मुनि पांच महाव्रत और तीन गुप्तियोंसे युक्त होकर चारों कपायोंको क्रमशः छोड़ता जाता है वही वस्तुतः पूजनीय है।
टिप्पणी-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रहका संपूर्ण पालन करना ये पांच महाव्रत है। [१] इस प्रकार यहां सतत गुरुजनकी सेवा करके जैन दर्शनका रहस्य
जानने में निपुण एवं ज्ञानकुशल विनीतं मितु अपने पूर्व संचित कर्ममलको दूर कर अनुपम प्रकाशमान मोक्षगतिको प्राप्त होता है।
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दशवकालिक सूत्र
. टिप्पणी-लाभ मा हानिमें, निंदा था स्तुति, समता, संतोष, जितेन्द्रियता इत्यादि साधुगुणोंका स्वीकार तथा दोनवृत्ति, निंदा तथा तिरस्कार जैसे दुर्गुणोंका साग ये सब बातें पूज्यता पैदा, करनेवाली है।
अनय पूज्यताको कभी नहीं चाहता फिर भी गुणको सुवास पूज्यताको स्वयं खींचती है। ऐसा साधक श्रमण शीघ्र ही अपने साध्यको सिद्ध करके निवासक अपरिमित अनंदको भोगता है।
ऐसा मैं कहता हूं:-. इस प्रकार 'विनय समाधि' नामक अध्ययनका तीसरा उद्देशक समाप्त हुआ।
चौथा उद्देशक
अध्यात्म शांतिके अनुभवको समाधि कहते हैं । अध्यात्म शांतिके पिपासु साधक जिस समाधिक्री सिद्धि चाहते हैं उसके ४ साधनों का वर्णन इस उद्देशकमें किया है। उन साधनोंका जो साधक सावधानीसे उपयोग करता है और उसमें लगनेवाले दोषोंको भलीभांति जानकर उन्हें दूर करनेकी कोशिश करता है वे ही साधक अध्यात्म शांतिके मामें आगे बढ़ते हैं और जो कोई इनका दुरुपयोग करता है वह स्वयं गिर पड़ता है और साथ ही साथ प्राप्त साधनोंको भी गुमा बैठता है।
गुरुदेव बोले:-
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— सुधर्मस्वामीने अपने शिष्य जंबूस्वामी को उद्देश करके इस प्रकार कहा था हे श्रायुप्मन् ! भगवान महावीरने इस प्रकार कहा था
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thood her af
विनयसमाषि
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वह मैने सुना है। उन स्थविर (प्रौढ़ अनुभवी) भगवानने विनय समाधि स्थान बतायें हैं ।
शिष्य :- भगवन् ! उन स्थविर भगवानने किन चार स्थानोंका वर्णन किया है ?
गुरुः
:- उन स्थविर भगवानने विनय समाधिके इन ४ स्थानोंका वर्णन किया है: (1) विनय समाधि, (२) श्रुतसमाधि, (३) तपसमाधि और (४) श्राचार समाधि
1
[2] जो जितेन्द्रिय संयमी हमेशा अपनी श्रात्माको विनयं समाधि, श्रुतसमाधि, तर्पसमाधि और आचार समाधिमें लगाये रहता है वही सच्चा पंडित है ।
उस विनय समाधिके भी ये चार भेद हैं: (१) जिस गुरुसे विद्या सीखी हो उस गुरु को परम उपकारी जानकर उनकी सदा सेवा करना; (२) उनके निकट रहकर उनकी परिचर्या अथवा (विनय) करना; (३) गुरुकी श्राज्ञाका अक्षरश: पालन करना; और ( ४ ) विनयी होने पर भी अहंकारी न बनना इन सबमें से अंतिम चौथा भेद बहुत ही मुख्य है । उसके लिये अगले सूत्रमें कहते हैं:
[२] मोक्षार्थी साधक हितशिक्षाकी सदैव इच्छा करे; उपकारी गुरुकी सेवा करे, गुरुके समीप रहकर उनकी श्राज्ञाओंका यथार्थ रीतिसे पालन करे, और विनयी होनेका अभिमान न करे वही साधक fare समाधिका सच्चा श्राराधक है ।
गुरुदेव बोले:
आयुष्मन् ! श्रुत समाधिके भी चार भेद हैं जिनको मैंने इंस प्रकार सुना है: (१) 'अभ्यास करने से ही मुझे सूत्रसिद्धांत का पक्की
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दशवकालिक सूत्र
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ज्ञान होगा'--ऐसा मानकर अभ्यास करे । (२) 'अभ्यास करनेसे मेरे चित्त की एकाग्रता बढे'-ऐसा विश्वास रखकर अभ्यास करे । (३) 'मैं अपनी आत्माको अपने धर्ममें पूर्ण रूपसे स्थिर करूंगा'-ऐसा निश्चय करके अभ्यास करे, तथा (४) 'यदि मै धर्ममें बराबर स्थिर होऊंगा तो दूसरों को भी धर्ममें स्थापित कर सकूँगां'-ऐसी मान्यता रखकर अभ्यास करे। इस प्रकार ४ पद हुए। इनमें से अंतिम चौथा पद विशेष उल्लेख्य है । तत्संबंधी श्लोक श्रागे कहते हैं:[३] श्रुतसमाधिमें रक्त हुआ साधक सूत्रों को पढकर ज्ञानकी, एकान
चित्तं की, धर्मस्थिरताकी तथा दूसरों को धर्म में स्थिर करनेकी शक्ति प्राप्त करता है इसलिये साधक को श्रतसमाधिमें संलग्न
होना चाहिये। [] तप समाधिमें हमेशां लगा हुआ साधक भिन्न भिन्न प्रकारके
सद्गुण के भंडार रूपी तपश्चर्या में सदैव लगा रहे और किसी भी प्रकारकी आशा रक्खे विना वह केवल कर्मों की निर्जरा करने की ही इच्छा करे । ऐसा ही साधु पूर्व संचित कर्मों का तय करता है।
टिप्पणी-सर्व दिशाच्यापी यश को 'कीर्ति, अमुक एक दिशा व्यापी यश को 'वर्ण' केवल एक ग्राम में व्याप्त यश को 'शब्द' और केवल कुल में ही फैले हुए मर्यादित यशको ‘श्लोक' कहते हैं।
श्राचार समाधि भी चार प्रकार की होती है। वे भेद इस प्रकार है:-(१) कोई भी साधक ऐहिक स्वार्थ के लिये साधु आचारोंका सेवन न करे, (२) पारलौकिक स्वार्थके लिये भी साधु-आचारों को न सेवे । (३) कीति, वर्ण, शब्द या श्लोक के लिये साधु-प्राचारों को न पाले । (४) निर्जरा के सिवाय अन्य किसी हेतु से साधु
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विनयसमाधि
श्राचारों को न पाले । इनमें से अंतिम चौथा पद महत्वका है और उसे लक्ष्य रखना चाहिये । तत्संबंधी श्लोक इस प्रकार है:
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[५] जो साधु, दमितेन्द्रिय होकर आचार से श्रात्मसमाधि का अनुभव करता है, जिनेश्वर भगवान के वचनों में तल्लीन होकर वादविवादोंसे विरक्त होता है और संपूर्ण ज्ञायक भावको प्राप्त होता है, वह आत्ममुक्ति के निकट पहुंच जाता है
[६] वह साधु चार प्रकार की आत्मसमाधि की आराधना कर विशुद्ध बन जाता है तथा चित्त की सुसमाधि को साधकर में परम हितकारी तथा एकांत सुखकारी अपने कल्याणस्थान (मोक्ष) को भी स्वयमेव प्राप्त करलेता है ।
[७] इससे वह जन्म-मरण के चक्र से तथा सांसारिक बंधनोंसे सर्वथा मुक्त होकर शाश्वत ( अविनाशी ) सिद्ध पदवी को प्राप्त होता है अथवा यदि थोडे कर्म बाकी बच गये हों तो महान ऋद्धिशाली उत्तम कोटि का देव होता है
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टिप्पणी- जिस तपमें भौतिक वासना की गंध नहीं, जिस तपमें कीर्ति अथवा प्रशंसा की इच्छा नहीं, मात्र कर्ममल से रहित होने की ही भावना है वही तप आदर्श है और जिस आचारमें आत्मदमन, मौन तथा समाधिका समावेश है वही सच्चा तप है । जिस विनयमें नम्रता, सरलता, एवं सेवाभाव है वही सच्ची विनय है और जिस ज्ञानसे एकाग्रता तथा समभाव की वृद्धि होती है वहीं सच्चा ज्ञान है ।
ऐसा मैं कहता हूं:
इस प्रकार 'विनयसमाधि' नामक नौवां अध्ययन समाप्त हुआ ।
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भिक्षु नाम
आदर्श साधु
वैराग्यके उद्रेक से जब हृदय सुगंधित हो जाता है तभी उसमें त्याग के लिये प्रेमभाव पैदा होता है, तभी उसे त्यागकी लौ लगती है और वह मुमुक्षु किसी गुरुदेव को ढूंढकर त्यागमार्ग की विशाल वाटिकामें विहार करने लगता है और तभी वह आसक्ति तथा स्वच्छंदता के त्याग का निश्चय करके, प्रतिज्ञा पूर्वक अति कटिन नीतिनियमों का स्वीकार करता है।
यावज्जीवन के लिये ऐसी तीन प्रतिज्ञा लेनेवाले त्यागी की आध्यात्मिक, धार्मिक, तथा सामाजिक दृष्टि बिन्दुओं से क्या २ और कितनी जवाबदारी है उसका इस अध्यायन में वर्णन किया है।
गुरुदेव वोले:10] (बुद्धिमान पुरुषों के उपदेशसे अथवा अन्य किसी निमित्तसे)
गृहस्थाश्रम को छोडकर त्यागी बना हुआ जो भिन्नु सदैव ज्ञानी महापुरुषों के वचनों में लीन रहता है, उनकी आज्ञानुसार ही आचरण करता है, नित्य चित्तसमाधि लगाता है, स्त्रियों के मोहजाल में नही फँसता और वमन किये हुए भोगोंको फिर भोगनेकी इच्छा नही करता वही आदर्श भिक्षु है।
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मिड नाम
[२] जो पृथ्वी को स्वयं नहीं खोदता, दूसरों से नहीं खुदवाता और
खोदनेवाले की अनुमोदना भी नहीं करता; जो स्वयं सचित्त पाणी नहीं पीता, न दूसरों को पिलाता है और पीनेवालों की अनुमोदना भी नहीं करता; जो तीक्ष्ण प्रस्न रूपी अग्निको स्वयं नहीं जलाता, न दूसरों से जलवाता है और जलानेवाले की अनुमोदनाभी नहीं करता, वही श्रादर्श भिन्नु है।
टिप्पणी-यहां किसी को यह शंका हो सकती है कि ऐसा क्यों कहा है ? उसका समाधान यह है कि जैन दर्शनमें आध्यात्मिक विकासकी दो श्रेणियां बताई हैं (१) गृहस्थ. संयम मार्ग, और (२) साधु संयम मार्ग । गृहस्थ संयमो को गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी संयमकापालन करना होता है किन्तु उसके अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और त्याग प्रमाणमें मर्यादित होते हैं और वे 'अणुव्रत' कहलाते हैं। किन्तु त्यागी को तो उक्त पांचों व्रतों को पूर्ण रीति से पालना पडता है इसलिये उसके व्रतों को 'महानत' करते हैं।
उपरको गाथा में त्यागी के त्याग का प्रकार बताया है। पृथ्वी, जल, 'अग्नि, वायु तथा वनस्पति ये सप सजीव है यद्यपि उनके जीव इतने सूक्ष्म होते है कि वे हमारी चर्मचक्षुओं द्वारा दिखाई नहीं देते। किंतु वे ' है 'अवश्य । उनकी संपूर्ण अहिंसा गृहस्थ जीवन में साध्य (संभव) नहीं है इसीलिये गृहस्थ संयममार्ग में स्थूल मर्यादा का विधान किया गया है। त्यागी जीवन में ऐसी अहिंसा सहज साध्य है इसलिये . उसके लिये ऐसी सूक्ष्म हिंसा को भी त्याज्य बताया है। [३] जो पंखा आदि साधनों से स्वयं हवा नहीं करता और दूसरों
से नही कराता; बनस्पति को स्वयं नही तोडता और न दूसरों से तुडवाता ही है मार्गमें सचित बीज पडे हों तो जो
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दशवकालिक सूत्र.
उनको बचाकर चलता है और अचित्त भिता को ही ग्रहण
करता है ऐसा साधु ही श्रादर्श साधु है। [] जो अपने निमित्त बनाई हुई भिक्षा को नहीं लेता, जो स्वयं
भोजन नहीं बनाता और न दूसरों से बनवाता ही है वही आदर्श मिनु है क्योंकि भोजन पकाने से पृथ्वी, घास, काष्ठ, और उसके आश्रयमें रहनेवाले इतर प्राणियों की हिंसा होती है इसलिये भिन्नु ऐसी हिंसाजनक प्रवृत्ति नहीं करता है।
टिप्पणी-यहां किसी को यह शंका हो सकती है कि साधु जीवनमें भोजन की जरूरत तो होती ही है तो यदि मुनि न पकायेगा तो कोई दूसरा अवश्य ही उसके लिये पकायेगा और उस दशामें उस आदमी का उपयोगी समय बर्बाद होगा इतना नहीं उसे व्यर्थ ही कष्ट तथा मुनिके भोजन का खर्च सहना पडेगा और साधु महाराज के निमित्त से वह उतने अधिक आरंभ का पापभागी भी होगा। अपने स्वार्थ के लिये किसी दूसरे को इतनों उपाधिमें डालना इसमें विश्वोपकारक भगवान महावीर की अहिंसा का पालन कहां हुआ ?
इसका समाधान यह है कि साधु जीवन निःस्वार्थी, निःस्पृही तथा स्वतंत्र जीवन होता है। निःस्वार्थता, निःस्पृहता और स्वतंत्रता ये सब इन्। उत्तम गुण है कि वे स्वयं अपने पैरोंपर खडे हो सकते हैं इतनाही नहीं किन्तु वे दूसरों का बोझ भी वहन कर सकते हैं। जो वस्तु हलकी होती है वह स्वयं पानी के ऊपर रहती है, यही नहीं उसपर बैठनेवाले कोभी पानी में डूबने नहीं देती। ठीक इसी तरह जहां साधु जीवन होता है वहां शांति रहती है । जगत के यावन्मात्र प्राणी शान्ति के इच्छुक होने के. कारण स्वयं उसको तरफ आकृष्ट होते हैं । त्याग के प्रति इस आकर्षण को ही दूसरे शब्दों में भक्ति तत्त्व' कहते हैं । यह भक्तितत्त्व मानव हृदयम रही हुई अर्पणता को बाहर खींच लाता है।
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भिनु नाम
१६५
जगत के पदार्थों का जो जीव जितना उपभोग करता है उससे अधिक अधिक प्राप्त करने की सतत स्वार्थवृत्ति ( तृष्णा ) उसके हृय के अंतस्तल में छिपी रहती है। यह मनुष्य मात्रका स्वभाव है कि वह अपनी संपत्ति अथवा वैभव पर सन्तुष्ट नहीं होता। वह सदैव उससे अधिक के लिये प्रयत्न करते रहना चाहता है। कहा भी गया है कि "तृष्णा का अंत नहीं है"। वही कारण है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी आवश्यकता से बहुत अधिक पदार्थों को अपने अधिकार में लिये बैठा है और जो कुछ उसके पास है उससे भी कई गुना अधिक वह अपने पास रखना चाहता है; किन्तु जब उसमें अर्पसता भाव प्रकट होता है तब सर्व प्रथम उसकी तष्णा बढनी बंध हो जाती है और वह दान किंवा परोपकार के रूपमें प्रकट होती है। इसी तरह की वृत्तियों के प्रभावसे इस जगत में साधनहीन तथा अशक्त जीवों का निर्वाह होता रहता है। इतना विवेचन करने का तात्पर्य इतना ही है कि गृहस्थ साधु को जो दान करता है वह अपनी उपकार भावना से ही करता है।
परन्तु इस दानवृत्ति अथवा परोपकार वृत्तिका यदि आदर्श भितु लाभ लें तो दूसरे अशक जीवों को मिलनेवाले भागमें कमी पडे बिना न रहे। इसलिये वह तो वही भिक्षा लेता है जो गृहस्थ अपनी आवश्यकताओं को FARर बाकी के बचे हुए भाग साधुको देता हो, और इसीलिये साधु का ऐसी भिक्षा को 'मधुकरी' को उपमा दी है और ऐसी मिक्षा ही साधु तथा ग्रहस्थ दोनों के लिये उपकारी भी है।
इस प्रकार इस निमित्तसे गृहस्थोंमें भी सयंमवृत्तिका आविर्भाव होता रहता है।
जैनदर्शन में दान अथवा परोपकार की अपेक्षा संयम को उच्चकोटिका स्थान दिया है क्योंकि दाता अपने उपभोग की यथेष्ट सामग्री लेकर उससे बची हुई संपत्तिमें से ही दान करता है। परोपकार मे अंतस्तल में भी प्रत्युपकार की भावना छिपी हुई है जब कि संयम में तो स्वार्थ का नाम तक भी
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दशकालिक सूत्र
नहीं है और तो क्या संयमी प्राप्त साधनों को भी स्वयं तणवत् छोड देता है । इसी के कारण वह अपने संयम द्वारा विश्वके अनेक प्राणियोंका आशीदि गुप्त रीति से प्राप्त करता रहता है। इस परसे आसानीसे यह वात समझमें आजायगी कि त्यागोजीवन गृहस्थ जीवन पर योझा नहीं है परन्तु गृहस्थजीवन को मानसिक बीममें से बाहर निकालकर हलका बनाने का एक निमित्त है और ऐसा जोवन ही आदर्श त्यागोजीवन है।
परन्तु जब त्यागी जीवन गृहस्थजोवन पर बोझा हो जाता है तब कह उपरोक्त दोनों प्रकारों के जीवनों से निकृष्ट अर्थात् भिखारी-जीवन हो जाता है। [१] जो साधु ज्ञातपुत्र भगवान महावीर के उत्तम वचनों की तरफ
रुचि रखते हुए सूक्ष्म तथा स्थूल इन दोनों प्रकारों के पड़ जीवनिकायों (प्रत्येक प्राणिसमूह) को अपनी यात्माके समान मानता है। पांच महाव्रतों का धारक होता है और पांच प्रकार के पापद्वारों (मिथ्यान, अवत, कपाय, प्रमाद तथा अशुभ योग-व्यापार ) से रहित होता है वही आदर्श साधु है।
टिप्पणी-जिसतरह सुख, शांति, और आनंद हमें प्रिय है उसी तरह जगतके छोटे से छोटे जीव से लगाकर दडे से बडे जीवको भी ये प्रिय हैं ऐसा जानकर अपने आचरण को दूसरों के लिये सुखकर बनाना इसी वृत्तिको
आत्मवत्-वृत्ति कहते हैं। [६] जो ज्ञानी साधुः क्रोध, मान, माया और लोभ का सदैव वमन
करता रहता है, ज्ञानी पुरुषों के वचनों में अपने चित्त को स्थिर लगाये रहता है, और सोना, चांदी, इत्यादि धनको छोड देता
है वही श्रादर्श साधु है। . [७] जो मूढता को छोडकर अपनी दृष्टि को शुद्ध (सम्यग्दृष्टि)
रखता है। मन, वचन और काय का संयम रखता है। ज्ञान,
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भिक्षु नाम
I] तथा हार को प्राप्त
भोजन का आदर्श मा
तप, और संयममें रह कर तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों के
लयका प्रयत्न करता है वही आदर्श मित्र है। [1] तथा भिन्न २ प्रकारके आहार, पानी, खाद्य, तथा स्वाध आदि
सुन्दर पदार्थों की मिता को कल या परसों के लिये संचय कर नहीं रखता और न दूसरों से रखाता ही है वही श्रादर्श
मिञ्ज है। [] तथा जो भिन्न २ प्रकार के भोजन, पान, खाद्य तथा खाद्य
थाहार को प्राप्त कर अपने स्वधर्मी साथीदार साधुओं को बुलाकर उनके साथ भोजन करता है और भोजन के बाद स्वाध्यायमें संलग्न रहता है वही श्रादर्श मिल हैं।
टिप्पणी-अपने साथीदारों के विना अकेले ही मिक्षा आरोगने से अतिजिहंता तथा आतिलोलुपता आदि दोष आते हैं। साधुजीवनमें के प्रत्येक कार्य से निःस्वार्थता टपकनी चाहिये । सहभोजन भी उसके प्रदर्शन का एक कार्य है । खाली बैठा हुआ साधु कुतर्कों एवं अशुभ योग में न फंसे इसलिये उसको स्वाध्याय करनेका उपदेश दिया है। [१०] जो साधु कलहकारिणी, द्वेपकारिणी तथा पीडाकारिणी कथा
नहीं कहता, निमित्त मिलने पर भी किसी पर क्रोध नहीं करता, इन्द्रियों को निश्चल रखता है, मन को शांत रखता है, संयममें सर्वदा लवलीन रहता है तथा उपशम भावको प्राप्त
कर किसी का तिरस्कार नहीं करता वही आदर्श भितु है। १] जो कानों को काटे के समान दुःख देनेवाले आक्रोश वचनों,
प्रहारों, और अयोग्य उपालंभों ( उलाहनों) को शांतिपूर्वक सह लेता है, भयंकर एवं प्रचंड गर्जना के स्थानों में भी जो निर्भय रहता है और जो सुख तथा दुःखको समभाव पूर्वक भोग लेता है, वही आदर्श भिनु है। . .
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दशवकालिक सूत्र
[१२] जो स्मशान जैसे स्थानों में विधियुक्त प्रतिमा (एक प्रकार की
उच्च कोटि की तपश्चर्या की क्रिया) अंगीकार कर भयकारी शब्दों को सुनकर भी जो नहीं डरता तथा विविध सद्गुणों एवं तपश्चरणमें संलग्न होकर देहभान को भी भूल जाता है वही आदर्श भितु है।
टिप्पणी-मिक्षुओं की प्रतिमाओं के १२ प्रकार है। उनमें तपश्चर्या की भिन्न २ क्रियाएं व्रत नियनपूर्वक करनी पड़ती हैं। इनका सविस्तर वर्णन जानने के लिये उत्तराध्ययन सूत्रका ३१ वां अध्यायन तथा दशाश्रुत स्कंध देखो।
[१३] तथा ऐसे स्थानमें जो मुनि देहसूज़ से मुक्त रहकर अनेक
वार कठोर वचनों, प्रहारों अथवा दंड किंवा शस्त्र से मारे जाने अथवा बींधे जाने पर भी पृथ्वीके समान अडग स्थिर बना रहता है, कौतूहल से जो सदा अलिप्त रहता है और वास
नाओंसे रहित रहता है वही आदर्श साधु है । . . [१४] जो मुनि अपने शरीर द्वारा तमाम परिपहों (आकस्मिक
संकटो) को समभावपूर्वक सहनकर जन्म-मरणों को ही महा भयके स्थान .जानकर संयम तथा तप द्वारा जन्म-मरणरूपी संसार से अपनी अत्मा को उबार लेता है वही आदर्श
मरणों को ही मी
संयम तथा
कार से अपनी
[१५] जो मुनि सूत्र तथा उसके रहस्य को जानकर हाथ, पैर,
वाणी, तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है ( अर्थात् • सन्मार्गमें विवेकपूर्वक लगाता है), अध्यात्मरससे ही जो मस्त रहता है और अपनी आत्मा को समाधिमें लगाता है वही सच्चा साधु है।
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. भितु नाम
टिप्पणी-शानका फल संयम और त्याग है इसलिये सच्चे शानी का प्रथम चिह संयम है। संयमो स्वार्थी प्रवृत्तियों से दूर हो जाता है और आत्मभाव में ही लक्लीन रहता है। [१६] जो मुनि संयम के उपकरणों में तथा भोजन आदि अनासक्त
रहता है, अज्ञात घरों से परिमित भिक्षा प्राप्तकर संयमी जीवन का निर्वाह करता है, चारित्रमें बाधक दोपों से दूर रहता है तथा लेन-देन, खरीद-वेचना तथा संचय आदि असंयमी व्यापारों से विरक्त रहता है और जो सर्व प्रकारकी आसक्तियों को छोड़ देता है वही श्रादर्श भितु है।
टिप्पणी-यपि पदार्थों का त्याग करना भी बडी कठिन वात है फिर भी उसके त्याग कर देने मात्रसे ही त्यागधर्म की समाप्ति नहीं हो जाती । पदार्थ त्याग के साथ ही साथ उनको भोगने की अतृप्त हार्दिक वासनाओं का भी त्याग करना इसोको सच्चा त्याग कहते हैं। [१७] जो मुनि लोलुपता से रहित होकर किसी भी प्रकारके रसोंमें
आसक्त नहीं होता, भिक्षाचरीमें जो परिमित भोजन ही लेता है, भोगी जीवन विताने की वासना से सर्वथा रहित होकर
अपना सत्कार, पूजन किंवा भौतिक सुख की पर्वाह नहीं : करता, और जो निरभिमानी तथा स्थिर आत्मावाला होता है
वही श्रादर्श मुनि है। [१८] जो किसी भी दूसरे मनुष्य को (दुराचारी होनेपर भी)
दुराचारी नहीं कहता, दूसरों को क्रुद्ध करनेवाले वचन नहीं बोलता, सब जीव अपने २ शुभाशुभ कर्मों के अनुसार सुख दुःख भोगेंगे ऐसा मानकर अपने ही दोषों को दूर करता है और जो अपने आपका (अपने : पदस्थ किवा तप का) अभिमान नहीं करता वही आदर्श श्रमण है।
है।
।
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१५०
दशवकालिक सूत्र
[१६] जो जाति, रूप, लाभ अथवा ज्ञानका अभिमान नहीं करता,
सर्व प्रकार के अहंकारों को छोड़ कर सद्धर्म के ध्यानमें ही
संलग्न रहता है वही आदर्श भिन्नु है। [२०] जो महामुनि सच्चे धर्मका ही मार्ग बताता है, जो स्वयं
सद्धर्म पर स्थिर रहकर दूसरों को भी सद्धर्म पर स्थिर करता है, त्याग मार्ग ग्रहण कर दुराचारों के चिह्नों को त्याग देता है (अर्थात् कुसाधु का संग नहीं करता) तथा किसी के ।
साथ ठट्ठा, मश्करी, दृष्टि श्रादि नहीं करता वही सच्चा भितु है। [२१] (ऐसा भिनु क्या प्राप्त करता है ?) ऐसा प्रादर्श भितु सदैव
कल्याणमार्ग में अपनी आत्मा को स्थिर रखकर नश्वर एवं अपवित्र देहावास को छोडकर तथा जन्ममरणके बंधनों को सर्वथा काटकर अपुनरागति (वह गति, जहांसे फिर लौटना न पडे अर्थात् मोक्ष) को प्राप्त होता है।
टिप्पणी-अपनी अंतराल्ला को वंचना करनेवाले एक भी कार्य न कर, -गृहस्थ तथा भिक्षु को जिससे घृणा हो ऐसे समस्त कार्यों का त्याग कर भिक्षु साधक केवल समाधिमागमें ही विचरण करे और अंतरात्मा की मौज में ही मस्त रहे।
ऐसा मैं कहता हूं:इस प्रकार 'भिक्षु नाम' नामक दसवाँ अध्ययन समाप्त हुआ।
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रतिवाक्य चूलिका
- (0) --
( संयम से उदासीन साधक के मनमें संयम के प्रति प्रेम उत्पन करनेवाले उपदेश )
११
यद्यपि भिक्षु जीवन गृहस्थजीवन की अपेक्षा संयम एवं त्यागकी दृष्टिसे सौ गुना ऊंचा एवं सात्त्विक है फिर भी वह साधक ही तो है । साधक दशा की भूमिका चाहे कितनी भी ऊंची क्यों न हो फिर भी जबतक वह साधक आत्म साक्षात्कार की स्थिति को नहीं पहुँचता और जबतक उसके हृदय के अन्तस्तल में अन्तर्गुप्त वासना के गहरे पडे हुए बीज जलकर खाक न हों जाँय तबतक उसको भी नियमों की वाड को सुरक्षित रखना और उनका पालन करना आव श्यक है । लाखों करोडों साधकों के पूज्य एवं मार्गदर्शक होनेपर भी उसको धार्मिक नियमों की सत्ता के सामने नतमस्तक होना ही पडता है क्योंकि चिरंतन अभ्यास का लेप इतना तो चिरस्थायी एंव मंजबूत होता है कि जिन वस्तुओं का वर्षों पहिले त्याग किया होता है, जिनका स्वप्नमें भी ध्यान नहीं होता वे भी एक छोटा सा निमित्त' मिलते ही मनको दुष्ट प्रवृत्तिकी तरफ खींच ले जाती है और कई बार उस पुराने अभ्यास की जीत भी हो जाती है । ऐसी वृत्तियों का वेग शिथिल मनवाले साधक पर तुरन्त अपना प्रभाव डालता है ।
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D
१७२
दशवकालिक सूत्र
जब २ मन ऐसी चंचलता एवं पामर स्थिति में पहुँच जाय तब २ उसके दुष्ट वेगों को रोककर मनको पुनः संयममार्गमें किस तरह लगाया जाय उसके सचोट किन्तु संक्षिप्त उपायों का इस चूलिका में वर्णन किया गया है।
गुरुदेव बोले:श्रो सुज्ञ साधको! दीक्षित (दीक्षा लेनेके वाद) यदि कदाचित् मनमें पश्चात्ताप हो, दुःख. उत्पन्न हो और संयममार्ग में चित्तका प्रेम न रहे और संयम छोडकर ( गृहस्थाश्रममें ) चले जाने की इच्छा होनी हो किन्तु संयम का वस्तुतः त्याग न किया हो तो उस समय घोडे की लगाम, हाथीके अकुंश, और नाव के पतवार के समान निम्नलिखित अट्ठारह स्थानों ( वाक्यों) पर भितुको पुनः २ विचार करना चाहिये । वे स्थान इस प्रकार हैं:[१] (अपनी आत्माको संवोधन करके यों कहे) हे आत्मन् ! इस
दुःपम कालका जीवन ही दुःखमय है।
टिप्पणी-संसार के जब सभी प्राणि दुःखों के चक्रमें पड़े हुए पीडित हो रहै हैं, कोई भी सुखी नहीं है तो फिर में ही क्यों संयम के समान उत्तम वस्तुको छोडकर गृहस्थाश्रमने जाऊं ? वहां जाने पर भी मुझे सुख कैसे मिल सकेगा ? जब सभी गृहस्थ अनेकानेक दुःखों से पीडित है तो में ही अकेला सुखी कैसे . रह सकुंगा ? इसलिये संयन छोडना मुझे उचित नहीं है। २] फिर हे प्रात्मन् ! गृहस्थाश्रमियों के कामभोग क्षणिक तथा ... अत्यंत नीची कोटि के हैं। ___ टिप्पणी-गाईस्थिक विषयभोग एक तो क्षणिक है, दूसरे वे कल्पित है, वास्तविक नहीं है; तीसरे उनका परिणाम अत्यंत दु:ख रूप है, चौथे
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रतिवाक्य चूलिका
कर्माधीन है, आत्मा के आधीन नहीं है तो ऐसे . कामभोगों पर मुझे मोह क्यों करना चाहिये ?. .. - [३] इस सांसारिक माया में फंसे हुए मनुष्य बडे ही मायाचारी
होते हैं।
टिप्पणी-इस संसार में मायाचार ही भरा पड़ा है इसलिये तो सब प्राणी दुःखी है । यदि में भी . संसार में जा पडूंगा तो मुझे भी मायाचार द्वारा दुःखी ही होना पडेगा। [४] और संयमी जीवन में दीखनेवाला यह दुःख कुछ बहुत दिनों
तक थोडे ही रहनेवाला हैं ! (थोडे समय का है, थोडे समय
वाद यह न रहेगा) [२] संयम छोड़कर गृहस्थाश्रम में जानेवालों को नीच से नीच
मनुष्यों की खुशामत करनी पड़ती है। [६] गृहस्थाश्रम स्वीकारने से जिन वस्तुओं का मैंने एक वार वमन
(उल्टी) कर दिया था उन्ही को पुनः सेवन करना पडेगा।
टिप्पणी-संसारमें कोई भी मनुष्य थूकी हुई वस्तुको चाटना नहीं चाहता। विषय भोगों का एक वार में त्याग कर चुका, अब उन्हें पुनः स्वीकार करना मेरे लिये उचित नहीं है। [७] है श्रात्मन् ! त्यागकी उच्च भूमिका परसे, केवल एक बुद्र
वासना के कारण गृहस्थाश्रम स्वीकारना साक्षात् नरक में जाने
की तैयारी करने के समान है। [4] ग्रहस्थाश्रम में रहनेवालों को जब गृहस्थाश्रम धर्म पालना भी
कठिन होता है । तो आदर्श त्याग का पालन तो वे कैसे कर सकते हैं!
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दर्शकालिक सूत्रे
टिप्पणी- यद्यपि गृहस्थाश्रम भी बहुत से उत्तम संयमी पुरुष होते हैं परन्तु वे बहुत कम—इक्के दुक्के ही होते हैं क्योंकि गृहस्थाश्रमका तमाम वाताः वरण ही ऐसा कलुषित होता है कि उसमें संयम की आराधना कर लेना कठिन बात
1
१७÷
1
नश्वर है । इसमें अचानक श्राजाती है ( उस समय पदार्थ इस जीवका सहायक
[1] हे श्रात्मन् ! फिर यह शरीर भी तो रोग उत्पन्न हो जाते हैं और मृत्यु
धर्म के सिवाय और कोई भी नहीं होता )
[१०] और (गृहस्थाश्रम में ) अशुभ संकल्प विकल्प श्रात्मांका
श्रध्यात्मिक मृत्यु करते रहते हैं ।
एक क्षण भी ऐसा नहीं
सोते २ भी वह
प्रतिदिन श्राध्या -
एक शरीर छोट
टिप्पणी - गृहस्थाश्रम में फँसे
हुए जीवका होता जिसमें वह संकल्पविकल्पों से मुक्त हो । रात को हवाई किले बांधता बिगाडता रहता है । इन से वह दिन
आत्मा की दृष्टिसे
त्मिक मृत्यु को प्राप्त होता रहता है । कर दूसरे शरीर में जाना मृत्यु नहीं है क्योंकि श्रात्मा तो अमर है । शरीर छूट जाने से आत्मा नहीं मर जाती किन्तु श्रात्मा अपने स्वरूप के विरुद्ध विषयभोगों में आसक्त होने से अपने स्वरूप से च्युत हो जाती हैं, यही इसकी आध्यात्मिक मृत्यु हैं । आत्मा के लिये यह मृत्यु उस मृत्यु की अपेक्षा अधिक भयंकर एवं असह्य है ।
[११]. हे श्रात्मन् ! गृहस्थाश्रम कलेशमय है; सच्ची शांति तो त्याग
[१२] गृहस्थावास बडा भारी बंधन है; सच्ची मुक्ति तो त्याग ही है।
[१३] गृहस्थजीवनं दोषमय है, और संयमी जीवन निष्पाप, निष्कलंक एवं पवित्र है ।
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रतिवाक्य चूलिका
.: १७२
[१४] गृहस्थों के कामभोग निकृष्ट ( अत्यन्त निशकोटिके) हैं । [१२] और हे आत्मन् ! संसार के याचन्मात्र प्राणि पुण्य एवं पाप से घिरे हुए हैं ।
[१६] और यह जीवन देखो, कितना क्षणभंगुर है ! दर्भकी नौक पर स्थित श्रोस के जलबिंदु के समान यह जीवन प्रति चंचल एवं क्षणिक है ।
टिप्पणी-ऐसे विनश्वर जीवन के लिये अविनश्वर धर्म को क्यों छोट देना चाहिये ।
1
[१७] अरे रे ! सचमुच ही मैंने पूर्वकालमें बहुत पाप किया होगा ! टिप्पणी-यदि पापका उदय न होता तो संयम जैसी पवित्र वस्तु से मुझे विरक्ति क्यों होती ? पापकर्म ही उस शुभवस्तु का संयोग नहीं रहने देते । [१८] और गृहस्थ होकर तो मैं और भी दुश्चारित्र्यजन्य पापकर्मों से
घिर जाऊंगा, फिर उनसे मुक्ति कभी मिलेगी ही नहीं । इन दुःसह्य पूर्वकर्मों को समभाव से सहलेने और तपश्चर्या द्वारा ही खपाया जा सकता है ( और यह मौका मुझे संयमी अवस्थामें ही प्राप्य है, अन्यत्र नहीं )
•
टिप्पणी - इनं १८ उपदेशों पर पुनः २ विचार और गहरा मनन करने से संयम से विरक्त मन पुनः संयम की तरफ आकृष्ट होगा और वह उसमें स्थिर हो जायगा ।
अब श्लोक कहते हैं
[1] जब कोई श्रनार्य पुरुष केवल भोग की इच्छा से अपने चिर संचित चारित्र धर्म को छोड़ देता है तब वह भोगासक्त अज्ञानी अपने भविष्य का जरा भी विचार नहीं करता ।
१३
·
"
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-१७६
दशवैकारिक सूत्र
' टिप्पणी- जब कोई भी साधारण अथवा बुद्धिमान साधक कोई अयोग्य
"कां कर बैठता है तब वह इतने अधिक आवेशमें होता है कि उस समय
.
उसे यह नहीं दीखता कि इस कुकर्मका कैसा भयंकर परिणाम होगा |
'[३] परन्तु जब वह त्यागाश्रम छोडकर ! गृहस्थाश्रम में पीछे लौटे. आता धर्म से भ्रष्ट होकर, स्वर्ग देवेन्द्र की तरह पश्चात्ताप
•
है 'तब वह त्याग एवं गृहस्थ दोनों से च्युत पृथ्वी पर पडे हुए करता है ।
A
टिप्पणी- देवेन्द्रकी उपमा इसलिये दी है कि कहां' वे स्वर्गीय सुख और कहाँ मर्त्यलोक के दुःख ! इसी तरह कहां वह संयमी जीवन का लोकोत्तर आनंद और कहां पतित जीवन के कष्ट ! संयमभ्रष्ट पुरुष की लोकमें भी निंदा होती हैं और उसके हृदयमें भी इसका दुःख हुआ करता है ।
: [ ३ ] प्रथम ( संयमी अवस्थामें ) तो वह विश्ववंदनीय होता है और भ्रष्ट होने के बाद श्रवंद्य ( तिरस्कार के योग्य ) हो जाता है तब वह अपनेमनमें स्वर्ग से पतित अप्सरा की तरह खूब ही पाता है ।
:
[४] पहिले तो वह महापुरुषों द्वारा भी पूज्य था और जब वही बाद में पूज्य हो जाता है तब राज्य से पदभ्रष्ट- राजा की
' तरह खूब ही पश्चात्ताप करता. है ।
;
[५] पहिले वह सबका मान्य होता है किन्तु भ्रष्ट होनेके बाद वह श्रमान्य होजाता है तब अनिच्छापूर्वक निर्धनकृषक बने हुए
धनिक सेठ की तरह वह खूब ही पश्चात्ताप करता है 1
टिप्पणी- पतित होकर नीच कुल में गये हुए अथवा धनहीन होकर नीच अवस्था को प्राप्त धनिक सेठ जिसतरह अपनी पूर्ववर्ती उच्चदशाको याद कर १२. के दुःखों होता है उसे तरह मुनिवेश छोड कर गृहस्थजीवन में गया हुआ साधक पश्चात्ताप करता है
1
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रेतिवाक्म चूलिका
[६] भोगकी लालचसै त्यागाश्रमको छोडकर गृहस्थाश्रममै गया हुआ साधक यौवन व्यतीत कर जब जराग्रस्त होता है तब लोह के
A
PL
कांटे में लगे मांसको खाने की लालचमें तरह अत्यंत कष्टको प्राप्त होता है ।
फँसी हुई मछली की
[७] और जब वह चारोंतरफसे पीडाकारी
कौटुंबिक चिन्ताओं से
2
!
घिरता है - पीडित होता है तब वह बन्धनोंमें फँसे हुए हाथी की तरह दुःखी होता है ।
-:
.. [-] और त्यागाश्रमको छोडकर गृहस्थाश्रममें गया हुआ मुनि जब स्त्री, पुत्र, तथा कच्चे बच्चों के परिवार से घिरकर मोह परंपरामें फँस जाता है तब वह दलदल में फँसे हुए हाथी की तरह 'न नीरम् नो 'तीरम' न पानी और न . किनारा इन दोनों के वीचकी स्थितिमें पढा हुआ खेद किया करता है ।
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टिप्पणी- स्त्री, पुत्रादि परिवारमें से निवृत्त होकर शांति प्राप्त करने की उसे जरा सी भी फुरसद नहीं मिलती तब उस जालमें से छुटने के लिये व्यर्थ ही इधर उधर हाथपेर फेंका करता है किंतु बंधन इतने बूत होते हैं कि इब्छा करनेपर भी वह उनसे छुट नहीं सकता और इस
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गाढ एवं मज
..
1
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कारण वह और भी दुगुना दुःखी होता है ।
A
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[4+१०] ( फिर इस स्थितिमें जब वह विचार करने बैठता है तब
उसे सद्विचार सूमते हैं. और बढाही
पश्चात्ताप होता है-कि
..
"
हा ! मैंने यह बहुत ही बुरा किया) यदि मैं जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित विशुद्ध साधुतापूर्ण त्यागमार्ग पर आनंद पूर्वक रहा होता तो आज अपने अपूर्व श्रात्मतेज एवं अपूर्व ज्ञान का धारक होकर समस्त साधुगस का स्वामी बन जाता । इन महर्षियों के त्यागमार्ग में अनुरक्त त्यागी पुरुषों का देवलोक के समान सुखद त्यागं कहां और त्यागमार्ग से भ्रष्ट
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दशवालिक सूत्र
हुए मुम्म पतित मिका महानरकयातना सदृश गृहस्याभ्रम कहां!
टिपणी-पतित हुए का जीवन इतना पामर हो जाता है कि वह गृहत्याधन के आदर्शधर्म को आराधने योग्य नहीं रहता और उसके हृदय, साधु जीवन की शांति सदैव याद आया करती है जिससे उसका गृहस्थाश्रम नरकवास जैन कलर होजाता है। . [१] (यहीपुरुप अब संयम से विरक साधुको समनाते हैं ) त्याग
मार्ग में संलग्न महापुरुषों का देवेन्द्र के समान उत्तम सुख
और सागमार्ग से अट हुए पतित साधुका अत्यन्त नारकीय दुःखीजीवन, इन दोनों की तुलना करके पंडित साधुको त्याग मार्गमें ही आनंद पूर्वक रहना. उचित है।
टिप्पणी-त्याग द्वारा प्राप्त आध्यात्मिक सुख वस्तुतः अनुपम है उत्तकी तुलद तो स्वर्गीय मुलके तापमी नहीं की जा सकती। किन्तु यहां प्रसंगक्त बैसे मनुष्य जोपन की अपेक्षा देवजीवन उत्कृष्ट हो उसीतरह गृहस्थजीवन की ओता त्यागोजीवन उत्कृष्ट हैं और जिसतरह मानवजीवन को अपेक्षा नरकजीवन निस्ष्ट है उतीवरह आदर्श जीवन की अपेक्षा पतित गृह-. जीवन निट है इतना बताने के लिये ही उजर को उपमा दी गई है। [१२] धर्मले भ्रष्ट तथा आध्यात्मिक संपत्तिसे पतित दुर्विदग्ध मुनिका . शांत बुझो हुई यज्ञानि की तरह एवं विपके दांत टूटे हुए
महा विषधर सर्प की तरह, दुराचारी भी अपमान करने
लगते हैं। . . . टिप्पणी-सांपका विषका दांत छू जानेपर चालक भी उसको सताने .. तमो है, यानी अनि यद्यपि पवित्र मानी जाती है फिर भी उसका तेज . नष्ट हो जाने पर उसको कुछ भी कीमत नहीं रहती, इस शरीरमें से
माना निकल जाने पर इस देह की कौडी जितनी भी कीमत नहीं रहती
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रतिवाक्य चूलिका
उसी तरह संयमधर्मरूपी आत्मा के निकलबाने पर बर साथक निश्चेत जैसा होजाता है इसलिये उसकी हंसी मस्करी होनचरित्र गृहस्थ भी करने लंगते हैं। [१३] धर्म से पसित, अधर्मसेवी और अपने अतनिवमों से प्रष्ट
साधु की. इस लोक में भी चरित्रकी इति; अधर्म, अपयश तथा नीचे, मनुष्यों की निंदा आदि अनेक हानियां होती है
और हीनजीवन के अंतमें उसे परलोकमें भी अधर्मके फल . स्वरूप अधम योनि मिलती है । [१४] जो. कोई साधक वेदरकार (दुष्ट) चित्तके वेग के वश होकर
भोगों को भोगनेके लिये तरह २ के असंयमों का पाचरण,कर
ऐसी अकल्पनीय दुःखद योनिमें गमन करता है कि उस - साधक को फिर दुवारा ऐसे उच्च सद्वोधकी प्राप्ति होना सुलभ
नहीं होता। [१२] क्लेश तथा अनन्त दुःख, परंपरा में दुःखी होते हुए इन विचारे
नारकी जीवोंकी पल्योपम तथा सागरोपम लंबी आयुष्यों तक निरंतर मिलनेवाला अनन्त दुःख कहां और इस संयमी जीवन में
कभी कभी आया हुआ थोडा अाकस्मिक दुःख कहां? इन दोनों " में दो महानं अंन्तर है तो फिर ऐसा उद्विग्न साधक
ऐसा सोचे " अरे! मेरा यह क्षणिक मानसिक दुःख किस ' विसात में है "और ऐसा सोचकर समभावपूर्वक उस कष्टको सही " टिप्पणी-मल्योपम, समय का एक बहुत बडा परिमाण है । ‘सागरोपमको परिमाण तो उससे भी बहुत अधिक बडा है। ... [१६] (दुःखके कारण संयम छोडने . की इच्छा हो तो वह नों
विचारे) मेरा यह दुःख. बहुत समय तक नहीं टिकेगा। (यदि भोगकी इच्छासे संयम छोडने की इच्छा हो तो वह
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दंशकालिक सूत्र 'यो विचारे) जीवात्मा की भोगपिपासा भी क्षणिक है, वह • केवल थोडे समय तक ही रहती हैं फिर भी बाद कदाचित
वह ऐसी बलवती हुई जो इस जीवन के अन्ततक भी तृत
न होगी तो मेरी जिंदगी के अन्तमें तो यह जरूर ही.. । चली जायगी' इत्यादि प्रकार के विचार कर के खयम के - प्रति होनेवाले वैराग्य को साधक इस प्रकार रोके।
टिपणी-प्राण जाय तो भले ही चले जाय परन्तु मेरी संयमीः जीगर तो वहीं जाना चाहिये । इस जीवंव के चलें जाने के बाद पुराने के. . बदले नया जीवन मिल नायगा किंतु आध्यात्मिक मृत्यु होने के बाद उसकी पुन:प्राप्ति अशक्य है"-ऐसी भावना साधक सदैव चिन्तन करता हैं। [M] जब ऐसे साधुको आत्मा उपर्युक्त विचारों का मनन करते
२ इतनी निश्चित हो जाय कि वह संयम त्यागको अपेक्षा अपना शरीर त्याग करना अधिक पसंद करे तब वायु के प्रचंड मौके जिस तरह सुमेरु पर्वत को नहीं हिला सकते
उसी तरह इन्द्रियों के विषय उसे सुदढ साधक को डोलाव" मान कर सकेंगे। . NE] ऊपर लिखी सब बातों को जानकर बुद्धिमान साधक उनमें से ... अपनी प्रात्मशक्ति तथा उसके वोग्य मिन २ प्रकार के . . उपायों को विवेक-पूर्वक विचार कर तथा उनमें से (. अपनी
योग्यतानुसार) पालन करके मन, वचन और काया इन ' तीनों योगोंके यथार्थ संयम का पालनकर जिनेश्वर देवों के
वचनों पर पूर्ण रीतिसे स्थिर रहे।
टिप्पणी-त्यागीका पतित जीवन दुधारी तलवार जैसा है जिसका पांव उपर नीचे दोनों ओर होता है । सोढ़ी पर चढ़ा हुआ मनुष्य जमीन पर • सै? मनुष्यों की अपेक्षा बहुत ऊंचा दिखाई देता हों किन्तु जब वह वहां
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रतिवाक्य चूलिका
से गिरकर जमीन पर चित्त लेट जाता है तब वह खडे मनुष्य की अपेक्षा अत्यन्त नीचा दिखाई देता है और साथहीसाथ वहां से गिरनेके कारण चीट खाता है सो अलग। ठीक यही हालत तपमार्गसे भ्रष्ट साधुकी होती है 1 ऐसे कहुए भविष्य के न इच्छुक साधक को चूर्ण द्वारा अपने मन का मैल दूर करना चाहिये, अंतःकरण को इतना तो साफ कर देना चाहिये आवागमन ही न हो पावे ।
सद्विचार एवं मंथन के पश्चात्ताप के साबुन से
जिससे दुष्ट विचारोंका
ऐसा मैं कहता हूं:
इस प्रकार 'रतिवाक्य ' नामक प्रथम चूलिका समाप्त हुई ।
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विविक्त चर्या
(0)
1. ( एकांत चर्या )
L
१२
इस संसार के प्रवाह में अनंत कालसे परिभ्रमण करती हुई यह आत्मा अनन्त संस्कारों को स्पर्श कर चुकी है और उन्हें भोग भी चुकी है फिर भी अभीतक वह अपने भाव में नहीं आई और न अपने स्वरूप से च्युत ही हुई है । अब भी उसके लक्षण वे के वेही बने हुए हैं । दूसरे तत्त्वों के साथ निरंतर मिले रहने पर भी अब भी वह एक ही है, अद्वितीय है । इस चेतना शक्ति का स्वामी ही वह एक आत्मा है, वही चैतन्यपुंज है और उसीकी शोध के पीछे पडजाना इसीका नाम है विविक्त चर्या - एकांत चर्या ।
विश्वका प्राणीसमूह जिसप्रवाह में बह रहा है उसप्रवाह में विवेक बिना बहते जाना यह भी एकांत चर्या है । इसप्रकार के बहते जाने में विज्ञान, बुद्धि, हार्दिक शक्ति, अथवा 'जागृति की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है । अंधे भी उस प्रवाह में आसानी से बहते जा सकते हैं; हृदयहीन मनुष्य भी उसके सहारे अपना वेडा हांक सकते है । सारांश यह है कि एक क्षुद्र जंतु से लेकर मानवजीवन की उच्चतर भूमिका तक की सभी श्रेणियों के जीवों की सामान्य रूपमें
"
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विविक्त चर्या
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यही प्रवाह गति दिखाई देती है । जन्मते लेकर मृत्युतक की सभी अवस्थाओं-सभी कार्योमें भी यही बात देखी जा सकती है।
किन्तु मानवसमाज में ही एक ऐसा विलक्षण वर्ग होता है जो बुद्धि पर पड़े हुए आवरणों को दूर कर देता है । जिसके अन्तचतु उघड जाते हैं, जिसके प्रानों में चेतनाशक्तिकी सनसनाहट फैल गई है और वह अपने कष्टप्रद भविष्यको स्पष्ट देखसकता है और इसीलिये वह अपने वीर्य का उपयोग उसप्रवाह में बहते जाने के बदले अपनी जीवननौका की दिशा बदलने में करता है । वह अपना श्वेय निश्चित करता है। और वहां पहुंचने में आनेवाले सैकड़ों संकटों को दूर करने के लिये शस्त्रसजित शूरवीर और धीर लडवैये का वाना धारण करता है। संसार के दूसरे शूरवीर अपनी शकि मावा संपत्ति के रक्षण के लिये वाह्य संग्रामों में खर्च करते हैं किन्तु यह योद्धा उस वस्तुकी उपेक्षाकर आत्मसंग्राम करनाही विशेष पसंद करता है । यही उसकी दूसरों से भिन्नता है । यह मिन्नचर्या ही उसकी विविक्त चर्या है।
गुरुदेव बोले :(एकांत चर्या अर्थात् विश्वके सामान्य प्रवाह से अपनी आत्मा को बचा लेना । उस चर्या के लाभ तथा उद्देश्यों का निदर्शन इस अध्ययन में किया है) [२] सर्वज्ञ प्रभु द्वारा प्ररूपित तथा गुरुमुखसे सुनी हुई इस (दूसरी)
चूलिका को मैं तुमसे कहता हूं जिस चूलिका को सुनकर सद्गुणी सज्जन पुरुषों की बुद्धि शीघ्रही धर्म की तरफ आकृष्ट हो जाती है।
इस प्रकार सुधर्म स्वामीने जम्बू स्वामीको लक्ष्य करके कहा था वही उपदेश शय्यंभव गुरु अपने भनक नामके शिष्यको कहते हैं।
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दशकालिक स्त्र
[२(नंदी के प्रवाह में तैरते हुए काष्ठ की तरह) संसार के प्रवाह
में अनंत प्राणी बह रहे हैं। उस प्रवाह से बुट. जाने के . इच्छुक मोक्षार्थी साधक को संसारी जीवों के प्रवाह से उल्टी:
दिशामें (प्रवृत्ति) में अपनी आत्मा को लगानी चाहिये। "टिप्पणी-मनुष्य जीवन, · योग्य समय तथा साधन मिलने पर भी बहुत से मनुष्यों को भौतिक जीवन के सिवाय अन्य किती जीवन का रंचमात्र भी ख्याल नहीं होता । वे केवल लौर के फकीर बने रहते है
और उनका जीवन क्रम, जैसा होता आया है उसी दरें पर चलता जाता है । उनसे यदि कोई अंपायों जागृत होता है, तो वह लोक प्रवाह में न डूंदकर प्रत्येक क्रियामें विवेक करने लगता है और वह अपने लिये एक नया ही मार्ग बनाता है। . [२] जंगत के विचारे पामर जीव सुखकी तलाशमें संसार के प्रवाह
मैं बहते जारहे हैं वहां विचक्षण साधुओं की मन, वचन और काया की एकवाक्यता (शुभ न्यापार) ही उस प्रवाह के विरुद्ध जाती है । सारांश यह है कि श्रेयार्थी को अपना मार्ग
अन्य जीवों की अपेक्षा अलंग ही बनाना चाहिये। - टिप्पणी-सामान्य प्रवाह के विरुद्ध अफ्ना मार्ग नियत करते समय सौधर्क को बडी सावचेती रखनी चाहिये । उसको अपना जुदा मार्ग बनाते देखकर इतर मनुष्यों की कडी नजर उसपर पडती है इसीलिये कहा है कि 'हरिप्राप्ति का मार्ग किसी · विरले शुरवीर का ही है, उस मार्ग पर कायर नहीं चल सकते ! । किन्तु सच्चे साधक का भात्मवल उन कोपरष्टियों से. उसे बचा लेता है और वह अपने मार्ग पर निष्कंटक, चल निकलता है। [४] सच्चे सुखके इच्छुक साधक को लोक प्रवाह के विरुद्ध जाने में
कौन सा बल बढाना चाहिये उसका निर्देश करते हैं) एकतो 1. प्रथम उस सांधक को सदाचार में अपना मन लगाना चाहिये
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विविक्त सया...
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और उसके द्वारा संयम एवं चित्त समाधि की आराधना करनी चाहिये और बादमें त्यागी पुरुषों की जो चर्या, गुण, एवं नियम हैं उनको जानकर तदनुसार आचरण करना चाहिये।
टिप्पणी-संयमी जीवन बिताने का नाम 'चर्या ' है । मूलगुण तथा उत्तर गुणों की सिद्धि को 'गुण' कहा है और नियम शब्द से भिक्षादि के नियमों की तरफ इशारा किया है। इन सबके स्वरूप को जानकर उनको भाचार परिणत करने के लिये साधक को तैयार होना चाहिये।
विशेष स्पष्टीकरण [श (१) अनियतवास (किसी भी नियत गृह अथवा स्थान को
स्थायी निवास स्थान न बनाकर पृथ्वीमें सर्वत्र विचरंगा),. (6) समुदान चर्या (जुदे २ घरों से भिक्षा प्राप्त करना), (३) अज्ञातोन्छ (अपरिचित गृहस्यों के घरों मेंसे बहुत थोडी'२ मिक्षा लेना), (५) एकांत का स्थान (जहां संयम. की वाधक कोई वस्तु न हो), (२) प्रतिरिकता:-जीवन की आवश्यकतानुसार अल्पातिअल्प साधन रखना और (६) कलह का त्याग-इन छ प्रकारों से युक्त विहार चर्या की
महपियोंने प्रशंसा की हैं। सुज्ञ मितु इनका पालन करे। [६] जिस स्थान पर मनुष्यों का कोलाहल होता हो अथवा साधु
जनों का अपमान होता हो। उस स्थानको साधु छोड देवे ।। कोई गृहस्थ दूसरे घरमैसे लाकर यदि साधुको श्राहार पानी दे तो उसको साधु ग्रहण न करे। वह वही भोजन ग्रहण करे जिसे उसने अच्छी तरह देखलिया हो । दाता जिस हाथ अथवा चमचेसे भोजन लाया हो उस भोजन को ग्रहण करने में साधु उपयोग (ध्यान) रक्खे ।
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दशवकालिक सूत्र
टिप्पणी-यहां अन तो दुर करे ना निर्देश इसलिये दिया है कि गृहत्य उस साधन को सजीव पानी से न धो डाले। पदि वह से साफ नरेगा तो उसको कष्ट पहुंचेगा जितना निमित्त वह साधु होगा। दूत्तरे सचित्त पानी से धुले हुए चमचे से ही हुई मिला तो लिये प्राय नो नहीं रहेगी।
दाता आहार पानी जहां से लाने उतको देखने से ताल्य यह है कि साधु यह देखें कि दाता न्ही स्वतः के लिये भावश्यक वस्तु न दान हो नहीं कर रहा ! दूसरे, आहार शुद्ध है किंवा नहीं, इतना भी इससे पना चल सकेगा। [७] मद्यमांसादि अभक्ष्यका सर्वया त्यागी शादर्श मिह निरभिमानी,
अपनी आत्मा पर पूर्ण काबू रखने के लिये बलिष्ठ भोजन - ग्रहण न करे पुनः २ कायोत्सर्ग (देहभान भूल जाने की
क्रिया) करे और स्वाध्यायमें दत्तचित्त रहे। [] भिक्षु. शयन, श्रासन, शय्या, निपद्या (त्वाध्यायके स्थान) तथा
आहारपानी आदि पर ममत्व रखकर, मैं जब यहां लौटकर आऊंगा .. तब ये वस्तुएं मुझे ही देना-किसी दूसरे को मत देना-इत्यादि
प्रकार की प्रतिज्ञा गृहस्थों से न करावे ओर न वह किसी गाम, कुल, नगर अथवा देश पर ममत्वभाव ही रखे।
टिप्पणी-ममत्व भाव रखना राधुजीवन के लिये सर्वधा याद है क्योंकि एक वल पर मनल होने से य वस्त पर से विशुद्ध प्रेन उड जाता है और उसले विरुद्ध स्वभावको वस्तुओं र देष हो जाता है। इस तरह एक ननत्व भाव रागदेष दोनों ने ही कारण है। इन दोनों का बुरा परिन आत्मा पर जरूर पड़ता है और उसके परिणाम बल्लुषित हुए दिना नरहने इससे साधक की साधना में व्हा भारी विप खडा होगा बहना तो चाहिये कि नुनिका सारा अचार हों भर मैं आ पड़ेगा क्योंकि साधुक्ता
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विविक्त चर्या
आचार रागद्वेयके नाश पर ही तो अवलंबित है । ऐसे साधक के लिये ममता
का सर्वथा त्याग करना ही उचित है।
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[६] श्रादर्श मुनि श्रसंयमी जनों की चाकरी न करे; उनको श्रमिवादन ( भेंटना ), चंदन अथवा नमस्कार आदि न करे किन्तु असंयमियों के संगसे सर्वथा रहित आदर्श साधुयों के संग में ही रहे । इस संसर्ग से उसके चारित्रको हानि न होगी ।
टिप्पणी - मनुष्य का कुछ स्वभाव ही ऐसा है कि जिसके साथ अति परिचय में वह आता है उसकी गुलामी करने लग जाता है, जिसकी वह पूजा करता है वैसे ही उसका मन तथा विचार होवे जाते हैं। और अन्तमें वह वैसाही हो जाता है क्योकि संसर्गजन्य आंदोलनों का उस पर व्यक्त किंवा अव्यक्त कुछ न कुछ प्रभाव अवश्य पडता ही है । इसलिये शास्त्रों में साधु- संग की महिमा के पुल बांध दिये गये हैं और खल-सगंति की भरपेट निंदा की हैं । संयम के इच्छुक साधक को अपने से अधिक गुणवान की संगति करना ही योग्य हैं । [१०] ( यदि उत्तम संग न मिले तो क्या करे ? ) भिक्षु को यदि अपने से अधिक अथवा समान गुणवान साथी न मिले तो सांसारिक विषयों से अनासक्त रहकर तथा पापों का त्यागकर सावधानी के साथ एकाकी बिचरे ( किन्तु चारित्रहीन का संग तो न करे )
टिप्पणी- यद्यपि जैनशास्त्रों में एकचर्या को त्याज्य कहा है क्योंकि एकाकी विचरने वाले साधुको निष्कलंक चारित्र पालना असंभव जैसी कठिन बात है और यदि उसके ऊपर कोई छत्र ( आचार्य ) आदि न हो तो ऐसा साधक समाज की दृष्टि से भी गिर जाता है। इसी तरह के और भी अनेक दोष एकाकी विचरने से संभव है फिर भी जिस संग से संयमी जीवनमें विघ्न आने की संभावना हो उसकी अपेक्षा एकाकी विचरना उत्तम
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दशवैकालिक सूत्र
भविष्य में दोष लगने की संभावना है किन्तु हो दोष लगता है। नैन दर्शन अनेकांत
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गई हुई हो तो अति
है क्योंकि एकाकी विचरनेमें तो दुराचारी के संग से तो तत्क्षण दर्शन हैं । उसमें कथित वस्तुएं एकांत रूप से नहीं कहीं जाती । इसीतरह एकांत चर्या न तो नितांत खराब ही है और न नितांत उत्तम हो । वह जसी जिस दृष्टि से है उसका वर्णन ऊपर किया हो है । किंतु आधुनिक साधु-जगत में जो एकांत चर्या दिखाई दे रही है वह वैराग्य से नहीं किन्तु • स्वच्छंदवृत्तिजन्य मालुम होती है । और जहां स्वच्छंदता है वहां साधुता का नाश हो है । इसलिये आधुनिक परिस्थितियों को देखते हुए एकचर्या का प्रश्न बडाही चिन्तनीय एवं विवादग्रत्तसा गया है । स्वच्छंद को बढाने की रष्टिसे एकचर्या त्याज्य है किन्तु उसमें भी कोई अपवादरूप एकचर्या हो सकती है और भी वह आत्मसाधना के लिये की प्रशंसनीय भी है । सारांश यह है कि एकचर्या को · का माप उसके संयोगबलों एवं उसको परिस्थितियों के उपर निर्भर है । [ ११ ] ( चातुर्मास्य में ) जैनभिनुको एक स्थानमें अधिक से अधिक चार महीनों तक और अन्य ऋतुत्रों में एक मास तक ठहरने की श्राज्ञा है और जहां एक वार चौमासा किया हो वहां दो वर्षो का न्यवधान ( अन्तराल ) डालकर नीसरे वर्ष चौमासा किया जा सकता है और जहाँ एकमास तक निवास किया हो उससे दुगुना समय अन्य स्थलमें व्यतीत करने के बादही वहां फिर एक मास तक रहा जासकता है । जैनशास्त्रों की ऐसी आज्ञा है और संयमी साधु शास्त्रोक्त विधिके अनुसार ही चले । टिप्पणी- शारीरिक व्याधि अथवा " ऐसेही अन्य किसी अनिवार्य कारण
- से इस प्रमाण (अवधि) में थोडा बहुत अपवाद भी हो सकता है। एक स्थानमें अधिक समय तक रहने से आसक्ति किंवा रागबंधन हो जाता है .और ये दोनों बातें संयम के लिये घातक हैं । इसलिये संयमकी रक्षा के
'
..लिये ही यह आशा दो गई है. यह ध्यानमें रखना चाहिये ।
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इष्टता अथवा अनिष्टता
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::विविक्त चर्या
एक.मास तक अथवा चौमासा भर जिस स्थानमें :साधु रहा हो उस से दुगुना समय दूसरे स्थानों में व्यतीत करने के बाद ही उतनी अवधि के लिये फिर उस स्थानमें ठहर सकता है-ऐसी सूत्र की आशा है (देखो
आचारांग सूत्र) [१२] और भित्रु रात्रिके प्रथम अथवा अंतिम प्रहर में अपनी
आत्मा की अपने ही द्वारा आलोचना (निरीक्षण) करे कि आज मने क्या २ काम किये? क्या २ करना मुझे अभी बाकी है ? मैंने शक्य होने पर भी किसबातका पालन नहीं किया? दूसरे लोग मुझे कैसा मानते हैं (उच्च या नीच)? मेरी आत्मा दोपपान तो नहीं है ? मैं अपनी किन २ भूलों को अभी तक नहीं छोड सका? इत्यादि खूब ही संभालपूर्वक (सूक्ष्म दोप को भी छोडे विना) विचारकर भविष्यमें पुनः
संयम में वैसे दोप न लगाने का प्रयत्न करे। [१३] धैर्यवान् भिक्षु कदाचित् भूलसे भी किसी कार्य में मन, वचन
और काय संबंधी दोप कर बैठे तो उसी समय, लगाम खींचते ही जैसे उत्तम घोढा सुमार्ग पर आजाता है वैसे ही
अपने मनको वशमें रखकर सुमार्ग पर लगावे । [१४] धैर्यवान एवं जितेन्द्रिय जो साधु सदैव उपर्युक्त प्रकार का
अपना पाचरण रखते हैं उसी को ज्ञानिजन नरपुंगव (मनुष्यों में श्रेष्ठ) कहते हैं और वही वस्तुतः सच्चे संयम पूर्वक जीवन बिताता है।
टिप्पणी-योडे समय के लिये संयम : निभा लेना आसान बात है। जहां तक कठिनता, आपत्ति या ब्याकुलता नहीं होती तबतक अपनी वृत्ति को सुरक्षित रखना सरल है किंतु संकटों की अपार झडी वरसने पर भी अपने मन, वचन और कायकों अलग बनाये रखना बढी ही कठिन बात हैं।
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दशवकालिक सूत्र
मन, वचन और काय को एकवाक्यता संपनी जीवन का एक आवश्यक अंग है। [श सच्चे समाधिवंत पुरुषों को इन्द्रियों सहित इस आत्मा को
असन्मार्ग (कुमार्ग)में जानेले रोक लेना चाहिये क्योंकि यदि पारमा अरक्षित ( अवश ) हो जायगी तो जन्म जरामरणरूपी संसार में उसे चूमना पडेगा और यदि वशमें होगी तो वह सब दुःखों से डूंट कर मुक्ति प्राप्त कर सकेगी।
टिप्पणी-शासन के नियमों के प्राचीर न रहकर अकेले विचरण कारने अथवा गुरुकुलपात छोडकर एकाकी फिरने को विविक्षवर्या नहीं कहते और न यह एकच ही हैं। यह तो केवल अनेसांतच हो है।
जित एकवर्या में वृत्ति को पराधीनता एवं वचन्द का अतिरेक हो वसी एकचर्या से त्यागना विकास होने के बदले दुराचार हो को बुद्धि होने की संभावना है।
आत्मा द्वारा आत्मा के फपो का प्रदालन. अपनी ही शक्ति से विपत्तियों का विदारण और अपने को अपनाही अवलंपन बनाकर एकांत भालदमन करना ही आदर्श एकांत चर्या हैं ।
आत्मरक्षा का प्रदल उपासक या वत्सायन ऐती एकांत चर्चा का . पास्तविक रहत्य सनमार इन्द्रियों को जालता और मन के दुश्वेगळे आधीन
न होकर अपना केवल एक ही लक्ष्य रखता है और वीतराग भावको परा.....रया को प्राप्त होकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होता है और यही संयम तथा . सगना फल है। .
ऐसा मैं कहता है- ' इस प्रकार- विविक चर्या' नामक दूसरी चूलिका समाप्त हुई।
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क्या आप स्थानकवासी जैन हो ? " के ग्राहक हो ? यदि ग्राहक न हो तो शीघ्र ही ग्राहक बन जाइए ।
क्या आप " जैन प्रकाश
वार्षिक लवाजम मात्र रु. ३)
मासिक मात्र चार आने में भारत भर के स्थानकवासी समाज के समाचार आप को आपके घर पर पहुंचाता है । तदुपरांत सामाजिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रश्नों की विशद विचारणा, और मननपूर्वक लेख, जैन जगत्, देश-विदेश और उपयोगी चर्चा रजु करता है ।
' जैन प्रकाश ' श्री अखिल भारतवर्षीय श्वे० स्था० जैन कॉन्फरेन्स का मुख्य पत्र है ।
प्रत्येक स्थानकवासी जैन को 'जैन प्रकाश ' के ग्राहक अवश्य होना चाहिये | हिन्दी और गुजराती भाषा के परस्पर अभ्यास से दो प्रान्त का भेद मिटाने का महा प्रयास स्वरूप 'जैन प्रकाश को शीघ्र ही अपना लेना चीये
,
"
शीघ्र ही ग्राहक होने के लिये नाम लिखाओ
श्री जैन प्रकाश ऑफिस
९, भांगवाडी कालवादेवी, वम्बई २
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जैन तथा प्राकृत साहित्यके अभ्यासियोंके लिये पूर्व पुस्तक क्या आपके यहां पुस्तकालय, ग्रन्थभण्डार या शास्त्रभण्डार है ।
यदि है
तो
फिर
अवश्य मंगार्ले
श्री अर्धमागधी कोषं भाग ४
सम्पादकः शतावधानी पं. मुनिश्री रत्नचन्द्रजी महाराज प्रकाशकः - श्री अखिल भारतवर्षीय स्वे. स्था. जैन कान्फरेन्स । : पोस्टेज अलग
मूल्य ३० ) अर्धमागधी शब्दों का संस्कृत, गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी चार भाषाओं में स्पष्ट अर्थ बताया है । इतना ही नहीं किन्तु उस शब्द का शास्त्र में कहां कहां उल्लेख है तो भी बताया है। सुवर्ण में सुगन्धप्रसंगोचित शब्द की पूर्ण विशदता के लिये चारों भाग सुन्दर चित्रों से
संकृत हैं । पाश्चात्य विद्वानोंने तथा जैन साहित्य के अभ्यासी और पुरातत्व प्रेमियोंने इस महान ग्रन्थ की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है।
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प्रिन्सीपल वुलनर साहबने सुन्दर प्रस्तावना लिख कर अन्यको और भी उपयोगी बनाया है । यह ग्रन्थ जैन तथा प्राकृत साहित्य के शौखीनों की लायब्रेरी का प्रत्युत्तम शणगार है ।
इस अपूर्व ग्रन्थ को शीघ्र ही खरीद लेना जरूरी है । नहीं तो पछताना पडेगा । लिखें:
श्री श्वे. स्था. जैन कान्फरेन्स
६, भांगवाडी कालवादेवी मुंबई २.
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