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भाचारप्रणिधि
है। सारांश यह है कि दुःखोंके कारणीभूत कषायोंको जीते बिना संसार से मुक्ति किसी तरह नहीं मिल सकती। [१] (मितु साधक के विशिष्ट नियम) अपने से अधिक उत्तम
चारित्रवान् अर्थात् चारित्रवृद्ध अथवा ज्ञानवृद्ध गुरुजनों की विनय करे। अपने उच्च चारित्र को निश्चल रक्खे । संकट के समयमें भी वह अपने प्रणका त्याग न करे और कछुएकी तरह अपने समस्त अंगोपांगों (इंद्रियादिवर्ग) को वशमें रखकर तप एवं संयम की तरफ ही अपने पुरुषार्थ को लगाये रहे।
टिप्पणी-विनय करने से उन विशिष्ट महापुरुषों के गुणोंकी प्राप्ति होती है। उच्च चारित्रको निभाने से आत्मशक्ति तथा संकल्पबल वढते है। [४२] तथा ऐसा साधक निद्राका प्रेमी न बने । हंसी-मजाक करना
त्याग कर दे, किसीकी गुप्त बातोंमें रस न ले किन्तु (अपनी निवृत्ति के) समय को अभ्यास एवं चिन्तन में लगा रहे।
टिप्पणी-अधिक सोनेवाला साधक आलसी हो जाता है। निद्राका हेतु श्रम दूर करनेका ही है, आलस्य बढानेका नहीं। इसलिये यदि यह साधन के बदले शौकको वात हो जायगी तो इससे उसके संयममें हानि ही होगी। इसी तरह हंसी-मजाक की आदत से अपनी गंभीरताका नाश होता है, हृदय इतना छोटा हो जाता है कि उसमें छोटे बड़े किसी गुणका विकास हो ही नहीं सकता इसलिये मुनिके लिये हास्यको बडा दोष बताया है। किसीको गुप्त बात सुनने से निंदा, दुष्टभाव तथा पापकी तरफ अभिरुचि बढती है। इन्हीं कारणों से उक्त दोपोंको त्यागने का उपदेश दिया गया है। [४३] (यदि कदाचित् ध्यानमें मन न लगे तब क्या करना चाहिये)
श्रालस्यका सर्वथा त्याग करके तथा मन, वचन तथा काय इन तीनोंको एकाग्र करके इन तीनों के योगको निश्चल रूपसे (दस प्रकार के) श्रमणधर्ममें लगावे । सर्व प्रकारों से श्रमणधर्म में संलम योगी परम अर्थको प्राप्त होता है।