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दशवैकालिक सूत्र
[३८] क्रोधले प्रीतिका नाश होता है, मानते विनयगुण नष्ट हो जाता है, माया से मित्रताका और लोभ सर्व गुणोंका नाश करता है ।
टिप्पणी-जीवन्ते यदि कुछ अमृता निवास है तो वह न । विनत्र जीवनको रसिकता हैं, मित्रभाव यह जीवनका एक नोठा
है।
दन, विज्ञान और जीवन इन तीनों गुणों के नष्ट होने इस जीवनने हुन्दरता कहां रहो ? इन गुएकि विना तो सारा चेतन हो जहद हो जाता है। इसलिये इन दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करने के लिये प्रतिक्षरा सावधान रहना यही साधकका धर्म है और मनुष्य जीवनका परम कर्तव्य है ।
[३१] इसलिये साधक उपशम (समा) से क्रोधका नाश करे, मृदुता से अभिमान को जीते, सरल स्वभावले मायाचारको जीते और संतोष से लोभको जीते ।
टिप्पणी-तहनशीलता एक ऐसा कुछ है जिससे
दोनोंका क्रोष दूर हो जाता है । मृदुता अभिमान को तरल समाव होता है वहां (नायाचार) द भर भी ठहर नहीं सकता और ज्यो २ सन्तोष दत्ता जाता है, त्यो २ लोभका नारा होता है इसलिये से अधिक नाहाल्य तन्वोपका है । इन व्यवहारमें भी देखते हैं कि एक. इच्छाके जागृत होते हो चारों दोष बिना बुलाये हो वहाँ दौड़े चले आई और सन्तोष के आते ही वे सब वहां से भाग कते है । सारांश वह है कि सन्तोष हो दुगुका मूल और पतनका प्रदल निमित्त है। [४०] ( क्रोधादि ) कपायों से क्या हानि होती है ? क्रोध एवं मान कृपायोंको वशमें न रखनेसे तथा माया एवं लोभको बढ़ाने से ये चारों काली कपायें पुनर्जन्मरूपी वृत्तों के मूलोंको (जड़ों को ). हमेशा सिंचन करती रहती हैं ।
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धरना तथा दूसरे
गला देती है, जहां
टिप्पणी-" किं दुःखमूलं भव एव साथी" दुखका मूल कारण क्या? इतका उत्तर दिला संसार । बल-नरोकी परंपरा को हो तो संसार कहते