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प्राचारप्रणिधि
तो वे उत्तम गुण और वह अयोग्य धारक दोनों निंदित होते हैं। इसलिये प्रत्येक कार्य करनेके पहिले उपरोक्त वस्तुस्थितियोंका विचार एवं विवेक बनाये रखने के लिये महापुरुष सावधान करते हैं। [३६] (बहुत से साधक स्वयं शक्तिमान एवं साधनसंपन्न होने पर
भी धर्मरुचि प्राप्त नहीं कर सकते, उनको लक्ष्य करके महापुरुप कहते हैं कि) हे भव्य! जबतक बुढापे ने तुझे आकर नहीं घेरा, जबतक तेरे शरीरमें रोग की बाधा नहीं है, जबतक तेरी समस्त इन्द्रियों तथा अंग जर्जरित नहीं हुए हैं तबतक तुझे धर्मका आचरण जरूर २ करते रहना चाहिये।
टिप्पणी-शरीर धर्मसाधनका परम साधन है। यदि यह स्वस्थ होगा तो ही सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, संयम, इत्यादि गुणोंका पालन भलीभांति हो सकता है। बाल्यावस्थामें यह साधन परिपक्व नहीं होता और वृद्धावस्थामें अतिशय 'निर्बल होता है इस कारण इन दोनों अवस्थाओंमें इसके द्वारा धर्मध्यान नहीं हो पाता, इसलिये ग्रंथकार चेताते है कि पुरुषो! जवतक तुम तरुण एवं युवान हो अर्थात् तुम्हारा शरीर धर्मसाधन के योग्य है तबतक धर्मध्यान कर लो क्योंकि बादमें यह अमूल्य अवसर' फिर नहीं मिलेगा। [३५] (धर्मक्रिया करने से क्या लाभ है!) श्रात्महितका इच्छुक
साधक पापकी वृद्धि करनेवाले क्रोध, मान,,, माया और लोम
इन चार कपायों को एकदम छोड दें। ..
. टिप्पणी-जैन शासन यह मानता है कि धर्मक्रियामा परिणाम साक्षात् . "आत्मा पर पड़ता है अर्थात् आत्मनिष्ठाकी परीक्षा उसके बाय चिह्नोंसे नहीं 'किन्तु उसके आन्तरिक गुणोंसे होती है। 'जितने अंशमें दोपोंका नाश होता है उतने ही अंशोंमें गुणोंको वृद्धि होती है इसलिये यहां · पर सर्व दोपों के मूल स्वरूप ये चार दुर्गुण (कपायें) बताई गई हैं और प्रत्येक साधकको उन्हें दूर करनेका उपदेश दिया है।