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दशवैकालिक सूत्र
किंतु हितैषी गुरुजनों के समक्ष उसे प्रकट कर उसका प्रायश्चित्त ले और सदैव निष्पापकी कोशिश करता रहे।
[३३] और अपने प्राचार्य ( गुरुदेव ) महात्माका वचन शिरोधार्य कर उसे कार्यद्वारा पूर्ण करे ।
टिप्पणी- इस श्लोक में विनयिताका लक्षण बताया है । बहुतसे साधक महापुरुषों की आशाको वचनों द्वारा स्वीकार तो लेते है किंतु उसे आचरण में नहीं उतारते तो इससे यथार्थ लाभ कैसे हो सकता है ? इसी लिये आम्लाको वाणी और आचरण दोनोंने लानेका विधान किया है ।
[३४] ( प्रत्यक्षसिद्ध भोगोंको क्यों छोड़ देना चाहिये इसका उत्तर ) मनुष्य जीवनका श्रायुष्य बहुत छोटा (परिमित ) है और प्राप्त जीवन क्षणभंगुर है; मात्र श्रात्मसंसिद्धि (विकास) का मार्ग ही नित्य है ऐसा समझकर साधकको भोगोंसे निवृत्त हो जाना चाहिये ।
टिप्पणी-जव जीवन ही अनित्य है वहां लोगोंकी अनित्यता तो प्रत्यक्षसिद्ध ही है । अनित्यतामें आनन्द नहीं मिलता इसलिये तत्त्व साधक असते स्वयमेव विरत हो जाते हैं ।
[३५] इसलिये सत्यके शोधक साधकको अपना मनोबल, शारीरिक शक्ति, आरोग्य और श्रद्धाको क्षेत्र, काल के अनुसार योग्य रीति से धर्मर्मे संलग्न करना उचित है ।
टिप्पणी- सिंहनीका दूध बलिष्ठ है, अमृत बडी उत्तम वस्तु है किंतु यदि उनको रखनेके योग्य पात्र ही न हो तो उस दूधका क्या उपयोग है ? कुपात्रमें रखने से वह स्वयं खराव हो जाता है इतना ही नहीं प्रत्युत उस पात्रको भी खराब करता है । इसी तरह त्याग, प्रतिज्ञा, नियम ये सभी उत्तम गुण हैं फिर भी यदि उनके धारक पात्रकी योग्यायोग्यताका विचार न किया जाय