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दशवैकालिक सूत्र
सविस्तर वर्णन आगे के ' सुवाक्य शुद्धि' नामक ७ वें अध्ययन में आवेगा । असत्य न बोलने के साथ ही साथ साधकको असत्याचरण न करने का भी ध्यान रखना चाहिये क्यों कि इन दोनों के मूलस्वरूप चित्तवृत्ति में एक ही प्रकार का सत्य भाव छिपा रहता है । उनमें अन्तर केवल इतना हो . हैं कि एक का प्रदर्शन वाणी द्वारा होता है तो दूसरे का कार्यों द्वारा । इसलिये इन दोनों का समावेश एक ही पाप किया है ।
दम
[१३] क्यों कि इस लोक में सभी साधु पुरुषोंने मृपावाद ( श्रसत्य भाषण ) की निंदा की है । असत्यवादी पुरुष का कोई भी जीव विश्वास नहीं करता इस लिये असत्य का सर्वथा त्याग करना ही उचित है ।
[ १४+१५ ] ( नीसरा स्थान ) सजीव अथवा अजीव वस्तु को थोडे किंवा अधिक प्रमाण में, यहां तक कि दांत कुरेदने के एक तिनके जैसी वस्तु को भी, उस के मालिक की श्राज्ञा विना संयमी पुरुष स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों द्वारा ग्रहण नहीं कराते और न श्रदत्त ग्रहण करनेवाले की कभी अनुमोदना ही करते हैं ।
टिप्पणी- 'संयमी पुरुष' इसका आशय यहां अचौर्य महाव्रतधारी पुरुषसे है क्योंकि ऐसा पुरुष ही कुछ भी परिग्रह नहीं रखता । इसने तो अपनी मालिको की भी सर्व वस्तुओं- परिग्रहों को विश्व के चरणों में समर्पण कर दी होती हैं, इसी लिये वह सामान्य से सामान्य वस्तुको भी मालिक की आशा के विना ग्रहण नहीं कर सकता । संयमी गृहस्थ इस प्रकार का संपूर्ण त्याग नहीं कर सकता इसलिये उसके लिये अनधिकार किवा हक्करहित वस्तु के ग्रहण करने की मनाई को है । इसीको अचौर्यानुव्रत कहते है । प्राप्त वस्तु में भी संयम रखना और अपरिग्रह ( निर्ममत्व ) भावकी वृद्धि करना इन दोनोंका समावेश गृहस्थ साधक के पंचम व्रत में होता है ।