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दशवकालिक सूत्र
पूर्ण संयमी नहीं बताता, किन्तु ऐसा साधु तो अपने आपको 'साधु' पूर्ण संयमी-कहलवाता है । भावों की दृष्टि से विचार करने पर हमें मालूम होता है कि गृहस्थ के उस थोडेसे त्यागमें भी पूर्णश्रद्धा-सम्यक्व-को भावना छिपी हुई है तभी तो वह भगवान के कहे हुए मार्ग पर पूर्ण श्रद्धान रखकर अपनी शक्त्यनुसार उसका पालन करता है; किन्तु एक साधु तो त्याग को चरम सीमा पर पहुंच कर भी उस पदस्थ के योग्य त्याग के विरुद्ध परिग्रह इकट्ठा करने लगता है तो यह उसके लिये अतिचार नहीं किन्तु अनाचार है और स्वेच्छापूर्वक अनाचार के मूल में अश्रद्धा-मिथ्यात्व-भाव छिपा हुआ है । इसलिये आचार्योंने ऐसे मिथ्यात्वी साधु की अपेक्षा सम्यक्त्वी (सम्यग्दृष्टि) श्रावक को ऊंचा (श्रेष्ठ ) बताया है । [२०+२१] ( यहां कोई यह शंका करे कि साधु वस्त्र, पान इत्यादि
वस्तुएं अपने पास रखते हैं तो क्या ये वस्तुएं संग्रह या परिग्रह नहीं हैं ? उसका समाधान इस गाथा में किया जाता हैं :) संयमी पुरुप संयम के निर्वाह के लिये जो कुछ भी वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपुंछन, रजोहरण आदि संयम के उपकरण धारण करता अथवा पहिनता है उसको जगत के जीवों के परम रक्षक ज्ञातपुत्र भगवान महावीर देव ने परिग्रह नहीं बताया, किन्तु उस में संयम धर्म कहा है । यदि साधु उन वस्त्रादि उपकरणों में ममत्व भाव (मूछी भाव) करेगा तो ही वे उसके लिये परिग्रह है ऐसा ऋपीश्वर भगवान ने कहा है ।
टिप्पणी-संयम के साधनों को निरासक्त भाव से भोगना इस में धर्म है क्योंकि ये संयम की रक्षा, वृद्धि एवं निर्वाह के कारण है किन्तु जब ये साधन ही साधन न रहकर उल्टे बंधनरूप हो जाते हैं तभी वे त्याज्य हो जाते हैं । इसीलिये, यदि सच पूंछा जाय तो संयम न तो, वस्त्र, धारण करने में है और न वन त्याग में, किन्तु भावना में हैं। इसी रहस्य को यहां समझाया है । वस्त्र तथा समस्त साधनोंका त्यागी भी यदि आसक्त है