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धमार्थकामाध्ययन
अर्थात त्यागभाव का उसमें विकास नहीं हुआ है तो वह तात्त्विक दृष्टि से संयमी (साधु ) नहीं है।
जैन धर्म का त्याग आत्मा से अधिक संबंध रखता है। केवल वाण त्याग को शास्त्रकारों ने मुख्यता नहीं दी है । यदि एसी मुख्यता दी जायगी तो वस्तुत: उसका कोई महत्त्व ही न रहेगा क्योंकि ऐसा मानने से संसार के समस्त पशु, रास्ते में नंगे पडे रहनेवाले मितुक आदि सभी परम संयमी कहलाने लगेंगे क्योंकि उनके पास वाह्य रूप में तो किसी भी प्रकार का परिग्रह है ही नहीं । फिर वे साधु क्यों नहीं ? इसलिये अन्त में यही मानना पडेगा कि त्याग तो वही सच्चा है जो आत्मा के अन्तस्तल में से गहरे वैराग्य के प्रतिफल खरूप पैदा हुआ हो । इसी त्याग को जैन धर्म में ' त्याग' कहा है। [२२] इसलिये सब वस्तुओं ( वस्त्र, पात्र श्रादि उपधि) तथा
संयम के उपकरणों के संरक्षण करने में अथवा उनको रखने में ज्ञानी पुरुप ममत्व नहीं करते हैं। और तो क्या, अपने शरीर पर भी वे ममत्व नहीं रखते ।
टिप्पणी-संयमी पुरुष देहभान को भूल जाने की क्रियाएं सदा करते हैं । जिस शरीर का संबंध जन्म से लेकर मरणपर्यंत है और जो अशानजन्य काँसे
आत्मा के साथ एक रुप हो गया है ऐसे शरीर पर भी जो ममत्वभाव नहीं रखता है अथवा देहभान भूल जाने की चेष्टा करता रहता है ऐसा चरम वैराग्यवान साधु वस्त्र, पात्र, कंवल आदि पर कैसे मोह कर सकता है ? और यदि इन वस्तुओं पर उसको मोह हो तो उसे संयमी कैसे कहा जाय ? [२३] (कट्टा व्रत) सभी ज्ञानी-पुरुषों ने कहा है कि अहो! साधु
पुरुषों के लिये कैसा यह नित्य तप है कि जो जीवनपर्यन्त संयम निर्वाह के लिये उन्हें मिक्षावृत्ति करनी होती है और एक भक्त अर्थात् केवल दिवस में ही आहार ग्रहण कर रहना